शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

खजुराहो शैली की प्रतिमाएँ : फ़णीकेश्वर महादेव


रायपुर से 70 किमी की दूरी पर फ़िंगेश्वर कस्बे में त्रिआयतन शैली का प्राचीन शिवालय है। त्रिआयतन से तात्पर्य है कि तीन गर्भगृह और संयुक्त मंडप। इन तीन गर्भ गृहों में मुख्य में फ़णीकेश्वर महादेव विराजे हैं और द्वितीय में शंख, गदा, पद्म चक्रधारी विष्णु स्थानक मुद्रा में हैं और तीसरे में मंदिर का कलश रखा हुआ है। 
फ़णीकेश्वर महादेव  फ़िंगेश्वर
इस मंदिर का मंडप सोलह स्तंभो पर निर्मित है। मंदिर का स्थापत्य उतना सुडौल एवं सुंदर नहीं है, जितना पाली एवं जांजगीर के कल्चुरी कालीन मंदिरों का शिल्प है। शिल्प की दृष्टि से यह परवर्ती काल तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी का माना जा सकता है। 
मिथुन प्रतिमा फ़णीकेश्वर महादेव
मंदिर की भित्तियों पर दो थरों में हल्के काले रंग के पत्थरों पर उकेरी गई प्रतिमाएँ जड़ी हुई हैं। इनमें भक्ति एवं भोग दोनों प्रदर्शित किए गए हैं। मिथुन प्रतिमाएं उस काल की शिल्प परम्परा का पालन करती दिखाई देती हैं। इन मिथुन प्रतिमाओं में वात्सायन के काम सूत्र में वर्णित, चुंबन, आलिंगन, मैथुन आदि को प्रदर्शित किया गया है। इसके साथ ही राम एवं कृष्ण से संबंधित प्रतिमाएँ भी दिखाई देती है। 
गंधर्व नृत्य गान
भित्ति शिल्प में मुरलीधर, अहिल्या उद्धार, हनुमान द्वारा शिव पूजन, उमा महेश्वर, नृसिंह अवतार, मत्स्यावतार, वराह अवतार, मेघनाद एवं लक्ष्मन का युद्ध, नृत्यांगनाएं एवं बादक, दर्पणधारी अप्सरा मुग्धा को भी स्थान दिया है।
मिथुन शिल्प फ़्णीकेश्वर महादेव
इस मंदिर के निर्माण के पार्श्व में छ: मासी रात वाली किंवदन्ति प्रचलित है। निश्चित तिथि पर मंदिर तैयार हो गया परन्तु कलश चढाने की समयावधि निकलने के कारण कलश नहीं चढ़ पाया और उसे एक गर्भ गृह में ही स्थापित कर दिया गया। 
रामायण के प्रसंग का अंकन
तिरानवे वर्षीय राजा महेन्द्र बहादुर कहते हैं कि उनके नाना के पुर्वज दो ढाई सौ वर्ष पहले जंगल में शिकार करने आए थे। यहाँ आकर उन्होंने झाड़ झंखाड़ के घिरे हुए इस सुंदर मंदिर को देखा तो इस स्थान पर ही बसने का निश्चय कर लिया। उन्होंने अपनी जमीदारी का मुख्यालय फ़िंगेश्वरी को बना लिया और समस्त धार्मिक कर्मकांड इस शिवालय से ही सम्बद्ध हो गए।
मिथुनांकन फ़णीकेश्वर महादेव
फ़णीकेश्वर महादेव पंचकोसी यात्रा में सम्मिलित महादेव हैं, यहाँ मकर संक्राति के समय पंचकोसी यात्रा होती है। मान्यता है कि विष्णु के नाभि पद्म की पांच पंखुड़ियाँ चम्पारण, पटेवा, फ़िंगेश्वर, कोपरा एवं बहम्नेश्वर नामक स्थाक पर गिरी एवं उनसे चम्पेश्वर, पाटेश्वर, फ़णीकेश्वर, कर्पुरेश्वर, एवं बह्मनेश्वर नामक शिवलिंग पांच कोस में प्रकट हुए और तभी से श्रद्धालुओं द्वारा पंचकोसी यात्रा की जाती है। 

फ़णीकेश्वर महादेव नाम से प्रतीत होता है कि इसका निर्माण कलचुरी राजाओं के अधिन फ़णिनागवंशी शासकों ने कराया होगा। परवर्ती काल का होने कारण इसके प्रतिमा शिल्प में सुंदर सुडौलता नहीं होने पर इसका महत्व कम नहीं हो जाता।
ऊमा महेश्वर दरबार
यहाँ शक्ति उपासना का त्यौहार दशहरा उत्सव भी परम्परागत रुप से दो ढाई शताब्दियों से मनाया जाता है। यह पर्व दशमी तिथि को न मनाकर त्रयोदशी को मनाया जाता है। 

