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शनिवार, 30 अप्रैल 2011

छत्तीसगढ़िया ब्लागरों के दल का दिल्ली में जोरदार स्वागत

संजीव तिवारी, पवन चोटिया,अल्पना देशपांडे,ललित शर्मा,सुनीता शानू, शाहनवाज सिद्धकी, बी एस पाबला, दिनेश राय दिवेदी, खुशदीप सहगल, जी के अवधिया, सतीश सक्सेना.
 आरम्भ से पढ़ें  छत्तीसगढ़िया ब्लागरों का दल दिल्ली पहुँच चुका है. सुबह निजामुद्दीन पहुँचने पर मित्रों द्वारा जोरदार स्वागत किया गया. आतिशबाजी के साथ धमाल बैंड पार्टी ने रंग जमा दिया. अविनाश वाचस्पति जी ने फोन पर स्वागत करते हुए ठहरने के स्थान का पता बताया. हम सभी मित्रों के आभारी है.

गर्मी के इस मौसम में  सभी की इच्छा होती है कि हिल स्टेशन पर जा कर कुछ ठण्ड का मजा लें. हम सभी भी ( बी.एस.पाबला जी, संजीव तिवारी जी, अल्पना देशपांडे जी, जी.के. अवधिया जी एवं मै) हिल स्टेशन (पहाड़गंज) पहुँच कर एक होटल में ठहर गए.

सुनीता बहन ने स्नेह पूर्वक फोन करके अपने घर आने का निमंत्रण दिया, सिर्फ यही नहीं वे होटल स्वयं लेने भी आई, पवन जी ने बहुत पहले ही दिल्ली आने पर घर आने का निमंत्रण दिया था. जिसे स्वीकार करते हुए, हम सब उनके यहाँ पहुच चुके हैं. दिनेश राय दिवेदी जी कल से ही दिल्ली आ चुके हैं.उनके साथ खुशदीप सहगल, शाहनवाज सिद्धकी जी , सतीश सक्सेना जी भी सुनीता शानू जी के घर हम लोगों से मिलने के लिए पहुचे.कुछ ही देर में हम हिंदी भवन के लिए रवाना हो रहे है. महफूज अली, गिरीश बिल्लोरे, संगीता पुरी जी फोन से संपर्क में हैं. आगे पढें 

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

फ़िर वही दिल लाया हूँ --- ललित शर्मा

सुबह हो चुकी है,दिल्ली जाने वाली सवारियाँ चल पड़ी है। मित्रों से मिलने की खूशी में रात नींद कम ही आई। मिलते हैं कल सुबह दिल्ली में। जहाँ सजेगी महफ़िल दीवानों की, दिलवालों की। हम भी दिल ही लाए हैं आपके लिए। नकली नहीं, असली धड़कता हुआ दिल। जरा कान लगाएगें तो स्पंदन सुनाई देगा। इसका दुर्लभ  चित्र हमने ही कल सुबह लिया है।

अब चलते हैं और मिलते हैं ब्रेक के बाद सुबह निजामुद्दीन के नुक्कड़ पर, जहाँ होंगे अविनाश वाचस्पति जी, पवन-चंदन जी, अजय झा जी, राजीव तनेजा जी, पद्म प्रतापसिंह, खुशदीप सहगल और भी जाने माने ब्लॉगर मित्र।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

दिल्ली जाने वाले यात्री अपनी सीट संभाल लें --- ललित शर्मा

घड़ी की टिक-टिक के साथ वह घड़ी भी समीप आ रही है जब परिकल्पना साकार होगी, जब ब्लॉगोत्सव महाकुंभ दिल्ली में ब्लॉगर आभासी दुनिया से बाहर निकल कर आपस में स्नेह भाव से भेंट करेंगे। छतीसगढ से दिल्ली जाने वाला स्पेसयान लांचिग प्लेटफ़ार्म पर तैनात कर दिया गया है। मुख्य पायलट बी एस पाबला जी ने को-पायलट जी के अवधिया के साथ स्पेसयान लांच करने की सभी प्रारंभिक तैयारियां पूरी कर ली है, उल्टी गिनती चालु है, दिल्ली पहुंचने वाले यात्री अपनी सीट संभाल लें, फ़िर न कहना कि जादू नहीं दिखाया। हम भी तैयार हैं, हिन्दी भवन भी तैयार होकर खुशदीपों का आलोक प्रसारित कर रहा है। 21 मई से पहले हमने भी सोचा कि ब्लॉगर मित्रों से मिल ही लें, जादू की जप्फ़ी पा लें, यारां नाळ रज्ज के मिलना और मिल कर आनंद लेना, यही जीवन का उद्देश्य है।

ब्लॉग इतिहास रचा जा रहा है। जिसका साक्षी होना मेरे लिए और मित्रों के लिए गर्व की बात है। अल्लामा इकबाल ने कहा है – “हमे भी याद रखना जब लिखें तारीख़ गुलशन की”। जब अल्लमा इकबाल इतिहास में दर्ज होना चाहते हैं तो ब्लॉगर तो विशुद्ध ब्लॉगर ठहरे, कौन ब्लॉगर कम है, जिन्होने इतिहास बनाया है, वे इतिहास लिखेंगे और इतिहास में दर्ज भी होगें। परिकल्पना साकार होकर मूर्त रुप ले रही है। जिसका समय को इंतजार था कि ब्लॉगिंग पर कुछ सार्थक कार्य हो। वह अब होने जा रहा है। जिस पर ब्लॉग जगत को गर्व होगा। सभी मित्रों को परिकल्पना ब्लॉगोत्सव द्वारा खुला आमंत्रण है। संगीता पुरी जी झारखंड से दिल्ली के लिए चल पड़ी हैं।

छतीसगढिया यात्रा दल स्पेसयान के साथ
कुछ चीलगाड़ी में भी आएगें, कुछ अपने वाहनो से, कुछ सरकारी वाहनों से। हमने सोचा कि जब देश के विज्ञानियों ने बहुत तरक्की कर ली है अब ब्लॉगर कुंभ स्पेशल स्पेशयान से ही पहुंचा जाए। खुब जमेगा मेला जब मिल बैठेगें दीवाने ब्लॉगर। पिछले समय ब्लॉगर मिलन का अपुर्व आनंद आया। उसका अहसास ही गुंगे के गुड़ जैसा है। हमारा स्पेस शटल लैंड करेगा पवन चंदन जी की चौखट पे। वहीं से आगे का कार्यक्रम तय किया जाएगा। चौखट के लिए स्पेसयान रायपुर से चलेगा जिसमें हम, अल्पना देशपाण्डे जी, जी के अवधिया जी सवार होगें। उसके पश्चात दुर्ग से संजीव तिवारी जी सवार होगें। भाई अशोक बजाज जी अपने लाल बत्ती वाले यान में पहुंचगें। सुबह के नास्ते में इडली का स्वाद लिया जाएगा राजनांदगाँव में, दोपहर का खाना नागपुर में होगा। जहाँ सूर्यकांत गुप्ता जी मौजूद रहेगें। शाम को घोड़ा डोंगरी में चाय का इंतजाम है ससुराल वालों ने, उसके पश्चात रात का खाना भोपाल से प्रारंभ होगा जो बीना तक चलेगा। बीना में आधा घंटा चहल कदमी करके स्वास्थ्य का ध्यान रखा जाएगा और वहीं से जबलपुरिया साथियों का स्पेश शटल गिरीश बिल्लौरे के नेतृत्व में इसी स्पेशयान से जुड़ जाएगा।

