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गुरुवार, 29 सितंबर 2011

अपन खाथे गूदा गूदा, हमला देथे बीजा बीजा --- ललित शर्मा

छत्तीसगढ की विद्युत व्यवस्था चरमरा गयी है, सरपल्स बिजली होने का दावा करने वाले राज्य में विगत 4 दिनों से अघोषित विद्युत कटौती का सामना करना पड़ रहा है, बिजली कब जाती है इसका पता नहीं। आज रात भर बिजली बंद रही, मंत्रियों के बंगले पर दिन में भी स्ट्रीट लाईट जल रही है और गाँव कस्बों में रात में भी बिजली नहीं। इससे आक्रोश बढता जा रहा है। नवरात्रि का उत्सव चल रहा है, गाँव कस्बों में दुर्गा पूजा चल रही है, दुसरी तरफ़ बच्चों के तिमाही इम्तिहान जारी है। ऐसे समय में बिजली उपलब्ध न होने के कारण बच्चों की पढाई में व्यवधान उत्त्पन्न हो रहा है।

अम्बेडकर मंगल भवन सिविल लाईन रायपुर के पास की जलती हुई स्ट्रीट लाईट 4 बजे दिन
जनता पड़े भाड़ में नेताओं को तो अपना सुख चाहिए, खैर जनता ने चुन कर भेजा है इतना हक तो बनता है यार  :)। विद्युत व्यवस्था सुधरे तो फ़िर मिलते हैं, नयी पोस्ट के साथ। नवरात्रि पर्व की शुभकामनाएं एवं बधाई।

NH-30 सड़क गंगा की सैर

बुधवार, 28 सितंबर 2011

तू मेरी खुजा और मैं तेरी खुजाऊँ --- ललित शर्मा

देश आजाद होते ही राजतंत्र, लोकतंत्र में बदल गया। नए जनराजा ने सत्ता संभाली। सत्ता सुख के साथ राजाओं के सुख एवं अधिकार भी जनता तक पहुंचे। राजतंत्र में प्रत्येक सुख राजा एवं उसके रागियों के लिए उपलब्ध होते थे। राजा प्रसन्न हो जाता था तो वह सुख कभी-कभी मुंहलगे को भी मिल जाता था। इसमें एक सुख खुजली करने का सुख था। खुजली का सुख तो सिर्फ़ खुजाने वाला जानता है। खुजली को भी एक राज रोग ही माना जाता है। खुजाते हुए जो आनंद की अनुभूति होती है, उसे तो सिर्फ़ खुजाने वाला ही जानता है। लोकतंत्र में प्रजा को भी खुजाने की छूट है। जिस तरह तख्त तक आम जन की पहुंच हो गयी उसी तरह खुजली के द्वार आमजन के लिए खुल गए हैं।

रचनाकारों को खुजली के बड़े भाई दाद की जरुरत होती है। खाज तो थोड़ी देर खुजाने का सुख देती है लेकिन दाद होने पर लम्बे समय तक खुजाने का सुख लिया जा सकता है, यह दीर्घकालिक आनंद देता है। इसकी मीठी-मीठी खुजली के तो क्या कहने। आनंद बयान करने के लिए शब्द नहीं मिलते, मान कर चलिए गुंगे के गुड़ जैसी बात है। खुजली चलती रहती है तो नयी-नयी रचनाओं का जन्म हो जाता है। बिना खुजली के कैसी रचना? और कोई रचना छप गयी तो समझिए खुजली मोहल्ले भर को आनंद देती है। क्योंकि रचनाकार के साथ मोहल्ले का भी नाम जुड़ा होता है। खुजाने का सुख मोहल्लेवालों को भी मिलता है। भले ही खुजा-खुजा  कर लहूलुहान हो जाएं, लेकिन खुजाएगें जरुर।

खुजाने के लिए नाखून जैसे अस्त्र भगवान ने दिए हैं। अगर नाखून न हो कैसे खुजाएं? कहावत है कि गंजे को नाखून नहीं दिए भगवान ने, नहीं तो खुजा-खुजा कर खोपड़ी लहूलुहान कर लेता। अब गंजे की खोपड़ी दूसरा कौन खुजाएगा, उसे खुद ही खुजानी पड़ेगी। इसके लिए बाजार में नाखून भी आ गए हैं। तरह-तरह के रंगबिरंगे नाखून लगाओ और जी भर के खुजाओ। हाँ नाखून काटने की सुविधा नहीं मिलेगी, क्योंकि ये नाखून बढते ही नहीं हैं। चलो बढ जाएं तो पीठ खुजाने के काम आएं, बड़ी समस्या तब होती है जब पीठ खुजाती है। इसकी खुजली मिटाने के लिए तो जर्मन मेड लट्ठ ही कारगर होता है। पीठ की खुजली उसी से मिटती है।

अब खुजाने वालों की क्या कथा बताएं, एक से एक खुजाने वाले पड़े हैं। कोई मतलब से खुजाता है कोई बेमतलब के। मेरे साथ एक मित्र दिल्ली आए, बड़े नेताओं से मिलने के लिए। हम जहाँ भी थोड़ा आराम से बैठते, वे मुंह, कान से लेकर हाथ-पैर सब खुजा डालते। मैने दो चार जगह देखा, फ़िर रहा नहीं गया। यार जहाँ भी बैठो वहीं खुजाने लगते हो, कम से कम जगह तो देख लिए करो, साले अपने साथ हमें भी खुजली बांट रहे हो। तो दूसरे मित्र ने कहा कि-“ इसको वो खुजली वाली खुजली नहीं है, ये तो सिर्फ़ यह चेक करने के लिए खुजाता है कि अमल का नशा उतरा तो नहीं है।“ अमल का नशा उतरा याने हरकत बंद। 

खुजली का सबसे बड़ा वेयर हाऊस सत्ता का केन्द्र दिल्ली बना। सत्ता के गलियारों में तरह-तरह के खुजली वाले मिल जाएगें। कुछ तो मौका पाते ही खुजाने लगते हैं। इनको बस खुजाने से मतलब, चाहे किसी की भी खुजाएं। मूड़ खुजाने से लेकर सब खुजा डालते हैं। कुछ लोगों को तो चलते-चलते खुजाने की बीमारी होती है। जहाँ दिखे नेता जी उनकी खुजाना शुरु कर देते हैं। नेता जी मंत्री की खुजाते हैं, मंत्री जी प्रधान मंत्री की खुजाते हैं। जब प्रधानमंत्री को मैडम का बुलावा आता है तो सबसे पहले मूड़ खुजाते हैं फ़िर दाढी खुजाते हैं, उसके बाद हाजिरी बजाने जाते हैं। दिल्ली की खुजली गाँव में पंच-सरपंच तक पहुंच गयी है। यहाँ भी ये खुजाते ही रहते हैं। कुछ तो खुजा-खुजा कर ही बड़े-बड़े पदों तक पहुंच गए हैं। कुछ की इन्होने खुजा खुजा कर वाट लगा दी है। जिनकी वाट लग गयी वे कोने में खड़े-खड़े सोचते रहते हैं कि अब किसकी खुजाई जाए जिससे कुछ खुजाने लायक ठिकाना तो मिल जाए। कुछ तो खुजाने में इतने माहिर हो गए कि खुजली श्री ही पा गए।

कुछ लोगों को खुजली सिर्फ़ पंगा लेने के लिए होती है। दिन भर बैठे गुंताड़ा लगाते रहते हैं कि आज किसकी खुजाएं जिससे पंगा हो और उनकी खुजली मिटे। ऐसे लोगों की कमी नहीं है। हम भी कु्छ परजीवी टाईप के लोगों से परिचित हैं, जो कभी इधर-कभी उधर झांकते फ़िरते हैं कि किधर पंगा लिया जाए या पंगा कराया जाए, जिससे उनकी दिमागी खुजली मिटे, अगर वे साक्षात सामने मिल जाएं हमें तो हाथ-गोड़, मूड़-कान, पीठ-पेट की  खुजली भी मिट जाए। कुछ लोग तो जब तक बंदर जैसे खुजा नहीं लेते नहाने की सोचते ही नहीं। जब खुजाने में खर्र खर्र की आवाज ना आए नहाने का क्या मतलब? तब तक पंगे लेते रहो और खुजली मिटाते रहो। पंगे की खुजली वालों के लिए एकमात्र दवाई जालिम लोशन ही है ये मान कर चलिए। जब तक आप जालिम नहीं बन जाएगें, तब तक ये जालिम मानते नहीं है।

कु्छ लोगों की उंगलियाँ तो दिन भर नाचती हैं। अगर पाकिटमारी करते तो दिन भर में खूब कमाते। इसमें खेल उंगलियों का ही होता है। उंगलियों के पोर इतने संवेदनशील होते हैं कि इनके स्पर्श से ही पता चल जाता है कि किसकी जेब में कितना माल है। उंगलियों की खुजली मिटाने के लिए पाकिटमारी सही रास्ता नहीं है। अच्छा भला आदमी खुजाल के चक्कर में अपराध की ओर न मुड़ जाए, यही सोचकर कम्पयुटर के कीबोर्ड का अविष्कार हुआ होगा। खटाखट उंगलियाँ चलाओ और खुजली मिटाओ। कीबोर्ड का सिपाही उंगलियों में चल रही खुजली मिटाने के लिए कीबोर्ड पर खटाखट उंगलियाँ चलाता है, स्पर्श सुख से उंगलियों की खुजाल मिटती है और धड़ा-धड़ टाईप भी होते चला जाता है। आम के आम और गुठली के दाम, खुजाल भी मिटी और एक पोस्ट भी तैयार हो गयी।अगर कीबोर्ड न हो तो उंगलियों की खुजली कैसे मिटे यह एक यक्ष प्रश्न है।

