पहुचे और तख्ता संभाला |
आहिस्ता आहिस्ता भीड़ में जगह बनाते हुए हम गिरीश जी के घर राईट टाऊन गेट नम्बर 4 की तरफ़ बढ रहे थे। इन्होने घर का पता किरयाणे की दुकान के पास का दिया और दुकान के मालिक का नाम भी पंजाबी जैसा था मतलब पंजाबी ही था। हम उसे सरदार मानने की गलती कर बैठे बस यहीं चूक हो गई, पुरानी रेल्वे लाईन के के उपर से कई चक्करखाने के बाद इनके घर का रास्ता दिखाई दिया। गाड़ी किनारे पर लगा कर इनके यहाँ दाखिल हुए तो जबलपुर ब्रिगेड के कोई भी मेम्बरान नहीं पहुंचे थे। गिरीश दादा के मोबाईल पर फ़ुरसतिया जी का फ़ोन आ रहा था, वे भी हमारे जैसे कहीं भटक रहे थे भूल भुलैया में। हम गली के मुहाने तक आए, उनकी सहायता करने के लिए। थोड़ी देर में वे पहुंच गए।
अनूप शुक्ल, विजय श्रीवास्तव, ललित शर्मा, सत्येन्द्र शर्मा |
दादी ने नाश्ते की भरपूर तैयारी कर रखी थी। जबलपुर के लड्डूओं के साथ पेसल मिक्चर और चाय का विशेष इंतजाम था। विजय श्रीवास्तव जी, विजय तिवारी जी, बवाल हिन्दवी जी भी उपस्थित हुए। बस हँसी ठहाकों के साथ ब्लॉगरों की बैठकी जम गई। फ़ुरसतिया जी ने ब्लॉगिंग के सूत्रों पर व्याख्यान दिया और चर्चा चलते रही चाय नाश्ते के साथ। चर्चा सम्मानों की निकल गई। फ़ुरसतिया जी ने बताया कि उन्हे कहाँ कहाँ से सम्मानों का नेवता आया और उन्होने सम्मान ग्रहण नहीं किया। ये उनका बड़प्पन है कि उन्होने सम्मान करने वाले को सम्मानित करने का मौका नहीं दिया। हमें तो सिर्फ़ एक मेल आ जाती उतने में ही गिरीश दादा को साथ लेकर चल देते सम्मान ग्रहण करने के लिए। हमने कहा कि अब समय आ गया है आपको भी सम्मानित हो जाना चाहिए।
विजय तिवारी, अनूप शुक्ल, ललित शर्मा, सत्येन्द्र शर्मा |
ब्लॉगिंग पर अब लोगों का ध्यान कम ही है। लगभग ब्लॉगर फ़ेसबुक पर स्थानांतरित हो गए हैं। ब्लॉगिंग के लिए चिंता जनक है। जब से ब्लॉगवाणी और चिट्ठा जगत बंद हुआ है, नए चिट्ठों की आमद का पता ही नहीं चलता। पुराने चिट्ठों पर भी पोस्टों की फ़्रिक्वेंशी कम हुई है। बड़का ब्लॉगर और छुटका ब्लॉगर सभी मिलाकर कम लिखने लगे हैं। लेकिन अधिक चिंता का विषय नहीं है। जिन्हे एक बार ब्लॉग रोग लग गया वह जीते जी छूटने वाला नहीं है। अगर ब्लॉग लिखना भी बंद देगे तब भी ब्लॉग देखने आएगें, क्या हो रहा है इस आभासी दुनिया में जरा एक बार झांक ही लिया जाए। इस महारोग से मुक्ति पाना इतना आसान नहीं है। अफ़ारे के कारण पेट में हुई गुड़गुड़ी अपने आप ही रास्ता बना लेती है निकलने का।
प्यार न बांटा जाए रे साथी |
फ़ुरसतिया जी फ़ोटो में तो काफ़ी सीनियर दिखाई देते हैं, पर आमने सामने भेंट होने से विजय तिवारी जी से भी कम उम्र के लगे :)। अब इन दोनो के सामने हमारी, गिरीश जी, संध्या जी और बवाल साहेब की बखत ही क्या है। ब्लॉगिंग के सीनियरों को वास्तविक जीवन में भी सीनियर दिखाई देना चाहिए। जब तक कुछ बाल पके दिखाई नहीं दें तब तक कौन सीनियर मानता है। :) हाँ महेन्द्र मिसिर जी से भेंट नहीं हो पाई। हार्दिक इच्छा थी उनसे मुलाकात करने की। पता चला कि कहीं व्यस्त थे। विजय श्रीवास्तव जी ने "दशहरा" मैग्जिन पकड़ाई। इसका प्रकाशन रायपुर से ही होता है। मुझे जानकारी नहीं थी, लेकिन कंटेट और डिजाईन की दृष्टि से अच्छी मैग्जिन लगी। जहाँ बवाल हों और वहाँ बवाल न हो यह हो ही नहीं सकता। सभी ने उनसे गाने की फ़रमाईश की। लेकिन साज के बिना गाने का मजा नहीं।
चाचू पशीने क्यों आ रहे हैं "बवाल साहेब " |
गिरीश दादा के यहाँ सुर ताल के सारे साधन हैं। लेकिन उनके हारमोनियम की एक कुंजी चिपकने के कारण मामला कुछ जमा नहीं। कहते हैं न "नाच न आवै आंगन टेढ़ा", जिसको नाचना आता है वह कहीं पर भी नाच लेता है। क्यों बसंती नहीं नाची थी क्या? पहाड़ की चट्टान पर पड़े हुए काँच पर। बस ऐसा ही कुछ सिचुएशन बन गया था। बवाल जन्मजात गायक हैं, जब हारमोनियम काम नहीं किया तो उन्होने ढोलक लेकर सुर ताल मिला लिया और मेरा प्रिय भजन "प्यार न बांटा जाए रे साथी प्यार न बांटा जाए" गाया। फ़िर अपनी मर्जी के भी उन्होने 4-5 गजल गीत गाए। विजय तिवारी जी ने बताया कि उनका पैतृक गाँव तेवर है। यदि उन्हे फ़ुरसत होती तो वे हमें घुमाने ले जाते। हमने इच्छा जाहिर की तो उन्होने कहा कि वे व्यवस्था कर देते हैं, वहाँ उनका भतीजा राजा मिल जाएगा। इस तरह सभा समाप्ति की ओर थी। सभी देवता अपने-अपने घरों ओर प्रस्थान कर गए और हम अपने डेरा की ओर चल पड़े। आगे पढें…जारी है…
नोट - फोटो गिरीश दादा की फेसबुक से साभार
नोट - फोटो गिरीश दादा की फेसबुक से साभार