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शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

मैकल सुता रेवा एवं अमरकंटक

अमरकंटक मेकलसुता रेवा का उद्गम स्थल है, यह पुण्य स्थली प्राचीन काल से ही ॠषि मुनियों की साधना स्थली रही है। वैदिक काल में महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में ‘यदु कबीला’ इस क्षेत्र में आकर बसा और यहीं से इस क्षेत्र में आर्यों का आगमन शुरू हुआ। 

वैदिक ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र भी यहाँ आकर बसे। उसके बाद, अत्रि, पाराशर, भार्गव आदि का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। नागवंशी शासक नर्मदा की घाटी में शासन करते थे। मौनेय गंधर्वों से जब संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इच्छ्वाकु वंश नरेश मान्धाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों की सहायता के लिए भेजा जिसने गंधर्वों को पराजित किया। नाग कुमारी नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स के साथ कर दिया गया।

इसी वंश के राजा मुचुकुंद ने नर्मदा तट पर अपने पूर्वज मान्धाता के नाम पर मान्धाता नगरी स्थापित की थी। यदु कबीले के हैहयवंशी राजा महिष्मत ने नर्मदा के किनारे महिष्मति नगरी की स्थापना की। उन्होंने इच्छवाकुओं और नागों को पराजित किया। कालांतर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों का पतन हुआ। उनकी शाखाओं में तुण्डीकैर (दमोह), त्रिपुरी, दशार्ण (विदिशा), अनूप (निमाड़) और अवंति आदि जनपदों की स्थापना की गयी। महाकवि कालिदास इसी अमरकंटक शिखर को अपने अमर ग्रंथ मेघदूत में आम्रकूट कहकर सम्बोधित करते हैं।

अमरकंटक का में कलचुरी राजा कर्ण ने मंदिरों का निर्माण कराया था, इन्हें कर्ण मंदिर समूह कहा जाता है। कर्ण मंदिर समूह तीन स्तरों पर है। परिसर में प्रवेश करते ही पंच मठ दिखाई देता है। इसकी शैली बंगाल एवं असम में बनने वाले मठ मंदिरों जैसी है। इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान कभी वाममार्गियों का भी साधना केन्द्र रहा है। इस तरह के मठों में अघोर एकांत साधनाएँ होती थी। पंच मठ के दाएँ तरफ़ कर्ण मंदिर एवं शिव मंदिर हैं। शिवमंदिर में श्वेतलिंग है तथा इससे समीप वाले मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। 

इन मंदिरों के सामने ही जोहिला (नदी) मंदिर एवं पातालेश्वर शिवालय है। इसके समीप पुष्करी भी निर्मित है।, इन मंदिरों से आगे बढने पर उन्नत शिखर युक्त तीन मंदिरों का समूह है जिनका निर्माण ऊंचे अधिष्ठान पर हुआ है। यहाँ भी कोई प्रतिमा नहीं है तथा द्वार पर ताला लगा हुआ है। इन मंदिरों का निर्माण बाक्साईट मिश्रित लेट्राईट से हुआ है। 

पातालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर पंचरथ नागर शैली में निर्मित हैं। इनका मंडप पिरामिड आकार का बना हुआ है। पातालेश्वर मंदिर एवं कर्ण मंदिर समूह का निर्माण कल्चुरी नरेश कर्णदेव ने कराया। यह एक प्रतापी शासक हुए,जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। 

सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे। इनका काल 1041 से 1073 ईस्वीं माना गया है। वैसे इस स्थान का इतिहास आठवीं सदी ईस्वीं तक जाता है। मान्यता है कि नर्मदा नदी का स्थान निश्चित करने के लिए सूर्य कुंड का निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था।

गुरुवार, 11 जनवरी 2018

जनमानस में राम - सारासोर सरगुजा

छत्तीसगढ़ अंचल की प्राकृतिक सुंदरता का कोई सानी नहीं है। नदी, पर्वत, झरने, गुफ़ाएं-कंदराएं, वन्य प्राणी आदि के हम स्वयं को प्रकृति के समीप पाते हैं। अंचल के सरगुजा क्षेत्र पर प्रकृति की विशेष अनुकम्पा है, चारों तरफ़ हरितिमा के बीच प्राचीन स्थलों के साथ रमणीय वातावरण मनुष्य को मोहित कर लेता है। 

ऐसा ही एक स्थान अम्बिकापुर-बनारस मार्ग पर 40 किलोमीटर भैंसामुड़ा से 15 किलोमीटर की दूरी पर है, जिसे सारासोर कहा जाता है। इस स्थान का पौराणिक महत्व सदियों से है। यहाँ महान नदी की निर्मल जलधारा दो पहाड़ियों को चीरते हुए बहती है तथा इस स्थान पर हिन्दुओं का धामिक स्थल भी है। सारासोर जलकुण्ड है, यहाँ महान नदी खरात एवं बड़का पर्वत को चीरती हुई पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है। 

पौराणिक महत्व - किंवदन्ति है कि पूर्व काल में खरात एवं बड़का पर्वत दोनों आपस में जुड़े हुए थे। राम वन गमन के समय राम-लक्ष्मण एवं सीता जी यहाँ आये थे तब पर्वत के उस पार यहाँ ठहरे थे। पर्वत में एक गुफा है जिसे जोगी महाराज की गुफा कहा जाता है। सारासोर के पार सरा नामक राक्षस ने उत्पात मचाया था तब उनके संहार करने के लिये रामचंद्रजी के बाण के प्रहार से ये पर्वत अलग हो गए और उस पार जाकर उस सरा नामक राक्षस का संहार किया था। तब से इस स्थान का नाम सारासोर पड़ गया।

सारासोर में दो पर्वतों के मध्य से अलग होकर उनका हिस्सा स्वागत द्वार के रूप में विद्यमान है। नीचे के हिस्से में नदी कुण्डनुमा आकृति में काफी गहरी है इसे सीताकुण्ड कहा जाता है। सीताकुण्ड में सीताजी ने स्नान किया था और कुछ समय यहाँ व्यतीत कर नदी मार्ग से पहाड़ के उस पार गये थे। आगे महान नदी ग्राम ओडगी के पास रेण नदी से संगम करती है। दोनो पर्वतों की कटी हुई चट्टाने इस तरह से दिखाई देती हैं जैसे किसी ने नदी को इस दिशा में प्रवाहित करने के लिए श्रम पूर्वक पर्वत को काटा हो। 