लोकतंत्र में खुजाने का अधिकार सबको है और सभी को खुजली का समान वितरण होता है। आज तक किसी ने शिकायत नहीं की है, किसी ने धरना, प्रदर्शन आन्दोलन नही किया कि उसके हिस्से की खुजली कोई बेच खाया या नकली मस्टररोल बना कर खुद हजम कर गया। खुजली के लिए बजट में भी कोई अतिरिक्त प्रावधान नहीं किया जाता। जिस तरह अमेरिकन गेंहूँ के साथ कांग्रेस(गाजर) घास चुपचाप बंट गयी देश में। उसी तरह खुजली भी आम बजट के साथ बराबर हिस्सों में स्वत: बंट जाती है। जिसकी जितनी औकात उसको उतनी ही खुजली का कोटा अपने आप मिल जाता है। अगर खुजली के इस आनंद का पता वित्त मंत्री को चल गया तो इस पर मनोरंजन कर तत्काल लगा दिया जाएगा। तू मेरी खुजा और मैं तेरी खुजाऊँ, मतलब खुजाऊँ। खुजाने का अनंत सुख लेना है तो खुजाना ही पड़ेगा। जब तक खुजली पर मनोरंजन टैक्स नही लगा है, तब तक खुजा खुजा कर खुजली का असली सुख लें। 

चित्र - गुगल से साभार   

सोमवार, 26 सितंबर 2011

500 पोस्ट, दस हजारी टिप्पणी क्लब और जिन्दगी के मेले ---- ललित शर्मा


पाबला जी का जन्मदिन 21 सितम्बर को था और 30 सितम्बर को शरद कोकास जी का जन्मदिन है। 21 तारीख को मैने सोचा कि दोनो का जन्मदिन एक साथ ही मना लिया जाए। बहुत दिन हो गए थे भिलाई गए, दिल्ली के कार्यक्रम के बाद हम आपस में मिले भी नहीं थे। सुबह बनाई हुई योजना तत्काल सिरे चढ गयी। सोचा कि बिना अनुमति लिए ही प्लांट में घुस जाएं, वैसे भी हम लालबत्ती जम्प करने के आदी हैं :) बड़े गुरुजी से चर्चा होने पर उन्होने भी साथ चलने की मंशा जताई। 10 बजे बड़े गुरुजी के ऑफ़िस में पहुंच गया। रात जागरण के कारण नींद तो आ रही थी पर भिलाई जाना तय था। संजीव तिवारी जी को फ़ोन पर आने की सूचना दी, शरद भाई से सम्पर्क नहीं हुआ। हम भिलाई चल पड़े, रास्ते में बड़े गुरुजी बार-बार गाड़ी धीरे चलाने के लिए टोकते थे। वैसे गाड़ी तो धीरे ही चला रहा था पर सवारी भाप के ईंजन के जमाने की होने के कारण इलेक्ट्रिक इंजन में बैठने पर उसे डर लगना लाजमी है। हम दोनो के बीच रास्ते भर यहीं खींचा-तानी होती रही। झगड़ा तो नहीं हुआ, किसी तरह होटल हिमालय तक पहुंच गए।

बड़े गुरुजी बड़ा के चक्कर में
वहां संजीव भाई हमारा इंतिजार कर रहे थे। शरद भाई को फ़ोन लगाने पर पता चला कि वे कहीं व्यस्त थे, थो। थोड़ी देर में उन्होने आना स्वीकार किया। पाबला जी ड्युटी पर थे, तो हमने सोचा कि जन्मदिन ऑफ़िस में ही मनाया जाए। रास्ते में जन्मदिन मनाने का सामान खरीदा गया, बुके, केक, मोमबत्ती, केक काटने के लिए चाकू और मोमबत्ती जलाने के लिए माचिस भी। सारा इंतजाम साथ ही होना चाहिए। जिससे किसी वस्तु के कारण काम न अटक जाए और विघ्न न हो। पाबला जी ने हमें इस्पात भवन के काफ़ी हाऊस में बुलाया। जब हम पहुचे तो सामने ही नजर आए। बोले पहले कुछ खाना-पीना हो जाए। यह भी आवश्यक था, घर से चले 5 घंटे हो गए थे। मैने इडली का ऑडर दिया तो बड़े गुरुजी  ने सांभर बड़ा मंगाया। मुझे पूर्वाभास है कि अगर मैं सांभर बड़ा मंगाता तो अवश्य बड़े गुरुजी इडली से काम चला लेते। पीने के लिए पेप्सी मंगाई गयी। भिलाई के नए ब्लॉगर डब्बू मिश्रा जी भी सबसे मिलना चाहते थे। इस अवसर पर उन्हे भी फ़ोन करके बुला लिया गया। वे आंखो देखी के पत्रकार कमल शर्मा जी के साथ पंहुचे। फ़िर काफ़ी हाऊस में पार्टी जम गयी।

हैप्पी बर्थ डे पाबला जी
डब्बु मिश्रा जी की नास्त्रेदमस वाली एक पोस्ट को हरिभूमि ने अपने मुख्यपृष्ठ पर बिना किसी नाम एवं सूचना के प्रकाशित कर दिया था। डब्बू मिश्रा जी सम-सामयिक विषयों पर अच्छा लिखते हैं। इस अवसर उनसे मिलना अच्छा लगा। जिन्दगी के मेले लगाने वाले अजीज साथी पाबला जी से ब्लॉगिंग पर बहुत कुछ सीखने मिलता है। वे तकनीकि ज्ञान से समृद्ध हैं और तकनीकि ज्ञान आम ब्लॉगर तक पहुंचाते रहते हैं। जिन्दगी में प्यार और सौहाद्र हो तो फ़िर कहना ही क्या है। वर्ष 2010 इनके लिए हादसों से भरा रहा, जिसका अनुभव मैने भी किया। आम इंसान इतने हादसों में टूट जाता है, पर हादसों ने इन्हे और भी मजबूत बना दिया। जिन्दगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दा दिल क्या खाक जीया करते हैं। बस यही जिंदादिली इन्हे आम इंसान से खास बनाती है। हमने आफ़िस में मोमबत्तियाँ जलाई और केक काट कर बर्थ डे ब्वाय को दिली मुबारकबाद दी। जब गले मिले तो आँख भर आई। दिल ही है न संगोखिस्त दर्द से भर न आए क्यूँ। शाम होने को थी, बादल शोर कर के चेतावनी दे रहे थे, अब चल पड़ो नहीं तो फ़िर मुझे न कहना कि चेताया नहीं। साथियों से विदा लेकर हम गंतव्य की ओर निकल पड़े। गा लो मुस्कुरा लो, महफ़िलें सजा लो....।

संजीव जी, कमल जी, ललित शर्मा,  डब्बु जी, पाबला जी, बड़े गुरुजी
रास्ते भर हमारी वही पुरानी रफ़्तार रही, इस समय ट्रैफ़िक कुछ बढ गया था, बड़े गुरुजी बोले की नंदन वन आ गया है। मैने कहा कि देख कर चलते हैं मुझे भी बरसों हो गए इधर आए। हम नंदन वन पहुंच गए। नंदन वन की कथा फ़िर कभी। ब्लॉग नंदन कानन में ललित डॉट काम की यह 503 वीं पोस्ट है, अभी तक 10,001 टिप्पणियाँ दिख रही हैं। अर्थात हम भी दस हजारी क्लब में पहुंच गए। 9999 वीं टिप्पणी अंजु चौधरी बहन की है, 10,000 वीं टिप्पणी संगीता स्वरुप जी की आशीर्वाद स्वरुप प्राप्त हुई एवं 10,001 वीं टिप्पणी बर्थ डे ब्वाय की मिली। इस तरह हमने भी 10,000 का जादूई आंकड़ा पार ब्लॉग पर आए थे तब समीर भाईमानसिक हलचल वाले ज्ञानदत्त जी एवं ताऊ जी की दस हजारी देखी थी। अब तो वे और भी आगे बढ गए होगें। हाँ अगर इसमें हम अपनी टिप्पणी जोड़ते तो कब के दस हजारी हो जाते। पर सोचा कि धीरे धीरे ही चलें तो संतुष्टि मिलेगी। अपने ब्लॉग पर खुद ही कमेंट करके मुझे टिप्पणी संख्या बढाना जंचा नहीं। आवश्यक होने पर जवाब रुपी कमेंट किया जा सकता है। इस अवधि में हमने ब्लॉगिंग कैसे करनी है, इस विषय पर बड़े गुरुजी के निर्देश एवं सलाह मिलती रही। जिसके सहारे कुछ समझ आई। ब्लॉग को लोगों ने ही-ही फ़ी-फ़ी का अड्डा बना लिया। कुछ लोग हैं जो एक सार्थक उद्देश्य को लेकर ब्लॉगिंग कर रहे हैं। उन्हे साधुवाद देता हूँ जो इस मंच का सार्थक उपयोग कर रहे हैं। 

पोस्ट लिख रहा था तभी चैट बॉक्स पर एक चैतराम जी आए, शायद वे मुझसे पहली बार मिल रहे थे। उन्होने लिखा (#-Namaste,* हमने जवाब दिया - नमस्ते, Kaise h, मस्त, Kya krte h, कुछ नहीं,निठल्ले हैं, padhai, हां, Kya? ब्लॉग़, Kaun sa, जो मिल जाए रुचि अनुसार, Visit http://xxxx-xxxxx.blogspot.com, आएगें,समय मिलते ही, Dhanyawad, Aur koi kaam krte h? नहीं, होगा तो बताना, अरे यार काम के लिए कह रहा हूँ ) उदाहरण देने का तात्पर्य है कि जब ब्लॉग कम थे तो उनमें नित्य अपडेट करने वालों की संख्या भी कम थी। एक-दुसरे के ब्लॉग पर जाने के कारण परिचय हो जाता था।

