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शनिवार, 28 जुलाई 2012

गड़ा खजाना मिला मुझे ------------------- ललित शर्मा

मड फ़ोर्ट का गुगल व्यू
रती के कोने-कोने में प्राचीन सभ्यताओं के अवशेष बिखरे पड़े हैं,छत्तीसगढ भी इससे अछूता नहीं है। यहां पग-पग पर पुरावशेष मिल जाते हैं। धरती की कोख में खजाने गड़े हुए हैं, हम यह किस्से कहानियों में सुनते आए हैं। इतिहास के अध्ययन से ज्ञात होता है कि राजाओं के खजाने सुरक्षित रखने की दृष्टि से धरती में या गिरि कंदराओं में छिपाए जाते थे। पृथ्वी में गड़े पुरावशेष भी किसी गड़े हुए खजाने से कम नहीं है। जब यह खजाना बाहर आता है तो अपने काल के सारे किस्से उगल देते हैं।

चौरस मड फ़ोर्ट का गुगल व्यू
ऐसा ही एक पुरातात्विक खजाना उगलने को तैयार है 21N05 81E46 अक्षांश-देशांश पर जिला रायपुर छत्तीसगढ के अभनपुर जनपद एवं नगर पंचायत का राष्ट्रीय राजमार्ग 30 पर बसा हुआ ग्राम बड़े उरला। इस गांव को लगभग200-250 वर्ष पूर्व बोधवा गौंटिया द्वारा बसाया था। इनके परिवार के 40-45 घर अभी भी यहाँ निवास करते हैं। इनके वंशज 60 वर्षिय हृदय लाल गिलहरे (गुरुजी) सेवानिवृत व्याख्याता है। ग्रामाधारित विषयों पर हमेशा इनसे चर्चा होते रहती है। उन्होने बताया कि उरला गाँव कुल रकबा (छोटे उरला एवं बड़े उरला) 1800 एकड़ का है। इनके पूर्वजों ने गाँव में ईशान कोण में दर्री तालब एवं पूर्व में बंधवा तालाब बनवाया था।


हृदयलाल गिलहरे(गुरुजी) पार्श्व में ठाकुर देव

शासकों द्वारा सुरक्षा की दृष्टि से बनाए जाने वाले दुर्गों (किलों) में गिरि दुर्ग, जल दुर्ग एवं धूलि दुर्ग (मडफ़ोर्ट) प्रमुख हैं। 26 जुलाई 2012 को गुरुजी से हसदा के मडफ़ोर्ट के विषय में चर्चा हो रही थी, तो वे मुझे गाँव के पूर्व में स्थित डीह (टीला) दिखाने ले आए। शाम के समय मैंने यहाँ की संरचना देखी। देखते ही अहसास हो गया कि यह एक मडफ़ोर्ट (धूलि दुर्ग) है। मुझे गांव की पूर्व दिशा में मडफ़ोर्ट (धूलि दुर्ग) के अवशेष के साथ पुरातात्विक प्रमाणो की जानकारी मिली। इस स्थान पर मैं बचपन से जाता रहा हूँ। यहाँ पर सैकड़ों साल पुराना विशाल पीपल का वृक्ष हुआ करता था।

डीह पर स्थापित ठाकुर देव
जिसकी गोलाई लगभग 30 फ़ुट रही होगी। गाँव के बुजुर्ग कहते थे कि यह वृक्ष कितना पुराना है यह किसी को नहीं पता। इस स्थान को देखने पर पता चलता है कि यहां चारों तरफ़ लगभग 15 फ़ुट चौड़ी एवं 20 फ़ुट गहरी खाई है। इस मडफ़ोर्ट के पूर्व एवं पश्चिम के द्वार स्पष्ट दिखाई देते हैं। उत्तर-दक्षिण के द्वार गुगल इमेज से दिखाई देते हैं। ऊंचाई पर स्थित होने के कारण ग्रामवासी इसे "डीह" ( टीला या ऊंचा स्थान) कहते हैं। डीह के आग्नेय कोण में पीपल के वृक्ष के नीचे सर्वमान्य प्रमुख ग्राम देवता ठाकुर देव का स्थान है। यहाँ सदियों से किसान अक्ति (अक्षय तृतीया) को दोना में धान चढाते हैं और पूजा अर्चना करके खेती-किसानी की शुरुआत करते हैं।

पूर्व दिशा में मड फ़ोर्ट की खाई
डीह की पूर्व दिशा में किसान के खेत में एक गड्ढा है जिसमें बरसात होने के कारण पानी भरा हुआ है। गुरुजी कहते हैं कि यह सुरंग हैं, जब कोई सगा मेहमान गाँव में आता था उनके दादा उसे यह सुरंग दिखाने के लिए लाते थे। सुरंग के पास लेट्राईट में खोदे हुए 1.5X1.5 फ़ुट के गड्ढे हैं। ऐसे ही गड्ढे बावड़ी के पास भी बने हुए हैं। सुरंग से लगभग 700 फ़ुट की दूरी पर एक 20X30X10 फ़ुट की बावड़ी है। जिसमें हमेशा पानी भरा रहता है। बड़े उरला के प्रवेश में 1942 में गिरधारी कहार (तत्कालीन गौंटिया) द्वारा बनाया गया पंचमुखी शिवालय भी है। गाँव के ईशान कोण में दर्री तालाब के किनारे शीतला मंदिर है और डीह के ईशान कोण में सतबहनिया देवी है। डीह के पश्चिम एवं गांव के पूर्व में सांहड़ा देव है। डीह के पूर्व में भैंसासुर है। किसानों के आधिपत्य में होने के कारण डीह की मिट्टी खुदाई कर किसान अपने खेतों में डालते थे। यहाँ की मिट्टी उपजाऊ होने के कारण खेतों में दो-तीन वर्ष तक गोबर खाद डालने की आवश्यकता नहीं होती। उपजाऊ भूरी मिट्टी होने के कारण किसानों ने डीह के आधे हिस्से की खुदाई करके अपने खेतों में पहुचा डाली। बताते हैं कि डीह को खोदने पर मानवोपयोगी घर-गृहस्थी के उपकरण प्राप्त होते हैं। जिनमें मिट्टी के पके लाल बर्तन, दीया, खाना पकाने के बर्तन, धान कूटने का मूसल, मसाला पीसने का सिल-लोढा इत्यादि प्राप्त हुए हैं।

सुरंग का मुहाना और पार्श्व में डीह
मडफ़ोर्ट के पूर्वी द्वार से लगभग 150 मीटर पर स्थित सुरंग का उपयोग सुरक्षा के लिए किया जाता रहा होगा। सुरंग का एक ही मुहाना दिखाई देता है। दुसरा मुहाना कहाँ पर है और कहाँ तक जाता है इसका कोई पता नहीं। डीह के आसपास की मिट्टी से बाहर निकले हुए कठोर लेट्राईट पत्थर दिखाई देते हैं तथा सुरंग भी लेट्राईट में खोद कर बनाई गयी है। अगर सुरंग की सफ़ाई की जाए तो पता चल सकता है कि इसका दूसरा मुहाना कहाँ पर है। या फ़िर यह सुरंग न होकर कोई खोह होगी जिसमें युद्ध के समय या आपातकाल में गढीदार या सैनिक छिपते रहे होगें। 1.5X1.5 फ़ुट के गड्ढे सैनिकों के छिपने के लिए बनाए गए होगें। इन गड्ढों को तीन फ़ुट की तश्तरीनुमा प्लेट से ढका जा सकता है। इसके भीतर आराम से बैठकर एक व्यक्ति तीर इत्यादि जैसे अस्त्र चला सकता है। युद्ध की स्थिति में आस-पास का सघन वन भी सैनिकों के छिपने में सहायक होता होगा। उपर्युक्त संरचनाओं को देखने से प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था सामरिक उपयोग को ध्यान में रख कर की गयी होगी।

कोल्हान नाला का उद्गम
यहाँ का निवासी होने के कारण इलाके की भौगौलिक स्थिति से मैं पूरी तरह परिचित हूँ। बड़े उरला में मात्र 3 तालाब हैं जिसमें बंधवा तरिया, दर्री तरिया का निर्माण बोधवा गौंटिया के परिजनों द्वारा एवं बोईर तरिया का निर्माण राहत कार्य के दौरान हुआ है। यहाँ मडफ़ोर्ट में रहने वालों के लिए पानी की क्या व्यवस्था रही होगी? क्योंकि जहाँ निस्तारी के लिए पानी का साधन न हो वहाँ कोई निवास नहीं करता। यह विचार करने पर मडफ़ोर्ट के पूर्व में स्थित कोल्हान नाला याद आता है। यहाँ से कोल्हान नाला एक फ़र्लांग ही होगा। बेलडीह, गिरोला, अभनपुर, नायकबांधा, बड़े उरला का बरसात का पानी एकत्र होकर नाले का निर्माण करता है। यह नाला खरोरा के पास जाकर छोटी नदी का रुप धारण कर लेता है। इसका पाट काफ़ी चौड़ा हो जाता है। अनुमान है कि कोल्हान नाला समीप होने के कारण यहां के निवासियों को निस्तारी के लिए पानी उपलब्ध होता रहा होगा। सुरंग के समीप मिलने वाले 1.5X1.5 फ़ुट के गड्ढे झरिया के काम आते होगें। साथ ही 20X30X10 फ़ुट की बावड़ी भी निस्तारी के लिए मिलने वाले जल का प्रमाण है। कोल्हान नाला गिरोला और बड़े उरला के बीच से प्रवाहित होता है। वर्तमान में नाले पर किसानों नें अतिक्रमण करके खेत बना लिए गए हैं। नाला कहीं दिखाई नहीं देता। मैदानों का पानी खेतों के भीतर से ही प्रवाहित होता है।

