Menu

गुरुवार, 30 जून 2011

उसका सफ़र (कहानी) --- ललित शर्मा

सांझ हो रही थी, कोई साढे पांच बज रहे थे। पश्चिम दिशा में घनघोर काले बादल छाने के कारण पानी बरसने का औसर दिख रहा है। काले बादल क्षितिज से मिले, बुंदा-बांदी शुरु हो गई। जिस सड़क पर हूँ, वह दक्षिण की ओर जा रही है। सोच रहा हूँ कि बरसात पश्चिम में हो रही है, मुझे तो दक्षिण की तरफ़ जाना है, होने दो बरसात। बाईक की गति और बढाता हूँ। रास्ता सुनसान, दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा। ऐसे में बाईक पंचर हो जाए या बंद हो जाए तो क्या होगा? धकेल कर 15 किलो मीटर तक तो जाना मुश्किल है। बड़ी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। इसी उहापोह में निरंतर चला जा रहा हूँ। आसमान में बिजली चमकने लगी, रह रह कर गड़गड़ाहट हो रही है। बाईक पुरी गति से चलाकर मंजिल तक पहुंचने की जल्दी ने मुझे अधीर कर दिया, मंजिल तो 100 किलो मीटर दूर है, मेरे कोई पंख नहीं, जो उड़ कर पहुंच जाऊंगा, सड़क पर अपनी क्षमता के हिसाब से ही चलकर जाना है।

दो-चार छींटे गिरे, मैने आसमान की तरफ़ देखा, बादल छाए हुए, लेकिन बादल काले नहीं, धुंधिया रंग के हैं। लगा कि आगे का रास्ता तय करना आसान न होगा। काले बादल जब आसमान में छा कर गरजें और बिजली चमकने लगे हवा के साथ, तो समझ जाना चाहिए कि बरसात अधिक देर तक नहीं होगी। 5-10 मिनट की बौछारें आएगीं और बरस कर चली जाएगीं, फ़िर आसमान साफ़ हो जाएगा। परन्तु धुंधिया रंग के बादल जब आएं तथा बरसात शुरु हो तो अनुमान लगाना कठिन है, कितनी देर तक बरसात होगी? दो-चार घंटे या दो-चार दिन की झड़ी भी हो जाए, कोई बड़ी बात नहीं। आसमान का नजारा कुछ ऐसा ही दिखाई देने लगा। रास्ते में एक गाड़ीवान गाड़ी हांकता हुआ मिला। खेत से घर की ओर जाने की जल्दी दिख रही थी,  गाड़ी हांकते हुए मोबाईल से बात करते हुए शायद कह रहा होगा कि-"खेत से चल पड़ा हूँ, घर के लिए, बीज खेत में डालते ही बरसात होने लगी। बीज खेत में जम जाएं, खुशी की बात होगी। चिरई-चुरगुन के बचने से बीज जल्दी ही उग आएगें। मैं सर्रर्रर्रर्रर्र से उसके बगल से निकल जाता हूँ। वह अपने रस्ते मैं अपने रस्ते।

अंधेरा होने लगा और बारिश शुरु हो जाती है। बाईक की स्पीड में पानी की मोटी-मोटी बूंदे चेहरे पर वार करने लगी, एक हाथ से चेहरा ढक कर उसे बचाने की चेष्टा करता हूँ, बारिश की बूंदे भीगा रही हैं। चलते-चलते कहीं पनाह लेने की जगह तलाश करता हूँ, सड़क के दोनों ओर पेड़ ही पेड़, कहीं कोई मकान या छप्पर भी नहीं दिखता। भीगते हुए चलना जारी है, तभी दांई तरफ़ पेड़ों के बीच सफ़ेद सी छाया नजर आई, समीप पहुंचने पर देखा वह जंगल विभाग की चौकी थी। मिल गयी पनाह, मैने बाईक उधर मोड़ ली, कुछ देर रुकुं तो चलुं। बाईक स्टैंड पर लगाकर भीतर भागा। यहाँ भी कोई नहीं, 8X8 की सीमेट चद्दर से छाई हुई झोपड़ी के दरवाजे खिड़की सब गायब हो चुके है। कोने में गंदगी का ढेर और उस पर किंगफ़िशर बीयर का टिन का डिब्बा। जैसे कोई उसे अभी ही खाली कर फ़ेंक गया हो। बरसात बढ गयी, मुसलाधार पानी बरसने लगा, खिड़की से सामने खुले में देखता हूँ धरती पर पानी की सफ़ेद चादर बिछ गयी। आधें घंटे की बारिश में गड्ढे लबालब भर गए। सड़क की पाई में पानी बहने से नालियाँ शुरु हो चुकी हैं। आसमान की तरफ़ देखता हूँ, कहीं बरसात रुकने के कुछ आसार नजर आएं, लेकिन निराश ही होना पड़ा। सहसा मोबाईल ने बजकर ध्यान अपनी ओर खींचा, नया नम्बर, आवाज ही सुनाई नहीं दी, कौन है? दोनों मोबाईल पानी में भीग कर धराशाई हो गए

तभी एक बाईक आकर रुकी, दो लोग तेजी से दौड़कर झोंपड़ी में घुसे। मुझे देखकर उनके चेहरे के भाव बदले, एक के हाथ में बीयर की दो बोतलें थी, उसने गमछे में छिपाने का  प्रयास किया, मुझे पुलिसवाला समझ कर। लग रहा था कि कुछ देर में रात हो जाएगी। बरसात रुकने का नाम ही नहीं ले रही। वे भी कोने में चुप खड़े हैं, मै भी दरवाजे पर मौन उन्हें देख रहा हूँ। उनसे आँखे मिलाना चाहता हूँ, परन्तु वे मुझसे बचना चाह रहे थे, आमने-सामने मुंह किए अनबोल। सांप और नेवले वाली स्थिति थी, पहले हमला कौन करे। दोनो डटे हुए थे मैदान में, खिड़की से झांकता हूँ, बगल में बांस के झुंड में बड़ी सारी बांबी दिखाई दी और उसके नजदीक से बहती नाली, थोड़ी देर में बांबी को भी अपनी घेरे में ले लेगी। फ़िर उसमें से सांप निकल आएगें, उन्हे भी तो बारिश से बचने के लिए शरण चाहिए। यह खाली कोठरी उनकी शरणस्थली ही तो है, जिसमें हमने पनाह ली। सोच रहा हूँ बारिश रुकने वाली नहीं और कोठरी के मालिक आ गए तो इतनी जगह नहीं कि सभी एक साथ इंतजार कर सकें। इस स्थिति में बरसते पानी में ही चलना श्रेय कर लगा। भीतर से आवाज आई, कुछ देर रुक कर देख लो, बारिश कम हो तो चलो। मैंने कहा-लम्बा सफ़र है, अभी ही चलूँ  तो बात बने। आखिर चल पड़ता हूँ बरसते पानी में, जो होगा देखा जाएगा।

बाईक स्टार्ट कर चला, थोडी दूर जाने पर बंद हो गई, फ़िर किक लगाई तो आठ-दस किक में स्टार्ट हुई, थोड़ी दूर चल कर फ़िर बंद हो गयी। अब उमड़-घुमड़ कर आशंकाओं के बादल भी छाने लगे, पानी बरस कर सड़क पर भी बहने लगा, अंदाजा लगाया कि साईड स्टैंड पर एक घंटे बाईक खड़े रहने से प्लग में पानी भर गया होगा। लगातार किक लगाने पर बाईक स्टार्ट हुई, चल पड़ा, पानी से सराबोर हो चुका हूँ। जब घर से चला था तो बारिश की आशंका थी, परन्तु आते हुए बख्श दिया था इसने। चलते-चलते रुमाल से मुंह पोंछता हूँ, रुमाल भी गीला है। दचाक-दचाकSSSS- बाईक के   चक्के गड्ढे में चले गए, सड़क पर पानी के कारण गड्ढे दिखाई नहीं दिए। गड्ढे में बाईक कूदी, तभी बिजली चमकी, जोर की गड़गड़ाहट के साथ कुछ देर तक चिंगारियाँ आकाश में दिखाई दी। मेरा ध्यान कहाँ है? सड़क पर या बिजलियों पर। दोनो ही देख रहा हूँ। फ़िर बिजली कड़क कर धरती पर चिंगारियाँ बरसाने लगी, बिजली कहीं आसपास ही गिरी, मुझे रुकना नहीं है, किसी पेड़ के नीचे रुक गया तो बिजली की चपेट में आ सकता हुँ। फ़िर इस सुनसान में कौन मेरी सुध लेने लगा बरसते पानी में। जब जीव जन्तु एवं जानवर तक जान बचाकर सुरक्षित जगह पर जाने की फ़िराक में लगे हैं। इस स्थिति में चलते रहना ही ठीक है, मैंने कभी सुना नहीं कि चलती हुई गाड़ी पर बिजली गिरी। पेड के नीचे एवं मैदान में खड़े लोगों पर बिजली गिरते ही रहती है। चलना ही ठीक है, चलते ही रहता हूँ।

इसी सोच के दरमियान सड़क पर एक बड़ा सांप दिखाई दिया, सड़क पार करते हुए, मैं ब्रेक भी नहीं लगा सकता। दोनो पैर उपर उठा लेता हूँ और बाईक निकल गई, पीछे मुड़कर देखने का वक्त नहीं, वह दब गया कि बच गया। बाईक के टायर से भी लिपट सकता था। रीढ में सिरहन सी भर गई, सिर को झटकारता हुआ चलते रहता हूँ। वादा किया मैने हर हालत में पहुंचने का। वादा करके तोड़ना मेरी फ़ितरत नहीं । हां का अर्थ हां ही माना, चाहे उसके लिए कितना भी कष्ट उठाना पड़े। किसी के किया गया वादा कभी तोड़ा नहीं , अगर न कह दिया तो फ़िर किया भी नहीं। सिर पर फ़ालतु बोझ लेकर चलने वालों में से नहीं, बोझा इतना ही रखा, जितना संभाल सकूं । घटाटोप अंधेरा और बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही। मानसून की बारिश के पहले ही  दिन  ठंडी हवा के कारण कंपकंपी चढकर दांत बजने लगे, एक हाथ को समेटे हुए गरम रखने की कोशिश करने लगा। एक हाथ एक्सीलेटर पर है। दोनो हाथ अगर जेब में होते तो थोड़ी ठंड से राहत मिल सकती थी। असंभव! बाईक कैसे चलेगी? किसी तरह मुख्य मार्ग तक पहुंच जाऊं तो राहत मिले। वहाँ गाड़ी बंद होने के बाद भी जाने के लिए साधन मिल जाएगें। यहाँ सांप बिच्छु के अलावा कुछ नहीं।

मैदान में तेंदू की छोटी-छोटी झाड़ियाँ भी बारिश की मार झेल रही हैं, उसके पत्तों ने एक बार भी झुरझुरी नहीं ली। क्या उसे बरसाती ठंड नहीं लगती होगी? उसके और भी साथी तो हैं, कष्ट सहने के लिए। मैं तो अकेला हूँ, कहते हैं बांटने से कष्ट आधा और खुशी दुगनी हो जाती है। दुनिया में सभी अकेले आए और अकेले ही गए। नियति को समझो और चलते रहो, एक दिन पहुंच ही जाओगे मंजिल तक। आज बहुत बुरा फ़ंस गया, वादा करना भी चाहिए या नहीं? कुछ वादे ऐसे होते हैं जो मनुष्य के जीवन मरण से जुड़े होते हैं,  उन्हे तोड़ा नहीं जा सकता। यह ख्याल क्यों आया मेरे मन में, जब वादा करके तोड़ना मेरी फ़ितरत में ही नहीं। सामने से कैप्शुल आ गया, उसके हार्न की आवाज सुनकर चौंकता हुँ, गाड़ी चलाते हुए ख्यालों में खोना ठीक नहीं। हां! ये तो मुझे मालुम है, पर जब मैं अकेला होता हूँ तो कोई तो आ जाता है, बतियाने के लिए, सफ़र का साथी बनकर। चाहे खुदी ही क्यों न हो। सामने लिंक रोड़ दिखाई दिया, कानबाई जा रही है।

