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ब्लाग जगत के इतिहास में प्रिंट मीडिया पर एक मात्र चिट्ठा चर्चा ब्लाग4वार्ता अवश्य पढें
हमारे देश में प्रति दस वर्ष में जनगणना होती है, परन्तु जातिगर जनगणना आजादी के बाद कभी नहीं हुई, अब जातिगत जनगणना की माँग उठ रही है, जातिगत जनगणना भी आवश्यक है, जिससे सभी जतियों की जनगणना होगी और वास्तविक आँकड़े का पता चल जाएगा।
हमारा भारतीय समाज वैदिक काल में वर्णों के आधार पर बंटा हुआ था। लेकिन उस काल में वर्ण में परिवर्तन होता था। यह स्थाई नहीं थे। कार्य के आधार पर वर्ण परिवर्तन हो जाता था। इसका उदाहरण महर्षि विश्वामित्र एवं जाबाला सत्यकाम हैं।
कालांतर में महाभारत के युद्ध के पश्चात जातियाँ बनी। समाज जातियों-उपजातियों में विभाजित हुआ। सभी जातियों ने अपने-अपने काम संभाल लिए,इससे उनका जीवन यापन चलता रहा। समाज में जातिगत व्यवस्था इतनी गहरे पैठ गयी कि उससे उबरना बहुत मुस्किल है।
इस जाति के झगड़ों का फ़ायदा अंग्रेजों ने उठाया और 200वर्षों तक राज करते रहे। बड़ी कठियाईयों से उन्हे खदेड़ा जा सका।
जातियों के बीच वैमनस्यता का बीज अंग्रेज बो गये जो आज तक चल रहा है। उसी परिपाटी पर हमारे नेता एवं राजनैतिक पार्टियां चल रही हैं। प्रजातंत्र में वोटों के आधार पर सरकारें बनती हैं और बिगड़ती हैं।
बहु्संख्यक जातियों के अपने आंकड़े हैं जिसे वे राजनैतिक दलों के सामने रखते हैं और शासन से सुविधाएं एवं अपनी जाति के लोंगों के लिए पार्टी की टिकट की व्यवस्था करते हैं। कई ऐसे चुनाव क्षेत्र मैंने देखे हैं जहां सभी पार्टियां एक ही जाति के लोगों को अपना प्रत्याशी बनाती हैं।
अब वहां से कोई भी प्रत्याशी जीते लेकिन वो जाति का प्रतिनिधित्व अवश्य करता है। इस तरह यह जीत पार्टी की जीत न होकर जाति विशेष की जीत हो जाती है।
1931 में अंग्रेजों ने जातिगत आधार पर जनगणना कराई थी। उसके बाद आज तक जातिगत आधार पर जनगणना नहीं हुई है। अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद हमारी लोकतांत्रिक सरकार ने सत्ता संभाली तो इन्ही आंकड़ों के आधार पर विकास की योजनाएं बनाई गयी।
जो ढर्रा एक बार चल निकला वो फ़िर आज तक चल रहा है। उपर की जातियों के विकास के अपने आधार थे तथा जिन्हे नीचे की जाति मान लिया गया उनके लिए नित नयी योजनाएं थी। लेकिन बीच की कुछ जातियां इन दोनो जातिगत व्यवस्थाओं के सांचे में नहीं बैठती थी वे पिटती रहीं और आज तक पिट रही हैं।
उनके दस्तकारी के काम धंधों पर औद्योगिकरण की मार पड़ी, जिससे वे बेरोजगार होते गए। हाथ के कारी्गर होने के कारण उनके पास खेती की जमीने कभी रही नहीं। इसलिए वे आज बड़ी कठिनाई से अपना जीवन बसर कर रहें।
इनमें कुछ जातियों की बहुलता थी,जिसे राजनीतिक दलों ने एक वोट बैंक के रुप में देखा। उसके प्रतिनिधियों को पार्टी पदों एवं सरकार में स्थान दि्या। सभी जातियां 1931 की जनगणना के आधार पर ही अपनी संख्या गिनवाती हैं और सरकारी योजनाओं का लाभ उठा रही हैं।
इनके बीच वे पिस रहें हैं जिनकी वास्तविक जानकारी सरकार के पास नहीं है। जिसके कारण उनके लिए कोई योजनाएं नहीं बन पा रही है और उनका विकास बाधित हो रहा है। आजादी के साठ वर्षों के बाद उनकी दयनीय हालत है।
मैने उनकी तकलीफ़ें करीब से जानने की कोशिश की और पूरे 3 साल लगाए अध्यन एवं सम्पर्क में। जो घुमंतु कबीले हैं उनकी भी वास्तविक जानकारी सरकार के पास नहीं है। इनकी जानकारी के लिए एक आयोग बनाकर बालकृष्ण रेणुके को रपट पेश करने कहा था। रपट सरकार को दे दी गयी लेकिन सदन के पटल पर अभी तक नहीं रखा गया।
हमने 2008 प्रधानमंत्री जी को ज्ञापन दिया था कि आगामी जणगणना जातिगत आधार पर करवाई जाए। जिससे सभी जातियों की आर्थिक,राजनैतिक, शैक्षणिक एवं रोजगार की वर्तमान स्थिति का पता लग सके।
आजादी के बाद जिन जातियों के विकास के लिए पानी की तरह पैसे बहाए गए उनका कितना विकास हुआ है ? यह पता जाति आधारित जनगणना से होगा। आजादी के समय एवं आज की इनके विकास की स्थिति का तुलनात्मक अध्यन होना चाहिए तथा जो वास्तविक हकदार है उसे उसका हक मिलना चाहिए।
आज भारत में कई जातियां ऐसी हैं जिनका राजनैतिक अस्तित्व ही नहीं है आजादी के पश्चात उनका कोई भी प्रतिनिधी संसद या विधान सभाओं में नहीं जा पाया। फ़िर वे कैसे अपनी बात पंचायत में रख सकते हैं उनकी सुनेगा कौन?
इसलिए मेरा मानना है कि जातिगत आधार पर जनगणना होनी चाहिए जिससे खाई अघाई जातियों के साथ विकास की राह देख रही अन्य जातियों को भी विकास के उजास की किरण दिखे। जिससे वंचित को भी उसका हक मिल सके। इस संबंध में हमारी अन्य शीर्ष नेताओं से भी चर्चा हुई। आवश्यक्ता पड़ने पर वह भी लिखा जाएगा कि उनकी क्या राय है।
मैं एक किताब पढ रहा था,उसमें कुछ विचित्र बरसातों के विषय में बताया गया था। कहीं मछलियों की बरसात हुयी आंधी तूफ़ान के साथ, तो कहीं मेढक इत्यादि की। कहीं सांप भी बरसते सुने गए। इन सब घटनाओं को पढकर मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आ रही है। मैने भी एक ऐसी ही सांपों की वर्षा देखी थी।
शाम का समय था, थोड़ी धूप निकली हुई थी। अचानक अंधेरा छाने लगा, बादल गरजने लगे, बस ऐसा लगता था कि अब मुसलाधार वर्षा होगी। कुछ देर बार गरज के साथ पानी बरसने लगा। पानी बरसते हुए देखकर मुझे उसमें भीगने का मन हुआ।
दादी ने बाहर आंगन में नहीं जाने दिया। तभी आसमान से ओले गिरने लगे। हम सब कवेलु वाले मकान में बैठे थे। साथ में छोटा भाई भी था। कवेलु पर ओलों की आवाज आने लगी। दादी ने आवाज लगाई कि जल्दी से लोहे की कढाई या तवा आंगन में फ़ेंका जाए।
इसका मतलब आज समझ में आता है कि उनका यह सोचना था बिजली लोहे पर गिरे,घर पर न गिरे। हम दरवाजे पर खड़े होकर ओले बिनने का इंतजार कर रहे थे कि कब बारिश बंद हो और हम ओलों याने मुफ़्त की आईसक्रीम का स्वाद लें।
तभी मैने देखा कि आंगन में तीन-चार उन के गोलों के आकार की काली-काली गेंदे गिरी। थोड़ी देर तो वे वैसे ही पड़े रही, फ़िर खुलने लगी, देखते ही देखते पूरा आंगन मध्यम आकार के सांपों से भर गया।
मैने दादी को आवाज लगाई, उन्होने भी देखा। सांप गोले के आकार से अलग होकर इधर उधर सरक रहे थे। जिस सांप को जिधर जगह दिख रही थी उधर जा रहा था। हम इन सांपों की प्रजाति को पहचानते थे, इसलिए डरे नहीं, क्योंकि आंगन में हर तरफ़ सांप ही सांप हो गए थे।
हमारे 36 गढ में इन सापों को पिटपिटी या सिरपिटी सांप कहते हैं। (आप चित्र में पहचान सकते हैं कि ये कौन से सांप हैं) मैं इसका ये सांप बरसात में ही निकलते हैं। स्कूल में इसको पकड़ कर हम लोग खेलते थे। इसका मतलब शायद यह था कि ये सांप जहरीले नहीं होते।
हमारे बाड़े में सांप निकलते ही रहते हैं इसलिए यहां के प्रमुख जहरी्ले एवं बिना जहर के सांपों को बच्चे भी पहचान जाते हैं। गोलों से अलग होने के बाद सभी सांप बिखर गए। वह घटना आज भी आंखों के सामने कौंध जा्ती है जब पूरा आंगन सांपों से भरा हुआ था। हर तरफ़ सांप ही सांप।