इस दिन समस्त मंदिरों में ध्वजारोहण के साथ पूजा पाठ किया जाता है। फ़िर महल से सवारी निकाली जाती है और नगर भ्रमण किया जाता है। इसके पश्चात महल में पान सुपारी (अतिथि स्वागत) की परम्परा का पालन किया जाता है। 
लो भई आखिर में हम भी आ गए
इस शिवालय की भित्तियों में जड़ी मिथुन प्रतिमाएँ किसी अन्य मंदिर से कम नहीं है और यह छत्तीसगढ़ के इतिहास की बहुमूल्य धरोहर है।

सोमवार, 26 सितंबर 2016

खारुन नदी के संग-संग सफ़र: उद्गम से पदयात्रा

कभी आप वनों में उबड़-खाबड़ पथरीले रास्तो के साथ बहती किसी अल्हड़ सी नदी के साथ-साथ चले हैं? नहीं न। फ़िर आज चलते हैं प्राकृतिक सुषमा के बीचे वनों से आच्छादित भूधरा पर प्रवाहित सलिला खारुन नदी के साथ उसके उद्गम के सफ़र पर। 
कंकालिन मंदिर पेटेचुवा
खारुन नदी रायपुर शहर की जीवन रेखा है, जिसका सफ़र बालोद जिले के ग्राम पेटेचुवा से प्रारंभ होकर सोमनाथ में शिवनाथ से मिलन तक का है। नदी का उद्गम ग्राम पेटेचुवा के नायक तालाब से हुआ है। यहाँ इसे कंकालीन नाला कहा जाता है, जो आगे चलकर नदी का रुप धारण कर लेता है।
खारुन उद्गम नायक तालाब
रायपुर से धमतरी होते हुए चारामा घाट से पहले दाँए तरफ़ मरकाटोला ग्राम से पेटेचुआ तक का सफ़र 115 किमी का है। 
नदी के साथ साथ पदयात्रा का आरंभ
इस छोटे से वनग्राम में कंकालीन माता का प्रसिद्ध मंदिर है। खारुन नदी कंकालीन मंदिर  की चौहद्दी से लगकर खैरडिग्गी ग्राम तक का पांच किमी का सफ़र घने वन के बीच से तय करती है। इस पांच किमी का सफ़र विभिन्न पड़ावों से होकर गुजरता है, यह ट्रैकिंग रोमांचित कर जाती है एवं अद्भूत अनुभूति से भर देती है। 
पदयात्रा के साथी, नारायण साहू, बन्नु राम
जब हम नदी के साथ साथ यात्रा प्रारंभ करते हैं तब पहला स्थान भालू खांचा नाम का स्थान मिलता है। इस खांचा में बारहों महीने पानी रहता है, जिसका उपयोग भालू करते हैं। 
खारुन नदी में भालू खांचा
अगले पड़ाव में भकाड़ू डबरी मिलती है, यह छोटा सा तालाब है, जो पानी से लबालब भरा रहता है, इसके नामकरन के पीछे की कहानी रोचक है। मेरे साथी रामकुमार कोमर्रा बताए हैं कि गाँव में भकाड़ू नामक अविवाहित व्यक्ति रहता था। उसकी मृत्यु होने पर उसके रक्शा (कुंवारा प्रेत) बन जाने के डर से ग्रामवासियों ने दाह संस्कार के श्मशान में भूमि नहीं दी। तब वन में तालाब के किनारे उसके दाह संस्कार का निर्णय लिया गया, तब से इस तालाब का नाम भकाड़ू डबरी पड़ गया।
जंगल के मध्य भकाड़ू डबरी
आगे बढने पर नदी के बीच चटान काट कर कोटना जैसी आकृति बनाने के कारण एक स्थान को कुकुर कोटना कहा जाता है, यहाँ कभी शिकारी कुत्ते पानी पीते थे। यहां हमने दोपहर के भोजन में गांव से बनाकर लाई हुई टमाटर की चटनी के अंगाकर रोटी का आनंद लिया। 
दोपहर का भोजन कुकुर कोटना में
अगला पड़ाव अइरी बुड़ान है, जहां मछली भोजन की तलाश में अइरी नामक चिड़ियों का डेरा रहता है। यहां एक स्थान ऐसा भी है जहाँ कि मिट्टी खारी है और उसे चाटने के लिए नीलगाय, चीतल, कोटरी आदि जानवर आते हैं, उनके खुरों के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं। 
अइरी बुड़ान
अगला पड़ाव नाहर डबरी है, गहराई होने के कारण यहाँ नदी का पानी कुछ महीनो ठहर जाता है, जिसका उपयोग वन ग्राम नाहर के लोग करते हैं। यहां जंगल के खोदकर लाए हुए बेचांदी कांदा की प्रोसेसिंग की जाती है।
नाहर डबरी में बेचांदी कंद की प्रोसेसिंग
इस यात्र का महत्वपूर्ण स्थान मासूल है, यहां नदी गहराई में उतर जाती है, ऊपर नीचे रखी बड़ी चट्टानें इमारत होने का भ्रम उत्पन्न करती हैं। यह स्थान इतना रमणीक है कि कुछ पल ठहरने का मन हो जाता है तथा भालूओं से भी भेंट हो सकती है। क्योंकि इनके रहने के लिए यह आदर्श स्थान है। 
नदी का बीहड़ मार्ग
इस स्थान का मासूल नाम धरने के पीछे की कहानी तिहारु राम सोरी बताते हैं, मासूल एक बड़ा और मोटा सर्प होता है, जो एक स्थान पर ही पड़ा रहता, उस पर दीमक चढ़ जाती है, फ़िर भी नहीं हिलता। जो उसके मुंह के सामने आ जाता है उसे खा लेता है। एक बार मछली पकड़ने वालों ने उसे लकड़ी का लट्ठा समझ कर उठा लिया और पानी रोकने के लिए आड़ के रुप में लगा दिया। पानी में मछली देख कर जब उसने हरकत की तब पता चला कि यह मासूल सर्प है, तब से इस स्थान का नाम मासूल प्रचलित हो गया।
मनोरम स्थल मासुल
मासूल के आगे दोरदे नामक स्थान है, यहां से मछलियां नदी में ऊपर नहीं चढती। जंगल यहीं पर समाप्त हो जाता है और आगे खैरडिग्गी नामक गांव का खार लग जाता है। नदी का यह सफ़र आनंददायक है। 
जोहर ले, सफ़र के साथी तिहारु राम सोरी
जब भी यहां कि ट्रेकिंग करें तब ट्रेकिंग शुरु करने से पहले अपना वाहन खैरडिग्गी ग्राम में बुलवा लें, अन्यथा इसी रास्ते पर पुन: लौटना होगा। विशेष ध्यान रखे कि गांव के किसी जानकार व्यक्ति के साथ पर्याप्त भोजन पानी लेकर ट्रेकिंग करें।       