लो मैं पहुंच गया यहाँ तक, मेरा सफ़र जारी है, पर आज तुमने सफ़र पूरा  कर लिया। उस दिन जब तुमने कहा था-"मेरे मरने के वक्त तुझे जरुर आना होगा, कहीं ऐसा न हो मैं मर जाऊँ और तेरी बाट देखती रहूँ। भूलना नहीं! कोई बहाना नहीं चलेगा, तेरा इंतजार करुंगी। अरे बुआ हूँ तेरी, माँ-बाप नहीं, भाई-भाभी नहीं तो क्या हुआ, तू तो है मेरे खानदान का। तेरे हाथों से शाल ओढने के बाद ही जाउंगी अपने घर से उसके घर, क्यों आएगा कि नहीं, जवाब दे मुझे?" मैने उसका हाथ अपने हाथ में लिया और वादा किया- "जरुर आऊंगा बुआ, मैं जरुर आऊंगा, चाहे किसी भी परिस्थिति में रहूँ, तेरे लिए सुंदर कढाई वाला शाल लाऊंगा।" मैने अपना वादा नहीं तोड़ा, पहुंच ही गया वक्त पर।


NH-30 सड़क गंगा की सैर

मंगलवार, 28 जून 2011

सास-बहु गैस-चुल्हा विमर्श -- ललित शर्मा

गैस सिलेंडर के मुल्य में वृद्धि की खबर सुनकर सभी तरफ़ हाय-तौबा मच गया। अरे 2-4 रुपए बढाने की बात हो तो चल भी जाए, परन्तु यहां 50 रुपए बढा दिए गए। मोहल्ले की औरतों में भी गंभीर चर्चा चल पड़ी।  वे सरकार को लानत-मलानत भेजने लगी।चुन्नु की मम्मी कह रही थी कि-"इससे अच्छी तो बाजपेयी की सरकार थी, जब चाहो तब सिलेंडर मिल जाता था और उसने दाम भी नहीं बढाए। इस सरकार के आते ही मुए मंत्रियों की नजर सबसे पहले गैसे सिलेंडर पर ही पड़ी।" रुप्पु की मम्मी बोली-"हाँ! इनको मुफ़्त की गैस मिल जाती है जलाने के लिए, क्या पता चले इन्हें घर-गृहस्थी चलाना कितना मुस्किल है, इस मंहगाई के जमाने में। मंहगाई दिनों-दिन बढते जा रही है। लोग त्रस्त हो गए हैं इस मुई सरकार से। हमने तो ये सोच कर वोट नहीं दिया था कि हमारा ही गला कटेगा?"

"हम औरतों को सुनता ही कौन है? जब मनमोहन सिंह ने सरकार संभाली थी तो इनकी पत्नी ने टीवी पे कहा  कि वे गैस सिलेंडर का रेट कम करने के लिए कहेगीं उनसे। इसका फ़ल यह मिला की रेट कम करने के बजाय बढा दिया। एक तरफ़ तो आधी आबादी को बराबरी का दर्जा देने के की बात कहते हैं दुसरी तरफ़ बीबी की ही नहीं सुनते, क्या खाक आधी आबादी की सुनेगें।"-चुन्नु की मम्मी बोली। तभी कामवाली सहोदरा बीच में कूद पड़ी-"बहुत मंहगाई हो गयी है बीबी जी, अब मेरे से 500 सौ रुपए में झाड़ू पोंछा नहीं होता, 200 बढाओ तो ही बात बने। गैस सिलेंडर तो मुझे भी लाना पड़ता है, रेट तो सभी के लिए बढा है।" सहोदरा के अल्टीमेटम ने रुप्पु की मम्मी के पेशानी पर बल ला दिए। एक बार दिल्ली से किसी चीज का रेट बढता है तो यहाँ दूधवाला, कामवाली, धोबी, दुकानदार, सब्जीवाले, मोह्ल्ले का गोरखा सभी अपनी मजदूरी बढा देते हैं और रुप्पु के पापा की तनख्वाह तो नहीं बढती। गुस्से में बोली -" लगता है अब तो चूल्हा ही जलाना पड़ेगा।"

इनकी बातें परछी में खाट पर बैठे-बैठे प्रभाती दादी सुन रही थी, बोली -" बहु तु जुग-जुग जीए, पहली बार दिमाग से मेरे मन की बात की है तुने। अरे मैं बरसों से झीख रही हूँ कि मुझे गैस की रोटी नहीं चाहिए, खाने से पेट में अफ़ारा हो जाता है, गैस बन जाती है। रात भर नींद नहीं आती। चुल्हे की रोटी बनाए तो कुछ बात बने। भला मनमोहन सिंह का, हम बुढों का ख्याल तो किया, गैस सिलेंडर का रेट बढा कर। मैं तो कहती हूँ कि 1000 रुपए करदे, हमें चुल्हे की रोटी तो खाने मिलेगी। फ़िर दिन भर खतरा लगा रहता है कि कब सिलेंडर फ़ूट जाए और घर तबाह हो जाए। देखा नहीं क्या तुने,पप्पी की शादी में किस तरह सिलेंडर में आग लग गयी थी, पूरे मोहल्ले में हड़कम्प मच गया था। मुझे तो लगा कि मर गयी तो उपर जाउंगी, बच गयी तो जेल जाना होगा। अच्छा हो इस मुए सिलेंडर से पीछा छूट जाए।"

इतना सुनते ही रुप्पु की मम्मी बिदक गई-" आपको तो बस इंतजार रहता है जली कटी सुनाने का। इधर सिलेंडर का रेट बढ गया है और आपको खुशी हो रही है। मैं नहीं जलाने वाली चूल्हा, चाहे कुछ भी हो जाए, कह देना अपने बेटे से। सिलेंडर का रेट भी बढ गया और हमें ही बद्दुआ दे रही हो कि रेट 1000 हो जाए। चूल्हा जलाने के लिए लकड़ियाँ कहाँ से आएगीं? कौन चूल्हे में अपना मुंह फ़ूंकेगा? वो जमाना निकल गया, जब देखो तक खिचड़ी में अपनी ही चम्मच घुमाते रहती हो। हमेशा रायता फ़ैलाने को तैयार रहती हो।

प्रभाती ताई को रुप्पु की मम्मी की बातें तीर सी लगी-"मैं तो मनमोहन सिंह को ही आशीर्वाद दूंगी, उसने तुम्हारे जैसी बहुओं को सीधा करने का सही इंतजाम किया है जो दिन भर खाट तोड़ते रहती है, तुम्हारी उमर में तो सबके उठने के पहले 5 किलो अनाज पीस लेती थी। फ़िर गाय भैंस का काम अलग से। तुम लोग करती क्या हो, अगर हाथ से कुछ करना पड़ जाए तो जान पे बन आती है, कभी ब्लेड प्रेसर बढता है और कभी कुछ, देखो मुझे 80 बरस की हो गयी, कोई अलेड बलेड नही है। मैं तो कहती हूँ कि सिलेंडर का रेट इतना हो जाए कि लोग खरीद ही नहीं सकें। हमारे जैसे बुढों को चूल्हे के खाने का तो सुख मिलेगा।

रामकली दादी ने भी सुर में सुर मिलाया-" जब से गैस घर में घुसी है तब से हमेशा पेट में अफ़ारा बना रहता है, गैस हो जाती है, बहु चुल्हे पे रोटी सेक दे कहती हूँ तो सुनती ही नहीं है। ठंड के दिनों में हम बूढों की मुसीबत बढ जाती है, पहले चूल्हे से घर गरम रहता था, अलाव, पूर, गोरसी जला लेते थे, सेकाई भी हो जाती थी, नींद भी आ जाती थी। यही एक सहारा था बुढों का वह भी गैस ने खतम कर दिया। जिसको भी देखो वही सुगर ब्लेड का मरीज हो गया है। दिन भर गोलियां खाते रहते हैं। मैने तो कभी जिन्दगी भर में सुई नहीं लगवाई। चूल्हे के खाने के स्वाद का मुकाबला गैस क्या करेगी? हमारी तरफ़ से तो अच्छा हुआ जो गैस का रेट बढ गया। भला हो सरकार का। चुन्नु और रुप्पु की मम्मियों ने देखा कि मामला बढ रहा है, गुजरे जमाने के रेड़ियो बंद नहीं होने वाले, दोनो अपने-अपने घर की ओर खिसक गयी-"गैस का रेट बढा कर मनमोहन सिंह ने सही नहीं किया, हमारा वोट तो अब भूल जाए, उसे मिलने से रहा..........। गैस का रेट क्या बढा, अब घर चुल्हा और गैस वाली दो पार्टियों में बंट चुका था 

सोमवार, 27 जून 2011

फ़िल्मी चक्कर --- ललित शर्मा

जय संतोषी माँ फ़िल्म का पोस्टर
फ़िल्मों का भी एक जमाना था, जब घर भर के लोग बैलगाड़ी में चढ कर फ़िल्म देखने गांव से शहर जाते थे। मेला-ठेला में एवं कस्बे में टुरिंग टाकिज आते थे, जो कनात से मैदान घेर कर फ़िल्म दिखाने की व्यवस्था करते थे। एक प्रोजेक्टर रात के दो शो दिखाया करता था। मैने पहली फ़िल्म टाकिज में संत ज्ञानेश्वर देखी थी। इस तरह की धार्मिक फ़िल्में गांव देहात में चला करती थी। मुझे याद है रायपुर के शारदा टाकिज में हम लोग सपरिवार जय संतोषी माँ फ़िल्म देखने गए थे। वहाँ लोग परदे पर ही सिक्के फ़ेंकने लग जाते थे। इनके लिए अलग से दान पेटी की व्यवस्था की गयी थी। फ़िल्म शुरु होने से पहले आरती की जाती थी। तब फ़िल्म शुरु होती थी। जब "मत रो मत रो आज राधिके सुन ले बात हमारी" गीत बजने लगता तो महिलाएं रोने लगती कि छोटी बहु कितनी तकलीफ़ सह रही है और जेठानियाँ उसके साथ कपट व्यवहार कर रही हैं। कुछ ऐसी दास्तान तब के सिनेमा की थी। फ़िल्में सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली मनाया करती थी।

टाकिज में पोस्टर देखते दर्शक
स्कूल-कालेज में पढने वाले विद्यार्थी फ़िल्म का पहला शो देखने के लिए रात से ही टाकिज की टिकिट खिड़की में लाईन लगा लेते थे। टिकिट ब्लेक हुआ करती थी। फ़िल्मों के प्रति लोगों को दीवानगी के किस्से सुने जाते थे। जब भी कोई फ़िल्म नई फ़िल्म आती थी तो उसकी कहानी की किताब गानों के साथ मिला करती थी। हम गाँव से फ़िल्म देखने नहीं जा पाते थे तो उन किताबों को पढ कर फ़िल्म की कहानी का पता लगा लिए करते थे। जब कोई दोस्त फ़िल्म देख कर आता और उसके किस्से सुनाता तो हम भी उसकी कहानी सुना कर रौब गांठ लिया करते थे। आडियो कैसेट पर भी फ़िल्मों की पूरी कहानी दो-तीन कैसेटों में मिल जाती थी, उसे टेपरिकार्डर पर चला कर सुना जाता था, जैसे टाकिज में बैठ कर फ़िल्म देख रहे हों, वो भी एक जमाना था।

डबल धमाल का एक सीन
कालांतर में वीडियो कैसेट वी सी आर का जमाना आ गया। 100-200 रुपए में वी सी आर किराए पर लाकर रात भर फ़िल्में देखी जाती थी। गाँव में परिवारिक उत्सव के समय नाच गाना बन्द हो गया और छट्ठी त्यौहार आदि में वीडियो का चलन हो गया। 21 इंच के रंगीन टीवी पर गांव भर के लोग रात भर बैठ कर फ़िल्म देखने का आनंद लेते थे। तालाब की पार में बैठ कर गुड़ाखु घिसते हुए नौजवान फ़िल्मों का रस लेते घंटो बतियाते रहते थे। टाकिज तक जाना कम हो गया था। वीडियो ने टाकिज के दर्शकों का अपहरण कर लिया, रही सही कसर टीवी ने पुरी कर दी। दुरदर्शन भी सप्ताह में दो फ़िल्मे मुफ़्त दिखाने लगा था। टाकिज के दर्शक कम होते गए। शहर की कई टाकिजें बंद हो गयी और उसकी जगह बड़े-बड़े व्यावसायिक काम्पलेक्स खुल गए। 

