“परसादी ओSSS परसादी, ओSSS ठाकुर, घर पर हो”?- भोर में ही सेठ चिरौंजी लाल गोहार लगा रहे थे।परसादी नाई हमारे गाँव का चलता-पुर्जा बुद्धिमान आदमी था। गाँव के लगभग हर रहवासी को उससे काम पड़ ही जाता था।
वेश-भूसा भी उसकी प्रभावशाली होती थी, अगर कोई अनजान आदमी उसे देख ले तो ब्राह्मण समझ के चौदह बार प्रणाम करे और बोली भाखा का तो मर्मज्ञ था, अपने बोल-बचन से पत्थर को भी वश में कर ले। सभी उसे बहुत मान देते थे। वह सबके काम आता था। छट्ठी से लेकर मरही-बरही तक सबकी सेवा करता था।
विगत कुछ माह से सेठ चिरौंजी लाल से उसकी कुछ खटपट चल रही थी, अपने लड़के को लेकर। इसलिए उससे बात-चीत बंद थी। लेकिन आज चिरौंजी लाल को उससे काम पड़ ही गया। आना ही पड़ा उसकी दुवारी पर।
हुआ यूँ कि आजादी के बाद जागृति की लहर गाँव-गाँव में चली। गाँव में विकास सड़क के रास्ते आया। विकास सुबह से ही दिखाई देने लगता था, जब लोग लोटा लेकर सड़क के किनारे बैठे नजर आते थे। आजादी गाँव तक पहुंच गयी थी। गाँव में पक्की सड़क बन जाने से कस्बे तक कभी भी जाने का रास्ता खुल गया।
पहले साप्ताहिक बाजार हाट में जाने वाले लोग अब तो छोटे से भी छोटा काम पड़ने पर सायकिल उठा कस्बे की तरफ़ चले जाते हैं। गाँव के लड़के-लड़की भी कस्बे के बड़े स्कूल में पढने जाने लगे। सेठ चिरौंजी लाल की लड़की चम्पा और परसादी का लड़का अंकालु भी रोज बड़े स्कूल जाने लगे।
जब चम्पा स्कूल के लिए घर से निकलती तो अंकालु तालाब की मेड़ पर सायकिल लिए पीपर की छांव में उसका इंतजार करते मिलता। फ़िर दोनो साथ ही स्कूल जाते। बचपन से दोनो एक साथ ही पढे थे, साथ-साथ ही खेले कूदे थे।
धीरे-धीरे दोनो के बीच प्रीत के कीटाणु पनप रहे थे। रहीम कवि ने कहा है कि खैर खून खांसी खुशी बैर प्रीत मदपान, रहिमन दाबे न दबे जानत सकल जहान। बस ऐसा ही कुछ इनके साथ भी घट रहा था।
गाँव में इस तरह की बातें जल्दी फ़ैलती हैं,लोग खाली समय में चटखारे लगाकर सुनाते और सुनते हैं। महिलाएं कुंए पर पानी भरते हुए या खेतों में निंदाई करते हुए, रोपा लगाते हुए इन चर्चाओं में व्यस्त हो जाती हैं।
एक दिन चम्पा और अंकालु स्कूल से भाग कर फ़िल्म देखने चले गए, कस्बे में तो टॉकीज था नहीं, एक विडियो हॉल था, उसमें सोहनी महिवाल फ़िल्म लगी थी।
दोनों का बाल मन फ़िल्म देखने का हो गया, उन्होने अपने मन की कर ली और विडियो हॉल में फ़िल्म देखने बैठे ही थे। तभी चम्पा की नजर दुसरी तरफ़ बैठे बरातु काका पर पड़ी। वह उसे देख कर काँप गयी। अब चोरी पकड़ी गयी, आज फ़िल्म पहली बार देखने आए हैं और यह गाँव में लोगों को जाकर पता नहीं क्या क्या नमक मिर्च लगा कर पढाएगा।
चम्पा ने अंकालु को बरातु कका की ओर इशारा किया। वह समझ गया कि आज गयी भैंस पानी में। अब वहां से निकल भी नहीं सकते थे और बैठ भी नहीं सकते थे। उन्होने सोचा कि अब पकड़े गए जो होगा वो देखा जाएगा, फ़िल्म तो पूरी देखेगें। उन्होने पूरी फ़िल्म देखी।
