बेटा! मेरा परिवार बहुत बड़ा है, हम 3 भाई हैं, मंझला भाई के पास खेती -किसानी के साथ ट्रैक्टर भी है। छोटा भाई भी गाँव में खेती किसानी करता है। जालमपुर के पास हमारा गाँव हैं। मेरे पिताजी के पास बहुत सम्पत्ति थी, खेत-खार, गाड़ी, गाय-गोरु। मेरी माँ बहुत चाहती थी मुझे, बहुत मया करती थी। बहुत याद आती है मुझे उन दिनों की …… जब कुछ बड़ी हुई तो शहर में आ गई अपने काका-काकी के पास। उनका घर सिंधी और मारवाड़ी मोहल्ले में था। स्कूल से आकर काका की दुकान में बैठती थी। जब भी कोई त्यौहार आता तो मोहल्ले की महिलाएं मेरे लिए नए कपड़े और चुड़ी-पाटला लेकर आती और मुझे दे जाती थी। मैं काकी से पूछती कि ये सब मेरे लिए क्यों लाती हैं। तो वह कहती ले ले, कोई बात नहीं। तब मुझे नही मालूम था कि मैं ऐसी हूँ। बचपन के दिन थे वे। उसकी आँखों में आंसू भर आए याद करके। आंसू पोछते हुए पार्वती कहती जा रही थी और मैं सुनता जा रहा था।
हमारे गाँव के पास बगौद में एक बूढी हिजड़ी रतियावन रहती थी। उसे मेरे बारे में पता चला तो वह मुझे ढूंढते हुए अपनी चेली बनाने के लिए चले आई। काका के घर में तीन दिन रही। मुझे उसने ही बताया कि हिजड़ा क्या होता है और मेरी योनि उसने ही तय की। मेरे में शरीर में स्त्री का अंश बहुत अधिक था। जिसकी जानकारी मुझे धीरे-धीरे बड़े होने पर हुई। रतियावन 3 दिन रहने के बाद चली गयी। दो महीने बाद वह मुझे ले जाने के लिए आई। तुम इस घर में नहीं रह सकती, तुम्हें हमारे साथ रहना होगा। तुम हमारी बिरादरी की हो- रतियावन ने मुझसे कहा। मैं डर के मारे काँप रही थी। कैसे इसके साथ जाऊंगी और कहाँ रहुंगी? … एक अंधेरा सा छा रहा था मेरी आँखों के सामने। पता नहीं उसने क्या जादू किया। दूसरे दिन घर से एक लोटा और एक जोड़ी कपड़े झोले में धर कर निकल गयी। वह दिन था और आज का दिन दुबारा अपने घर नहीं पहुंच सकी। मन बहुत तड़पता है, घर की याद करके।
शहर से उसके गाँव पहुंची पैदल चल कर। उस दिन 20 किलो मीटर चले होगें। गाँव जाने के लिए मोटर गाड़ी का साधन तो होता नहीं था इसलिए पैदल ही चलना पड़ता था। कुछ दिन गाँव में रख कर वह मुझे अपने गुरु से मिलाने के लिए रायपुर ले आई। रायपुर आने के लिए हम बगौद से पैदल छाती गाँव तक आए और वहाँ से 2 आने में मोटर चढ कर रायपुर पहुंचे। रतियावन के गुरु का नाम हाजी मुस्ताक था। उसका घर लाखेनगर के पास कहीं पर था। मुस्ताक हाजी के गुरु का नाम गोयल था। वह बहुत पैसे वाली थी। वह मुझे अपने पास ही रखना चाहती थी। लेकिन उनका रहन-सहन मुझे पसंद नहीं था। मैं हिन्दू और वे मुसलमान। थे तो हिजड़े ही, परन्तु मैं कभी मुसलमानों के बीच नहीं रही थी। कुछ दिन जैसे-तैसे काटे उनके पास। सुबह होते ही बधाई गाने जाते थे सज धज कर। शाम को वापस लौटते। कोई आना-दो आना देता। अधिक से अधिक सवा रुपया। साथ में चावल-दाल आदि का सीधा भी मिलता।