शिव टाकिज बिलासपुर छत्तीसगढ
वी सी आर की जगह अब सीडी ने ले ली, 1000 रुपए का सीडी प्लेयर और 10 रुपए की कैसेट ने टाकिजों के बारह बजा दिए। घर-घर में कम्पयुटर हो गए, नेट से फ़िल्म डाउन लोड करने की सुविधा मिल गयी। सेटेलाईट टीवी चैनलों ने दिन में 50 से 100 फ़िल्में दिखाने शुरु कर दी, इस तरह टाकिज के ताबूत में आखिरी कील ठोंकने का काम चैनल वालों ने कर दिया। मुझे बरसों हो गए टाकिज में फ़िल्म देखे, अंतिम फ़िल्म पिछले जुलाई में नागपुर में "रावण" देखी थी। शुक्रवार को मैने मॉल के आईनोक्स में फ़िल्म देखी, भेजा फ़्राई। इस फ़िल्म ने भेजा फ़्राई ही कर दिया। आईनोक्स में लगभग 200 से अधिक ही सीटे होगीं। टिकिट दो आदमियों की 260 रुपए और 180 रुपए स्नेक्स के कम्बो पैक के दिए। कुल मिलाकर 440 रुपए में दो लोग फ़िल्म देखने लगे। जब अंदर गए तो गेट कीपर ने हमारे सीट नम्बर पर बिठाया, वहां एक जोड़ा पहले से बैठा था। पूरा टाकिज खाली था। फ़िल्म शुरु होने पर एक जोड़ा और आ गया। टाकिज में 6 लोगों ने बैठ कर एक शो देखा।

शिव टाकिज में दर्शकों की भी
इधर खबर मिली की धमाल टु याने डबल धमाल भी रिलीज हुई है। इस फ़िल्म में संजय दत्त, मल्लिका शेरावत, कंगना, सईद जाफ़री, अरशद वारसी आदि कलाकार है। मैने जाना कि फ़िल्म की कहानी चलने के लायक है। परसों शाम को 6 बजे का शो बिलासपुर के शिव टाकिज में देखने के लिए बड़ी संख्या में दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ी, जैसे कोई मनमोहन सिंह ने गैस सिलेंडर का रेट 100-200 कम दिया हो। बताते हैं कि टिकिट खिड़की में 50 मीटर लम्बी लाईन लगी थी। इस भीड़ को देखने के बाद लगता है कि टाकिजों के दिन बहुर रहे हैं। लगता है वर्तमान में युवाओं का रुझान टाकिजों की तरफ़ बढ रहा है। टाकिजों का व्यवसाय मंदी के दौर से बाहर निकल रहा है। वैसे भी अधिकांश टाकिजों में प्रोजेक्टर और फ़िल्म रोल का काम खत्म हो गया है। शो के समय सीधे सेटेलाईट से ही फ़िल्म दिखाई जाती है। अगर यही हालात रहे तो टाकिजों का स्वर्णिम युग लौट सकता है।

चित्र - बिलासपुरिहा मित्र के सौजन्य से
NH-30 सड़क गंगा की सैर

शुक्रवार, 24 जून 2011

मन्नु और नरायन ---- ललित शर्मा

शाम के समय केमिस्ट के यहाँ दवाई लेने गया, उसके दवाई निकालते थे बरसात शुरु हो चुकी थी। मैं उसकी दुकान के बरामदे में बैठ गया। कुछ लोग भीगने से बचने के लिए और आ गए।  तभी सामने से मन्नु ने प्रवेश किया। मुझे देख कर मुस्कुराया और एक तरफ़ खड़ा हो गया। सफ़ारी के साथ बूट पहन रखे थे, मतलब टीप-टाप में था। मुट्ठी में चने ले रखे थे, जिन्हे एक-एक करके चबाते जा रहा था, थोड़ी-थोड़ी देर में मुंह बना रहा था। मैं कुर्सी पर बैठे-बैठे उसकी हरकतें देख रहा था। तभी सामने से एक आदमी आया, मन्नु ने उसकी तरफ़ देखकर मुंह बनाया और मुंह से एक भद्दी सी गाली निकाली मादर........। फ़िर से वह चने चबाने लग गया। 10 मिनट में उसने 10 बार जगह बदली होगी और 50 बार भाव-भंगिमाएं बदली होगी। फ़िर उसके सामने एक लड़की आई, उसे भी देखकर मन्नु ने बुरा मुंह बनाया, दांत किटकिटाए और गाली दी। वह गाली भी इतनी आवाज में देता था कि उसके नजदीक वाला ही सुन पाए। जोर से उसने गाली नहीं दी। मुंह चलाता रहा।

मन्नु एक ड्रायवर है, लोग कहते हैं कि उसका दिमाग खिसक गया है। उट-पटांग हरकतें करता रहता है, उसके बीवी-बच्चे हैं। तीन साल पहले उसने मैनपुर के पास गाड़ी पलटा दी थी, जिसे उठाने के लिए मुझे जाना पड़ा था। उसके बाद से एक दो-बार मुझे और मिला होगा। बरसात होने के कारण मैं बैठा हुआ उसकी हरकतें देख रहा था और सोच रहा था कि क्या यह सचमुच में पागल है? या पागल होने का ढोंग कर रहा है? मुझे शक इसलिए हुआ कि उसने मुझे देखकर मुंह क्यों नहीं बनाया और जो गालियां दुसरों को दे रहा था मुझे क्यों नहीं दी। पागल के लिए तो सब बराबर हैं। अगर उसका दिमाच चल गया होता तो वह सबके साथ एक जैसा ही व्यवहार करता, उसने नहीं किया। कपड़े भी सलीके से ही पहन रखे थे। कभी वह हाथ बांध लेता, तो कभी कमर पर दोनो हाथ रख कर खड़ा होता, कभी सर खुजाता। मतलब मुझे समय व्यतीत करने का साधन मिल गया था।

अचानक उसने थरथरी ली, गर्दन झटकाई, और अपने से बात करने लगा। बड़बड़ाता ही जा रहा था। मैं उसकी बातें सुनने का प्रयत्न कर रहा था लेकिन स्पष्ट कुछ सुनाई नहीं देर रहा था। वह खड़े-खड़े पैरों को झटकारने लगा। फ़िर बंदर जैसे दांत दिखा कर मुंह बनाया। एक चक्कर लगा कर कुर्सी पर बैठ गया। टांगे पसार कर आराम की मुद्रा में सड़क की ओर देख रहा था। कभी अचानक पीछे मुड़ कर दे्खता, उसकी बगल की कुर्सी पर एक महिला बैठी थी। मन्नु ने कुर्सी उसकी तरफ़ से उल्टे तरफ़ घुमा ली। महिला बाहर गांव की थी, उसे इसके विषय में जानकारी नहीं थी, इसलिए वह भी आराम से बैठी हुई थी। वरना कब कि दस हाथ की दूरी बना लेती। मैं सोच रहा था कि मुझसे कुछ बात करेगा, लेकिन वह कुछ ना बोला। कुर्सी पर बैठे-बैठे टांग हिलाने लगा। चने के दाने चबाते रहा। गुद्दी खुजाते रहा।

मै सोच रहा था कि अच्छा भला कमाने-खाने वाला आदमी इस हालत में कैसे पहुंच गया, क्या हाल होगा इसके बीबी बच्चों का? एक औरत पर पूरे घर की जिम्मेदारी आ गयी। यह हकीकत में पागल हुआ है या कमाने से बचने के लिए ढोंग कर रहा है? ऐसा ही एक पागल और भी है, नरायन। वह मेरे साथ प्राथमिक स्तर तक पढा है। फ़िर बरदी (गाय-भैंस) चराने लग गया था। कुछ सालों के बाद वह मन्नु जैसे ही टीप-टाप बाबु साहब बनकर दिन भर घुमता है, बिना इस्तरी के तो कपड़े कभी नहीं पहनता। घुमते रहता है इस दुकान से उस दुकान, इस होटल से उस होटल। होटल वाले मुफ़्त में चाय नास्ता करा देतें है। कौन अप-टु-डेट पागल के मुंह लगे। इसका फ़ायदा वह भरपुर उठाता है। पुरे गांव वालों को शक है कि वह पागल नहीं है, कमाने के डर में पागलपन का नाटक कर रहा है। बड़े भाग मानुष तन पावा, कमाए के डर में बने पागल बाबा। लोग ऐसे कहते हैं। यह मन्नु जैसे गाली नहीं बकता और अपने से बात नहीं करता।

मैने एक नयी बिमारी का नाम सुना। जिसे वर्क सिकनेस कहा गया है। सिंकारा का विज्ञापन (काम के बोझ का मारा, यह बेचारा,  इसे चाहिए हमदर्द का.........) रह-रह कर याद आता है। वर्तमान में लोगों पर कमाई का बोझ बढ गया है। आज हर आदमी चाहता है कि घर में भौतिक सुख का सामान होना चाहिए। टीवी, कूलर, डीवीडी, डिश, एन्टीना, मोबाईल एवं बाईक हर घर में होना चाहिए। कम आमदनी वाले मजदूर भी अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में नहीं पढाना चाहते। अच्छा पहनना ओढना चाहिए, चाहे इसके लिए दिन-रात एक करना पड़े।  अतिरिक्त कमाने के लिए झूठ-फ़रेब, चोरी-ठगी भी करनी पड़े तो चलेगा। लेकिन धन चाहिए, तभी जमाने के साथ चल सकेगा। यही तनाव एक दिन सिर चढ कर बोलता है और इसी तनाव का एक झटका कब मन्नु और नरायन बना दे पता नहीं चलता। बस लोग तो कह देते हैं,  पागल हो गया है, इसका दिमाग खिसक गया, चल गया है। लेकिन उसके परिवार पर क्या बीत रही है, सिर्फ़ उसका परिवार ही जानता है। 

NH-30 सड़क गंगा की सैर

गुरुवार, 23 जून 2011

संरक्षण कार्य पूर्ण - मदकू द्वीप से लौटकर - ललित शर्मा

11 मई को मदकू द्वीप की यात्रा की थी और इस पर मदकू द्वीप! प्राचीन एतिहासिक स्थल --भाग -1 तथा मदकू द्वीप की यात्रा और ऐतिहासिक तथ्यों से परिचय एवं चित्रों में मदकू द्वीप की सैर नामक तीन पोस्ट भी लगाई थी। ठीक एक महीने बाद 10 जून को मेरा पुन: मदकू द्वीप जाना हुआ। वहाँ पुरातत्वविद् अरुणकुमार शर्मा जी एवं उत्खनन निर्देशक प्रभात सिंह से मुलाकात हुई। संरक्षण एवं पुनर्संरचना का कार्य पूर्णता पर है। पिछली भेंट में शर्मा जी ने बताया थाकि उत्खनन स्थल की बारिश एवं धूप से सूरक्षा के लिए डोम बनाने का कार्य प्रारंभ होने वाला है। अब उन्होने कहा कि डोम बनाने का कार्य लालफ़ीताशाही की भेंट चढ गया। बरसात आने वाली है और कार्य प्रारंभ नहीं हुआ है। उत्खनन स्थल पर पानी भी भर सकता है, जिससे पुरातात्विक सामग्री को नुकसान हो सकता है।
पश्चिम मुखी बड़े मंदिर के सामने हम लोग
अरुण शर्मा जी ने बताया कि यहाँ के मंदिरों को कई राजाओं ने अपने शासन काल में बनवाया है। यह मंदिर एक कतार में सीढी दार बने हैं, मुख्य मंदिर से इनकी उंचाई कम होते चली गयी। इसका कारण यह है कि राजा अपने पुर्वजों का सम्मान करते हुए उनके बनाए मंदिर से कम उंचाई में अगला मंदिर बनवाते थे। इससे मंदिर एक श्रृंखला में सीढी दार बने हैं। मंदिरों के निर्माण में पुर्वजों का सम्मान रखने की अद्भूत परम्परा की मुझे नयी जानकारी मिली। नहीं तो दो भाईयों में विवाद होने पर निर्माण की उंचाई बढते ही जाती है। कुछ दिन पहले संस्कृति मंत्री ने स्थल  का निरीक्षण किया था और अधिकारियों को किसी भी मद से डोम बनाने के लिए निर्देश दिया था। देखते हैं अब कब तक यहाँ डोम का निर्माण होता है।
 