जबलपुरिया शटल
दिल्ली बहुत दूर है उनके लिए, जिन्होने अपने दिल के दरवाजे बंद कर रखे हैं। दिल्ली के लिए दिल के दरवाजे खूले रखना आवश्यक है। यह बात तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फ़र्नांडीज ने अच्छी तरह समझी थी। उन्होने कृष्ण मेनन बंगला नम्बर 3 के दरवाजे ही उखड़वा दिए थे। ताकि कोई भी बेरोकटोक प्रवेश कर सके। हमारे पास बंगला तो नहीं है दिल्ली में, पर दिल जरुर है, उनकी सीख काम आई और दिल की चौखट से किवाड़ ही निकलवा दिए हमने। तभी न दिल्ली में ब्लॉगर मित्र खुले दिल से मिलते हैं और हर मुलाकात अविस्मरणीय होती है। खटाखट कैमरे चलते हैं, धड़ाधड़ पोस्ट लिखी जाती हैं, ब्लॉग जगत को पल-पल की सूचना दी जाती है। जिसे देख के किसी भी वी वी आई पी कहाने वाले को ईर्ष्या हो सकती है, कहने का मतलब यह है कि रज्ज के मजा लिया जाता है और हिन्दी ब्लॉगिंग के विकास पर गंभीर सार्थक चिंतन किया जाता है।

जब रविन्द्र प्रभात जी ने परिकल्पना उत्सव प्रारंभ किया था तो हमने भी नहीं सोचा था कि यह ब्लॉग़िंग के इतिहास में मील का पत्थर बनने जा रहा है। ब्लॉगोत्सव ने सफ़लता के झंडे गाड़ दिए। अविनाश वाचस्पति जी, रश्मि प्रभा जी एवं रणधीर सिंह सुमन जी, जाकिर अली “रजनीश” भी परिकल्पना उत्सव में सक्रीय सहभागी रहे, ब्लॉगत्स्व समिति में मुझे भी स्थान दिया गया। रविन्द्र जी गत कई वर्षों से ब्लॉग़ विश्लेषण कर रहे हैं। नए-पुराने सभी ब्लॉग पर उनकी पैनी नजर रह्ती है। यह श्रम साध्य कार्य्र है, एग्रीगेटर बंद होने से यह कार्य और भी कठिन हो गया है। तब भी ब्लॉग समीक्षा का कार्य निरंतर जारी है। ब्लॉग इतिहास पर पहली पुस्तक एवं हिन्दी ब्लॉगिंग अभिव्यक्ति की नई क्रांति का प्रकाशन किया गया है, इनका विमोचन भी कार्यक्रम के दौरान होना है।ब्लॉगोत्सव की पूरी टीम को साधुवाद।

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

पांडे के पोथी पतरा अऊ पंडियाईन के मुखगरा -- ललित शर्मा

सुबह-सुबह कम्प्युटर का बटन दबा कर अंतरजाल से जुड़े ही था कि श्रीमती जी ने टेबल पर सरोता ला कर रख दिया। हम सरोता देखते ही समझ गए कि आज कैरियाँ जिबह करनी पड़ेगीं अचार के लिए। साथ ही उन्होने कह दिया कि पेड़ से कैरियाँ भी तोड़नी पड़ेगीं। आदेश का तत्काल पालन किया और दादी ने कैरियाँ तोड़ी उदय ने सायकिल की टोकरी में रख कर घर पहुंचाया। अचार के लिए पेड़ से हाथ से तोड़ी गयी कैरियाँ ही श्रेष्ठ होती है। पेड़ से जमीन पर गिरी हुई कैरियों का अचार सड़ जाता है। इधर मैने सरोता संभाल लिया। मनोयोग से कैरियों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। श्रीमती जी मसाले तैयार करने में जुटी थी। अचार बनाना श्रम साध्य कार्य है। भोजन का मुख्य अंग होने के कारण अचार का प्रचलन सम्पूर्ण भारत में है। लेकिन घर के बने अचार की तो बात ही निराली है। बनाते वक्त सावधानी भी रखनी पड़ती है, नहीं तो फ़फ़ूंद लग कर सड़ने का खतरा निरंतर बना रहता है। बाजार के अचार तो खाने लायक ही नहीं रहते। घर के बने अचार की विशिष्टता यह है कि एक तरह का मसाला डालने के बाद भी अलग-अलग घरों के अचारों में स्वाद का बदलाव पाया जाता है।

एक बार हरिद्वार में हर की पौड़ी के पास मैने एक अचार की दुकान देखी थी। जिसमें तरह-तरह के अचार बरनियों में सजे थे। अचार देखकर लालच आ गया और सोचा कि कुछ अचार ले लिए जाए। आम, नींबू, मिर्च, कटहल, गोभी, करील, केर, गाजर, सिंगरी और भी न जाने कितने तरह के अचार थे। मैने सभी आचार 100-100 ग्राम लिए। वहाँ से मुझे मसूरी तक की यात्रा करनी थी। रास्ते में अचार का स्वाद लिया जाएगा सोच कर बैग के हवाले किया और चल पड़े। द्रोणाचार्य गुफ़ा (झंडु नाला) के पास बैठ कर सभी अचारों का स्वाद लिया। किसी भी अचार में पृथक स्वाद नहीं मिला। सब में एक जैसा ही स्वाद था। पूरा मजा किरकिरा हो गया। तब जाकर घर के अचार का महत्व समझ में आया। घर के बने अचार के तो कहने ही क्या हैं।

कल 25 अप्रेल का दिन था, इस दिन वैवाहिक बंधन में बंध कर स्वेच्छा से अपनी स्वतंत्रता को खोया था  कुछ बंधन जीवनोपयोगी होते हैं। इसमें वैवाहिक बंधन को पवित्र बंधन माना गया है। वैवाहिक जीवन में आचार और सरोते का बड़ा महत्व है। अचार से ही आचार संहिता बनती है, जिसमें प्रेम, विश्वास, सम्मान, समर्पण, एवं परिवार के प्रति जिम्मेदारियों के निर्वहन का संकल्प इत्यादि मसाले डाले जाते हैं त्तब कहीं जाकर ग़ृहस्थी नामक अचार का निर्माण होता है। जिस तरह किसी राष्ट्र को चलाने के लिए स्वनिर्मित संविधान की प्रमुख भूमिका होती है ठीक उसी तरह गृहस्थी को चलाने के लिए स्वनिर्मित आचार संहिता की भूमिका महत्वपूर्ण है। स्वघोषित आचार संहिता के सहारे बिना किसी विघ्न बाधा के जीवन नैया खेते हुए वैतरणी पार हो सकते हैं।

हाँ! एक बात है सरोता का ध्यान रखना पड़ता है। यह सरोता सिर्फ़ काटने का ही काम करता है, जोड़ने के काम तो इसकी प्रवृति में ही नहीं है। इसका निर्माण काटने के उद्देश्य से ही हुआ है। इसे चलाते वक्त नजर चूकी और यह घायल करने से नहीं चूकने वाला। इस तरह सरोते का प्रयोग करते हुए सावधानी जरुरी है। समाज में सरोते जगह-जगह मिल जाएगें जो अवसर मिलते ही आपके विश्वास को काटने का प्रयत्न करते हैं। इन सरोतों से निपटने के लिए व्यक्ति को अच्छा श्रोता होना जरुरी है। तभी सार्थक चिंतन कर नीर-क्षीर किया जा सकता है। इतिहास गवाह है राम राज में भी ऐसे ही एक सरोते ने सीता की अग्नि परीक्षा कराई थी। सरोते ने अपना काम कर दिया। आगे अब तुम भुगतो। भगवान को भी गहरा संताप सहना पड़ा। सरोते का कुछ नहीं बिगड़ा, वह आज तक चल रहा है, जैसा पहले चला करता था।