तब हम लगभग सभी ब्लॉगों पर एक फ़ेरा लगा ही लिया करते थे। चिट्ठा जगत की मेल से नए ब्लॉग्स की जानकारी भी मिल जाती थी। लेकिन अब संभव नहीं है, लगभग 30,000 हिन्दी ब्लॉग्स हो चुके हैं, जिनमें से 6000 ब्लॉग छत्तीसगढ से ही हैं, सभी ब्लॉग्स को मिलाकर 500 तो नित्य अपडेट होते होंगे। सभी तक पहुंचना संभव नहीं है। जब हम सभी तक नहीं पहुंचते तो इस तरह की स्थिति बन जाती है कि हम कई ब्लॉगर्स को जानते भी नहीं हैं और यह भी पता नहीं चलता कि कौन, कहाँ, क्या लिख रहा है? नए ब्लाग जानने के लिए सर्च इंजन ही एक मात्र सहारा है और सर्च इंजन पर भी वही ब्लॉग आते हैं जो विषय आधारित ब्लॉगिंग कर रहे हैं। अब यह समझना ब्लॉगर्स के उपर है कि वे किस तरह की ब्लॉगिंग करें।

सभी जानते हैं कि ब्लॉग प्लेट फ़ार्म गुगल का मुफ़्त का है, जितने चाहो उतने ब्लॉग बनाओ और फ़िर उसे अधर में छोड़ दो। गुगल समय-समय पर चेक करता है और बरसों से अपडेट न होने वाले ब्लॉग्स को हटा भी देता है। रोज समाचार मिलते थे कि गुगल ब्लॉग बंद कर रहा है, बैकअप ले लिया जाए। बैक अप लेना समस्या का स्थायी समाधान नहीं था इसलिए हमने वेब साईट की तरफ़ ध्यान दिया और दो वेब साईटों का निर्माण किया। पहली ललित कला दुसरी न्युज एक्सप्रेस, दोनो सर्वर पर निजि होस्टिंग पर है। अब हम गुगल के खतरे से बाहर हो गए। जो ब्लॉग पर लिखते हैं उन्हे वेबसाईट पर भी अपडेट करते हैं। जिन्हे लम्बे समय तक ब्लॉगिंग करना है उन्हे देर सबेर अपनी साईट और खुद की होस्टिंग पर आना ही पड़ेगा। नहीं तो बरसों की करी कराई मेहनत पर पानी फ़िरते समय नहीं लगेगा। ब्लॉगर्स ने तन-मन-धन-समय लगा कर जो लिखा है वह एक क्लिक में ही स्वाहा हो सकता है। कुछ ब्लॉगर अपने डोमेन एवं होस्टिंग पर आ रहे हैं। वे समझदारी का काम कर रहे हैं। 

शह-मात का खेल (जो सीखा नही)
सभी ब्लॉगर्स मित्रों का आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होने ने अपने स्नेह से ब्लॉगिंग में जुड़े रहने में मदद की। एक समय ऐसा भी आया था कि मैं ब्लॉगिंग छोड़ कर जा चुका था और कई महीनों तक नहीं लिख पाया था। ब्लॉगर मित्रों का स्नेह ही वापस खींच लाया, तभी मुझे लगा कि ब्लॉग जगत को भले ही आभासी कह दिया जाता है पर वास्तविक रुप से परिवार ही है, जिसमें हम एक-दुसरे की चिंता करते हैं, और किसी ब्लागर के कई दिनों तक दिखाई न देने पर उसे मेल करके या चलभाष से उसका कुशल क्षेम पूछते हैं। यही स्नेह मुझे 80 किलोमीटर भिलाई तक खींच कर ले गया पाबला जी का जन्मदिन मनाने के लिए। यहाँ शह, मात का खेल नहीं है सभी को साथ चलना है। संगच्छध्वम् के मूल मंत्र के साथ सभी को सफ़र में साथ रहना है। जब तक जिन्दगी है तब तक लगते रहेंगें जिन्दगी के मेले।  मित्रों का कोटिश: आभार।


ब्लॉगोदय की सैर पर आईए

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

भूख मिटाने वाला साल्युशन -- ललित शर्मा

जूझती हैं कोहरे से
नित सूर्यकुमारियाँ
श्रमिक की तरह
रोटी के लिए
पृथ्वी का भार
कांधे पर लादे
बोझ से दबा एटलस
चलता है अनवरत
भूख मिटाने के लिए
कल पर्चे बंटे
बाजार मे
भूख मिटाने वाला
साल्युशन बनकर
तैयार
अब बोझा उतार दो
एटलस

बुधवार, 21 सितंबर 2011

पाबला जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाए ---- ललित शर्मा

जिन्दगी के मेले लगाने वाले अजीज ब्लॉगर बी.एस. पाबला जी को जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएं. 

यूँ ही जिन्दगी के मेले लगाते रहो और हँसते खिलखिलाते रहो जीवन भर, यही अरदास है.


* जन्म दिन मुबारक हो *

Birthday Glitter Graphics and Scraps for Orkut, Myspace, Facebook, Hi5, Tagged



Happy Birthday Myspace Comments





Birthday Scraps


सूर्यकान्त गुप्ता जी, संजीव तिवारी, शरद कोकाश, ललित शर्मा, बी.एस.पाबला, बालू भाई 

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

पितृ तृप्तिकरण परियोजना --- ललित शर्मा

पितृपक्ष लगते ही रुठे पितरों को मनाने एवं मने हुए पितरों की श्रद्धा सेवा याने श्राद्ध की तैयारी होनी शुरु हो जाती है। लोकमान्यतानुसार पितर पितृ पक्ष में ही आते हैं। कहते हैं "जीयत पिता से दंगम दंगा, मरे पिता को पहुंचाए गंगा।" कथावाचक महाराज - जीवंता ने न दियो अनाज और मरया को कर दियो काज। जीते जी कुछ भी कैसा भी रहा हो पर मरने के बाद उसे पितर मानना जरुरी है। मृत्यु के तीसरे साल नए पितरों को पुराने पितरों से मिलाने की परम्परा है। उसके लिए भी बड़ा आयोजन किया जाता है, कुटुम सगे संबंधियों, बहन, बेटी को बुलाया जाता है, भोज के साथ मन भर दक्षिणा भी दी जाती है। तभी पितर तर्पण से तृप्त होकर नए पितरों को अपनी बिरादरी मे शामिल करते हैं। पितरों का रुठना-मनाना भी बहुत होता है, मनाने की इस प्रक्रिया में पुरोहित महाराज की भूमिका महत्वपुर्ण होती है। पुरोहित की दान दक्षिणा कम रह जाए तो पितरों को मनाना और भी कठिन हो जाता है साथ ही काल सर्पदोष का खतरा और बढ जाता है। इसलिए पितर खुश हों या न हो पर पुरोहित का खुश होना जरुरी है।

एक बार बेमतलब ही ज्ञानार्जन के लिए गरुण पुराण पढने की इच्छा हो गयी। जिज्ञासावश रेल्वे स्टेशन की दुकान से खरीद लाया। घर लाकर पढना शुरु किया, एक दो अध्याय पढे थे कि रात को अचानक चाचा जी तबियत खराब होने की सूचना मिली, टीवी पर कौन बनेगा करोड़पति सीरियल चल रहा था, करोड़पति को छोड़ कर आधे अधुरे कपड़े पहन कर भागे, जाकर देखा तो वे उठने के लायक नही थी, सांस लेने में तकलीफ़ हो रही थी। जल्दी से उठाकर कार में बैठाया गया और फ़ुल स्पीड में शहर के अस्पताल का रुख किया, उन्हे हृदयाघात हुआ था, आधे रास्ते में ही सांस रुक गयी। अस्पताल भी नहीं पहुंच पाए। वहीं से गाड़ी वापस लेकर घर आ गए। सुबह क्रिया कर्म किया गया। खबर लगते ही सब सगे संबंधी पहुंचने लगे। उन्हे पता चला कि मैं गरुड़ पुराण बांच रहा था। सब मेरे उपर चढ बैठे, कि बेमतलब के गरुड़ पुराण बांचने का फ़ल देख लिया। मैने कहा कि - जो व्यक्ति जीते जी गरुड़ पुराण बांच लेता है वह अमर हो जाता है। मरने के बाद तो कौन सुनता है? अगर चाचा जी भी बांच लेते तो मरते ही नहीं, क्योंकि उसमें मृतक क्रिया के लिए जितनी दान-दक्षिणा पुरोहित को देना लिखा है, सारी प्रापर्टी भी बेच कर नहीं चुका सकते थे। अब ऐसी हालत में कौन मरकर पितर बनना पसंद करेगा।