संरक्षण एवं पुनर्संरचना
पिछली बार मैं जिस रास्ते से गया था, वह रास्ता अब बंद हो चुका है। मैं बड़ी मुस्किल से मदकू द्वीप पहुंचा। सड़क एवं पुलिया निर्माण के कारण कड़ार और कोतमी वाला मार्ग अवरुद्ध है। एक बरसात के बाद तो वहां से चक्के की गाड़ी निकलना संभव नहीं।  मुझे इस रास्ते से जाने में अधिक समय और कठिनाई का सामना करना पड़ा। 5 किलो मीटर का अतिरिक्त चक्कर लगाना पड़ा। वापसी में मदकूद्वीप के पश्चिम वाला एनीकेट बन गया है। उसी रास्ते से मदकू गाँव और खोलवा होते हुए आया। पक्की सड़क है, अब जाना है तो यही मार्ग श्रेष्ठ है। अगर एनीकट पर शिवनाथ का पानी नहीं चढा हो तो चार चक्के की गाड़ी आराम से पार हो सकती है। अब मैने मदकू द्वीप जाने के सभी रास्ते देख लिए। कुछ चित्र पुनर्संरचना के भी लिए। आपके लिए प्रस्तूत हैं।

वो देखिए उधर भी कुछ मिला है- अरुण शर्मा जी
संरक्षण कार्य प्रारंभ है
जलेश्वर महादेव का मंदिर-युगल मंदिर में से एक
मंदिर के बगल से उत्खनन स्थल का चित्र
प्राचीन यज्ञशाला के अवशेष

उत्खनन में प्राप्त 4 फ़ीट उंचाई का शिवलिंग
उत्खनन में प्राप्त एक मुर्ति

बुधवार, 22 जून 2011

एक रहस्यमयी सांप से पाला -- ललित शर्मा

धरती शायद ही कोई ऐसा स्थान हो जहाँ सांप न रहते हों। जल और थल दोनो स्थानों पर सांप पाए जाते हैं। मनुष्य के निवास करने से पहले धरती के उस भू-भाग पर सांपों का ही निवास रहता है। मनुष्य उनके नैसर्गिक निवास स्थान पर अतिक्रमण कर अपना आश्रय बनाते आया है और सांप एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकता रहा। गाँवों में वर्षा काल में विभिन्न तरह के सांप दिखाई देते हैं। खेतों से लेकर घरों तक इनकी पहुंच रहती है। जब ये घर में घुस जाते हैं तब घर मालिक भयभीत होकर इसे भगाना या मारना चाहता है। 
फ़ोटो-डॉ पंकज अवधिया से साभार
मेरा सांपों से पाला बचपन से पड़ता रहा है। आज तक सैकड़ों को निपटाया होगा। बाड़े में तरह-तरह सांप देखने मिलते हैं। जिसमें कोबरा (नाग, इसे स्थानीय भाषा में डोमी(गंहुआ डोमी और काला डोमी) भी कहते हैं), ढोड़िया (नाग जैसा ही फ़ुंफ़कारने वाला पनियर सांप, कहते हैं इसमें जहर नहीं होता) मुंढेरी (पशुओं के थन से दूध पीने वाला और रेत पर चलने वाले सांप जैसी चाल) पिटपिटी या सिरपिटी (गाढे हरे रंग का सफ़ेद  धारियों वाला छोटा सांप, कहते हैं इसमें भी जहर नहीं होता) अहिराज (इसे देवता सांप कहते हैं,काले रंग पर पीली धारियाँ होती हैं) करैत (जहरीला सांप) घोड़ा करैत (स्थानीय भाषा में खड़दंगिया कहते हैं),अंधा सांप (यह काले रंग का केंचुए जैसा होता है और इसमें भी जहर की मात्रा आदमी को मारने के इतनी होती है) और जिस सांप ने मुझे चक्कर में डाल रखा है और पोस्ट लिखने को मजबूर किया वह है असोढिया या असड़िया।

अस्पष्ट छवि मेरे द्वारा
दो दिन पहले मुझे यह सांप बाड़े में फ़िर दिखाई दिया। इसकी लम्बाई 6 से 8 फ़ीट तक हो सकती है और रंग गेंहुआ और काला। आसाढ का महीना शुरु होते ही एकम के दिन यह सांप दिखाई दे गया। बच्चों ने आकर बताया कि एक बड़ा सारा सांप बाड़े के किनारे वाले घर में घुसा हुआ है। मैने जाकर देखा तो यह असोढिया सांप था, बच्चों को कहा कि डरने की जरुरत नहीं है, कहते हैं इसमें जहर नहीं होता। लगभग  8 फ़ीट लम्बा होगा और एक किनारे पर रखे ड्राम के पीछे छिपने का प्रयास कर रहा था, मैने मोबाईल से फ़ोटो लेनी चाही तो प्रकाश विपरीत दिशा से आने के कारण फ़ोटो स्पष्ट नहीं आई। 

फ़ोटो-डॉ पंकज अवधिया के वीडियो से साभार
गाँव में इस सांप से गाहे-बगाहे सबका पाला पड़ जाता है। मैने उसे वहीं छोड़ दिया और वापस अपने काम पर लग गया। कई बार तो यह कवेलु वाले मकान में घुस जाता था यह भी रहता और मैं भी रहता। इसने मुझे नुकसान नहीं पहुंचाया और मैने इसे। वैसे भी मैं सैकड़ों जहरीले सांप अपने हाथों से मार चुका हूँ। वह भी तब, जब ये घर से बाहर नहीं निकले। क्योंकि जहरीले सांप के साथ घर पर रहना मुर्खता ही है। बच्चे असोढिया सांप की लम्बाई और रंग रुप से बहुत डरते हैं। यह इंसानो को देख कर गजब की फ़ुर्ती से भागता है। पलक झपकते ही रफ़ुचक्कर हो जाता है। एक बार तो मैने छत में चल रहे चूहे को इसे जम्प करके पकड़ते देखा। थोड़ी देर में उसे जिंदा ही अंदर कर गया।

श्रीराम सिन्हा जी ग्राम केन्द्री
मैने सुना है कि असोढिया सांप जहां रहता है उसके साथ-साथ डोमी सांप (कोबरा-नाग) जरुर रहता है और असाढ से लेकर हरेली त्यौहार तक दिखाई देता है। इस समय इसका मेटिंग का समय होता है। असोढिया के साथ कोबरा की मेटिंग सुनकर मुझे सोचने पर मजबूर होना पड़ा। एक जहरीला और दूसरा बिना जहर के। फ़िर इस विषय पर किसी से चर्चा हुई तो उसने बताया कि इसमें जहर होता है। सोचा कि गाँव के बुजुर्गों से ही चर्चा करके देखा जाए। मैने केन्द्री गाँव के 85 वर्षीय बुजुर्ग श्रीराम सिन्हा से चर्चा की। उसने बताया कि असोढिया सांप असाढ से लेकर हरेली अमावस तक ही दिखाई देता है। अगर किसी को काट लेता है तो गांजे की एक चिलम के इतना नशा होता है, आदमी मरता नहीं है बच जाता है। यह सांप आदमी पर अपनी पूंछ से प्रहार करता है। इसकी पूंछ में कांटे रहते हैं, जिसके कारण प्रहार से चोट खाए हुए आदमी के उस स्थान से मवाद निकलना शुरु हो जाता है। हमेशा पानी जैसा पदार्थ रिसता है। इस सांप को कुछ (कमार आदिवासी) लोग खाते भी हैं। 

फ़ोटो-डॉ पंकज अवधिया के वीडियो से साभार
हृदय लाल जी की उम्र 60 वर्ष है, उनसे पूछ्ने पर बताया कि-यह सांप खेत की मेंड को बिल बनाकर फ़ोड़ देता है। जिससे एक खेत का पानी दुसरे खेत में घुस जाता है। बिल बनाने वाली बात पर मुझे विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि सांप हमेशा चूहे के बिल में ही रहते हैं। होता यह होगा कि चूहा मेंड में बिल बनाता होगा और बदनाम यह सांप होता होगा। हृदय लाल जी का कहना था कि इस सांप के बिल में घुसने के बाद पूंछ पकड़ कर निकालना बहुत कठिन है। इन्होने भी इस सांप के पूंछ के द्वारा मारने की बात कही। देवार जाति के सांप पकड़ने वाले लोग इसे मछली जैसे पका कर भी खाते हैं। किसी को अगर गठिया-वात या लकवे की शिकायत है तो इस सांप को उसे भी खिलाया जाता है। यह बात मैने पहले भी सुनी थी। कई लोग इस सांप को मारने के बाद नींबु के पेड़ की जड़ में गाड़ते हैं, जिससे नींबु की फ़सल अच्छी होती है और नींबु भी बड़े-बड़े फ़लते हैं। नींबु के पेड़ में तो मेरे यहां भी इस सांप को डालते मैने देखा है। 

फ़ोटो-गुगल से साभार
असाढ के महीने में खेतो में ये सांप आपस में अठखेलियां करते लोगों को दिखाई दे जाते हैं। मैने भी देखा है, लेकिन असोढिया सांप और कोबरा सांप की मेंटिग की बात अभी तक पचा नहीं पा रहा हूँ, इस सांप के जैविक नाम का भी मुझे पता नहीं है। डॉ पंकज अवधिया से सम्पर्क करने पर उन्हे भी इस सांप के नाम का पता नहीं। छत्तीसगढ में पाए जाने वाले सांपों का दस्तावेजीकरण भी नहीं हुआ है। अगर होता तो मुझे असोढिया के विषय में जानकारी मिल जाती। एक सांप घोड़ा करैत (खड़दंगिया) है। यहां सांप 2 से 4 फ़ीट तक का होता है। इसमें फ़ुर्ती असोढिया सांप जैसे होती है और जहर कोबरा के जैसा। बड़ा होने पर यह भी गेंहुए से काले रंग का हो जाते है और इसके शरीर पर सफ़ेद पट्टियां पाई जाती हैं। यह मुरम वाली जमीन में अधिक मिलते हैं। जहर इतना कि इसका काटा पानी भी नहीं मांगता। शाम के समय अक्सर दिखाई दे जाते हैं। कहते हैं इस सांप का जन्म नर करैत और नागिन की मेटिंग से होता है। यह शंकर प्रजाति का होता है इसलिए इसे स्थानीय भाषा में खड़दंगिया याने आधा कोबरा और आधा करैत कहते हैं। गाँव में विजातिय संबंध से जन्मे बच्चे को अक्सर लोग खड़दगिंया कह देते हैं। असोढिया सांप की मेटिंग की तश्वीर अभी दो चार दिन पहले ही मैने अखबार में देखी थी। लेकिन सेव नहीं कर पाया।

फ़ोटो-डॉ पंकज अवधिया से साभार
असोढिया सांप मेरे लिए रहस्य होता जा रहा है, बचपन से देखने और सुनने के बाद भी। जितने मुंह उतनी बातें। कोई जहरीला बताता है तो कोई बिना जहर का। हमारे खेतों में एवं घर के बाड़े में बनी बांबियों में भी कई तरह सांप है, जो अक्सर मुझे दिखाई देते रहते हैं। घास-फ़ूस में कब निकल आए पता नहीं। पर आज तक किसी सांप या बिच्छु ने नुकसान नहीं पहुंचाया है। एक दिन सुबह मैने दूर पेड़ के नीचे कुछ चमकता हुआ देखा। जब नजदीक गया तो एक नाग सांप ने मुंढेरी सांप को दबोच रखा था और मुंढेरी सांप ने नाग सांप के मुंह पर कुंडली लपेट रखी थी। दोनो टस से मस नहीं हो रहे थे। दोनो की जान अटकी पड़ी थी। दो-तीन घंटे तक पड़े रहे। जब दोनो पस्त हो गए तो एक दूसरे को छोड़ दिया और खिसकते-खिसकते अपने रास्ते चले गए। असोढिया सांप अब रोज दिखाई दे रहा है। नुकसान तो नहीं करता लेकिन कोई नया आदमी देख ले तो उसके हौसले पस्त करने लायक इसका रंग रुप और लंबाई जरुर है। इस सांप के विषय में अधिक जानने का प्रयास जारी है। अब हरेली अमावस तक इस पर ही निगाह रखना है और जानकारी एकत्रित करना है।