जब वे गाँव पहुंचे तो ऑल इंडिया रेड़ियो याने बरातु कका ने समाचार उनके पहुंचने के पहले ही प्रसारित कर दिया था।
सेठ चिरौंजी लाल तक भी बात पहुंच गयी थी उसने परसादी को बुलाकर धमकाया कि अपने लड़के को समझा कर रखे।
चम्पा पर भी पाबंदी लग गयी थी। स्कूल छोड़ने उसके साथ सेठानी जाने लगी। फ़िर भी दोनों कभी-कभी मिलने का रास्ता निकाल ही लेते थे।
सेठानी की नौकरानी कुछ पैसों के लालच में संदेशिया बन गयी। वह उनके संदेश लाने ले जाने लगी। सेठ चिरौंजी लाल ने परसादी का बहुत अपमान कर दिया था। जिससे वह भी बदला लेने की फ़िराक में था, कब सेठ फ़ंसे और बदला ले। उसने संकल्प कर लिया था, सेठ की लड़की को बहू बनाकर लेकर आएगा चाहे जो भी हो जाए। तभी उसके कलेजे में ठंडक पड़ेगी। और वह मौका आ भी गया, कहते हैं भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है।
सेठ की माँ मर गयी, अब अंतिम संस्कार में नाऊ और बांभन दोनो की जरुरत पड़ती है। जैसे ही सेठ की माँ मरी सबसे पहले नाऊ ठाकुर की याद आई, गाँव में संदेशा देने कौन जाएगा?
वह सोच में पड़ गए। माँ के मरने से इतनी तकलीफ़ नहीं हुई जितनी नाऊ ठाकुर को बुलाने को लेकर थी। सेठानी ने सलाह दी कि जरुरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है। अपना मतलब निकालने के लिए अभी नाऊ को तो बुलाना बहुत जरुरी है।
हमारे छत्तीसगढ में अंतिम संस्कार के बाद अस्थि विसर्जन के लिए इलाहाबाद जाते हैं और वहीं पिंड दान करके मृतक का अंतिम संस्कार करने की परम्परा है।
इलाहाबाद में सबके अपने-अपने पंडे हैं और उनके जजमान। सबकी अलग-अलग पहचान है कोई पीतल कड़ाही वाला, कोई लोहे की कड़ाही वाला, कोई नीले झंडे वाला कोई लाल झन्डे वाला, कोई गाड़ी वाला, कोई नाव वाला इत्यादि पहचान के पंडे ही पंडे हैं।
परसादी के साल में 10-15 चक्कर इलाहाबाद के तो लगना तय थे। जब भी कोई अस्थि विसर्जन के लिए जाता तो उसे साथ जरुर ले जाता। उसे इलाहाबाद की अच्छी जानकारी थी। सभी पंडे उसे पहचानते थे और वो पंडो को।
उसे यह भी मालूम था कि गाँव के अमुक घर में इलाहाबाद के अमुक पंडे की जजमानी है। उसे उसका ठिकाना तक मालूम था। इसलिए वह गाँव का महत्वपूर्ण व्यक्ति था।
उसकी काबिलियत के आगे आज सेठ चिरौंजी लाल को झुकना पड़ा। भोर में ही उसके घर जाना पड़ा, उसके घर के बाहर खड़े होकर सेठ आवाज लगा रहा था।
“परसादी ओSSS परसादी, ओSSS ठाकुर, घर पर हो, मैं चिरौंजी लाल”? -सेठ ने पुकारा। लगातार पुकारने के बाद भीतर से आवाज आई-
“कौन है?”
“मैं चिरौंजी लाल”-सेठ ने कहा।
“रुको दरवाजा खोलता हूँ”-परसादी ने दरवाजा खोला- क्या हुआ सेठ भोर में चले आए, सब कुशल तो है?”