एक दिन पहले से ही पितर जी को खुश करने की तैयारी शुरु हो गयी। उत्तम पक्का भोजन बनना चाहिए, क्योंकि जब तक पितर जी का मन प्रसन्न नहीं होगा तब तक सुचारु रुप से गृहस्थी चलने का आशीर्वाद नहीं मिलेगा। कहते हैं किसी के मन को खुश करने का रास्ता पेट से होकर जाता है। पकवानों से पेट भरा रहे तो सब खुश। श्रीमती जी ने शाम से ही बड़बड़ाना शुरु कर दिया कि - "दुध वाला 5 लीटर दुध सुबह ही दे गया। बार बार बिजली जाने से फ़्रिज गरम हो गया है, ऐसे में खीर के लिए दुध कैसे बचेगा? शाम को उसे दुध लाना चाहिए था। सब्जी के तोराई नहीं आई है, कल तोराई की सब्जी बनाना जरुरी है।" मैने कहा - "अभी हाजिर हो जाएगी, फ़ालतु टेंशन लेने की जरुरत नहीं है।" बाजार पहुंचने पर पता चला की तोराई 70 रुपए किलो बिक रही है। सब्जी वाले ने बताया कि पितृपक्ष में तो मंहगी ही मिलेगी। 2-4 रुपए किलो बिकने वाली तोराई के भाव आसमान पर थे। तोराई की बेलें यूं ही घर में पेड़ों पर लटके रहती थीं, कोई तोड़ता भी नहीं था, सुखने पर उसके रेशों का उपयोग नहाने-धोने के ही काम आता था। लेकिन अब तोराई भी तसमई बन गयी।

घर पहुंचने पर नया आदेश मिला कि - "पंडितों को भोजन के लिए कहा कि नहीं।" मैने कहा - "भूल गया।" "तीन दिनों से कह रही हूँ कि पंडितों को भोजन करने के लिए फ़ोन कर दो, लेकिन मेरी सुनते कहाँ हो? दिन और रात इस कम्प्युपर बैठे-बैठे खोपड़ी खराब हो गयी है।", मैने कहा - अरे इसमें नाराज होने की क्या बात है, तुम भी चलाना सीख लो, कितने दिनों से कह रहा हूँ, मेरी बात पर ध्यान ही नहीं देती। एक ब्लॉगर और बढ जाएगा।" श्रीमती जी बोली - "मैं तो इसको आग भी नहीं लगाने वाली। फ़ालतु बैठे ठालों का काम है। मुझे तो बहुत काम है, मुबारक हो आपको कम्पयुटर।" मेरा ये दांव भी बेकार गया। मैने कहा - ऐसा कम्प्युटर चलाने में और लिखने में कौन सा जोर लगता है। लिख लेना दो चार लाईन और लगा देना अपने ब्लॉग पे, कविता हो जाएगी। कमेंट भी मेरे से अधिक ही मिलेगें।" "फ़ालतु काम छोड़ो पहले पंडितों को फ़ोन लगाओ।" अब आदेश मानना जरुरी था। रात दस बजे चौबे जी, शर्मा जी और पाण्डे जी को फ़ोन लगाकर भोजन का निमंत्रण दिया। एक ने तो असर्मथता जाहिर कर दी। बाकी तैयार हो गए।

सुबह 3 बजे से ही कड़ाही की आवाजें आने लगी। मुझे भी उठा दिया गया - "मैने कहा पितर जी को तो आने दो, अभी तो वे भी सोए होगें। 4 बजे ही मुझे जगा रही हो।" "पानी गर्म है फ़टाफ़ट नहा लो, मैं रसोई तैयार कर रही हूँ सुबह 8 बजे पंडित जी आ जाएगें"-जवाब मिला। पितर जी आना मुझे हमेशा कष्टदायक लगता है। अब सुबह से ही नया ड्रामा शुरु हो जाएगा। कौंवों को ढुंढा जाए, कौंवे भी इतने होशियार की बरस भर सिर पर बैठकर कांव-कांव लगाए रहते हैं और पितर आने पर गायब हो जाते हैं। छत पर चिल्लाते रहा मजाल है कोई एक कौंवा भी दिख जाए। बहुत इंतजार के बाद एक कौंवा आया, मै थाली लेकर खड़ा कांव-कांव कर रहा, वह भी भाव खा रहा था। डिस्क के एन्टिना पर बैठा मुझे कोई तवज्जो नही दे रहा था।  आज इन्होने ही मुझे अपनी बिरादरी में शामिल कर लिया। जब पितर ही इनके द्वारा भोजन ग्रहण करते हैं तो इनकी बिरादरी में ही शामिल समझा जाए। ज्ञानी कहते हैं कि जब कोई मनुष्य धरती पर आता है तो उसका पहला जन्म कौंवे के रुप में ही होता है, इसलिए पितर कौंवे के रुप में ही आते हैं। इनको भोजन कराने से पितर तृप्त होकर आशीर्वाद देते हैं। हम लगे रहे आशीर्वाद पाने की प्रक्रिया में। थोड़ी देर में कौंवा महाराज हमारे मनुहार से प्रसन्न हो गए और उन्होने भोजन ग्रहण किया।

अगला कदम था गाय को खिलाना। गाय तो हमारे घर पर नहीं है। इसलिए खीर पुरी की थाली साथ में लेकर गाय ढुंढनी पड़ती है। जहाँ कहीं भी मिल जाए उसका स्वागत सत्कार किया जाए। गाय को खिलाना भी जरुरी होता है, गाय में समस्त देवताओं का वास बताया गया है। हमारे घर में बारहों महीना गाँव की गाएं आकर हरी-हरी घास चरती हैं पर जिस दिन पितर आते हैं, इनका भाव बढ जाता है, एक भी दिखाई नहीं देती। माता जी समेत पुरा घर गायों को ताकते रहता है। घर के सामने से गाँव की सारी गाएं लेकर चरवाहा चराने जाता है, इधर गाएं नजर नहीं आ रही थी और पंडितों के आने का समय हो चुका था। बिना गाए को खिलाए पंडितों को कैसे खिलाएं, आज उन्हे भी कई जगह जाना रहता है भोजन करने। तभी सामने एक गाय आती दिखाई, दौड़ कर उसके पास गया। उसका मुंह और पैर धोकर आदर के साथ खीर पुरी खिलाई। गाय ने प्रसन्नता पूर्वक सिर हिलाकर आशीर्वाद दिया। हम तृप्त हो गए और पितर भी। लेकिन अभी तो कार्य पुरा नहीं हुआ है, कथा का एक खंड और बाकी है।

8 बज गए, इधर से निपटे तो पंडितों का इंतजार होने लगा, उनकी कहीं आहट ही सुनाई नही दे रही थी। गेट से निकल कर देखा तो चौबे जी अपने घर के सामने पीपल के नीचे कुर्सी  डाले हमारे से मुंह फ़ेरे बैठे हैं। मैं भी सोचता रहा कि रोज तो इनके मुंह की दिशा हमारी तरफ़ रहती है, आज विपरीत दिशा में कैसे बैठे हैं? हमने आवाज लगाई, तो बोले तैयार होकर आता हूँ। लड़का नहा है, वह भी बड़ा खाने आउंगा कह रहा था। मैने कहा कि सभी आ जाईए लेकिन जल्दी आईए। गजब है यार तोराई का भाव बढा तो बढा चौबे जी का भी भाव बढा गया। रोज यहीं मेरे से खैनी मांग कर खाते गपियाते रहते हैं, आज काम पड़ा तो नक्शा ही बदल गया। चौबे जी पहुंचे पुत्तन के साथ अब पाण्डे जी इंतजार होने लगा। उन्हे फ़ोन लगाया तो पता चला कि उनकी सायकिल पंचर है, गाड़ी भेजोगे तब आएगें, छोटे भाई को दौड़ाया गाड़ी लेकर पाण्डे जी को लाने। थोड़ी देर में पाण्डे भी हाजिर थे। भोजन दान-दक्षिणा सम्पन्न हुई। सभी देवता अपने-अपने लोक में चले गए। हमने भी भोजन कर अपने को तृप्त कर धन्य समझा। धन्य इसलिए समझा कि पितर को प्रशन्न करना एक परियोजना के पूर्ण होने के समान ही लगा। गया जी जाने तक पितर तृप्तिकरण की यह परियोजना जारी रहेगी।


ब्लोगोदय एग्रीगेटर  

रविवार, 18 सितंबर 2011

देखईया के जर जाये गऊकिन! --- ललित शर्मा

गणपति विसर्जन के दिन श्रीमती जी ने चेताया कि आज लम्बोदर महाराज जी को विदा करना है. कहीं चले मत जाना. दोपहर को सिराये आना इन्हें. हमने उनकी आज्ञा सिरोधार्य की. 11 दिनों के इस पर्व का उत्साह के साथ इंतजार रहता है. दिन में दो बार पकवानों भोग लगा कर लम्बोदर महाराज साल भर के लिए फिट हो जाते हैं. फिर उन्हें ३५४ दिन कुछ खाने की आवश्यकता नहीं पड़ती. सुबह ६ बजे आरती शुरू हो गई. भगवान को भोग लगा कर प्रसाद ग्रहण कर ब्लोगिंग चमकाने बैठ गए. उधर श्रीमती जी गुड के मोदक बनाने में लग गई. तभी फोन की घंटी बजी, उठाने पर आवाज आई "मै मुलायम सिंग बोल रहा हूँ, आप ललित शर्मा जी ही बोल रहे हैं ना. मैंने कहा- बोल रहा हूँ, लेकिन आपने गलत नंबर लगा लिया. अमर सिंह को लगना चाहिए था. आपका और कांग्रेस का संकट मोचन तो वही है. मुझे काहे झमेले में फंसा रहे हैं. उन्होंने पूछा- आप कहाँ है? मैंने कहा घर पर हूँ आज गणेश भगवान को सिराने जाना है. तो उन्होंने कहा - घर से बाहर निकलिए हम गेट पर ही खड़े हैं. येल्लो हो गया बंटाधार .....