खोजकर्ता ब्लॉ. ललित शर्मा पार्श्व में मडफ़ोर्ट का पूर्वी द्वार
बचपन में रामगोपाल साहू के साथ सायकिल पर इसी रास्ते से उसके गाँव गिरोला जाता था। उरला एवं गिरोला के बीच कई सौ एकड़ का भाटा (उंचाई लिए बंजर भूमि) पड़ता था। तब रामगोपाल बताता था कि उसके सियान कहते थे कि पहले उनका गाँव यहीं भाटा में बसता था। गाँव में दैवीय प्रकोप के कारण धूकी(वर्षा जनित बीमारी) से कई लोग मर गए, तब इस स्थान को छोड़कर कुछ ग्रामवासी एक किलोमीटर दूर उत्तर की तरफ़ छोटे उरला जाकर बस गए और कुछ पूर्व की ओर जाकर बस गए, उस बसाहटा को गिरोला नाम दिया। शायद बीमारी के थक हार कर गिरते पड़ते उस स्थान पर पहुंचने के कारण गाँव का नाम गिरोला प्रचलन में आया हो। जहाँ से ग्रामवासियों ने सपरिवार पलायन करके नया गाँव बसाया उस पुराने गाँव का नाम "बगबुड़ा" है। अभी यह गाँव राजस्व रिकार्ड में वीरान गाँव के नाम से दर्ज है। ऐसे वीरान गाँव छत्तीसगढ अंचल में बहुत हैं। गिरोला से लगा हुआ बड़ा तालाब है, जिससे ग्रामवासियों की निस्तारी होती है। वर्तमान में इस भाटा में नवभारत एक्सप्लोसिव कम्पनी की बारुद फ़ैक्टरी लगी हुई है। 

वन देवी कर्राबाघिन उरला एवं गातापार की सीमा में
गिरोला, बड़े उरला, बेलडीह के मैदानों में तेंदू पत्ता की भरमार है। ग्रामवासी बीड़ी बनाने के लिए गर्मी के दिनों में यहीं से तेंदू के पत्तों की तोड़ाई करते हैं। रायपुर-राजिम के  तीर्थ यात्रियों वाले पुराने रास्ते पर बड़े उरला से लगभग एक कोस पर वन देवी कर्राबाघिन का स्थान है तथा गांव के खार (खेतों) में भैंसासुर भी विराजमान है। भैंसासुर वन देवता है, त्यौहारों के विशेष अवसरों भैंसासुर का मान-दान किया जाता है। वनदेवी कर्राबाघिन वन के प्रवेश द्वार पर होती हैं। वन में प्रवेश करने के पूर्व उनकी पूजा अर्चना करके कुशलता की प्रार्थना की जाती है है। विशेष कर वीरान गाँव का "बगबुड़ा" नाम ध्यान आकृष्ट कराता है। बग=बाघ और बुड़ा=डूबना या दिखाई न देना। याने इतना सघन वन कि बाघ दिखाई न दे। साथ ही डीह पर खाद जैसी उपजाऊ मिट्टी का मिलने यह प्रतीत होता है कि यह स्थान वीरान होने पर यहाँ के वृक्ष सड़ कर कम्पोस्ट खाद में बदल गए। भैंसासुर, बगमुड़ा, वनदेवी कर्रा बाघिन, डीह से उपजाऊ मिट्टी का प्राप्त होना आदि सूत्रों को जोड़ने पर लगता है कि इस स्थान पर सैकड़ों वर्षों पूर्व सघन वन रहा होगा।

पश्चिम दिशा में मडफ़ोर्ट की खाई
बुजुर्ग ग्रामवासी बताते थे कि राष्ट्रीय राजमार्ग 30 बनने के पूर्व रायपुर से राजिम जाने वाले तीर्थ यात्री इस मार्ग से ही राजिम जाते थे तथा यह मार्ग राजिम से आगे जाने वाले यात्रियों के काम भी आता होगा। प्राचीन काल में शासक और श्रेष्ठिजन पथिकों के विश्राम एवं जल की आवश्यकता को देखते हुए मार्ग पर कुंए और सराय बनवाते थे। जहाँ यात्री जल ग्रहण कर अपनी प्यास बुझा सकें और आवश्यकता पडने पर कुछ देर विश्राम कर सकें। इस मार्ग पर कुंआ भी है जिसका अवशेष मात्र ही दिखाई देता है। इस मार्ग का सर्वे किया जाए तो अन्य स्थानों पर भी कुंए के अवशेष मिल सकते हैं, जिससे इस प्राचीन मार्ग की प्रमाणिकता सिद्ध होगी। अभी तक मैने जितने भी मडफ़ोर्ट देखे हैं वे सभी गोलाई लिए हुए हैं। बड़े उरला में प्राप्त मडफ़ोर्ट चौरस (स्क्वेयर) होना इसे विशिष्ट बनाता है, चौरस मडफ़ोर्ट मुझे पहली बार देखने मिला। इस मडफ़ोर्ट को किसने बनाया? इसमें कौन और किस काल में निवास करता था? किस राजा की यह गढी थी? इसका इतिहास क्या है? आदि प्रश्न मेरे जेहन में घुम रहे हैं। बड़े उरला के इस मडफ़ोर्ट के प्राप्त होने के बाद इन सब प्रश्नों के उत्तर ढूढना पुरातत्ववेत्ताओं एवं इतिहास के अध्येताओं का कार्य है। जिससे देश-दुनिया को यहाँ के इतिहास की जानकारी मिलेगी तथा इतिहास में नवीन कड़ियाँ जुड़ेगीं।


शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

बर्फ़ानी आश्रम एवं संत बालयोगी का योग ---------- ललित शर्मा

प्रारंभ से पढें

र्मदा माई के दर्शन करके हम बर्फ़ानी बाबा की खोज में निकले। यह पता नहीं था कि उनका आश्रम नर्मदा उद्गम स्थल के पीछे ही है। दो-चार किलोमीटर के चक्कर काट कर हम आश्रम के मुख्यद्वार पर पहुंचे। द्वार पर सिक्योरिटी गार्ड मुस्तैद थे। उनसे पूछने पर पता चला कि बाबा जी आराम कर रहे हैं। भीतर कोई होगा तो जाकर उनसे पूछ लीजिए। भीतर जाने पर श्वेत वस्त्रधारी युवा विराजमान थे कुर्सी पर। उनके सामने दो व्यक्ति जमीन पर बैठे थे। हाव-भाव से लगा कि यही प्रमुख हैं यहाँ के। मदन साहू बर्फ़ानी बाबा से मिलना चाहते थे। उनकी उम्र 221 साल बताई जाती है। अमरकंटक में चीन के युद्ध के पश्चात 1965 में आए। बर्फ़ानी दादा जी का पैतृक निवास उन्नाव जनपद के दोदियाखेड़ा ग्राम है। ये ब्राह्मण जमीदार परिवार से हैं। इनके पिता का नाम हरिदत्त दूबे था। इन्होने 36 अंचल बिलासपुर, डोंगरगढ और खैरागढ में ही समय बिताया। इनका मुख्याश्रम छत्तीसगढ के राजनांदगांव में है। उन्हे ब्रह्मर्षि बर्फ़ानी दादा जी के नाम से जाना जाता है। अमरकंटक में संत लक्ष्मण दास बालयोगी जी उपलब्ध थे। 

हमने भी उनकी बैठक में स्थान ग्रहण किया और चर्चा होने लगी। बालयोगी जी के पास एक डेस्कटॉप और एक लैपटॉप रखा हुआ था। कहने लगे कि इंटरनेट का कनेक्शन बंद है। शिकायत दर्ज कराने पर भी चालु नहीं हुआ है। मैने अपने बीएसएनएल के डॉटाकार्ड से चलाने की कोशिश की तो वहाँ पर नेटवर्क नहीं मिला। बालयोगी जी से बर्फ़ानी दादा जी के विषय में चर्चा हुई। उन्होने बताया कि वे इस आश्रम से एक पत्रिका भी निकालते हैं। हमारे स्वामी जी उनकी प्रत्रिका के वार्षिक सदस्य बने। लेकिन पत्रिका कई माह से प्रकाशित नहीं हो पायी थी। इस तरह हमारे स्वामी जी भाव विभोर होकर टेसन पर खड़ी रेल में टिकट लेकर बैठ गए। पता नहीं गाड़ी चली भी है या नहीं या स्वामी जी गाड़ी खुलने का इंतजार ही कर रहे हैं। बालयोगी जी ने बताया कि उन्हे कम्पयुटर और नेट चलाना आता है। जो पत्रिका वे निकालते हैं उसकी डिजाईन वे स्वयं ही करते हैं। डीटीपी के साथ कोरल पर भी काम जानते हैं। होना भी चाहिए, वर्तमान में बहुतेरे संत इलेक्ट्रानिक माध्यमों का उपयोग कर धर्म एवं संस्था के प्रचार प्रसार में लगे है।

लेखक एवं संत लक्ष्मण दास बालयोगी
बालयोगी जी की अर्थेजर्निक योग भक्ति फ़ाऊंडेशन नामक संस्था भी है। जिसके माध्यम से प्राण शक्ति बढाने वाले योग का प्रचार प्रसार करते हैं। योग शास्त्र कहता है- योगश्चित्तवृत्ति निरोध:। अगर मनुष्य नियमित यौगिक दिनचर्या का पालन करे तो अस्वस्थ हो ही नहीं। बालयोगी जी ने मुझे अपने प्रकाशन की तीन किताबें 1- नमस्कार सूर्य, 2-अर्थेजर्निक योग भक्ति साधना उर्जा एवं अर्थेजर्निक योग भक्ति साधना (अर्थ और उर्जा के साथ परम लक्ष्य की प्राप्ति सप्रेम भेंट की। हमने उनके साथ फ़ोटो ली। योगी जी को पत्रिका निकालने के लिए एक कम्पयुटर आपरेटर चाहिए। जो अमरकंटक में रह कर इनका काम करे। मानदेय के विषय में पूछने पर इन्होने बताया कि मानदेय योग्यतानुसार दिया जाएगा। आश्रम के एक हिस्से का कालेज के छात्रों के लिए छात्रावास के रुप में प्रयुक्त हो रहा है । आश्रम में अतिथियों के लिए जलपान की कोई व्यवस्था नहीं है। यह सोच कर थोड़ा ताज्जुब लगा। आमसेना वाले महाराज तो बिना जलपान किए किसी को वापस ही नहीं आने देते हैं। चाहे जितने दिन भी रहिए, तीन समय का भोजन प्रसाद अवश्य मिलेगा। चाहे वह व्यक्ति आम हो या खास हो।

बालयोगी जी व्यवहार कुशल एवं मृदूभाषी हैं। इनका व्यवहार शांत एवं मनमोहक है। अर्थेजर्निक योग भक्ति साधना उर्जा की प्रस्तावना में लिखते हैं कि शारीरिक एवं आध्यात्मिक उर्जा संचित करने के लिए अर्थेनर्जिक योग, भक्ति के अंतर्गत योग साधना के छ: अलग-अलग कोर्स बनाए गए है। इनमें पहला कोर्स है "भूमिका" जो तीन दिवसीय प्रयोग है, यह मुख्य रुप से शरीर साधना से संबंधित है। इसके बाद दूसरा कोर्स है "उर्जा"। यह कोर्स सात दिवसीय प्रयोग है और यह शरीर साधना के साथ आध्यात्मिक साधना से जुड़ा हुआ है। इसी परिपेक्ष में यह पुस्तक प्रकाशित की गयी है। इसमें मुख्य रुप से सात दिवसीय उर्जा का संकलन किया जा रहा है। सात दिवसीय यह उर्जा कोर्स समाज के बदलते परिवेश को दृष्टिगत करते हुए निर्धारित किया गया है क्योंकि वर्तमान में  व्यवहार जगत की सक्रियता लगातार बढते जा रही है, इस समय न तो कोई चैन से बैठना चाहता है और न ही किसी से पीछे रहना चाहता है ऐसे में शारीरिक उर्जा का महत्व और भी बढ जाता है।

