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शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

भूभल: सामाजिक चेतना की आंच का प्रज्जवलन -- ललित शर्मा

सुस्थापित रचनाकार मीनाक्षी स्वामी का उपन्यास ‘भूभल’ हाल ही में मुझे पढ़ने को मिला। यह बलात्कार के कानूनी पहलू पर केन्द्रित है। यही इसकी सार्थकता और अनूठापन है क्योंकि इस पहलू को केंद्र में रखकर लिखा गया यह संभवतः पहला उपन्यास है। कानून जैसे शुष्क विषय के बावजूद इसमें सरसता और रोचकता इतनी सहजता से गुंथी हुई है कि एक बार हाथ में लेने के बाद पूरा पढ़कर ही छूटता है। यह रचनाकार के भाषा, शिल्प कथानक, संवाद और प्रस्तुति का कौशल है। मनुष्य अपने मन की अवस्थाओं को प्रकृति से जोड़ता है। खास तौर पर गुलमोहर के बिम्ब का पूरे उपन्यास में सहजता से चलना इसे अद्भुद कृति बना देता है। गुलमोहर, कंचन के सुख, दुख, संघर्ष, सफलता और विफलता का साक्षी है। प्रकृति के ऐसे साक्षी भाव की औपन्यासिक कृति हिंदी में यदा-कदा ही देखने को मिलती है। इसलिए यह बेजोड़ साहित्यक कृति बन गई है। कानून और न्याय व्यवस्था के अनेक विरोधाभासों का मार्मिक और तार्किक शब्दांकन मीनाक्षी जी ने बड़े ही कौशल से उकेरा है। जैसे ममता, रिया और उर्मिला का प्रकरण। इनके माध्यम से कानून के इस कड़वे पहलू से उपन्यास इस तरह परिचित कराता है कि दिल धक से रह जाता है, पैरों तले की धरती खसक जाती है और स्त्री के पक्ष में दिखने वाले कानून का असली छद्म खुलकर सामने आ जाता है।


उपन्यास की नायिका है कंचन। वह स्वाभिमानी, आत्मविश्वास से लबरेज, उसूलों की पक्की, अन्याय और भेदभाव से अपने दृढ़ चरित्र व मनोबल के सशक्त और तेजस्वी अस्त्र से जूझने वाली है। बाल्यावस्था से ही शोषण के विरूध्द अपनी आवाज बुलंद करने वाली कंचन शिक्षा पूरी करके न्यायाधीश के रूप में स्थापित होती है। यहीं से आरंभ होती है कंचन की मुख्य यात्रा जिसमें प्रभाव है, प्रवाह है, संघर्ष है, सामाजिक और मुख्य रूप से कानूनी विवशताएं हैं, जटिलताएं हैं। कंचन इनसे जूझती है, टकराती है मगर न तो टूटती है न ही बिखरती है। वरन् अपने भीतर मौजूद चेतना की अग्नि से इनके प्रवाह को मोड़कर अपने समय और समाज के बीच, उस लौ को प्रज्जवलित रखती है। यही स्त्री चेतना है जिसे अपने दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति से वह सामाजिक चेतना में बदल देती है। दूसरे उपन्यास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पहलू है स्त्री पुरूष को साथ लेकर चलने का आग्रह। स्त्री विमर्श का आशय, जो वैचारिक संक्रमण के चलते, पुरूष विरोध के दुराग्रह में बदल गया है, उसका विरोध दर्ज कराते हुए उपन्यास में सबको, समूचे समाज को साथ लेकर चलने का आह्वान है। यह सुखद संकेत है जो क्षमाशीलता, उदारता जैसे स्त्रियोचित संस्कारों में भी प्राण फूंकता है जो तथाकथित नारीवादी आग्रह के चलते कुचले जा रहे हैं। यह नारीवाद और स्त्री विमर्ष के नए आयामों को प्रस्तुत करता है और खांचे में बंटते समाज को पुनः जोड़ कर सशक्त बनाना चाहता है। उपन्यास समाज के इस भ्रम को दूर करता है कि कई समस्याएं केवल समाज की आधी आबादी की है। वरन् स्त्री की समस्या से पुरूष भी पीडि़त होता है याने समस्या पूरे समाज की है। जैसे कि ‘‘पर ये भी तो है कि दोनों से मिलकर समाज बना है, एक को पीड़ा हो तो दूसरा भी पीडि़त होता है।’’ (पृष्ठ 183) इससे जाहिर है कि यह बनी-बनाई नारीवादी फैशन की लीक से हट कर समाज की समस्याओं का वास्तविक आकलन करते हुए अनुभव की आंच से तपकर निकली कृति है।