“अब क्या कुशल बताऊं, रात को माता जी चल बसी। अब तुम्हारी बहुत ही जरुरत है, जो कुछ भी गलती हुई है उस पर माटी डालो और इस काम को अपना समझ के निपटाओ।“
“आपने तो उस दिन मेरी बहुत बेईज्जती कर दी थी, जिससे मेरा मन अभी भी खिन्न है, मै नहीं जाता और किसी नाऊ का इंतजाम कर लो”-परसादी ने कहा। उसे तो मालुम था कि गाँव की जजमानी उसकी है कोई दूसरा नाऊ नहीं आने वाला। यह बात सेठ को भी पता थी।
“गुस्सा थूक दो परसादी, तुम जो कहोगे उतने पैसे दुंगा, रुपए पैसे की चिंता मत करो। बस मेरे काम को निपटा दो। मैं तुम्हारा अहसान मानुंगा।“
“ठीक है, लेकिन मैं जो कहुंगा वही करना पड़ेगा। फ़िर मत बोलना बीच में”-परसादी बोला
सेठ ने उसकी शर्त मान ली, तब कहीं परसादी उसके साथ चलने को तैयार हुआ। उसने अंतिम संस्कार का सब सामान जुटाया, महाराज को बुला कर लाया, गाँव वालों को संदेशा दिया। इस तरह सेठ की माँ का अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ।
अब तीजनहावन याने तीया के बाद इलाहाबाद जाने की तैयारी हुई। अस्थि विसर्जन करने के लिए। सेठ ने परसादी को बुलाया और उसे इलाहाबाद जाने के बारे में बताया। सेठ ने सुन रखा था कि इलाहाबाद के पंडे लूट लेते हैं। दक्षिणा के नाम पर अनाप-शनाप माँग रखते हैं। नहीं देने पर नाना प्रकार से डराते हैं और तो और वहां के भंगी नाव से अस्थि विसर्जन के समय अस्थियों को छूकर अपवित्र कर देते हैं जिससे मृत आत्मा नरक में चले जाती है। बिना किसी जानकार व्यक्ति के तो अस्थि विसर्जन जैसा महत्वपूर्ण कार्य संभव नहीं है। इसलिए परसादी को ले जाना जरुरी है।
परसादी ने कहा-“सेठ किसी बात की चिंता करने की जरुरत नहीं है, मैं हूँ ना। लेकिन वहां जाने पर जैसे मैं कहूँ वैसे ही करना, नहीं तो पंडे तुम्हारी धोती भी नहीं छोड़ेंगे। जब वह दक्षिणा संकल्प कराए तो जैसे-जैसे मैं कहूँ वैसे-वैसे कहते जाना। बाकी मैं संभाल लूँगा।“
सेठ ने उसकी बात मान ली और पूछा-“तो कितना रुपया पैसा रख लूँ खर्चे के लिए।“
“500 रुपया रख लो बस, ज्यादा रखने का क्या मतलब है। इतने रुपयों में सब काम हो जाएगा।“ परसादी बोला
“400 रुपया तो हम दोनो का एक तरफ़ का भाड़ा होता है इलाहाबाद जाने का। 100 रुपए में वापसी कैसे होगी?” सेठ ने पूछा
“तुम्हे आम खाने से मतलब की पेड़ भी गिनना है। बस, मैने कह दिया वही करो, नहीं तो और किसी को बुला लो।“- परसादी खिसियाकर बोला
सेठ ने वही किया। अस्थियों की थैली लटकाई और परसादी को लेकर इलाहाबाद पहुंच गया। सारनाथ एक्सप्रेस जैसे ही मानिकपुर पहुंची, ट्रेन में पंडों के एजेंट चढ गए और मुर्गे की तलाश करने लगे। उन्होने सेठ को पकड़ लिया अस्थियों की थैली लटकाए देख के। परसादी ने उन्हे बताया कि उनके पंडे रामनिधि पांड़े हैं फ़लाने वाले। तो पंडे के एजेन्ट उन्हे छोड़ कर चले गए। उनके इलाहाबाद पहुंचने से पहले ही पंडे को जानकारी हो गयी थी कि उनका एक जजमान सारनाथ एक्सप्रेस से आ रहा है। उसने सब तैयारी करके रखी थी। उसे पता चल गया था कि आसामी तो मालदार है।