बालयोगी जी से हम पुस्तकें ग्रहण कर अपने अगले पड़ाव की ओर चल पड़त है। वे हमें मुख्यद्वार तक पहुंचाने आते हैं, हम उनसे विदा लेते हैं। अमरकंटक में वैसे भी छत्तीसगढी बोली का प्रयोग निवासी सामान्यत:  करते हैं। इसे बंटवारे में छत्तीसगढ को ही दिया जाना चाहिए था। लेकिन राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी एवं दोनों प्रातों में एक ही राजनैतिक दल की सरकार होने के कारण बंदर बांट हो गयी। अमरकंटक जैसा सुरम्य इलाका छत्तीसगढ में रहने से वंचित हो गया। पहले जब किसी को टी बी इत्यादि बीमारी हो जाती थी तो डॉक्टर उसे पेंड्रारोड या अमरकंटक जाकर स्वास्थ्य लाभ करने के लिए कहते थे। जैसे दिल्ली वाले गर्मी के मौसम में स्वास्थ्य लाभ करने शिमला या कुल्लू मनाली जाते हैं। अमरकंटक में भी गर्मी के दिनों में इसी तरह का मौसम होता है और शीतल बयार चलती है। मन एवं आत्मा प्रफ़ुल्लित हो जाती है। जब भी आओ यहीं बसने का मन होता है। घर के समीप इस हिल स्टेशन पर भी एक घर होना चाहिए। … आगे पढें

बुधवार, 25 जुलाई 2012

नर्मदा मंदिर अमरकंटक एवं पापमोचन हाथी -------- ललित शर्मा

रामघाट नर्मदा नदी अमरकंटक
प्रारंभ से पढें
कार में पड़े-पड़े नींद कम आयी और अलसाए अधिक। कच्ची नींद की खुमारी लिए सुबह हुई। कार से बाहर निकले तो सूरज का रथ धरा पर आ रहा था। हमने कार रामघाट पर लगाई, बाहर निकलते ही नंदी महाराज के दर्शन हुए। धन्य हो गए भगवन नंदी देव के दर्शन पाकर। चाय हमने मृत्युंजय आश्रम के सामने टपरे में पी। लेमन टी ही मिली। आश्रम का गेट खुल चुका था। वहीं गाड़ी लगाई। स्वामी जी नर्मदा स्नान करने की कह रहे थे। हमने कहा कि यहाँ के नलों में भी नर्मदा का ही जल है। हम तो यहीं बाथरुम स्नान करेगें। आप लोग हो आईए नर्मदा स्नान करके। ये सभी नर्मदा स्नान करने चले गए और हमने बाथरुम में नर्मदा स्नान किया। इनके आते तक बचे हुए तरबूज कोठी के हवाले किए और एक झपकी भी ले ली। मदन साहू जी ने बताया कि आश्रम में नाश्ता मिल रहा है। उनके पंहुचते तक नाश्ता भी खत्म हो गया। उन्हे खाली हाथ लौटना पड़ा।

अखंड पाठ स्थान रामघाट अमरकंटक
स्नान से आकर स्वामी ध्यान में लग गए। हम रामघाट की ओर आ गए। नामदेव जी ने बताया कि सन 1980 में गंगाराम दास जी के मन में वैराग्य आ गया। उन्होने 12 साल तक अखंड रामचरित जाप करने का संकल्प लिया और यहीं राम घाट पर खुले आसमान के नीचे रामचरित रख कर दीया जला कर अखंड जाप करने बैठ गए। संकल्प लेते समय अमरकंटक के अन्य साधू संतो को भी बुलाया साक्षी होने के लिए। उन्हे संशय था कि यह 12 वर्ष का संकल्प पूरा होगा कि नहीं। जैसे-तैसे अखंड पाठ चलता रहा। लोग आते गए साथ देने के लिए। कारवां बनता गया। कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि लगता था अखंड जाप चल नहीं पाएगा। तभी एक बुढिया माई आ गयी यहाँ पर। उसने साथ देना शुरु किया। जो भी यहाँ भक्त आता था उसे रोटी सब्जी या जो भी भोजन उपलब्ध हो कराती थी। किसी को खाली हाथ नहीं जाने देती थी। इस तरह 12 वर्षों तक अखंड पाठ चलता रहा और फ़िर 1992 में पूर्ण भी हुआ।

राम धुनि करते भक्त
12 वर्षों के अखंड पाठ के बाद बाबा जी अयोध्या चले गए। फ़िर कभी लौट कर नहीं अमरकंटक इस स्थान पर नहीं आए। अब वे अयोध्या में रामहर्षण कुंज में रहते हैं। उनके अखंड पाठ स्थल पर एक झोंपड़ी बनी हुई है। उसके भीतर एक पक्का मंदिर है। जहाँ अयोध्या से आए दो चार चेले रहते हैं। एक चेला तो काफ़ी खाया पीया हष्ट-पुष्ट दिखा। बुढिया माई ही अब यहाँ की कर्ता-धर्ता हैं। हम स्नानाबाद से पहुचे तो यहां अखंड पाठ चालु था। भक्त लीन थे भक्ति में। काफ़ी श्रद्धालु जमा हो गए थे। छत्तीसगढ में होने वाली राम सत्ता(सप्ताह) जैसे ही गाना बजाना नाचना हो रहा था। थोड़ी देर में किसी ने हमें पत्तों में लपसी लाकर दी, प्रात:राश के लिए। दोपहर का भंडारा भी यहीं पर था। अखंड पाठ की पूर्णाहुति के बाद सभी ने भोजन प्रसाद ग्रहण किया। सामुहिक रुप से भक्तों द्वारा की गयी व्यवस्था अच्छी थी। सब अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार व्यवस्था कर रहे थे। भोजन प्रसाद ग्रहण करने बाद बताया गया कि शाम 5 बजे से अयोध्या से पधारे संतों द्वारा प्रवचन होगा। 

नर्मदा उद्गम मंदिर का प्रवेश द्वार
भोजनोपरांत हम अमरकंटक घुमने चल पड़े। सबसे पहले नर्मदा कुंड गये। जहाँ से नर्मदा जी का उद्गम माना जाता है। अमरकंटम मैं पहले भी आ चुका हूँ। चम्बल के किसी नामी गडरिया डकैत से यहीं मुलाकात हुई थी। उसे पेशी में लाने वाले पुलिस वाले नर्मदा स्नान कराने लाए थे। नाम याद नहीं आ रहा है लम्बा और काला था, मुंह में चेचक के दाग थे। एक दुकान में बैठा था, लगभग 10-12 पुलिस वाले उसे हथकड़ी लगा कर साथ थे। दुकान वाला कह रहा था उन्हे कि उनकी दुकान में न बैठें। धंधा खराब हो रहा है। तभी मेरा ध्यान उस पर गया था। पूछने पर कोई गड़रिया डकैत बताया। उसके बाद पुलिस वालों ने उसे ले जाकर नर्मदा कुंड में स्नान करवाया और खुद भी डूबे उसके साथ। हम किनारे पर बैठ कर नजारा देख रहे थे। कैमरा नहीं था वरना आज वह चित्र आपके सामने  होता। कभी-कभी कैमरे का न होना बड़ा अखरता है। यह बाद लगभग 4-5 साल पहले की होगी। जब हमने उसे देखा था। 

नर्मदा उद्गम कुंड
मंदिर के बाहर जूते चप्पल उतारे, मदन साहू का ध्यान चप्पलों की तरफ़ था कि कोई उठा कर ले जाएगा। अरे मंदिरों से चप्पल च्रोरी नहीं होगें तो कहां से होगें? चलो तुम्हारी दरिद्री दूर होगी, हमने उसे चेताया। नर्मदा उदगम कुंड में किसी को स्नान करने नहीं दिया जाता। स्नान करने का कुंड अलग से बना हुआ है। स्नान कुंड के समीप रुद्राक्ष के पेड़ लगे हैं। जिन पर मुख्यमंत्री द्वारा रोपण करने की पट्टि्का लगी हुई है। हमने मंदिर में दर्शन किए। मुख्य मंदिर काफ़ी पुराना बना हुआ है। मंदिर परिसर में ही प्रसाद खरीदने का काउंटर बना है। जहां से प्रसाद लिया जा सकता है। अब यह व्यवस्था सभी मंदिरों में दिखाई देती है। जहाँ ट्रस्ट बन गए हैं और उनके हाथ में ही मंदिर की देख-रेख है। मंदिर के बाहर भी प्रसाद, फ़ूल पत्ती एवं पूजा के  सामानों की दुकाने लगी हैं। साथ ही घरेलू आवश्यकता के उपकरण भी मिलते हैं। 

कार्तिकेय स्वामी मंदिर
नर्मदा मंदिर के समीप ही दांए हाथ की तरफ़ कार्तिकेय स्वामी का मंदिर हैं। यहां व्याधि से ग्रस्त लोग दर्शन करते हैं और मनौती मानते हैं। मंदिर में लिखा है - अपस्मार, कुष्ट क्षयार्श: प्रमेह ज्वरोन्माद, गुल्मादि रोगा: महन्त: पिशाचाश्च सर्वेभक्त प्रत्र भुतिम् विलोक्य क्षणाक्तारकारे द्रवन्ते॥ इतनी व्याधियों का यहाँ आने पर इलाज हो जाता है ऐसी  मान्यता जनमानस में व्यापक है। मंदिर परिसर के बाहर जड़ी बूटी बेचने वाले भी बैठे हैं। उन्होने अपने पसरे में तरह-तरह की जड़ी बूटियाँ फ़ैला रखी हैं। दो चार ग्राहक तो दिन भर में फ़ंस ही जाते हैं और उनकी दुकानदारी चल जाती है। यहाँ भिखारियों की लम्बी फ़ौज है। जो स्नान कुंड के बाहर बैठी रहती है।

