Menu

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा-----------ललित शर्मा

राकेश शर्मा ने सोवियत रुस के अंतरिक्ष यात्रियों के साथ अंतरिक्ष की सैर की थी। उस समय इस सैर की खबरों से अखबार भरे पड़े थे। सभी की निगाह इस अंतरिक्ष अभियान की सफ़लता पर केन्द्रित थी और अंतरिक्ष यात्रियों की सकुशल वापसी की दुआएं हो रही थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व: इंदिरा गांधी जी ने राकेश शर्मा से अंतरिक्ष में बातें की। उन्होने पूछा-"अंतरिक्ष से भारत कैसा दिखाई देता है? राकेश शर्मा ने जवाब दिया-"सारे जहाँ से अच्छा।" आज के दिन मुझे यह गीत अनायास ही याद आ गया।




राकेश शर्मा (जन्म १३ जनवरी १९४९) भारत के पहले और विश्व के १३८वें अन्तरिक्ष यात्री हैं। १९८४ में भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन और सोवियत संघ के इंटरकॉंसमॉस कार्यक्रम के एक संयुक्त अंतरिक्ष अभियान के अंतर्गत राकेश शर्मा आठ दिन तक अंतरिक्ष में रहे। ये उस समय भारतीय वायुसेना के स्क्वाड्रन लीडर और विमानचालक थे। २ अप्रैल १९८४ को दो अन्य सोवियत अन्तरिक्षयात्रियों के साथ सोयूज़ टी-११ में राकेश शर्मा को लांच किया गया। इस उड़ान में और साल्युत ७ अन्तरिक्ष केन्द्र में उन्होंने उत्तरी भारत की फोटोग्राफी की और गुरुत्वाकर्षण-हीन योगाभ्यास किया।
वापिस लौटने पर भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने राकेश शर्मा से पूछा कि अन्तरिक्ष से भारत कैसा दिखता है। राकेश शर्मा ने उत्तर दिया- "सारे जहाँ से अच्छा"। भारत सरकार ने उन्हें अशोक चक्र से सम्मानित किया। विंग कमाण्डर के पद पर सेवा-निवृत्त होने पर राकेश शर्मा ने हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड में परीक्षण विमानचालक के रूप में काम किया। नवम्बर २००६ में इन्होंने भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन की एक समिति में भाग लिया जिसने एक नए भारतीय अन्तरिक्ष उड़ान कार्यक्रम को स्वीकृति दी।




जानकारी विकि्पीडिया से साभार
चित्र गुगल से साभार

मंगलवार, 28 सितंबर 2010

जीने के लिए समर जारी है यहाँ

घर गृहस्थी चलाना एक गृहस्थ का कर्तव्य माना गया है। इस जिम्मेदारी को व्यक्ति स्वयं धारण करता है और परिवार का पालन-पोषण करता है। लेकिन जब वह अपनी जिम्मेदारी से विमुख हो जाता है तो फ़िर घर की महिलाओं को जिन्दगी के मैदान-ए-जंग में आना पड़ता है और लड़ाई लड़नी पड़ती है।

ऐसा ही मैने देखा है, एक गुमटी चलाने वाला लड़का जब अपनी जिम्मेदारी से विमुख होकर दिन भर दारु पीकर घुमता है तो उसकी जगह उसकी पत्नी को लेनी पड़ती है। आखिर घर गृहस्थी चलाना है परिवार का भरण-पोषण करना है।

बरसों से देखता था कि एक मोची का लड़का बस स्टैंड में अपनी दुकान लगाता था। उसकी दुकान भी अच्छी चलती थी। दिन में बढिया कमाई हो जाती थी। लेकिन उसे दारु का चस्का लग गया।

कभी जूते पॉलिश करने भेजता था तो वह दुकान से गायब रहता था। पूछने पर पता चला कि काम करने के बाद जब उसके पास दारु खरीदने के पैसे हो जाते हैं तो पहले दारु ही पीता है फ़िर कहीं पड़ा रहता है। लेकिन काम बंद कर देता है। इस तरह उसकी दुकान ठप्प हो गयी।

कल जब मैं वहां पहुंचा तो उसकी पत्नी को काम करते देखा। आस पास वालों से पूछने पर पता चला कि वह लड़का तो महीनों से नहीं आ रहा है। उसकी पत्नी ही इस काम को कर रही है।

मैं दूर खड़ा देखता रहा उसे। वह बड़ी कुशलता से जूते में टांका लगा रही थी। सिलाई कर रही थी। उतनी कुशलता से ही रांपी से चमड़ा काट रही थी। शायद उसे सिद्ध होने में कुछ समय तो अवश्य ही लगा होगा। ग्राहक भी उसकी दुकान पर दिख रहे हैं।

बच्चे स्कूल जा रहे हैं, बसें घर्र घर्र करती जा रही हैं सामने से। कोट पैंट वाले बाबूजी की निगाहें तलाशी ले रही हैं। बगल में खड़ा सिपहिया डंडा घुमा रहा है,उसकी पान की पीक का भित्ति चित्र सड़क पर प्रदर्शित है, बगल में झबरा कुत्ता झपट्टा मार रहा है, बस से फ़ेंकी हुई पालीथिन पर,यहां जीने के लिए समर जारी है।

जीजिविषा से उसकी लड़ाई प्रत्येक टांके के साथ चल रही है। निरंतर ब्रश के एक घिस्से के साथ गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर लाने की जद्दोजहद जारी है। शायद इसी से उसकी जिन्दगी में जूते की “टो” जैसी चमक आ जाए। अमरीका स्कूल ससुराल चली जाए, बड़कु बाबु साहब बन जाए।

दारु छोड़ कर धनिया सुधर जाए,बस यही उद्देश्य है जीवन का। जिस विकास के सूरज की किरणों के उजास की प्रतीक्षा सदियों से थी, वे गरीबों की झोपड़ी में उजास नहीं फ़ैला पाई हैं।

शायद सदियाँ और गुजर जाएं इसके चेहरे पर मुस्कान आने में। जो कैद है कलदार की खनक में सदा की भांति। उसे अभी तक रिहाई नहीं मिली है,रिहाई बाकी है। रिहाई जारी है...................?

सोमवार, 27 सितंबर 2010

काले कोट वाले सर--------ललित शर्मा

“साहब सिर्फ़ एक बर्थ दे दीजिए,छोटे बच्चे साथ में हैं,मुंबई तक जाना है, प्लीज”- एक यात्री काले कोट वाले साहब के सामने गिड़ गिड़ा रहा था। उसके पीछे 15 लोगों की लाईन और लगी हुई थी। टी टी साहेब गर्दन ऊंची किए पेट में हवा भर कर जवाब दे रहे थे-
“कोई सीट खाली नहीं है, आप लोग पीछा छोड़िए, जाईए जनरल बोगी में बैठिए।”
“चार्ट देखिए न सर, एक सीट तो मिल जाएगी। आप जो कहेंगे वो दे दुंगा।“- एक ने कहा।
“जाईए आप अपनी सीट पर बैठिए, मैं आपसे वहीं सम्पर्क कर लुंगा।“-काले कोट वाले ने कहा।
“सर मेरा आर ए सी है”,
“अरे मेरे को पहले चार्ट तो देखने दीजिए, अभी नहीं बता सकता मैं कु्छ। दो स्टेशन बाद सम्पर्क कीजिए।“ काले कोट वाले ने जवाब दिया।
ट्रेन चल पड़ी, सवारी जहां तहां एडजेस्ट होने की कोशिश करती रही। टीटी महोदय ट्रेन मेन टिकिट चेक करते रहे। फ़िर उस सवारी से बोले-“एसी वन में आ जाना वहीं बना दुंगा।“-इतना कह कर टी टी चल पड़ा। मतलब इशारा हो चुका था कि उसके पास सीट है और एसी तक आने का मतलब कुछ ज्यादा जेब ढीली करने वाले ही सम्पर्क करें।
थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति जल्दी-जल्दी आया और बीबी से बोला-“सामान उठाओ और चलो एस-6 में दी है सीट, साले ने 600 ले लिए।“
थोड़ी देर बाद वह डिब्बे में फ़िर आता है तो वह आर ए सी वाला कहता है-“ सर मेरा आर ए सी है, क्लीयर हो गया क्या?”
“शांति रखिए रात 8 बजे तक क्लीयर हो जाएगा। अभी तो बैठिए आप सीट पर”
हम जब भी सफ़र में जाते हैं तो यह नजारे आम ही दिख जाते हैं। जब काले कोट वाले रेल के मालिक सवारियों को खुले आम लुटते हैं और रिजर्वेशन ना हो तो अफ़सर हो या नेता या फ़िर आम आदमी सब इस काले कोट वाले रेल भगवान के सामने जोजियाते रहते हैं, पुष्प पत्र लेकर मनुहार करते है,फ़िर इनका भाव देखिए,ये सलाम सिर्फ़ रेल मंत्रालय वालों को ही करते हैं। बस उसके बाद भगवान को भी नहीं।
रेल मंत्रालय ने सारा जोर लगा लिया लेकिन काले कोट वालों की काट नहीं निकाल सका। ये ट्रेन में बिना नेम प्लेट के ही वसूली करते हैं। बैज भी नहीं रखते कि कोई पढ कर शिकायत न कर दे। जब ट्रेन स्टेशन से छूट गयी और कम्प्युटर से चार्ट निकल गया तो आखरी स्टेशन तक ट्रेन के मालिक यही हैं।
एक बार मैने इनकी शिकायत सीनियर डीसीएम से की। ये सीधे उनके ही विभाग का मामला है। तो उन्होने कहा कि “महाराज, इनसे भिड़ना बहुत मुस्किल है, आप कहते हैं तो उसे मैं सस्पेंड कर देता हूँ लेकिन ये सुधरने वाले नहीं है और जबरिया मेरी भी शिकायत किसी सांसद से करवा देगें। सभी इनको ट्रेन में मिलते हैं बस थोड़ी सी सेवा चाकरी की और वहीं लेटर पेड पर लिखवा लेगें।“ इनका क्या किया जाए?
अब रेल्वे के एक उच्चाधिकारी का यह कहना है तो क्या किया जा सकता है? एक बार तो मैने देखा कि एक टी टी रायपुर से बिना रिजर्वशन  कई सवारियों को दिल्ली तक ले गया, रास्ते में किसी ने चेकिंग नहीं की, सवारी जनरल टिकिट पर रिजर्वेशन बोगी में चढ के आराम से निजामुद्दीन पहुंच गयी।
ये काले कोट वाले रेल के असली मालिक हैं, मंत्रालय और प्रशासनिक तंत्र ट्रेन के चलने के बाद काम करना बंद कर देते हैं। रेल इनके हवाले हो जाती है, कितनी ही कम्पयुटर की व्यवस्था कर ली जाए, ट्रेन चलते ही सारे सिस्टम फ़ेल हो जाते हैं। इनकी जो मर्जी है वही करते हैं। आर ए सी वाले को भी सीट नहीं मिल पाती और जनरल की टिकिट वाले आराम से 1500 किलोमीटर का सफ़र सोते हुए तय कर लेते हैं। रेल्वे की काले कोट वाली व्यवस्था को नमन है, इसके अलावा कर ही क्या सकते हैं?