देखे तो मुलायम जी की कार गेट पर खड़ी है और वे कुण्डी खड़खड़ा रहे हैं. आइये आइये मुलायम जी कैसे इधर आना हुआ. आज रास्ता कैसे भूल गए? मुलायम जी बोले- आपकी याद आ गई थी इसलिए चले आये. कुछ चाय पानी तो पिलवाओगे? जरुर-जरुर क्यों पिलवायेंगे... अभी हाजिर होती है चाय और साथ में नास्ता भी. चाय नास्ता करके मुलायम जी ने हमसे राजिम चलने का आग्रह किया. लेकिन सुबह की दी हुयी श्रीमती जी की चेतावनी याद आ गई, नहीं तो उनके साथ निकल ही जाते. मुलायम जी मन मसोस कर हमसे विदा लेकर निकल लिए और हम फिर अपनी ब्लोगिंग की दुकान पर आ गए.  जरा एक दो ब्लॉग झांक लें. कहीं टिपिया दें. टिपियाने क्या लगे फंटूश फिल्म जैसा सीन उपस्थित हो गया. हम गए तो हिंदी ब्लॉग नगरिया और पहुच गए अंग्रेजी के ब्लोगों में. सोचे की भाई टिपियाना तो है ब्लॉगर के लिए जैसी हिंदी वैसी अंग्रेजी :) पर अंग्रेजों की नगरी से बिना टिपियाये वापस आना मतलब हार कर आना है. अगर हार गए तो जिल्ले इलाही को नागवार गुजरेगी और हमें मुफ्त की सजा मिलगी. तभी चाचा चौधरी जैसे दिमाग की बत्ती जली और हमारे लिए संकट मोचक बन कर आये NICE वाले सुमन जी. उनसे नाईस उधार लिया और अपनी तरफ से POST और जोड़ कर NICE POST का टिप्पणी १५-२० जगह पर चेप आये. इज्जत बची लाखों पाए.

इधर हम टिपियाते टिपियाते गणेश जी के विसर्जन का गुमताडा लगा रहे थे कि कहाँ और कैसे विसर्जन किया जाये. सोचा कि मोटर सायकिल पर बैठा के ले जायेगे और सिरा आयेंगे. गणपति बप्पा भी खुश और हम भी खुश. लेकिन उदय महाराज सुबह से कुछ और ही प्लान कर रहे थे. सारी गाड़ियाँ  घर में खड़ी थी. सभी बच्चों को कह आये कि ट्रक से चलेंगे गणेश विसर्जन करने के लिए झांकी डैम में. डेढ़ बज गया खाने का समय हो चूका  था. हमने भोजन के लिए कहा तो आदेश आया की पहले गणेश जी का विसर्जन करके आइये फिर खाना मिलेगा. शंख ध्वनि के साथ गणपति बप्पा की जय बोलकर गणपति महाराज को ट्रक में विराजित किया और सभी बच्चों को लेकर चल पड़े झांकी डैम की ओर, डैम का रास्ता ख़राब है. छोटे भाई ने गाड़ी कच्चे में ले जाकर ऐसी जगह फंसाई कि आस-पास में कोई सहायता भी नहीं. हमने खूब कोशिश की गाड़ी निकालने की. लेकिन कीचड़ इतना अधिक था कि चक्के स्लिप हो जाते थे. गाड़ी निकालने प्रक्रिया में सफल ना होने पर घर में फोन लगा कर दूसरी ट्रक और रस्से मंगवाए गए.

दूसरी ट्रक का इंतजार करते हुए इधर उधर नज़र दौडाई तो गायों और भेड़ों का झुण्ड दिखाई दिया. वह हमारे तक चरते हुए पहुँच चूका था. एक विद्यार्थी उन्हें चरा रहा था. उसकी ओर मुखातिब हुआ. बालक ७ वीं कक्षा का छात्र है. छुट्टी के दिन पिताजी के साथ गाय भेड़ चराने आता है. उसने बताया कि सीताराम गुरूजी पढ़ाते हैं.सीताराम गुरुजी को ह्रदय रोग हो गया है, उनकी दो आर्टरी में ब्लोक है. लेकिन बाई पास सर्जरी कराने की बजाय कपालभाती और अनुलोम विलोम कर रहे हैं. बाबाजी ने उन्हें कह दिया है कि उनकी बीमारी योग से ठीक हो जाएगी. वे ठीक होने की आस में रोज धोंकनी चलाये जा रहे हैं. विश्वास में बहुत बल होता है. लगभग ३ वर्षों से उन्हें अटेक नहीं आया है. एक बार मेरे साथ हरिद्वार, ऋषिकेश और मसूरी की यात्रा करके आ चुके हैं. धर्म कर्म के प्रति उनका लगाव सदा से ही है. बालक से बात करते रहा तब तक उसके पिताजी भी खुमरी ओढ़े, भंदई पहने पहुच गए. राम राम होने के बाद भेड़ों के साथ दोनों चल पड़े.

समय व्यतीत करने बरगद के पेड के पास पंहुचा, थोड़ी डेरे छाया में विश्राम करने का लालच था. वहां पर पहले ही महिला मजदूरों ने कब्ज़ा कर रखा था. उनका यह भोजन और विश्राम का ठिया है. सोच लिया कि अब जगह नहीं मिलने वाली है. उनकी बातों का ही रस लिया जाए. एक कह रही थी --"कईसे या साग नई लानेच, भात संग मा, अथाने (आचार) धरे हच". दूसरी ने कहा - "सागो हां अड़बड़ महँगी होगे हे. तोरई हां घलो ४० रूपया किलो चलत हे. कतेक ला बिसाबे बहिनी, बखरी मा घलो पानी के मारे नई जागे, जम्मो बिजहा सरगे, मनमाने बरसत हे". तभी एक महिला पानी की बोतल लिए आ रही थी, उससे पूछा - कहाँ गिंजरत हस सुकवारो मंझनी मंझना?" सुखदास हां बाबु संग भर्री खार मा गे हवे, बिहनिया ले कांही खाए नई हे. अऊ मोला बजार जाना हे. घर मा कोनो नई हे. चल दुहूँ त खाए बार कोन दिही, तेखरे सेती ओखर मन बर भात साग ला अमरा के आए हंव." बात सुनते-सुनते हार्न की आवाज सुनाई दी, दूसरी ट्रक पहुँच चुकी थी. अब आशा बंध गई कि गणेश जी विसर्जित हो जायेंगे.

फंसे हुए ट्रक के चक्के के नीचे से एक बार फिर मिटटी कीचड़ निकाला गया. फावड़ा नहीं होने से दंताली का उपयोग किया गया. फंसे हुए ट्रक से दुसरे ट्रक को रस्सों से बांधा गया. बच्चे सारे ट्रक में बैठे-बैठे हलकान हो रहे थे. दोनों ड्राईवरों ने आपस में सहमती बनाकर एक साथ ट्रकों को चलाया, लेकिन रस्से ने साथ नहीं दिया. एक झटके में दम तोड़ गया. फंसे हुए ट्रक ने फिर जोर लगाया. अब वह बिना रस्से के ही कीचड़ से  निकल गया. इसे कहते हैं मुफ्त की मगजमारी. जब कहीं हलकान होना लिखा रहता है तो आदमी बेबात ही हलकानी में फँस जाता है. अगर यह ट्रक पहले ही निकल जाता तो दूसरी गाड़ी मंगाने कि जरुरत नहीं पड़ती. सारी विद्याएँ धरी की धरी रह गई. गाड़ी अपने मन से निकल गई. चल पड़े लिफ्ट की तरफ. पहुँचते ही गणपति बप्पा ने सारे पम्प चलवा दिये नहर में पानी आने लगा. हमने भी तय किया कि बप्पा को यही सिरा दिया जाये. पूजा पाठ करके नहर के हवाले कर दिया गया. 
         
महानदी उद्वहन सिंचाई परियोजना एशिया की सबसे बड़ी परियोजना मानी जाती है. महानदी के पर बने गंगरेल बांध से नहर द्वारा पानी यहाँ लाया जाता है. और फिर उसे २८ पंपों से लिफ्ट करके नहर में छोड़ा जाता है, जिससे यह पानी नहरों द्वारा आरंग एवं तिल्दा-नेवरा तक खेतों की सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है. ३० बरस पहले जब इस परियोजना का निर्माण हो रहा था तो हम लोग इसे देखने आते थे. करोड़ों रूपये खर्च करके इस महत्वाकांक्षी योजना का निर्माण हुआ. इसके कारण आस पास के गांवों में दो फसल होने लगी, किसानो को इससे बड़ी राहत मिली. गणपति बप्पा अगले बरस आने का निमंत्रण स्वीकार कर अपने धाम को चले गए और हम भी उन्हें विदा करके घर पहुचे तभी खाना मिला. गणपति बप्पा मोरिया, अगले बरस तू जल्दी आ. ड्राईवर कह रहे थे- गणेश भगवान अब्बड़ वजनी होगे गा. लटे-पटे ठंडा हुईस....."देखईया के जर जाये" गऊकिन. 