वर्तमान में नदी बीच की छोटी पहाड़ी पर मंदिर बना हुआ है। यहाँ कुछ साधू पर्णकुटी बना कर निवास करते हैं और वे भी मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं। इस स्थान पर श्रद्धालुओं का सतत प्रवास रहता है। इस सुरम्य स्थल पर पहुंचने के बाद यहाँ एक-दो दिन नदी के तीर पर ठहरने का मन करता है। यहाँ मंदिर समिति द्वारा निर्मित यात्री निवास भी हैं। जहाँ समिति की आज्ञा से रात्रि निवास किया जा सकता है।

कैसे पहुंचे? - अम्बिकापुर से बनारस मार्ग पर सतत वाहन सुविधा है तथा भैंसा मुड़ा पहुंच कर स्थानीय संसाधनों प्रयोग किया जा सकता है। स्वयं के साधन से जाना उत्तम रहेगा।

बुधवार, 10 जनवरी 2018

कर्ण का बनवाया मंदिर : आम्रकूट

अमरकंटक मेकलसुता रेवा का उद्गम स्थल है, यह पुण्य स्थली प्राचीन काल से ही ॠषि मुनियों की साधना स्थली रही है। वैदिक काल में महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में ‘यदु कबीला’ इस क्षेत्र में आकर बसा और यहीं से इस क्षेत्र में आर्यों का आगमन शुरू हुआ। वैदिक ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र भी यहाँ आकर बसे। उसके बाद, अत्रि, पाराशर, भार्गव आदि का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। 

नागवंशी शासक नर्मदा की घाटी में शासन करते थे। मौनेय गंधर्वों से जब संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इच्छ्वाकु वंश नरेश मान्धाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों की सहायता के लिए भेजा जिसने गंधर्वों को पराजित किया। नाग कुमारी नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स के साथ कर दिया गया। 

इसी वंश के राजा मुचुकुंद ने नर्मदा तट पर अपने पूर्वज मान्धाता के नाम पर मान्धाता नगरी स्थापित की थी। यदु कबीले के हैहयवंशी राजा महिष्मत ने नर्मदा के किनारे महिष्मति नगरी की स्थापना की। उन्होंने इच्छवाकुओं और नागों को पराजित किया। कालांतर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों का पतन हुआ। उनकी शाखाओं में तुण्डीकैर (दमोह), त्रिपुरी, दशार्ण (विदिशा), अनूप (निमाड़) और अवंति आदि जनपदों की स्थापना की गयी। महाकवि कालिदास इसी अमरकंटक शिखर को अपने अमर ग्रंथ मेघदूत में आम्रकूट कहकर सम्बोधित करते हैं।

अमरकंटक का में कलचुरी राजा कर्ण ने मंदिरों का निर्माण कराया था, इन्हें कर्ण मंदिर समूह कहा जाता है। कर्ण मंदिर समूह तीन स्तरों पर है। परिसर में प्रवेश करते ही पंच मठ दिखाई देता है। इसकी शैली बंगाल एवं असम में बनने वाले मठ मंदिरों जैसी है। इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान कभी वाममार्गियों का भी साधना केन्द्र रहा है। इस तरह के मठों में अघोर एकांत साधनाएँ होती थी। पंच मठ के दाएँ तरफ़ कर्ण मंदिर एवं शिव मंदिर हैं। शिवमंदिर में श्वेतलिंग है तथा इससे समीप वाले मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। 

 इन मंदिरों के सामने ही जोहिला (नदी) मंदिर एवं पातालेश्वर शिवालय है। इसके समीप पुष्करी भी निर्मित है।, इन मंदिरों से आगे बढने पर उन्नत शिखर युक्त तीन मंदिरों का समूह है जिनका निर्माण ऊंचे अधिष्ठान पर हुआ है। यहाँ भी कोई प्रतिमा नहीं है तथा द्वार पर ताला लगा हुआ है। इन मंदिरों का निर्माण बाक्साईट मिश्रित लेट्राईट से हुआ है। 

पातालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर पंचरथ नागर शैली में निर्मित हैं। इनका मंडप पिरामिड आकार का बना हुआ है। पातालेश्वर मंदिर एवं कर्ण मंदिर समूह का निर्माण कल्चुरी नरेश कर्णदेव ने कराया। यह एक प्रतापी शासक हुए,जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। 

सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे। इनका काल 1041 से 1073 ईस्वीं माना गया है। वैसे इस स्थान का इतिहास आठवीं सदी ईस्वीं तक जाता है। मान्यता है कि नर्मदा नदी का स्थान निश्चित करने के लिए सूर्य कुंड का निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था।

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

मिट्टी का कूकर : छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ के बालोद जिला मुख्यालय से लगभग दस किमी दूर दिसम्बर 2010 में एक गांव में कुम्हार परिवार से मिलने गया था। गांव का नाम भूल रहा हूँ। उस कुम्हार ने मिट्टी के भाण्डों को नवोन्मेष कर नया रुप दिया था। 

उपरोक्त चित्र में दिख रहा मिट्टी का कूकर उसने तैयार किया था, जो धातु के कूकर जैसे ही कार्य करता है एवं इसमें पकाया गया भोजन माटी की सौंधी खुश्बू लिए होता है।
औद्योगिकरण ने सबसे अधिक चोट भारत के परम्परागत शिल्प पर की, जबकि यह हमारी प्राचीन अर्थ व्यवस्था की रीढ़ था। इसके एवज में मशीनें खड़ी की और परम्परागत शिल्प को मटियामेट कर दिया। 
जो कुशल हाथ अद्भुत कृतियों को गढ़ते थे वे जीवनयापन करने के लिए परम्परागत व्यवसाय को त्याग कर मजदूरी कर रहें हैं। आजादी के बाद की सरकारें अंग्रेजों की परिपाटी पर चली और परम्परागत शिल्प व्यवसाय चौपट हो गया।
नये शोध आने पर अब लोग पुनः जागरूक होते दिखाई दे रहे हैं, शहरों में मिट्टी के तवे बिकते दिखाई देते हैं। यह पता नहीं कि लोग इनकी खरीदी ड्राइंग रुम की शोभा बढ़ाने के लिए करते हैं या भोजन पकाने के लिए। 
वैसे भोजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग स्वास्थ्य एवं देश की अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी है। मिट्टी के बर्तनों में चूल्हे की धुंगिया खुशबू के साथ बने भोजन का कहना ही क्या है।