रविवार, 26 सितंबर 2010

तेरे जैसा प्यार कहाँ-कितनी प्यारी है तू बहना-----------ललित शर्मा

बिल्हा स्टेशन में रेल्वे प्लेटफ़ार्म पर ट्रेन का इंतजार कर रहा था, तभी मेरी निगाह बच्चों पर पड़ी। पास ही उनके माँ बाप किसी बात पर तू तू - मैं मैं कर रहे थे। शायद बच्चों की माँ रुमाल में बंधे कुछ रुपए कहीं गिरा आई थी। इसलिए उनमें तकरार हो रहा था। मजदूर परिवार के लिए 100-200 रुपए भी गुमना तकलीफ़ देह हो जाता है। लेकिन दोनो बच्चों का ध्यान उनकी तरफ़ नहीं था। दोनो बहन और भाई आपस में मशगुल थे। बहन अपने छोटे भाई बार-बार स्नेह से दुलार रही थी। मैं भी खड़ा हुआ देख रहा है। बचपन कितना निश्छल होता है, बहन छोटे भाई को बार-बार स्नेह से चूम रही थी। बहन बड़ी होने का फ़ायदा यह है कि लड़के को माँ और बहन दोनो का प्यार मिलता है। 
गाँव में लड़कियाँ बचपन से बच्चों को खिलाने की अभ्यस्त हो जाती हैं। माँ जब खेतों में काम पर चली जाती है तो छोटे भाई-बहनों की रेख-देख की जिम्मेदारी उस पर ही जाती है। 9-10 साल की बच्चियाँ भात-साग रांधना सीख जाती हैं। निंदाई-रोपाई के समय तो स्कूल से भी छुट्टी करके घर परिवार की देख भाल करनी पड़ती है। जिम्मेदारी निभाना बचपन से ही आ जाता है, खेलकूद की उमर में घर गृहस्थी संभालने का पाठ पढना पड़ जाता है। ऐसे ही जब भाई-बहन को देखा तो  मेरे से रहा नहीं गया, मैने चुपचाप उनकी तश्वीर अपने मोबाईल कैमरे में कैद कर ली। आप भी देखिए।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

20 वर्षों बाद मिला मासूम केवल डॉन से---------------ललित शर्मा

यही केवल कृष्ण है-मासूम
मेरा फ़ेस बुक पर जाना कम ही होता है ब्लॉग से ही अवकाश नहीं मिलता। कभी जब मन करता है तो फ़ेस बुक पर भी चला जाता हूँ अपडेट करने के लिए। नयी फ़्रेंड रिक्वेस्ट या मित्रों के मैसेज देखने के लिए। आज जब फ़ेस बुक पर गया तो चैट पर एक नौजवान आया डॉन जैसी सूरत लेकर। नमस्कार, आपने पहचाना क्या?”-उसने कहा। उसे देखते ही मैने पहचान लिया। 20 वर्षों के बाद भी डॉन जैसी सूरत में मुझे बचपन की मासुमियत दिखाई दी। मैने कहा कि-तुम्हारे चेहरे की वही मासुमियत कायम है जो बचपन में होती थी। सुनकर वह हँसा। फ़िर मैं पुरानी यादों में खो गया।इस शख्स का नाम है केवल कृष्ण शर्मा। वर्तमान में रायपुर से प्रकाशित नेशनल लुक में पत्रकार है। इससे मिलना मुझे बहुत अच्छा लगा। जब केवल छोटा था तो बहुत बातूनी था। बहुत बोलता था। अभी की क्या स्थिति है मुझे पता नहीं। इनके पिताजी पं. शिवकुमार शर्मा जी मुझे हिन्दी पढाते थे। वे भी मूंछ वाले मास्टर थे। शायद उनकी मूंछों की विरासत मुझे प्राप्त हुई है। उनपर चर्चा फ़िर कभी करेंगे। आज तो केवल की बात है केवल। जब मैं मैट्रिक पढकर निकला तो सर का ट्रांसफ़र बचेली हो चुका था और ये सब बचेली जा चुके थे। उसके बाद मेरी मुलाकात इनसे 7 सात साल बाद जगदलपुर में हुई।
वह मुलाकात भी अनायास ही हुई, हम जगदलपुर में एक प्रेस कान्फ़्रेस ले रहे थे। उसे कव्हर करने दण्डकारण्य समाचार की तरफ़ से केवल भी आया था। प्रेस कांफ़्रेस के बाद मैं केवल के साथ घर गया, चाची से भी मिला, सर भी स्कूल जाने की तैयारी में थे। सर से मेरी वही अंतिम मुलाकात थी। मेरे पास भी समय  कम था, इनके साथ किये गए गरमा गरम समोसे के नाश्ते की गर्माहट आज भी है संबंधों में।
उसके बाद दिन और साल बीतते गए। मैने किसी से सुना था कि केवल जगदलपुर से रायपुर आ गया है। किसी अखबार में है लेकिन मेरी व्यस्तताओं की वजह से उससे ढूंढ नहीं सका। कुछ दिनों पहले मैने कौशल तिवारी भाई से केवल के विषय में पूछा था। उन्होने केवल का मोबाईल नम्बर ढूंढा, नही मिला। लेकिन आज केवल मिल गया,20 साल बाद। बहुत अच्छा लगा। पुरानी यादें ताजा हो गयी। केवल मेरे से छोटा है और बहुत नटखट था।शायद अभी भी होगा। जब मिलुंगा तब पता चलेगा। लेकिन मैं बहुत खुश हूँ कि एक गाँव  से बिछड़ा हुआ  केवल फ़िर मिल रहा है। केवल तुम्हे ढेर सारी आशीष और शुभकामनाएं। खूब तरक्की करो................,

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

बुधवार, 22 सितंबर 2010

क्षमा उस भुजंग को शोभती जिसमें गरल भरा हो----- ललित शर्मा

“क्षमा वीरस्य भूषणम्।“ एक सुक्ति कही जाती है। क्षमा वीरों का आभूषण है। कहा गया है कि "क्षमा उस भुजंग को शोभती जिसमें गरल भरा हो।" कहने का तात्पर्य यह है कि जो नुकसान करने में सक्षम है अगर वह क्षमा करे तो शोभायमान होता है। जिसमें नुकसान करने की क्षमता नहीं है और वह कहे कि जाओ तुम्हे क्षमा करता हूँ तो स्थिति हास्यास्पद ही होगी। अगर कोई सींकिया आदमी पहलवान से कहे कि जा तुझे माफ़ किया तो लोग हंसेगे ही।
अगर हम किसी विवाद की जड़ में जाएं तो इसका प्रमुख कारण गर्व, घमंड ही होता है। किसी को नीचा दिखाने की कोशिश करना और अपने को ऊँचा दिखाना भी लड़ाई को जन्म देता है। जब अहम टकराता है तो वह बड़ा नुकसान करवा देता है। लेकिन क्षमा एक बहुत बड़ा हथियार है शांति के लिए। इससे मन की शांति हो जाती है। मन की शांति इसलिए होती है कि क्षमा मांग लेने से गर्व का शमन हो जाता है।
लेकिन ध्यान यह भी रहे कि मूर्खों से क्षमा मांगना और उन्हे क्षमा करना भी बहुत बड़ी मूर्खता होती है। मूर्ख तो सिर्फ़ डंडे की भाषा समझता है। इसलिए उसे डंडे से ही क्षमा करना पड़ता है। जब भगवान राम समुद्र पार करना चाहते थे और वह उन्हे रास्ता नहीं दे रहा था तब लक्ष्मण ने कहा कि आप आज्ञा दें तो मैं इसे एक तीर से ही सुखा सकता हूँ। तब भगवान राम ने कहा था कि “ सबसे पहले प्रयत्न यह करना चाहिए कि विपत्ति आए ही नहीं। अगर कोई हठधर्मी पूर्वक विपत्ति लाना चाहता है तो सबसे पहले उससे बचने की कोशिश करो, उसके मार्ग से हट जाओ। अगर वह फ़िर भी ना माने और मार्ग छोड़ कर तुम्हारे उपर ही सवार होने लगे तब उसका डट कर मुकाबला करो और उस पर विजय पाओ।
यही होता है दुनिया में, अगर हम लड़ाई झगड़े से बचना चाह कर अपनी गलती न होते हुए भी विवाद खत्म करने के लिए क्षमा मांग लेते हैं तो वह मूर्ख अपने आपको बलशाली समझने लगता है और उसका विष वमन और बढ जाता है। तब उसके विष का शमन दंड से ही करना पड़ता है। क्योंकि वह उसी की भाषा समझता है। इसलिए कहा गया है कि शठे शाठ्यम समाचरेत। शठ के साथ शठ जैसा व्यवहार करो तभी उसकी समझ मे आता है। उल्टे घड़े में पानी नहीं डाला जा सकता, इसलिए उसे सीधा करना ही पड़ता जिससे वह जल ग्रहण करने के योग्य बन जाए।
प्राचीन काल में जब विद्यार्थी गुरुकुलों में पढते थे तब उन्हे भिक्षा वृत्ति के जाना अनिवार्य था। वे अपना भोजन पास के गांव से भिक्षा मांग करते थे। वो भी उतना ही जितनी भूख है उससे अधिक भोजन रखने की अनुमति नही होती थी। फ़िर दूसरे दिन भोजन मांग कर लाना पड़ता था। इस तरह भिक्षा वृत्ति करने से विद्यार्थी का घंमड और गर्व चूर होता था। क्योंकि गुरुकुलों में राजा महाराजाओं के राजकुमार भी पढते थे। राजकुमारों को ही राजगद्दी मिलती थी और वही राज काज चलाते थे। अगर इनमें घमंड रह जाता तो प्रजा का सत्यानाश कर डालते। इसलिए गुरुकुल में भिक्षा वृत्ति की परम्परा थी।
जिस व्यक्ति के घमंड और गर्व का शमन हो जाता है वह प्राणि मात्र को स्नेह की दृष्टि से देखता है उसके मन में करुणा का भाव उत्पन्न हो जाता है। चराचर जगत से प्यार करने लग जाता है। जब चराचर जगत से प्यार हो जाता है तो यही प्यार उसके मन में क्षमा का भाव उत्पन्न करता है। फ़िर यही क्षमा का भाव मन में शांति और धैर्य की स्थापना करता है। जिससे क्रोध एवं सभी ऐषणाओं पर विजय प्राप्त हो जाती है। जीवन सुंदर हो जाता है। इसलिए क्षमा का भाव भी आवश्यक है, लेकिन उसके लिए जो क्षमा का महत्व समझता है। कभी भूल से भी भूल कर कभी कोई मनसा वाचा कर्मणा भूल हुई हो तो क्षमा कर देना कथन जैन दर्शन का आधार है। जब इसे अमल किया जाए तब। अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्तु।

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

पाबला जी को दुसरे जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनाएँ

आज हर दिल अजीज, सभी ब्लोगर्स के जन्म दिन को जोर शोर से मनाने वाले बी.एस. पाबला जी का जन्म दिन है. 21 सितम्बर का दिन मुझे याद है क्योंकि इस दिन मैंने पाबला जी का प्रथम जन्म दिन मनाया था. पहला जन्मदिन क्यों मनाया था उसकी जानकारी यहाँ पर लीजिये.

ਪਾਬਲਾ ਜੀ ਨੂ ਜਨਮਦਿਨ ਦੀ ਲਖ ਲਖ ਮੁਬਾਰਕਾਂ 






ब्लॉगर मित्र पाबला जी को दुसरे जन्मदिन पर ढेरों शुभकामनाये.

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

भारतीय शिल्प विज्ञान की सारी दुनिया कायल

विश्व सर्व क्रियामाणस्य यस्य स: विश्वकर्मा, ॠग्वेद कहता है कि विश्व में जो कुछ भी दृष्टिगोचर हो रहा है। उसके निर्माता विश्वकर्मा हैं। महर्षि दयानंद कहते हैं, ईश्वर एक है जब वह निर्माण के कार्य को करता है तो विश्वकर्मा कहलाता है। यजुर्वेद कहता है,शिल्पौ वै श्रेष्ठम कर्म:। 

आज 17 सितम्बर है भगवान विश्वकर्मा की पूजा के लिए नियत दिन है। इस दिन संसार के सभी निर्माण के कर्मी भगवान विश्वकर्मा की पूजा अर्चना करके अपने निर्माण कार्य में कुशलता की कामना करते हैं। यह पर्व धूम धाम से मनाया जाता है। 

किसी चित्रकार ने भगवान विश्वकर्मा का चित्र बनाया है जब मैं उसे देखता हूं तो उनके सिंहासन के पीछे समस्त 16 कलाओं के औजारों को दर्शाया गया। जिसमें एक चित्रकार की तुलिका से लेकर अभियन्ता तक का पैमाना है। 

औजारों के बिना निर्माण का कार्य सम्पन्न नहीं होता। व्यक्ति के मस्तिष्क कौशल से औजार काम करते हैं तथा धरा की सुंदरतम रचना को जन्म दे देते हैं। आदि काल से निरंतर शिल्पी इस कार्य को अंजाम देते आए हैं। आज तक उनकी साधना अहर्निश जारी है।

पता नहीं क्यों ललित कलाएं मुझे सदा से आकर्षित करती रही हैं। जहां भी मैने प्राचीन एवं नवीन निर्माण कार्य देखे, उनका निरीक्षण जी भर के किया। उसके तकनीकि पक्ष पर विशेष ध्यान दिया। हजारों वर्ष पुराने निर्माण आज भी दर्शक के मन में कौतुक जगाते हैं कि इसे किस तरह निर्मित किया गया होगा जब निर्माण के संसाधन इतने सीमित थे। अजंता-एलोरा की गुफ़ाओं से लेकर दक्षिण के विशाल मंदिरों तक शिल्पियों द्वारा किए गए अद्भुत निर्माण कार्य आश्चर्य चकित कर देते हैं।

महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में लिखा है कि राजा भोज के काल में शिल्पियों ने एक काठ के घोड़े का निर्माण किया था। यह घोड़ा एक घटी में साढे 27 कोष चलता था। इसकी यह विशेषता थी कि यह जल थल आकाश में एक जैसा ही चलता था। वर्तमान में वैज्ञानिकों ने इसकी नकल करने की कोशिश की है “हावर क्राफ़्ट” बनाकर। लेकिन “हावर क्राफ़्ट” सिर्फ़ जल और थल में चलता है, आकाश में उड़ नहीं सकता। लेकिन आधुनिक मानव का प्रयास जारी है। प्राचीन निर्माणों की तकनीक समय चक्र में खो गई, अब उसे पुन: प्राप्त करना होगा।

भारतीय शिल्प विज्ञान 
मानव सृष्टि जब से उत्पन्न हुई तब से भारतीय शिल्प ज्ञान प्रकाशित होने लगा। इसकी जानकारी तिब्बत में मिलती है, जिसे त्रिविष्टप प्रदेश कहा जाता था। ल्हासा के पुस्तकालय में अनेक प्राचीन ग्रंथ और पुस्तके हैं जिनसे भारतीय शिल्प विज्ञान का पता चलता है। इन ग्रंथो में चित्र भी बनाए गए हैं जिससे तकनीक को समझने में आसानी हो।

स्वामी सत्यदेव एलोरा पर लिखते हैं कि” ऐसा मंदिर मैने पृथ्वी पर कहीं नहीं देखा जिस शिल्पी ने इसे बनाया होगा,उसके हृदय में इसकी रचना अवश्य रही होगी। यह कैलाश मंदिर सचमुच ईश्वरीय विभूति है।

डॉक्टर फ़र्गुशन लिखते है कि हिन्दू लोग प्राचीन काल में लोहे के इतने बड़े-बड़े खम्बे बनाते थे, जो यूरोप में अब तक बहुत कम देखने में आते हैं.कनिष्क के मंदिर और दिल्ली के यमुना स्तंभ के विषय में लिखते हैं कि1400 वर्षों तक हवा पानी और मौसम की मार झेलते हुए भी अभी तक जंग नहीं लगा है। यह बड़े आश्चर्य की बात है।
सर जॉन मार्शल लिखते हैं अजन्ता की चित्रकारी आँखों को चकाचौंध करती है। इससे मालूम होता है कि भारतीय शिल्पकारी में दैवी शक्ति थी।

ई पी हैवेल कृत “द इंडियन आर्ट” में वर्णन है कि मथुरा के अजायब घर में बुद्ध की मूर्ति में जो सौंदर्य है उससे बौद्ध कालीन शिल्प कला कौशल का ज्ञान होता है। मूर्ति का सौंदर्य बताता है कि भारतीय शिल्प कला के कितने उच्च कोटि के विद्वान थे।

रींवा स्टेट विन्ध्य प्रदेश के घोघर में अजायब घर के सामने शिव पार्वती की मूर्ति स्थापित है, यह रींवा के जंगल से लाई गई है, कुछ मूर्तियां आद्य शंकराचार्य के समय की जमीन से खोद कर निकाली गयी हैं, इनमें महावीर और महात्मा गौतम बुद्ध की मूर्तियाँ शिल्प कला का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। शिव पार्वती की 12 फ़ुट ऊंची मूर्ति बड़ी ही सुंदर है।

आज विश्वकर्मा पूजा दिवस होने के कारण हम शिल्पकारों को याद कर रहे हैं जिन्होने हमारे विश्व को सुंदर बनाने के लिए अपना खून पसीना एक किया और विश्व को अपने जमाने की श्रेष्ठतम कला कृतियाँ दी। शिल्प के देवता भगवान विश्वकर्मा को हमारा शत शत नमन।


सहस्त्रशीर्षा पुरुष: सहस्त्राक्ष: सहस्त्र पात्।
सभूमि विश्वतो स्पृत्वात्यतिष्टद्दशांङूलम्॥

बुधवार, 15 सितंबर 2010

पानी बेचने वाले पापी

पहले जब हम कभी सफ़र में जाते थे तो हमेशा याद रखते थे कि पानी की सुराही ली है कि नहीं। बाकी सामान बाद में देखा जाता था। क्योंकि पानी सफ़र के लिए अत्यावश्यक था।

1989 की  बात है मैं भोपाल जा रहा था। घर से गाड़ी स्टेशन छोड़ गयी। जब प्लेट फ़ार्म पर पहुंचा तो पानी की याद आई। पानी की सुराही तो गाड़ी में वापस चली गयी थी। अब सोचने लगा क्या किया जाए? कोई पानी रखने का साधन मिले तो रख लिया जाए, लेकिन ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर आ चुकी थी।

तभी मेरी निगाह एक ठेले पर पड़ी, उसमें अन्य सामानों के साथ पानी की भरी बोतलें भी रखी थी। मैने पानी की बोतल के दाम पूछे तो उसने 18 रुपए बताए। भोपाल की टिकिट कुल 70 रुपए थी। मैने मजबुरन बोतल खरीद ली और उसका पानी चख कर देखा तो कसैला लगा। मैने बोतल का पानी खाली करके उसमें स्टेशन का प्याऊ का पानी भरा और गाड़ी में बैठ लिया। कहने का मतलब मैने बोतल के लिए 18 रुपए दिए और पानी मुफ़्त का भरा।

ये पहली शुरुवात थी भारत में पाप कमाने के धंधे की। हमारे पूर्वज कहते थे कि प्यासे को पानी और भूखे को भोजन कराना बड़े पुण्य का काम है। जो पानी का पैसा लेता है वो भिष्ठा खाता है। धनी-मानी लोग कुंए-बावड़ी खुदवाते थे।

गर्मी के दिनों में प्याऊ खोलते थे ताकि प्यासे को पानी मिले। प्यास से तड़फ़ कर किसी जान न निकले,साथ ही हमें पुण्य मिले जिससे हमारा अगला जनम सुधरे। आज भी हमें कुछ जगह प्याऊ मिल जाती है धार्मिक स्थलों पर। लेकिन स्टेशन और बस अड्डों पर प्याऊ का नामो निशान मिट हो गया है।

यात्रियों के रैन बसेरे के साथ प्याऊ भी गायब हो गयी हैं। क्योंकि पानी अब पैसे में मिलने लगा है। यदि कोई प्याऊ खोल देता है तो पानी का धंधा करने वाले पापी वहां  की मटकियाँ फ़ोड़ आते हैं जिससे उनका धंधा चलता रहे।

बाजारवादियों ने पानी का भी बाजारीकरण कर दिया। 14 रुपया लीटर पानी बेच रहे हैं, 20 वर्षों पहले हमने सोचा भी नहीं था कि हमारे देश में पानी भी बिकने लगेगा। लेकिन देखिए अब बिक रहा है।

गरीब से गरीब मजदूर को भी मैने पानी खरीद कर पीते देखा है। मिनरल वाटर के नाम खुले आम लूट चल रही है। जिस पानी को प्रकृति ने हमें मुफ़्त में दिया है उसे हम आज खरीद रहे हैं,ये कैसा दुर्भाग्य है और शान से मिनरल वाटर कहकर पी रहे हैं। जबकि बोतल पर कहीं पर भी मिनरल वाटर नहीं लिखा रहता।

बोतल पर लिखा रहता है पैकेज्ड ड्रिंकिग वाटर। यह है आंख के अंधों का काम। नल के पानी को बोतल और पाऊच में भर कर बेचा जा रहा है। घर-घर 20-20 लीटर की बोतलें पहुंचाई जा रही है। पानी के धंधे ने एक बड़ा बाजार खड़ा कर दिया है। आज अरबों रुपए का खेल पानी के नाम पर हो रहा है।

हम आज भी घरों में दूसरे दिन बासी पानी का इस्तेमाल नहीं करते। 24 घंटे होते ही पीने का पानी बदल दिया जाता है क्योंकि बासी पानी से स्वास्थ्य को हानि होती है। व्यक्ति कब्जियत जैसी महाबीमारी का शिकार हो जाता है। वायु विकार बढ जाता है। 

एक कम्पनी की पानी की बोतल  पर कहीं नहीं लिखा है कि इस पानी का इस्तेमाल कितने दिनों तक करना है, कोई एक्सपायरी डेट इस पर नहीं लिखी है। कुछ कम्पनियाँ तो लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन कर रही हैं, गंगाजल के नाम से नल का पानी भर कर बोतल में बेच रही हैं।

बोतल पर लिखा है-- न्युट्रिशियन फ़ैक्टस--कैलोरी -0, टोटल फ़ैट-0% , टोटल कर्ब-0%, प्रोटीन-0%।  जिस पानी को मिनरल वाटर कह कर बेचा जाता है इसमें कहीं नही लिखा है कि कौन सा मिनरल कितने प्रतिशत है ।

इससे पता चलता है कि जिस पानी का इस्तेमाल हम अमृत समझकर कर रहे हैं वह मरा हुआ है। उसमें जीवन नाम की चीज कहीं नहीं है। बस बासी पानी पिए जा रहे हैं और अपनी सेहत खराब कर रहे हैं।

कम्पनियों ने अपना मार्केटिंग नेटवर्क इतना तगड़ा बना लिया है कि अब गाँव-गाँव तक इन्होने अपनी पहुंच बना ली है। गाँव-गाँव में अब पानी बेचा जा रहा है।

व्यक्ति की कमाई का एक बड़ा हिस्सा पानी खरीदने पर खर्च हो रहा है। अभी तो यह बीमारी प्रारंभिक अवस्था में है लेकिन कुछ दिनों के बाद महामारी का रुप धारण कर लेगी। इसलिए जहां तक हो सके बोतल बंद पानी का बहिष्कार करें। अपने प्राकृतिक स्रोतों के पानी का उपयोग करें।

पानी के प्राकृतिक स्रोतों को दुषित होने से बचाएं। वाटर हार्वेस्टिंग के द्वारा बरसात के पानी को जमा कर जल स्तर को बढाएं। पानी का धंधा करने वाले पापियों को प्रोत्साहन न दें। अपनी आने वाली पीढी को विरासत में जल खरीद कर न पीना पड़े ऐसा कुछ काम करें।

अपना पानी का धंधा चलाने के लिए पानी के प्रदुषित होने का प्रचार कर अपना उल्लु सीधा कर रहे हैं, आम आदमी की जेब पर डाका डाल कर अपनी तिजोरी भर रहे हैं। पानी बेचने वाले पापियों को करारा जवाब दें।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

हमीरपुर की सुबह एक सार्थक संदेश के साथ हुई

अवधिया जी के साथ एक दर्शक
हरिया और उसका बेटा कल्लु दोनो ताड़ी बाज हैं। हमेशा ताड़ी के नशे में रहने वाले। इनके यार दोस्त भी नसेड़ी है। एक दिन साथ बैठकर पी रहे हैं। ताड़ी खत्म हो जाती है तो हरिया कहता है कि” कल्लु जा और ताड़ी लेकर आ। मुझे नशा कम हुआ है। कहीं से भी लेकर आ,नहीं तो तू मेरा बेटा नहीं है।“

कल्लु ताड़ी के लिए पैसे लेने अपने घर जाता है तथा माँ से पैसे मांगता है। वह पैसे नहीं देती तो कल्लु  उसके साथ गाली-गलौच करता है। तब उसकी माँ चैती उसकी पिटाई झाड़ू से कर देती है। दोनो में बहुत विवाद होता है। अचानक कल्लु चैती पर डंडे से प्रहार करता है और उससे पैसे छीन कर ताड़ी लेने चला जाता है।

हरिया और कल्ल
नशे बाज होने के कारण इनके घर की माली हालत ठीक नहीं है। कल्लु ताड़ी लेकर अपने बाप हरिया के पास पहुंचता है। दोनो खूब ताड़ी पीते हैं।

इधर गाँव का सरपंच श्रीधर कुछ रुपए और चावल देकर चैती पर डोरे डालता है, चैती उसे धमका देती है तो वह दूसरे हथकंडो पर आ जाता है। कल्लु को चोरी करता है, उसे पंचायत में बुला कर दंडित करना पड़ेगा। तभी चैती उसके द्वारा दिए गए रुपये और चावल को उसके मुंह पर मार देती है। तो वह गुस्से में सबको देख लुंगा कहकर वह चला जाता है।
अपनी माँ चैती को पीटता हुआ कल्ल