एक सांप तो हमारे पानी पीने की मटकियों (परीन्डे) के पास ही रहता था। कई साल तक उसने वहीं डेरा जमाए रखा। हमने उसे छेड़ा ही नहीं। जब बच्चे बड़े हुए तो एक दिन इनके कहने से मुझे उसे मार कर ही हटाना पड़ा।
एक सांप जिसे हमारे यहां मुंढेरी सांप (पीवणा) कहते हैं(यह कुंडली मार कर चलता है) मेरी मोटर सायकिल खड़ी करने की जगह पर रोज मिलता था। मैं जैसे ही उसे देखता तो गुस्सा आ जाता कि यह फ़िर यहीं आ गया।उसे पैर की ठोकर से रोज गेट के बाहर फ़ेंक कर आ जाता। लेकिन वह भी कम नहीं था रोज रात मुझे वहीं पर मिलता था। अब मैने वहां बाईक खड़ी ही करनी बंद कर दी।
एक सांप ने मेरी कार में ही डे्रा डाल लिया था। एक बार मैने 15-20दिनों तक कार नहीं चलाई, दक्षिण के भ्रमण पर था। आकर देखो कि नीचे केंचुली लटक रही है। समझ गया कि बड़े महाराज (नाग)आ गए हैं, क्योंकि वहीं पास में हमारे मंदिर में बड़ा सारा दीमक का घर है। जहां इनका निवास है। पूरी कार को खोल कर देखा गया। साफ़ किया गया नी्चे उपर सब जगह से। कई दिनों तक चलाने में भी डर लगा कि कहीं सीट के नीचे न निकल आए।
लेकिन आसमान से बरसात में गोलों के रुप में गिरे हुए सांप आज तक याद हैं, यह घटना 1975 के आस-पास की रही होगी। ऐसा क्यों हुआ? सांप गुच्छों में गोले बनकर आसमान से कैसे गिरे? आज यह जिज्ञासा मेरे मन में है। क्योंकि सांप अन्डे देते है और उसमें से बच्चे निकलते हैं यह भी मैने देखा है।
उस समय इनकी लम्बाई 5-6 इंच होती है। लेकिन गुच्छों की शक्ल में गिरे सांप लगभग एक फ़ुट के थे। उससे एक दो इंच कम हो सकते हैं लेकिन स्केल के बराबर तो दिख रहे थे। इस घटना के बाद आज तक ऐसी कोई घटना नहीं घटी है कि आसमान से सर्प वृष्टि हुई हो।
बिस्तर पर करवटें बदलते लोग सोने के लिए स्लीपिंग पिल्स का सहारा लेते हैं। थककर चूर हुआ आदमी बस लेटने की जगह ढूंढता है। नींद का संबंध मनुष्य के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है। बस वह आनी चाहिए, फ़िर कुछ नहीं नजर आता। सिर्फ़ सोना और सोना।
बुलढाणा का घाट
एक बार 20 साल पहले मैं भी अकेला चित्तौड़ के प्लेट फ़ार्म पर सो गया, भीलवाड़ा जाने के लिए ट्रेन आने में चार घंटों का विलंब था। नींद आ रही थी, प्लेटफ़ार्म के बाहर ठंडी हवा चल रही थी और नींद आ रही थी। फ़िर क्या?
वहीं सड़क पर पेपर बिछाया और बैग सिरहाने लगा कर सो गया। बड़ी गहरी नींद आई। खुले आसमान में फ़ुटपाथ की वह नींद याद आने पर आज तक तरोताजा करती है। कहते हैं न " भूख न देखे सूखी रोटी, भूख न देखे सूखी खाट"
ढाबे में नींद-खाट की वाट
कुछ इसी तरह की नींद नीरज को भी आ रही है। उसने रात को एक ढाबे में कार रोकी और दौड़ कर एक खाट पकड़ ली। बस फ़िर क्या था, निद्रा रानी की गोद में नींद का मजा ले रहे हैं। यहां घर में एसी एवं गद्दों पर जो नींद नहीं आई होगी, उससे अच्छी नींद बिना बिछौने एवं एसी के सड़क के किनारे ली जा रही है। सुबह हमने इन्हे उठाया तो बड़ी मुस्किल से उठे, हम कार चला रहे थे और ये सीट लम्बी करके फ़िर पड़ लिए। सोते रहे और हम गाड़ी चलाते रहे।
कार में सोना ही सोना
कुछ इसी तरह से यात्रा चल रही है। एक सोता है तो एक ड्राईव करता है। वैसे बिना लक्ष्य की इस यात्रा में आनंद बहुत आ रहा है। कहीं भी पहुंच जाते हैं। जो रास्ते में मिल गया देख लेते हैं। नागपुर से प्लान करके निकले थे कि मुंबई जाना है धुलिया रोड़ पर मलकापुर के पास साले साहेब का फ़ोन आ गया कि वे चिखली(बुलढाणा) मे अपनी ससुराल में हैं। आपको यहां आना ही पड़ेगा। लेकिन हमने बताया कि बहुत दूर निकल चुके हैं वापस आने के लिए 125 किलो मीटर आना पड़ेगा। हम नहीं आ सकते। कुछ देर बाद घर से सुप्रीम अथारिटी का फ़ोन आ गया कि हमें वहां जाना ही पड़ेगा। मरते क्या न करते, गाड़ी वापस घुमाई और नांदुरा से मोपाळा-बुलढाणा होते हुए 11 बजे चिखली पहुंचे। यहां स्नान भोजन आदि से निवृत होकर अब दुसरा प्लान बना की शनि सिंघणापुर देखते हुए चलते हैं। यह स्थान औरंगाबाद पूना हाईवे पर 76 किलोमीटर पर है। गाड़ी की टंकी फ़ुल करके सिंघणापुर चल पड़े। मुंबई जाना स्थगित हो गया।
आज डीजल,पैट्रोल एवं रसोई गैस के दम बढा दिये गए. इनकी कीमतों पर से भी सरकार ने अपना नियंत्रण हटा दिया. डीजल २ रुपया, मिटटी का तेल ३ रुपया,रसोई गैस के प्रति सिलेंडर पर ३५ रुपया बढा दिया.
मुझे याद है जब मनमोहन सिंग जी पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले थे तब श्रीमती मनमोहन सिंग ने इनसे रसोई गैस की कीमत काम करने की गुजारिश की थी. लेकिन इन्होने अनसुनी कर दी.
श्रीमती मनमोहन सिंग जानती हैं कि एक गरीब आदमी के लिए सिलेंडर की कीमत की क्या अहमियत है. लेकिन गैस सिलेंडर की कीमतों में वृद्धि करके मनमोहन सरकार ने अच्छा काम नहीं किया.
इससे तो अच्छी बाजपेयी जी कि सरकार थी उसने सिलेंडरों की कीमतों में वृद्धि नही की थी बल्कि जिस गांव में गाड़ी भी मुस्किल से जाती थी उस गांव में भी हमने सड़क के किनारे सिलेंडरों का ढेर देखा था. मतलब हर आदमी के लिए हर जगह सुलभ था.
मनमोहन सिंग की सरकार बनते ही सबसे पहले सिलेंडरों पर प्रतिबन्ध लगाया. इसका फायदा हमेशा की तरह रसूखदार लोगों ने लिया. गैस एजेंसियां उन्हें बिना कार्ड के ही गाड़ी चलाने के लिए सिलेंडर दे देती हैं. जबकि जिस गरीब आदमी के पास कोई गाड़ी ही नहीं है उन्हें ही सिलेंडर ३० दिनो के बाद दिया जाता है. बाकी जो ब्लेक के लिए रूपये दे देता है उसे हर समय हर जगह पर सिलेंडर उपलब्ध है.
सरकार द्वारा गैस सिलेंडर के मूल्य में वृद्धि करने के खिलाफ जोरदार विरोध किया जाना चाहिए. लेकिन सत्ता के रसास्वादन कर रहे बिना रीढ़ के लोग एवं पार्टियाँ इसका विरोध नहीं करेंगी..क्योंकि वे भी इस निर्णय में शामिल हैं.
हम इसका पुरजोर विरोध करते हैं. एक माध्यम वर्गीय परिवार पहले लकड़ी से चूल्हा जलाकर अपना खाना बना लेता था. लेकिन लकड़ियों पर प्रतिबन्ध लगाकर गैस खरीदने पर सरकार द्वारा जोर दिया गया. जब लोग गैस पर आश्रित हो गये तो लगातार गैस की कीमतों में बढ़ोतरी की जा रही है.
गरीब उपभोक्ताओं का शोषण ही किया जा रहा है. इस शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद की जाने चाहिए तथा सरकार के इस निर्णय का पुरजोर विरोध करना चाहिए.
विदर्भ की कमला के घर खाना खा कर फोटो खिंचवाने वाले राहुल गाँधी कहाँ है?
आज गैस सिलेंडर की मूल्य वृद्धि से वह भी प्रभावित है और मैं भी प्रभावित हूँ. इस तरह किसी गरीब के आंसुओं से खेलने का इन्हें कोई अधिकार नहीं है. पैट्रोल के मूल्य में वृद्धि करो. जिसके पास पैसा होगा गाड़ी वह चलाएगा. लेकिन मिटटी के तेल और गैस के मूल्य को बख्श दो.
यह गरीब कि भूख के साथ जुड़ा है. जब देश के के कुल राजस्व का ८ राज्यों (उत्तर पूर्व के ७ राज्य एवं जम्मू और कश्मीर) को फायदा दिया जा रहा है. जिनकी स्वयं की कोई राजस्व की आमदनी नहीं है.