अब ट्रेन से उतर कर दोनों जल्दी से घाट पर पहुंचे, तो पंडा महाराज तैयार थे, परसादी और सेठ ने पैलगी किया। पंडा महाराज बोले-“ आप अपना सामान यहीं तखत पर रख दिजिए और पहले चाय पान कर निवृत हो लिजिए फ़िर आपका अस्थि विसर्जन एवं पिंड दान का कार्य सम्पन्न कराते हैं।“
नित्य क्रिया से निवृत होने के बाद दोनो पुन: घाट पर पहुंचे। पंडा महाराज सब सामान सजा चुके थे। पूजा पाठ करा कर उन्होने एक नाव वाले को बुलाया और सेठ को उसके साथ भिजवा कर बीच गंगा में अस्थि विसर्जन करा दी। अब दक्षिणा संकल्प का समय आया। पंडा महाराज ने अक्षत पुष्प देकर दक्षिणा देने कहा। सेठ ने परसादी नाऊ की तरफ़ देखा, उसने कहा-“ मैं संकल्प करता हूँ कि पंडा महाराज को पाँच गाँव, 5 गाड़ी धान और 2 बोरा मसूर दक्षिणा में दिए।“
सेठ ने आश्चर्य से परसादी की तरफ़ देखा उसके चेहरे पर ऐसा भाव था कि कहीं फ़ंसवा तो नहीं रहा है। पंडा भी देख रहा था कि पहली बार कोई बहुत बड़ा आसामी फ़ंसा हैं जो गाँव दक्षिणा में दे रहा है। कहीं बिदक न जाए।
पंडा महाराज ने कहा- “संकल्प लिजिए जजमान, विलम्ब काहे कर रहे हैं।“
परसादी ने एक बार वही वाक्य फ़िर दोहराया अब सेठ को मजबूर होकर संकल्प लेना ही पड़ा।
“बोलिए भुरसी दक्षिणा में पाँच हजार नगद दिए”-परसादी ने कहा
सेठ ने भी वही दोहराया, पंडा महाराज तो धन्य हो गए थे। इतनी दक्षिणा पाकर उनके पैर धरती पर ही नहीं पड़ रहे थे। दिल बल्लियों उछल रहा था। वे परसादी और सेठ चिरौंजी लाल को अपने घर ले गए, उनकी विशेष खातिर दारी की। अब वापस आने का समय हो गया था।
परसादी ने पंडा महाराज से कहा-“ महाराज एक पाँच सौ रुपया दीजिए, हमें वापस भी जाना है। रुपया पैसा लाना ठीक नहीं समझा। आपको तो मालूम है ट्रेन में बहुत पाकिटमारी होती है। धान कटने के बाद जब आप दक्षिणा लेने आएंगे तो आपको वापस कर दिया जाएगा।“
खुशी-खुशी पंडा महाराज ने 500 रुपए अपनी अंटी में से निकाल कर दिए और अपने आपको धन्य समझा।
सेठ चिरौंजी लाल और परसादी नाऊ ने अलोपी बाग से ऑटो रिक्शा लिया और स्टेशन पहुंचे सारनाथ एक्सप्रेस से घर आने के लिए। गाड़ी में बहुत भीड़ थी ले-दे कर घर पहुंचे।
क्रमश:--
फिर क्या हुआ?
जवाब देंहटाएंयह कहानी लोककथा सी है। सहज बुद्धि और वर्णन से जनशिक्षा और जनरंजन।
आप को पूरी एक ही बार छाप देनी थी। अगोरना पड़ेगा।
वाह जी वाह्, क्या क्या कहानिया बना डालते हो,ललित जी,
जवाब देंहटाएंमुंशी प्रेमचन्द की परम्परा को जीवित रखने के लिए आपको बधाई!
जवाब देंहटाएंशाम को अस्पताल से लौटकर पढ़ता हूं
जवाब देंहटाएंअगले अंक का इंतज़ार रहेगा .....आभार !!
