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शनिवार, 28 नवंबर 2015

नवकलेवर पूजन एवं दारु खोजन उत्सव - कलिंग यात्रा

मंदिर के बाहर निकलते ही भगवा कपड़ों में वाद्य यंत्र धारण किए गाते बजाते भक्त दिखाई दिए, इनके साथ ही मंदिर के मुख्य पुजारी एवं उनके सहयोग नवीन वस्त्र धारण कर मंदिर परिसर की ओर जुलूस की शक्ल में बढ रहे थे। पूछने पर पता चला कि आज नवकलेवर का उत्सव है,  संयोगवश हम भी इस त्यौहार के साक्षी बन गए। नवकलेवर भगवान की काष्ठ प्रतिमाएं बदलने के उत्सव को कहते हैं। जिस वर्ष हिन्दू पंचांग के अनुसार दो आषाढ होते हैं उस वर्ष भगवान की पुरानी प्रतिमाएं बदल कर स्थापित की जाती हैं।

दारू खोज मुहूर्त के लिए जाते हुए दैतापति
इन प्रतिमाओं को बदलने का भी बड़ा कठिन विधि विधान है। हमारे पण्डा जी पुर्णचंद महापात्र ने बताया कि प्रतिमाओं के लिए ऐसे  ही किसी वृक्ष को काटकर नहीं बना दी जाती। इसके लिए विशेष प्रकार की"दारु" (नीम की लकड़ी) का चयन किया जाता है। यह चयन प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही होता है। इस काम में कई पंडित या दैतापति लगते हैं। शास्त्रों के अनुसार, पेड़ के लिए सबसे पहले मुख्य पंडित को सपना आता है, उसके बाद दसियों पंडित उस पेड़ की तलाश में निकलते हैं। प्रतिमा निर्माण के लिए वृक्ष पुराना हो, नदी या तालाब के किनारे हो, शंख, चक्र, गदा, पद्म के चिन्ह हों, पेड़ का कोई हिस्सा टूटा न हो, उसमें कोई कील नहीं ठोकी गई हो, किसी पशु का पंजा न लगा हो तथा पेड़ पर कोई घोंसला न हो। 
कृष्णा किर्तन करते हुए भगत
मुख्य दैतापति को सपना आने के बाद वह वृक्ष के स्थान की ओर संकेत करता है। फ़िर 10 पुजारियों का दल चारों दिशाओं में उस स्थान एवं वृक्ष की खोज करते हैं। इस खोज की समयावधि 45 दिन निश्चित है, इस अवधि में ही "दारु" की खोज अवश्य ही होनी चाहिए। पेड़ को काटने के पहले सारे पंडित दो दिन तक अन्न जल नहीं लेते एवं शास्त्रों के बताए मंगल चिन्ह एवं शर्तें पूर्ण होने पर उस वृक्ष को पूजा करके विधि विधान से प्रतिमाओं के लिए काटा जाता है। यह प्रक्रिया गोपनीय रुप से आधी रात को सम्पन्न की जाती है। उसके पश्चात लकड़ी की प्रतिमाएं बनाई जाती है और स्थापित की जाती है। 
हरे राम हरे कृष्ण, कृष्ण हरे हरे
पण्डा जी ने बताया कि - नव कलेवर का समय 12 या 19 वर्षों में एक बार आता है। हिंदू धर्म की पौराणिक मान्यताओं में चारों धामों को एक युग का प्रतीक माना जाता है। इसी प्रकार कलियुग का पवित्र धाम जगन्नाथपुरी माना गया है। यह भारत के पूर्व में उड़ीसा राज्य में स्थित है, जिसका पुरातन नाम पुरुषोत्तम पुरी, नीलांचल, शंख और श्रीक्षेत्र भी है। उड़ीसा या उत्कल क्षेत्र के प्रमुख देव भगवान जगन्नाथ हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा राधा और श्रीकृष्ण का युगल स्वरूप है। श्रीकृष्ण, भगवान जगन्नाथ के ही अंश स्वरूप हैं। इसलिए भगवान जगन्नाथ को ही पूर्ण ईश्वर माना गया है।
दैतापति दल लवाजमा के साथ मंदिर की ओर
वैसे तो रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आरंभ होती है। परन्तु इस वर्ष नवकलेवर होने के कारण अधिक आकर्षण रहेगा।  यह यात्रा मुख्य मंदिर से शुरू होकर 2 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है।जहां भगवान जगन्नाथ सात दिन तक विश्राम करते हैं और आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन फिर से वापसी यात्रा होती है, जो मुख्य मंदिर पहुंचती है। यह बहुड़ा यात्रा कहलाती है। जगन्नाथ रथयात्रा एक महोत्सव और पर्व के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस रथयात्रा के मात्र रथ के शिखर दर्शन से ही व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। स्कन्दपुराण में वर्णन है कि आषाढ़ मास में पुरी तीर्थ में स्नान करने से सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य फल प्राप्त होता है और भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती है।
दम लगा कर है जोर
रथयात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा- तीनों के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये लकड़ी वजन  में भी अन्य लकडिय़ों की तुलना में हल्की होती है और इसे आसानी से खींचा जा सकता है। भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में बड़ा भी होता है। यह रथ यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। इस रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है, जिनका रंग सफेद होता है। इस रथ के सारथी का नाम दारुक है। 
रथयात्रा मार्ग से आता हुआ दल
भगवान जगन्नाथ के रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान का प्रतीक होता है। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ के रथ पर सुदर्शन स्तंभ भी होता है। यह स्तंभ रथ की रक्षा का प्रतीक माना जाता है। इस रथ के रक्षक भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ हैं। रथ की ध्वजा यानि झंडा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है। इसके 16 पहिए होते हैं व ऊंचाई साढ़े 13 मीटर तक होती है। इसमें लगभग 1100 मीटर कपड़ा रथ को ढंकने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
उत्सव में सम्मिलित 
बलरामजी के रथ का नाम तालध्वज है। इनके रथ पर महादेवजी का प्रतीक होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। यह 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है, जो लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है। सुभद्राजी के रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुड़ा कहते हैं। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है।
बिकाश बाबू की मौज
भगवान जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा के रथों पर जो घोड़ों की कृतियां मढ़ी जाती हैं, उसमें भी अंतर होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ पर मढ़े घोड़ों का रंग सफेद, सुभद्राजी के रथ पर कॉफी कलर का, जबकि बलरामजी के रथ पर मढ़े गए घोड़ों का रंग नीला होता है। रथयात्रा में तीनों रथों के शिखरों के रंग भी अलग-अलग होते हैं। बलरामजी के रथ का शिखर लाल-पीला, सुभद्राजी के रथ का शिखर लाल और ग्रे रंग का, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ के शिखर का रंग लाल और हरा होता है। पण्डा जी की बातें हमने मोबाईल फ़ोन में सुरक्षित कर ली।
लाईव टेलीकास्ट
जब इस महत्वपूर्ण पर्व पर हम पुरी में उपस्थित थे तो सोचा कि उसकी फ़ोटोग्राफ़ी भी अच्छे से होनी चाहिए। मीडिया वालों का लाईव प्रसारण चल रहा था। हम कोई तीन चार मंजिल का भवन ढूंढ रहे थे जिसकी छत से चित्र लिए जा सकें। तभी एक भवन की छत पर छतरी लगाई कुछ कैमरामेन दिखाई दिए तो हम वहीं पहुंच गए और उस भवन से लगातार कुछ अच्छे चित्र लिए। छत पर काफ़ी समय व्यतीत किया। उसके बाद नीचे आकर वाद्यको समेंत सभी के खूब चित्र लिए। बिकास बाबू ने वाद्यों की धुन पर खूब नृत्य किया और थोड़ा बहुत मजा हमने भी लिया। इस तरह हमारी हमने भगवान जगन्नाथ के दर्शन लाभ प्राप्त किए।

