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बुधवार, 22 अगस्त 2012

प्राचीन राजधानी रतनपुर ----------- ललित शर्मा

बिलासपुर से चलने की तैयारी
29 जुलाई 2012 की सुबह सप्ताहांत का रविवार लेकर आई, आसमान में बादल छाए हुए थे रिमझिम बरखा के आसार बने हुए थे। लाल चाय से सुबह हुई, स्नानाबाद से आकर बाबू साहब को फ़ोन लगाए तो पता चला कि उनकी तबियत नासाज हो गयी है और ओबामा के गोले ओसामा पर बरस रहे हैं। पहला झटका यहीं लग गया, हमने सारे गुदड़े बाबू साहब पर ही लाद रखे थे। नोकिया का चार्जर भूल आया, कैमरे वाले चलभाष की बैटरी अंतिम सांसे ले रही थी। कोई हॉट चार्जर मिल जाता तो चलभाष जल्दी चार्ज हो जाता। रास्ते के लिए जरुरी सामान समेट कर हम आगे के सफ़र के लिए चल पड़े। नाश्ता करने के लिए देवकीनंदन चौक की चौपाटी पर पहुंचे, वहां फ़टाफ़ट पोहा-जलेबी उदरस्थ की और अरविंद झा को फ़ोनियाए तो पता चला कि वे अभी भी निद्रासन में हैं। मैने उन्हे 15 मिनट में तैयार होने कहा और उनके घर की ओर चल पड़े।


पंकज सिंग
हमारे पहुंचने पर अरविंद झा किसी से फ़ोन पर चर्चा कर रहे थे। असनान-ध्यान का तो कहीं पता ही नहीं था। थोड़ी हुड़की लगाने के बाद भी 20 मिनट और जाया हुए और ब्लॉग कोतवाल तैयार हो गए चलने के लिए। हमने गाड़ी रतनपुर की ओर बढाई। बरसात में घूमने का आनंद ही कुछ और है। अरपा के साथ-साथ सफ़र हो रहा था, हमेशा की तरह नदी के किनारे सब्जी वाले बैठे थे। हमारी पहली मंजिल रतनपुर थी। वैसे तो रतनपुर का प्रवास सैकड़ों बार हुआ है पर आज सैलानी की नजर से देखने की इच्छा थी। इच्छा क्यों न हो भाई, रतनपुर छत्तीसगढ की चारों युगों की राजधानी थी इसलिए रतनपुर को चतुर्युगी नगरी भी कहा जाता है। राजे-रजवाड़ों के अवशेष देखने हैं। कम समय में अधिक स्थान देखने की गरज से राहुल भैया को फ़ोन लगाया और फ़िर समाधान हो गया। शहर के प्रवेश में खंडोबा मंदिर है। यहाँ शिवजी और भवानी की अश्वारोही प्रतिमा विराजमान है। इसे तुलजा भवानी मंदिर भी कहते हैं। इस मंदिर को मराठा नरेश बिंबाजी राव भोसला की रानी ने अपने भतीजे खांडो की स्मृति में बनवाया था। मंदिर के पीछे प्राचीन दुलहरा तालाब है।

महामाया मंदिर के पार्श्व में महाकाली
इसके बाद आगे चलने पर दाहिनी ओर भैरव मंदिर स्थित है। मंदिर के बाहर पूजा सामग्री और गानों की सीडी कैसेट बेचने वालों की पचासों दुकाने सजी हुई हैं। यहां काल भैरव की 9 फ़िट ऊंची प्रतिमा स्थापित है। देवी दर्शन करने के पश्चात श्रद्धालु काल भैरव की पूजा अवश्य करते हैं। किंवदंती है कि मणिमल्ल नामक दैत्य के संहार के लिए भगवान भोलेनाथ ने मार्तण्ड भैरव का रुप बनाकर सहयाद्री पर्वत पर उसका संहार किया था। रतनपुर कौमारी शक्ति पीठ होने के कारण कालांतर में यहाँ तंत्र साधना भी होने लगी तब बाबा ज्ञानगिरी ने इस मंदिर का निर्माण कराया था।रतनपुर महामाई मंदिर पहुंचे तो वहाँ हमें दीपक दुबे मिले। अब रतनपुर दर्शन उनके साथ ही करना था। रतनपुर दर्शन करके पाली होते हुए चैतुरगढ से तुम्माण तक पहुंचना था। रतनगढ में ही पूरा दिन बीत सकता था।

महासरस्वती एवं महालक्ष्मी
बिलासपुर, अम्बिकापुर मुख्य मार्ग पर बिलासपुर से 26 किलोमीटर की दूरी पर रतनपुर स्थित है। बिलासपुर से चलकर आधे घंटे के बाद हम रतनपुर आदिशक्ति महामाया के प्रवेश द्वार पर पहुंचे तो एक स्कार्पियो सपाटे से हमारे सामने से आगे निकल खड़ी हो गयी। इसमें दो तीन सज्जन बाहर आए। मंदिर के दरवाजे तक गाड़ी आने का तात्पर्य था कि कोई न कोई पॉवर हाऊस है, तभी गाड़ी यहाँ तक आई है। गर्भ गृह में दर्शनार्थ पहुंचने पर पुजारी उन सज्जन को विशेष पूजा करा रहे थे। उन्हे पद्महार पहनाया गया तथा उत्तरीय धारण कराया गय। जब वे बाहर आने के लिए घूमे, तब तक मैं पहचान चुका था। ये ट्रस्ट के अध्यक्ष बलराम सिंह जी थे। राम-राम हुई वे अपने काम में लग गए और हम अपने काम में। हमने महामाई के दर्शन किए और प्रसाद लिया। राजा रत्नदेव प्रथम ने मणिपुर नामक गांव को रतनपुर नाम देकर अपनी राजधानी बनाया। इस स्थान को महाभारत एवं जैमिनी पुराण आदि में राजधानी होने का गौरव प्राप्त है।