इस राजस्व का एक हिस्सा मिटटी तेल एवं गैस के लिए सब्सिडी के रूप में दिया जाना चाहिए. गैस की कीमतों में वृद्धि करना दुर्भाग्य जनक है.
बैठे बिठाये अचानक उठ कर चल लिए. कल रात ९ बजे जगदलपुर से नीरज शर्मा पहुंचे. अब अचानक घूमने जाने का कार्यक्रम बन गया. घर में बैठ कर सोचने लगे की किधर को जाया जाये?
कुछ देर बाद तय हुआ की अभी रात को नागपुर चलते हैं. फिर नागपुर पहुच कर सोचते हैं कि कहाँ जाना है? बस फिर कार से निकल पड़े नागपुर की ओर. रात ११ बजे से २०० किलोमीटर लगातार कार मैंने चलाई फिर नीरज ने.
सुबह ७ बजे नागपुर पहुँच पर भौसर चौक गाँधी बाग में होटल लिया. आते ही सो गए. अभी उठे हैं. तय हुआ कि गुजरात की ओर चलते हैं. अब गुजरात में कहाँ-कहाँ जाना है. यह तय कर रहे हैं.
मित्रों से गुजारिश है कि गुजरात में घुमने की जगह कौन कौन सी है? कृपया बताएं. जिससे हम अपना यात्रा मार्ग रात तक तय कर सकें. नागपुर से गुजरात के लिए कौन सा मार्ग अच्छा रहेगा?
इसकी भी जानकारी दें. हम भी बिना योजना के ही निकल लिए. अब बताइए यह कैसी घुमक्कड़ी है. लेकिन एक हफ्ता गुजरात घूमने का मन है. जिसमे कठियावाड़ और सौराष्ट्र दोनों जगह जाना है.
एतिहासिक स्थलों को देखने की तमन्ना है. इसलिए एतिहासिक स्थलों की जानकारी चाहिए.
नागपुर में कोई ब्लोगर बंधू हैं तो उनके विषय में भी जानकारी दे. जिससे उनसे भी मुलाकात हो जाए. एक छोटी सी ब्लागर मीट ही सही.
आज रात को भी नागपुर में हैं. कल सुबह हम निकल पड़ेगें आगे कि यात्रा पर. रास्ते में हम मिलते रहेंगे. सफ़र में मेरा फोन नंबर है--०९४२५५९०४६१--९७५२५१०२६१, इस पर संपर्क हो सकता है. लोटपोट साथ में हैं, नेट पर भी मुलाकात होती रहेगी.
आज शाम को ललित डॉट कॉम पर 100 फ़ालोवर दिख रहे हैं। कई दिनों से 98 पर गाड़ी अटकी हुई थी फ़िर हमारे एक मित्र ने नयी योजना के तहत ब्लागों को फ़ालो करना बंद कर किया।
इस योजना की चपेट में आकर 97 की संख्या हो गयी। फ़िर 99 का चक्कर कई दिनों तक चला। आज जा कर एक सैकड़ा पूरा हो गया। हमने भी सोचा चलो एक शतक फ़ालोवर्स का भी लग गया।
जब से ब्लागवाणी बंद है कुछ लिखने का मन नहीं है। दिल्ली यात्रा के बाद लगातार यात्राओं का ही दौर चल रहा है। आज भी एक सप्ताह की यात्रा पर जा रहे हैं सिर्फ़ भ्रमण करने के लिए, प्रकृति का आनंद लेने के लिए।
पिछ्ले 8 महीनों से हमने बहुत कम यात्राएं की और सिर्फ़ ब्लागिंग ही की। लेकिन अब शायद ब्लागिंग लगातार होना कठिन लग रहा है क्योंकि यात्राओं का दौर प्रारंभ हो चुका है। हां! इससे एक फ़ायदा अवश्य होगा कि अब ब्लागर बंधुओं से भी मुलाकात होते रहेगी। चाहे आधे घंटे की ही क्यों न हो।
अगर रास्ते में नेट व समय मिला तो अवश्य ही कुछ जानकारियाँ आप तक पहुंचाएगें। क्योंकि यात्राओं में बहुत सारी लेखन सामग्री मिल जाती है। यात्रा के अनुभवों को लिखने के लिए मैने नया ब्लाग भी बना दिया है।
हमारे संजीव भाई बहुत दिनों से कह रहे थे कि यात्रा संस्मरण लिखना प्रारंभ किजिए। बस कुछ दिन यही सोचते हुए निकल गए कि कहां से प्रारंभ किया जाए? लेकिन अब प्रारंभ करना ही पड़ेगा चाहे कहीं से भी हो।
मेरी इन यात्राओं पर समय,काल, एवं तत्कालीन परिवेश का भी असर स्पष्ट दिखेगा। आज बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है, बहुत कुछ बदल चुका है।
सफ़र में ब्लाग पर मिलना संभव हुआ तो अवश्य ही मिलते हैं, मिलना संभव नहीं हुआ तो सफ़र से लौट कर मिलते हैं। तब तक के लिए आज्ञा..................
ब्लागवाणी को बंद हुए आज 5वां दिन है। हमने एक पोस्ट भी लगाई थी इस पर एवं ब्लागवाणी के संचालकों को एक ई मेल भी किया था। पहले तो इनका जवाब मिल जाता था लेकिन अब इन्होने ने ई मेल का जवाब देना भी गवारा नहीं समझा।
अच्छा है जवाब नहीं दिया तो, हमारी कोई जोर जबरदस्ती तो है नहीं कि हमें जवाब देना जरुरी है। भाई हमारा और ब्लागवाणी का वही संबध है जो एक संकलक और ब्लाग का होता है, इससे ज्यादा कुछ नहीं।
गत वर्ष भी ब्लागवाणी ने अपनी दुकान बढा ली थी उस समय भी हमने इनसे ब्लागवाणी चालु करने का निवेदन किया था। काफ़ी कोशिशों के बाद फ़िर शुरु किया गया।
ऐसा कभी चिट्ठाजगत पर नहीं हुआ कि उन्होने कभी चिट्ठाजगत बंद किया हो या बंद करने की घो्षणा की हो।
मुझे लगता है कि एक समय के अंतराल पर ये भी अपनी लोकप्रियता का अंदाजा लगाने के लिए बंद करने का स्टंट करते हैं, पिछले समय भी यही हुआ।
अभी कुछ सुधार कर ब्लागवाणी को प्रस्तूत किया गया। उसमें नापसंद का बटन लगा कर बंठाढार कर दिया। पहले तो हमारी समझ में नहीं आया कि यह क्या है। जब ब्लागवाणी एंव अन्य जानकारों ने बताया तो पता चला। यही लगभग सबके साथ हुआ है।
अभी ब्लागवाणी बंद है। तकलीफ़ हो रही है इसलिए कि लोगों को ब्लागवाणी आदत पड़ गयी थी। लेकिन अब कुछ दिन बंद रहेगी तो लोगों को जो इसकी लत पड़ गयी है वह भी खतम हो जाएगी और ब्लागजगत पुन: अपने ढर्रे पर चल पड़ेगा।
अब लोगों के अपने फ़ीड़कल्स्टर भी हैं जिनसे वे ब्लाग पर जा सकते हैं और डेशबोर्ड पर फ़ालोवर ब्लाग की फ़ीड भी आती है। फ़िर चिट्ठाजगत तो है ही।
अब आवश्यक्ता है एक नए एग्रीगेटर की। जो अपने आपको विवादों से दूर रह कर चला सके। ब्लाग जगत को एक नया आयाम दे सके।
कई नए एग्रीगेटर भी आए लेकिन उन्होने चिट्ठों को जोड़ने के लिए इतनी ज्यादा तकनीकि का इस्तेमाल कर दिया कि लोग उसे समझ ही नही सके और वह फ़ेल हो गया। अब कोई नया सबकी समझ में आने वाला एग्रीगेटर लेकर आता है तो उसका हम स्वागत करते हैं।
उसमें चिट्ठों को दिखाने की प्रक्रिया सरल की जानी चाहिए। चिट्ठा जगत जैसे स्वचालित रुप से ब्लागर अपने चिट्ठों को स्वयं एग्रीगेटर से जोड़ सके ऐसी ही कुछ उसमें व्यवस्था होनी चाहिए। इंडली में भी यही समस्या है। हमारा ब्लाग उसमें दिखाई नहीं दे रहा है।
अभी पाबला जी ने घोषणा की है कि उनका एग्रीगेटर आ रहा है। हमारा उनसे निवेदन है कि वे जल्द से जल्द अपना एग्रीगेटर शुरु करें जिससे ब्लागरों की कठिनाई दूर हो सके।
बस ब्लागवाणी से बहुत हो गया निवेदन, अब चाहे वह चालु करे या बंद करें। इसमें उनकी मर्जी है जो करे वह अच्छा है। जब तक नया एग्रीगेटर नहीं आ जाता तब तक जैसा चल रहा है वही ठीक है।
कल मेरा बस्तर का दौरा था, अभी शाम को जब ऑनलाईन हुआ तो देखा कि ब्लागवाणी बंद है, कल शाम 3 बजे के बाद इसने चिट्ठों की फ़ीड लेना बंद कर दिया है। इसके बाद मैने दो तीन पोस्ट देखी जिसमें ब्लागवाणी के बंद होने का जिक्र है। एक जगह पढने को मिला कि शायद ब्लागवाणी के सर्वर को शिफ़्ट किया जा रहा है इसलिए कुछ समस्या आ गयी है।
ब्लागवाणी हिंदी चिट्ठों के संकलक के रुप में लोकप्रिय है,यह तो तय है। लेकिन कभी-कभी विवादों में भी आ जाती है। स्वाभाविक है क्योंकि अच्छे तैराक के ही डुबने की संभावना ज्यादा रहती है। क्योंकि कुशल तैराक किसी भी दुर्घटना के प्रति लापरवाह हो जाता है और यही लापरवाही उसे ले डुबती है। अभी कई दिनों से ब्लागवाणी के लिए भी कुछ पोस्ट पढने में आ रही थी।
सबसे ज्यादा समस्या ब्लागवाणी पर दिए गए नापसंद के बटन से आई। जब चिट्ठाचर्चा डॉट कॉम एवं घेटो विवाद चला तब मैने देखा कि मेरे कविता के ब्लाग शिल्पकार के मुख से पर निरंतर नापसंद आने लगी। क्योंकि एक वर्ष तक कविता गीत लिखने के बाद अब किसी को बिना पढे ही नापसंद होने लगी थी। मैने इसे पूर्व घटना से जोड़कर देखना शुरु कर दिया और होली के बाद उस ब्लाग पर कविता लिखना ही बंद कर दि्या। अब कविता लिखने से अरुचि होने लगी थी। यह नापसंद का शिकार मेरा पहला ब्लाग था।