सरोते कई तरह के होते हैं, छोटी सरोती से लेकर बड़े सरोते तक मिलते हैं। सुपारी आम काटने वाले से लेकर मधुर संबधों को भी काटने वाले सरोते मिलते हैं। सरोते ऐसा नहीं है कि दाम्पत्य जीवन में ही मिलते हैं वे तो आपको प्रत्येक जगह मिल जाएगें। सरोते को साधकर आचार संहिता का पालन करते हुए अब हमारी गृहस्थी बालिग हो चुकी है। समाज में तरह-तरह के सरोते मिलते हैं, प्राचीन काल का विभीषणी सरोता प्रसिद्ध है, इसने ही अपने भाई रावण का सर्वनाश कराया था। वर्तमान में जयचंदी सरोते चलन में हैं, जो घर परिवार से लेकर देश का सर्वनाश करने पर आमादा हैं। विभीषणी एवं जयचंदी सरोते मौका देखते ही काम कर जाते हैं। पर विडम्बना यह है कि इनसे काम पड़ ही जाता है, घर में ही संभाल कर रखना पड़ता है। आवश्यकता पड़ने पर पड़ोसी भी मांग कर ले जाते हैं, लेकिन वापस कर जाते हैं। घर में रखना खतरे से खाली नहीं है।
सरोते से काम ले लिया। आम काट कर अचार बना लिया। घर में था इसलिए फ़टाफ़ट काम आ गया नहीं तो पड़ोसी से मांग कर लाना पड़ता। श्रीमती जी ने वर्षगांठ की सुबह ही सरोता सामने रख कर चिंतन करने पर मजबूर कर दिया। श्रोता को भी सरोता कहा जाता है। श्रोता वाला सरोता बनने में कोई बुराई नहीं है। अच्छा सरोता सभी पसंद करते हैं, अच्छा सरोता ही उम्दा वक्ता होता है। पांडे के पोथी पतरा अऊ पंडियाईन के मुखगरा, दुनो एकेच होथे। (पंडित जी जो पोथी पत्रा देख कर बताएंगे वह पंडिताईन मुंह जबानी ही बता देती है) क्योंकि पंडिताईन ने सरोता होने का मरम जान लिया है। इनके फ़जल से मैं भी अच्छा सरोता बनने के उद्यम में हूँ। क्योंकि वर्षगांठ पर इससे अच्छा तोहफ़ा कोई दूसरा नहीं हो सकता। आखिर कहना ही पड़ेगा सरोता जिंदाबाद।

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

बगैर मीटर और हेड लाईट की गजल-चलते चलते से लौट कर -- ललित शर्मा

 केवल राम के ब्लॉग चलते चलते से लौट कर बगैर मीटर और हेड लाईट की गजल। कृपया प्रकाश डालें।

जाने वो क्या मजा है पीने पीलाने में
जो एक बार हो आया हो मयखाने में।

वाईज औ पंडित गले मिलते देखे हमने  
दीवानों की महफ़िल जमती मयखाने में

ईश्क हकीकी का मजा मिजाजी न जाने
मयकशी ने ये पैगाम दिया मयखाने में

रफ़ीक भी रकीब जैसे मिलते जहा्न में
रकीब भी रफ़ीक हो गए हैं मयखाने में

"ललित" दीवानगी ले आती रोज यहाँ
वरना क्युं आते सर ए आम मयखाने में

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

लड़की को बदमाशों ने मार दिया पापा----ललित शर्मा

टीवी के कार्यक्रमों का बाल मन पर गहरा असर हो रहा है। इन कार्यक्रमों से बच्चों के क्रियाकलाप भी प्रभावित होते हैं। बच्चों का पूरा समय टीवी देखने में ही लग रहा था। पढाई चुल्हे में गई। हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के दिन मैने टीवी चालु किया। अन्यथा टीवी बंद ही था।  टी वी बंद करने का अनुकूल असर भी बच्चों पर पड़ा। वे पढाई करने लगे थे। डिश तो शुरु नहीं किया पर डी डी वन चालु है।  उदय अभी 8 साल का है, अब वह समझने लगा है, गत दो सप्ताह से टीवी देख रहा है। पहले रात को नौ बजते ही सो जाता था, लेकिन फ़िल्म देखने के लिए रात 12 बजे तक जगा रहता है। कल भी उसने एक फ़िल्म  देखी। आज दोपहर वह फ़िल्म देख रहा था और मैं इधर नेट पर काम कर रहा था। मिस्टर इंडिया फ़िल्म चल रही थी, समीप होने के कारण उसके डायलाग मुझे सुनाई दे रहे थे। तभी अचानक उदय ने टी वी बंद कर दिया और बिजली के प्लग से भी उसका तार निकाल कर बाहर भाग गया।

टीवी की आवाज बंद होने पर मैने मुड़ कर देखा तो वह बाहर जा रहा था। मैने आवाज देकर उसे बाहर जाने का कारण पूछा। तो वह बोला कि "बम से लड़की को बदमाशों ने मार दिया पापा।" तब मुझे फ़िल्म का सीन याद आया कि मोगेम्बो कहता है"सारे भारत में खिलौनो में और कारों में भर कर बम लगा दो। सब तरफ़ त्राहि त्राहि मचने दो। खून की होली खेलेगें।" समुद्र के किनारे एक टेडी बियर में बम रखा था और उसे एक लड़की उठाती है और बम ब्लास्ट हो जाता है और लड़की मर जाती है। उदय इस दृश्य से सहम जाता है इसलिए टी वी बंद करके बाहर चला जाता है। मैं उसे आवाज देकर बुलाता हूँ और टीवी बंद करने का कारण पूछता हूँ। वह सहमे-सहमे कह्ता है " पापा, वह लड़की बम फ़ूटने से मर गयी तो मुझे अच्छा नहीं लगा। मै टीवी नहीं देखुंगा।" मैने टी वी फ़िर चालु किया और उसे बताय कि वह सीन निकल चुका है तु अभी बैठ कर देख। वह फ़िर टीवी देखने लगता है।

मैं टी वी देखते हुए उसकी भाव-भंगिमाओं पर नजर रखता हूँ। उसके चेहरे से मुझे लग रहा था कि वह डरा हुआ है। आराम से बैठ कर फ़िल्म नहीं देख रहा है। फ़िल्म के एक सीन ने उसके कोमल मन पर असर किया। कल सुबह उठेगा तो सामान्य हो जाएगा। इस तरह की घटना प्रत्येक बच्चे के साथ होती है। वर्तमान में बनने वाले टीवी कार्यक्रम एवं फ़िल्मों में हत्या, डकैती, ब्लात्कार, षड़यंत्र नग्न दृश्य इत्यादि ही फ़िल्माए जा रहे हैं। घर में पूरा परिवार एक साथ बैठ कर नहीं देख सकता। जिन बच्चों ने पुरानी फ़िल्मे नहीं देखी है उन्हे वर्तमान की फ़िल्में ही अच्छी लगती हैं। समाज में भी फ़िल्मों के प्रभाव वाले पहनावा और रहन सहन चल रहा है। टीवी और फ़िल्मों के दुष्प्रभाव से बच्चों में नकारात्मकता भरते जा रही है। जिस तरह फ़िल्मी बच्चे अपने माँ बाप से व्यवहार और संवाद करते हैं, उसी तरह का संवाद आज बच्चे अपने माँ बाप से करने लगे हैं। टीवी फ़िल्मों की नकल करने लगे हैं। रामायण एवं शक्तिमान धारावाहिक का असर तो हमने प्रत्यक्ष देखा है, पता नहीं धनुष के तीर से कितने बच्चों ने आंखे फ़ुड़वाई हैं और कितनों ने उड़ने की कोशिश में छत से छलांग लगाई है।