तभी चैती के घर में एक आगंतुक आता है वह उसे मां कह कर पुकारता है। कुछ खाने को मांगता है तथा रात रुकने के लिए बसेरा चाहता है। चैती उसे घर में रुकने को कहती है। इधर हरिया और कल्लु ताड़ी के नशे में मद मस्त होकर आते हैं।

घर में आगंतुक को देख कर पूछते हैं कि यह कौन है? आगंतुक कहता है कि वह एक सरकारी काम करने वाला आदमी है तथा इस तरफ़ वसूली में आया था। उसके पास बहुत सारे पैसे हैं, वह उन्हे पैसे दिखा देता है। इतने पैसे देखकर उनकी आँखे फ़टी की फ़टी रह जाती है और मन में लोभ जाग जाता है। कल्लु उसे चोर कहता है, और पूछता है कि इतने रुपए कहां से चुराकर लाया है। नही बताएगा तो मार डालूंगा कहकर उसका गला पकड़ लेता है। 

सरपंच श्रीधर और चैती
चैती उसे छोड़ाती है और कल्लु पर बरस पड़ती है। आगंतुक कौन है यह किसी को पता नहीं रहता। उसे चैती खाना खिलाकर सुला देती है।

इधर हरिया और कल्लु दोनो उसकी हत्या करके पैसे छीनने के योजना बनाते हैं। चैती उनको इस दुष्कृत्य के मना करती है। लेकिन दोनो नहीं मानते। हरिया सबसे पहले दाव लेकर उसकी हत्या करने जाता है लेकिन उसकी मासुमियत देख कर हत्या नहीं कर पाता, और ताड़ी पीने चला जाता है।

तब कल्लु उसकी हत्या कर देता है। हत्या के बाद पता चलता है कि आगन्तुक हरिया और चैती का खोया हुआ बेटा था। जो नदी में बह गया था। 

आगंतुक-हरिया-चैती
आगन्तुक ने अपने बारे में गांव के लोगों को बता दिया था कि वह  कौन है लेकिन हरिया और चैती के सामने भेद सुबह खोलना चाहता था।इस नाटक में यह बताने की कोशिश की गयी है कि नशे में आदमी संवेदनाएं खो देता है, लोभ और लालच में फ़ंस कर जंघन्य अपराध कर डालता है।

हिंसक हो जाता है जिससे उसका और समाज का अपूर्णिय नुकसान हो जाता है। समाज के लिए नशा खराब है। यह नाटक फ़्रांस के लेखक रुपर्ट ब्रुक के” लिथुआनिया” नामक नाटक से प्रेरित हो कर मंचित किया गया। सीधे-साधे ग्रामीण परिवेश की कहानी कहता नाटक हमीरपुर की सुबह हमारे सामने कई सवाल छोड़ जाता है।
अंतिम दृश्य-पछताते कल्लु-हरिया

बालकृष्ण अय्यर के कुशल निर्देशन में हरिया – शकील खान, कल्लु-योगेश पान्डे, चैती-सुशीला देवांगन, आगन्तुक-कविश गोखले, श्रीधर सरपंच-हेमलाल कौशल, रमुआ-सुरेश शर्मा ने प्रभावशाली अभिनय कर पात्रों को जीवंत कर दिया। मंच के पीछे के कलाकार मंच सज्जा-दीपिका नंदी, सामग्री संकलन-प्रकाश ताम्रकार, संगीत-वरुण चक्रवर्ती एव आमोस, प्रकाश-बालकृष्ण अय्यर थे। इनका कार्य भी सराहनीय रहा।

रंगमंदिर रायपुर में संस्कृति विभाग के सौजन्य से मंचित नाटक हमीर पुर की सुबह प्रभावशाली रहा। नशा हे खराब-झन पीहू शराब-अशोक भाई का नारा  है।

सोमवार, 13 सितंबर 2010

दांत का दर्द में लूट डॉक्टर की

दांत में अचानक दर्द हो गया, मैं रात की बस से जगदलपुर से आ रहा था. बस में लेटे-लेटे दर्द से व्याकुल हुआ तो आखिर में बैग में पड़ी एक दर्द निवारक दवाई लेनी ही पड़ गई, सोचा थोडा दर्द कम हो जायेगा. लेकिन दवाई लेने के बाद भी दर्द कम नहीं हुआ.

जैसे-तैसे रात कटी. सुबह घर पहुंचा. सोचा कि अब डॉक्टर को दांत दिखाना चाहिए, नहीं तो दर्द के मारे बुरा हाल हो जायेगा. ये सोच कर मैंने दांत के डॉक्टर की तलाश की, वैसे तो शहर में सैकड़ों डॉक्टर हैं, पर मैं थोडा विश्वास का डॉक्टर चाहता था. एक बार पहले भी एक दांत निकलवाया था.

मैं पता करके डॉक्टर के पास पहुंचा, तो हमारे विख्यात चित्रकार डी.डी. सोनी जी मिल गए, वो बोले कहाँ ?

 डॉक्टर के पास जाते हो? मैं एक मंजन बताता हूँ, उसे लगाओ और दांत की सारी बीमारी ठीक हो जाएगी. मैंने उनकी बात की तरफ ध्यान ही नही दिया और क्लिनिक में घुस गया।


एक बहुत सुन्दर सुसज्जित केबिन, जिसमे कंप्यूटर आदि लगा कर सजाया गया था, डॉक्टर ने मेरा दांत देखा, और कहा कि आपका जो दांत निकला हुआ है. उसे फिर से लगाना पड़ेगा कई दांत दिखाए और नाप देने को कहा.

मैंने कहा कि अभी मै बाहर दौरे पर जा रहा हूँ, आने के बाद नाप दे दूंगा. पहले इस दर्द का इलाज करो, पेन किलर से भी ठीक नहीं हो रहा है. उसने कहा कि आप 1000 रूपये जमा करवा दो, मैंने 1000 रूपये जमा कर दिये, उसने कहा कि आपके दांतों की सफाई करने पड़ेगी,फिर दर्द ठीक हो जायेगा.

उसने कुर्सी पर बिठा कर दांत की सफाई कर दी और लग-भग 500 रूपये की गोली दवाई पेस्ट इत्यादि लिख दिया. हमारी दुबारा मिलने की तारीख भी तय हो गई, जब दांत का नाप देना था. उसने कहा कि जब आप दुबारा आओगे तो आपके दांत की सफाई एक बार और कर दूंगा, उसका चार्ज नहीं लगेगा।


मैं केरल के दौरे पर चला गया, कुछ दिन तो दर्द ठीक रहा, वापसी में एक दिन फिर शुरू हो गया, मैं फिर से उस डॉक्टर के पास गया. तो उसने एक दांत की कीमत 800 से 2000 तक बताई, और एक दांत के लिए तीन दांत लगाने पड़ेंगे. मैं अब समझ चुका था कि ये डॉक्टर "माल प्रैक्टिस" पर उतर आया है.

मैंने कहा आप दांत की सफाई कर दो. तो उसने देख कर कहा कि अब सफाई की जरुरत नहीं है. अभी कुछ दिन पहले तो की थी. मैंने कहा अब मेरा हिसाब कर दो, जो मैंने 1000 रूपये जमा करवाए हैं. देखो उसमे से कितने रूपये बचे हैं ?

मुझे वापस कर दो. मुझे नए दांत नहीं लगवाने. तो डॉक्टर बोला वो तो हो गए दांत सफाई के, येल्लो गयी भैंस पानी में, दिन दहाड़े डाका पड़ गया। जिन दांतों की सफाई 60 रूपये में करवाई थी. उसके एक हजार रूपये. मैं अपना बैग उठा कर चुपचाप चला आया,

आते ही मैंने डी.डी. सोनी के बताये हुए 40 रूपये के मंजन को मंगवाया और उसका इस्तेमाल किया, तब से आज तक दांत में दर्द नहीं हुआ है.

सारे डॉक्टर लूटेरे नही हैं, पर कुछ डॉक्टर तो ऐसे हैं जो मर्ज से पहले मरीज को ही ठिकाने लगाने का काम करते हैं, बेख़ौफ़ हो कर. लेकिन कुछ हैं जिन्होंने इस पेशे को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

हमारे एक डॉक्टर मित्र हैं, उन्होने दिव्य दृष्टि पाई है। बिना किसी एक्स रे के ही जान जाते हैं कि मरीज जेब में कितने रुपए लेकर आया है और कितने रुपयों तक का इलाज झेल जाएगा। उसके बाद उसका मुंडन शुरु कर देते हैं। किसी ने सही कहा है:-

इनको  क्या  काम  है मुरव्वत से 
ये  अपने  रुख  से  मुंह  ना मोड़ेंगे 
फरिस्ते  शायद  जान  छोड़ भी दें
पर डॉक्टर अपनी फ़ीस ना छोड़ेंगे

रविवार, 12 सितंबर 2010

संडे का फ़ंडा--गोल गोल अंडा

रविवार है छुट्टी का दिन और गणेश पूजा का पर्व प्रारंभ हो चुका है। इसके बाद पितृ पक्ष और नवरात्रि। फ़िर बीस दिनों के बाद दिवाली। गणेश पूजा के बाद हम इतने व्यस्त हो जाते हैं त्योहारों में की पता ही नहीं चलता कब दीवाली आ गयी। आज रविवार को संडे का फ़ंडा में चित्र प्रस्तूत हैं आप बताएं कि ये क्या है?






मिलते हैं एक ब्रेक के बाद

शनिवार, 11 सितंबर 2010

हमीरपुर की सुबह -- कैसी हो्गी?

आज एक खुशखबरी देना चाहता हूँ आपको। सर्व प्रथम गणेश चतुर्थी और ईद की हार्दिक शुभकामनाएं और ढेर सारी बधाई। इसके साथ ही एक खुशखबरी और जो नाटक{play} का शौक रखते हैं उनके लिए।

आज हमारे अजीज मित्र बालकृष्ण अय्यर के निर्देशन में "हमीर पुर की सुबह" नामक नाटक  ॥ सितम्बर शनिवार शाम साढे सात बजे रंगमंदिर रायपुर में खेला जाएगा। इसमें आप सभी आमंत्रित हैं। रंग मंदिर में पधार कर हमीर पुर की सुबह के मंचन का आनंद लें।

यह नाटक ।9।5 में फ़्रांस के लेखक रुपर्ट ब्रुक के नाटक "लिथुवानिया" से प्रेरित है। लिथुवानिया एक स्थान का नाम है तथा फ़ूल का भी। इस फ़ूल की खासियत यह है कि ये रात में ही खिलता है तथा सूर्योदय के पहले मर जाता है। इसकी जिन्दगी सिर्फ़ एक रात की होती है। 

बालकृष्ण अय्यर निर्देशन करते हुए
पात्र इस प्रकार हैं-

निर्देशक-- बाल कृष्ण अय्यर

कलाकार

शकील खान--हरिया-- यह एक मजदूर है
कविश गोखले-आगंतुक- एक रात का अतिथि
सुशीला देवांगन-चैती--हरिया की पत्नी
हेमलाल कौशल-श्रीधर--जमीदार
योगेश पाण्डेय-कल्लु--हरिया का बेटा
सुरेश शर्मा-रमुआ--ग्रामीण

पार्श्व कलाकार-- ड्रेस एवं सज्जा-दीपिका नंदी, प्रकाश ताम्रकार
संगीत--वरुण चक्रवर्ती
बाल कृष्ण अय्यर प्रख्यात नाट्य निर्देशक हैं इनका निर्देशन काफ़ी सधा हुआ और कसा हुआ होता है। पूर्व में भी हम देख चुके हैं इनका नाट्य निर्देशन। पुन: आप सभी को आमंत्रण है भुलिएगा नहीं।यह नाटक संस्कृति विभाग छत्तीसगढ शासन के द्वारा आयोजित है।
मिलते हैं रंगमंदिर में हमीर पुर की सुबह के साथ--स्वागत है।

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

शहर में बढता हुआ ट्रैकिक दुर्घटनाओं का बड़ा कारण

काश, भगवान ने सिर के पीछे भी आँखे दी होती। दो नहीं तो एक ही से काम चला लेते या उल्लू जैसे 180 डिग्री तक गर्दन घुमा कर पीछे देख लेने की सुविधा दे दी होती तो कितना अच्छा रहता। मैं ये इसलिए कह रहा हूँ कि कभी-कभी पीछे भी देखना जरुरी हो जाता है।

गाड़ियों में तो बैक मिरर और साइड मिरर की सुविधा रहती है जिससे हम पीछे देख लेते हैं, लेकिन जब पैदल चलना होता है तो बड़ी मुस्किल हो जाती है। सड़क पर पीछे भी ध्यान रखना जरुरी हो जाता है। पता नहीं कौन पीछे से आ जाए। क्योंकि वार हमेशा पीछे से ही कारगर होता है।