ललित डॉट कॉम पर वीवर्स एक भी नहीं था लेकिन नापसंद के दो चटके लग चुके थे। मैने यह भी देखा है बिना पढे ही नापसंद कर देना किसी के पूर्वाग्रह को ईंगित करता था। फ़िर तो नापसंद करके ही लोग मौज लेने लगे। यह सिलसिला अभी तक चलता रहा है। मेरे कहने का तात्पर्य यह था कि ब्लागवाणी पर नापसंद के चटके ने नापसंद करने वालों का भी खून जलाया है। नापसंद का आप्शन ब्लागवाणी ने किसी अच्छे उद्देश्य के लिए रखा हो यह हो सकता है लेकिन उसका गलत उपयोग किया गया है ऐसा प्रतीत होता है।
मेरा तो यही निवेदन है ब्लागवाणी से कि नापसंद के चटके को बंद करके इस झगड़े की जड़ को खत्म किया जाए। न रहेगा बांस न बजेगी बांसूरी। न नापसंद का चटका रहेगा न झगड़े-लफ़ड़े का खटका रहेगा। जिसे जितनी ज्यादा पसंद मिलेगी वह हाट पर उतनी ज्यादा उपर रहेगा। इसलिए ब्लागवाणी एग्रीगेटर में यथा योग्य सुधार कर उसे पुन: प्रारंभ करें।
इसके बंद होने का असर स्पष्ट रुप चिट्ठाजगत पर दिख रहा है। चिट्ठाजगत पर कभी भी 6-7 कमेंट से उपर होने पर ही पोस्ट साईड बार में चढती थी आज 3-3 टिप्पणी वाली पोस्ट भी वहां पर देखने के लिए मिल रही है, यह मैने पहली बार देखा है। इसका तात्पर्य यह है कि ब्लागों पर पर्याप्त पाठक नहीं पहुंच पा रहे हैं। इसलिए टिप्पणियां नहीं हो पा रही है। ट्रैफ़िक एकदम कम हो गया है। ब्लागवाणी को मेरी यही सलाह है कि नापसंद के खटके को बंद इसे पुन: प्रारंभ किया जाए। वैसे भी दूसरे एग्रीगेटर मैदान में आ चुके हैं,कुछ आने वाले हैं लेकिन ब्लागवाणी, ब्लागवाणी है।
कल एक यात्रा ख़त्म हुई और आज एक नई यात्रा शुरू हो गई। पिछले कई माह से बस्तर क्षेत्र का दौरा नहीं हुआ था। लेकिन एक पारिवारिक कार्यक्रम का निमंत्रण आने के बाद तो जाना आवश्यक हो गया. लगभग ७ घंटे की यात्रा करने के बाद बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर पहुंचा.
रात हो गई है, नेट भी ठीक से काम नहीं कर रहा, नेटवर्क की समस्या है। इसलिए सोचा की जानकारी तो आप तक पहुंचा ही देता हूँ.
कल दिन में हो सके तो आपको महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव के महल भी फोटो ग्राफ दिखाऊंगा. अगर उनके परिवार का कोई वंशज मिला तो उससे बात चीत कर उसका पॉडकास्ट भी सुनवाने की कोशिश करूँगा.
जगदलपुर एतिहासिक जगह है. जहाँ रजवाड़ों ने राज्य किया और यहाँ की जनता ने राजाओं को भगवान सरीखा मान दिया.
यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य देखने लायक है. चारों ओर जंगल और पहाड़. नदियाँ झरने इत्यादि मन को मोह लेते हैं.
पास में ही चित्रकूट एवं तीरथगढ़ का जल प्रपात है. थोड़ी सी वर्षा होने के बाद तो उसकी रौनक देखने लायक होती है.
जगदलपुर से दंतेवाडा ८० किलोमीटर है.आज सिर्फ इतना ही.मिलते हैं ब्रेक के बाद.आज पहुंचे गए बस्तर क्षेत्र में।
यात्रा वृतांत आरंभ से पढें हम बिलासपुर पहुंचकर कोटमी सोनार जाना चाहते थे जहां क्रोकोडायल पार्क बना हुआ है। उदय भाई को साथ लेकर हम पहुंचे अरविंद झा जी के पास, उन्हे साथ लिया और चर्चा हुई कि अब किधर चलना है?
तो बात-चीत से फ़ैसला हुआ कि कोटमी सोनार न जाकर रतनपुर चलते हैं और वहां महामाया माई के दर्शन करते हैं, उसके पश्चात अचानकमार के जंगलों में भोजन करते हैं।
गाड़ी में अवधिया जी
उदय भाई ने फ़ोन कर भोजन बनाने का आर्डर दे दिया, तब तक हम महामाया मंदिर (जो कि प्राचीन शक्ति पीठ है) पहुंच चुके थे। मंदिर मैने 3 साल बाद देखा था। अब यहां का निर्माण काफ़ी विस्तार ले चुका है।
ज्ञात हो कि रतनपुर छत्तीसगढ की राजधानी रह चुकी है, कलचुरी काल में शासन यहीं से चलाया जाता था। मंदिर तक पहुंचने वाले मार्ग पर छत बनाकर छाया कर दी गयी है ताकि दर्शनार्थि्यों को परेशानी न हो।
अभी कुछ दिन पहले हमने दिल्ली यात्रा की एक पोस्ट में एक फ़ल दिखाया था। जिसे पोखरा कहते हैं, कमल गट्टा भी कहते हैं। इससे मखाने बनते है जिन्हे पंच मेवा में स्थान दिया गया है।
मंदिर के रास्ते में कुछ लोग पोखरा बेच रहे थे। अब मनपसंद चीज सामने थी। हमने 10 रुपए में 5 पोखरा लिया। अवधिया जी ने याद दिलाया था कि उन्होने बरसों से पोखरा नहीं खाया है। इसलिए हमने भी ले लिया।
कमल गट्टा याने पोखरा-बीज के साथ
थोड़ी देर बाद देखता हूँ कि अवधिया जी भी पोखरा लेकर आ रहे हैं। सभी ने पोखरा खाने का मजा लिया। इस फ़ल की विशेषता है कि फ़ल के अंदर एक आवरण में बीज है और बीज के अंदर अंकुर है। इससे सिद्ध होता है कि बीज के अंदर वृक्ष समाया हुआ है। बीज के अंदर के अंकुर को निकाल कर बीज को खाया जाता है अन्यथा उसकी कड़ूवाहट स्वाद खराब कर देती है। इसके हमने चित्र लिए हैं जिससे आपको स्पष्ट समझ में आ जाएगा।
गर्मी कुछ ज्यादा ही थी लेकिन तवेरा के एसी ने ठंडक बना रखी थी फ़ि्र भी अंदर का माहौल गर्म होने लगा क्योंकि अब चर्चा ब्लागजगत पर छिड़ चुकी थी।
गहन विचार विमर्श
अवधिया जी का कहना था कि वे ब्लागजगत में रुपया पैसा कमाने आएं है जिसे वे सार्वजनिक रुप से स्वीकार करते हैं। अंग्रेजी ब्लागिंग का उदाहरण देते हैं जहां लोग पैसे से विषय संबंधित आर्टिकल खरीद कर अपना ब्लाग चलाते हैं और कमाई भी करते हैं। हिन्दी ब्लागिंग में लोग कमेंट के पीछे भागते हैं। ब्लाग पर कमेंट भले ही मत आए लेकिन पाठक आना चाहिए। इसका फ़ायदा अवश्य ही मिलता है।
कमाई की आवश्यक्ता तो सभी ब्लागर्स को है, यह दे्खने में आता है जिस पोस्ट का शीर्षक ब्लाग की कमाई से संबंधित होता है, उसमें उस दिन ज्यादा हिट्स आती हैं। इसका मतलब यह है कि लोग ब्लागिंग से कमाई चाहते हैं, लेकिन आवश्यक्ता है ब्लागिंग को समझने की। इस विषय पर हम भी अवधिया जी सहमति रखते हैं लेकिन ब्लागिंग से कमाई की शुरुवात तो कहीं से हो।
फ़िर चर्चा चली बेनामी महाराज की पापाजी, दादाजी, काकाजी, अम्माजी, फ़ूफ़ाजी, बड़े भैइय्या, अर्थात बेनामियों का पूरा कुनबा ही ब्लाग जगत में इकट्ठा हो गया है।
आचार्य उदय
अभी नए सज्जन पधारे हैं ब्लाग बाबु और आचार्य जी अमृतवाणी सुनिए, जानिए मै कौन हूँ। यह भी ब्लाग जगत का एक पहलु है कि लोग मायावियों की तरह मुंह छुपा कर घूमते हैं।
अभी की दो चार घटनाओं का भी जिक्र हुआ। ब्लाग जगत में हो रहे लेखन पर भी चर्चा हुई।
नापसंदी लाल के कारनामों पर भी प्रकाश डाला गया। राजकुमार सोनी ने अपने जीवन से जुड़े संस्मरण से सभी को जोड़ा और हँसा हँसाकर हिला दिया। रास्ते में अमृत वाणी सुनाते रहे। अरविंद झा, अजय सक्सेना, आचार्य उदय के साथ हम भी मजा लेते रहे अमृत वाणी का। गाड़ी चलती जा रही थी अमरकंटक मार्ग पर।
जी के अवधि्या जी चिंतन मुद्रा में
अमरकंटक जाने के लिए अचानकमार के 80 किलो मीटर के जंगल को पार करके जाना पड़ता है। यह रिजर्व फ़ारेस्ट है। इस जंगल में शाम 6बजे के बाद वाहनों का प्रवेश वर्जित है। फ़िर गेट बंद हो जाता है रुके हुए वाहन सुबह 6 बजे ही भीतर प्रवेश करते हैं।
प्रारंभ होता है अचानकमार का बीहड़ वन। यहां बिजली की लाईन नहीं है, अचानकमार वनग्राम वन के बीचों बीच स्थित है यह ग्राम सोलर उर्जा से प्रकाशित होता है, जगह जगह सौर उर्जा के पैनल दिखाई देते हैं उनसे प्रत्येक घर में जलाने के लिए एक सीएफ़एल दिया हुआ है।