पोस्ट अपडेट दिनांक-23/6/2011

छत्तीसगढ में स्नेकपार्क बनाया जा रहा है, इसकी सूचना यहाँ पर है। अब इससे लोगों को सर्प की पहचान करने का अवसर मिलेगा।

मंगलवार, 21 जून 2011

हिमालय आयुर्वैदिक दवाखाना कैंम्प - नेशनल हाईवे - 43 से -- ललित शर्मा

शाम होते ही बादल गड़गड़ाने लगते हैं और बारिश की बौछार शुरु हो जाती है, नेशनल हाईवे 43 भी बारिश की बौछारों से अछूता नहीं है। इसे विगत 3 दशकों में पता नहीं कितनी बार नाप चुका हूँ। अगर आँख बंद कर के भी गाड़ी हांकू तो यह पता है कि कितनी देर में गतिअवरोधक आएगा और कितनी देर में गड्ढा। कहां पर रेल्वे क्रासिंग है तो कहाँ पर बस्ती? समझ लिजिए मेरे लिए गंगा ही है। प्रति दिन इसके आस-पास घटित की जानकारी ले ही लेता हूँ। कल इसी गंगा के किनारे हिमालय के वैद्य तम्बु लगाए दिखे। बड़े-बडे फ़्लैक्स लगा रखे हैं और सैकड़ों बीमारियों का नाम लिख  कर शर्तिया इलाज का दावा ये कर रहे है। बरसात की कुछ बूंदे पड़ी तो मैने बाईक रोक दी, इनका प्रचार वाला टेप चल रह था। मुझे जिज्ञासा हुई, सोचा थोड़ी देर इनसे चर्चा कर ही ली जाए। हो सकता है चरक की परम्परा से कुछ असाध्य रोगों के रामबाण ईलाज का नुस्खा मिल जाए।

बाईक किनारे लगा कर इनके टेंट में प्रवेश किया तो एक 20-22 साल का लड़का मिला। भीतर बहुत सारे कांच कूप्यकों में आयुर्वेदिक औषधियों के चूर्ण सजा रखे थे तथा मूल रुप में भी रखे हुए थे। बचपन से इनके टेंट देखते आ रहा हूँ, पहले इनके पास रिकार्डेड कैसेट नहीं होती थी तो ये मजमा लगा कर अपनी दवाईयों और तेल का बखान करते थे। उसका प्रदर्शन भी करते थे। लेकिन अब ये आधुनिक हो गए हैं। टेप बजा देते हैं और टेंट के भीतर आराम से बैठ जाते हैं। जैसे कोई धीवर नदी, तालाब में जाल फ़ेंक कर आराम से मछलियों के फ़ंसने का इंतजार करता है। दिन भर में मोटी मछली एक ही फ़ंस जाए, फ़िर तो बल्ले-बल्ले है। खर्चा निकल ही आता है। मेरे टेंट में प्रवेश करने पर वैद्य थोड़ा डरा हुआ दिखाई देता है। मेरे नाम पूछने पर उसने सतराम बताया और बोला बड़े वैद्य जी बाहर गए हैं। अगर आपको कुछ जानना है तो वही बताएगें। उसने अपना स्थायी ठिकाना सतना (मध्यप्रदेश) बताया।


थोड़ी देर की चर्चा से उसका डर सामने आ ही गया, वह पुलिस वाला समझ बैठा था। उसका शंका निवारण किया तो वह सामान्य हो गया। हिमालय की जड़ी-बूटियों के द्वारा शर्तिया इलाज के नाम पर ये कभी सांडे का तेल बेचते हैं तो कभी धात की बीमारी को ठीक करने वाला शर्तिया राम-बाण पाउडर। कांचकुप्यकों में हर्रा, बहेड़ा, आंवला, सनाय की पत्ती, लौंग, अजवाईन, काला नमक, मरोड़फ़ली, पित्ती का दाना, सफ़ेद मुसली, कुलंजन, अर्जुन छाल, अजगंध, गोखरु, अश्वगंधा, इंद्रायण, रीठा, चिरायता और संजीवनी भी रखी हुई थी। विभिन्न रोगों के हिसाब से इसका मिश्रण यौगिक भी तैयार कर रखा था। रोगी आने पर पुड़िया बांध के देने में सहुलियत होती है। फ़्लेक्स पर लिखा है-" शंकर हिमालय आर्युर्वेद दवाखाना कैम्प" और इस पर लिखा है जड़ी-बूटियाँ कठिन भस्म से तैयार की जाती है, दिमागी कमजोरी, पागलपन, शारीरिक कमजोरी, स्त्री को सफ़ेद पानी आना और ल्युकोरिया परदुस होना, शारीरिक दुबलापन होना और गुप्त रोगों का ईलाज करते हैं।" अर्थात मर्ज सब वही थे जिसे लोग बताने में हिचकते हैं और इनके पास टेंट में बता जाते हैं।

चर्चा के बीच में एक मरीज आ ही जाता है, बोरिया गाँव का रहवासी यादव। उसका कहना था कि शादी के 10 साल बाद भी उसके मामा-मामी के बच्चा नहीं हुआ। उसको इलाज करवाना है, जिससे बच्चा हो जाए। आप बोलेगें तो कल बुला दुंगा। बांस टाल में रहने वाली एक महिला से दवाई दो लोगों ने ली थी, उसमें एक के तो बच्चा हो गया, लेकिन उसके मामा-मामी को बच्चा नही हुआ। वैद्य ने कहा कि - कल बुला लेना, बड़े वैद्य जी नाड़ी देख लेगें और बता देगें। नाड़ी देखने की फ़ीस 10 रुपए लगती है। डॉक्टरों से हैरान-परेशान लोग आखिर इनके पास पहुंच ही जाते हैं। यह मुझसे कहने लगा कि पेट ठीक करने वाला चुर्ण ले लीजिए। अफ़ारा, गैस, बदहजमी, कब्ज, अपच की शर्तिया दवाई है। दो चार खुराक आप खाकर देखिए। आयुर्वैदिक दवाई का कोई साईड इफ़ैक्ट नहीं होता। मुझे कोई समस्या नहीं है- मैने कहा, हां! और आयुर्वैदिक दवाई का कोई साईड इफ़ैक्ट नहीं है तो जरा एक बीच जमालघोटा चबा जा। सारे इफ़ैक्ट दिख जाएगें।

अंग्रजी दवाईयों की बजाए लोग अभी भी आर्युवैदिक एवं परम्परागत नुस्खों पर विश्वास करते हैं। जब किसी वैद्य के पास पहुंच जाते हैं वह भी जेब काटने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखता। मंहगी-मंहगी भस्म जैसे स्वर्ण भस्म की शीशी थमा देता है (अब कैसे पता चले कि उसमें स्वर्ण भस्म है या नहीं)। कुल मिलाकर बात यह है कि भेड़ के उपर ऊन कोई नहीं छोड़ता। जो छोड़ दे वह बेवकूफ़। मैने उससे कुछ दवाई बनाने के नुस्खे जानने चाहे। मुझे लग रहा था कि इसके पास अधिक जानकारी नहीं है। कुछ दो चार आयुर्वैदिक के यौगिक बना रखे हैं, वही चूर्ण सबको थमा देते हैं। इसने बताया कि पेट की बीमारी के लिए छोटी हर्रे, बहेड़ा, अजवाईन, लौंग, सनाई की पत्ती, काला नमक का मिश्रण बना कर दिया जाता है। जोड़ों के दर्द के लिए मालिश का तेल बनाया जाता है, कपूर, अजवाईन, लौंग, लहसून, मरोड़फ़ली को सरसों के तेल में लाल होने तक पकाया जाता है, फ़िर मालिश के लिए इस्तेमाल किया जाता है। गले की खराश में कुलंजन का प्रयोग किया जाता है।

गुप्त रोगों के नाम से इन नीम-हकीमों का बहुत बड़ा कारोबार चल रहा है। सड़क या रेल मार्ग के किनारे ऐसे नीम-हकीमों के पूरे भारत में दीवारों पर विज्ञापन लगे हैं। ये भारतियों की मानसिकता जानते हैं, और यौन रोग को गुप्त रोग नामधर कर भया दोहन करते हैं। सभी स्तरों पर सालाना सैकड़ों करोड़ का कारोबार भारत में होता है। अखबारों में इन हकीमों के विज्ञापन आते रहते हैं। जबकि इनके इलाज से मर्ज ठीक भी नहीं होता और रोगी लुट-पिट जाता है। इसने मुझे संजीवनी बूटी दिखाई, बताया कि यह वही संजीवनी बूटी है जिसे हनुमान जी लेकर आए थे और लक्ष्मण की मुरछा दूर हुई थी। वह सूखी हूई थी, उसने बताया कि इसे पानी में डालने से 24 घंटे में हरी हो जाता है, इसके प्राण वापस आ जाते हैं। इसका उपयोग शरीर की गर्मी दूर करने में होता है और दुसरे बीमारी के चूर्ण में भी डाला जाता है। कुल मिलाकर भूल-भूलैया जैसे ही मामला था। जिस रोग का कोई इलाज नहीं होता, उसके हजार इलाज बताए जाते हैं। लेकिन काम एक भी नहीं आता। यह अवश्य है कि दादी-नानी के नुस्खे संकट काल में काम कर जाते हैं और मरीज को राहत देते हैं। 

पिछले दिनों जब रोहतक गया था तो वहाँ मुझे सर्दी हो गयी थी। कफ़ जैसा जम गया था और हरारत भी भी। अलबेला खत्री जी ने अपने सुटकेश से निकाल कर अजवाईन दी और गरम पानी के साथ एक खुराक चबा कर खाने को कहा। एक खुराक मैने रात को ली और एक सुबह खाली पेट। अगले दिन मेरी सर्दी और कफ़ गायब हो चुका था। इस तरह हम घरेलु नुस्खों से तुरंत राहत पा जाते हैं। केवल ने भी अजवाईन जैसे दाने मुझे दिए थे, वह उनके पांगी घाटी में ही होता है, उसकी एक खुराक ही सर्दी एवं पेट का अफ़ारा दूर करने के लिए काफ़ी थी। इन मर्जों के सहारे ही वैद्यों की दुकान चल रही है। सड़क के वैद्य एक मरीज आने पर अपने दिन भर की दिहाड़ी वसूल लेते हैं। अखबारों में एक विज्ञापन अक्सर देखने में आता है कि "शराबी को बिना बताए शराब छुड़ाएं।" जब इसकी खोज बीन की तो पता चला कि ये चार आने की ऐलोपैथी टिकिया को चूर्ण बनाकर शराब छुड़ाने के नाम पर हजारों वसूल लेते हैं। होटलों में रुक कर अपनी दुकान चलाते हैं, एक शहर से दुसरे शहर चक्कर काटते ही रहते हैं। बारिश थम चुकी थी, मैं पुन: अपनी यात्रा को आगे बढा कर चल पड़ा और सोच रहा था कि जब तक मरीजों में सही इलाज के प्रति जागरुकता नहीं आएगी तब तक ये हिमालयी टेंट सड़के किनारे लगे ही रहेंगे।