सोमवार, 8 जनवरी 2018

शिल्पकार की चतुराई : हम्पी विजय नगर साम्राज्य

चतुर शिल्पकार वही होता है जो निर्माण सामग्री व्यर्थ न होने दे। ऐसी ही कुछ शिल्पकार की चतुराई हमें हम्पी के विट्ठल मंदिर स्थित विष्णु रथ में दिखाई देती है। विष्णु रथ का निर्माण एकाश्म शिला की बजाय पृथक पृथक खंड में हुआ है। जैसे #काष्ठ रथ का निर्माण होता है उसी तरह प्रस्तर से इसका निर्माण प्रस्तर से किया गया है। यह रथ हम्पी का प्रतीक चिन्ह है। इसे देखकर ही समझ आ जाता है कि यह हम्पी है।  

राजा कृष्णदेव राय के काल में हम्पी के विजय नगर साम्राज्य ने चतुर्दिक उन्नति की, हम कह सकते है कि यह विजय नगर के लिए स्वर्णकाल था। विशाल एवं भव्य निर्माण हुए जो हमें आज भी उस काल की याद दिलाते हैं। अगर दो दिन ठहर जाएं तो लगता है कि किसी नई दुनिया में आ गए। यहाँ के भव्य स्मारक व्यक्ति को टाईम मशीन में डाल कर उस काल तक पहुंचाने में सक्षम हैं।

हाँ तो मैं बात कर रहा था विष्णु रथ की। शिल्पकार की चतुराई हमें इसमे जुते हुए गजों के निर्माण में दिखाई देती है। हमको दिखाई दे रहा है कि विष्णु रथ को दो गज खींच रहे हैं। परन्तु रथ को गजों के द्वारा खींचते हुए निर्मित करना मुझे अन्य किसी स्थल के शिल्प में दिखाई नहीं दिया। गजों पर हौदा रखकर माननीयों की उसमें सवारी अवश्य दिखाई देती है। 

अगर हम गज के पार्श्व भाग को ध्यान से देखें तो उसमें अश्व की पिछली टांगे दिखाई देती है। शिल्पकार अश्वों द्वारा खींचा जाने वाला रथ बना रहा था परन्तु किसी तकनीकि कारण या शिला शिल्प में दोष होने के कारण उसने आगे अश्वों की जगह गजों का निर्माण कर दिया। 

लक्ष्मी पति होने के कारण विष्णु की लक्ष्मी सह गजारुढ़ प्रतिमाएँ या चित्र तो मिलते हैं पर गज रथ नहीं मिलता। शिल्पकार की इस चतुराई के कारण एक शिला व्यर्थ होने से बच गई और रथ को नवीन रुप मिलने के साथ उसके निर्माण का अर्थ ही बदल गया है। धन्य हैं ऐसे शिल्पकार, मैं उन्हें सादर नमन करता हूँ।

रविवार, 7 जनवरी 2018

मल्हार की मौर्यकालीन अद्भुत विष्णु प्रतिमा

मल्हार नगर छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में अक्षांक्ष 21 90 उत्तर तथा देशांतर 82 20 पूर्व में 32 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। बिलासपुर से रायगढ़ जाने वाली सड़क पर 18 किलोमीटर दूर मस्तूरी है।
मल्हार की मौर्यकालीन अद्भुत  विष्णु प्रतिमा 
वहां से मल्हार, 14 कि. मी. दूर है। मस्तुरी पहुंचने पर मल्हार जाने वाले मार्ग पर एक बड़ा द्वार बना हुआ है और यहीं से तारकोल की इकहरी सड़क मल्हार की ओर जाती है।

पुरातात्विक दृष्टि से मल्हार महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ कई एकड़ में फ़ैला हुआ मृदा भित्ति दुर्ग भी है। मल्हार के मृदा भित्ती दुर्ग (मड फ़ोर्ट) सर्वप्रथम जिक्र जे. डी. बेगलर ने 1873-74 के अपने भ्रमण के दौरान किया। परन्तु उन्होने इस मड फ़ोर्ट में विशेष रुचि नहीं दिखाई। उन्होने इस शहर में मंदिरों के 2 खंडहरों का जिक्र किया।

के. डी. बाजपेयी मानते हैं कि पुराणों में वर्णित मल्लासुर दानव का संहार शिव ने किया था। इसके कारण उनका नाम मलारि, मल्लाल प्रचलित हुआ।

यह नगर वर्तमान में मल्हार कहलाता है। मल्हार से प्राप्त कलचुरीकालीन 1164 ईं के शिलालेख में इन नगर को मल्लाल पत्त्न कहा गया है। इस तरह यह छत्तीसगढ़ का प्रमुख पुरातात्विक स्थल है।

एक अद्भुत प्रतिमा यहाँ के संग्रहालय में है। जिसे अध्येता विष्णु की प्रतिमा बताते हैं। जिसके एक हाथ से सीधी तलवार दबाई हुई है, शीष पर टोपी और कानों में कुंडल के शीश के बगल में चक्र दिखाई देता है।

पोषाक बख्तरबंद जैसी है तथा पैरों में लम्बे जूते (गम बूट) हैं। इस प्रतिमा के नाम निर्धारण पर गत संगोष्ठी में विवाद की स्थिति उत्पन्न थी, कुछ इसे विष्णु प्रतिमा मानते हैं, कुछ नहीं।

वैसे यह प्रतिमा किसी युनानी योद्धा जैसे दिखाई देती है। यह खोज एवं अध्ययन का विषय भी है। अगर किसी ने ऐसी प्रतिमा कहीँ और देखी हो तो बताईए।

शनिवार, 6 जनवरी 2018

हमारा राष्ट्रीय पक्षी मोर और मौर्य सम्राट

पंख झाड़ चुका मोर, यह चित्र मध्य नवम्बर माह में पुष्कर राजस्थान के पास अजयपाल के मंदिर के समीप का है। इस समय मोर अपने सारे पंख झाड़ चुका था और नए पंख निकल रहे थे। 

वैसे वर्ष में एक बार अगस्त माह के आस पास मोर अपने सारे पंख झाड़ देता है और ग्रीष्म काल आते तक उसके सारे पंख पुन: आ जाते हैं। मोरनियों को रिझाते समय नृत्य के दौरान भी इसके पंख टूट जाते हैं।