महलों से लेकर झोंपड़ी तक टीवी की पहुंच हो गयी है। लोग टीवी के साथ अब डिस्क एंटीना भी लगा रहे हैं। मैने बंजारों के अस्थाई टैंटो में भी डिश एन्टीना लगा हुआ देखा है। सास बहु के संवाद तो वैसे ही मशहूर हैं लेकिन अब टी वी सीरियल वाले बाकायदा संवाद लिख कर सास-बहु तक पहुंचा रहे हैं। अब सास-बहु और मियां बीबी के झगड़े में सीरियल के संवाद ही सुनाई देने लगे हैं। पॉंन्डस टैल्कम पावडर का एक विज्ञापन दिखाया जा रहा है, जिसमें जींस टॉप वाली लड़की बाईक पर आकर लड़के को भगा कर ले जा रही, जब लड़का अपने घर की तरफ़ देखता है तो कहती है " शादी भले ही हम भाग कर करेगें,पर रिसेप्शन घर वालों की सहमति से ही करेंगें।" मुझे यह समझ नहीं आया कि टैल्कम पावडर के विज्ञापन से भगौड़ी शादी का क्या संबंध है?  डी डी बन पर तो हर 15 मिनट में कंडोम और माला डी के विज्ञापन आ रहे हैं। गर्भनिरोधक गोलियों के वि्ज्ञापन चल रहे हैं। व्याभिचार को बढावा दिया जा रहा है। 

हम लोगों ने भी टीवी पर फ़िल्में देखी है, 74-75 से लेकर 92 तक पूरा परिवार एक साथ बैठ कर टीवी के कार्यक्रम देखता था और मोहल्ले वाले भी आ जाते थे रविवारीय फ़िल्म देखने के लिए। साफ़ सुधरी फ़िल्में दिखाई जाती थी जिसे सभी एक साथ बैठ कर देखते थे और फ़िल्मों का आनंद लेते थे। डिस्क के चलन से ही सारा गुल गपाड़ा हुआ है। घटिया कार्यक्रम चला कर लोगों की मानसिकता खराब करने का कार्यक्रम बेधड़क जारी है। फ़िल्म निर्माता भी ऐसे दृश्य फ़िल्मा रहे हैं कि जिन्हे बैठ कर वे भी परिवार के साथ नहीं देख सकते। उन्हे तो पैसा मिल रहा है समाज में विकृति फ़ैलाने का। क्या हिंसा और अश्लील दृश्यों के बिना फ़िल्मे बन एवं चल नहीं सकती? फ़िल्म फ़्लाप होने का रिस्क कौन ले? जो दिखता है वह बिकता है। वर्तमान पीढी को इस महामारी से कैसे बचाया जाए यह एक यक्ष प्रश्न है। पूरे कुंए में ही भांग पड़ी है। पता नहीं उदय जैसे कितने बच्चे इन कार्यक्रमों और फ़िल्मों को देख कर सहमते होगें?

(मैने चुपके से उदय चित्र लिए, जिसमें उसके चेहरे के भाव स्पष्ट दिख रहे हैं, फ़िल्म के सीन के हिसाब से उसकी मुख मुद्राएं बदल रही हैं)

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

क्या 21 मई को दुनिया खत्म हो जाएगी? --- ललित शर्मा

21 मई कयामत का दिन (जजमेंट डे)है, इस दिन से दुनिया के खत्म होने का सिलसिला शुरु हो जाएगा जो 20 अक्टुबर तक चलेगा। 20 अक्टुबर को पूरी दुनिया खत्म हो जाएगी। ऐसा कहना है अमेरिका के ज्योतिष हेराल्ड कैपिंग का। उसका कहना है कि 70 वर्षों के शोध के पश्चात उसने उपरोक्त तारीख निकाली है। सिर्फ़ दो फ़ीसदी लोग स्वर्ग में जाएगें। एक समाचार के अनुसार इस आशय के होर्डिंग भी लगने लगे हैं। जिससे लोगों में दहशत बन रही है।
यह एक तरह से सम्प्रदाय विशेष का प्रचार तंत्र है। इस बहाने पुरी दुनिया में दहशत फ़ैला कर सम्प्रदाय का प्रचार करना ही मुख्य उद्देश्य है। मुर्खता पूर्ण प्रचार-प्रसार भी शुरु है। इस दुनिया से जब 2 फ़ीसदी लोग ही स्वर्ग में जाएगें तो बाकी कहाँ रहेगें? वैसे भी 2 फ़ीसदी लोग धरती पर ही स्वर्गिक आनंद ले रहे हैं। बाकी जनता तो नरक में ही पड़ी  है।
वैसे पहले भी पोप ने रुपए लेकर स्वर्ग के टिकिट बांटे थे। साल दो साल में कोई भी सिरफ़िरा दुनिया के खत्म होने की भविष्यवाणी कर देता है और मीडिया उसे हाथों-हाथ उठा लेता है। इस तरह के भ्रामक एवं असत्य प्रचार से मीडिया को बचना चाहिए। इस आशय की होर्डिंग लगाकर मिथ्या प्रचार करने वाले पर स्थानीय प्रशासन को कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए।

आप क्या कहते हैं, कितनी सत्यता है हेराल्ड कैपिंग की भविष्यवाणी में? होर्डिंग पर इनका वेब एड्रेस भी है।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

चम्पारण में एक दिन --- ललित शर्मा

पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु वल्लभाचार्य की जन्मभूमि छत्तीसगढ के रायपुर जिले के अभनपुर ब्लॉक के ग्राम चांपाझर में स्थित है। गाहे-बगाहे वर्ष में दो तीन बार तो यहाँ हो आता हूँ। देश-विदेश से बहुतायत में तीर्थ यात्री दर्शनार्थ आते है पुण्य लाभ प्राप्त करने। कहते हैं कि कभी इस क्षेत्र में चम्पावन होने के कारण इसका नाम चांपाझर पड़ा। कालांतर में इसे चम्पारण के नाम से जाना जाता है। 18 अप्रेल को विश्व हैरिटेज दिवस पर लघु गोष्ठी का आयोजन संस्कृति विभाग के द्वारा किया गया था। वहाँ प्रख्यात पुरातत्वविद एवं इतिहासकार श्री विष्णु सिंह ठाकुर जी से चांपाझर का नाम सुनकर इस स्थल की याद हो आई। 

महान दार्शनिक तथा पुष्टि मार्ग के संस्थापक महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को संवत् 1535 अर्थात सन् 1479 ई. को रायपुर जिले में स्थित महातीर्थ राजिम के पास चम्पारण्य (चम्पारण)में हुआ था। महाभारत में चम्पारण्य का उल्लेख चम्पातीर्थ के नाम से कोसल के अंतर्गत किया गया है। छत्तीसगढ़ का प्राचीन नाम कोसल था। राजिम तथा चम्पारण्य तीर्थ महानदी के तट पर आसपास स्थित है। तपोभूमि छत्तीसगढ में पुराणो में वर्णित चित्रोत्पला गंगा (महानदी) की धारा के समीप स्थित राजिम के कमल क्षेत्र पास स्थित इस इस वन में भारद्वाज गोत्र के तैलंग ब्राह्मण परिवार में इल्लमा गारु की कोख से महाप्रभु वल्लभाचार्य ने जन्म लिया। इनके पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट था। इनके पुर्वज गोदावरी के तट पर स्थित ग्राम काकरवाड़ में निवास करते थे। लक्ष्मण भट्ट एक लाख ब्राह्मणों को भोजन कराने का संकल्प लेकर पत्नी सहित काशी की यात्रा पर निकले थे। प्राचीन काल में उत्तर भारत को जाने का मार्ग छत्तीसगढ से ही होकर जाता था। महानदी के किनारे बसे हुए सिरपुर में (श्रीपुर) में 639 ई. में प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हेनसांग के कोसल आने का उल्लेख मिलता है। वह भी इसी मार्ग से आंध्रप्रदेश की ओर गया था।