सोमवार, 20 जून 2011

पापा ! कुछ यादें कुछ बातें -- स्वर अर्चना चावजी -- ललित शर्मा

फ़ादर्स डे (पितृ दिवस) मनाया गया, पाश्चात्य लोगों ने तो एक दिन निर्धारित कर रखा है। हमारी संस्कृति में पितृ पक्ष मनाया जाता है, पितरों को श्रद्धांजलि दी जाती है, उनके कार्यों को याद किया जाता है। किसी के सिर पर माँ-बाप का साया रहता है किसी के सिर पर नहीं। मेरी दृष्टि में वे भाग्यशाली हैं जिन्हे  माता-पिता का मार्ग दर्शन अभी तक साक्षात मिल रहा है। मुझे नहीं मिल पाया, कभी-कभी किसी मौके पर दिल में हूक उठती है और बेचैनी छा जाती है।  तब मन को बहलाता हूँ, यही नियति है, सभी को यह दिन देखना है। ईश्वर को यही मंजुर था। उन्हे शत-शत नमन। मेरी एक पुरानी पोस्ट को अर्चना चावजी ने पॉडकास्ट किया है सुनिए।

गजरौला टाईम में प्रकाशित 2009 - साभार ब्लॉग्स इन मीडिया


कुछ यादें कुछ बातें -- अर्चना चावजी के स्वर में

रविवार, 19 जून 2011

एक मित्र की दुर्घटना में असमय मृत्यु -- ललित शर्मा

नेशनल हाईवे 43 पर बेतरतीब खड़ी ट्रक (परलोकवाहक) ने आज फ़िर एक जान ले ली। सड़क पर हो रही दुर्घटनाओं के विषय में मैं पहले भी लिख चुका हूँ। बड़ी ट्रक वाले सड़क पर कहीं भी ट्रक खड़ी कर देते हैं। इनके पीछे इंडिकेटर, पार्किंग लाईट और रेड़ियम भी लगा नहीं होता, जिसके कारण अंधेरे में ट्रक दिखाई नहीं देता और लोग पीछे से टकरा कर जान दे बैठते हैं। किसी के घर का चिराग असमय ही बुझ जाता है और बाल-बच्चे अनाथ हो जाते हैं। आर टी ओ भी बिना गाड़ी देखे फ़िटनेस दे देता है, उसे तो अपनी दक्षिणा से मतलब। चाहे जान किसी की भी जाए। ऐसी एक गाड़ी से मैं भी टकराकर अपनी एक कार होम कर चुका हूँ और 3 पसलियाँ तुड़वा चुका हूँ।

कल मेरे शिक्षक मित्र हेमसिंग वर्मा जी स्कूल से पढा कर आ रहे थे रास्ते में बरसात हो रही थी जिसके कारण वे रुक-रुक कर घर आ रहे थे। अभनपुर के पास खड़ी एक ट्रक से पीछे से टकरा गए और वहीं उनकी मृत्यु हो गयी। असमय मृत्यु से उनका परिवार और इष्ट-मित्र सदमे में है। अभी तीन-चार दिन पहले ही मैने उन्हे सपत्नीक बाजार आते हुए देखा था और मजाक भी की थी। अब यादे हीं शेष हैं, पता नहीं यह सड़क कितनों की जान लेगी। राजधानी बनने के बाद इस पर ट्रैफ़िक चौगुना बढ चुका है। सुना गया था कि फ़ोर लाईन बनाया जा रहा है लेकिन 6 साल हो गए अभी तक कोई कार्यवाही नहीं देखी। ईश्वर करे और कोई दुर्घटना का शिकार न हो। मित्र हेमसिंग जी को विनम्र श्रद्धांजलि ईश्वर उनके परिजनों को दारुण दु:ख सहने की शक्ति दे।

शनिवार, 18 जून 2011

धरती की डिबिया में -- डॉ. मीनाक्षी स्वामी

डॉ मीनाक्षी स्वामी मध्यप्रदेश शासन के उच्च शिक्षा विभाग में प्राध्यापक पद पर कार्यरत हैं, आपने समाजशास्त्र लगभग 40 पुस्तकें लगभग हर विधा मे हर वर्ग के लिए रची हैं, रचना कर्म के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान और स्वीकृति के रुप में रचनाओं पर भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों एवं मध्य प्रदेश तथा उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा दो दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। यह कहानी मध्यप्रदेश शासन द्वारा 2008 में पुरस्कृत हुई है और हाल ही में गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार में एम.ए. हिंदी साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल की गई है। 