जवाब देंहटाएं:)
जवाब देंहटाएंहमे तो कुछ डर सा लग रहा है ... ई चतुरा नाऊ बहुते शातिर दिख रहा है ... नाऊ अपनी सहज बुद्धि और चालाकी के लिए हमेशा से जाने जाते हैं ... पहले तो कोई भी शुभ कार्य इनके बिना संभव नहीं था, और हमेशा से चतुर सलाहकार के रूप में जाने जाते रहे ... आपकी कहानी कुछ हवा का बदलाव भी दिखाने में समर्थ है ... देखते हैं भोंकवा पाण्डे का क्या होता है ...
वाह दादा!
जवाब देंहटाएंवैसे इस'वाह' को कमेन्ट ना माना जाए ये कमेन्ट है भी नही.
हा हा हा कल चैट-महासम्मेलन में इसी का ज़िक्र हो रहा था,वाह,क्या खूब, दिल को छू गया' लिखने के लिए कुछ पढ़ने की जरूरत नही होती. हा हा हा
तो भैया एक कहावत है 'आसमान पर कउआ (कौआ) जमीं पर नौआ'
क्योंकि दोनों बहुत चतुर होते हैं,तो आपके 'परसादी' लाल जी ने आगे क्या क्या किया और बेचारे सेठजी का क्या हुआ,जल्दी बताइयेगा.
जरूर भौन्क्वा मारा होगा सेठजी को. माँ की आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब 'ऊऊऊऊऊ' या भौं भौं .....
हा हा हा
मजा आ गया!
आगे की कथा की प्रतीक्षा है।
जवाब देंहटाएंआगे इन्तजार है/.
जवाब देंहटाएंक्या लिखते हैं आप.... बाँध देते हैं बिलकुल./...
जवाब देंहटाएंअरे हम तो समझ रहे हैं , आपसे बतियाये भी तो रहे ! ऐसे कथानायकों की पहचान सराहनीय है ! हाँ, उस कहानी का लिंक दीजिएगा जिसकी चर्चा हुई थी एक बार !
जवाब देंहटाएंइंदु जी,
जवाब देंहटाएंयहां मैं स्पष्ट कर दूँ कि छत्तीसगढ में "भोकवा" शब्द का मतलब मूर्ख या कम दीमाग वाले से लगाया जाता है।
यह भौंकवा नहीं है।
आगे? चलिए इंतज़ार कर लेते हैं .
जवाब देंहटाएंbahut hi rochak kahaani...aahe kaa intejaar rahega.
जवाब देंहटाएंबंधे हैं अभी तक... अगला भाग जल्दी लाइए..
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक कहानी ....ऐसी कहानियाँ आज कल नहीं मिलती पढने को ...आगे का इंतज़ार है ..
जवाब देंहटाएं... इंतजार है !!!
जवाब देंहटाएंनाई तो होते ही चतुर हैं :-)
जवाब देंहटाएंहे भगवान ये परसादी नाउ नही मुझे तो पक्का परसादी ताऊ लगता है, सेठ तो गया काम से. भगवान जाने अगले एपिसोड में ये सेठ का क्या हाल करेगा?
जवाब देंहटाएंरामराम.
ਮੂੰਚ੍ਹ ਵਾਲੇ ਬਾਊ ਜੀ,
जवाब देंहटाएंਨਮਸਤੇ!
ਮੌਜਾ ਆ ਗਯੀਂ ਤੁਹਾਡੀ ਕਹਾਣੀ ਨੂ ਪੜ੍ਹ ਕੇ...
ਜੋ ਤੁਸ੍ਸੀ ਲਿਖਯਾ ਹੈ, ਵੋ ਨਜ਼ਰਾਂ ਦੇ ਸਾਮਨੇ ਸੀਗਾ!!!
ਬਸ ਏਕੋ ਹੀ ਮਾੜ੍ਹੀ ਗਲ ਕਿਤ੍ਤੀ ਹੈ ਤੁਸ੍ਸੀ, ਕਹਾਣੀ ਨੂ ਵਿਚੋ ਅਧੂਰਾ ਛੜਤਾ!
ਆਸ਼ੀਸ਼
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ਬੈਚਲਰ ਪੋਹਾ!!! ਖਾਨ ਲਯੀ ਮੇਰੇ ਚਿਟ੍ਠੇ 'ਚ ਤਸ਼ਰੀਫ਼ ਲਾਓ...
Wah jee Parsadi nau, man gaye par aage kya huaa ?
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