रिक्शे पर सवार राजा और राणा
सूर्य देवता अस्ताचल की ओर जा रहे थे, हम मंदिर से निकल कर रिक्शे में सवार होकर समुद्र तट पर पहुंच गए। शाम की समय यहां की रौनक ही अलग होती है। पुरी होटल से चलते हुए स्वर्गद्वार के आगे तक हमने पैदल भ्रमण किया। फ़िर चना चबेना लेकर समुद्र के किनारे एक स्थान पर आसन जमा कर बैठ गए। ठंडी हवा में आंखे बंद कर समुद्र की गर्जना सुनने का अलौकिक आनंद आया। यह आनंद गुंगे के गुड़ जैसा है। छेना मिठाई बेचने वाला भी वहीं आ गया। बिकास बाबू ने सभी प्रकार की मिठाईयों का आनंद लिया क्योंकि जब हम समुद्र की गर्जना सुनने का आनंद ले रहे हैं तो वे मिष्टी आनंदाधिकारी है। दस बजे तक हमने समुद्र के किनारे वक्त गुजार दिया। उसके बाद एक होटल से भोजन कर अगली सुबह चिल्का झील भ्रमण की तैयारी करते हुए झपक लिए। जारी है, आगे पढें।

1 टिप्पणी:

  1. नव कलेवर की अद्भुत परंपरा का सुन्दर वर्णन। शायद भगवान जगन्नाथ की इच्छा थी कि आप इसी समय उनके दर्शन करें और हम सबका इस अनूठी परंपरा का आपके शब्दों और चित्रों द्वारा परिचय हो। बहुत - बहुत आभार आपका ...

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