प्राचीन काल से ही लोक के लिए मोर महत्वपूर्ण पक्षी है, चंद्रगुप्त का साम्राज्य का चिन्ह ही मोर था और इसलिए वे मौर्य कहलाए। चंद्रगुप्त के सिक्कों पर मोर चिन्ह का अंकन होता था। वैसे मोर को तंत्र से अधिक जोड़ा गया है। धन समृद्धि के लिए मोर पंख को घर में रखना बताया गया। पौराणिक ग्रंथों में देवताओं ने मोर को विशेष स्थान दिया। 

इन्द्र देव का मोरपंख के सिंहासन पर बैठना, कृष्ण का अपने मुकुट पर मोरपंख को स्थान देना, यहां तक पौराणिक काल में महर्षियों द्वारा इसी मोरपंख की कलम बनाकर बड़े-बड़े ग्रंथ लिखना आदि कुछ ऐसे मुख्य उदाहरण हैं, जो #मोरपंख की उपयोगिता का स्वत: बखान करते हैं।

बौद्धधर्म के अनुसार मोर अपनी पूंछ फैलाकर अपने सारे पंखों को खोल देता है, इसलिए उसके पंख खुलेपन अर्थात जहां विचारों की कमी ना हो, व्यक्तियों के दिल में हर किसी के लिए प्रेम और सानिध्य हो, जैसे हालातों को दर्शाते हैं। 

ईसाई धर्म में मोर के पंख, अमरता, पुनर्जीवन और अध्यात्मिक शिक्षा से संबंध रखते हैं। इस्लाम धर्म में मोर के खूबसूरत पंख जन्नत के दरवाजे के बाहर अद्भुत शाही बगीचे का प्रतीक माने जाते हैं। 

तांत्रिक क्रियाओं में भी मोर पंख का उपयोग होता है, मोरपंखी से झाड़ा देकर नकारात्मक शक्तियों को दूर किया जाता है, सुख समृद्दि एवं #वशीकरण में मोर पंख को उपयोगी माना गया है। 

दिगम्बर जैन साधु मोर पंख का चंवर अपने साथ रखते हैं। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मोर के माध्यम से देवताओं ने संध्या नाम के असुर का वध किया था। 

पक्षी शास्त्र में मोर और गरुड़ के पंखों का विशेष महत्व बताया गया है। कहते हैं कि सही विधि से मोर पंख को घर में स्थापित किया जाए तो वास्तु दोष दूर होते हैं और कुंडली के सभी नौ ग्रहों के दोष भी शांत होते हैं। अपने गुण एवं विशेषताओं के कारण मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी भी है।

शुक्रवार, 5 जनवरी 2018

प्राचीन काल के शिल्प में शय्या/खाट अंकन

प्राचीन शिल्प में विश्राम हेतु बाजवट/खाट या शय्या प्रयोग दिखाई देता है। खाट या शय्या का मनुष्य के दैनिक जीवन में कब से प्रवेश हुआ, इसकी जानकारी तो स्पष्ट रुप से नहीं है, परन्तु शिल्पांकन में अवश्य दिखाई देती है।  
खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर की भित्ति शिल्पांकन में शय्या।
भूमि पर शयन करने से जहरीले कीटों के दंश का भय रहता है। इसलिए भूमि से कुछ दूरी बनाकर शयन करने के लिए शय्या का निर्माण हुआ। शय्या निर्माण करने वाले वर्धकी (बढ़ई) का उल्लेख कई स्थानों पर आता है।

मनुष्य अपने जीवन का एक तिहाई समय शयन कक्ष में व्यतीत करता है। इस बात को प्राचीन काल के मनुष्यों ने पहचाना, सुरक्षित एवं भय रहित निद्रा लेने के लिए उपयुक्त लकड़ी की पहचान की। 

प्राचीन काल में काष्ठ शय्या बनाने के लिए बहुत सावधानी बरती जाती थी। विशेषत: हारिद्र, देवदारु, शाल, चंदन, स्यंदन के काष्ठ का प्रयोग शय्या निर्माण में किया जाता था तथा काष्ठ की गुणवत्ता पर विशेष ध्यान रखा जाता था। 

वृहत संहिता ग्रंथ कहता है कि शय्या के लिए काष्ठ चुनाव करते समय विशेष ध्यान रखा जाता था कि वह किसी ऐसे वृक्ष से न लिया गया हो जो वज्रपात से गिर गया हो, या बाढ़ के धक्के से उखड़ गया हो, या गजों प्रकोप से धूलिलुण्ठित हो गया हो, या वह ऐसी अवश्था में काटा गया था जब वह फ़ूल एवं फ़ल से लदा हो, या पक्षियों के कलरव से मुखरित था, या चैत्य या श्मशान से लाया गया था या सूखी लता से लिपटा हुआ था। उपरोक्त प्रकार के काष्ठ को अमंलकारी माना जाता था तथा इसे गृह के सुकुमार कक्ष में नहीं रखा जाता था। 
कोणार्क के सूर्य मंदिर की भित्ति में शय्या एवं मच्छरदानी अंकन
इससे आगे बढकर वराह मिहिर कहते हैं कि राज्य का सुख गृह है, गृह का सुख शयन कक्ष (कलत्र) एवं शयन कक्ष का सुख सुकोमल मंगलजनक शय्या है, इसलिए शय्या को गृह का मर्म स्थल माना गया है। चंदन काष्ठ की शय्या सर्वोत्तम मानी गई है। 

मिश्रित काष्ठ से शय्या निर्माण के प्रति भी विशेष सावधानी बरती गई है। तिंदुक, शिंशपा, देवदारु एवं असन के काष्ठ अन्य वृक्षों के काष्ठ के साथ नहीं मिलाए जाते थे। शाल एवं शालक शुभ माने गए परन्तु चार से अधिक काष्ठों का मिश्रण सही नहीं माना गया। 

शय्या में गजदंत लगाना शुभ माना जाता था, गजदंत का पत्र काटना बड़ा सावधानी का कार्य माना जाता था। गजदंत पत्र को काटते समय भिन्न भिन्न चिन्हों से मंगल एवं अमंगल काअनुमान किया जाता था। खाट के पायों में छेद या गाँठ बहुत अशुभ समझे जाते थे। 