शहर के हिजड़े बदमाश थे, उनके साथ मेरी पटरी नहीं खाती थी। जो वे चाहते थे वह मैं करती नहीं थी। इसलिए मुझे प्रताड़ित करते थे। एक दिन पंडरी के हिजड़ों ने मिलकर मुझे मारा। जवाब में मैने भी उन्हे मारा। उन लोगों मिलकर मेरे बाल काट दिए। मैं भाग कर गाँव आ गयी। शहर का रवैया मुझे अच्छा नहीं लगा। जजमानों से लूट-पाट करना मुझे भाता नहीं है। जो भी मिल जाता है उससे अपना गुजर बसर कर लेती हूँ। रायपुर से आकर पहले अभनपुर में रहती थी। यहाँ पानी की बहुत अधिक समस्या थी। इसलिए मैने अपना डेरा कुरुद में लगा लिया। वहाँ खपरैल का मकान है जहाँ आराम से रहती हूँ। जिन्दगी के दिन कट रहे हैं। बहुत जिन्दगी निकल गयी अब थोड़ी बाकी है, यह भी कट जाएगी।
मैने अपनी जिन्दगी बहुत तकलीफ़ों में काटी है। कभी खाना मिलता था कभी नहीं। कई-कई दिन भूखे पेट ही सोना पड़ता था। मेरे माँ-बाप मुझे लेने के लिए आते तो सभी हिजड़े मिलकर मुझे छुपा देते और उन्हे कह देते कि मैं नहीं हूँ वहाँ। वे रोते-कलपते घर चले जाते। कोख का जाया कैसा भी हो, आखिर माँ ने जन्म देते वक्त उतनी ही पीड़ा सही है जितनी अन्य बच्चों को जन्म देते वक्त हुई। यह तो भगवान तय करता है कि धरती पर किसको स्त्री, किसको पुरुष और किसको हिजड़ा बनना है। हिजड़ों के चंगुल से आजाद होने के बाद मैं अपनी माँ से मिलने के लिए गयी। वह मुझे बहुत देर तक गले लगा कर रोती रही। उससे मिल कर चली आई मैं। जब तक माँ जिंदा थी तब तक अपने गाँव जाती थी। उसके मरने के बाद नहीं गयी। भाई-भतीजों के बच्चे अब आते हैं मेरे पास। घर पर रहते हैं, कहते हैं दादी को देखे बगैर मन नहीं मानता।
हिजड़ा होने पर समाज का तिरस्कार झेलना पड़ता है तो वही समाज सम्मान भी करता है। मेरे तो भाई-बहन, बेटे-बेटी सब जजमान ही हैं। मुझे बहुत चाहते हैं, कोई भी उत्सव होता है मुझे याद करते हैं। अन्य हिजड़ो की हरकतें देख कर उन्हे कोई घर में घुसने नहीं देता। पर मेरे स्वाभाव एवं बर्ताव से लोग मेरे आने की प्रतीक्षा करते हैं। हिजड़ों ने बहुत लूटा है मुझे। कई चेला बनने के लिए आए। चेला बनने के बाद मैं उन्हे अपने जजमानों के यहाँ भेंट करवाने लेकर जाती थी। कुछ दिनों में वे मुझे और जजमानों को लुट-पाट कर भाग जाते है। कुछ दिनों पहले दो चेले तो मेरे मरने के बाद क्रियाकर्म के लिए मांग कर चंपत हो गए। अब किसी का विश्वास नहीं रहा। झलप के पास के नरतोरा गाँव का एक चेला बहुत अच्छा है। मेरी बहुत सेवा करता है। कादर चौक रायपुर की ज्योति कहती है कि माँ तू हमारे पास आकर रह। तेरे हम बधाई मांग कर ला देगें। अब तुझे कुछ करने की जरुरत नहीं है। जब तक शरीर चल रहा है तब तक किसी के आसरे पर मुझे नहीं रहना।