सुबह ठीक पौने पाँच बजे जब वह सैर करने के इरादे से अपने बंगले के गेट तक आया ही था कि बूँदें पड़ने लगीं। वह भीतर लौट आया और बरामदे में रखी हुई कुर्सी पर बैठकर बूँदों का गिरना देखने लगा। बरामदे की छत के स्लोब के किनारों से बूँदों ने मोती की लड़ी बनाकर झड़ी लगा दी। नीचे की रेलिंग तक आकर बूँदों की लड़ी के दो चार मोती रेलिंग में अटक जाते और फिर देर रात तक अटके रहते। बरसात के दिनों में अक्सर उसका सैर करने जाना छूट जाता है। मगर बरसों पुरानी इस आदत की कड़ी टूटने के बावजूद वह जरा भी विचलित नहीं होता और मोती की इन लड़ियों को बड़े ही इत्मीनान के साथ मुग्ध भाव से देखा करता है। इस सौंदर्य का आकर्षण उसके लिए इतना अधिक है कि वह छतरी या बरसाती लेकर भी सैर के लिये नहीं जाता है।
    यहाँ बैठकर वह मन ही मन अपने बीते बरसों की लंबी सैर कर आता है। बचपन का वह दृश्य आज भी उसकी आँखों में ज्यों का त्यों है। गांव का गारे मिट्टी का गोबर से लिपा टीन की छत वाला घर, जब रिमझिम बरसात की बूँदें टीन की छत पर गिरती तो कर्णप्रिय संगीत निकलता और छत के किनारे से पानी के बूँदें मोती की लड़ी सी झरने लगती। आगे के कमरे की दहलीज पर बैठ वह मोतियों का टपकना देखा करता।
    एक दिन उसने सोचा कि कुछ मोती इकट्ठे करके अपने पास रखूँ और अपने दोस्तों को भी दिखाऊँ। वह माचिस की खाली डिबिया लाया और उसे खोलकर मोती की गिरती हुई लड़ी के नीचे लगा दिया। मगर डिबिया में मोती की जगह पानी देखकर वह बहुत निराश हुआ। फिर उसने खूब दिमाग लगाया और एक ही मोती डिबिया में रखा, मगर वह भी डिबिया में आते ही पानी की बूँद बन गया था। वह घर में सबसे छोटा था, अपने बड़े भाई बहनों को उसने अपनी परेशानी यह सोचकर बताई थी कि वे उसकी मदद करेंगे पर वे खूब हंसे और तो और वे सब पड़ोसियों, रिश्तेदारों, परिचितों और स्कूल के साथियों को भी यह बात बताते रहे। यह सिलसिला कई दिनों तक चला और वह खूब झेंपता रहा। जब परेशान होकर उसने माँ को बताया तब उन्होंने सबको डाँटकर उसे उबारा था। यह बात तो अब भी जब कभी सब भाई बहन इकट्ठे होते हैं, करते हैं, मगर इस बात पर अब वह भी खुलकर हँसता है।
    उम्र बढ़ने के साथ पानी की बूँदों के प्रति उसका प्यार और आकर्षण भी बढ़ता गया। यह सब सोचते-सोचते उसने देखा कि बरसात बंद हो गई है। सैर पर जाने के लिए अभी भी पर्याप्त समय है। यह देखकर वह निकल पड़ा, बरामदे से बाहर, गेट से निकलकर सड़क पर। गेट से ही उसका गनमेन भी उसके पीछे हो लिया।
    राजधानी के इस विशिष्ट इलाके में श्यामल पहाड़ियों के उतार चढ़ाव के बीच साफ सुथरी चिकनी काली सरपट सड़क पर घूमना उसकी सुबह को अलौकिक बना देता है। पेड़ों की बहुतायत, तरह-तरह के पंछियों का कलरव, कि जंगल का सा आभास और बीच-बीच में बने जंगले इलाके की विशिष्टता का अहसास कराते है। वह मेनरोड पर चल रहा है और पीछे-पीछे गनमेन। गनमेन के जूतों की खट-खट की आवाज वह साफ-साफ सुन रहा है और जान रहा है कि वह भी उसी की गति से चल रहा है। वह उससे अपनी दूरी को एक इंच भी न कम होने दे रहा है न ज्यादा। भीगी हुई सड़क पर तेज चलती हुई एक मेटाडोर आई तो वह फुटपाथ पर हो गया। मेटाडोर के चले जाने के बाद देर तक उसके शोर में गनमेन के जूतों की खट-खट दबी रही, लेकिन उसने महसूस किया कि उसके फुटपाथ पर आते ही वह भी उसके पीछे आ गया है।
    वह मुसकाया और मेनरोड पर चलते हुए थोड़ा आगे आकर उस गली में मुड़ गया जहाँ अच्छी खासी पहाड़ी ढलान थी। ढलान से  उतरते हुए उसके कानों में पानी के झर-झर झरने की आवाज पड़ी। बरसात रूकने के बाद देर तक ऐसी ही आवाज आती है इस जगह पर। पेड़ों के झुरमुट के भीतर पत्थरों के ढेर के बीच से बहता पानी झरने की सी आवाज करता, बरसात रूकने के बाद भी देर तक बहता रहता है और देर तक यहाँ ऐसी ही आवाज आती है। वह कुछ पल रूका और आवाज सुनता रहा। बरसात के दिनों में यह आवाज सुनते हुए हर बार वह सोचता है कि कभी समय निकालकर वह जगह देखेगा, जहाँ से पानी गिरता है। मगर उसका सोच अभी तक सोच ही है।
    मोड़ पर आकर उसने देखा, कोने के पास वाले खाली पड़े बंगले के गेट के बाहर शेरू पिल्ला बैठा है। उसके देखते-देखते वह खड़ा हुआ, थोड़ा आगे बढ़कर उसने पहले अपने भीगे हुए कान फड़फड़ाए, फिर पूँछ और फिर पूरा शरीर और भागा अपनी माँ के पास। यह देखकर वह हँस पड़ा। इसी मोड़ से आगे सड़क से होकर घूमते हुए वह फिर उसी गली में आ गया, जो आगे मेनरोड पर मिलती है। इधर से लौटते हुए अब वही ढलान चढ़ाई में बदल गई है।  बादल होने से, सूरज के ढँका होने के बावजूद अब तक अच्छा खासा उजाला हो गया है।
    चढ़ाई खतम होने पर पिछले साल ही दांई ओर बनी चाय की गुमटी पर उसका ध्यान गया। गुमटी अभी-अभी ही खुली है और चायवाला साफ सफाई कर रहा है। गुमटी से लगभग सटी हुई देवी के मंदिर की फेंसिंग है, जिसका बाहरी आकार नारियल की तरह है। मंदिर और चाय की गुमटी दोनों ही अतिक्रमण करके बनाए गए हैं, जिन्हें हटाने का ख्याल सपने में भी करने में इस विषिष्ट इलाके के सक्षम लोग निष्क्रिय हैं। मामला धार्मिक आस्थाओं का है और चुनाव में सिर्फ साल सवा साल ही बचा है। इस निष्क्रियता में वह भी शामिल है। यह सोचते हुए वह मेनरोड पर बने फुटपाथ पर आ गया और तालाब की ओर बढ़ गया।
    तालाबों के इस शहर में उसके बंगले के दाहिनी तरफ की बाऊण्ड्री वॉल से लगा हुआ ही तालाब है। फुटपाथ पर चलता हुआ वह तालाब के सामने आ गया और वहाँ लगी पत्थर की बेंच पर बैठ गया। तालाब में ही लबालब भरी जलराषि को देखना उसे हमेशा से ही रोमांचक लगता रहा है। तालाब में हवा के झोंकों से हल्की-हल्की लहरें उठ रही हैं। कुछ दूरी पर जलमुर्गियाँ क्रीड़ाएँ कर रही हैं। वे कभी थोड़ा सा उड़ती, फिर पानी में डुबकी लगाती, फिर तैरने लग जाती और थोड़ी दूर तैरकर फिर किनारे पर आ जाती। किनारों की चट्टानों से बरसात का पानी अब भी गुनगुनाता हुआ तालाब में समाहित हो रहा है। इस गुनगुनाहट में मेंढकों का शोर और पक्षियों का कलरव मिलकर अनुपम संगीत रचकर वातावरण में नया रस घोल रहा है। उसने दूर दृष्टि डाली। काले-काले बादल बिल्कुल नीचे झुक आए हैं, बादलों की धुंध में दूर के पेड़ पौधे पहाड़ी सब ढँके हुए हैं। कुछ पल आंखें मूँद कर वह इस अलौकिक सुबह में डूब गया।
    फिर वह उठा और उसी रास्ते से वापिस लौटने लगा। थोड़ा आगे फुटपाथ के किनारे खूबसूरत बगीचा है। अब वह उसी ओर जा रहा है। उसके पीछे चल रहा गनमेन भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है कि अब साहब बगीचे में जाएँगें। यदि वह नावाकिफ है तो उसके भीतर की दुनिया से। राजधानी के इस विषिष्ट इलाके में एक दो नहीं, पूरे पाँच बगीचे हैं आमने-सामने। और बारिष की इस अलौकिक सुबह में वह उस विषिष्ट बगीचे में दाखिल हो गया, जिसमें आने के बारे में अपने बचपन तो क्या, युवावस्था में भी उसने कभी सपना तक नहीं देखा था।
    वह बगीचे के लॉन के बीच बने पक्के फर्श पर धीरे-धीरे चलने लगा। भीगे हुए मौसम की नमी उसके मन को छू रही है। लॉन में तरतीब से उगी और साज सम्हाल से कालीन सी बिछी हरी-हरी घास पर उसने हीरे की कनी सी चमकती देखी। वह अच्छी तरह से जानता है ये बूँदें ही हैं। किनारें की गुलाब की क्यारी पर उसकी नजर पड़ी तो उसने गुलाबों पर बूँदों के मोती चमकते देखे। वह आगे बढ़कर बगीचे के आखिरी कोने पर पहुँचा। कोने में बने कमल के आकार के बड़े हौद की सतह पर खिले कमल के पत्तों पर बूँदें अब तक कांप रही है। तभी उसने फड़फड़ाहट की आवाज सुनी और उसकी नजर ऊपर पेड़ पर पड़ी। एक तोते ने अपने पंख फड़फड़ाए और फिर आसमान की ओर देखा, पानी रूका देखकर उसने ऊँची उड़ान भरी और देखते-देखते आंखों से ओझल हो गया।
    अब वह दूसरी तरफ चला और खालिस पानी से भरे हौद के पास बैठ गया। हौद के पास झुक आए पेड़ के पत्तों से फिसलती बूँदें पानी में डुबकी लगा रही हैं । उनके डूबने के बाद बनते गोल घेरे को वह ध्यान से देखने लगा और बड़ी देर तक यही देखते रहने के बाद वह धीरे से उठा और बगीचे से बाहर आया, घर की ओर लौट जाने के लिये। बगीचे के बाद वाली सड़क पार करने के बाद कोने पर उजाड़ पड़े, अधबने शॉपिंग सेंटर की दीवार के कोने पर उसे माणिक की झालर दिखी । उससे रहा नहीं गया। वह रूका और अपने पीछे चल रहे गनमेन को यह अद्भुत नजारा दिखाया। फिर वह उसे उस दीवार के पास मकड़ी का वह बड़ा जाला दिखाने ले गया, जिसमें लटकी बूँदें ही दूर से मणियों की झालर जैसी दिख रही थी। बूँदों का यह चमत्कार देखकर गनमेन दंग रह गया।
    यह बूँदों का ही तो चमत्कार है कि आज वह यहाँ इस जगह खड़ा है। राजधानी की श्यामल पहाड़ियों पर बने इस विशिष्ट इलाके के विशिष्ट बंगले में रह रहा है।
    इस चमत्कार की कहानी तो तभी शुरू हो गई थी जब उसे बूँदों के मोती को माचिस की डिबिया में सहेजने की बात सूझी थी। यही सूझ मन के किसी कोने में दबी पड़ी थी और इसका पता खुद उसे भी नहीं था। मगर जब अपने खेतों में सिंचाई के लिए कई नलकूप खुदवाने के बावजूद पानी की एक बूँद भी नहीं निकली और उसे पता चला कि धरती की कोख में पानी दम तोड़ चुका है, तब अवसाद में घिरा वह अपने घर के उसी आगे वाले कमरे की दहलीज पर बैठा उपाय सोच रहा था। तब उसे माचिस की डिबिया में बूँदों के मोती समेटने की बात याद आई और अनायास ही उसे सूझा कि विराट को विराट में ही समेटा जा सकता है। पानी की बूँदें माचिस की डिबिया में नहीं, धरती में समेटी जा सकती है। बस यही सोचकर उसने नलकूप खुदवाने बंद कर दिए और एक डबरी बनवाई। जब थोड़ी ही सही, पर बारिश हुई तो आसपास का पानी डबरी में समा गया और डबरी भर कर तालाब बन गई। तालाब क्या भरा, उसका मन उत्साह से भर गया। फिर तो उस पर जैसे जुनून ही सवार हो गया डबरी, तालाब खुदवाने का। उसने पानी के बहाव की दिशा में गाँव के चारों ओर तालाबों की श्रृंखला बनवा दी। जहाँ तालाब बनवाने की जगह नहीं थी वहाँ चेक डेम बनवाए। अब वह पानी की बूँदों को माचिस की डिबिया में नहीं, तालाबों, चेक डेमों और इसके सहारे धरती के भीतर भर लेना चाहता था और इसी का कमाल था कि एक साल की सामान्य बारिश के बाद ही गाँव में उसके खुदवाए और अन्य सूखे नलकूपों में पानी आने लगा। गाँव के सूखे कुँए पानी से लबालब भर गए। गाँव में भरपूर पानी हो गया।
    जब उसके भाई-बहनों ने जाना कि बूँदों को माचिस की डिबिया के बजाय धरती में सहेज रहा है और उसकी सहेजी गई बूँदें धरती में समाने के बाद तालाबों में लबालब भरी है तो अबकी बार हँसने के बजाय उन्होंने दांतों तले ऊँगली दबा ली। गाँववाले उसे सरपंच चुनाव में खड़ा होने के लिए मनुहार करने लगे। उसने उस मनुहार का आदर भी किया। मगर पानी सहेजने का उसका जुनून बना रहा। पंचायत को मिली फर्नीचर की राशि भी उसने तालाबों की खुदाई में लगा दी। उसकी टूटी टेबल कुर्सी के लिए जब उसे किसी ने टोका तो उसका जवाब बड़ा ही सरल सहज था कि सुबह से आधी रात तो बाहर तालाब आदि खुदवाने में बीत जाती है, इन पर बैठने का मौका और समय ही कहाँ है ?
    और फिर एक दिन न जाने किससे सुनकर एक अखबार वाला उसके काम देखने आया। फिर अखबार की खबर पढ़कर खुद मुख्यमंत्रीजी उससे मिलने और उसका काम देखने आए। मुख्यमंत्रीजी ने भारी भीड़ के सामने उसके काम की तारीफ करते हुए उसके लिए कहा कि उसने कुदरत को जीत लिया है, संकटों को परास्त कर दिया है, तो पहले तो वह संकोच से घिर गया, मगर फिर जल्दी ही सहज हो गया और उनके आद अपने भाषण में उसने साफ बता दिया कि संकट कभी परास्त नहीं होते, वे तो जीवन का एक हिस्सा होते हैं। उसने यह भी बता दिया कि उसने इन्हें संकट नहीं चुनौती माना और इनसे प्यार किया। कुदरत से जीत की बात पर उसने कहा कि मैं कुदरत से प्रतियोगिता नहीं रखता, बल्कि खुद को उस विराट का अंश मानता हूँ।
    मुख्यमंत्रीजी और अखबार वालों ने उसे महामानव बना दिया। मगर वह अभी भी खुद को वही समझता था और माचिस की डिबिया वाली बात याद करके झेंप जाता था। यही नहीं, वह अब भी मन ही मन सोचा करता था कि किसी तरह धरती के भीतर घुस कर देख सके कि धरती कि डिबिया के भीतर भरा पानी कैसा लगता होगा।
    धरती के भीतर घुसना तो उसके लिए सपना ही रहा, पर उसे फिर लोगों की और पार्टी की मनुहार पर विधानसभा चुनाव में खड़ा होना पड़ा। बेशक वह चुनाव जीता और मंत्री बना। पिछले करीब चार सालों से वह मंत्री है। पानी को सहेजने का उसका जुनून अब गाँव की सीमा से बाहर निकलकर प्रदेश
 भर में फैल चुका है। उसके रहते प्रदेश में, पानी की कहीं कोई कमी नहीं है। अखबार वाले उसे कभी इंद्रदेव बताते हैं, तो कभी लोकतंत्र का महानायक।
    उसे याद आया, उसकी शुरूआती सफलता के समय जब सबने यहां तक कि अखबार वालों ने भी उसके लिए कहा था कि वह बुद्धि से काम लेता है और यह सफलता उसके दिमाग का ही कमाल है, तब माँ ने कहा था कि यह प्रेम का कमाल है, पानी के प्रति उसके प्रेम का। उसे अनायास ही माँ की बात याद आ गई और उसकी आंखों से एक बूँद मोती बनकर लुढ़की।

डॉ. मीनाक्षी स्वामी

बुधवार, 15 जून 2011

"उसने कहा था" में दही का योगदान--राम पटवा

राम पटवा साहित्य जगत का जाना माना नाम है, उनकी कृति "विष्णु की पाती राम के नाम" चर्चित रही है। विष्णु प्रभाकर जी के सानिध्य में रहे और विष्णु प्रभाकर जी जगह-जगह, राम पटवा जी की लघु कथा 'अतिथि कबूतर' सुनाते हुए कहते कि 'शब्द मेरे हैं पर कथा श्री राम पटवा की है और वह किसी टिप्पणी की मोहताज नहीं है।'इसका जिक्र राहुल सिंह जी ने अपनी एक पोस्ट "राम के नाम पर" में किया है। पढते हैं चंद्रधर शर्मा "गुलेरी" जी की कालजयी कहानी "उसने कहा था" के दही लाने वाली लड़की पर राम पटवा जी का चिंतन, राम झरना
राम पटवा जी एवं अनुप रंजन पांडे
मुझे एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं - कि "गर्मियों में अपने मामा के घर छुट्टियाँ बिताने आई किसी मनचली लड़की की तरह लगती है यह नदी।" कितनी अच्छी बात है, किसी नदी की तरह, किसी लड़की का मनचली हो जाना, और एक मनचली लड़की का बाजार में दही खरीदने जाना और दही खरीदते-खरीदते प्रेम प्रसंग में दही की तरह जम जाना। जीवन की हर सांस प्रेम गंध से भरकर प्रेममय हो जाना, कितनी सुखद घटना है यह।

दही का इजाद जबसे हुआ, उसका उपयोग खाने,पीने और बाल धोने के लिए ही नहीं हुआ, बल्कि दही का योगदान जमने के साथ-साथ जमाने में भी हुआ। एक दिन अमृतसर के भीड़ भरे बाजार में, वह लड़की मामा के सर धोने के लिए दही लेने क्या जाती है, वहां एक अपरिचित लड़का मस्ती से सराबोर होकर पूछ बैठता है कि -"तेरी कुड़माई हो गयी? धत्.....। इस धत् शब्द माधुर्य और सौंदर्य बोध, दोनों के जाल में वह लड़का गिरफ़्त हो जाता है। एक दिन दोनो की फ़िर मुलाकात हो जाती है, फ़िर उस लड़के का उसी तरह प्रश्न, लेकिन उत्तर - "हां हो गयी, देखते नहीं रेशम से कढा हुआ सालू।"

