सप्ताहांत याने संडे का दूनिया को बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। शनिवार से ही सप्ताहांत मनाने की तैयारी शुरु हो जाती हैं। पश्चिमी देश चाहे नाच-गा कर मस्ती करके संडे मनाएं या समुद्र के किनारे धूप सेकते हुए इसका आनंद ले। लेकिन भारत में इसे मनाने का तरीका कुछ अलग ही है। जितना काम सप्ताह के अन्य दिनों में व्यक्ति करता है उससे दुगना काम सप्ताहांत को करने पड़ते हैं। शनिवार की रात को ही सारे काम नोट करवा दिए जाते हैं और सुबह होते ही कामों की सूची सामने होती है। दफ़्तरों के काम तो भले ही इस दिन बंद रहते हैं पर घरेलू कामों की जंग का मुहाना खुल जाता है। बाजार से सामान लाना, घर के लॉन की (अगर हो तो) साफ़ सफ़ाई, गाड़ी की धुलाई, इलेक्ट्रानिक और इलेक्ट्रिकल सामानों की रिपेयरिंग, रिश्तेदारों एवं मित्रों का उलहाना उतारने के लिए उनसे भेंट मुलाकात इत्यादि अनेक कार्य सप्ताहांत के सिर पर सवार होकर आते हैं।
रवि का उदय होना तो नित्य है लेकिन सप्ताह में एक दिन ही रवि के नाम समर्पित होने से रविवार हो जाता है। बस इसी दिन घर-गृहस्थी को संभालना ही संडे का फ़ंडा है। नौकरी पेशा लोगों के साथ व्यापरियों में भी अब संडे का महत्व बढते जा रहा है। पहले तो लाला जी सप्ताह में सातों दिन दुकान खोले बैठे रहते थे।उनकी मान्यता थी कि ग्राहक एवं मौत का भरोसा नहीं कब आ जाए। क्योंकि दोनो का ही इंतजार करना पड़ता है। अब बदलती पीढी के साथ संडे मनाने का तरीका बदलते जा रहा है। नए लाला जी सप्ताह में छ: दिन खूब भाग दौड़ करके कमाते हैं और सप्ताहांत याने संडे को पिकनिक मनाने के लिए यार दोस्तों या परिवार के साथ किसी स्थान पर निकल जाते हैं। 6 दिन कमा कर एक दिन खर्च करने की परिपाटी बनती दृष्टिगोचर हो रही है।
संडे क्या होता है, उसे पता है जिसने कभी संडे का मजा चखा हो, जिसके जीवन में एक बार तो संडे आया हो। वरना देश की अधिकतर आबादी का यह हाल है कि जिस दिन काम नहीं मिला वह दिन संडे हो जाता है। खैर संडे का महत्व वही जानता है जो सप्ताह में 6 दिन खटता है, रोजी-रोटी के पीछे भागता है। रोज रोटी के लिए दस-बीस गालियाँ खाता है। फ़िर सप्ताह में एक दिन उसे आराम करने का मिलता है। कुछ ऐसे भी लोग हैं वे चाहे जब ईशारा भर कर दें तभी संडे हो जाता है। उनके प्रभुत्व एवं प्रभाव से सप्ताह के अन्य दिन संडे की आगवानी करते हुए लिए अपना स्थान छोड़ देते हैं । क्यों न छोड़े वी आई पी का हक है जिस दिन को चाहे संडे बना दे। जबरा को तो सलाम करना ही पड़ता है।
महानगरों के निवासी अपने मित्रों से संडे पर ही मिलने आने का आग्रह करते हैं। अन्यथा उनके पास समय नहीं रहता। कईयों का तो यह हाल है कि संडे के दिन ही वे अपने बच्चों की शक्ल देख पाते हैं। रात गुजारने की लिए घर एक सराय बनकर रह गया है। मेरे एक घनिष्ट मित्र ने मुझे यह कर चौंका दिया था कि संडे की हो मुंबई आना, अन्यथा मैं तुम्हे समय नहीं दे पाऊगां। महानगरों ने जीजीविषा ने व्यक्ति की संवेदनाओं को मार दिया है। रिश्ते-नाते सिर्फ़ औपचारिकता बन कर रह गए हैं। अगर कोई एक व्यक्ति भी घर पहुंच जाता है तो वह भारी हो जाता है। दूसरे दिन से घर मालिक का चिंतन शुरु हो जाता है और मन ही मन "अतिथि कब जाओगे "मंत्र का जप शुरु कर देता है।
हमें भी संडे महत्व तब पता चला जब जीवन में पहली बार संडे आया। अन्यथा सप्ताह के बाकी दिन भी हमारे लिए संडे जैसे ही थे। नहीं तो लोगों से पूछना पड़ता था कि आज कौन वार है भाई? ऐसी स्थिति तब पैदा होती है जब व्यक्ति अत्यधिक व्यस्त हो या पूरा निठल्ला हो। निठल्ला नामक इस विशिष्ट प्रजाति के लिए हर दिन संडे हैं। इनकी जिन्दगी में कभी बाकी 6 दिन आते ही नहीं है। आएं भी कैसे? बाकी दिनों की आने की हिम्मत ही नहीं होती। अगर ये वक्त बेवक्त किसी के घर चले जाएं तो उसका भी संडे मनवा देते हैं। इनके संडे की दादागिरी से सप्ताह के छहों दिन भय खाते हैं। कौन निठल्लों से पंगा ले तथा पंगा लेकर अपने सप्ताह के बाकी दिनों का सत्यानाश करे। संडे हो या मंडे, रोज गाड़ो निठल्लाई के झंड़े इनका स्वघोषित नारा है। इतना तो तय है सप्ताह के सातों दिनों का राजा संडे को माना ही जा सकता है। क्यों है कि नहीं?