तीसरी और महत्वपूर्ण खासियत है तथाकथित आधुनिकता, प्रगतिशीलता के नाम पर वर्जनामुक्त होती युवा पीढ़ी को इस कड़वी सच्चाई से परिचित कराता है कि कानून वर्जनाहीनता के पक्ष में नहीं है। खासकर बलात्कार की शिकार पीडि़त स्त्री के चरित्र की व्याख्या करते हुए । यदि वह अपना कौमार्य भंग कर चुकी है चाहे प्रेम संबंधों के चलते भी, तो भी वह अक्षम्य अपराधिनी है, दुष्चरित्र है और इसी आधार पर उससे बलात्कार करने वाला अपराधी बाइज्जत बरी होने का अधिकार और स्वंय के सच्चरित्र होने का प्रमाणपत्र पा लेता है । युवा पीढ़ी को तथाकथित आधुनिकता के विकृत परिणामों का वीभत्स चेहरा दिखाकर भ्रमित और पथभ्रष्ट होने से रोकने के प्रयत्न में लेखिका पूरी तरह सफल हैं। इस सच्चाई को जानना युवा पीढ़ी के लिए अनिवार्य है और मेरी राय में उन्हें इसे अवश्य पढ़ना चाहिए। नारी अस्मिता और स्वतंत्रता से जुड़ा अहम प्रश्न है दैहिक स्वतंत्रता का, जिसमें निरंतर एक ही सवाल उठता है कि स्त्री अपने चाहने पर किसी पुरूष से संबंध बना पाती है या नहीं। मगर इससे भी महत्वपूर्ण प्रश्न है जिसे स्त्री विमर्ष के दौरान उपेक्षित ही छोड़ दिया जाता है, यह अहम प्रश्न है कि अपने न चाहने पर स्त्री किसी पुरूष को संबध बनाने से रोक पाती है या नहीं ? यह स्त्री की गरिमा, मर्यादा और अस्मिता से जुड़ा अहम वैश्विक प्रश्न है। उपन्यास इस केन्द्र के इर्द-गिर्द घूमता है और स्त्रियों के शिकार में जाने-अनजाने शामिल हर पक्ष को कठघरे में खड़ा करता है।

इसका सामाजिक पहलू तो कड़वा है ही, कानूनी पहलू स्त्री के पक्ष में खड़ा होने के बावजूद उसे शिकार बनाने के इस खेल में अनजाने ही शामिल हो जाता है। उपन्यास में इस कड़वे निर्वसन सत्य को बेबाकी से सामने रखा है। हृदय विदारक हादसों की अनुगूंज और पीडि़त स्त्रियों की कराहें पूरे उपन्यास में ध्वनित होती हैं जो पाठक के मन मस्तिष्क को इस तरह झकझोर कर रख देती हैं कि उसका मन समाज के अंतर्विरोधों से उद्वेलित हो जाता है, उसकी आत्मा करूण क्रंदन करने लगती है। न्यायतंत्र के विरोधाभासों को लेखिका ने इस कौशल से उकेरा है कि पाठक आक्रोशित हो कुछ कर गुजरने को बेचैन हो जाताहै। भाषा में बिम्ब के साथ लेखकीय चिंतन का विनियोग है । इससे कई बार पाठकों के साथ तादात्म्य स्थापित करते हुए जो दलीलें दी गई हैं, वे पाठकों के विचारों को उद्वेलित करके विचार विमर्ष को जन्म देती हैं। जैसे ‘‘ममता का भंग कौमार्य उसके प्रेम संबंध का परिणाम है न कि चरित्रहीनता का ।’’(पृष्ठ 133) ‘‘स्त्री के दर्द से  साथ जुड़ा पुरूष भी तो घायल होता है,इसीलिए तो पुरूष से बदला लेने के लिए संबंधित स्त्री के साथ जबरदस्ती करना...ओह...!’’ (पृष्ठ 183) भाषा पात्रों के अनुरूप है। जैसे ‘‘रामकिशोर खींसे निपोरकर बोला ‘अरे वो हम भी जानते हैं। चाल-चलन खराब होता तो तुम्हें जोर-जबरदस्ती की जरूरत ही क्यों पड़ती ? फिर तो मामला यूं ही फिट हो जाता ना है ना!’’(पृष्ठ 150)