श्री लक्ष्मण भट्ट अपने संगी-साथियों के साथ यात्रा के कष्टों को सहन करते हुए जब वर्तमान मध्य प्रदेश में रायपुर ज़िले के चंपारण्य नामक वन में होकर जा रहे थे, तब उनकी पत्नी को अकस्मात प्रसव-पीड़ा होने लगी। सांयकाल का समय था। सब लोग पास के चौड़ा नगर में रात्रि को विश्राम करना चाहते थे; किन्तु इल्लमा जी वहाँ तक पहुँचने में भी असमर्थ थीं। निदान लक्ष्मण भट्ट अपनी पत्नी सहित उस निर्जंन वन में रह गये और उनके साथी आगे बढ़ कर चौड़ा नगर में पहुँच गये। उसी रात्रि को इल्लम्मागारू ने उस निर्जन वन के एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु को जन्म दिया। बालक पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन सा ज्ञात हुआ, इसलिए इल्लम्मागारू ने अपने पति को सूचित किया कि मृत बालक उत्पन्न हुआ है। रात्रि के अंधकार में लक्ष्मण भट्ट भी शिशु की ठीक तरह से परीक्षा नहीं कर सके। उन्होंने दैवेच्छा पर संतोष मानते हुए बालक को वस्त्र में लपेट कर शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और उसे सूखे पत्तों से ढक दिया। तदुपरांत उसे वहीं छोड़ कर आप अपनी पत्नी सहित चौड़ा नगर में जाकर रात्रि में विश्राम करने लगे।

दूसरे दिन प्रात:काल आगत यात्रियों ने बतलाया कि काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट दूर हो गया । उस समाचार को सुन कर उनके कुछ साथी काशी वापिस जाने का विचार करने लगे और शेष दक्षिण की ओर जाने लगे। लक्ष्मण भट्ट काशी जाने वाले दल के साथ हो लिये। जब वे गत रात्रि के स्थान पर पहुंचे, तो वहाँ पर उन्होंने अपने पुत्र को जीवित अवस्था में पाया। ऐसा कहा जाता है उस गड़ढे के चहुँ ओर प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल सा बना हुआ था और उसके बीच में वह नवजात बालक खेल रहा था। उस अद्भुत दृश्य को देख कर दम्पति को बड़ा आश्चर्य और हर्ष हुआ। इल्लम्मा जी ने तत्काल शिशु को अपनी गोद में उठा लिया और स्नेह से स्तनपान कराया। उसी निर्जन वन में बालक के जातकर्म और नामकरण के संस्कार किये गये। बालक का नाम 'वल्लभ' रखा गया, जो बड़ा होने पर सुप्रसिद्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य हुआ। उन्हें अग्निकुण्ड से उत्पन्न और भगवान की मुखाग्नि स्वरूप 'वैश्वानर का अवतार' माना जाता है। 
 
वल्लभाचार्य जी का आरंभिक जीवन काशी में व्यतीत हुआ था, जहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा तथा उनके अध्ययनादि की समुचित व्यवस्था की गई थी। उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट ने उन्हें गोपाल मन्त्र की दीक्षा दी थी और श्री माधवेन्द्र पुरी के अतिरिक्त सर्वश्री विष्णुचित तिरूमल और गुरुनारायण दीक्षित के नाम भी मिलते हैं। वे आरंभ से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और अद्भुत प्रतिभाशाली थे। उन्होंने छोटी आयु में ही वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, काव्यादि में तथा विविध धार्मिक ग्रंथों में अभूतपूर्व निपुणता प्राप्त की थी। वे वैष्णव धर्म के अतिरिक्त जैन, बौद्ध , शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने ज्ञान और पांडित्य के कारण काशी के विद्वत समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त किया था।

चम्पारण की यात्रा हम लोग बचपन से करते रहे हैं। उस समय सिर्फ़ घने वृक्षों के बीच छोटा सा स्थान बना हुआ जहाँ मुर्तियाँ स्थापित थी। आस-पास में सागौन के वृक्षों का जंगल था। मान्यतानुसार इस स्थान के वृक्षों को सूखने के पश्चात भी कोई काटता नहीं था। इससे अनिष्ट की आशंका थी। अभी भी यहाँ बहुत सारे सूखे पेड़ खड़े हैं जिन्हे कोई काटता नहीं है। धीरे-धीरे इस स्थान का विकास हुआ। तीर्थयात्री आने लगे। दान दाताओं के धन से धर्मशालाओं का निर्माण हुआ। पास में ही चम्पेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है जहाँ लोग पंचकोसी की यात्रा करने आते हैं। एक बार मैने भी इस पंच कोशी की यात्रा वर्तमान कृषिमंत्री छत्तीसगढ शासन चंद्रशेखर साहु जी के साथ की थी। हम पाँच स्थानों पर स्थित शिवमंदिरों के दर्शनार्थ गए थे। यह पाँच शिव मंदिर पटेश्वर, बम्हनेश्वर, फ़िंगेश्वर, कुलेश्वर तथा चम्पेश्वर हैं।
 
लगभग आज से 20 वर्षों पुर्व मुंबई से एक वल्लभाचार्य जी के अनुयायी कृष्णदास अड़िया जी चम्पारण पहुंचे। यहां उन्होने लगभग डेढ करोड़ रुपए का दान दिया। जिससे इस स्थान पर निर्माण कार्य शुरु हुआ। उसके पश्चात अड़िया जी स्थायी रुप से यहीं रहने लगे। इनके प्रयास से चम्पारण के इस स्थान को भव्यता प्राप्त हुई। वर्तमान में यहाँ पर सुदामापुरी नामक भव्य धर्मशाला का निर्माण हुआ। गौशाला बनी एवं मंदिर में निर्माण कार्य सतत जारी है। दान दाताओं के नाम मंदिर की दीवालों पर लिखे गए हैं। मंदिर स्थान को चटक रंगों के बेल बूटों से सजाया गया है। इस प्रकार चम्पारण के मंदिर ने भव्यता ग्रहण की। हाल में ही मैं मित्र आर एस चौरसिया के साथ एक बार पुन: चम्पारण के दर्शनार्थ गया। इन एक वर्षों में बहुत कुछ बदलाव देखने मिला। काफ़ी संख्या में बाहर से आए हुए तीर्थ यात्रियों से मुलाकात हुई। तीर्थ यात्रियों का आगमन बारहों माह होते रहता है। चम्पारण की नयनाभिराम भव्यता देखते ही बनती है।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