इसलिए पीछे से वार करने वाले के लिए कहा जाता है कि सामने आकर वार कर, कायरों की तरह पीछे से क्या वार करता है। अरे मैं वार तक कहां पहुंच गया। बात तो कुछ दूसरी ही थी।

वर्तमान में गाड़ियों की संख्या में बहुत ही ज्यादा इजाफ़ा हुआ है। पहले गाँव भर में एक दो गाड़ियाँ होती थी। अब हर एक घर में आदमी पीछे गाड़ियाँ है। जिसका असर यातायात पर पड़ा है।

हाइवे पर पैदल चलना तो बहुत ही मुसीबत भरा है। जहां सर्विस रोड़ नहीं है वहां तो और भी ज्यादा खतरा है। आप मजे से सामने देखते हुए जा रहे हैं और कोई रांग साइड आकर आपकी पीछे से पूंगी बजाकर जा सकता है। ट्रकों पर लिखा रहता है फ़िर मिलेंगे।

लेकिन जब वह पीछे से ठोकर मार जाता है तो वह भी नहीं दिखाई देता कि कौन सी गाड़ी वाला अस्पताल का रास्ता दिखा गया।

सड़को पर ट्रैफ़िक इतना ज्यादा हो गया है कि सुबह का निकला अगर शाम को घर आ जाता है तो समझ लीजिए नया जन्म है।

इसे रात को अच्छे से सेलीब्रेट कीजिए और चैन की नींद लीजिए। न जाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाए। सुबह काम पर जाते हुए सबसे गले लग कर मिल लीजिए, क्या भरोसा फ़िर कब मुलाकात हो और कहाँ हो। फ़िर गाड़ियों की स्पीड इतनी ज्यादा रहती है कि मत पूछिए।

 जो नए-नए चूजे अंडा फ़ोड़ कर बाहर निकले हैं वे अपने आप को धूम 2 के हीरो से कम नहीं समझते। जैसे वे सारे करतब सड़क पर ही दिखाने घर से आए हैं। बिना माँ बाप के। हम तो हाथ पैर तुड़वाएंगे ही और तुम्हारी भी टॉंग खूंटी पर तीन महीना लटवाएंगे।

सड़क पर एक बाबा बहुत दिनों से पुलिया पर बैठे दिखाई देते थे। रोज सुबह नियम 10 बजे सड़क की पुलिया पर आकर बैठ जाते थे।

एक दिन मैने पूछ ही लिया –“बाबा आप रोज नित नेम से यहां पुलिया पर आकर बैठ जाते हो और थोड़ी-थोड़ी देर में सामने हाथ हिलाते रहते हो। गाड़ियाँ देखते रहते हो, क्या बात है? किसका इंतजार है?”

बाबा एक गहरी सांस लेकर बोले-“ बेटा मुझे सड़क के इस पार आए दो महीने हो गए। बात ये हैं कि सड़क के उस पार मेरे बेटे का घर है और इस पार मेरी बेटी का। एक दिन मेरी इच्छा अपनी बेटी से मिलने की हो गयी तो बेटा मुझे यहाँ छोड़ गया है।

बेटी अकेली और बीमार है। सोचा कि मिल ही लूं। तब से बेटे का इंतजार कर रहा हूँ कि वो मुझे लेने आए तो सड़क पार करुं और वो देखो जो सामने की बिल्डिंग में जो छत पर बैठी हुई दिख रही है वह मेरी पत्नी है। मैं रोज उसी को देखकर हाथ हिलाता हूँ कि मुझे लेने के लिए लड़के को भेज दे। लेकिन लड़का सुनता ही नहीं है।

एक बार सड़क पार करने की हिम्मत अकेले ही की थी। एक मोटर साइकिल वाले ने टक्कर मार दी मेरी टाँग टूटते-टूटते बची। तब से यहीं बैठ कर सबर कर लेता हूँ, कभी तो उस पार जा पाऊंगा…………….वाह रे ट्रैफ़िक……….…….।

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

तिहरा शतक ललित डॉट कॉम का

नमस्कार मित्रों, आज ललित डॉट कॉम ने 3 सैकड़ा पार कर लिया। गत वर्ष 14 सितम्बर 2009 को हिन्दी दिवस के दिन मैने पहली पोस्ट लगाई थी। मतलब 359 दिन में 300 पोस्ट लगाई गयी। दो महीने का लोचा हुआ है बीच में, जब हमने लिखना बंद किया था ब्लॉगोमैनिया का मरीज घोषित होकर। डॉक्टर साहब ने बिना मर्ज देखे ही मरीज बना दिया था।
वैसे भी लगातार ब्लागिंग करना हंसी ठट्ठा नहीं है, इतने दिनों में हमें यही समझ में आया है। नित्य अपने आपको ब्लागिंग से जोड़ कर रखना भी एक साधना से कम नहीं है। मैं तमाम ब्लाग साधकों का नमन करता हूँ जो कि ब्लागिंग में टिके हुए है। खुंटा मजबूत हो तो उखड़ने का खतरा कम ही रहता है, नहीं तो लगा एक झटका और जय राम जी की।
चलिए अब वे दिन भी बीत गए, लेकिन ब्लॉग जगत में डेढ साल तक टिक जाउंगा मैने सपने में भी नहीं सोचा था। मेरी धारणा हमेशा यही रही है कि प्रत्येक मानव से प्रेम व्यवहार रहे। कटुता का लेश मात्र भी न रहे। इसलिए विवादित पोस्टों पर टिप्पणी करने से हमेशा बचता रहा। हां,जहाँ मुझे उचित लगा,वहां मैने अपने विचार खुल कर रखे।
300 वीं पोस्ट एवं 4712 टिप्पणियों साथ ब्लागिंग का अविराम सफ़र चालु है, लड़ लें और झगड़ लें, लेकिन हिन्दी ब्लॉगिंग  जैसा मंच नि:संदेह और कहीं भी नहीं है। इस आभासी दुनिया में वास्तविक दुनिया के सभी तरह के पात्र उपलब्ध हैं, जिनको लेकर आभासी जगत बना है।
इस अवसर पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सभी मित्रों का आभार प्रदर्शित करता हूँ, इस अवधि में मैने लगभग 1000 से अधिक पोस्ट तो अवश्य ही लिखीं होगीं, सभी ब्लॉगों और चर्चाओं को मिलाकर। ब्लॉग जगत में मुझे बहुत ही अच्छे मित्र भी मिलें हैं। सभी को साधुवाद देता हूँ। आप सभी के स्नेह से अभिभूत हूँ।
सभी को मेरा नमन है-ब्लॉगिंग रंग-बिरंगे फ़ूलों से सजा हूआ, कांटों भरा चमन है। फ़िर भी अपना वतन है अपना वतन है।

बुधवार, 8 सितंबर 2010

लोहे की भैंस-नया अविष्कार

लोहे का पाईप, चद्दर, एंगल, गिरारी, पुल्ली, सफ्टिंग, नट-बोल्ट, स्क्रू इकट्ठे रहा हूँ, अब मैंने जो माडल कागज पे खींचा है उसे मूर्त रूप देने के लिए जरूरत है एक वेल्डिंग मशीन की, जो इन सबको जोड़ दे।एक नया अविष्कार हो जाये, इस मानव जगत के लिए. मैं भी कुछ इस संसार को देना चाहता हूँ.।वेल्डिंग मशीन के लिए दौड़ कर पड़ोसी जागेश्वर के पास जाता हूँ-
"जरा दो घंटे के लिए तेरी वेल्डिंग मशीन दे दे यार," 
"क्या करोगे महाराज आज वेल्डिंग मशीन का?"-जागेश्वर कहता है. 
"कुछ नही थोडा पाईप एंगल वेल्डिंग करना है ।" 
वेल्डिंग मशीन घर लेकर आ जाता हूँ और मनोयोग से अपने काम में लग जाता हूँ , मेरी मशीन तैयार हो जाती है ,हो जाता है तैयार मेरा नया अविष्कार, "दूध देने वाली मशीन", 
पहले हमारे घर में गाय-भैंसों से कोठा भरा रहता था, उनकी सेवा चाकरी के लिए 5  नौकर, जो दाना-चारा पानी से लेकर सारा काम करते थे, हमें मिलता था शुद्ध दूध, दही, घी, छाछ, और उस समय गरम-गरम गुलाबी मलाई चुरा कर खाने का तो क्या आनंद था. दोपहर में जब सब आराम करते थे तो मैं चुपके से निकल कर मिटटी की हांडी का ढक्कन खोल कर एक झटके में  ही पूरी मलाई साफ कर जाता था. सबसे अधिक दूध-घी मेरे ही हिस्से में आता था. 
अब ये सब एक गुजरे जमाने की बातें हो गयी, एक दिन फिर भैंस लेने की मन में आई, मैंने माँ को राजी किया, वो तैयार हो गई.लेकिन छोटे भाई ऐसा गणित समझाया कि पूरी योजना फेल हो गई. वो हिसाब लगा कर बोला, 
"माँ देख ले हिसाब, एक भैंस खरीद कर उसे खिलाने पिलाने के बाद जो दूध हमें मिलेगा, उसमे हमें घाटा ही है और उसे पालने का सिरदर्द अलग से, इससे सस्ता तो "मोल" का दूध है और कोई समस्या भी नहीं है।"
इतने से ही मेरी योजना फेल हो गई. मैंने सोचा कि इस समस्या का हल अब मशीन से ही करना है ।कम से कम बच्चों को घी - दूध मिल जायेगा,इसलिए मैंने इस मशीन का अविष्कार किया। लोहे की मशीन, बिजली से चलने वाली, बस एक तरफ से चारा डालो, दूसरी तरफ से दूध निकालो, "नो टेंशन", अब मशीन बन गई. उसे मैंने चालू किया,चारा डाला तो तो दूध निकलने लगा, मोगेम्बो खुश हुआ. एक नया अविष्कार "लोहे की भैंस" बटन दबावों, चारा डालो, दूध निकालो, अचानक देखा कि  दूध के साथ-साथ उसी पाईप से गोबर भी निकलने लगा तब मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ. 
"अरे! मैं तो एक गोबर निकलने का कनेक्शन बनाना ही भूल गया, गोबर को तो अलग रस्ते से निकालना पड़ेगा. नहीं तो दूध वाले रास्ते से ही आएगा, दूध का सत्यानाश हो जायेगा. नया अविष्कार फेल होने की कगार पर था. मै सर पर हाथ रख कर सोच रहा था कि क्या किया जाये? समस्या का हल कैसे निकाला जाये? 
तभी महाराजिन की धमकी भरी आवाज सुनाई दी-
"अरे! पांच बज गए हैं, क्या रात तक सोते ही रहोगे?" 
बस हो गया सत्यानाश, योजना पर पानी फिर गया, मेरे नए अविष्कार की भ्रूण हत्या हो गयी. मैंने आँख मलते हुए कहा -
"प्रिये! अगर थोड़ी देर सबर कर लेती तो सात पीढ़ी बैठे-बैठे रायल्टी खाती. एक नई स्वेत क्रांति का जन्म  होता। सारा संसार दूध से मालामाल हो जाता। देखो कितना नुकसान हो गया  मेरा? जानम समझा करो, सोते से मत जगाया करो?

