जिसका मन सुंदर हो, उसे सारी दुनिया सुंदर नजर आती है। मन से सभी तरह के भेद मिट जाते है। ईश्वर की बनाई सारी रचना खूबसूरत जान पड़ती है। ऐसे ही भगवान राम हैं, उनके दर्शनों के लिए व्याकुलता से प्रतीक्षा करती सबरी से राम जी की भेंट का वर्णन करते हुए बाबा तुलसीदास कहते हैं - "कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।"
राम जी सबरी को "भामिनि" कह संबोधित करते हैं। भामिनि का अर्थ यहां पर "सुंदरी" होता है। राम की बात सुनकर सबरी गदगद हो जाती है और "प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।। सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।"
राम जी के वचन सुनकर सबरी के मुंह से बोल नहीं फ़ूटते, वह मगन हो जाती है। यहीं सबरी से भगवान राम उसके चखे बेर खाते हैं। जहाँ यह मिलन होता है, यह स्थान छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण कहलाता है।
सुबह नीलकमल वैष्णव जी के निवास पर नाश्ता किए, सूर्यनारायण आसमान में प्रभा बिखेर रहे थे और हम कोसीर से भटगांव होते हुए शिवरीनारायण पहुंच गए।
महानदी के तट पर स्थित प्राचीन शिवरीनारायण नगर जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 120 कि. मी. की दूरी पर स्थित है।
यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनुपम उदाहरण है। इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है।
प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहां एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्रि तक लगता है।
मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पट बंद रहता है। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है।
तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी कहा जाता है.
शिवरीनारायण दर्शन के बाद राजिम का दर्शन करना आवश्यक माना गया है क्योंकि राजिम में ''साक्षी गोपाल'' विराजमान हैं। इसी कारण यहां के मेले को ''छत्तीसगढ़ का कुंभ'' कहा जाता है जो प्रतिवर्ष लगता है।
शबरी का असली नाम श्रमणा था, वह भील सामुदाय के शबर जाति से सम्बन्ध रखती थीं। उनके पिता भीलों के राजा थे। बताया जाता है कि उनका विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था, विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे बलि के लिए लाये गए जिन्हें देख शबरी को बहुत बुरा लगा कि यह कैसा विवाह जिसके लिए इतने पशुओं की हत्या की जाएगी।
शबरी विवाह के एक दिन पहले घर से भाग गई। घर से भाग वे दंडकारण्य पहुंच गई। दंडकारण्य में ऋषि तपस्या किया करते थे, शबरी उनकी सेवा तो करना चाहती थी पर वह हीन जाति की थी और उनको पता था कि उनकी सेवा कोई भी ऋषि स्वीकार नहीं करेंगे।
इसके लिए उन्होंने एक रास्ता निकाला, वे सुबह-सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ़ कर देती थीं, कांटे बीन कर रास्ते में रेत बिछा देती थी। यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था।
एक दिन ऋषि मतंग की नजऱ शबरी पर पड़ी, उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी, इस पर ऋषि का सामाजिक विरोध भी हुआ पर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में ही रखा।
जब मतंग ऋषि की मृत्यु का समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें, वे उनसे मिलने जरूर आएंगे। मतंग ऋषि की मौत के बात शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा में बीतने लगा, वह अपना आश्रम एकदम साफ़ रखती थीं।
रोज राम के लिए मीठे बेर तोड़कर लाती थी। बेर में कीड़े न हों और वह खट्टा न हो इसके लिए वह एक-एक बेर चखकर तोड़ती थी। ऐसा करते-करते कई साल बीत गए।
एक दिन शबरी को पता चला कि दो सुकुमार युवक उन्हें ढूंढ रहे हैं। वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं, तब तक वे बूढ़ी हो चुकी थीं, लाठी टेक के चलती थीं। लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उन्हें अपनी कोई सुध नहीं रही, वे भागती हुई उनके पास पहुंची और उन्हें घर लेकर आई और उनके पाँव धोकर बैठाया।
अपने तोड़े हुए मीठे बेर राम को दिए राम ने बड़े प्रेम से वे बेर खाए और लक्ष्मण को भी खाने को कहा। लक्ष्मण को जूठे बेर खाने में संकोच हो रहा था, राम का मन रखने के लिए उन्होंने बेर उठा तो लिए लेकिन खाए नहीं। कहते हैं कि इसके परिणाम स्वरुप राम-रावण युद्ध में जब शक्ति बाण का प्रयोग किया गया तो वे मूर्छित हो गए थे।
यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट दैदीप्यमान है।
यहां सकल मनोरथ पूरा करने वाली मां अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान नारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूड़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और मां गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है।
कुल मिलाकर त्रिवेणी संगम पर स्थित यह नगर मंदिरों का नगर है। इसके साथ ही कुछ दूर पर स्थित खरौद में भी प्राचीन मंदिर हैं।
हम यहाँ मंदिरों के दर्शन करते हुए, महंत जी के मठ में पहुंचे। यह एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद किया था।
रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं, वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। नगर के नामकरण के विषय में मान्यता है कि शबरों को वरदान मिला कि उसके नाम के साथ भगवान नारायण का नाम भी जुड़ जायेगा..
पहले ''शबर-नारायण'' फिर शबरी नारायण और आज शिवरीनारायण यह नगर कहलाने लगा। मठ में स्थित मंदिरों की फ़ोटो लेते हुए हम खरदूषण की नगरी खरौद ओर चल पड़े………। ( इस यात्रा में कोसीर निवासी मित्र नीलकमल वैष्णव एवं पत्रकार साहित्कार लेखक लक्ष्मीनारायण लहरे जी संगवारी बने )