Menu

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

जगन्नाथ मंदिर का शिल्प एवं इतिहास - कलिंग यात्रा

उड़ीसा राज्य के तटवर्ती क्षेत्र में स्थित जगन्नाथ मंदिर हिन्दुओं का प्राचीन एवं प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। हिन्दूओं की धार्मिक आस्था एवं कामना रहती है जीवन में एक बार भगवान जगन्नाथ के दर्शन अवश्य करें क्योंकि इसे चार धामों में से एक माना जाता है। वैष्णव परम्परा का यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार कृष्ण को समर्पित है। यहाँ की वार्षिक रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है। इस मंदिर में तीन मुख्य देवता भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा एवं भाई बलभ्रद की पूजा होती है। जगन्नाथ के धार्मिक महत्व के विषय में जन-जन जानता है। फ़िर भी मैं संक्षेप में उल्लेख करना चाहुंगा।
सुभाष चौक पुरी
इस मंदिर का निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्मन गंगदेव ने कराया था। मंदिर का जगमोहन एवं विमान भाग इनके शासन काल (1078-11148 ई) में निर्मित हुआ था। फ़िर सन 1147 में राजा अनंग भीम देव ने इस मंदिर को वर्तमान रुप दिया था। इसका ताम्रपत्रों में उल्लेख बताया जाता है। मंदिर में जगन्नाथ अर्चना सन १५५८ तक होती रही। इस वर्ष काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बंद करा दी तथा विग्रहो को चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे गुप्त रखा गया। बाद में, रामचंद्र देब के खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर, मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई।
मंदिर का विहंगम दृश्य
कलिंग शैली में निर्मित इस मंदिर को हम देखे तो वर्तमान में भी काला पहाड़ द्वारा किए गए विध्वंस के चिन्ह दिखाई देते हैं। मुख्य मंदिर के आमलक एवं जगमोहन की छत को उसके द्वारा तोड़ दिया गया प्रतीत होता है। प्रस्तर निर्मित इस मंदिर के विशाल आमलक एवं जगमोहन की छत का पुनर्निर्माण हुआ है। जो प्रस्तर निर्मित न होकर चूना सुर्खी से बना हुआ है अलग ही दिखाई देता है। राजा ने जगन्नाथ मंदिर का भव्य निर्माण कराया था। इसकी भित्तियों पर अप्सराएं, वादक, भारसाधक, व्यालों के साथ मिथुन मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं। इसकी भव्यता देखते ही बनती है।
चलो चले मुसाफ़िर
मंदिर का विस्तार वृहत क्षेत्र में है, जो लगभग चार लाख वर्ग फ़ुट में विस्तारित है और चारदिवारी से घिरा हुआ कलिंग स्थापत्यकला एवं शिल्प का उदाहरण है तथा यह भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है। मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फ़ुट (65 मी) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। 
सिंह द्वार पर स्थापित गरुड़ स्तंभ
मंदिर का मुख्य भाग विशाल है। मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेरी हुई छोटी पहाड़ियों एवं टीलों के समुह सदृश दिखाई देता है। मुख्य भवन एक बीस फ़ुट (6.1 मी) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।
ध्वज एवं चक्र
मंदिर के शिखर पर स्थित चक्र, सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ का प्रतीक माना जाता है। इस मंदिर से अनेक किंवदन्तियां एवं लोककथाएं जुड़ी हुई हैं। एक कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया।

रथयात्रा मार्ग
उसके बाद राजा विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर समक्ष मूर्ति बनवाने के लिए उपस्थित हुए। विश्वकर्मा जी ने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आये। जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आई, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गयीं।
भोग प्रसाद रिक्शा
महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह भगवान जगन्नाथ को मानते थे, उन्होने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। कहते हैं कि उन्होंने अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मंदिर को दान कर दिया जाए। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक ब्रिटिशों ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।
मंदिर मुख्य प्रवेश द्वार
जगन्नाथ मंदिर की एक खास बात है कि इसमें हिन्दूओं के अतिरित्क अन्य धर्मावलम्बियों का प्रवेश वर्जित है। मुख्यद्वार पर ही इस आशय की चेतावनी लिखी हुई है। भारतीय सिक्ख, जैन एवं बौद्धों के लिए प्रवेश की छूट है, परन्तु उन्हें अपनी भारतीय पहचान दिखानी होती है। मंदिर ने धीरे-धीरे गैर-भारतीय मूल के लेकिन हिन्दू लोगों का मंदिर क्षेत्र में प्रवेश स्वीकार करना आरम्भ किया है। अन्यथा बाली द्वीप के लोगों को भी प्रवेश नहीं दिया जाता था। पूछने पर पण्डा जी ने बताया कि अन्य लोगों को भगवान स्वयं रथयात्रा के दिन मंदिर से बाहर आकर दर्शन देते हैं, इस दिन कोई भी भगवान के दर्शन कर सकता है। यह  रथ यात्रा आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को होती है, जो तिथियों के अनुसार जून या जुलाई में होती है। जारी है… आगे पढें।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया जानकारी !!! रथयात्रा के दौरान की तस्वीरें नहीं है क्या ? आप तो रथयात्रा के दिनों में ही तो गए थे !

    जवाब देंहटाएं
  2. जगन्नाथ मंदिर के शिल्प एवं इतिहास की जानकारी के साथ किंवदन्तियां एवं लोककथाएं पढ़ना बड़ा ही रोचक लगा.... सुन्दर चित्र

    जवाब देंहटाएं