(कैरिकेचर गुगल से साभार)
(कैरिकेचर गुगल से साभार)
हा हा हा, हमारा दुख कितने सहज भाव से प्रस्तुत कर दिया..आराम मिल ही नहीं पाता है, गृहकार्य बहुत अधिक हो जाता है, उस पर से दो पोस्ट भी सप्ताहान्त में ही आकार पाती हैं।
जवाब देंहटाएंनिठल्ला प्रजाति नयी क्रान्ति लाने की तैयारी मे है....
जवाब देंहटाएंदाल नून रोटी वालो के क्या संडे क्या मंडे और क्या उनके झंडे.
जवाब देंहटाएंपैसा गांठ हो तो संडे के संडे ही क्यों, किसी भी रात किसी भी पांच सितारा होटल में जाकर देख लीजिए न, वहां उनके झंडे रोज़ ही गड़े रहते हैं.
भूल गए राग रंग
जवाब देंहटाएंभूल गए चौकड़ी
तिन चीज याद रही
नून तेल लकड़ी ....
भाई साहब यही एक पत्नी धर्म है जिस पर आप सब की अस्मिता टिकी है।
गृहणियों के लिए भी सन्डे का बड़ा विशिष्ट महत्व है, बाकि के छह दिन काम करने पड़ते हैं और सन्डे को कामों की सूची तैयार करके उनसे करवाने पड़ते हैं... :)
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख... सन्डे की बधाइयाँ...
संडे तो बस संडे होता है!!!!
जवाब देंहटाएंकृपया मेरी नई पोस्ट "चीन की महान दीवार" को भी अवश्य देखें। धन्यवाद।
ब्लॉग पता :- gyaan-sansaar.blogspot.com
बार बार के आग्रह के चलते मैं एकबार दिल्ली जा पहुंची और आने की फोन से सूचना दे दी। लेकिन सामने वाले ने टका सा जवाब दे दिया कि आज तो सण्डे नहीं है। अब कहां जाए, समस्या हो गयी।
जवाब देंहटाएंविषय तो आपने वाकई बढिया चुना । आप नौकरी के कामो से मुक्ति पा सकते हो पर छुटटी के दिन घर के काम से नही
जवाब देंहटाएंमुझे लगता था कि मेरे साथ ही ऐसा है
smt. Ajit Gupta
जवाब देंहटाएंआप भी कमाल करती हैं,पूर्व सूचना देकर जाना चाहिए शहरों में :)
noukaripesha logo ke liye sunday aur dino se jyada thakau hota hai..kam karna aur karvane ka sandhya ji ke fande se poori tarah sahmat..
जवाब देंहटाएंआना मेरी जान मेरी जान सन्डे के सन्डे... याद दिला दिया आपने.
जवाब देंहटाएंजितनी ख़ुशी सन्डे आने तक होती है वह सन्डे वाले दिन काफूर हो जाती है ये सोचकर कि अब फिर छ: दिन तक लगातार काम पर जुटना है !!
जवाब देंहटाएंसन्डे का मज़ा मुझे कभी नहीं मिला या यू कहे की छूट्टी का मज़ा मुझे तभी मिला जब हम स - परिवार किसी जगह घुमने गए ..वरना सन्डे कभी आया ही नहीं ..पतिदेव र्की रेलवे की नौकरी जो 365 दिन चलती थी .. कोई आफिस वर्क तो था नहीं ..चलती फिरती लोकल की नौकरी जो बारह महीने चलती थी ...जिसमें 4 या 3 रेस्ट लेना अनिवार्य था जब आपकी इच्छा हो ,ले लो ....जिस दिन लोकल में रसीद नहीं बनती थी उस दिन छुट्टी हो जाती थी ...मैं तो सन्डे की छुट्टी को तरस ही गई ...
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