मैने घर में भगवान की स्थापना की है। जब से बूढादेव घर में विराजे हैं तब से मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। लोग स्वयं ही आकर बधाई दे जाते हैं। अब कुछ आराम के दिन आ गए हैं। सारी जिन्दगी माँगने में ही निकाल दी। अब तो लोग हजार से लेकर 11 हजार तक दे जाते हैं। कोई सोने की चैन, अंगूठी, पायल आदि देता है। किसी चीज की कमी नहीं है। कभी तो ऐसे दिन थे कि धान कटने के बाद एक नौकर के साथ बोरी लेकर गाँव में मांगने जाती थी। दो-तीन बोरा धान तो एक गाँव से मिल जाता था। रुपया-पैसा किसी के पास नहीं होता था। सब अनाज ही देते थे। अब भगवान की कृपा से भंडार भरपुर है। भगवान जिस परिस्थिति में रखे उसी परिस्थिति में खुश रहना चाहिए। मैंने कभी किसी को बद्दुआ नहीं दी। हमेशा आशीर्वाद ही दिया। जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला। कोई बधाई गाने के 11 हजार देता है तो उसके लिए भी गाती हूं कोइ सीधा देता है उसके लिए भी बधाई गाती हूँ।
कहते-कहते पार्वती ने अपना ढोलक संभाल लिया और गाने लगी -ओ हो हो हो हो हो लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण ओ लाल मेरी पत रखियो बला झूले लालण सिंदड़ी दा सेवण दा सखी शाह बाज़ कलन्दर दमादम मस्त कलन्दर अली दम दम दे अन्दर दमादम मस्त कलन्दर अली दा पैला नम्बर हो मेरे बहुत सारे जजमान सिंधी है। सिंधी मारवाड़ी बहुत मानते हैं मुझे। ये जो सोने की अंगूठी है न ये मुट्टु बाबु के नाती हुआ तब मिली मुझे। बोले पार्वती खुश होकर जाना। नाराज नई होना। खूब आशीर्वाद देकर जाना, तेरा आशीर्वाद बहुत फ़लता है हमें। ये जो पायल है न ये फ़लां मारवाड़ी ने दिया है, बेटा होने की खुशी में। फ़िर वह एक बधाई गाने लगती है। देखो अब मैने तीन बधाईयाँ गाई हैं। सब खुश रहो, आबाद रहो, भगवान बहुत देगा तुम्हे। बड़े महाराज थे तब से आ रही हूँ इस घर में। मुझे कभी कमी नहीं हुई। पार्वती ने अपना ढोलक, झोला संभाला और अगले घर की तरफ़ चल पड़ी।
यह पार्वती थी। मेरा जन्म होने पर यह नाच-गाकर दादा जी से बधाई लेकर गयी थी। मैं बचपन से जानता हूँ, बरसों हो गए इसे घर आते हुए। न हमारे घर का व्यवहार बदला इसके प्रति, न पार्वती का व्यवहार बदला अपने जजमानों के प्रति। वही आत्मीय बातें और अपनापन। बचपन में भी इसे देख कर मुझे कभी डर नहीं लगा। इसका व्यवहार अन्य हिजड़ों जैसा नहीं है इसलिए हमेशा इसके आने की आने की प्रतीक्षा रहती। कब आएगी और अपने आशीर्वाद से सराबोर करगी। आधी शताब्दी बीत रही है, त्यौहार मनाने के बाद पार्वती के आने का इंतजार सभी को रहता है। इसके लिए साड़ी और बख्शीश हमेशा तैयार रहती है। पार्वती एक वृहन्नला है, समाज में जिसे हिजड़ा-हिजड़ी, करबा-करबिन, छक्का, किन्नर आदि भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है। आज वह आई तो देख कर तसल्ली हुई कि अभी जिंदा है। नहीं तो चेले ही इसके मरने की अफ़वाह उड़ा गए थे।