अभियान भारतीय- एक सकारात्मक पहल -- ललित शर्मा

देश में साम्प्रदायिक विष वमन करने वालों की कमी नहीं है। मौका मिलते ही फ़िरकापरस्ती को बढावा देकर अपना उल्लु सीधा करने से नहीं चूकते। युवा भी इनकी लच्छेदार बातों में आकर रौ में बह जाते हैं और फ़िरकापरस्त अपना स्वार्थ साध लेते हैं। बुजुर्ग के मुंह से सुनाई देता है कि आज कल के नौजवानों को देश की कोई चिंता ही नहीं है। लेकिन अन्ना के आन्दोलन से जिस तरह भ्रष्टाचार के विरोध में देश भर के युवाओं ने स्वस्फ़ूर्त सहयोग दिया। उससे लगता है कि आज का युवा की सोच सड़ी गली व्यवस्था से इतर कुछ नया करने की है। वह परम्पराओं के साथ वर्तमान के प्रति भी सजग है। देश के प्रति उनकी सोच सकारात्मक है और कुछ करके दिखाना चाहता हैं। जातियता, धार्मिकता, प्रांतियाता से दूर वह राष्ट्र को एक सूत्र में बांधना चाहता है। जिनमें साहस और अदम्य शक्ति होती है वह रेत पर भी अपने कदमों के निशान छोड़ जाता है। ऐसे लोगों के अनुशरण करने वालों की कमी नहीं है।

ऐसे ही एक युवा गौरव शर्मा से आपकी मुलाकात करवा रहा हूं। इस 24 वर्षीय युवा और इनके साथियों ने 15 अगस्त 2010 को  अभियान भारतीय का श्री गणेश किया। इसका उद्देश्य भारतीयों के मन में राष्ट्रप्रेम की भावना को जगाना एवं सभी धर्म सम्प्रदायों में एकता के संदेश का प्रचार प्रसार करना है। इनका घोष वाक्य है "एक राष्ट्र, एक आवाज - हम भारतीय हैं"। ये कहते हैं कि -"आज राष्ट्र के समक्ष ज्वलंत प्रश्न है कि हम भारतवासी कब तक भांति-भांति के विभक्ति कारक तथ्यों के सहारे आपस में बंटे रहेगें। जातियता, धार्मिक अंधानुकरण एवं प्रांतियता की रेखाएं आखिर हमें कब तक एक दूसरे से पृथक करते रहेगीं?
आश्चर्य जनक बात यह है कि जब हमारा देश अंग्रेजों की दासता में सांसे ले रहा था। तब सभी फ़िरकों ने मिल कर परतंत्रता के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद की और आन्दोलन कर अंग्रेजो को देश छोड़ने को मजबुर किया। देश आजाद होने के पश्चात लोगों ने फ़िर अपने-अपने दायरे बना लिए। यही कार्य देश के लिए घातक हो गया। आज चारों ओर अराजकता ही दिखाई देती है। देश की अधिकांश शक्ति और उर्जा इससे निपटने में ही लग जाती है। यह देश के विकास में एक बड़ी बाधा है। फ़िरकापरस्ती एवं बांटने वाली ताकतों को दरकिनार कर देश के विकास में सभी अपना योगदान दें तो वह दिन दूर नहीं जब भारत पुन: विश्वगुरु कहलाएगा।"

इस तरह के विचार इस युवक से मुझे सुनने मिले, प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। वर्तमान में जब आज का युवा पब और मॉल संस्कृति की गिरफ़्त में है तब वहीं एक युवा उन्हे संगठित कर लोगों में राष्ट्रप्रेम जगा रहा है जिससे देश समग्र विकास की दिशा में आगे बढ सके। सार्थक कार्य करने वालों को समाज भी साथ देता है। उसके साथ जुड़ता चला जाता है। आज गैर राजनीतिक, गैर धार्मिक, गैर जातीय नि:स्वार्थ जन चेतनात्मक अभियान भारतीय का प्रचार-प्रसार देश के कई प्रदेशों में हो रहा है, जहाँ से इस अभियान में युवा अपनी सक्रीय भूमिका निभाने आगे आ रहे हैं। दिल्ली के गोपाल दुबे, सृंजय ठाकुर, आतिश साहू, आशीष दीवान, कर्नाटक से चंद्रकांत कुकरेती, उड़ीसा से सुजाता मैथ्यू, बिहार से नूर मोहम्मद, एवं अजय जी, नवीन द्विवेदी महाराष्ट्र से सागर तिवारी, अमित दुबे, धीरज शर्मा,तापश राय, ममता रॉय विशेष रूप से आगे आए। संजय मिश्रा जी का सहयोग अभियान भारतीय को सक्रीय रुप से मिलता है।

गौरव शर्मा से मेरी मुलाकात एक कार्यक्रम दौरान हुई थी। उसके पश्चात हबीब साहब से रुबरु हुआ। आज भारत को सकारात्मक सोच एवं राष्ट्र चिंतन करने वाले नौजवानों की नितांत आवश्यकता है। वर्तमान में मुद्राराक्षसों ने भ्रष्ट्राचार करके देश को खोखला करने का ही कार्य 64 वर्षों में किया है। आम जनता भ्रष्ट्राचार की चक्की में पिस रही है। जनता की गाढी कमाई से नेता गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। इनके विरुद्ध आज देश का युवा खड़ा हो रहा है। अभियान भारतीय एक सकारात्मक पहल है। सार्थक पुरुषार्थ करने वाले का उत्साहवर्धन करना ही चाहिए। कामना करते हैं कि इनका प्रयास रंग लाए।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