सड़क के कि्नारे एक झोपड़ी में होटल है जहां बड़ा-भजिया चाय एवं-नानवेज मिल जाता है भूख मिटाने के लिए। हमें खाने का कोई परहेज नहीं है विषम परिस्थितियों में पेट भरने के लिए सामिष-निरामिष कुछ भी खा सकते हैं।
यहां शाम को ठंड हो जाती है तथा अक्तुबर में तो अचानकमार ग्राम में ओवरकोट पहना पड़ सकता है। एक बार हम यहां आए थे तो मुझे मालूम था कि ठंड का सामना करना पड़ सकता है। इसलिए पूरी व्यवस्था के साथ गए थे। वैसे अचानकमार के जंगल देखने के लायक हैं।
जरुर कोई बात है अरविंद झा
हम एक घंटे के बाद निर्धारित स्थान पर पहुंच चुके थे। चारों तरफ़ पहाड़ियाँ और रमणीय वातावरण। अजय सक्सेना को किसी ने बता दिया कि यहां पर पास में कोई डैम है, वे वहां जाकर नहाने को तैयार हो गए। वैसे नदी इत्यादि में नहाने की इच्छा लेकर वे सुबह से ही घर से निकले थे, जब बिलासपुर पहुंचे तो अजय ने कहा था कि वे स्नान करने के लिए अलग से कपड़े लेकर आए हैं।
बिलासा की नगरी की अरपा नदी सूख चुकी थी उसमें तो अब रेत स्नान ही हो सकता था। विडम्बना देखिए बिलासपुर में अरपा डिस्टलरी भी है वहां कोई सूखा नहीं है वहां तो मय की गंगा बह रही है।
अब अजय को हमने मना कर दिया कि भाई अनजान तालाब,नदी, डैम की थाह नहीं होती इसलिए यहां नहाने इत्यादि का लोभ छोड़ देना चाहिए। कुछ देर तक बालहठ चला लेकिन फ़िर मान गए और हमने अपना डेरा जमा लिया।
खानसामा संतोष भोजन बना रहा था। पत्थरों को जोड़ कर चुल्हा बनाया और जंगल की लकड़ियां लेकर चूल्हा जला लिया। एक चूल्हे पर भात चढा दिया दूसरे पर दाल और स्वयं नानवेज को सु्धारने लग गया। हमारे साथ एक वेजिटेरियन भी थे। उनके लिए बैंगन और आलू को भूनकर चोखा तैयार हो रहा था।
राजकुमार सोनी-निशाने पे नजर
आचार्य उदय ने चोखा की बहुत तारीफ़ की थी। इधर गाना चल रहा था" धीरे-धीरे मुर्गा सिके-चप्पा चप्पा चरखा चले" हा हा हा बस मौजां ही मौंजा। राजकुमार सोनी अचानक अपनी कुर्सी से उठकर भाषण देने लग गए, रंग कर्म जो उनकी रग-रग में बसा हुआ है, बस वह रंगकर्मी जाग गया था।
इधर अजय सक्सेना के घर से फ़ोन आ गया था जिससे वे समझाने में सक्सेस हो गए, हा हा हा बड़ा ही मजेदार माहौल था। जिन्दगी के एक-एक पल को जिया जा रहा था। कहीं पल छूट ना जाएं। किसी ने कहा है--
मौसम का क्या ठौर ठिकाना,जोड़े हाथ चला जाए
फ़ागुन बन आया था,वह सावन बनके छा जाए
पल हैं थोड़े,रस है ज्यादा,पीना लेकिन खोना ना
ऐसा न हो, गायक चुप हो और सुनने वाला गा जाए
बस ऐसा ही कुछ समय का बंधन हमारे साथ भी था। सभी ने भोजन कि्या। संतोष ने बहुत अच्छा खाना बनाया था। जंगल में मंगल करवा दिया। दूर चिड़ियों की चहचहाहट वातावरण को आनंददायी बना रही थी।
कालु कुत्ता-पार्टी के बाद मस्ती में
आलु बैंगन के चोखा में सब अपना हाथ मार रहे थे, सामने पड़ा हुआ चिकन इंतजार कर रहा था कि मेरी कुर्बानी भी किसी के काम आए। तभी अवधिया जी हाथ बढाया और चिकन को कुछ राहत मिली कि कोई तो कदरदान है उसकी कुर्बानी व्यर्थ नहीं जाएगी।
सेमल के पेड़ की घनी छाया में ठंडी हवा चल रही थी। एक वृक्ष चौड़े पत्तेवाली नीलगीरि का भी था। जिसकी खुश्बू वातावरण को महका रही थी. एक को छोड़कर बाकी ने चिकन पर हाथ आजमाया,
पास में ही कालू कुत्ता भी बैठ के जीभ निकालकर लार टपका रहा था कि बोटी नहीं सही हड्डियाँ तो खाने मिलेगी, आज उसकी भी पार्टी हो जाएगी। भोजन में आनंद आ गया। संतोष भी भोजन करवाकर संतुष्ट था कि मेहमानों को उसका बनाया भोजन पसंद आया और हम भी अपने आपको तृप्त महसूस कर रहे थे, लजीज भोजन करके।
भोजन करके हम चल पड़े अपनी वापसी की यात्रा पर, फ़िर एक नई यात्रा के मंसुबे बनाते हुए, पीछे छूट गया संतोष, कालू कुत्ता और सेमल-नीलगीरि का पेड़.
बिलासपुर से रतनपुर के रास्ते में बैल बाजार भरता है, आस पास के किसान बैल खरीदने के लिए यहाँ आते हैं। बैल भारतीय कृषि का मुख्य अंग है। बैलों के बिना तो खेती की कल्पना ही नहीं की जा सकती, भले ही अब आधुनिक उपरकरण आ गए है, फ़िर भी बैलों की आवश्यकता बनी हुई है।
बैल बाजार
जुन का माह किसानों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। इस माह में किसान अपने खेतों को चौकस करते हैं, मेड़ सुधारते हैं। खेतों में बिखरे हुए कांटों को चुनकर जलाते हैं ताकि फ़सल लगाने के मौके पर पैरों में न चुभें क्योंकि रोपा लगाना, निंदाई करना एवं काटने का कार्य नंगे पैरों से ही किया जाता है।
इसके बाद खेतों में गोबर का खाद डाला जाता है और जैसे ही पहली बारिश होती है खे्तों की जुताई का काम शुरु हो जाता है। इसके बाद जिसे बोनी करनी है वह खेत को जोत कर छोड़कर देता है तथा जिसे रोपा लगाना है वह पौध बनाने के लिए धान बो देता है जिसे स्थानीय भाषा में थरहा डालना भी कहते हैं।
हमने भी कई सालों तक स्वयं ही खेती की। लेकिन नौकरों के भरोसे खेती में वह फ़ायदा नहीं होता,जो होना चाहिए, इसलिए रेग (किराए) पर दे दिया। जिससे एक निश्चित आमदनी होने की गारंटी होती है।
मुल्य की जानकरी लेते ललित-अरविंद
खेती के प्राचीनतम औजारों में नांगर (हल), बैलगाड़ी, पाटा (सरफ़ेस प्लेनर) बेलन या ठेला (धान मिंजाई करने का यंत्र) हैं। इनको चलाने के लिए पशुधन की आवश्यक्ता हो्ती है। इसके लिए किसान बैल या भैंसा खरीदते हैं।
इलाके में कई जगह इन पशुओं की खरीद फ़रोख्त करने के लिए पशु मेला लगता है। हमारे इलाके लोग पहले बैल खरीदने के लिए आमगांव (महाराष्ट्र) जाते थे। वहां खे्ती योग्य उम्दा बैल मिल जाते थे। आमगांव के बैला बाजार के बारे में हम बचपन से ही सुनते आए थे। जो कि हमारे यहां से लगभग 175 किलोमीटर दूर तो होगा। अब वहां से बैल खरीद कर किसान पैदल ही कई दिनों की यात्रा करके घर पहुंचता था।
अब सोच कर लगता है कि कितना दुष्कर होता था यह यात्रा करना। अब तो बैलों की जगह ट्रेक्टर ने ले ली है। लेकिन पशुधन के बिना अभी भी खेती करना संभव नहीं है। इसलिए बैल बाजार अभी भी लग रहे हैं।
ललित शर्मा अरविंद झा और बैल दलाल
इस यात्रा में जब हम महामाया (रतनपुर शक्तिपीठ) दर्शन करके करगी रोड़ कोटा की तरफ़ बढे तो एक विशाल पशु बाजार दिखा। भरी चिलचिलाती दुपहरी में भी हम देखन का लोभ नहीं रोक पाए।
बैल बाजार में सब तरह के बैल थे बड़े ,मंझले, छोटे। एक बैल कोचिया (दलाल) से हमने बैलों की जोड़ी की कीमत के विषय में चर्चा की । उसने एक मंझली बैल जोड़ी का मुल्य 28,000 रुपए बताया। इस बैल के 8 दांत थे, मतलब बैल अच्छा था। चार-पांच साल किसानी में साथ दे सकता। बैलों और गायों का मुल्य दांत (दाढ) देखकर ही लगाया जाता हैं, 4 दांत की गाय एवं 8 दांत का बैल उत्तम ही माना जाता है।
हमने तो अपने जीवन काल में बैल कभी खरीदा ही नहीं क्योंकि खेती अब ट्रैक्टर से होनी प्रारंभ हो गई। बचपन में एक बार बैल खरीदते हुए पिताजी को देखा था उस समय एक बैल की कीमत 300 रुपए थी। अब उस कीमत के सामने 28,000 का बैल बहुत मंहगा लगा। लेकिन पशुधन की कमी देखते हुए समयानुसार बैल का मुल्य तो सही था।
चलो एक फ़ोटो हो जाए अजय के साथ
हमारे साथ अरविंद झा जी एवं अजय सक्सेना जी भी बैल बाजार का आनंद ले रहे थे। बैल बाजार में भैंसा बाजार था। भैंसे दूर से ही काले-काले शोभायमान थे। अब यमराज की सवारी का कौन मोल कर कौन बला मोल ले?