हाथी के बीच से निकलते नामदेव जी के अग्रज
नर्मदा जी के उद्गम के विषय में मै पहले यहाँ पर लिख चुका हूँ। मंदिर के बांए तरफ़ घोडे एवं हाथी पर बैठे योद्धाओं की शीश कटी मूर्तियाँ दिखाई देती हैं। हाथी के पैरों के बीचे से लोग निकलते हैं। मान्यता है कि पापी मनुष्य हाथी के बीच से नहीं बुलक सकता। हमने मदन साहू जी को हाथी के पैरों से निकलने कहा। उसने एक बार प्रयास किया लेकिन विफ़ल रहा। नामदेव जी के भाई ने उसे निकल कर दिखाया। उत्साह से उसने दुबारा प्रयास किया तब बीच में ही फ़ंस गया। निकल नहीं सका। मेरे साथ बैठे व्यक्ति ने कहा कि जो निकल नहीं सकता, फ़ंस जाता है उसे लात का स्पर्श कराने से निकल जाता है। मान्यता है कि लात लगने से उसके कर्मों का दंड मिल जाता है और वह पार निकल जाता है। मदन साहू ने तीसरी बार शर्ट उतार कर निकलने का प्रयास किया। पसीने-पसीने हो गया लेकिन निकल नहीं सका।

हाथी के बीच में फ़ंसे हुए मदन साहू जी
इसके बाद उसने मुझे निकलने के लिए कहा। मैं पहले ही प्रयास में सरलता से पार हो गया। तो कहने लगा कि उसका पेट फ़ंस जाता है इसलिए वह नहीं निकल सका। मैने स्वामी जी से भी निकलने कहा। ले्किन उनके मन में क्या भय था वो ही जाने। उन्होने एक प्रयास भी नहीं किया। हम हाथी के पैरों के नीचे से निकल कर धर्मात्मा घोषित हो चुके। उपस्थित दर्शकों से तालियों के रुप में प्रमाण पत्र भी मिल चुका था। लोग आकर बारी-बारी से प्रयास कर रहे थे और अपने पाप धो रहे थे। मदन साहू जी थक हार गए। हमारे उत्साह वर्धन के पश्चात भी उन्होने अगला प्रयास नहीं किया। कहने लगे - भले ही पापी सुनना मंजूर है लेकिन अब निकलने का प्रयास नहीं करुंगा। अब चलिए आगे चलते हैं। बर्फ़ानी बाबा का आश्रम देखना है मुझे। नर्मदा मंदिर से दर्शन करके हम बर्फ़ानी बाबा के आश्रम की ओर चल पड़े। बाहर निकलने पर मदनसाहू के चप्पल गायब मिले। थोड़ा तलाश करने पर देखा कि चप्पलों वाले काऊंटर के रैक में रखे हैं जहाँ दो रुपए की दक्षिणा के बाद ही चप्पल वापस मिले। ………आगे पढें

सोमवार, 23 जुलाई 2012

अमरकंटक की ओर यायावर ………… ललित शर्मा

रेल के यात्री
मालकिन कई दिनों से मायके जाने की कह रही थी। वैसे इनका मायके जाना 30 अप्रेल के बाद तय है। अब मई के प्रथम सप्ताह में ही कोई तारीख तय होती है जाने की। इस समय 6 मई की तारीख तय हुई। 4 मई को नामदेव जी ने फ़ोन करके बताया कि अमरकंटक चलना है। वहाँ कोई धार्मिक कार्यक्रम है। हमने मालकिन से कहा कि उन्हे भाटापारा पहुंचाते हुए चले जाएगें। संवाद होते रहा, पर कैसे जाना है यह तय नहीं हुआ। आखिर सालिगराम जी के फ़ोन से तय हुआ कि दोपहर को एक नयी पैसेंजर चली है। उससे ही आना ठीक रहेगा। 6 मई को हम दोपहर 1 बजे की ट्रेन में इन्हे बैठाने रायपुर स्टेशन पहुंचे। तभी नामदेव जी ने बताया कि शाम को 5 बजे अमरकंटक चलेगें। मैने उन्हे घर से कपड़े और दैनिक उपयोग की सामग्री साथ लेने कहा और रायपुर में उनके आने की प्रतीक्षा करने लगा।

रेल्वे क्रासिंग
शाम 5 बजे नामदेव जी रायपुर पहुंच गए। साथ में उनके अग्रज और मदन लाल साहू भी थे। हम चलने के लिए कारारुढ हुए। बैग के विषय में पूछा तो उन्होने कहा कि अम्मा से मांग कर ले आए हैं। मैने पीछे रखा हुआ बैग देखा तो माथा खराब हो गया। वह बैग तो मेरे दैनिक उपयोग की सामग्री के साथ रहने वाला था। उसमें पेन-पैड छोड़ कर कुछ भी नहीं था। मैने जाने से मना कर दिया। नहीं जाऊंगा अब तीन-चार दिन बिना कपड़ों के एक ही जोड़ी में गुजारा नहीं हो पाएगा और इस तरह का वाकया पहली बार हुआ है मेरे साथ। मदन लाल साहू ने सफ़ाई दी कि अम्मा से बैग मांगने पर उन्होने यही दिया है। अरे कम से कम इतना तो स्वविवेक होना चाहिए कि 3-4 दिन के लिए जा रहे हैं तो बैग में कपड़े तो होने चाहिए। अब कपड़े लेने अभनपुर आते तो एक घंटे का फ़टका लग जाता। मैने जाने से मना कर दिया और कहा कि-जहां से मुझे लिया है वहीं छोड़ दो। आप लोग जाईए, मुझे नहीं जाना है। 

लल्लन प्रसाद नामदेव जी (साबरमती आश्रम गुजरात)
नामदेव जी कहने लगे कि कार तो आपके कहने से ही लाए हैं। नहीं तो हम ट्रेन से ही चले जाते। चलिए दैनिक उपयोग के कपड़े वहीं ले लेगें। नाराज काहे होते है भाई, छोटी-मोटी चूक हो जाती है। इनकी सलाह जंच गयी, हमने सोचा कि एक बार ऐसी भी यायावरी का तजुर्बा ले लिया, चला जाए बिना किसी तैयारी के। आज बुद्ध पूर्णिमा भी थी।  हमने एक बार फ़िर कार मोड़ कर रास्ते पर डाल ली। अब याद आया कि हमारी गोली दवाई भी नहीं है और मुझे उनका नाम भी याद नहीं है। डॉ सत्यजीत को फ़ोन लगाया तो उसने फ़ोन नहीं उठाया। हम क्लिनिक के पास के मेडिकल स्टोर्स में पहुंचे कि उसे तो याद होगा क्या दवाई मै लेकर जाता हूँ उसे भी नाम याद नहीं था। येल्लो लग गयी वाट्। तभी याद आया कि मेरे बैग में दवाईयों की पर्ची पड़ी है। बस काम बन गया। दवाईयों की पर्ची से दवाई खरीदी, अब जाना पुख्ता हो गया। हम अमरकंटक की ओर चल पड़े। आशा थी कि रात तक अमरकंटक पहुंच जाएगें।

पंकज सिंह और लेखक अयोध्या के होटल में 
सड़क मार्ग से रायपुर से बिलासपुर 110 किलीमीटर की दूरी पर है, एक्सप्रेस ट्रेन से 36 रुपए की दूरी पर। बिलासपुर से पेंड्रा रोड़ होते हुए अमरकंटक 120 किलीमीटर पर है। कुल मिला कर हमें 230 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी। रायपुर से 45 किलोमीटर सिमगा पहुंचने पर भूख लगने लगी। क्योंकि आज दोपहर में भी भोजन नहीं किया था। मारी बिस्किट से ही काम चलाना पड़ा। डॉ ने सख्त हिदायत दे रखी थी कि खाने पीने में कोताही नहीं बरतना अन्यथा भ्रमण छोड़ कर घर पर ही मौज करिए। क्योंकि 2 मई को शुगर का लेबल मीटर की सुईयाँ तोड़ कर HI बोल चुका था। हमने खाने-पीने में कोताही नहीं बरतने का वादा किया। तब कहीं जाकर उसने बाहर जाने की इजाजत दी। अब मामला कंट्रोल में था। सिमगा पहुंच कर हमने तरबूज लिए। बाकियों ने कुछ अड़बड़गम नाश्ता किया। हमने चलती कार में ही तरबूज उदरस्थ किए। बिलासपुर पहुंचने पर अंधेरा हो चुका था। पंकज के घर पर पहुंचने तक 8 बज चुके थे।

तुलसी बाबा
पंकज के यहाँ मैने एक गिलास लस्सी पी और बाकियों ने चाय। पंकज आज ही छत्तीसगढ पीएससी का एक्जाम देकर आया था और किसी एक्जाम की तैयारी में लगा था। हम थोडी देर के बाद बिलासपुर से अमरकंटक की ओर निकल लिए। अंधेरा गहराता जा रहा था साथ ही हमें अचानकमार का जंगल भी पार करना था। इस जंगल की सर्पिली सड़कों पर रात को गाड़ी संभाल कर चलानी पड़ती है। इस जंगल में शेर की उपस्थिति भी देखी जा चुकी है। अचानकमार जंगल के प्रारंभ होने पर फ़ारेस्ट के नाके में जानकारी देनी पड़ती है। ड्रायवर एवं गाड़ी मालिक सहित जाने का सबब भी बताना पड़ता है। फ़िर इस गेट पर एक टोकन दिया जाता है। जिसे अंतिम  निकासी गेट पर देना पड़ता है। तब कहीं जाकर इस जंगल की यात्रा सम्पूर्ण होती है। टोकन का सिस्टम अभी शुरु हुआ है, पहले नहीं था। हमने भी यही प्रक्रिया अपनाई। जंगल में जिस नाले के पास शेर देखा गया वहीं पर हम गाड़ी से बाहर निकले। हो सकता है हमारी किस्मत में भी देखना लिखा हो। 