गरुड़ पुराण में पुरोहित को दान करने के लिए खाट का सुंदर वर्णन किया गया है, उसमें दान के लिए शीशम की सोने चांदी की झालर से अलंकृत एवं कोमल रेशम के तंतुओं से बुनी हुई खाट ही उपयुक्त मानी गई है। इस प्रकार एक सुख एवं मंगलकारी खाट का निर्माण कठिन समस्या ही हुआ करती थी। 

कोणार्क के सुर्य मंदिर की एक प्रतिमा में जोड़े को सुंदर खाट पर मिथुनरत दिखाया गया है। इस खाट की पाटियां सुंदर पत्रावलियो एवं बेलबूटों से अलंकृत है तथा मच्छरदानी (कीट रक्षिका) का प्रयोग भी दिखाई देता है। शिल्पकार ने अपने शिल्प में दिखाया है कि तत्कालीन समय में लोग मच्छरदानी का प्रयोग करते थे। मच्छरदानी भी सुंदर सूत्र के गुच्छों से अलंकृत दिखाई देती है तथा उसके उपर दो चूहे भी घूमते दिखाई दे रहे हैं। यह शिल्पांकन का सबसे सुंदर पक्ष है। 
गंडई छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिर में शय्यारत स्त्री का शिल्पांकन।
वृहत संहिता से यह भी पता चलता था कि सभी व्यक्तियों के लिए एक जैसी खाट या शय्या का निर्माण नहीं होता था। भिन्न भिन्न पद एवं मर्यादा के व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न नाप की खाट बनती थी तथा शय्या के कुर्च थान (सिरहाने) पर व्यक्ति के इष्ट देव की कलात्मक प्रतिमा रखने का भी चलन था तथा खाट को पुष्पों से अलंकृत भी किया जाता था। 

वर्तमान में इस ज्ञान का लोप हो गया। अब इस प्रकार के काष्ठ ही नहीं बचे कि शास्त्रों में निर्धारित किए गए मानों के आधार पर खाट का निर्माण हो।

गुरुवार, 4 जनवरी 2018

प्राचीन प्रतिमा शिल्प में अंकित तत्कालीन स्त्री मनोविनोद

प्राचीनकाल के मंदिरों की भित्ति में जड़ित प्रतिमाओं से तत्कालीन सामाजिक गतिविधियाँ एवं कार्य ज्ञात होते हैं। शिल्पकारों ने इन्हें प्रमुखता से उकेरा है। इन प्रतिमाओं से तत्कालीन समाज में स्त्रियों के कार्य, दिनचर्या एवं मनोरंजन के साधनों का भी पता चलता है।  
कंदुक क्रीड़ा कर मनोविनोद करती त्रिभंगी मुद्रा में नायिका : खजुराहो 
जिस तरह तेरहवीं शताब्दी के कोणार्क के सूर्य मंदिर में हाईहिल सेंडिल (खड़ाऊ) पहने युवती की प्रतिमा दिखाई देती है, यह उस जमाने बड़ी बात है। तेरहवीं सदी में स्त्री द्वारा ऊंची एड़ी की खड़ाऊ धारण करना क्रांतिकारी ही माना जाएगा। अभी तक तो पुरुषों द्वारा ही खड़ाऊ धारण की जाती थी। 

पाश्चात्य युरोप के देशों में भी सोलहवीं सदी तक स्त्रियों द्वारा ऊंची एड़ी के जूते धारण करने की शुरुवात भी नहीं हुई थी। इससे एक बात तो निकल कर सामने आती है कि स्त्रियों को इस सदी तक पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे तथा पुरुष उनके आदेश की अवहेलना नहीं कर सकते थे। 
मुक्तेश्वर मंदिर भुवनेश्वर की भित्ति में अंकित कंदुक क्रीड़ा कर मनोविनोद करती नायिका।
राजा लांगुल नृसिंह देव ने अपने खजाने से सूर्य मंदिर निर्माण करने का आदेश स्वमाता से ही पाया था और उसने मंदिर निर्माण पर अमल भी किया। प्रतिमाओं से एक बात और निकल कर सामने आती है कि स्त्रियों परदा नहीं करती थी। किसी भी प्रतिमा में परदा या घुंघट दिखाई नहीं देता।

प्रतिमा शिल्प की भाव भंगिमा से ज्ञात होता है कि गृहकार्य के पश्चात स्त्रियाँ विविध प्रकारों से मनोविनोद करती थी। पक्षी इस मनोविनोद में प्रमुख सहायक होते थे। 
राधा कृष्ण के नवीन प्रतिमा शिल्प में राधा के कलश में चोंच डालकर जल ग्रहण करता हुआ मयूर।
जैसे शुक सारिका प्रकरण में बताया गया है कि शुक सर्वाधिक प्रिय पक्षी था। किसी प्रतिमा के हाथ पर शुक बैठा है, तो किसी के कंधे पर। किसी प्रतिमा में कटोरे में दाने लेकर सारिका को चुगवाए जा रहे हैं। 

पक्षियों में शुक, सारिका, मयूर, हंस इत्यादि पाले जाते थे। एक प्रतिमा में श्री कृष्ण एवं राधा है, राधा जी के जल कलश में मोर ने चोंच डाल रखी है। बड़ा ही सुंदर चित्रण शिल्पकार ने किया है। 
खजुराहो के कंदारिया महादेव के भित्ति में मनोविनोद एवं अंत:पुर के साथी के रुप में हंस। स्द्यस्नाता स्त्री के केशों से टपकती हुई जल की बूंदों को मोती समझ कर ग्रहण करता हुआ।
एक प्रतिमा में स्त्री अपने केश धोकर निचोड़ रही है और हंस केशों से टपकती जल की बूंदों को ग्रहण करते दिखाई दे रहा है। शुक सारिका का प्रयोग स्त्रियाँ प्रेम संदेश लाने ले जाने में संवदिया के तौर पर करती हुई दिखाई देती है। 