मीनाक्षी स्वामी ने अपने लेखकीय कौशल से पात्रों का मनोविश्लेषण बहुत गहराई से किया है। जैसे ‘‘ऐसी पूछताछ तो गैर करते हैं। अपने तो भरोसा करते हैं, कुछ नहीं पूछते ।’’(पृष्ठ 239) समग्र रूप में ‘भूभल’ उपन्यास के अर्थ में एक ऐसा दस्तावेज है जो जनचेतना, जनशक्ति से सामाजिक क्रांति का विश्वास जगाता है, शंखनाद करता है। ‘‘कोमल और नन्हीं बूंदें जब संगठित होती हैं तो चट्टानों को भी काटकर रख देती हैं।’’(पृष्ठ 255) ‘‘जनमत ने दांतों तले उंगली दबा ली। इतनी ताकत है उसमें और वही अनभिज्ञ था अपनी ताकत से।’’ (पृष्ठ 256) मीनाक्षी स्वामी ने जीवन की विसंगतियों को समाजशास्त्रीय आंख से देखकर, उन्हें संवेदनाओं के संश्लिष्ट स्वरूप में कायान्तरित करने का कौशल एक नितांत असंक्राम्य मुहावरे में अर्जित किया है। वे अनुभवों को संवेदनाओं के ऐसे संभव और संप्रेष्य रूप में अभिव्यक्ति करती हैं कि पाठक अविकल सतत पाठ के लिए विवश हो जाते है। यही कौशल उनके इस उपन्यास ‘भूभल’ में भी दिखाई देता है। इस साहसिक, विचारोत्तेजक और मार्मिक कथ्य की संवेदनशील और कलात्मक प्रस्तुति के लिए मीनाक्षी स्वामी बधाई की पात्र हैं।आग के बने रहने में गहरा प्रतीकार्थ है। भीतर की आग ही मनुष्य को कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित करती है। यह आग उपन्यास में अंत तक प्रज्जवलित है और पाठक के मन में भी प्रज्जवलित हो जाती है, यही सिध्दहस्त लेखिका की सफलता है। उपन्यास का अंश यहाँ पर है.......।


समीक्षित उपन्यास - भूभल
लेखिका - डॉ. मीनाक्षी स्वामी
प्रकाशक - सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य - तीन सौ साठ रूपए


22 टिप्‍पणियां:

  1. कृति के प्रति आकषर्ण पैदा करने वाली पोस्‍ट.

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  2. @ 'आंच' का 'प्रज्ज्वलन' :)

    भयंकर समीक्षा है ! पढ़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं कि डरा रहे हैं :)

    भूभल के कोई मायने ज़रूर होते होंगे ?

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  3. पढ़ने की उत्कण्ठा जगा गयी यह पोस्ट।

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  4. अच्छी लगी आपकी समीक्षा .
    पढ़ कर हो रही है
    इस उपन्यास को पढ़ने की इच्छा .
    देखें ,कब खत्म होती है प्रतीक्षा !

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  5. बढ़िया समीक्षा... लेखिका के साथ-साथ समीक्षक भी बधाई के पात्र हैं...

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  6. हार्दिक आभार। उपन्यास गंभीरता से पढने के लिये, ईमानदारी से समीक्षा करने और अपने ब्लाग पर अंशों के लिंक सहित देने के लिये।

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  7. इस महत्वपूर्ण जानकारी के लिए दिल से आभार आपका भाई जी

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  8. अच्छी लगी आपकी समीक्षा सार्थक पोस्ट आभार....

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  9. @ ललित जी ,
    सुबह राहुल सिंह जी से उस ब्लॉग की लिंक मिल गई थी ! आपसे अर्थ की पुनः पुष्टि हुई ! आभार !

    @ उपन्यास ,
    प्रतीकात्मक ढंग से देखूं तो इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि लेखिका यह मानती हैं कि सामाजिक ताने बाने में आज के 'भूभल' के पहले के हालात में 'अग्नि' अपने मूल रूप में प्रज्ज्वलित थी कभी ! अर्थात स्त्रियों के उस सुनहरे दौर (अग्नि ) को यथावत सहेजा नहीं जा सका और अब हालात भूभल के हैं ?

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  10. मीनाक्षी जी का यह उपन्‍यास अब तो जगह जगह चर्चा में है।

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  11. कंचन से मुलाक़ात हो गयी. बने रहीस.

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  12. badhiya samiksha ...ye upanyas dhundhana padega ..bahut hi rochak hai ..samvedna se bhara ye upanyas ...

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  13. बहुत अच्छी परिचयात्मक पुस्तक समीक्षा

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  14. बहुत अच्छी पुस्तक की बहुत अच्छी समीक्षा। बधाई।

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  15. ब्लॉगर भी बेहतर और समीक्षक उससे बेहतर निकले,खैर एक स्थापित रचनाकार ( डॉ . मीनाक्षी स्वामी ) की रचना है यह ..लेकिन आपकी समीक्षा ने इस उपन्यास की प्रासंगिकता और महता को बढा दिया ......अच्छा लगा यह सब जानना ......सलाम आपको

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  16. नाम को सार्थक करती ही है रचना ...
    परिचय के लिए आभार!

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  17. पुस्तक को पढने के लिए प्रेरित करती समीक्षा . बहुत बढ़िया.

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  18. भूभल से परिचय कराने का आभार
    वाह आप तो चौचक समीक्षा कर लेते हैं ...:)

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