बुद्ध पूर्णिमा का चाँद
चाँदनी रात थी, और खास बात यह थी कि आज के दिन ही बुद्ध पूर्णिमा का चाँद पृथ्वी के सबसे समीप था। इसलिए बड़ा दिखाई दे रहा था। याद आया, इस आशय की एक पोस्ट संगीता जी ने लगाई थी। मैने संगीता पुरी जी से रास्ते में चर्चा भी की थी। चाँद की रोशनी में नदी बड़ी सुंदर दिखाई दे रही थी। पानी कम ही था, पर जंगली जानवरों की निस्तारी के लिहाज से काफ़ी था। वरना गर्मी में पानी कहाँ मिलता है? सभी नदी-नाले सूख जाते हैं। शेर या अन्य कोई जानवर नहीं दिखने पर हम आगे बढते हैं। जंगल के भीतर के गावों में बिजली नहीं है। अभ्यारण्य घोषित होने के कारण यहाँ कुछ भी निर्माण नहीं किया जा सकता। सोलर लाईट गांव में चमक रही थी। पहले तो सड़क के किनारे कई लाईटें लगी थी। पर अब दो चार ही जल रही थी। पहले हमने जिस छोटे से होटल में चाय पी थी अब वह बंद मिला। यहाँ मौसम में ठंडक आ जाती  है। वैसे भी अमरकंटक का मौसम गर्मी के दिनों में खुशनुमा हो जाता है।

रामसजीवन चौरसिया
रास्ते में पता चला कि हमारे परम सखा आर एस चौरसिया (जिन्हे मैं स्वामी जी कहकर संबोधित करता हूँ) रींवा से सीधे ही अमरकंटक पहुंच रहे हैं। रात को उन्होने मृत्युंजय आश्रम में रुम बुक करवा रखा है। हम रात 12 बजे के लगभग अमरकंटक पहुंचे। मृत्युंजय आश्रम में दरवाजा खटखटाने पर भी किसी ने नहीं खोला। हमने स्वामी जी को फ़ोन करके जगाया। पर चौकीदार ने उनकी भी नहीं मानी। कहा कि 10 बजे के बाद आश्रम का गेट किसी के लिए नहीं खुलता। मरते क्या न करते। नामदेव जी सामने स्थित गुरु जी के आश्रम में चले गए। उन्होनें वहीं सोने का जुगाड़ लगाया । हाँ! एक खास बात देखने मिली कि अमरकंटक में नर्मदा जी के किनारे एक भी मच्छर नहीं था। रामघाट पर हमने गाड़ी लगाई और कार में ही सीट लम्बी करके सो गए। दो-चार घंटे की ही तो रात काटनी थी। सुबह आश्रम गेट खुल जाना था।  …… यात्रा जारी है…… आगे पढें

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

छत्तीसगढी प्रशासनिक शब्दकोश: एक टिप्पणी

किसी भी भाषा के प्रशासनिक शब्दकोश का निर्माण महत्वपूर्ण कार्य है। छत्तीसगढ विधानसभा ने प्रशासनिक शब्दकोश का निर्माण का सराहनीय कार्य किया है। इसका परीक्षण, परिमार्जन एवं प्रकाशन छत्तीसगढी राजभाषा आयोग ने किया। राज्य निर्माण के पश्चात छत्तीसगढी भाषा को 8 वीं अनुसूची में दर्ज करने की माँग निरंतर जारी है। हमारे प्रदेश का राज-काज छत्तीसगढी भाषा में होने से 8 वीं अनुसूची में छत्तीसगढी भाषा का स्थान पाने का दावा पुख्ता होगा। मेरी जानकारी में छत्तीसगढी राज-काज की भाषा कभी नहीं रही। इसलिए हिन्दी एवं अन्य भाषाओं की तरह राज-काज के शब्द उपलब्ध नहीं हैं। राज-काज के लिए मानक शब्दों का निर्धारण करना होगा। यह एक श्रम साध्य एवं कठिन कार्य है तथा प्रथम प्रयास में ही मानक शब्दकोश तैयार नहीं हो सकता। 

छत्तीसगढी बोली में हिन्दी एवं उर्दू के शब्द इस तरह से घुलमिल गए हैं कि हम उन्हे अलग नहीं मान सकते तथा नित्य व्यवहार में भी हैं। मुझे लगता है कि प्रशासनिक शब्दावली में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री परिषद, अधिकारी तंत्र, अपेंसनी/गैर पेंसनी, अधिसूचित क्षेत्र, अविज्ञापित, अभिलेखापाल, अभियंता/इंजीनियर, लायसेंस धारी, प्रत्यायन, प्रशासन अधिकारी इत्यादि अनेक शब्दों को ज्यों का त्यों या अपभ्रंश रुप में ग्रहण करना पड़ेगा। क्योंकि हम राज-काज की भाषा में इन्ही शब्दों को व्यवहार में लाते है। जिस तरह हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने के बाद भी राजस्व की कार्यवाही में उर्दू का प्रयोग वर्तमान में भी चल रहा है। तहसीलदार, नायब तहसीलदार, खसरा, रकबा, खतौनी, पटवारी, नकल, अर्जीनवीस, खजाना, नाजिर, खसरा पाँच साला, फ़ौती, मोहर्रिर, मददगार, हवालात, कोतवाली इत्यादि शब्द प्रचलन में है।
वर्तमान शब्दकोश में हिन्दी के शब्दों के स्थान पर प्रयोग करने के लिए छत्तीसगढी शब्द ढूंढने के परिश्रम करने की बजाए अधिकतर हिन्दी शब्दों को ही अपभ्रंश रुप में लिख दिया गया है। अमानक लिए अजारा शब्द उपयुक्त लगता है। अधिशेष के लिए उपराहा, अश्लील के लिए बेकलाम, अल्पवय के लिए लईकुसहा, आरोप लगाना के लिए बद्दी लगाना, उलटना के लिए लहुटाना, उत्कृष्ट के लिए सुग्घर, एक राशि/एक मुश्त के लिए चुकता, कमी के लिए खंगा, करार के लिए बदना, कामगार के लिए कमिया/कमइया, छिद्रान्वेषण के लिए खोदी इत्यादि शब्द प्रचलन में है। इन शब्दों का उपयोग शब्दकोश में किया जा सकता है। 
प्रशासनिक शब्दकोश को देखने से लगता है कि इसका निर्माण जल्दबाजी में हुआ है तथा इसमें संशोधन की महती आवश्यकता है। विमोचन के अवसर पर मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह, विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक और नेता प्रतिपक्ष रविन्द्र चौबे ने भी इस बात को स्वीकार किया। किसी भी शब्दकोश का निर्माण एक दिन में होने वाली प्रक्रिया नहीं है। अंग्रेजी के शब्दकोश में भी वर्तमान प्रचलन में आने वाले नवीन शब्दों को जोड़ा जाता है। प्रशासनिक शब्दकोश के निर्माण में छत्तीसगढी के साहित्यकारों का सहयोग लेना चाहिए। साथ ही गाँव में आपसी व्यवहार में प्रचलित बोली के शब्दों को जोड़ना चाहिए।  
छत्तीसगढी के संत कवि पवन दीवान, डॉ विनय पाठक, पं श्यामलाल चतुर्वेदी, डॉ परदेशी राम वर्मा, लक्ष्मण मस्तुरिहा, पं पालेश्वर शर्मा, पं कृष्णारंजन, नन्दकिशोर शुक्ल, नंदकिशोर तिवारी "लोकाक्षर वाले" हरिहर वैष्णव, डॉ बलदेव,  डॉ बिहारी लाल साहू, ब्लॉगर संजीव तिवारी, दशरथ लाल निषाद, पुनुराम साहू, जीवन यदु, पीसीलाल यदु, सुशील भोले, सुशील यदु आदि विद्वानो का सहयोग लिया जाना चाहिए, साथ ही प्रोफ़ेसर रमेशचंद्र मेहरोत्रा एवं डा श्रीमती कुंतल गोयल का सहयोग शब्दकोश के परिमार्जन में लिया जा सकता है। यह सूची बनाने का प्रयास नहीं, उदाहरणार्थ फ़ौरी याद आने वाले नाम हैं। डॉ सोमनाथ यादव, डॉ चंद्रकुमार चंद्राकर द्वारा तैयार छत्तीसगढी शब्दकोश से सहायता मिल सकती है। लगभग सौ वर्ष पहले हीरालाल काव्योपाध्याय ने छत्तीसगढी भाषा का व्याकरण तैयार किया था यह ग्रंथ भी शब्दकोश निर्माण में अहम भूमिका निभा सकता है। इसके साथ ही प्रदेश में स्थित विश्वविद्यालयों के भाषा विज्ञान विभाग के प्राध्यापकों का सहयोग भी शब्दकोश निर्माण में लेना चाहिए चाहिए। 
नि:संदेह शब्दकोश का निर्माण बड़ा कार्य है। वर्तमान में छत्तीसगढी प्रशासनिक शब्दकोश का पहला खंड ही प्रकाशित हुआ है। अभी दो खंड प्रकाशित होने बाकी है। भले ही अगले दो खंडों के प्रकाशन में समय लगे, पर दुरुस्त होने चाहिए। शब्दकोश के निर्माण में ब्लॉगर्स से ऑनलाईन सहयोग लिया जाना चाहिए तथा फ़ेसबुक और ब्लॉग पर शब्दों को लिख कर उन पर प्रतिक्रिया ली जानी चाहिए। प्रकाशन के पूर्व प्रशासनिक शब्दकोश का मसौदा इंटरनेट पर जनसहयोग एवं संशोधन के लिए खुला उपलब्ध रहे तो सच्चे अर्थों में इससे जनभाषा सम्मान में वृद्धि होगी। राज्य मे शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद छत्तीसगढ ने स्थानीय बोलियों पर पाठ्य सामग्री तैयार करने का कार्य किया है। एक समिति बनाकर राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद माध्यम से वर्तमान शब्दकोश का संशोधन किया जा सकता है। प्रशासनिक शब्दकोश में त्रुटियां होने के बाद भी निर्माणकर्ता साधूवाद के पात्र हैं। उनके श्रम को नकारा नहीं जा सकता। क्योंकि उन्होने जो एक धरातल तैयार किया है, इस पर सभी विद्वानों के सलाह मशविरे से एक उत्कृष्ट शब्दकोश रुपी भवन खड़ा होगा । 

बुधवार, 18 जुलाई 2012

जादू-टोने रहस्यमय संसार : छत्तीसगढ़

जादू-टोना-टोनही शब्द ही भय उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होता है। बचपन से सुनते आए हैं कि तंत्र-मंत्र से प्राप्त शक्ति द्वारा किसी का भी अहित किया जा सकता है। अहित करने वाला टोनहा-टोनही कहलाता है। इन तंत्र मंत्र की शक्ति के दुष्प्रभाव से बचाने या उसे निष्प्रभावी करने कार्य बैगा या तांत्रिक के जिम्मे होता है। गॉड पार्टिकल ढूंढने का दावा करने वाला समाज भी इन गैबी ताकतों के होने से इनकार नहीं करता। तंत्र मंत्र समाज के मानस में इतने गहरे बैठ चुका है कि अंधेरा होते ही अज्ञात भय के कारण रस्सी भी सांप दिखाई देने लगती है। ग्रामीण अंचल में आज भी किसी को बुखार हो जाए तो वह डॉक्टर के पास जाने की बजाए सबसे पहले बैगा-गुनिया या तांत्रिक से ही सम्पर्क करता है और उसी के ईलाज पर विश्वास करता है। फ़िर चाहे प्राण ही क्यों न निकल जाएं, अंतिम समय में उसके परिजन ही उसे डॉक्टर के पास ईलाज के लिए पहुंचाते हैं या सीधे श्मशान जाता है।