इन शिल्पों में कपोत कहीं दिखाई नहीं देता जिसे पत्रवाहक के तौर पर नियुक्त किया जाता था। कामसूत्र कहता है कि भोजनोपरांत शुक को बुलवाना, लावक चिड़ियों, मुर्गे एवं भेड़ों की लड़ाई मनोविनोद के लिए देखनी चाहिए। इन सब का अंकन प्रतिमा शिल्प में दिखाई देता है। 
उड़ीसा के नवीन प्रतिमा शिल्प में सारिका को चुग्गा चुगाते हुए नायिका।
खजुराहो के एक प्रतिमा शिल्प में त्रिभंगी मुद्रा में स्त्री के हाथ में गेंद दिखाई दे रही है, चेहरे के भावों से दिखाई देता है कि वह कंदुक क्रीड़ा का आनंद ले रही है। 

भुवनेश्वर के मुक्तेश्वर मंदिर समूह के एक अन्य शिल्प में स्त्री के हाथ में टेनिस के बैट जैसी कोई चीज दिखाई दे रही है, उस पर वह गेंद उछाल कर कंदुक क्रीड़ारत है। इससे स्पष्ट होता है कि तत्कालीन समय में स्त्रियाँ गेंद का प्रयोग मनोरंजन के लिए करती थी। 
राजा रानी मंदिर भुवनेश्वर के प्रतिमा शिल्प में सुग्गे के साथ मनोविनोदरत नायिका।
अवदान शतक में पान गोष्ठी में झूल झूलकर मनोविनोद का उल्लेख है। झूला झूलते हुए गीत गाना वर्तमान काल में दिखाई देता है। प्रतिमाओं से स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ शांत प्रकृति के खेल खेलती थी।

इसके अतिरिक्त स्त्रियों के मनोविनोद का आकर्षक अंग वन विहार था। वन विहार के अंतर्गत पुष्प प्रचारिका, दोहद एवं सलिल क्रीड़ा इत्यादि आते हैं। पुष्प प्रचारिका क्रीड़ा में शाल भंजिका का अंकन प्रमुखता से मिलता है। पुष्प तोड़ती प्रसाधिका का उल्लेख भी शिल्पांकन में मिलता है। 
मुक्तेश्वर महादेव भुवनेश्वर की भित्ति में अंकित वीणावादिनी
काव्य प्रकाश ग्रंथ में वृक्ष में पाद प्रहार करना, आलिंगन करना, अन्य कार्य करना दोहद क्रीड़ा के अंतर्गत आता है। ऐसे मनोरंजन के लिए आम्र, कदम्ब, अशोक एवं ताड़ के वृक्ष उपयुक्त माने जाते थे। इसके साथ यह धारणा भी कि नायिका के बाएँ चरण प्रहार के बिना अशोक वृक्ष पुष्पित नहीं होगा। 

सलिल क्रीड़ा में स्त्रियों द्वारा नौका विहार करना, नदी या झरने में स्नान करना तथा जल किलोल करना आता है। इसके लिए राज प्रसादों में पुष्कर्णियों का निर्माण कराया जाता था। तत्कालीन साहित्य में रानी एवं राजकुमारियों द्वारा पुर्णमासी की रात में पुष्करणी स्नान का उल्लेख मिलता है। 
राजा रानी मंदिर भुवनेश्वर की भित्ति में अंकित शाल भंजिका अशोक वृक्ष पर पाद प्रहार करते हुए। तत्कालीन समय में यह धारणा भी कि नायिका के बाएँ चरण प्रहार के बिना अशोक वृक्ष पुष्पित नहीं होगा
वैशाली की नगर वधू में सलिल क्रीड़ा का उल्लेख स्मरण आता है। इसके अतिरिक्त गायन, वादन एवं नृत्य भी मनोविनोद का एक साधन था। प्रतिमा शिल्प में वृक्ष के नीचे वीणा वादन करती स्त्री दिखाई देती है। 

इस तरह प्रतिमा शिल्प के माध्यम से हमें तत्कालीन समाज के मनोविनोद के साधनों की जानकारी भी मिलती है। भले ही वर्तमान में मनोविनोद के साधनों में बदलाव आ गया हो परन्तु मनोविनोद आज भी होता है और भविष्य में भी होता रहेगा। इति स्त्री मनोविनोद प्रकरणम्।

बुधवार, 3 जनवरी 2018

प्राचीन प्रतिमा शिल्प में आखेट अंकन

शिकार द्वारा मनोरंजन वैदिक काल से समाज में विद्यमान रहा है एवं प्राचीन काल के मनोरंजन के साधनों का अंकन मंदिरों की भित्तियों में दिखाई देता है। मंदिरों की भित्तियों में अंकित प्रतिमाओं से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल के समाज में किस तरह के मनोरंजन के साधन प्रचलित थे। देखा जाए तो सभी आयु वर्ग के लिए पृथक मनोरंजन के साधन होते थे। इसमें आखेट भी मनोरंजन का एक साधन था।  
हजारा राम मंदिर हम्पी कर्नाटक की भित्ति में हिरण के शिकार का दृश्य
धनुर्विद्या में क्षत्रिय युवाओं का कुशल होना अत्यंत ही आवश्यक माना जाता था तथा युवा मल्लयुद्ध कला, तीरंदाजी एवं आखेट की ओर अधिक आकर्षित होते थे। क्योंकि तत्कालीन समय की मांग यही थी। मल्ल युद्ध कला से शारीरिक सुदृढता आती थी और तीरंदाजी एक अच्छा सैनिक बनाती थी। तीरंदाजी का अभ्यास करने के लिए आखेट भी आवश्यक ही था, जिस तरह वर्तमान में सुरक्षाबलों के लिए निशानेबाजी का अभ्यास चाँदमारी में किया जाता है। 
हजारा राम मंदिर हम्पी कर्नाटक की भित्ति में अंकित शुकर शिकार का दृश्य।
ललित विस्तर में युवाओं के रंगमंडल का उल्लेख मिलता है। जहाँ शारीरिक परिश्रम वाले खेलों का आयोजन होता था। युवाओं में शक्ति अधिक होने के कारण कूदने फ़ांदने एवं दौड़ने वाले खेलों में रुचि लेते थे। जिससे शारीरिक व्यायाम भी हो जाता था। 
विश्वनाथ मंदिर खज्रुराहो की भित्ति में अंकित हिरण के शिकार का दृश्य।
धनुर्विद्या का सामान्यत: किशोरो में अधिक आकर्षण होता था। पौढ शिकार हेतु जंगल में जाया करते थे, इसका उल्लेख तत्कालीन साहित्य में भी मिलता है। मांस के लिए शिकार करना आम बात थी, परन्तु राजा सेना सहित शिकार के लिए वन गमन करते थे। 
स्वान सहित दो लोग मिलकर एक बड़े शुकर का शिकार कर रहे हैं।
मंदिरों में स्थापित प्रतिमाओं से ज्ञात होता है कि सामन्यत: शुकर एवं हिरण प्रजाति का शिकार किया जाता था। इसके मांस के प्रति लोगों का अधिक आकर्षण था। जब कोई शेर या बाघ आदमखोर हो जाता था तो प्रजा एवं पशुधन की रक्षा के लिए राजा को उसका शिकार करना पड़ता था। इसके लिए हांका कर सामुहिक आखेट की व्यवस्था की जाती है। 
विरुपाक्ष मंदिर हम्पी कर्णाटक की भित्ति में शेर को हिरणो का शिकार करते दिखाया गया है।
तत्कालीन समय में शेर का आखेट रोमांच के लिए किया जाता है। खजुराहो के कंदारिया महादेव मंदिर की भित्ति में एक बड़े शुकर का शिकार कई लोग मिलकर करते दिखाई दे रहे हैं, जिसमें उनका स्वान विशेष रुप से सहभागी है। प्रतिमा शिल्प से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समय में आखेट भी समाज के मनोरंजन का एक प्रमुख साधन रहा है।