दूंगी तैनू रेशमी रुमाल -- ललित शर्मा

रुमाल वर्तमान में हमारी जरुरत का सामान बन गया है। ऑफ़िस या काम पर जाने से पहले आदमी हो या औरत रुमाल साथ रखना नहीं भूलते। बच्चा भी जब स्कूल जाता है तो उसकी वर्दी पर माँ पिन से रुमाल लगाना नहीं भूलती। रुमाल का कब क्यों और कैसे अविष्कार हुआ यह बता पाना तो कठिन है। पर सुना है कि फ़्रांस के राजा की बेटी से विवाह करने वाले इंग्लैंड के राजा रिचर्ड द्वितीय के मन में प्रथमत: रुमाल बनाने का विचार आया। गद्दीनशीन होने पर उसे हाथ और नाक मुंह पोंछना पड़ता था, उसके लिए तौलिए का काम लिया जाता था, जो कि बहुत भारी था। इसलिए उसने आदेश दिया रंग-बिरंगे कपड़ों के छोटे-छोटे टुकड़े तौलिए के स्थान पर प्रयोग में लाए जाएं। इस तरह रुमाल  का जन्म हुआ। रुमाल इंग्लैंड से होते हुए एशिया में भारत तक पहुंच गया। हैंडकरचीफ़ से इसे स्थानीय भाषा के रुमाल, कामदानी, करवस्त्र, उरमाल, सांफ़ी इत्यादि नाम भी मिल गए। रुमाल का सफ़र चल पड़ा अब यह सभ्यता और व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
भारत में रुमाल की जगह अंग वस्त्रम् उत्तरीय का प्रचलन था, जिसे कालान्तर में अंगोछा या गमछा का नाम दिया गया। गमछा या अंगोछा सभी ॠतुओं में मनुष्य के काम आता है। महीन धागों से बना हुआ वजन में हल्का वस्त्र सर्दी, गर्मी से रक्षा करता है तो वर्षाकाल में भीगे हुए शरीर को पोंछने के काम आता है। बाजार जाने पर थैला नहीं है तो अंगोछा ही सब्जी रखने के काम आ जाता है। भोजन के वक्त थाली के अभाव में भोजन करने के भी काम आ जाता है। अंगोछा का प्रचलन वर्तमान में भी है। लोग प्रदूषण से बचने के लिए मुंह ढंक कर शहर में घूमते-फ़िरते मिल जाते हैं। अंग्रेजों के साथ रुमाल आने पर इसे भारतीय जनमानस ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। कोट-पतलून-बुशशर्ट के साथ-साथ रुमाल भी वेशभूषा का आवश्यक अंग बन गया। इस तरह अंग वस्त्रम् उत्तरीय के लघु रुप रुमाल की यात्रा प्रारंभ हो गयी। जो नजले से टपकते नाक, एवं पशीने से लथपथ मुंह पोंछने से चलकर आशिकों की रुह में समा गया। कमाल का रुमाल है।
वो भी क्या दिन थे जब आशिक लड़कियों के रुमाल के लिए मरा करते थे |अगर गलती से किसी लड़की का रुमाल मिल जाए तो खुद को खुशनसीब समझते थे| उस रुमाल को जान से भी ज्यादा प्यार करते| उसे तकिये के नीचे रख के सोते थे। रुमाल प्रेमियों को बहुत भाया। रंग-बिरंगे रुमालों पर विभिन्न प्रकार के चित्र एवं चिन्ह बनाए जाते हैं। किन्ही पर नाम के प्रथम अक्षर वर्णित होते हैं। पंडुक पक्षीयों का जोड़ा रुमाल पर शोभायमान होता है। जिस तरह जीवन पर्यन्त पंडूक पक्षी का प्रेम और जोड़ा बना रहता है उसी तरह प्रेमी-प्रेमिकाओं का भी ताउम्र जोड़ा बना रहे। 
नायिका कहीं अपना रुमाल जानबूझ कर या धोखे से भूल जाती तो आशिक की पौ बारह मानिए। नायिका रुमाल पर सूई-धागे से दिल का चिन्ह बनाती तो आशिक समझता कि यह दिल उसी के लिए रुमाल पर निकाल कर रख दिया है। वह इसे सूंघ कर देखता कि चमेली के इत्र की महक है या नहीं और इससे उसके कुल-परिवार के रहन-सहन एवं आर्थिक स्थिति का अंदाजा लगाता। आशिक रुमाल पाकर रोमांचित हो उठता और कह उठता कि-इस तरह के रुमाल तो मसूरी के माल रोड़ पर मिला करते थे। ऐसा ही रुमाल सोहनी ने अपने महिवाल को दरिया-ए-चिनाब के किनारे दिया था और महिवाल ने उसे ताउम्र अपने गले से बांधे रखे था। उस वक्त मान्यता थी कि रुमाल का तोहफ़ा देने से प्रेम सफ़ल हो जाता है। स्थानीय  बोलियों एवं भाषाओं में रुमाल को लेकर प्रेम के गीत लिखे गए जिन्हे आज तक ग्रामीण अंचलों में गाया जाता है।
फ़िल्म वालों ने भी रुमाल का प्रचार-प्रसार करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। फ़िल्मों एवं फ़िल्मी गीतों में रुमाल का इस्तेमाल धड़ल्ले से होने लगा। जब प्राण जैसा उम्दा खलनायक गले में रुमाल बांधकर रामपुरी चाकू परदे पर लहराता था तो दर्शक सिहर उठते थे और यही रुमाल देवानंद गले में डाल कर एक गीत गाता था तो सिनेमा हॉल सीटियों से गुंज उठता था। फ़िल्मी गीत भी चल पड़े -"हाथों में आ गया जो कल रुमाल आपका, बेचैन केर रहा है ख्याल आपका" दूंगी तैनू रेशमी रुमाल,ओ बांके जरा डेरे आना, ओ रेशम का रुमाल गले पे डालके, तु आ जाना दिलदार, मै दिल्ली का सुरमा लगा के अरे कब से खड़ी हूँ दरवज्जे पे, उलझे से गाल वाला,लाल लाल रुमाल वाला।  इस तरह फ़िल्मों मे रुमाल अब तक छाया हुआ है।
जहाँ एक तरफ़ यह रुमाल प्रेमियों को आकर्षित करता रहा वहीं दूसरी तरफ़ इसने बेरहमी से कत्ल भी किए। इतिहास में जब दुनिया के सबसे खुंखार सीरियल किलर का जिक्र आता है तो पीले रुमाल की क्रूरता भी सामने आती है। बेरहाम नामक इस बेरहम ठग को खून से डर लगता था, यह अपने शिकार की हत्या पीले रुमाल से गला घोंट कर करता था। 1765-1840 तक इस बेरहम खूनी का दौर चला। व्यापारी हो या फिर तीर्थयात्रा पर निकले श्रद्धालु या फिर चार धाम के यात्रा करने जा रहे परिवार, सभी निकलते तो अपने-अपने घरों से लेकिन ना जाने कहां गायब हो जाते, यह एक रहस्य बन गया था। काफिले में चलने वाले लोगों को जमीन खा जाती है या आकाश निगल जाता है, किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था।यह यात्रियों के दल में शामिल होकर उन्हे हत्या करने के पश्चात लूट लेता था और उनकी लाशें दफ़ना देता था जिससे उनका नामो-निशान ही नहीं मिलता था।सन् 1809 मे इंग्लैंड से भारत आने वाले अंग्रेज अफसर कैप्टन विलियम स्लीमैन को ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगातार गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौपी। तब 10 वर्षों की गुप्तचरी के पश्चात इस पीले रुमाल वाले खूनी को गिरफ़्तार किया जा सका। बताते तो ये भी है कि स्लीमैन का एक पड़पोता इंग्लैड में रहता है और उसने अपने ड्राइंगरुम में उस पीले रुमाल को संजों कर रख रखा है।
भारत में हिमाचल के चंबा का रुमाल अपनी बेमिसाल कढाई के लिए प्रसिद्ध है। सूती के कपड़ों पर जब रेशम के चमकीले रंग-बिरंगे धागों से कलाकार जब अपनी कल्पनाओं की कढाई करते हैं तो वह सजीव हो उठती है। इन रुमालों पर की गयी कलाकारी को देखकर ऐसा लगता है मानो चित्र अब बोल पड़ेगें। लोग कढाई की इस बारीक कला को देख कर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। चम्बा में बनने वाले रुमालों पर न केवल रामायण, महाभारत, श्रीमदभागवत, दूर्गासप्तशती, और कृष्ण लीलाओं को भी काढा जाता है बल्कि राजाओं के आखेट का भी सजीव चित्रण किया जाता है। यह रुमाल एक वर्ग फ़ीट से लेकर 10 वर्ग फ़ीट तक के आकार में होते हैं। चम्बा की रुमाल कढाई प्राचीन हस्तकला का नमूना है बल्कि एतिहासिक महत्व भी रखती है। इसका पंजीयन बौद्धिक सम्पदा अधिनियम के तहत करा लिया गया है। जिससे रुमाल निर्माण की हस्तकला को संरक्षण देकर बचाया जा सके।
वर्तमान ने कागज के नेपकीन बाजार में आ गए हैं। इनका प्रचलन रुमालों को बाजार से बाहर नहीं कर पाया है। रुमाल की अपनी अलग ही महत्ता है। आज भी हस्त निर्मित रुमाल बनाए जा रहे हैं। सूती एवं रेशमी वस्त्र पर विभिन्न माध्यमों से कढाई एवं प्रिंटिग हो रही है। जिनमें हाथों से किए गए बंधेज के काम में लगभग 150 तरह के डिजाईन बनाए जाते हैं तथा मशीन एवं कम्प्युटर की सहायता से हजारों डिजाईन बनाए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त बुटिक प्रिंट, टैक्स्चर प्रिंट, फ़ैब्रिक पेंटिंग, क्रोशिया वर्क, ब्लॉक प्रिंट, सैटिंग, वेजीटेबल प्रिंट, स्क्रीन प्रिंट, थ्री डी कलर, ग्लो पैंटिंग, स्प्रे पेंटिंग, थ्रेड पैंटिंग, मारबल पैंटिग, स्मोक पैंटिग, गोदना पैंटिंग, एवं फ़ैंसी रुमाल भी बनाए जा रहे हैं। समय कितना भी बदल जाए लेकिन रुमालों का चलन रहेगा और जनमानस को अपने नए-नए रुपों में आकर्षित करता रहेगा।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