बुधवार, 14 सितंबर 2011

ललित डॉट कॉम की वर्षगांठ ----------- ललित शर्मा

ब्लॉग जगत में आये तीसरा वर्षा चल रहा है...... आज ललित डॉट कॉम की वर्षगांठ है. इन वर्षों में ऐसा लगता है कि एक पूरी जिन्दगी रज्ज के जी ली. जब ब्लॉग लिखना शुरू किया था तो सोचा नहीं था कि इतने दिनों तक टिक जाऊंगा, पर अब तो यह लत लग चुकी है, यह नशा जीवन के साथ ही जायेगा. 
ब्लोगिंग में जब आया तो सबसे पहले हिंदी लिखने की समस्या थी. अमूमन सभी नए ब्लोगर्स के साथ होती है. पाबला जी से हिंदी राईटर मिला और उससे ब्लोगिंग का सफ़र शुरू हुआ. संजीव तिवारी जी से भी बहुत कुछ सीखने मिला. आज यह सफ़र ब्लॉग की ५०० पोस्ट तक पहुच गया. १०,००० टिप्पणियों तक भी पहुच बन गयी है. इसमें मेरे द्वारा की गयी जवाब स्वरूप टिप्पणियाँ लगभग ५० ही होंगी.  ब्लॉग जगत में आकर बहुत कुछ सीखने मिला. धर्म, स्त्री-पुरुष वाद-विवाद आदि विषयों में मेरी रूचि कभी नहीं रही और आज भी नहीं है.
१९९७ में जब नेट पर आया तो हिंदी न के ही बराबर थी. डायल अप की किरर्र कुर्रर टिंग टोंग की फेक्स  टोन मिलती थी तब नेट कनेक्ट होता था. नेट की दीवानगी इतनी थी कि टेलीफोन का बिल ही महीने का ६००० से ऊपर पहुँच जाता था. शुशा फॉण्ट से ही कुछ साईट लिखी जाती थी. नेट पर हिंदी का प्रचार प्रसार करने के श्रेय नि:संदेह ब्लॉग जगत को ही जाता है. अब नेट पर हिंदी की कमी नहीं है, ब्लोगर्स ने बहुत कुछ लिख कर नेट पर डाल दिया है. अगर हम किसी विषय पर सर्च करते हैं तो उससे सम्बंधित कुछ न कुछ सामग्री हिंदी में मिल ही जाती है. 
ब्लॉग जगत में आने के बाद कुछ अच्छे मित्र लोग भी मिले. जिनके साथ ब्लोगिंग का सफ़र चलता रहा.  ब्लोगर्स द्वारा हिंदी ब्लोगिंग को समृद्ध करने का प्रयास निरंतर चल रहा है, यह ख़ुशी की बात है, नए ब्लोगर्स आ रहे हैं. जिससे हिंदी ब्लॉग जगत समृद्ध हो रहा है.. मैं भी अपने सामर्थ्य के हिसाब से प्रयासरत हूँ, साहिर लुधियानवी का एक शेर प्रासंगिक है....... "दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिश की शक्ल में, जो कुछ मुझे दिया वो लौटा रहा हूँ मैं."  सैकड़ों लोगों के ब्लॉग भी बनाकर दिए. जीवन का महत्वपूर्ण समय लगाया. ब्लॉग4वार्ता के माध्यम से ब्लोगर्स को पाठक देने का प्रयास निरंतर जारी है.
कुछ व्यवधान बीच में अवश्य आये. लेकिन वो जिन्दगी ही क्या जिसमे व्यवधान और समाधान न हो. उसका समाधान भी निकला. तभी आज तक ब्लोगिंग जारी है.हिंदी दिवस के दिन १४ सितम्बर २००९ को ललित डॉट कॉम पर पहली पोस्ट लगायी गयी थी. जिसमें पहली टिप्पणी संगीता पूरी जी की थी और दूसरी टिप्पणी समीर भाई याने उड़नतश्तरी की. एक बात तो समझ आई कि नए ब्लॉगर के लिए टिप्पणियों का बहुत ही महत्त्व है. उसे सकारात्मक टिप्पणियों से निरंतर ब्लोगिंग की उर्जा मिलती है और नकारात्मक टिप्पणियाँ उसे ब्लोगिंग से दूर भी कर सकती हैं. 
पुराने ब्लोगर्स को टिप्पणियों के लेन-देन से कोई फर्क नहीं पड़ता ऐसा बड़े गुरूजी कहते हैं , उन्होंने टिप्पणी व्यापार बंद कर रखा है. किसी ने लिखा था कि एक टिप्पणी आपको बीमार भी कर सकती है. रक्तचाप बढ़ा सकती है. इसलिए किसी कि तबियत ख़राब करने के बजाय सकारात्मक टिप्पणी देने का ही प्रयास किया. मुझे जब भी समय मिलता है तो अवश्य ही नए ब्लोगर्स का टिप्पणियों द्वारा उत्साह वर्धन करने का प्रयत्न करता हूँ पर उड़नतश्तरी नहीं होने के कारण अधिक स्थानों पर नहीं पहुँच पाता. इतने दिनों में कई ब्लॉगर आये और गए. कुछ लोग ही हैं जो खूंटे पर टिके हुए हैं.
मैं मानता हूँ कि ब्लॉग जगत एक परिवार ही है. अगर कोई ब्लॉगर मित्र मुसीबत में हैं तो उसकी सहायता भी करते मैंने यही ब्लॉग जगत में देखा है. अगर किसी को किसी से लगाव नहीं होगा तो कौन सहायता करेगा? लोगों की गम और ख़ुशी में शरीक होने की संवेदनाये ब्लॉग जगत को एक परिवार के रूप में स्थापित करती हैं. जिस तरह एक परिवार में सभी विचारों के लोग रहते हैं, उनमे विचार विमर्श भी होता है. कभी किसी मुद्दे को लेकर तनातनी भी होती है. लेकिन सब रहते एक साथ ही हैं. 
ऐसा ब्लॉग जगत में भी है. किसी मुद्दे पर विचार भिन्नता हो सकती है और उसका हल भी निकल सकता है. ब्लॉग जगत के सभी जिंदादिल दोस्तों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ. ब्लॉग एक ऐसा मंच है जो हमें अपनी बात कहने की स्वतंत्रता देता है. हम इसका उपयोग कितना सकारात्मक रूप में कर सकते है वह हमारे विवेक पर निर्भर करता है. पाठकों एवं ब्लॉगर मित्रों का स्नेह और साथ रहा तो कुछ बरस और भी ब्लॉग जगत में टिके रह सकते हैं.........जब तक हैं तब तक आनंद लें......थ्री चीयर्स 


हिन्दी दिवस पर अर्पित हैं चंद फूलों की कलियाँ
है गांव का अल्हड़पन कुछ गांव की गलियां
कुछ हिमालयी पीर दुष्यन्ति कुछ फूल शंकरी
कुछ लहरें मन उमंग की कुछ फूलों की डलियाँ

हिंदी दिवस के अवसर पर सभी ब्लॉगर मित्रों को मेरी सादर शुभकामनायें..


सोमवार, 12 सितंबर 2011

रेडियो का जादू --- ललित शर्मा

रेडियो ही रेडियो - खरीद लो जितने चाहो 
रेडियो नाम सुनते ही कानों में सुरीली मधुर आवाज गूंज जाती है, यह तन्हाई का वह साथी है जो उदास नहीं होने देता. मैं इसे स्वस्थ मनोरंजन का सर्वोत्तम साधन मानता हूँ. रेडियो एक ऐसा यंत्र है जिसका इस्तेमाल करते हुए हम अपना काम भी कर सकते हैं. यह आदमी को बुद्धू बक्से जैसे निठल्ला दर्शक नहीं बनाता, बल्कि  काम करने की भी पूरी स्वतंत्रता देता है. इसकी पहुँच धरती से लेकर अन्तरिक्ष तक है. चाहे सीमाओं की रक्षा  करता सिपाही हो या खेत में हल चलाता किसान हो सभी के मनोरंजन का एक मात्र सर्वसुलभ साधन है. रेडियो के इन दीवानों मैं भी शामिल हूँ. देर रात घर कार से लौटते समय मुझे मनपसन्द गीत सुनाते हुए यह किसी और ही दुनिया में ले जाता है. एक-दो बार तो हादसा होते-होते रह गया. ह्रदय स्पर्शी गीत और नगमे अंतर्मन की गहराइयों में उतर जाते हैं. मुझे यह पता नहीं रहता कि गीतकार, संगीतकार, गायक कौन है? इतना जानता हूँ रेडियो सुन रहा है.

छत्तीसगढ़ के परमपरागत वाद्य 
जब बचपन में रेडियो सुनते थे तो लगता था कि इसके भीतर लोग घुस कर बैठे हैं. वही आपस में बात कर रहे हैं, गीत गा रहे हैं, समाचार सुना रहे हैं. फिर सोचता था कि आदमी तो बड़ा होता है और रेडियो छोटा, तो फिर इसके भीतर वे समाते कैसे होंगे? जब इस सवाल का जवाब मुझे नहीं मिला. तब एक दिन मैंने पेचकस से रेडियो खोल दिया, उसके भीतर से कुछ बल्ब और तार निकले. लेकिन बोलने वाला आदमी नहीं मिला. रेडियो का सत्यानाश करने के कारण डांट भी खानी पड़ी. इसके रहस्य से तब वाकिफ हुआ जब हमारे घर में टेपरिकार्डर आया. बड़ी चकरी पर रील लगी होती थी और जो माइक से बोलते थे वह हु-ब-हु सुनाई देता था. यह एक बड़ा चमत्कार था. स्वयं की आवाज सुनना अद्भुत  था. तब अंदाजा लगा कि टेप रिकार्डर से रिकार्ड करके कोई रेडियो में बोलता है.तब रेडियो का आकर्षण सर चढ़ कर बोल रहा था.