मंगलवार, 2 जनवरी 2018

प्राचीन भारतीय मूर्तिकला में केश विन्यास एवं अलंकरण

सौंदर्य के प्रति मानव प्राचीन काल से ही सजग रहा है, देह के अलंकरण में उसने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी एवं नख सिख से लेकर गुह्यांग तक अलंकरण करने के लिए नवोन्मेष किए। सौंदर्य वृद्धि के लिए किए गए भिन्न भिन्न अलंकरण हमें तत्कालीन प्रतिमा शिल्प में दिखाई देते हैं।  
क्या मुखड़ा देखे दर्पण में…… सर्वांग अलंकृत स्त्री - राजा रानी मंदिर भुबनेश्वर उड़ीसा।
पुरुष एवं स्त्री दोनो ही सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग करते दिखाई देते हैं। जिनमें केश सज्जा एवं आभुषण अलंकरण प्रमुख है। मोहन जोदड़ो से लेकर वर्तमान तक केश विन्यास की कलाकारी दिखाई देती है। आर्य सभ्यता जब अपने उत्कर्ष पर थी तब से लेकर वर्तमान तक भारतीय कवियों, चित्रकारों एवं शिल्पकारों ने केश विन्यास को प्रमुखता से प्रदर्शित किया है। 

पुरुषों में स्त्रियों की तरह लम्बे केश रखने की प्रथा थी, जिसका वे भिन्न भिन्न प्रकार से अलंकरण करते थे। श्रमशु (दाढी) एवं मूंछ युक्त चेहरे भी शिल्प में दिखाई देते हैं। जिसमें छोटी दाढी एवं लम्बी दाढी का प्रचलन दिखाई देता है, लहरदार तनी हुई तलवारी मूंछे भी प्रचलन में रही है। 
चित्र में दाढी एवं मूंछ युक्त पुरुष ने जूड़ा बांधकर उसे पुष्पादि से अलंकृत किया है। चित्र - खजुराहो।
देवाकृतियों में छोटी एवं लच्छेदार घुंघरवाली दाढी भी दिखाई देती है। पुरुषों में कई प्रकार के केश विन्याश का प्रचलन था। खुले केश, टोपीदार जूड़ा, एवं गेंदनुमा जूड़ा प्रतिमा अलंकरण में दिखाई देता है।  

स्त्रियाँ अपने केशों के प्रति सदा से सजग रही हैं, लम्बे केश सौंदर्य के प्रतिमान माने जाते थे। उन्हें भिन्न प्रकार से जूड़े में गूंथ कर पुष्पादि एवं चिमटियो से अलंकृत किया जाता था तथा बालों के बिठाकर विभिन्न आकृतियां प्रदान करने के लिए मैन (मोम), गोंदादि के प्रयोग का भी उल्लेख मिलता है। 

केश प्रक्षालन के पश्चात उसे सुगंधित धुम्र से सुवासित किया जाता था, उसके बाद जूड़ा गुंथा जाता था। केश संवारने के लिए कई तरह की कंघियों का प्रयोग होता था। उत्खनन में हाथी दांत की कंघियां हमें मिलती हैं। जिन्हें अलंकृत किया जाता था। बिहारी कवि कहते ने केश सौंदर्य का वर्णन करते हुए कहा है कि 

कच समेटि करि भुज उलटि, खए सीस पट डारि।
काको मन बाँधै न यह, जूडो बाँधनि हारि॥ 
पुष्पादि एवं मैन से अलंकृत केश - खजुराहो
समय के साथ बाल बांधने एवं जूड़े की सजावट में परिवर्तन होता रहा। सिंगारपट्टी झुमर आदि आभुषणों को बालों में गूंथ कर शिरोधार्य करने का चलन भी प्रतिमा शिल्प में दिखाई देता है। 

मौर्यकाल से लेकर गुप्तकाल तक प्रतिमा शिल्प में जूड़ा बांधने का चलन दिखाई देता है। उसके पश्चात गुंथित वेणी का चलन दिखाई देने लगा एवं चोटी अधिक लोकप्रिय हो गई। कवियों ने इसे नागिन की उपमा दे डाली और नायिका सौंदर्य वर्णन में कई स्थानों पर नागिन सी लहराती वेणी का उल्लेख मिलता है… 

लटकति ललित पीठ पर चोटी, बिच-बिच सुमन सँवारी।
देखे ताहि मैर सो आवत, मनहुँ भुजंगिनी कारी॥
कोणार्क की भित्ति में स्थापित पुरुष प्रतिमा का केश विन्यास
उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में केश विन्यास अधिक भव्य दिखाई देता है। प्रतीत होता है कि दक्षिण भारत में केश सज्जा एक कला के रुप में विकसित हुई। प्राचीनकाल में सारनाथ मथुरा सहित उत्तर भारत में अलकावलि, मयुरपंखी आदि प्रकार के केश विन्यास प्रचलित थे। 