हमारे यहां भैसों को बैलों जैसे नाथ(लगाम) नहीं पहनाई जाती। नाथ पहनाने से बैलों को नियंत्रण में किया जाता है। एक प्रकार से कहूँ तो बैलों का स्टेयरिंग नाथ होती है।
बैलगाडी चलाने का भी अपना ही आनंद है। हमने बचपन में बैलगाड़ी चलाई हैं। बैलगाड़ी चलाने के लिए गाड़ीवान के पास एक उपकरण होता है जिसे स्थानीय भाषा में तुतारी (तीन फ़ुट की एक लाठी जिसके अग्र भाग में लोहे की कील लगी रहती है) कहते हैं। इस तुतारी से ही बैलों के पृष्ठ भाग में कोंच कर उन्हे नियंत्रित किया जाता है। लेकिन भैसों को लगाम नहीं डाली जाती इसलिए इन्हे मनमर्जी से चलने की आदत होती है।
विहंगम दृष्टि बैल बाजार पर
कुशल गाड़ीवान ही इनपर नियंत्रण करता है। भैंसागाड़ी चलाने के लिए गाड़ीवान को इनके आगे-आगे चल कर रास्ता दिखाना पड़ता है। जिससे वे गाड़ीवान के पीछे-पीछे मस्ती से चलते रहते हैं या इन्हे बैलगाड़ी के काफ़िले में पीछे रखना पड़ता जिससे वे उसका अनुशरण कर मंजिल तक पहुंच जाते हैं
हमने एक नजर भैंसा बाजार की तरफ़ भी डाली। सारे भैंसे एक बरगद के बड़े पेड़ की छांव में इकट्ठे हो गए थे। जानवर भी धूप से बचना चाह रहे थे लेकिन बैला बाजार के मैदान में पेड़ बहुत कम थे।
इन पशुओं के मालिक अपने साथ धूप से बचने के लिए छतरी लेकर आए थे। कि्सी ने ईंटो का चुल्हा बनाकर अपनी हंडी चढा रखी थी तो कोई अपना पंछा (अंगोछा) बिछाकर उसमें ही भात खा रहे थे,आम की चटनी के साथ ।
थाली या खाने के बरतन के अभाव में पंछा भी भोजन करने के लिए बढिया काम आता है। हम बैला बाजार देख रहे थे और हमारे साथी गाड़ी में बैठे-बैठे बोर हो रहे थे।
हमें आवाज लगा रहे थे कि -"चलो भाई जल्दी, देर हो जाएगी।" एक बार बैल बाजार पर भरपूर दृष्टि डालने के बाद हम गाड़ी में बैठ गए और चल पड़े आगे की यात्रा पर........जारी ............
शनिवार को कुछ ब्लागर साथियों के साथ चल पड़े बिलासपुर की ओर । जी के अवधिया, राजकुमार सोनी, अजय सक्सेना (कार्टुनिस्ट) एवं मैं याने ललित शर्मा। अचानक बने इस यात्रा कार्यक्रम में हमें कुछ एतिहासिक स्थल भी देखने थे। जैसा कि राजकुमार भाई ने कहा था और आचार्य उदय एवं अरविंद झा जी का पिछले कई माह से निमंत्रण भी था बिलासपुर आने का। पिछले दो दिनों से मैं भी रायपुर में ही था। इसलिए सुबह 6 बजे हम बिलासपुर के लिए चल पड़े।
रास्ते में चरोदा धरसींवा में शिव जी के मंदिर के दर्शन किए जिसे बाबु खान नामक मुसलमान ने बनवाया था। यहां के पुजारी ने हमें यह जानकारी दी।
बाँए से दाँए जीके अवधिया, राजकुमार सोनी, अजय सक्सेना एवं ललित शर्मा
धरसींवा बलॉक के स्वतन्त्रता सेनानियों का शिलालेख
चरोदा के इस मंदिर के सामने एक मैदान है जिसमें स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हुए सेनानियों का नाम कई शिलालेखों में उत्कीर्ण कर उन्हे स्थापित किया गया है। जिससे हमें धरसींवा क्षेत्र के शहीदों के विषय में जानकारी मिली।
शिवलिंग धरसींवा
हाई कोर्ट छत्तीसगढ़
रास्ते में बिल्हा के पास हाईकोर्ट का नया भवन देखा। बहुत ही सुंदर इमारत बनी है। इसका निर्माण क्षेत्र भी काफ़ी बड़ा है।
आगे चलकर हम पहुंचे ताला गांव में जहां पर 6वीं-7वीं शताब्दी के देवरानी-जेठानी मंदिर के भग्नावेश प्राप्त हुए हैं।
एक व्यक्ति ने बताया कि यहां पहले बहुत बड़े-बड़े टीले थे जिनकी खुदाई करने से मंदिर के भग्नावेश प्राप्त हुए हैं।
यह मंदिर एक नदी के किनारे हैं। रमणीय स्थान स्थान है।
प्रेमालाप
दीवारों पर उत्कीर्ण मुखौटा
तभी हमने देखा कि एक व्यक्ति स्वयं ही विद्युत व्यवस्था कर रहा था। मतलब बिजली के तारों पर कटुवा डाल रहा था। हमने उसकी सहमति से एक चित्र लिया। यहां से बिलासपुर की ओर चलते हुए आचार्य उदय एवं अरविंद जी को फ़ोन पर 10बजे तक पहुंचने की सूचना दी................जारी है...............