बचपन में सुनी गई टोनही जनित घटनाएं और कहानियाँ कोमल मन मस्तिष्क पर स्थाई असर डालती हैं, जिससे व्यक्ति जीवन भर नहीं उबर पाता। लोग कहते हैं कि अनपढ ही गैबी ताकतों पर विश्वास करते हैं, लेकिन मैने पढे लिखे उच्चपदों पर बैठे व्यक्तियों को भी तंत्र-मंत्र-तांत्रिकों, बैगा गुनियों के चंगुल फ़ंसे देखा है। तंत्र मंत्र का असर होता है कि नहीं? टोनही-टोनहा होता है कि नहीं? इस सत्यता को जानने का मैने बहुत प्रयास किया। लेकिन जानकार लोग इसे गुप्त ही रखना चाहते हैं। गोपनीयता की शपथ या गुरु बनाए बिना बताना नहीं चाहते। अगर किसी प्रक्रिया से आप जान भी गए या सीख भी गए तो आपको भी इसे गुप्त रखने की शर्तों का पालन करना होगा, अन्यथा मंत्रों की शक्तियाँ निष्प्रभावी होने का भय बताया जाता है। दीक्षा के वक्त शपथ दिलाते हुए गुरु यह बात अपने शिष्य के कान में अवश्य डालते हैं। 

गाँव में बिजली नहीं थी, घर के सामने तालाब में कोई रोशनी जलती थी तो बुजुर्ग कहते कि "वो दे, रक्सा बरत हे। (वह देख रक्सा [कुंवारा भूत] जल रहा है) हम भी मान लेते थे और रात के वक्त बोईर तरिया की तरफ़ नहीं जाते थे। तालाब के पार पर बहुत सारे बेर के वृक्ष थे जिसके कारण उसे बोईर तरिया कहते हैं। बेर के वृक्ष में परेतिन का वास बताया जाता है और ईमली में प्रेत का। रामगोपाल बैगाई करता है और मैं उसके साथ इन विषयों पर चर्चा करता था। वह टोनहीं के एक से एक किस्से बताता और किस्सा सुनते और चर्चा करते सुकवा (भोर के समय दिखने वाला चमकीला तारा) उग जाता था। तब कहीं जाकर हमारी बातें खत्म होती थी। नागपंचमी के दिन वह दक्षिणा लेकर अपने गुरु से भेंट करने अवश्य जाता था। तंत्र मंत्र सीखने के लिए गुरु बनाने एवं शिष्यों द्वारा अपने गुरु का मानदान करने एवं गुरु द्वारा पाठ-पीढा (उत्तराधिकार) सौंपने का ग्रामीण अंचल में यही दिन माना जाता है।

कहते हैं टोनही का मंत्र ढाई अक्षर का होता है। टोनही जब सभी मंत्र सिद्ध कर लेती है वह सोधे हो जाती है अर्थात टोनही से बड़ा पद प्राप्त कर लेती है। टोनही नकारात्मक शक्तियों की स्वामिनी होती है, मान्यता है कि वह जो चाहे वह कर सकती है। जन मानस में प्रचलित है कि टोनही अपनी शक्तियों से किसी को मार सकती है, अपंग कर सकती है, बीमार कर सकती है। शरीर को कमजोर कर सकती है, घर से वस्तुएं गायब कर सकती है, गाय भैंस से लेकर लईकोरी स्त्री के स्तनों का दूध सुखा सकती है, पागल कर सकती है, फ़सल को उजाड़ सकती है, शारीरिक नुकसान कर सकती है। इसलिए आदमी अपने अनिष्ट की आशंका से भयभीत रहता है और हमेशा ही इससे बचना चाहता है। रामगोपाल बताता है कि तंत्र मंत्र सीखने के लिए हरेली अमावस एवं दीवाली की रात महत्वपूर्ण होती हैं। 

अमावस की रात जादू-टोना सीखने वाले महिलाएं मध्य रात्रि को गाँव या नगर के बाहर सुनसान स्थान मरघट में एकत्र होती हैं, मुख्य टोनही के मार्गदर्शन में नग्न होकर शौच करती हैं, अपने-अपने मल से दीपक बनाती हैं। उसके बाद सोधे (मुख्य टोनहीं) उन्हे एक जड़ी देती है जिसे मुंह में रखने से लार बनती हैं, फ़िर इस लार को दीपक में डालते हैं जिससे आग निकलती है, दीपक से आग निरंतर निकलते रहती है और टोनही सीखने वाली महिला बाल खुले करके अपने सिर को उपर नीचे झुकाती है (सिर उपर नीचे झुकाने को झूपना कहते हैं)। बलि के रुप में नींबू काटा जाता है, सोधे यहीं पर सीखने वालियों को मंत्र याद करवाती है तथा उन्हे ईष्ट देव को निर्धारित जीवों की बलि देने का संकल्प दिलाती है। जिन साधिकाओं को मंत्र याद हो जाता है उन्हे गुरुपूर्णिमा को "चलानी पाठ" दिया जाता है। उन्हे शिक्षा दी जाती है कि किस मंत्र का प्रयोग कैसे करना है।   

सवाल पर गंभीर मुद्रा
तारक बैगा से भी टोनही के विषय में चर्चा हुई, वे कहते हैं कि सोधे होने के बाद टोनही के पास ऐसी शक्तियाँ आ जाती हैं जिससे वह इच्छित प्राप्ति कर सकती है। इन कार्यों के लिए उसके पास गण होते हैं जिन्हे बीर कहते हैं। इन बीरों को मटिया और मसान कहा जाता है। चटिया बीर को टोनही मारण कर्म के लिए उपयोग में लाती है। चटपट काम करके लौटने के कारण इसे चटिया कहा जाता है। जब टोनही इसे भेजती है तो यह चिन्हित को मार कर ही वापस आता है। इस पर किसी बैगा, गुनिया, तांत्रिक के मंत्रों का कोई असर नहीं होता। टोनही का मटिया बीर चिन्हित को शारीरिक और आर्थिक नुकसान पहुंचाता है। गांवों में मान्यता है कि यह जहाँ भी जाता है वहां की वस्तुएं स्वत: ही गायब होने लगती हैं। घर में खाने-रांधने का सामान भी नहीं छोड़ता। पूरा घर ही खाली कर देता है। चटिया-मटिया के रहने का स्थान जानवरों का कोठा बताया जाता है तथा ये कद में छोटे होते हैं, बच्चों के साथ खेलते हैं सिर्फ़ उन्हे ही दिखाई देते हैं अन्य किसी को दिखाई नहीं देते। इनके द्वारा गायब की हुई वस्तुओं का पता नहीं चलता।

मेरे सवाल पर मुस्काते हुए बैगा
कहते हैं कि टोनही आत्माओं से भी बात करती है। उनका आह्वान कर उनसे जानकारी भी ले सकती है। टोनही अपनी शक्ति बढाने के लिए मसान भी साधती है, मसान दो तरह के होते हैं, तेलिया मसान और मरी मसान। टोनही मसान की सवारी करती है। किसी इंसान पर सवार होने के बाद बैगा की झाड़-फ़ूंक के दौरान मसान ही प्रभावित के मुख से बैगा को जवाब देता है। टोनही अपनी नजर से किसी के जीवन को प्रभावित कर सकती है। टोनही का बीर मटिया काले रंग, उल्टे पैर का बौना भूत होता है, यह अपने साथ सदा कांवड़ और टोकरी रखता है। मटिया अपनी कांवड़ से दुनिया भर की चीजें ढो सकता है। चटिया-मटिया जोड़े में रहते हैं। जिसके घर में मटिया रहता है उसे मालामाल कर देता है, अगर उस घर में इसका सम्मान नहीं होता तो उसका सर्वनाश भी कर देता है। मैने एक सम्पन्न व्यक्ति के घर में मटिया का असर देखा था। वे अपने घर में खाने-पीने का सामान, रुपया पैसा, धन धान्य नहीं रखते थे। खाना पकाने का सामान रोज खरीदते थे। अधिक सामान रखने पर मटिया उसे गायब कर देता था। 

बैगा कहते हैं कि मसान की आँखें अंधेरे में लाल बल्ब जैसे चमकती हैं यह कुत्ते के रुप में मसान निर्जन इलाके में या घर पर भी रहता है। एक बार रक्सा ने इनकी भैंसा गाड़ी को पलटा दिया था। यह रक्सा आग के गोले की तरह दिखाई देता है और यह गोला उपर उठते दिखाई देता है जिसमें विस्फ़ोट होता है। कहते हैं कि जो कुंवारा मरता है वह रक्सा बनता है। अकाल मृत्यु वाले लोग परेत-परेतिन बनते हैं तथा अपनी आयु पूर्ण होने तक भटकते रहते हैं, टोनही इन्हे साध लेती है। जनश्रुति है कि परेत बेर के पेड़ में रहता है। जिस स्त्री की प्रसव के दौरान मृत्यु हो जाती है वह परेतिन बनती है। इसलिए परेतिन अपने बच्चे के साथ ही दिखाई देती है। कहते हैं कि हाट-बाजार में परेत-परेतिन अपना सामान खरीदने आते हैं। लेकिन लोग उन्हे पहचान नहीं पाते। कहते हैं कि परेतिन किसी भी रुप में आकर संबंध बना लेती है, बैगा कहते हैं रास्ते में कहीं परेतिन नजर आ जाए तो डरकर अपनी राह नहीं छोड़नी चाहिए, प्ररेतिन अपना भयानक रुप दिखा कर रास्ते से हटाने की कोशिश करती है, राहगीर के रास्ता छोड़ते ही वह परेतिन का शिकार हो जाता है। कहते हैं कि परेतिन के बाल पकड़ लिए जाएं और उसकी साड़ी बांस के खोल में भर कर रखने से जब तक उसे साड़ी नहीं मिलती वह मानव रुप में ही रहती है।