अरविंद झा एवं पंकज सिंह
त्रिपुरी के कलचुरियो ने रतनपुर को अपनी राजधानी बनाकर दीर्घकाल तक छत्तीसगढ़ में शासन किया। इसे चर्तुयगी नगरी भी कहा जाता हैं जिसका तात्पर्य है कि इसका अस्तित्व चारो युगो में विद्यमान रहा है। इस मंदिर के निर्माण के पीछे कथन है कि 1045 ई में राजा रत्नदेव प्रथम तुम्माण से मणिपुर नामक गाँव में आए, यहाँ उन्होने रात्रि विश्राम एक वट वृक्ष पर किया। अर्धरात्रि में जब राजा की नींद खुली तो उन्होने वट वृक्ष के नीचे अलौकिक प्रकाश देखा, वे आश्चर्य चकित रह गए कि वहाँ आदिशक्ति महामाया की सभा लगी हुई थी। यह सब देख कर राजा अपनी चेतना खो बैठे। सवेरा होने पर वे अपनी राजधानी तुमान लौट आए तथा रतनपुर को अपनी राजधानी बनाने का फ़ैसला किया। 1050 ई में महामाया के भव्य मंदिर का निर्माण कराया।

नीलकंठेश्वर - कंठी देवल मंदिर
इस मंदिर में तीन देवियाँ हैं, महासरस्वती एवं महालक्ष्मी मंदिर के गर्भ गृह में विराजित हैं और महाकाली बाहरी दीवाल पर पार्श्वभाग में विराजित हैं। मान्यता है कि यह मंदिर कभी तंत्र-मंत्र का केन्द्र रहा होगा। कहते हैं कि रतनपुर में सती का दाहिना स्कंध गिरा था तब भगवान शिव ने स्वयं इसे कौमारी पीठ का नाम दिया। जिसके कारण यहाँ माँ के दर्शन से कुंवारी कन्याओं को सौभाग्य की प्राप्ति होती है। कहते हैं कि यह जागृत पीठ है, कुछ वर्षों पूर्व चंद्रास्वामी का यहाँ आगमन काफ़ी चर्चित रहा। पटौदी के बाबा सतबीर नाथ ने भी यहाँ के प्रभाव को महसूस किया तथा मुझे बताया था। यहाँ मनोकामना ज्योतियाँ भी जलाई जाती हैं।

बीस दुवरिया
महामाया मंदिर के परिसर में स्थित तालाब के के किनारे नीलकंठेश्वर महादेव का भव्य एवं शिल्पकला से परिपूर्ण मंदिर है। इसे कंठी देवल मंदिर भी कहते हैं, इस मंदिर के समीप एक प्रतिमा विहीन मंदिर भी है। कंठी देवल मंदिर केन्द्रीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। इस मंदिर का बड़ी खुबसूरती के साथ जीर्णोद्धार किया गया है। अब हम महामाया मंदिर से थोड़ी ही दूर स्थित मधुबन की ओर जाते हैं, यहाँ पर तालाब के किनारे भगवान नर्मदेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है एवं दूसरी तरफ़ राजा राजसिंह का भव्य स्मारक बना हुआ है, जिसे बीस दुवारिया कहते हैं। यह मंदिर प्रतिमा विहीन है तथा इसमें 20 दरवाजे हैं। प्रत्यके दरवाजों की चौखट की खड़ी पाटी में दो-दो फ़ुट के वही पत्थर दिखाई दिए जो हमने सिरपुर में देखे थे। बाकी पत्थर जामुनी रंग के थे। वैसे ही एक पत्थर का खम्बा मैने राजिम के कुलेश्वर महादेव के मंदिर में भी देखा था। अभी यह मंदिर जीर्ण शीर्ण अवस्था में है, इसे संरक्षण की आवश्यकता है वरना समय की मार से धराशायी हो सकता है। इसके चारों तरफ़ गंदगी फ़ैली हुई है। बैरागवन के समीप खिचरी केदारनाथ का प्राचीन मंदिर भी दर्शनीय है।आगे पढें………

12 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर दर्शन
    सटीक जानकारी
    धन्यवाद और साथ में आभार भी
    सादर

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  2. इतिहास के अव्यक्त तत्वों को लाने का अतिशय आभार..

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  3. लगता है , मानव आदि काल से ईश्वर भक्त रहा है .
    बढ़िया प्रस्तुति .

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  4. रोचक एवं जानकारी भरा विवरण....

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  5. चित्रों में मंदिर काफी जीर्ण शीर्ण अवस्था में दिखाई दे रहा है, इतनी सुंदर ऐतिहासिक धरोहर को संरक्षण की अत्यंत आवश्यकता है वरना समय की मार से धराशायी हो जायेगा और मिला भी तो आपकी पोस्ट और चित्रों में... इतिहास को आपने अपने लेखन के माध्यम से सहेज लिया... आभार

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  6. खुबसूरत यात्रा वर्णन मंदिरों के दर्शन के साथ रतनपुर का सुक्ष्म विवेचन

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  7. बढ़िया जानकारी| काश अब भी रतनपुर को ही राजधानी बनाया गया होता !

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  8. रतनपुर को राजधानी बनाने की कहानी बहुत ही रोचक है।
    काल भैरव के फोटो दर्शन की चाह शेष है।

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