इस बीच वह लड़की क्या बोलती है, वह लड़का क्या सुनता है, क्या समझता है, लगता है, गुलेरी जी उन दिनों अमृतसर के भीड़ भरे बाजार में, इस वाकये को देख रहे हों और सुन भी रहे हों- "एक प्रेम कहानी का जन्म हो जाता है,उसने कहा था।" उसने क्या-क्या कहा था, और जो कहा गया था उसे किसने कब निभाया, गुलेरी जी इस कहानी के सम्पूर्ण हद के साक्षी हो जाते हैं, फ़लस्वरुप हिन्दी कहानी के संसार में एक प्रेम कहानी का जन्म हो जाता है।

दही न होता, न वह लड़की दही खरीदने जाती, न उस लड़के से मुलाकात होती, न गुलेरी जी की कालजयी प्रेम कहानी का जन्म होता। इस तरह एक चिरस्मर्णीय प्रेम कहानी के प्रसंग में दही का जो योगदान रहा, उसे प्रेम कहानियों के पाठकगण कभी भूल नहीं सकते। बाल धोने के लिए एक मामा अपनी एक भांजी को दही लेने बाजार भेजते हैं, और भांजी बाजार में दही खरीदते-खरीदते प्रेम के महासागर में गोता लगा लेती है। दही उन दोनो के जीवन को प्रेममय बना देता है। जिसकी खुश्बु दिक् दिगन्तर तक चली जाती है।

चंद्रधर शर्मा "गुलेरी"
दही के जरिए एक छोटी सी मुलाकात, प्यार में तब्दील होकर दोनों के गले का हार बन जाती है। आज भी कई लड़कियां रोज दही खरीदने बाजार जाती होगीं, लेकिन सिर्फ़ दही खरीद कर ही वे वापस आ जाती होगीं। इस प्रेम कहानी के निर्माण में दही के इस महत्वपूर्ण योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। जब भी मैं दही देखता हूँ मुझे, अमृतसर के भीड़ भरे बाजार की याद आती है, और उस भीड़ भरे वातावरण में नदी की तरह उस मनचली लड़की की भी याद आती है। जिसने बाजार में उस लड़के से कुछ कहा था, उसने कुछ भी कहा था, सच कहा था, सच के अलावा कुछ नहीं कहा था। " वास्तव में दही स्वयं जमने के साथ दूसरों को भी जमाने का काम करता है।"

शनिवार, 11 जून 2011

सैर कर दुनिया की गाफिल --- तहलका में ब्लॉग ---- ललित शर्मा

तहलका डोट कॉम की पत्रिका ने अपना १५ जून का अंक यात्रा को समर्पित किया है. सैर कर दुनिया की गाफिल नामक अंक में यात्रा ब्लॉगस का भी जिक्र है.  विस्तार से पढने के लिए चित्र पर क्लिक करें.


गुरुवार, 9 जून 2011

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत--ललित शर्मा

विदेशी बैंको में जमा काला धन भारत लाने हेतू जनमत बनाने का काम लगभग 20 वर्षों से राजीव दीक्षित कर रहे थे। वे भारत के गाँव-गाँव में जनता के बीच अलख जगा रहे थे। लेकिन उनके पास संसाधन नहीं थे। वे प्रवचन देकर जाते और जनता सुन कर भूल जाती। बाबा रामदेव योग के जरिए देश-विदेश में प्रसिद्ध हो गए। उनसे राजीव दीक्षित का परिचय हुआ, दोनो ने काला धन वापस लाने के मुद्दे पर कार्य प्रारंभ किया। राजीव दीक्षित की मुहिम में बाबा जी शामिल हो गए। काला धन वापस लाने के लिए प्रचार-प्रसार एवं जन जागरण का कार्य बाबा रामदेव ने अपने शिविरों में प्रारंभ किया। लोगों को यह बात अच्छी लगी। तभी 2 जी घोटाला सामने आया, उसके बाद कामनवेल्थ एवं अन्य बड़े घोटाले प्रकाश में आए। जिसकी प्रतिक्रिया आम जनता में हुई और वह भी सोचने लगी कि वर्तमान केन्द्र सरकार घोटालो की जननी बन कर रह गयी है। आम जनता की पसीने की कमाई से घोटालेबाज लोग अपना घर भरने में लगे हैं।

अन्ना हजारे के भ्रष्ट्राचार विरोधी आन्दोलन की सफ़लता ने बाबा रामदेव के कान खड़े कर दिए। उन्होने विदेशी बैंकों से काला धन वापस लाने के लिए अपने सत्याग्रह की घोषणा पहले ही कर दी थी और यही सोचा होगा कि उनके अन्य शिविरों की तरह सरकार इस सत्याग्रह आन्दोलन को चलने देगी। इसी अति उत्साह में वे गलती कर बैठे। जब उनका सत्याग्रह प्रारंभ हुआ तो आम जन से लेकर फ़ेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग इत्यादि नए मीडिया पर उनके समर्थन करने वालों का ज्वार उमड़ पड़ा। इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया ने भी इन्हे भरपूर कवरेज दिया। लोग गाँव और शहरों में सत्याग्रह के समर्थन में धरने पर बैठ गये। सत्याग्रह प्रारंभ होते ही वातावरण ऐसा बन गया कि दिल्ली की कांग्रेस सरकार अब गयी और तब गयी। इससे सरकार की भी चूलें हिल गयी। वह बैकफ़ुट पर आ गयी और अपने मंत्रियों को बाबा से चर्चा करने के लिए भेजा। ये चर्चा करने होटल में चले गए। बस बाबा रामदेव से यहीं पर चूक हो गयी।

होटल में क्या चर्चा हुई? इसकी जानकारी मीडिया तक नहीं पहुंची और न ही आम देशवासियों तक। यही पर संदेह बीज पड़ गए। बाबा का अनशन प्रारंभ हो गया। लगभग एक लाख लोग रामलीला मैदान में देश के विभिन्न प्रांतो से पहुंचे। देश की जनता भ्रष्ट्राचार के खिलाफ़ खड़ी हो चुकी थी। उसे लग रहा था कि बाबा रामदेव के रुप में ईश्वर ने कोई देवदूत भेज दिया जो उनके रिसते हुए घावों पर मरहम लगाएगा। कुछ राजनैतिक पार्टियाँ तवा गर्म होने का इंतजार कर रही थी कि वो भी अपनी रोटियां सेंक ले, बहती गंगा में हस्तप्रक्षालन कर वे भी पावन हो जाएं। मुद्दों की कमी से जूझ रही पार्टियों को बैठे बिठाए मुद्दा  मिल जाए। जिस तरह शेर के शिकार पर सियारों की नजर रहती है ठीक उसी तरह ये भी ताक रहे थे। सरकार की कपट भावना सीधे-साधे बाबा जी समझ नहीं पाए एवं चक्रव्युह में फ़ंस गए। शाम को चिट्ठी सामने आते ही हवा बदल चुकी थी। सरकार के प्रवक्ता उन्हे ठग घोषित कर रहे थे। 

बाबा जी को अंदेशा नहीं था कि आधी रात को सरकार की दमनात्मक कार्यवाही हो जाएगी। सोए लोगों पर पुलिस ने अपने डंडे चला दिए और जलियांवाला बाग की याद दिला दी। सुबह तक समाचार देश भर में फ़ैल चुका था और सरकार की दमनात्मक कार्यवाही की घोर भर्तसना हो रही थी। आम नागरिक भी सरकार के दमनात्मक रवैये के खिलाफ़ अपना मुंह खोल चुका था। पुलिस के बर्बर दमन ने बच्चो, महिलाओं एवं वृद्धों को भी नहीं बख्शा। कांग्रेसी प्रवक्ता के बुद्धि पर तरस आता है। वे कह रहे थे कि "बच्चो, महिलाओं एव वृद्धों को रामलीला मैदान में लाने की क्या जरुरत थी?" अरे पहले ही बता दिया होता कि डंडे बरसेगें तो वैसा ही इंतजाम किया जाता। बाबा जी की कोई खोज खबर नहीं लगी थी। टीवी वाले मंच से कूदते हुए का फ़ुटेज दिखा रहे थे। दोपहर को बाबा प्रगट हुए सलवार कुरते में।

बाबा को टीवी पर सलवार कुरते में देख कर एक बारगी चौक गया और मीडिया को वक्तव्य देते हुए उनका रोना कुछ जंचा नहीं। पुरुषोचित कार्य करने वाले व्यक्ति पर कितना भी कष्ट आ जाए, रोते नहीं है। बाबा जी को अपनी हत्या का डर सता रहा था, महिलाओं को कवच बना कर रामलीला मैदान में हजारों की संख्या में उपस्थित घायल कार्यकर्ताओं को छोड़ कर चला आना कुछ जंचा नहीं। कांग्रेस सरकार इतनी बेवकूफ़ नहीं है कि इनकी हत्या करवा कर एक मुसिबत और अपने गले में डालती। दुरांचल से आए हुए लोग लाठी डंडे खा कर दिल्ली में भूखे प्यासे भटकते रहे। इनको गिरफ़्तारी दे देनी थी और जेल चले जाना था लेकिन दिल्ली नहीं छोड़नी थी। जो कपालभाति और अनुलोम विलोम बाबा जी शिविर में कर रहे थे, वो जेल में भी कर सकते। जिससे लोगों का विश्वास तो बचा रहता। ये  आर्य समाज की उस परम्परा से आते हैं जहाँ स्वामी दयानंद, लाला लाजपत राय, भगत सिंह, स्वामी श्रद्धानंद, हुतात्मा लेखराम, महाशय राजपाल जैसे बलिदानी लोग हुए हैं, और देश धर्म हित अपने प्राणों की बलि दी है।

आज बाबा जी ने 11000 सैनिकों की सेना बनाने का एलान कर दिया और कहा कि दमन होने पर सेना जवाब देगी। इस वक्तव्य से लगता है कि बाबा के दिमाग में गर्मी चढ गयी है । लोकतंत्र में व्यक्तिगत सेना बनाने का अधिकार किसी को नहीं है और हमारा संविधान भी इस बात की स्वीकृति नहीं देता। भारत के संविधान को मानने वाले संविधान को चुनौती देने का कार्य कैसे कर सकते है। देश की जनता ने बाबा को अहिंसात्मक आन्दोलन में सक्रिय योगदान दिया। जब हिंसा ही करनी है तो नक्सली क्या बुरे हैं, उन्हे तो महारत हासिल है हिंसात्मक लड़ाई लड़ने में। क्यों लोग जान गंवाएगें बाबा के साथ। जिसमें नेतृत्व की क्षमता होती है वह निहत्थे ही आत्मबल के सहारे लड़ाई जीत सकता है। भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध लड़ाई संवैधानिक दायरे में ही रह कर लड़नी चाहिए।

बातन हाथी पाईए और बातन हाथी पाँव। बाबा की की प्रसिद्धि का ग्राफ़ दो दिन में ही गिर गया। उनके अनशन को समाप्त करने के लिए गन्ना रस पिलाने वाले भी नही दिख रहे। देश की जनता ने इन पर विश्वास जताया था, लेकिन मुझे लगता है कि इनके पास नेतृत्व की क्षमता नहीं है, मंच पर बैठ कर योगासन करा लेना एवं प्रवचन दे देना सरल है, पर मैदान में आने के बाद भीड़ का नेतृत्व करना कोई आसान काम नहीं है। कांग्रेस सरकार ने निहत्थे लोगों पर लाठियाँ चलाई उसकी हम पुरजोर निंदा करते हैं, लेकिन इनके राम लीला मैदान छोड़ कर भागने वाले कार्य की सराहना नहीं कर सकते। एक बात तो है कि इस आन्दोलन से जनता जागरुक हुई है और इसका परिणाम आने वाले चुनाव में अवश्य दिखाई देगा। भारत की जनता इंतजार कर रही है कि सवा अरब की जनसंख्या वाले देश में कोई तो ऐसा आएगा जो उसे भ्रष्ट्राचारियो एवं अत्याचारियों से निजात दिलाएगा।

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 
अभ्युत्थानं अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहं।
परित्राणायत साधुर्नाम विनाशाय च दुष्कृताम्। 
धर्म संस्थापनात्ध्याये सं भवामी युगे युगे।


नोट-उपरोक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं।
फ़ोटो -- गुगल से साभार, किसी को आपत्ति होगी तो हटा दी जाएगीं।