तारक बैगा
मिरचुक झालर के बल्ब जैसा जलता बुझता है, टोनही तीया (तीज नहावन) के दिन परेत जगाती है। जागने पर परेत टोनही का गुलाम हो जाता है और उसी के लिए काम करता है। टोनही के लिए हरेली अमावस एवं दीवाली की अमावस की रात महत्वपूर्ण होती है। इन दोनों रातों की साधना में इन्हे सम्मिलित होना अत्यावश्यक है। बैगा कहते हैं कि तीन साल तक लगातार अमावस साधना में न आने पर वह सभी मंत्र स्वत; ही भूल जाती है। शनिचरहा से भी लोग भय खाते हैं, जिस व्यक्ति का जन्म शनिवार को होता है उसकी नजर बिना तंत्र मंत्र सीखे ही लग जाती है। पुरुष टोनहा हो्ता है, टोनही एवं टोनहा मंत्र सीखने की प्रक्रिया एक जैसी ही है। रामगोपाल कहता था कि अगर कहीं टोनही-टोनहा या भूत परेत नजर आए तो पेशाब से गोल बना कर उसमें बैठ जाएं और बाहर न निकलें। हानि पहुचाने वाली शक्तियां उस गोले के भीतर प्रवेश नहीं करती। इससे बचाव हो जाता है। कहते हैं जिस घर की औरत टोनही बन जाती है उसके घर वालों को ही पता नहीं चलता कि वह टोनही या सोधे हो गई है। आधी रात को अपने घर वालों को जड़ी सुंघाकर बेहोश कर देती है और अपना मंत्र सिद्ध करने के लिए चली जाती है।

डिस्क्लैमर: पोस्ट लिखने उद्देश्य टोना-टोटका एवं टोनही के रहस्यमयी गुप्त दुनिया से परिचय कराना है। समाज में इस विषय को लेकर बहुत सारी बातें चलती रहती हैं। लोग मनोरंजन की दृष्टि से भी भूत-प्रेत की कहानियाँ गढते हैं और चौक-चौराहों पर बैठ कर समय व्यतीत करने की दृष्टि से चर्चा करते हैं। जब सदियों से ये मान्यताएं चली आ रही हैं तो इसके पीछे अवश्य ही कोई सच भी होगा। जिज्ञासु होने के बाद भी मुझे अभी तक टोनही इत्यादि का साक्षात्कार नहीं हुआ है। लेकिन कुछ घटनाएं ऐसे घट चुकी हैं जिन्हे नकारने या स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हूँ। उन घटनाओं को सिर्फ़ अपने मन का भ्रम या संयोग मानकर  दरकिनार करते आया हूं। 

सोमवार, 16 जुलाई 2012

हरेली अमावस: टोनही मंत्र शोधने का दिन

धरती हरियाली से मस्त
सावन का महीना प्रारंभ होते ही चारों तरफ़ हरियाली छा जाती है। नदी-नाले प्रवाहमान हो जाते हैं तो मेंढकों के टर्राने के लिए डबरा-खोचका भर जाते हैं। जहाँ तक नजर जाए वहाँ तक हरियाली रहती है। आँखों को सुकून मिलता है तो मन-तन भी हरिया जाता है। यही समय होता है श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में अमावश्या को "हरेली तिहार" मनाने का। नाम से ही प्रतीत होता है कि इस त्यौहार को मनाने का तात्पर्य भीषण गर्मी से उपजी तपन के बाद वर्षा होने से हरियाई हुई धरती के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना ही होता है, तभी इसे हरेली नाम दिया गया। मूलत: हरेली कृषकों का त्यौहार है, यही समय धान की बियासी का भी होता है। किसान अपने हल बैलो के साथ भरपूर श्रम कृषि कार्य के लिए करते हैं, तब कहीं जाकर वर्षारानी की मेहरबानी से जीवनोपार्जन के लिए अनाज प्राप्त होता है। उत्सवधर्मी मानव आदि काल से ही हर्षित होने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देता और खुशी प्रकट करने, रोजमर्रा से इतर पकवान खाने की योजना बना ही लेता है, यह अवसर हमारे त्यौहार प्रदान करते हैं।

चारागन में गायें
हरेली के दिन बिहान होते ही पहटिया (चरवाहा) गाय-बैल को कोठा से निकाल कर चारागन (गौठान) में पहुंचा देता है। गाय-बैल के मालिक अपने मवेशियों के लिए गेंहु के आटे को गुंथ कर लोंदी बनाते हैं। अंडा (अरंड) या खम्हार के पत्ते में खड़े नमक की पोटली के साथ थोड़ा सा चावल-दाल लेकर चारागन में आते हैं। जहाँ आटे की लोंदी एवं नमक की पोटली को गाय-बैल को खिलाते हैं तथा चावल-दाल का "सीधा" पहटिया (चरवाहा) को देते हैं। इसके बदले में राउत (चरवाहा) दसमूल कंद एवं बन गोंदली (जंगली प्याज) देता है। जिसे किसान अपने-अपने घर में ले जाकर सभी परिजनों को त्यौहार के प्रसाद के रुप में बांट कर खाते हैं। इसके बाद राऊत और बैगा नीम की डाली सभी के घर के दरवाजे पर टांगते हैं, भेलवा की पत्तियाँ भी भरपूर फ़सल होने की प्रार्थना स्वरुप लगाई जाती हैं। जिसके बदले में जिससे जो बन पड़ता है, दान-दक्षिणा करता है। इस तरह हरेली तिहार के दिन ग्रामीण अंचल में दिन की शुरुवात होती है।     

बन गोंदली - द्शमूल कांदा - फ़ोटो डॉ पंकज अवधिया
ग्रामीण अंचल में बैगाओं को जड़ी-बूटियों की पहचान होती है। परम्परा से पीढी-दर-पीढी मौसम के अनुसार पथ्य-कुपथ्य की जानकारी प्राप्त होते रहती है। कौन सी ॠतु में क्या खाया जाए और क्या न खाया जाए। कौन सी जड़ी-बूटी, कंद मूल बरसात से मौसम में खाई जाए जिससे पशुओं एवं मनुष्यों का बचाव वर्षा जनित बीमारियों से हो। सर्व उपलब्ध नीम जैसा गुणकारी विषाणु रोधी कोई दूसरा प्रतिजैविक नही है। इसका उपयोग सहस्त्राब्दियों से उपचार में होता है। वर्षा काल में नीम का उपयोग वर्षा जनित रोगों से बचाता है। दसमूल (शतावर) एवं  बन गोंदली (जंगली प्याज) का सेवन मनुष्यों को वर्ष भर बीमारियों से लड़ने की शक्ति देता है। साथ ही अंडापान (अरंड पत्ता) एवं खम्हार पान (खम्हार पत्ता) पशुओं का भी रोगों से वर्ष भर बचाव करता है। उनमें विषाणुओं से लड़ने की शक्ति बढाता है। पहली बरसात में जब चरोटा के पौधे धरती से बाहर आते हैं तब उसकी कोमल पत्तियों की भाजी का सेवन किया जाता है।  

गेड़ी का आनंद - फ़ोटो रुपेश यादव
हम बचपन से ही गाँव में रहे। हरेली तिहार की प्रतीक्षा बेसब्री से करते थे क्योंकि इस दिन चीला खाने के साथ "गेड़ी" चढने का भी भरपूर मजा लेते थे। जो ऊंची गेड़ी में चढता में उसे हम अच्छा मानते थे। हमारे लिए गेड़ी बुधराम कका तैयार करते थे। ध्यान यह रखा जाता था कि कहीं अधिक ऊंची न हो और गिरने के बाद चोट न लगे। गेड़ी के बांस के पायदान की धार से पैर का तलुवा कटने का भी डर रहता था। तब से ध्यान से ही गेड़ी चढते थे। गेड़ी पर चढकर अपना बैलेंस बनाए रखते हुए चलना भी किसी सर्कस के करतब से कम नहीं है। इसके लिए अपने को साधना पड़ता है, तभी कहीं जाकर गेड़ी चलाने का आनंद मिलता है। अबरा-डबरा को तो ऐसे ही कूदते-फ़ांदते पार कर लेते थे। बदलते समय के साथ अब गांव में भी गेड़ी का चलन कम हो गया। परन्तु पूजा के नेग के लिए गेड़ी अभी भी बनाई जाती है। छोटे बच्चे मैदान में गेड़ी चलाते हुए दिख जाते हैं।

फ़ुरसत में किसान
इस दिन किसान अपने हल, बैल और किसानी के औजारों को धो मांज कर एक जगह इकट्ठा करते हैं। फ़िर होम-धूप देकर पूजा करके चावल का चीला चढा कर जोड़ा नारियल फ़ोड़ा जाता है जिसे प्रसाद के रुप में सबको बांटा जाता है। नारियल की खुरहेरी (गिरी) की बच्चे लोग बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं। टमाचर, लहसून, धनिया की चटनी के साथ गरम-गरम चीला रोटी के कहने ही क्या हैं, आनंद आ जाता है। पथ्य और कुपथ्य के हिसाब से हमारे पूर्वज त्यौहारों के लिए भोजन निर्धारित करते थे। सभी त्यौहारों में अलग-अलग तरह का खाना बनाने की परम्परा है। भोजनादि से निवृत होकर खेलकूद शुरु हो जाता है। इन ग्रामीण खेलों की प्रतीक्षा वर्ष भर होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि हरेली परम्परा में रचा बसा पूर्णत: किसानों का त्यौहार है।

दरवाजे पर नीम की डाली-फ़ोटो डॉ पंकज अवधिया
खेल कूद के लिए ग्रामीण मैदान में एकत्रित होते हैं और खेल कूद प्रारंभ होते हैं जिनमें नगद ईनाम की व्यवस्था ग्राम प्रमुखों द्वारा की जाती है। कबड्डी, गेड़ी दौड़, टिटंगी दौड़, आंख पर पट्टी बांध कर नारियल फ़ोड़ना इत्यादि खेल होते हैं। गाँव की बहू-बेटियां भी नए कपड़े पहन कर खेल देखने मैदान में आती हैं, तथा उनके भी खेल होते हैं, खेलों के साथ सभी का एक जगह मिलना होता है, लोग एक स्थान पर बैठकर सुख-दु:ख की भी बतिया लेते हैं। खेल-कूद की प्रथा ग्रामीण अंचल में अभी तक जारी है। खेती के कार्य के बाद मनोरंजन भी बहुत आवश्यक है। किसानों ने हरेली तिहार के रुप में परम्परा से चली आ रही अपनी सामुहिक मनोरंजन की प्रथा को वर्तमान में भी जीवित रखा है।