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

चतुरानाऊ भोकवा पांड़े

चतुरानाऊ भोकवा पांड़े--भाग-1--यहाँ पढिए

सेठ चिरौंजी लाल और परसादी घर पहुंचे । सेठ ने माता जी का तेरहीं भोज बड़ी धूम धाम से किया और परसादी की बड़ाई सबके सामने जोर शोर से की। परसादी को सेठ ने बहुत कुछ दान दक्षिणा दिया। लेकिन परसादी के दिल में बदले की भावना पल रही थी। कब मौका मिले और सेठ का हिसाब चुकता किया जाए।
इधर दीवाली बीती और कटाई हो कर धान खलिहान में पहुंच गया। मौसम बदलने लगा। धान आने के साथ लोगों के मन में उमंग आ चुकी थी। अपनी आवश्यकता की वस्तुएं खरीद रहे थे। यही समय इलाहाबादी पंडो के आने के भी होता है।
पंडा महाराज गाँव में पहुंचे, उन्होने परसादी ठाकुर का पता एक बालक से पूछा तो बालक ने महाराज को परसादी के घर पहुंचा दिया।
पंडा महाराज ने आवाज दी-“ठाकुर हो क्या? हम रामनिधि पाण्डे इलाहाबाद वाले आए हैं”
हांका सुनकर ठकुराईन ने बाहर आके तखत पर सोलापुरी चादर बिछाई, महाराज को पै लागी किया, और अंदर चली गयी। एक लोटा पानी लाकर रखा, पीछे-पीछे परसादी भी पहुंच गया-“ महाराज, पाय लागुं। कब पहुंचे? कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई रास्ते में”-परसादी ने एक साथ कई सवाल दाग दिए।
“अभी ही पहुंचे हैं, कोई तकलीफ़ नहीं हुई, सारनाथ एक्सपरेस में कई जजमान मिल गए थे। बस सेवा पानी लेते चले आए, और कहो कैसे हो”?
“आपकी कृपा से सब कुशल है महाराज, जाही पर कृपा राम के होई, ताही पर कृपा करे सब कोई”-परसादी रौ में आकर बोला।
“जाओ भई हमारी दक्षिणा का इंतजाम करो, अभी तो हमें बहुत जगह जाना है। विलंब मत करो।“
“इतनी क्या जल्दी है महाराज, पाँच गाँव की दक्षिणा है स्टॉम्प लिखाना पड़ेगा, नोटरी ओकिल के पास जाना पड़ेगा। कोरट कचहरी का काम है, आप जल पान किजिए और आराम करें, कोई तकलीफ़ नहीं होगी। तब तक मैं सेठ को बता कर आता हूँ”- कह कर परसादी चल पड़ा।
सेठ गल्ले पर बैठा था, कोई चाय गुड़ मांग रहा था तो कोइ माटी राख, कोई बीड़ी तम्बाखु, हो हल्ला हो रहा था। नौकर सामान दे रहे थे। सेठ रुपए पैसे का हिसाब कर रहे थे। सेठानी परदे के पीछे से सब पर नजर रखे हुए थी। तभी परसादी पहुंचा-“ राम राम सेठ जी।“
सेठ ने सिर उपर उठा कर देखा-“राम राम कैसे आए ठाकुर”?
“इलाहाबाद वाले पंडा महाराज आए हैं, चलिए अब उनका दान-दक्षिणा करना है।“
“अरे तुम तो वहां पाँच गाँव, 5 गाड़ी धान और 2 बोरा मसूर दक्षिणा एव भुर्सी दक्षिणा के 5000 रुपए का संकल्प करा आए थे। मैं कोई जमीदार या मालगुलार हूँ क्या? गाँव की दक्षिणा कहाँ से दूंगा।“
“जब संकल्प किया है तो देना ही पड़ेगा, नहीं तो बेईज्जती होगी और पंडा महाराज अपने बही खाता में लिख देगा तो तुम्हारी सैकड़ों पीढियों तक दाग लग जाएगा।“- परसादी बोला।
“तुमने ही मुझे फ़ंसाया था वहाँ, मैं तो नगद देकर पाँव पड़ लेता महाराज के। अब तुम ही निपटाओ मामला। मेरे बस का नहीं है।–“ सेठ चिरौंजी लाल ने खिसियाते हुए कहा।
“मामला तो मैं निपटा दुंगा, लेकिन एक शर्त है।“
“अब और कौन सी शर्त बाकी है तुम्हारी।“
“अगर तुम अपनी लड़की चम्पा की शादी मेरे लड़के अंकालु से कर दो तो मैं पाँच गाँव की दक्षिणा वाला मामला निपटा दूंगा।“ परसादी ने मौका देख कर अपनी चाल खेली।
“हरामखोर, तेरी इतनी हिम्मत हो गयी। साले तेरा खून पी जाऊंगा मैं।“ सेठ गल्ले से उठने लगा। तभी परदे के पीछे से देख रही सेठानी उसे पकड़कर अंदर खींच लिया।
“क्या तमाशा करते हो जी, जरा सब्र से काम लो। नाजुक समय है, दोनो तरफ़ से इज्जत खतरे में है, और इस नाऊ ने तो फ़ंसा ही दिया हमें। अगर दान-दक्षिणा नहीं देते हैं तो पुरखों की इज्जत जाती है और कुल पर कलंक लगता है और लड़की का हाथ देते हैं तो जग हंसाई होती है। जरा ठंडे दिमाग से बिचार किया जाए, मैं परसादी को सुबह बुलाती हूँ तब तक हम कुछ हल निकालने का प्रयास करते हैं।”
“इस विषय पर कल बात करेंगे ठाकुर, अभी सेठ जी का दिमाग बहुत गर्म है। कल सुबह आना।”- कह कर सेठानी ने परसादी को टाल दिया।
रात को भोजन करके सेठ सेठानी ने संकट पर विचार करना शुरु किया कि समाधान कैसे किया जाए।
“साले परसादी ने बदला लेने का बढिया तरीका ढुंढा है। उसका तो मैं खून पी जाऊंगा, भले ही जेल हो जाए।“-सेठ ने कहा
“मैने तुम्हे इतना समझाया लेकिन वही ढाक के तीन पात। अरे ठंडे दिमाग से काम लो। पाँच गाँव का हिसाब तो परसादी ही कर सकता है, तभी उसने यह पेंच फ़ंसाया है। उसके बिना काम चलने वाला नहीं है।“
“तुम कह तो सही रही हो, जिसे उत्तर मालूम होता है वही भरी सभा में सवाल खड़े करता है। तो क्या लड़की उसके हवाले कर दें, बिरादरी में नाक कटवा लें, एक नाऊ को समधी बना कर।“
“लखन महाराज की डॉक्टर लड़की ने हरिजन लड़के से कोर्ट में शादी कर ली, उसकी तो नाक नहीं कटी। बड़े मजे से गाँव में शान से रहता है कि उसका दामाद कलेक्टर है। बैसाखु मन्डल के लड़के ने डेरहु धोबी की लड़की से शादी कर ली, वह अब मजे से उसके घर में बहु बनी हुई है, उसे तो कोई फ़रक नहीं पड़ा। ऐसे पचीसों उदाहरण हमारे गाँव में हैं।“
“ये नाऊ का लड़का कौन सा कलेक्टर-डॉक्टर है, अभी तो पढ रहा है, क्या देख के लड़की दी जाए।“
“हो सकता है आगे पढ कर कुछ बन जाए, अभी उमर ही क्या है बच्चों की। एक काम करो, कल जब परसादी आए तो उसे कह दो, हमें तुम्हारा रिश्ता मंजुर है, मगर एक शर्त है, अगर लड़का पढ लिख कर साहब बन गया तो शादी पक्की, नहीं बना तो फ़िर जो हम चाहेंगे वो करेंगे। लड़की अभी नाबालिक है, इसलिए अभिभावक की जिम्मेदारी है उसके विषय में फ़ैसले लेने की।“
“हां तुम्हारी बात तो जच रही है, पहले इस झमेले से निपटा जाए।“ अब सोया जाए, सुबह देखेंगे।
सुबह 8 बजे परसादी पहुंच चुका था सेठ की दुकान पर, सेठ उसका बेताबी से इंतजार कर रहे थे।
“राम राम सेठ जी, हो गया फ़ैसला।“
“तुम्हारी शर्त मंजुर है परसादी, हम समधी बन सकते हैं।“
“रुको, जरा मैं सरपंच और पंचों को बुला लेता हूँ, उनके सामने ही बात होनी चाहिए, पंचायत गवाही रहेगी तो ठीक रहेगा।“
“बुला लो सभी को, मुझे कोई आपत्ती नहीं है।“-सेठ ने कहा
परसादी पंचायत को बुला लाया, सबके सामने करार हो गया, सेठ और परसादी गले मिले। सरपंच और पंच ने उन्हे बधाई दी। अब सेठ ने परसादी से पंडा महाराज की दक्षिणा निपटाने कहा। परसादी ने सोचा की वह मामला भी यहीं निपटा दिया जाए पंचायत के सामने, उपयुक्त रहेगा। उसने महाराज के लिए तखत लगाने कहा और उसे बुलाने चला गया।
परसादी महाराज को लेकर आया। तखत पर बैठते ही सेठानी ने पंडा महाराज के चरण पखारे, सेठे ने पैलागी किया। जल पान प्रस्तुत हुआ। परसादी सेठ से बोला-“ 500 रुपए दिजिए जो महाराज ने हमें नगद दिए थे किराए भाड़े के लिए, बस और कुछ नहीं। महाराज को मैं बिदा करता हूँ, खुशी-खुशी।
“महाराज ये 500 रुपए रखिए, जो आपसे नगद लेकर आए थे और मैं घर से तुरंत आता हूँ, आपकी बाकी व्यवस्था करके।“-कहके परसादी अपने घर चला गया। वहां से उसने अपने औजारों की पेटी उठाई और पंचायत में लाकर पंडा महाराज के आगे धर दी।
“ये क्या है? नाऊ पेटी, इसका मैं क्या करुंगा?-महाराज ने कहा
“यही तो काम की चीज है महाराज, इसका संबंध आपकी दक्षिणा से है। मैं पाँच गाँव में सालाना स्थाई तौर पर नाई का काम करता हूँ जिसके एवज में मुझे सालाना 5 गाड़ी धान और 2 बोरा मसूर एवं 5000 रुपए नगद मिलते हैं। आज से ये पाँच गाँव आपके हुए, वहां अब काम शुरु करिए, आपको सालाना 5 गाड़ी धान और 2 बोरा मसूर एवं 5000 रुपए नगद मिलेंगे। मैं और कोई काम कर लुंगा। ये पाँच गाँव वचन अनुसार आपको समर्पित करता हूँ…………..।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

चतुरानाऊ भोकवा पांड़े

“परसादी ओSSS परसादी, ओSSS ठाकुर, घर पर हो”?- भोर में ही सेठ चिरौंजी लाल गोहार लगा रहे थे।परसादी नाई हमारे गाँव का चलता-पुर्जा बुद्धिमान आदमी था। गाँव के लगभग हर रहवासी को उससे काम पड़ ही जाता था। 

वेश-भूसा भी उसकी प्रभावशाली होती थी, अगर कोई अनजान आदमी उसे देख ले तो ब्राह्मण समझ के चौदह बार प्रणाम करे और बोली भाखा का तो मर्मज्ञ था, अपने बोल-बचन से पत्थर को भी वश में कर ले। सभी उसे बहुत मान देते थे। वह सबके काम आता था। छट्ठी से लेकर मरही-बरही तक सबकी सेवा करता था। 

विगत कुछ माह से सेठ चिरौंजी लाल से उसकी कुछ खटपट चल रही थी, अपने लड़के को लेकर। इसलिए उससे बात-चीत बंद थी। लेकिन आज चिरौंजी लाल को उससे काम पड़ ही गया। आना ही पड़ा उसकी दुवारी पर।

हुआ यूँ कि आजादी के बाद जागृति की लहर गाँव-गाँव में चली। गाँव में विकास सड़क के रास्ते आया। विकास सुबह से ही दिखाई देने लगता था, जब लोग लोटा लेकर सड़क के किनारे बैठे नजर आते थे। आजादी गाँव तक पहुंच गयी थी। गाँव में पक्की सड़क बन जाने से कस्बे तक कभी भी जाने का रास्ता खुल गया। 

पहले साप्ताहिक बाजार हाट में जाने वाले लोग अब तो छोटे से भी छोटा काम पड़ने पर सायकिल उठा कस्बे की तरफ़ चले जाते हैं। गाँव के लड़के-लड़की भी कस्बे के बड़े स्कूल में पढने जाने लगे। सेठ चिरौंजी लाल की लड़की चम्पा और परसादी का लड़का अंकालु भी रोज बड़े स्कूल जाने लगे।

जब चम्पा स्कूल के लिए घर से निकलती तो अंकालु तालाब की मेड़ पर सायकिल लिए पीपर की छांव में उसका इंतजार करते मिलता। फ़िर दोनो साथ ही स्कूल जाते। बचपन से दोनो एक साथ ही पढे थे, साथ-साथ ही खेले कूदे  थे। 

धीरे-धीरे दोनो के बीच प्रीत के कीटाणु पनप रहे थे। रहीम कवि ने कहा है कि खैर खून खांसी खुशी बैर प्रीत मदपान, रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान। बस ऐसा ही कुछ इनके साथ भी घट रहा था। 

गाँव में इस तरह की बातें जल्दी फ़ैलती हैं,लोग खाली समय में चटखारे लगाकर सुनाते और सुनते हैं। महिलाएं कुंए पर पानी भरते हुए या खेतों में निंदाई करते हुए, रोपा लगाते हुए इन चर्चाओं में व्यस्त हो जाती हैं।