मरफ़ी रेडियो का विज्ञापन 1966
हमारे यहाँ एक चौकीदार था. उसे ५ रूपये रोज का मेहनताना मिलता था. उसके मन में बरसों से तमन्ना थी कि उसके पास भी एक ट्रांजिस्टर होता. उसने रूपये बचाकर पुराना मरफ़ी ट्रांजिस्टर १७५ रूपये में ख़रीदा. उस समय रेडियो खरीदना सम्पत्ति खरीदने जैसा ही समझा जाता था. चौकीदार के ट्रांजिस्टर खरीदने की बाकायदा रसीद लिखी गई " अमुक व्यक्ति ने अमुक व्यक्ति से एक अदद मरफ़ी कम्पनी निर्मित दो बैंड, तीन बड़े सेल का ट्रांजिस्टर ख़रीदा है, जिसकी लायसेंस फीस ७ रुपये सालाना है. दो गवाहों की मौजूदगी में १७५ रूपये नगद प्राप्त किए ......... रसीद, सनद रहे वक्त जरुरत पर काम आवे........ सही ...  क्रेता - विक्रेता दो गवाह....... और १० पैसे की रसीदी टिकिट....... उसके बाद ट्रांजिस्टर चौकीदार के शरीर का एक अंग बन गया. कंधे पर लटका ही रहता. २४ घंटे का साथी. स्थानीय रिले केंद्र से ३६ गढ़ी गीत बजते  " काबर रिसा गे दामाद बाबु दुलरू, भांटा के भरता पाताल के चटनी." और इसका आन्नद हम सब लेते. खेत जोतते समय भी किसान हल के जुड़े में रेडियो लटका कर सुनते रहते थे. भले ही कार्यक्रम कुछ भी आ रहा हो. आवाज आनी चाहिए जिससे उसका ध्यान काम में लगे रहे.

बचका मल का सम्मान करते  हुए अशोक बजाज 
बोवाई का समय होता तो मै भी जेटकिंग कम्पनी का छोटा दो बैंड का ट्रांजिस्टर लेकर खेत की मेड पर बैठता और बनिहारों के काम को देखता रहता. कहते हैं......खेती अपन सेती. अगर खेती की तरफ मालिक ध्यान नहीं देगा तो बनिहार- नौकर कमा के नहीं देने वाले. बुद्धू बक्से ने रेडियो का चलन कम कर दिया, लेकिन पूरी तरह चलन से बाहर नहीं कर पाया. रेडियो को हम जेब में डाल कर कहीं भी ले जा सकते थे, लेकिन टी.वी को नहीं. इसीलिए ग्रामीण अंचल में रेडियो लोकप्रिय हुआ और कालांतर में समाज सुधार एवं सूचनाओं के प्रचार -प्रसार का एक सशक्त माध्यम भी बना. चाहे किसान भाइयों कार्यक्रम हो, बच्चों, युवाओं, महिलाओं, एवं फौजी भाइयों का कार्यक्रम हो, सभी में लोकप्रियता हासिल की. चिट्ठी-पत्री के माध्यम से लोग जुड़ने लगे. पत्र भेजने वाले श्रोताओं के कारण भाटापारा को झुमरी तलैया भी कहा जाने लगा. श्रोताओं के पत्र फरमाईशी कार्यक्रमों में पढ़े जाने लगे. सभी वर्ग के श्रोता रेडियो के साथ जुड़ गए. चाहे स्थानीय कार्यक्रम हो या विविध भारती के कार्य्रक्रम. सभी ने श्रोताओं का सम्मान एवं प्यार पाया.

श्रोताओं की मांग पर शेख हुसैन गीत गाते हुए 
२० अगस्त को रेडियो श्रोता दिवस मनाया जाता है. गत वर्ष एवं वर्तमान में मुझे इस कार्यक्रम में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. यह एक ऐसा दिन है, जब आकाशवाणी के उद्घोषक एवं श्रोता एक दुसरे से मिलते हैं. उद्घोषक भी चाहते हैं कि वे उनसे मिले जिनके पत्र वे अपने कार्यक्रमों में पढ़ते हैं और श्रोता भी चाहते हैं कि उस उद्घोषक से रु-ब-रु हों जिसकी आवाज वे रेडियो के माध्यम से सुनते हैं. श्रोता दिवस पर दोनों का भाव पूर्ण मिलन देखने मिलता है. इस वर्ष रेडियो श्रोता दिवस का कार्यक्रम रेडियो के प्रसिद्द श्रोता "बचकामल" की नगरी भाठापारा में आयोजित हुआ. जनकपुरी होने के कारण अशोक भाई के साथ मै भी इस कार्यक्रम का साक्षी बना. जिसमे रेडियो श्रोताओं के साथ-साथ उद्घोषको का भी सम्मान किया गया. ३६ गढ़ी गीतों के गायक एवं गीतकार शेख हुसैन जी को सुना. उम्र के ढलान पर भी उनकी आवाज में वही जुम्बिस एवं दम है जो आज से ३० बरस पूर्व हुआ करता था. उन्होंने "गुल गुल भजिया खा ले, बटकी मा बासी अऊ चुटकी मा नून, चल जाबो खल्लारी मेला वो" आदि गीत गाकर मन मोह लिया.

कविता और कांति लाल बरलोटा  गपियाते हुए 
दो विशेष श्रोताओं से मेरी मुलाकात हुयी, जिनका उल्लेख किये बिना मेरी लेख अधुरा ही मानुगा. इनसे मिलकर मुझे प्रसन्नता हुयी. मन की आँखों से देखने वाले लोग निर्मल होते हैं. कांतिलाल बरलोटा प्रज्ञा चक्षु हैं साथ ही विकलांगता देकर नियति ने साथ क्रूर व्यवहार किया है. कांति लाल जी हमारे साथ रायपुर से ही भाठापारा गए थे. इन्होने शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद दुर्गा कालेज रायपुर से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की, कमलादेवी संगीत महाविद्यालय से गायन में एम. ए. किया एवं खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से गीतांजली का कोर्स किया. रास्ते मैंने इनसे कुछ बंदिशें भी सुनी. तबियत ख़राब होने के पश्चात भी इनका श्रोता सम्मेलन में उपस्थित होना रेडियो के प्रति अनुराग प्रदर्शित करता है. १९९४ से कांतिलाल विद्यार्थियों को संगीत की शिक्षा दे कर ऋषि परम्परा को आगे बढा रहे हैं.

प्रज्ञा चक्षु कविता देशमुख से कार्यक्रम स्थल पर मेरी मुलाकात कांति लाल ने करायी. कविता खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से गायन में स्नातकोत्तर उपाधि ले रही हैं. किसी की भी आवाज एक बार सुनकर उसकी हु-ब-हु नक़ल करके उसे चौंका देती है. कार्यक्रम के दौरान दोनों मेरे समीप ही बैठे थे. मेरा ध्यान इनकी बातों की ओर था. दोनों आपस में तय कर रहे थे कि ललित अंकल को फोन करके कब और कैसे चौंकाना है और मौज लेनी है. मुझे चौंकाने के मनसूबे बांधे जा रहे थे और मैं इनकी निश्छल बातें सुनकर मन ही मन मुदित हो रहा था. ईश्वर ने कुछ कमी की तो उसकी भरपाई कही और से कर दी. इन्हें जीवन जीने का मार्ग दे दिया. मुझे इनसे मिलकर अच्छा लगा ऐसे ही व्यक्तित्व किसी और की भी प्रेरणा बनते हैं. कार्यक्रम के कुछ दिनों के बाद कविता ने मुझे फोन करके चौंका ही दिया. बोली - "मै आकाशवाणी रायपुर से बोल रही हूँ, आपका कार्यक्रम आकाशवाणी में तय हो गया है, जल्दी ही रिकार्डिंग की तारीख बता दी जाएगी". काफी देर बाद मुझे इसकी आवाज समझ में आई और खूब ठहाके लगाये.

उद्घोषकगण आकाशवाणी रायपुर -बिलासपुर - चित्र-साभार संज्ञा जी 
ऍफ़.एम के आने से आज रेडियों ने पुन: टेप रिकार्डर, केसेट , सी.डी. प्लेयर सभी को पीछे छोड़ दिया. रेडियो सुनने वाले श्रोताओं की संख्या फिर बढ़ रहती है. इसी की परिणिति रेडियो श्रोता संघ के कार्यक्रम रूप में देखने मिली. कार्यक्रम के माध्यम से सभी श्रोताओं और उद्घोषकों का वार्षिक मिलन एक स्थान पर होना रेडियो के प्रचार-प्रसार लिए नव जीवन है.  वैसे रेडियो अभी भी सरकार के नियंत्रण में है, जो सरकार चाहती है वही बोलता है, अगर आकाशवाणी को स्वायतता दे दी जाये तो लोग खबरों के लिए बी.बी.सी. की ओर नहीं जायेंगे. फिर भी हमें गर्व है कि रेडियो के कार्यक्रम को हम सपरिवार सुनकर सकते हैं, यह अभी सांस्कृतिक प्रदुषण फ़ैलाने के सामाजिक अपराध  से कोसों दूर है. श्रोता सम्मलेन में आकाशवाणी रायपुर के अधिकारी यादराम पटेल, समीर शुक्ल, उद्घोषक  दीपक हटवार, श्याम वर्मा, के.परेश, बिलासपुर से हरीशचन्द्र वाद्यकार, राजू भैया,उमेश  तिवारी, एवं शोभनाथ साहू  अंबिकापुर का स्मृति चिन्ह देकर अशोक बजाज एवं शिवरतन शर्मा के हाथों  सम्मान किया गया. कार्यक्रम में ब्लॉगर संज्ञा टंडन नहीं पहुच पाई.  कमल लखानी रायपुर , डॉ. प्रदीप जैन सिमगा. रतन जैन रायपुर, सहित लगभग २०० श्रोता कार्यक्रम में उपथित थे.   