पहाटिया (चरवाहा)-फ़ोटो डॉ पंकज अवधिया
हरेली तिहार के दिन का समय तो देवताओं के पूजा पाठ और खेल कूद में व्यतीत हो जाता है फ़िर संध्या वेला के साथ गाँव में मौजूद आसुरी शक्तियां जागृत हो जाती हैं। अमावश की काली रात टोनहियों की सिद्धी के लिए तय मानी जाती है। यह सदियों से चली आ रही मान्यता है कि हरेली अमावश को टोनही अपना मंत्र सिद्ध करती हैं, सावन माह मंत्र सिद्ध करने के लिए आसूरी शक्तियों के लिए सबसे उपयुक्त माना जाता है। शहरों के आस-पास के गाँवों में अब टोनही का प्रभाव कम दिखाई देता है लेकिन ग्रामीण अंचल में अब भी टोनही का भय कायम है। हरियाली की रात को कोई भी घर से बाहर नहीं निकलता, यह रात सिर्फ़ बैगा और टोनहियों के लिए ही होती है। टोनही  को लेकर ग्रामीणों के मानस में कई तरह की मान्यताएं एवं किंवदंतियां स्थाई रुप से पैठ गयी हैं। विद्युतिकरण के बाद भूत-प्रेत और टोनही दिखाई देने की चर्चाएं कम ही सुनाई देती हैं। टोनही के अज्ञात भय से मुक्ति पाने में अभी भी समय लगेगा।    

शनिवार, 14 जुलाई 2012

सावन में सवनाही तिहार


सवनाही देवी का स्थान गाँव के सियार में
रथयात्रा के बाद सावन माह से छत्तीसगढ अंचल में त्यौहारों की झड़ी लग जाती है। छत्तीसगढ के लगभग सभी त्यौहार कृषि कर्म से जुड़े हुए हैं। सावन के महीने में वर्तमान में कांवरियों का जोर रहता है।प्रत्येक सोमवार को कांवरिये श्रद्धानुसार नदियों का जल लाकर समीस्थ शिवमंदिरों में अर्पित करने हैं। जिससे सावन भर पूजा-पाठ की चहल पहल रहती है। सावन के महीनें टोना-टोटका एवं जादू मंतर का भी जोर रहता है। नए जादू-टोना सीखने वाले इस महीने में गुरु बनाकर शिक्षा ग्रहण करते हैं तो गुरु अपने सिद्ध मंत्रों का प्रयोग कर उसको जाँचते भी हैं। मान्यता है भोले बाबा को सुर-असुर दोनो प्रिय हैं। इसलिए सावन के महीने में दोनो शक्तियाँ प्रबल रहती हैं और साधना करने पर शीघ्र फ़ल मिलता है। ग्रामीण अंचल के लोग टोना-टोटका को मानते हैं और इसके दुष्प्रभाव से डरे रहते हैं। जादू टोना से गाँव के जान-माल की रक्षा के लिए गाँव के देवता की पूजा की जाती है। उसे होम-धूप देकर प्रसन्न किया जाता है और उससे विनती की जाती है कि गाँव में किसी तरह रोग-शोक, बीमारी और विघ्न बाधा न आए।

नीम की लकड़ी की गाड़ी
सवनाही तिहार परम्परा पर गाँव के इतवारी बैगा  ने  बताया कि गाँव के देवी देवताओं की पूजा के लिए प्रत्येक गाँव में एक बैगा नियुक्त किया जाता है। बैगा की नियुक्ति गुरु-शिष्य परम्परा की गद्दी के हिसाब से तय होती है। जिस तरह किसी अखाड़े का महंत अपने किसी शिष्य को योग्य मानकर अपना उत्तराधिकारी बनाता है ठीक उसी तरह वृद्ध बैगा भी अपने किसी योग्य शिष्य को ही पाठ-पीढा देता है।(उत्तराधिकारी बनाता है) जिसे ग्रामवासी मान्यता देते हैं। त्यौहारों एवं झाड़-फ़ूंक करने पर बैगा को उचित मान-दान दिया जाता है। जिससे उसका निर्वहन होता है। बैगा के हाथों में ही सभी ग्रामीण त्यौहार मनाने की जिम्मेदारी होती है। इसी तरह आषाढ के अंतिम सप्ताह या सावन के प्रथम सप्ताह में आने वाले प्रथम रविवार को "सवनाही तिहार" मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे उद्देश्य है कि जादू-टोना हारी-बीमारी से गाँव के जन, गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़ एवं अन्य पालतू जीव जंतुओं की हानि न हो। गाँव में चेचक, हैजा जैसी बीमारियां प्रवेश न करें। सभी सानंद रहें।

सवनाही पुतरी का बंधन
सवनाही तिहार मनाने के लिए पहला रविवार ही निश्चित किया जाता है। गाँव का कोटवार इसकी सूचना हाँका करके समस्त ग्रामवासियों को देता है। इस दिन गाँव में सभी कार्य बंद रहते हैं। गाँव का निवासी यदि कहीं गाँव से बाहर भी काम करने जाता है तो उस दिन उसे भी छुट्टी करनी पड़ती है। खेतों में कोई हल नहीं जोतता, कोई बैलागाड़ी नहीं फ़ांदता। सभी के लिए यह अनिवार्य छुट्टी का दिन होता है। अगर कोई इस आदेश का उल्लंघन करता है तो उसके दंड की व्यवस्था भी है। दंड खिलाने-पिलाने से लेकर आर्थिक भी हो सकता है। इतवारी के दिन सिर्फ़ गाँव के चौकीदार को काम करने की छूट रहती है। सवनाही तिहार मनाने के लिए गाँव में बरार (चंदा) किया जाता है। जिससे पूजा पाठ का सामान खरीदा जाता है और बैगा की दान-दक्षिणा दी जाती है। सवनाही पूजा करने बाद ही गाँव में इतवारी छुट्टी मनाने की परम्परा है। जो 5-7 इतवार तक मानी जाती है। अधिकतर गांवों में पाँच इतवार ही छुट्टी की जाती है।

सवनाही पूजा
शनिवार की रात में बैगा के साथ प्रमुख किसान गाँव के समस्त देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। इस रात बैगा के साथ जाने वाले समस्त लोग रात भर घर नहीं जाते और सोते भी नहीं। गाँव के किसी सार्वजनिक स्थान (मंदिर, देवाला, स्कूल) में रात काट देते हैं। फ़िर रविवार को पहाती (सुबह) होते ही चरवाहे गाँव के सभी मवेशियों को को चारागन में इकट्ठा कर देते हैं, उसके बाद मवेशियों के मालिक अपने घर से पलाश के पत्ते में कोड़हा (धान का चिकना भूसा) से बनी हुई अंगाकर रोटी के साथ कुछ द्रव्य लाकर राऊत और बैगा को देते हैं। जिसे लेकर बैगा और राऊत मवेशियों के साथ गाँव की पूर्व दिशा में सरहद (सियार) पर जाते हैं। वहाँ स्थित सवनाही देवी की पूजा की जाती है। पूजा के लिए एक जोड़ा नारियल, सिंदूर, नींबू, श्रृंगार का सामान, काले, सफ़ेद, लाल झंडे, टुकनी, सुपली, चूड़ी, रिबन, फ़ीता के साथ काली मुर्गी एवं कहीं-कहीं दारु का इस्तेमाल भी किया जाता है। पूजा के लिए नीम की लकड़ी की छोटी सी गाड़ी बनाई जाती है। जिसे लाल,काले और सफ़ेद ध्वजाओं से सजाया जाता है।

गाँव के सियार में सवनाही 
बैगा अपने साथ लाया हुआ पूजा का सामान देवी को अर्पित करता है और समस्त ग्राम देवी-देवताओं का स्मरण कर गाँव की कुशलता की प्रार्थना करता है। इसके बाद देवी की सात बार परिक्रमा करके कोड़हा की रोटी का देवी को भोग लगाकर सियार के उस पार रख देता है। इसके पश्चात काली मुर्गी के सिर पर सिंदूर लगा कर उसे सियार के उस पार भुत-प्रेत-रक्सा की भेंट के लिए छोड़ दिया जाता है। फ़िर बैगा वहां से चल पड़ता है, इस समय उपस्थित लोगों के लिए पीछे मुड़ कर देखना वर्जित होता है। ऐसी मान्यता है कि पीछे मुड़ कर देखने से सवनाही देवी नाराज होकर सभी भूत-प्रेतों को सियार (सरहद) पर ही छोड़ कर चली जाती है। सभी जानवरों को वापस गाँव में लाया जाता है। नारियल फ़ोड़ कर प्रसाद बांटा जाता है, यह प्रसाद सिर्फ़ उन्हे ही दिया जाता है जो बैगा के साथ पूजा-पाठ में सम्मिलित रहते हैं। भोग लगाने के बाद बची हुई कोड़हा की रोटी को मवेशियों को खिलाया जाता है।

सवनाही पुतरी
सवनाही तिहार के दिन लोग घरों में गाय के गोबर से हाथ की 4 अंगुलियों द्वारा घर के दरवाजे पर आदिम आकृति बनाई जाती है। जो कहीं मनुष्याकृति होती है तो कहीं शेर इत्यादि बनाने की परम्परा है। इन आकृतियों से जोड़ कर चार अंगु्लियों की गोबर की रेखा घर के चारों तरफ़ बनाई जाती है। जैसे गोबर की रेखा से घर को चारों तरफ़ से बांध दिया गया हो। इस बंधने का उद्देश्य यही है कि कोई भूत प्रेत या गैबी शक्ति घर के निवासियों को परेशान न करे। अगर गैबी ताकतें आती भी हैं तो बंधन होने से घर में प्रवेश नहीं कर पाएगीं जिससे परिवार हानि से बचा रहेगा। यह टोटका गाँव के कच्चे पक्के घरों में दिखाई देता है। घरों के बाहर गोबर की लकीरें खींची हुई दिखाई देती है। वर्तमान युग में भले ही यह कार्य आदिम लगता हो, लेकिन गाँव में अभी तक प्रचलित है और ग्रामवासियों को संतुष्टि देता है। जिससे वे साल भर अपना कृषि कार्य निर्बाध होकर करते हैं। लगभग छत्तीसगढ के सभी जिलों में यह त्यौहार मनाया  जाता है।

(सुबह की सैर के दौरान गाँव के सियार (सीमा) पर सवनाही पूजा की हुई दिखाई दी। सोचा कि एक पोस्ट ही लिख दी जाए सवनाही पर, जिससे छत्तीसगढ की संस्कृति से पाठक परिचित होगें)