एक दिन चम्पा और अंकालु स्कूल से भाग कर फ़िल्म देखने चले गए, कस्बे में तो टॉकीज था नहीं, एक विडियो हॉल था, उसमें सोहनी महिवाल फ़िल्म लगी थी। 

दोनों का बाल मन फ़िल्म देखने का हो गया, उन्होने अपने मन की कर ली और विडियो हॉल में फ़िल्म देखने बैठे ही थे। तभी चम्पा की नजर दुसरी तरफ़ बैठे बरातु काका पर पड़ी। वह उसे देख कर काँप  गयी। अब चोरी पकड़ी गयी, आज फ़िल्म पहली बार देखने आए हैं और यह गाँव में लोगों को जाकर पता नहीं क्या क्या नमक मिर्च लगा कर पढाएगा। 

चम्पा ने अंकालु को बरातु कका की ओर इशारा किया। वह समझ गया कि आज गयी भैंस पानी में। अब वहां से निकल भी नहीं सकते थे और बैठ भी नहीं सकते थे। उन्होने सोचा कि अब पकड़े गए जो होगा वो देखा जाएगा, फ़िल्म तो पूरी देखेगें। उन्होने पूरी फ़िल्म देखी। 

जब वे गाँव पहुंचे तो ऑल इंडिया रेड़ियो याने बरातु कका ने समाचार उनके पहुंचने के पहले ही प्रसारित कर दिया था।

सेठ चिरौंजी लाल तक भी बात पहुंच गयी थी उसने परसादी को बुलाकर धमकाया कि अपने लड़के को समझा कर रखे। 

चम्पा पर भी पाबंदी लग गयी थी। स्कूल छोड़ने उसके साथ सेठानी जाने लगी। फ़िर भी दोनों कभी-कभी मिलने का रास्ता निकाल ही लेते थे। 

सेठानी की नौकरानी कुछ पैसों के लालच में संदेशिया बन गयी। वह उनके संदेश लाने ले जाने लगी। सेठ चिरौंजी लाल ने परसादी का बहुत अपमान कर दिया था। जिससे वह भी बदला लेने की फ़िराक में था, कब सेठ फ़ंसे और बदला ले। उसने संकल्प कर लिया था, सेठ की लड़की को बहू बनाकर लेकर आएगा चाहे जो भी हो जाए। तभी उसके कलेजे में ठंडक पड़ेगी। और वह मौका आ भी गया, कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है।

सेठ की माँ मर गयी, अब अंतिम संस्कार में नाऊ और बांभन दोनो की जरुरत पड़ती है। जैसे ही सेठ की माँ मरी सबसे पहले नाऊ ठाकुर की याद आई, गाँव में संदेशा देने कौन जाएगा? 

वह सोच में पड़ गए। माँ के मरने से इतनी तकलीफ़ नहीं हुई जितनी नाऊ ठाकुर को बुलाने को लेकर थी। सेठानी ने सलाह दी कि जरुरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। अपना मतलब निकालने के लिए अभी नाऊ को तो बुलाना बहुत जरुरी है। 

हमारे छत्तीसगढ में अंतिम संस्कार के बाद अस्थि विसर्जन के लिए इलाहाबाद जाते हैं और वहीं पिंड दान करके मृतक का अंतिम संस्कार करने की परम्परा है। 

इलाहाबाद में सबके अपने-अपने पंडे हैं और उनके जजमान। सबकी अलग-अलग पहचान है कोई पीतल कड़ाही वाला, कोई लोहे की कड़ाही वाला, कोई नीले झंडे वाला कोई लाल झन्डे वाला, कोई गाड़ी वाला, कोई नाव वाला इत्यादि पहचान के पंडे ही पंडे हैं। 

परसादी के साल में 10-15 चक्कर इलाहाबाद के तो लगना तय थे। जब भी कोई अस्थि विसर्जन के लिए जाता तो उसे साथ जरुर ले जाता। उसे इलाहाबाद की अच्छी जानकारी थी। सभी पंडे उसे पहचानते थे और वो पंडो को। 

उसे यह भी मालूम था कि गाँव के अमुक घर में इलाहाबाद के अमुक पंडे की जजमानी है। उसे उसका ठिकाना तक मालूम था। इसलिए वह गाँव का महत्वपूर्ण व्यक्ति था। 

उसकी काबिलियत के आगे आज सेठ चिरौंजी लाल को झुकना पड़ा। भोर में ही उसके घर जाना पड़ा, उसके घर के बाहर खड़े होकर सेठ आवाज लगा रहा था।

“परसादी ओSSS परसादी, ओSSS ठाकुर, घर पर हो, मैं चिरौंजी लाल”? -सेठ ने पुकारा। लगातार पुकारने के बाद भीतर से आवाज आई-
“कौन है?”
“मैं चिरौंजी लाल”-सेठ ने कहा।
“रुको दरवाजा खोलता हूँ”-परसादी ने दरवाजा खोला- क्या हुआ सेठ भोर में चले आए, सब कुशल तो है?”
“अब क्या कुशल बताऊं, रात को माता जी चल बसी। अब तुम्हारी बहुत ही जरुरत है, जो कुछ भी गलती हुई है उस पर माटी डालो और इस काम को अपना समझ के निपटाओ।“
“आपने तो उस दिन मेरी बहुत बेईज्जती कर दी थी, जिससे मेरा मन अभी भी खिन्न है, मै नहीं जाता और किसी नाऊ का इंतजाम कर लो”-परसादी ने कहा। उसे तो मालुम था कि गाँव की जजमानी उसकी है कोई दूसरा नाऊ नहीं आने वाला। यह बात सेठ को भी पता थी।
“गुस्सा थूक दो परसादी, तुम जो कहोगे उतने पैसे दुंगा, रुपए पैसे की चिंता मत करो। बस मेरे काम को निपटा दो। मैं तुम्हारा अहसान मानुंगा।“
“ठीक है, लेकिन मैं जो कहुंगा वही करना पड़ेगा। फ़िर मत बोलना बीच में”-परसादी बोला
सेठ ने उसकी शर्त मान ली, तब कहीं परसादी उसके साथ चलने को तैयार हुआ। उसने अंतिम संस्कार का सब सामान जुटाया, महाराज को बुला कर लाया, गाँव वालों को संदेशा दिया। इस तरह सेठ की माँ का अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ।
अब तीजनहावन याने तीया के बाद इलाहाबाद जाने की तैयारी हुई। अस्थि विसर्जन करने के लिए। सेठ ने परसादी को बुलाया और उसे इलाहाबाद जाने के बारे में बताया। सेठ ने सुन रखा था कि इलाहाबाद के पंडे लूट लेते हैं। दक्षिणा के नाम पर अनाप-शनाप माँग रखते हैं। नहीं देने पर नाना प्रकार से डराते हैं और तो और वहां के भंगी नाव से अस्थि विसर्जन के समय अस्थियों को छूकर अपवित्र कर देते हैं जिससे मृत आत्मा नरक में चले जाती है। बिना किसी जानकार व्यक्ति के तो अस्थि विसर्जन जैसा महत्वपूर्ण कार्य संभव नहीं है। इसलिए परसादी को ले जाना जरुरी है।
परसादी ने कहा-“सेठ किसी बात की चिंता करने की जरुरत नहीं है, मैं हूँ ना। लेकिन वहां जाने पर जैसे मैं कहूँ वैसे ही करना, नहीं तो पंडे तुम्हारी धोती भी नहीं छोड़ेंगे। जब वह दक्षिणा संकल्प कराए तो जैसे-जैसे मैं कहूँ वैसे-वैसे कहते जाना। बाकी मैं संभाल लूँगा।“
सेठ ने उसकी बात मान ली और पूछा-“तो कितना रुपया पैसा रख लूँ खर्चे के लिए।“
“500 रुपया रख लो बस, ज्यादा रखने का क्या मतलब है। इतने रुपयों में सब काम हो जाएगा।“ परसादी बोला
“400 रुपया तो हम दोनो का एक तरफ़ का भाड़ा होता है इलाहाबाद जाने का। 100 रुपए में वापसी कैसे होगी?” सेठ ने पूछा
“तुम्हे आम खाने से मतलब की पेड़ भी गिनना है। बस, मैने कह दिया वही करो, नहीं तो और किसी को बुला लो।“- परसादी खिसियाकर बोला
सेठ ने वही किया। अस्थियों की थैली लटकाई और परसादी को लेकर इलाहाबाद पहुंच गया। सारनाथ एक्सप्रेस जैसे ही मानिकपुर पहुंची, ट्रेन में पंडों के एजेंट चढ गए और मुर्गे की तलाश करने लगे। उन्होने सेठ को पकड़ लिया अस्थियों की थैली लटकाए देख के। परसादी ने उन्हे बताया कि उनके पंडे रामनिधि पांड़े हैं फ़लाने वाले। तो पंडे के एजेन्ट उन्हे छोड़ कर चले गए। उनके इलाहाबाद पहुंचने से पहले ही पंडे को जानकारी हो गयी थी कि उनका एक जजमान सारनाथ एक्सप्रेस से आ रहा है। उसने सब तैयारी करके रखी थी। उसे पता चल गया था कि आसामी तो मालदार है।
अब ट्रेन से उतर कर दोनों जल्दी से घाट पर पहुंचे, तो पंडा महाराज तैयार थे, परसादी और सेठ ने पैलगी किया। पंडा महाराज बोले-“ आप अपना सामान यहीं तखत पर रख दिजिए और पहले चाय पान कर निवृत हो लिजिए फ़िर आपका अस्थि विसर्जन एवं पिंड दान का कार्य सम्पन्न कराते हैं।“
नित्य क्रिया से निवृत होने के बाद दोनो पुन: घाट पर पहुंचे। पंडा महाराज सब सामान सजा चुके थे। पूजा पाठ करा कर उन्होने एक नाव वाले को बुलाया और सेठ को उसके साथ भिजवा कर बीच गंगा में अस्थि विसर्जन करा दी। अब दक्षिणा संकल्प का समय आया। पंडा महाराज ने अक्षत पुष्प देकर दक्षिणा देने कहा। सेठ ने परसादी नाऊ की तरफ़ देखा, उसने कहा-“ मैं संकल्प करता हूँ कि पंडा महाराज को पाँच गाँव, 5 गाड़ी धान और 2 बोरा मसूर दक्षिणा में दिए।“
सेठ ने आश्चर्य से परसादी की तरफ़ देखा उसके चेहरे पर ऐसा भाव था कि कहीं फ़ंसवा तो नहीं रहा है। पंडा भी देख रहा था कि पहली बार कोई बहुत बड़ा आसामी फ़ंसा हैं जो गाँव दक्षिणा में दे रहा है। कहीं बिदक न जाए।
पंडा महाराज ने कहा- “संकल्प लिजिए जजमान, विलम्ब काहे कर रहे हैं।“
परसादी ने एक बार वही वाक्य फ़िर दोहराया अब सेठ को मजबूर होकर संकल्प लेना ही पड़ा।
“बोलिए भुरसी दक्षिणा में पाँच हजार नगद दिए”-परसादी ने कहा
सेठ ने भी वही दोहराया, पंडा महाराज तो धन्य हो गए थे। इतनी दक्षिणा पाकर उनके पैर धरती पर ही नहीं पड़ रहे थे। दिल बल्लियों उछल रहा था। वे परसादी और सेठ चिरौंजी लाल को अपने घर ले गए, उनकी विशेष खातिर दारी की। अब वापस आने का समय हो गया था।
परसादी ने पंडा महाराज से कहा-“ महाराज एक पाँच सौ रुपया दीजिए, हमें वापस भी जाना है। रुपया पैसा लाना ठीक नहीं समझा। आपको तो मालूम है ट्रेन में बहुत पाकिटमारी होती है। धान कटने के बाद जब आप दक्षिणा लेने आएंगे तो आपको वापस कर दिया जाएगा।“
खुशी-खुशी पंडा महाराज ने 500 रुपए अपनी अंटी में से निकाल कर दिए और अपने आपको धन्य समझा।
सेठ चिरौंजी लाल और परसादी नाऊ ने अलोपी बाग से ऑटो रिक्शा लिया और स्टेशन पहुंचे सारनाथ एक्सप्रेस से घर आने के लिए। गाड़ी में बहुत भीड़ थी ले-दे कर घर पहुंचे।
क्रमश:--