अलकावलि विधि में बालों को घुंघराले बनाकर गर्दन एवं माथे पर छोड़ दिया जाता है। मयुरपंखी में बालों को केवड़े इत्यादि के पत्रों से अलंकृत कर इस प्रकार से बांधा जाता था कि मयुर पंख का आभास होता था। अहिक्षत्र का अर्थ है सर्प का फ़न। बालों के जूड़े को शीश के मध्य इस तरह से बांधा जाता था जिससे सर्प के फ़न का भान होता था। 

इन प्रतिमा शिल्पों को देखने ज्ञात होता है कि भारतीय नारियों को केश विन्यास कला का अच्छा ज्ञान था। आप मंदिरों की भित्तियों में जड़ी हुई अप्सराओं एवं देव प्रतिमाओं के केश विन्यास पर ध्यान देंगे तो आपको सभी में भिन्नता दिखाई देगी। परन्तु काल के अनुसार केश विन्यास का चलन एक सा दिखाई देता है। 

वर्तमान में भी केश विन्यास के प्रति स्त्री एवं पुरुषों दोनों में जागरुकता दिखाई देती है। समय एवं काल के अनुसार केश विन्यास एवं अलंकरण में परिवर्तन होता रहता है, परन्तु सलीके से संवारे हुए केश सौंदर्य वृद्धि करने में कोई कसर नहीं रखते। 
सर्वांग सुंदर अलंकरण का पार्श्व - खजुराहो
स्त्री पुरुष सौंदर्य अलंकरण वृहद विषय है, इस पर जितनी चर्चा की जाए कम है। आशा है कि अब आप जब किसी प्राचीन मंदिर के दर्शन करने जाएँगे तो वहाँ स्थापित प्रतिमाओं के केशादि अलंकरण पर अवश्य ध्यान देंगे।

सोमवार, 1 जनवरी 2018

हिन्दी ब्लॉगिंग : दशा एवं दिशा

अरसे से मृतप्राय ब्लॉगजगत को एक बार पुनः जीवन देने का आह्वान पुराने ब्लॉगरों ने फेसबुक के माध्यम से किया। इस आह्वान पर कुछ ब्लॉगरों ने ध्यान दिया और एक जुलाई को पोस्ट भी लगाकर श्रीगणेश भी किया। मेरे व्यक्तिगत संकलक के हिसाब से चौबीस घंटों में 70 ब्लॉग अपडेट भी हुए।

कुछ ब्लॉगरों ने ब्लॉग का इतिहास सा लिख डाला तथा इसके पतन के कारणों का उल्लेख भी अपनी समझ के अनुसार किया। जब ब्लॉगिंग के मेरे प्रारंभिक दिन थे तब पचीस पचास कमेंट के साथ सौ हिट्स दिखाई देती थी। 

कालांतर में ब्लॉगिंग का पतन का दौर प्रारंभ हुआ। मठ धराशाई हुए और मेरे मायने में लोग ब्लॉगिंग की मठाधीशी एवं उसकी बंद दुनिया से निकल कर फेसबुक के उन्मुक्त वातावरण में आकर रम गये और ब्लॉग पर नहीं लौटे। 

हमारे से ब्लॉग की दुनिया नहीं छूटी, जब भी समय मिला पोस्ट लगी और फेसबुक ने एग्रीगेटर का काम निभाया, नये पाठक मिले। कभी कभी तो हिट्स का आंकड़ा चौबीस घंटे में पांच हजार से अधिक पहुँच जाता है। भले ही कमेंट न आए पर ट्रैफिक देखकर आत्मिक संतोष होता है। 

ब्लॉग जगत की उलझनों से छुटकारा मिलने के बाद लेखन का स्तर भी सुधरा, उसे भी दिशा मिली वरना राजनीतिक, नर-नारी, हिन्दू-मुस्लिम आदि विवाद चित्त को स्थिर नहीं होने देते थे। 

लेखन को नई दिशा मिलने के बाद ब्लॉग पर कभी ट्रैफिक की कमी नहीं रही और ब्लॉगिंग अद्यतन निरंतर जारी है। इदं नमं के भाव से पोस्ट करने के बाद पाठकों का आना प्रारंभ हो जाता है। जिसमें फेसबुक एवं ट्विटर की महती भूमिका है।

अगर पीछे मुड़कर देखुं तो ब्लॉगिंग को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया मठाधीशी ने। चिट्ठाचर्चा ब्लॉग ने अपने चमचों की बड़ाई की, उनकी पोस्ट का लिंक लगाया एवं उसे दूसरे गुट के किसी भी ब्लॉगर की खिल्ली उड़ाने एवं मानमर्दन करने का मंच बना लिया। 

जहाँ गुरुदेव-गुरुदेव कर चरणचंपी करने वाली नई नस्ल आई वहीं चरण पखरवाने वाले गुरुदेव अपने को किसी अखाड़े के परमहंस मठाधीश से कम नहीं समझने लगे। यही विवाद ब्लॉगिंग की जड़ में मठा डालने का काम करते रहे। 

जगजाहिर है गुट बनाकर एक दूसरे की टांग खिंचाई एवं गिरोहबाजी ब्लॉगिंग की अकाल मृत्यु का कारण बनी। अगर व्यर्थ की टांग खिंचाई और मठाधीशी से परे रहते तो ब्लॉगिंग अभी अपने उत्कर्ष पर रहती। 

अब दो दिनों से पुनः हल्ला हो रहा है ब्लॉगिंग की ओर चलो। हम तो यहीं थे, कहीं नहीं गये और हमारा ब्लाॅग भी अपडेट होते रहा। हाँ यही ब्लॉगिंग की ओर चलो का नारा देने वाले ब्लॉग पर नहीं थे। 

मुझे नहीं लगता कि ब्लॉगिंग के वह दिन फिर लौटेंगे। सभी अघा चुके हैं और फेसबुक ब्लॉगिंग का आनंद ले चुके हैं, यहाँ सभी के अपने अपने मठ हैं और खुद मुख्तयार हो चुके हैं ऐसे में जमी जमाई दुकानदारी से स्थानांतरित होना महंगा ही पड़ेगा। 

हाँ थोड़ा बहुत समय ब्लॉग को दिया जा सकता है। ऐसा भी नहीं है कि ब्लॉगरों का तोड़ा पड़ गया है, नये ब्लॉगर भी आ रहे हैं और उनकी ब्लॉगिंग चालु है। पुराने ब्लॉगरों के आह्वान पर एक एक पोस्ट तो लोगों ने चेप दी है अब देखते हैं बासी कढी में कितना उफान आता है।