कल हम रायपुर शहर में ही थे,बैठे-बैठे अचानक मुड बना और हमारे ब्लागर साथी कौशल तिवारी जी को फ़ोन लगाए, उन्होने कहा कि यहीं प्रेस में ही आ जाएं ललित भाई। उनका निमंत्रण पाकर हम उनके अखबार बुलंद छत्तीसगढ के दफ़्तर में पहुंच गए।
वहां हमें संपादक मनोज पांडे जी कौशल तिवारी जी एवं सह संपादक फ़िरोज खान जी मिले। शायद दो महीने बाद हमारी मुलाकात हुयी थी। कौशल तिवारी जी ने बुलंद छत्तीसगढ अखबार के नेट पर भी आने की शुभ सूचना जी।
जिसे सुनकर हमें हर्ष हुआ। अब हमारे साथी बुलंद छत्तीसगढ का समाचार नेट पर भी पढ सकेंगे। यह एक अच्छी शुरुवात है। प्रिंट के साथ अखबार का नेट पर आना सुखद है क्योंकि एक व्यक्ति सभी समाचार पत्र खरीद कर नहीं पढ सकता। इसलिए जिसके पास नेट की व्यवस्था है वह नेट पर पढ सकता है। मैं भी लगभग समाचार पत्र नेट पर ही पढता हूं।
समाचारों के विषय में चर्चा होने के साथ यह तय हुआ कि ब्लाग4वार्ता नामक कालम शुरु किया जाए। जिस पर कुछ ब्लाग की चर्चा सम्मिलित हो। यह साप्ताहिक कालम प्रति सोमवार प्रकाशित होगा तथा नेट पर भी पढा जा सकता है। यह एक अच्छी शुरुवात है,प्रिंट मीडिया में ब्लागों की चर्चा होनी चाहिए जिससे नेट पर भी पाठकों की संख्या बढेगी। कौशल तिवारी जी ने बताया कि बुलंद छत्तीसगढ एक आन्दोलन "नई आजादी" के नाम से प्रारंभ कर रहा है। यह आन्दोलन सम्पूर्ण भारत में चलाया जा रहा है तथा नई आजादी की लड़ाई का आगाज बुलंद छत्तीसगढ पर हो चुका है।
इन्होने इस आन्दोलन के माध्यम से कुछ मुद्दे उठाए हैं जैसे-पूर्व सांसदो और विधायकों को पेंशन क्यों?, अखबारों एवं उद्योगों के लिए जमीन क्यों?, तालाब न पटे-वृक्ष न कटे, कृषि जमीन का उपयोग न बदलें, अवैध कब्जे एवं अवैध निर्माण पर कड़ी कार्यवाही हो,50% से अधिक वोट पाने वाली सरकार ही नीतिगत निर्णय ले अन्यथा हर निर्णय पर जनता का अभिमत लेना चाहिए।
बहुत ही अच्छे मुद्दे बुलंद छत्तीसगढ ने उठाएं है। हम इन्हे साधुवाद देते हैं और कामना करते हैं कि आन्दोलन का समस्त भारत में विस्तार हो, जनता जागरुक होकर अपने अधिकारों का प्रयोग करे।
बुलंद छत्तीसगढ अखबार बेबाकी से अपनी बातें कहता है, घोटालों को लगातार उजागर करता है। इसकी साफ़गोई पसंद आती है। कौशल तिवारी जी अपने सम्पादकीय में अन्याय,अत्याचार और भ्रष्ट्राचार पर सीधा प्रहार करते हैं। जिससे कई समस्यों का सामना भी करना पड़ता है।
वे कहते हैं कि -पर्यावरण की चिंता में दुबले हो रहे लोगों के लिए यह खबर और भी दुखदायी होगी कि मोवा से विधान सभा के बीच सड़क चौड़ी करण के नाम से डेढ हजार से अधिक पेड़ काट डाले गए। यह पेड़ तब काटे जा रहे थे जब प्रदेश के मुखिया डॉ रमन सिंह द्वारा शिवनाथ नदी को बचाने फ़ावड़ा उठाया जा रहा था। छत्तीसगढ को वन प्रदेश कहने वालों के लिए यह दुखद स्थिति है कि सरकार विकास के नाम पर विनाश करने में लगी हुई है। उसके पास आने वाली पीढी को सुखद जिन्दगी देने के लिए कोई योजना नहीं है। वह तो सिर्फ़ अपने राजनैतिक फ़ायदे के लिए ही कार्य करती है।
ब्लाग4वार्ता अब प्रिंट मीडिया पर भी आ रहा है, इस चर्चा में शामिल ब्लागों की चर्चा अब हम प्रिंट मीडिया पर भी करेंगे। हमारा प्रयास है कि ब्लाग4वार्ता में सम्मिलित चिट्ठों को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचाया जाए। हम बुलंद छत्तीसगढ परिवार को शुभकामनाएं देते हैं। बुलंद छत्तीसगढ के समाचार यहां से पढ सकते हैं।
कई दिनों पहले ताऊ शेखावाटी ने मुझे फ़ोन पर बताया था कि वे रायपुर पहुंच रहे हैं 7 तारीख को प्रखर समाचार वालों ने धमतरी में कवि सम्मेलन में बुलाया है। हमें भी इंतजार था कि ताऊ जी से पुन: मुलाकात होगी।
ताऊ जी से मेरी मुलाकात 7 तारीख को दोपहर में हुयी। वे अपने साथ स्वरचित सभी किताबे एवं ग्रंथ भी लेकर आए थे मेरे लिए। जिसमें हम्मीर महाकाव्य (माध्यमिक शिक्षा बोर्ड राजस्थान की कक्षा 10वीं की अनिवार्य हिंदी पाठ्यक्रम में पढाया जाता है),
सेर को सवा सेर मिल गया (बाल कथा संग्रह), एक और देवयानी (कहानी संग्रह), सोरठां री सौरभ (नीतिपरक संबोधन काव्य),कह ताऊ कविराय (राजस्थानी हास्य व्यंग्य काव्य) साळाहेली (व्यंग्य काव्य), सुण ळे ताई बावळी ( (व्यंग्य काव्य) हेली सतक सवाई (आत्मबोध परक संबोधन गीत, इस गीत संग्रह में 135 गीत हेली संबोधन से हैं) मुझे भेंट किए। राजस्थानी एवं हिंदी भाषा के मुर्धन्य साहित्यकार एवं हस्ताक्षर से एक माह के अंतराल में पुन: मिलन अच्छा रहा।
ताऊ जी ने एक बात और बताई कि सम्पूर्ण भारत में हरिवंश राय बच्चन जी के पश्चात वे दूसरे कवि हैं जिन्हे जीते जी पाठ्यक्रम में पढाया जा रहा है। नहीं तो मरने के बाद ही कवि्यों का नम्बर आता है। यह भी इन्हो्ने सच ही कहा।
एक बार की घटना बताते हुए कहा कि एक मास्टर उत्तरपुस्तिकाएं जांच रहा था। तो उसने मुझे कहा कि देखिए ताऊ जी आपके जीवन परि्चय में इस लड़के ने क्या लिखा है?
कवि ताऊ शेखावाटी का जन्म 17 सितम्बर 1942को हुआ था और मृत्यु.............सन् में हुयी थी। अब वो बच्चा भी यही मानसिकता लिए बैठा था कि जीवित कवि को तो पाठ्यक्रम में पढाया नहीं जाता, इसलिए मृत्यु तो अवश्य हुयी होगी, झुठी तारीख ही लिख दो शायद सही हो जाए और 5 नम्बर मिल जाए।
ताउ जी से चर्चा के बीच मैने गिरीश भैया को भी फ़ोन करके होटल में बु्ला लिया। अब दो साहित्यकारों की चर्चा का आनंद लेने का मुझे अवसर मिला। प्रतीत हो रहा था जैसे तुलसी दास और रहीम कवि मिले हों।
यह दो साहित्यकारों का मिलन था। साहित्य की चर्चा के साथ साहित्यकारों की चर्चा भी हो रही थी। इस बी्च ताउ जी ने पत्नी महात्म सुनाया। जिसे मैने रिकार्ड कर लिया ।
यह रिकार्ड आपके लिए प्रस्तुत है। यदि चाहें तो डाउनलोड भी कर सकते हैं। काफ़ी चर्चा हुयी, 4बज रहे थे, ताउ को कवि सम्मेलन के लिए जाना था। चाय के पश्चात चर्चा को विराम दिया गया। सब पुन: मिलने का वादा करके विदा ली।
ताऊ की कविताई
काल के प्रकार
बुद्धि चक्कर खायगी,मिल्यो ना हल तत्काल
छोरो आयो स्कूल स्युं, ले' की एक सवाल
ले' की एक सवाल, जरा पापा बतलाओ
कितना होवे काल, जरा सावळ समझाओ
मैं बोल्यो-बेटा! जीवन में तीन काल है
पति-काल, पत्नी-काल, फ़िर कळह काल।
पति-काल
ब्याह होतां'ई सुण सरु,हो ज्यावै पति-काल
होय पति निज पत्नी री, सेवा स्युं खुशहाल
सेवा स्युं खुसहाल, छींक भी जे आ ज्यावे
एक मिनट में पत्नी ल्या झट चाय पिलावे
क्युं जी तबियत ठीक नहीं तो पांव दबा दयुं
बार बार पूछै माथा पर 'बाम' लगा दयुं ।
पत्नी-काल
एक दो टाबर हो गया, पैदा तो तत्काल
आवै पत्नी काल तद, खत्म होय पति-काल
खत्म होय पति-काल, अगर पति चाय मंगावै
"छोरो रोवै है ठहरो!" पत्नी समझावै
या तो छोरै नै थ्हे थोड़ी देर खिलाल्यो
या खुद जाकी आप किचन में चाय बणाल्यो।
कळह-काल
अर फ़िर कुछ दिन बाद में, पूरो जीवन सेस
कळह-काल में ही कटै, ईं में मीन ना मेख
ईं में मीन ना मेख, कळह रो बजे नंगाड़ो
रोज लड़ाई झगड़ो, घर बण जाए अखाड़ो
कह ताऊ कविराय, कदै भी चैन न पावै
तेल,लूण,लकड़ी रै, चक्कर में फ़ंस ज्यावे।
कार्यक्रम स्थल पर हमारे पहुंचने के पश्चात कवि सम्मेलन का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। इस कवि सम्मेलन में श्री आरिफ़ जी गोंदिया वाले, अनिता कम्बोज, डॉक्टर शाहिद सिद्दकी, एवं एक अन्य कवि (उनका नाम भूल रहा हुं) कविता पाठ करने के लिए उपस्थित थे।
मंच की शुरुआत डॉ शाहिद सिद्द्की की गजलों से हुयी उन्होने अच्छा शमा बांध दि्या, उसके पश्चात अनिता कम्बोज ने अपनी रचनाएं पढी, फ़िर एक अनाम कवि ने, इस तरह पहला चक्र सम्पन्न हुआ।
काफ़ी अच्छा रहा, मंच ने बहुत तालियां और वाह वाह बटोरी। अभी तक मंच का संचालन कवि आनंद अतृप्त ही कर रहे थे। शायद कुछ रचनाओं से उन्हे तृप्ति अवश्य हुयी हो। इसके पश्चात काव्य संग्रह के विमोचन होना था। समस्त तिथि-अतिथि पहुंच चुके थे।
मंचासीन माननीय गिरीश पंकज जी, अशोक सिंघई जी, मनु जी, राजकुमार सोनी जी इत्यादि ने विमो्चन कार्य को सम्पन्न किया। इसके पश्चात गिरीश पंकज जी ने अपने विचार रखे। (इसे आप आडियो पर सुन सकते हैं) फ़िर अशोक सिंघई जी ने कविता पर अपने विचार रखे।
एक कविता आनंद अतृप्त जी ने सुनाई। काव्य संग्रह प्रख्यात गीत कार श्री गोपाल दास "नीरज" जी को समर्पित किया गया है।इनके काव्य संग्रह आ से अ तक चलते चलते में नयी कवित एवं गीतों के साथ एक नाटक भी प्रकाशित किया गया है जिसका नाम है नाटक नाटक और.........!