"माल प्रैक्टिस" का जमाना ------- ललित शर्मा

कहावत है कि अस्पताल, थाना, कचहरी व्यक्ति अपनी खुशी से नहीं जाता। मजबूरी में ही जाना पड़ता है। व्यक्ति को जीवन में चिकित्सकों से पाला पड़ता ही है, शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा मिले जिसे डॉक्टर के पास न जाना पड़ा हो,चिकित्सा को विश्वास का पेशा माना गया है और चिकित्सक को भगवान। मरीज अपने प्राण चिकित्सक के हाथ में सहर्ष सौंप देता है। समाज में यह पेशा प्रतिष्ठा का माना जाता है, अगर हम किसी भी व्यक्ति से पूछे तो सबसे पहले वह अपने बच्चे को डॉक्टर बनाना चाहता है। उसके पश्चात अन्य पेशे के विषय में सोचता है। पहले और वर्तमान के चिकित्सकों की कार्य प्रणाली में अत्यधिक बदलाव देखा जा रहा है।

पहले डॉक्टरी के पेशे को सेवा भाव के से किया जाता था, डॉक्टरों का कार्य मरीज की सेवा सुश्रुषा करके स्वास्थ्य प्रदान करना था। वर्तमान में चिकित्सा का पेशा व्यावसायिकता की पराकाष्ठा पर पहुंच चुका हैं। इनकी कारगुजारियाँ और स्थिति यह है कि अब मरीज मजबूरी में ही इनके पास जाना चाहता है तथा एक बार किसी नर्सिंग होम या अस्पताल में भर्ती हुए तो समझ लो सारा बैंक बैलेंस खत्म। ॠण लेकर ही इनकी जेब भरनी पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि मैं सभी चिकित्सक समाज को एक तुला पर ही तौल रहा हूँ, कुछ डॉक्टर ऐसे भी हैं जो पूर्वजों से मिले उत्तम संस्कार के द्वारा मानवीय मूल्यों को समझ कर पेशे की पवित्रता कायम रखे हुए हैं।

एक डॉक्टर मित्र से इस विषय पर चर्चा हो रही थी, तो उन्होने कहा कि अब डॉक्टर "माल प्रैक्टिस" पर उतर आए हैं। इनसे ही मुझे प्रैक्टिस के नए तरीके के विषय में पता चला। साथ ही "माल प्रैक्टिस" क्या होती है, इस विषय में भी। मानवता को दरकिनार कर लूटने में लगे हुए हैं। एक मित्र ने बताया कि उनकी पत्नी को बच्चा होने वाला था, नर्सिंग होम लेकर गए, वहाँ डॉक्टर ने सभी पैथालाजिकल, सोनोग्राफ़ी एवं अन्य टेस्ट कराए। उसके पश्चात पेशेंट को अकेले में समझाया गया की पेट में बच्चे ने गंदा पानी पी लिया है और पॉटी कर सकता है, जिससे जच्चा और बच्चा दोनों की जान को खतरा है। इसलिए सिजेरियन आपरेशन तुरंत करना पड़ेगा। 20,000 रुपए जमा करवा दीजिए। मित्र ने रुपए जमा कराए और ऑपरेशन के फ़ार्म पर हस्ताक्षर कर दिए। थोड़ी देर बाद बिना ऑपरेशन के ही उनकी पत्नी ने बच्चे को जन्म दे दिया। जच्चा-बच्चा दोनो स्वस्थ्य थे। ईश्वर ने डॉक्टर के षड़यंत्र को विफ़ल कर दिया।

वर्तमान में अतिरिक्त कमाई के लालच में 90% जच्चाओं के सिजेरियन ऑपरेशन कर दिए जाते हैं,"माल प्रैक्टिस" जोरों पर है। बच्चे के जन्म लेने के तीसरे-चौथे दिन उसकी त्वचा हल्की पीली दिखाई देती है। तब उसे तुरंत पीलिया बता कर नीले प्रकाश में रख दिया है। जहाँ 1000 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक प्रतिदिन का चार्ज वसूला जाता है। जच्चा और बच्चा दोनो से "माल पैक्टिस" चालु है। "माल प्रैक्टिस" करने वाले डॉक्टरों ने चिकित्सा जैसे पावन पेशे को बदनाम कर दिया। अस्पताल जाने के नाम पर जेब और रुह दोनो काँप जाती है। प्राण बचे न बचे पर अस्पताल का चार्ज ले ही लिया जाता है। किडनी एवं शरीर के अन्य अंग चोरी से निकालने के समाचार मिलते ही रहते हैं।

सिजेरियन ऑपरेशन के बाद अब महिलाओं की बच्चे दानी निकालने का काम जोरों पर चल रहा है। किसी महिला को कमर के नीचे थोड़ा सा भी दर्द हुआ तो समझ लो बच्चे दानी निकलवाने की सलाह डॉक्टर तुरंत दे देते हैं। 25-30 साल की महिलाओं की बच्चे दानी बेधड़क निकाली जा रही है। भले ही फ़िर उस महिला को जीवन भर भुगतना पड़े। गर्भाशय निकालने के इस दुष्कृत्य में ग्रामीण स्वास्थ्य रक्षकों के रुप में तैनात "मितानिन" मुख्य तौर पर सम्मिलित हैं। निजी नर्सिंग होम संचालकों ने इन्हे मोबाईल बांट रखे हैं, साथ ही गर्भाशय आपरेशन के प्रत्येक मरीज पर 1000 से 2000 रुपए का का कमीशन तय है। कुछ दिनों पूर्व समाचार था कि मृत शरीर को वेंटिलेटर पर रख कर हजारों रुपए वसूल लिए गए। डॉक्टर का कहना था कि मशीनों का चार्ज तो लेना ही पड़ेगा। मरीज चाहे बचे या न बचे। इस पेशे से संवेदनाएं समाप्त होती जा रही हैं। गरीब आदमी का तो मरण ही है। सरकार ने चिकित्सा बीमा योजना शुरु की है इसमें भी ये घोटाला करने से बाज नहीं आ रहे। मरीज के चिकित्सा बीमा की राशि को ध्यान में रख कर बिल बनाया जाता है। एक ही झटके में उसका सारा बीमा बैलेंस खाली कर दिया जाता है।

सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए तथा नागरिकों को भी जागरुक होने की आवश्यकता है। अगर मरीज को उपभोक्ता के तौर पर देखा जा रहा है तो इन डॉक्टरों से दुकानदार जैसा ही व्यवहार होना चाहिए तथा सजा निश्चित की जानी चाहिए। चिकित्सकीय लापरवाही से हुई मौत पर हत्या का अपराध दर्ज होना चाहिए। लापरवाही के कारण कभी किसी के पेट में कैंची, गॉज बैंडेज या तौलिया छोड़ने जैसी घटनाओं पर रोक लगेगी। इनकी लापरवाही की सजा तो मरीज को ही भुगतनी पड़ती है।