रविवार, 5 सितंबर 2010

भाई अशोक बजाज का जन्मदिन

आज 5 सितम्बर को भूतपूर्व राष्ट्रपति स्व: सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन है, उनकी इच्छा थी कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाए। तभी से उनके जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रुप में मनाया जाता है। स्कूलों में शिक्षकों का सम्मान किया जाता है,उनसे आशीष लिया जाता है। गुरुपूर्णिमा सदृश्य ही शिक्षक दिवस को मनाया जाने लगा है। हम भी अपने सभी शिक्षकों का चरण वंदन करते हैं जिन्होने हमें ज्ञान के सागर से परिचित कराया।
आज एक और महत्वपूर्ण दिन है, हमारे अग्रज भाई अशोक बजाज जी का भी जन्म दिन है। मेरे लिए बचपन से ही शिक्षक जैसे रहे हैं, लाड़-दुलार के साथ यथोचित समय पर शिक्षक के अनुरुप स्नेहिल मार्गदर्शन भी मिलता है जो कि मेरे बहुत काम का है। मेरे आदर्श हैं, कई मामलों में इनका अनुकरण करने का प्रयास करता हूँ।भाई अशोक जी को जन्म दिन की ढेर सारी बधाईयाँ, हम दीर्घायु की कामना करते हैं।



जन्मदिन मुबारक हो

अशोक बजाज जी

तरेंगा देवभोग में मेरे द्वारा लिया गया 1989 का एक चित्र
तत्कालीन प्रधानमंत्री बाजपेयी जी का स्वागत करते हुए,सांसद नंद कुमार साय, रमेश बैस, अशोक बजाज, मुख्यमंत्री रमन सिंह
सभा को संबोधित करते हुए
तत्कालीन भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह को स्मृति चिन्ह भेंट करते हुए, अशोक बजाज, मुख्यमंत्री रमनसिंह, मंत्री अजय चंद्राकर
नशा मुक्ति रैली,काबिना मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, लता उसेंडी, अशोक बजाज एवं मुख्यमंत्री रमन सिंह

भू.पू.केन्द्रीय मंत्री सांसद रायपुर रमेश बैस,भाजपा प्रदेशाध्यक्ष, अशोक बजाज एवं श्रीमति सुषमा स्वराज
विशाल किसान रैली को संबोधित करते हुए अशोक बजाज
सुदर्शन जी एवं मोहन भागवत जी के साथ चम्पेश्वर महादेव में पूजा अर्चना

तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति अब्दुल कलाम जी के साथ सुन्दरकेरा के कार्यक्रम में

शनिवार, 4 सितंबर 2010

फ़्लाईट का ब्लैक बाक्स

रायपुर से दिल्ली की फ़्लाईट में सवार हुआ, फ़्लाईट दिल्ली पहुंचने में पूरे दो घंटे का समय लेती है। प्लेन ने टेक ऑफ़ किया और मैं एक मैग्जिन पढने लगा। व्योम बालाएं चाय नास्ता सर्व करने लगी। इसी बीच काकपीट का दरवाजा खुला, पायलट प्लेन में चक्कर काटने लगा।
मेरे साथ बैठे दुबे जी पूछा-“पायलट क्यों चक्कर काट रहा है?मुझे तो कुछ शंका हो रही है।“
“मैने पूछा किस बात की?”
“कहीं ये देखने आया हो कि कितनी सवारियाँ मरेंगी”?
“अरे ऐसा तुम क्यों बोल रहे हो”?
“मैने तो पहले कभी पायलट को इस तरह प्लेन में चक्कर काटते नहीं देखा,ऐसा तो पहली बार देख रहा हूँ।“
“हो सकता है यूँ ही चला आया हो, तफ़री करने।“
“अब यह काकपीट के अंदर जाकर एलाऊंस करने वाला है, प्लेन का एक इंजन फ़ेल हो गया है, सवारियाँ अपनी सीट बेल्ट बांध लें, क्रेश लैंडिग की तैयारी की जा रही है”?
“अरे शुभ-शुभ बोलो महाराज।“
“खैर मरने के बाद पता चल ही जाएगा कि सवारियाँ क्यों मरी है।“
“हां, इसमें एक ब्लेक बॉक्स होता है, जिसमें फ़्लाईट डेटा रिकार्डर होता है, जो कि नष्ट नहीं होता।“
“जब ब्लेक बॉक्स इतना मजबूत बनाते हैं,तो प्लेन  क्यों नहीं बनाते?- दुबे जी ने सवाल खड़ा किया।
मैं अनुत्तरित था, इसका जवाब मेरे पास नहीं था। तभी एलाऊंस हुआ, हम दिल्ली एयरपोर्ट पर लैन्ड करने वाले हैं, यात्रियों से अनुरोध है कि अपनी सीट बेल्ट बाँध लें…….।

बुधवार, 1 सितंबर 2010

दादी का आशीर्वाद

लख निरंजन, अलख निरंजन” सुनकर मैने सर उठाकर देखा, एक बाबा जी और उनका चेला मेरे सामने खड़े थे। बाबा जी नंगधड़ंग, जटाधारी और लिंग पर सांकल बांध रखी थी, उसमें एक ताला लटका रखा था, एक कमण्डल और एक थैली लटका रखी थी। कम उमर चेला कोपिन धारी था। दोनो मेरे सामने खड़े थे। मेरा लिखने में ध्यान होने के कारण उनके आगमन का आभास नहीं हुआ। मैने उनकी ओर देखा।
“अलख निंरजन बच्चा” कुछ ध्यान में थे,मुझे लगता है कुछ परेशानी है।“-बाबा जी बोले।
मैने भी सोचा बाबा जी को कैसे पता चला कि मैं कुछ परेशानी में हूँ। परेशानी और मेरा साथ तो चोली दामन का है।एक खत्म नहीं होती, दुसरी चली आती है।
“कहिए महाराज, क्या सेवा करुं”-मैंने उत्तर दिया
“वत्स चेहरे से चिंता की रेखाएं मिट जाएंगी, दो महीने के बाद शुभ दिन आने वाला है, अवश्य ही तुम्हारा कल्याण होगा,ये हमारा वचन है।“
“मैं खुश हूँ महाराज, मुझे किसी भी तरह का शोक नहीं है, बस ईश्वर की कृपा बनी रहे।”
“खुश ही रहोगे बच्चा, लो प्रसाद लो, संकोच मत करो”- कहते हुए बाबा जी ने अपनी झोली में भभूत निकाल कर दी।
मैने उनसे भभूत लेकर पुड़िया बांध कर रख ली। तब बाबा जी फ़िर बोले-“ बच्चा कुछ दक्षिणा करो, तो बाबा लोग भी चलते हैं”- मेरी जेब में एक 50 का नोट था, जिसे कई दिनों से संभाल कर रखा था कि कभी एन वक्त पर काम आ जाएगा।
“देर न करो बच्चा, तुम्हारी जेब में 50 का नोट है, हमें  मालूम है, और तुम क्या सोच रहे हो ये हम जानते भी हैं, संशय मत रखो और वह नोट हमें दे दो। तुम्हारा कल्याण होगा।“
ये तो बड़ा आश्चर्य हो गया, मेरी जेब में 50 का नोट है बाबा जी कैसे जान गए? जरुर कोई पंहुचे हुए महात्मा हैं, मैने सोचा। अब दे ही देता हूं 50 रुपए, मेरी जरुरतों को पूरा करना होगा तो भगवान चिंता करेंगे मेरी। लेकिन कहीं दादी को पता चला तो मार-मार कर छड़ी मेरी चमड़ी उधेड़ देगी। मैनें इधर-उधर देखा, जब कोई नहीं दिखा तो 50 का नोट बाबा जी के हाथ पर धर दिया, बाबा जी खुश हो कर ढेर सारा आशीर्वाद दिया और जैसे ही 5 डग भरे, तभी दादी का प्रवेश हो गया। वह अपनी लाठी टेकते हुए अंदर आई और बहुत गुस्से में थी।
“अरे! मुस्टण्डों तुम्हे बच्चे से 50 रुपया लूट कर ले जाते शर्म नहीं आई, अभी वापस करो रुपए।“ इतना सुनते ही दोनो बाबा जी तो दौड़ लिए, दादी बकते हुए उनके पीछे-“ एक बार मेरे हाथ बस लग जाओ, तुम्हारे सात जन्मों की कसर निकाल रख दुंगी, कभी दुबारा इस ओर मुंह करके देखोगे भी नही, नासपीटों को हमारा घर ही मिलता है।“
जब बाबा जी हाथ नहीं आए तो दादी ने मूड़ कर मुझे दो डंडे लगाए,-“ यूँ ही लुटाता रहे गा कि कुछ कमायेगा भी, तुझे मालूम है आगे कितनी बड़ी जिम्मेदारियाँ सर पर खड़ी हैं, ये मोडे तेरा कल्याण कर जाएंगे।आज तो तेरी हड्डी पसली एक करके छोड़ुंगी।“
“दादी मुझे छोड़ दो, अब फ़िर ऐसी गलती नहीं करुंगा।“मैने कानों को हाथ लगाते हुए कहा। दादी वापस घर के अंदर चली गयी। बाद में पता चला कि मेरी करतूत को माँ देख रही थी, उसने दादी को भेजा था कि-“देखो तुम्हारा सपूत क्या कर रहा है।“
दादी को रुपए पैसे का महत्व पता था, दादा जी की मृत्यु के बाद घर का बोझ उन पर ही आ पड़ा था। थोड़े से खेतों के भरोसे घर गृहस्थी को चलाना कठिन काम है,उन्होने जैसे तैसे करके अपने 5 बच्चों को पाला था। फ़िर उन्होने कुछ सुख के भी दिन देखे थे। जब भी सबको दूध देने का समय आता तो मुझे एक प्याला दूध का ज्यादा ही देती थी और कहती थी दूध पीकर मेरा बेटा जल्दी बड़ा होगा। कभी मेरी बदमाशियों को छुपाते हुए पिताजी से लड़ भी जाती थी।
एक बार बरसात के महीने में दादी की तबियत खराब हो गयी, उन्हे उल्टी और दस्त शुरु हो गए, रात के समय मुसलाधार गिरते पानी में मैं डॉक्टर लेकर आया, उसने इलाज किया। कुछ दिनों में वह ठीक हो गयी। लेकिन उतनी ठीक नहीं हुई जितनी पहले थी। दिनों दिन कमजोर होते जा रही थी। अब तो उनका बिस्तर से उठना भी मुस्किल हो गया था। घर वाले सब चिंता में थे कि दादी अब नहीं बचेंगी। तभी एक रात पिताजी को असमय हृदयाघात हो गया और वे चल बसे। अचानक एक अनचाही विपदा आन पड़ी जिसके बारे में किसी ने नहीं सोचा था कि ऐसा भी हो सकता है। एक पहाड़ सा ही टूट पड़ा। दादी खाट से लाठी के सहारे उठ कर खड़ी हो गयी थी फ़िर हमारे खानदान का सहारा बनने के लिए। जैसे गाय अपने बछड़े के प्राण पर आया संकट देख कर सिंह से भी लड़ जाती है ठीक उसी तरह……….।
इस तरह दादी के सामने आई असमय जिम्मेदारी ने उनके प्राण फ़िर लौटा दिए। वे हमेशा घर के बारे में सोचती रहती, हमारी पढाई की चिंता करती, कुछ सालों में हम सब पढ लिख कर काम पर लग गए थे। सभी की शादियाँ हो चुकी थी। लेकिन दादी ने अभी भी घर की कमान नहीं छोड़ी थी। वह मुस्तैद थी अपनी ड्युटी पर। लेकिन काल कब किसे मौका देता है, एक बार उसने फ़िर खाट पकड़ ली, जीवन के झंझावातों से वह बहुत टकराई और उन पर विजय पाई थी। लेकिन अब समय की मार ने उसे असक्त कर दिया था। वह खाट से नहीं उठ पाई, खाना धीरे-धीरे कम होकर एक दिन छूट गया।
उसने मुझे बुलाया और लेटे ही लेटे मेरा हाथ पकड़ कर अपने सीने से लगाया और मुझे अपने पास बैठने कहा और बोली-“जो मैं कह रही हूँ उसे ध्यान से सुन, तू बहुत भोला है, ये दुनिया जालिम है, लेकिन जानती हूँ जिसका कोई नहीं होता उसका भगवान होता है। तेरे साथ भी वही है, किसी बात की चिंता मत करना, तेरे पास किसी चीज की कमी नहीं है और आगे भी नहीं रहेगी। अब तुझे परिवार की जिम्मेदारी ढंग से संभालनी पड़ेगी। सभी को लेकर चलना पड़ेगा और मुझे मालूम है, तू इस काबिल है। मेरा आशीर्वाद सदा तेरे साथ है।“- इतना कहने के बाद दादी फ़िर कभी नहीं बोली………वह जीवन की लड़ाई जीत चुकी थी……!