इनका यह नाटक मंचों से कई बार पुरस्कृत हो चुका है। आनंद अतृप्त जी ने यह नाटक प्रख्यात रंग कर्मी प्रेमसाईमन जी को समर्पित किया है
आनंद अतृप्त जी के गीत की बानगी देखिए--
फ़िर चाहे तुम मृत्यु दे दो, पहले मुझको गाने ले दो॥
मैने ली है कलम हाथ में, तम को दूर भगाने को।
मेरे गीत ज्योति बन गए,सोई किरण जगाने को।
हर आंगन उजियारा हो,मेरे गीतों के प्रकाश से।
हर जड़ चेतन बन जाए,नव जीवन के नव प्रभात से॥
फ़िर चाहो तुम अमावश कर दो,पहले दीप जला लेने दो।
फ़िर चाहे तुम मृत्यु दे दो, पहले मुझको गा लेने दो॥
ना पागल फ़िर मनवा गाए,गीत मिलन की यादों के।
ना प्यासा मयूर मर जाए, ले अरमान सावन भादो के॥
मैं बनुंगा बूंद स्वाति की,चातक की प्यास बुझाने को।
मैं बंशी की धुन बनुंगा, राधा की आस जगाने को॥
फ़िर चाहे तुम प्रलय ला दो, बसंत बहार मना लेने दो।
फ़िर चाहे तुम मृत्यु दे दो, पहले मुझको गा लेने दो॥
मै से्ज का फ़ूल बनुंगा, अरमानों की बेलों में।
थिरकुंगा मै चुम्बन बनकर,प्रीत प्यार के मेलों में॥
यौवन की दहलीजों पे, मै मिलन की गीत बनुंगा।
बे्सुध जि्स पर मीरा नाचे, मै वो अमर संगीत बनुंगा॥
फ़िर चाहे तुम चिता सजा दो, मधु श्रृंगार सजा लेने दो।
फ़िर चाहे तुम मृत्यु दे दो, पहले मुझको गा लेने दो॥
एक नयी कविता
हिंसा
क्या तुमने कबूतर दे्खा है?
सफ़ेद कबुतर
हां! देखा है मैने,
वो मरा हुआ था।
उसका रंग लाल था,खून से।
लोग कबूतर क्यों मारते हैं?
क्यों मारते हैं लोग कबूतर?
सुरभि, सुरेखा जी,सूर्यकांत जी, गिरीश पंकज जी, राजकुमार सोनी जी
इसके पश्चात कविसम्मेलन का दूसरा चक्र प्रारंभ हुआ। दूसरे चक्र में आरिफ़ भाई गोंदिया से पहुंच चुके थे, उनकी गजलें बहुत ही सुंदर थी। मैने एक गजल की कुछ पंक्तियां रिकार्ड की हैं आप आडियो सुन सकते हैं। अब समय हो चुका था।
चांद भी बादलों से झांक कर घर बैठे कवि सम्मेलन का आनंद ले रहा था-लेकिन हमें तो जाना था अपने घर की ओर जहां हमारा इंतजार हो रहा था। सबसे विदा लेके हम चल पड़े घर की ओर...................!
कवि आनंद अतृप्त के कविता संग्रह का विमोचन था। इसमें मुख्य अतिथि के तौर पर गिरीश पंकज जी आमंत्रित किया था। गिरीश भाई हमें और राजकुमार सोनी जी को भी साथ में ले गए।
आनंद अतृप्त जी प्रख्यात रंगकर्मी हैं, इन्होने कविता के क्षेत्र में भी हाथ आजमाया है। किसी कवि के कविता संग्रह के विमोचन समारोह में उपस्थित होना गर्व की बात है क्योंकि कवि का लिखा हुआ उसके जीवन की अमुल्य निधि होता है।
इस अवसर पर सम्मिलित होने से कवि का उत्साह बढता है। रायपुर से हम चले तो 4 बजे थे, विमोचन समारोह 7/30 पर था, साथ ही कवि सम्मेलन भी रखा गया था। इसलिए हमने अन्य ब्लागर से भी मिलने का वि्चार बनाया था।
सिविक सेंटर में पहुंचने पर राजकुमार सोनी जी को खुशदीप भाई के साथ खाई हुयी हमारी आईसक्रीम याद आ गयी। कहने लगे आईसक्रीम खाएंगे। वहीं सिविक सेंटर में एक आईसक्रीम पार्लर भी है।
आईसक्रीम पार्लर में पहुंच कर पाबला जी को फ़ोन लगाया, वे ड्यूटी में फ़ंसे हुए थे। बताया कि रात के 10बजे छुट्टी होगी। हमने सूर्यकांत गुप्ता जी को फ़ोन लगाया तो वे सपरिवार रास्ते में ही थे। उन्होने कहा कि बस पहुंचते ही हैं।
तब तक हमने आईसक्रीम का आर्डर दे दि्या। हमने कहा करंट तो वेटर लेकर आया ब्लेक करंट हमारे लिए और राजकुमार सोनी जी के लिए, गिरीश भाई के लिए ड्राई फ़्रुट वाली आईसक्रीम आई। हमें तो आईसक्रीम खाते ही करंट लगने लगा था। गिरीश भाई देख रहे थे कि कोई ज्यादा ही आनंद वाली आईसक्रीम है, बोले-खूब मजा आ रहा है।
हमने कहा-जी झटके पर झटके आ रहे हैं, आप भी एक ब्लेक करंट लिजिए और झटकों का आनंद उठाईए। तब तक सूर्यकांत गुप्ता जी भी पहुंच जाएंगे।
राजकुमार भाई अब कोन में आइसक्रीम लेकर आए। लेकिन फ़्लेवर बदल दिया था। अबकि बार करंट गिरीश भाई के लिए था। उन्होने भी ब्लेक करंट का मजा लिया। यहां से झटका खाते हुए, अब पहुंच गए प्रसिद्ध गिलौरी वाले पान की दुकान की तरफ़।
ज्ञात हो कि राजकुमार सो्नी जी बचपन और युवापन भिलाई में ही बीता है, रंगकर्म के साथ-साथ साहित्यकारों और कवियों में भी इनकी अच्छी पैठ है। अब ये हमें उन दिनों की यादे सुनाने लगे और मेरा हंसते-हंसते जबड़ा दर्द करने लगा।
मैने कहा भाई जरा रुक जाओ सांस लेने दो। जबड़ा दर्द करने लगा है। लेकिन ये तो चालू ही रहे। हम जबड़ा पकड़ कर हंसते रहे। कभी आपको भी सु्नाएंगे, बड़ा मजा आएगा।
गुप्ता जी गुप्तैईन भाभी जी को लेकर उमड़त-घुमड़त विचारों के साथ पहुंच गए थे। उनको देखते ही ऐसा लगा कि जैसे भीषण गर्मी से झुलसे हुए पेड़ पर पावस की ठंडी बयार-फ़ुहार आ गयी हो।
अब फ़िर शुरु हो गया ठहाकों का दौर। बस जीवन का आनंद यही है, मिलो तो दिल से मिलो और हंस के जुदा हो, यही सार है। इसके बाद एक फ़ोटो सेशन हुआ सबके साथ। गुप्ता जी के साथ बेटी भी थी, मैं नाम भूल रहा हुँ उनका। बढिया मिलन रहा ।
तभी गिरीश भाई के पहचान के बक्षी जी पहुंच चुके थे हमें उनके घर भी जाना था। गुप्ता जी को सैल्युट कर हम निकल पड़े रिसाली की तरफ़, वहीं बक्षी जी का घर है।
सरिता सतीश बक्षी
सरिता सतीश बक्षी मुलत: मराठी भाषी लेखिका हैं, मराठी में लिखती हैं तथा सद्भावना दर्पण में उनकी मराठी से हिंदी अनुवाद की हुयी रचनाएं प्रकाशित होती है। गिरीश भैया के साथ इनसे भी भेंट हुयी। लेखन के प्रति इनका समर्पण भी कमाल का है।
मराठी साहित्यिक पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं प्रकाशि्त होती हैं, मराठी भाषा के कई सम्मान एवं सत्कार भी इन्हे प्राप्त हुए हैं। एक सामान्य गृहणी के द्वारा किया गया लेखन समाज के सभी पक्षों को बखुबी सामने रखता है।
थोड़े से समय में इनकी कविताएं एवं लेखों पर एक सरसरी निगाह ही डाल पाया। अब समय मिलने पर इन्हे पढते रहेंगे। यहां सरिता जी ने डटकर नास्ता करवा दिया। इनसे चर्चा चल ही रही थी तब तक आनंद अतृप्त जी के फ़ोन आने प्रारंभ हो गए। हम अब चल पड़े थे आयोजन स्थल की ओर..................