NH-30 सड़क गंगा की सैर

शनिवार, 10 सितंबर 2011

न मे स्तेनो जनपदे, न कर्दयो, न मद्यपो -- ललित शर्मा


रेलवे स्टेशन पर ८ से १२ साल के बच्चों का एक समूह घूम रहा था. सभी ने गंदे कपडे पहन रखे थे और उनके हाथ में रुमाल के साइज का एक कपडा था. जिसे वे थोड़ी-थोड़ी देर में सूंघ रहे थे. उनकी आँखे लाल थी, जैसे कोई नशा कर रखा हो. उनके मुंह से सुना - "सिलोशन कम हो गया." ह्म्म्म तब मेरी समझ में आया कि इनके हाथ के रुमाल में एड्हेसिव है, जिससे ट्यूब में पंचर लगाया जाता है. तभी पुलिस वाला आया उसने एक बच्चे की जेब से बोनफिक्स की ट्यूब निकली. पता चला कि ये सब बोनफिक्स के सिलोशन को सूंघते हैं. अगर सिलोशन नहीं मिला तो स्टेशन के बाहर खड़ी गाड़ियों का पैट्रोल निकाल कर सूंघते हैं. उससे भी नशा होता है. इस खतरनाक नशे से ये धीरे-धीरे मृत्यु की ओर बढ़ रहे है. नशे में यही लोग स्टेशन में अपराध करते हैं. इन्हें सिर्फ नशे के लिए पैसा चाहिए.


एक दिन दौरे में जा रहा था. दो मित्र भी साथ में थे. रास्ते में एक शहर में एक मित्र ने गाड़ी रुकवाई और मेडिकल स्टोर से खांसी की दवाई ली. कोंडागांव में जाकर होटल में डेरा डाला. सुबह जब सोकर उठा तो देखा कोरेक्स की वह शीशी खाली पड़ी थी. मैंने उससे पूछा कि शीशी पूरी कैसे खाली हो गई? दवाई गिर गई क्या? तो उसने कोई जवाब नहीं दिया. साथ वाले ने बताया कि उसने रात को पूरी शीशी की दवाई पी ली. मैंने कारण पूछा तो उसने बताया की खांसी की १०० ग्राम दवाई में दारू की आधी बोतल का नशा होता है और दारू की खुशबु भी नहीं आती. नशे की मौज ही रहती है. तब मैंने पहली बार जाना कि खांसी की दवाई का भी नशे के लिए प्रयोग हो रहा है. जानकारी लेने पर ज्ञात हुआ कि मेडिकल स्टोर्स में सबसे अधिक खांसी की दवाई ही बिकती है. पहले आयुर्वैदिक दवाई के रूप में मृतसंजीवनी सूरा का चलन था, शायद अब वह बंद हो गई है. आयोडेक्स का प्रचलन तो बहुत दिनों से नशे के रूप में हो रहा है. 

बरसों पहले दिल्ली में हम कुछ मित्रों के साथ पुरानी दिल्ली में रुकने का ठिकान ढूंढ़ रहे थे. सीनियर तिवारी जी बोले किसी धर्मशाला में रुकते हैं. फतेहपुरी के पास की एक दह्र्म्शाला में पहुचे तो उसने हमें आश्रय देना मंजूर कर लिया. जब भीतर जाने लगे तो हमारे साथ युसूफ भाई को देखकर उसने जगह होने से मना कर दिया. अब हम वही पर बगल के होटल में रुके. जब मैं फोन करने पंहुचा तो काउंटर पर मौजूद व्यक्ति के पास एक आदमी आया और उसने २५० रूपये दिये. जिसके बदले में काउंटर वाले ने एक छोटी सी पुडिया दी. कुछ खटका लगा कि गड़बड़ है. मैंने मित्रों को बताया और वह होटल रात को छोड़ दिया. पूछने पर पता चला कि वह ब्राउन शुगर बेच रहा था. आप आज भी देख सकते हैं चांदनी चौक से दरियागंज वाले चौक तक सड़क के फुटपाथ पर माचिस की तीलियाँ और एल्युमिनियम की पन्नियों के ढेर मिल जायेंगे. यही स्थिति कनाट प्लेस से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन तक है. खुले आम मौत का सौदा हो रहा है.

कुछ दिनों पहले सुमित दास ने एक लडके को बोनफिक्स के साथ पकड़ा. वह बोनफिक्स छोड़ ही नहीं रहा था. कई लोगों ने मिलकर उससे बोनफिक्स छिनी. वह नशे की गिरफ्त में इतना फँस चूका है कि नशे के अलावा कुछ भी नहीं सोच सकता. सिर्फ सिलोशन ही सिलोशन की रात लगाये हुआ था. सुमित कहने लगा कि इलाके के अधिकतर नौजवान लड़के नशे का शिकार होकर पागल हो चुके हैं. गांजे की चिलम पीने के कारण पायरिया आदि से दांत जल्दी गिर जाते हैं. कम उम्र के लोग नशे के शिकार होकर काल के गाल में समा रहे हैं. फिर भी इनका हश्र देखकर लोग चेत नहीं रहे हैं. नशीले रासायनिक पदार्थों की सहज उपलब्धता से नशेड़ियों की संख्या में वृद्धि हो रही है. नींद की गोलियों एवं दर्द निवारक दवाओं का धडल्ले से प्रयोग हो रहा है. जबकि गांजा या नशीले पदार्थ बेचने वाले के नारकोटिक्स एक्ट में जमानत ही नहीं है. नशीले पदार्थों का धडल्ले से बिकना बिना पुलिस संरक्षण के संभव नहीं है. 

वनस्पतियों से प्राप्त होने वाले मादक पदार्थों का प्रचलन प्राचीन काल से रहा है। गाँजाअफ़ीमभांग-धतुरा मद्य इत्यादि प्रचलन में थाआज भी है। आदिम काल में मानव इसका उपयोग चोट लगने पर दर्द से राहत पाने के लिए करता था। नशे से आनंदाभूति होने के कारण इसका दास बन गया। तथाकथित साधु संतों में इसका प्रचलन रहा है। मंदिरों में भांग-धतुरामद्य चढता है। लोगों ने नशीले पदार्थों को सामाजिक मान्यता देने के लिए धर्म से जोड़ कर रास्ते निकाल लिए। युद्धकाल में अफ़ीम(अमलएवं मद्य का सेवन सैनिक करते रहे हैं। वर्तमान में सैनिको शराब देने का प्रचलन सेना में है। शराब देने के अन्य कारण भी हो सकते हैं। लेकिन नशाखोरी एवं नशाखोरों का अपना एक अलग इतिहास है। एक समय था कि समाज में नशा करने वाले को स्थान प्राप्त नहीं था। 


छान्दोग्य उपनिषद कहता है कि राजा विश्वपति ने गर्व से घोषणा की थी--"  मे स्तेनो जनपदे कर्दयो मद्यपो। नानाहिताग्निर्नाविद्वान्न स्वैरी स्वैरिणी कुत: (अर्थात -"मेरे राज्य में  चोर है कायर है मद्यपान करने वाले लोग हैं अग्निहोत्र  करने वाले लोग हैं मुर्ख हैं व्यभिचारी हैं व्याभिचारिणी हैं।") यही यथार्थ शासन का आदर्श होता था। नशे की बुराईयों को देखते हुए समाज ने इसे सहजता से ग्राह्य नहीं किया। कुछ पंथों ने स्वार्थवश इसे धर्म के साथ जोड़ कर मोक्ष दायी बना दिया। वैदिकों ने पुरुषार्थ चतुष्टय एवं अष्टांग योग के माध्यम से अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिविग्रहा यमा:, शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा: बता कर मोक्ष का मार्ग दिखाया। तो वाममर्गियों ने कहा -- मद्यं मांसम मीनं मुद्राम मैथुनम एव च.. एते पञ्च मकारा: स्योरमोक्षदे युगे-युगे.......... शराब पीने वालों को भी मोक्ष का मार्ग दिया..... पीत्वा पीत्वा पुन: पीत्वा यावत पतति भूतले, पुनारुत्थाय पुन: पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते. नशा करके मरना मोक्ष प्राप्ति का सरल मार्ग बताया है. पुरुषार्थ चतुष्टय एवं अष्टांग योग से पूरा जीवन लगा जाता है मोक्ष प्राप्त करने में.
गुजरात को छोड़ कर सभी राज्य सरकारें शराब बेच कर राजस्व कमा रही हैं। राजस्थान सरकार तो बाकायदा "हैरिटेज वाईनबेच रही है। वर्त्तमान में नए तरह के नशे सामने आ रहे हैं जो बहुत ही हानिकारक हैं. छोटी उम्र के बच्चों में इनका प्रसार हो रहा है, जो उनके जीवन के लिए घातक है. इसके निवारण के क़ानूनी कार्यवाही के साथ सामाजिक जागरण की आवश्यकता है. जिससे नशे के शिकार लोगों का सामाजिक पुनर्वास हो सके. पालक अपने बच्चों पर सतत निगाह रखें. जिससे वे नशे जैसे दुर्व्याषा के चक्कर में ना पड़ें. तभी राजा विश्वपति जैसे गर्व से घोषणा करने के भागी बन सकते हैं. ऐसा न हो कि एक तरफ खुले आम नशे के सामान बेचकर राजस्व कमाया जाये, दूसरी तरफ उसी पैसे से नशा मुक्ति के शिविर लगाये जाएँ एवं नशामुक्ति का प्रचार-प्रचार प्रसार किया जाये.