शुक्रवार, 9 सितंबर 2016

प्रकृति का अजूबा जलजली (दलदली) मैनपाट

राजधानी रायपुर से 352 किलोमीटर अम्बिकापुर एवं अम्बिकापुर से 45 किलोमीटर छत्तीसगढ़ का शिमला एवं निर्वासित तिब्बतियों की शरण स्थली मैनपाट स्थित है। 

मैनपाट के ग्राम कमलेश्वरपुर के इर्द गिर्द शरणार्थी तिब्बतियों के कैम्प हैं। यहीं पर पर्यटन विभाग के शैला रिसोर्ट से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर जलजली (दलदली) नदी है। 

इस नदी का लगभग 3 एकड़ का क्षेत्र ऐसा है कि इस पर कूदने से यह हिलता है। इसे जम्पिंग लैंड भी कह सकते हैं। जब इस भूमि पर कोई कूदता है तो यह स्पंज की गेंद जैसी प्रतिक्रिया देती है। यहाँ आने के बाद लोग बच्चों की तरह उछल कूद कर इसे परखते हैं।

मैनपाट
मैनपाट जलजली

जलजली की इस विशेषता से बाहरी दुनिया के लोग अधिक परिचित नहीं है। फ़िर भी कुछ सैलानी प्रतिदिन कुदरत के इस अजूबे को देखने के लिए पहुंचते हैं। 

जब संसार में कहीं पर धरती हिलती है तो हलके से भी कंपन से घबराहट फ़ैल जाती है और इससे भारी क्षति भी होती है। 

यही एकमात्र ऐसा भूचाल है जिसका आनंद लेने के लिए लोग दूर दूर से आते हैं और प्रकृति के इस अजूबे को देख कर दांतों तले अंगुली दबा लेते हैं। 

इस स्थल से थोड़ी दूर झरना भी है लेकिन वन क्षेत्र होने कारण यहाँ तक पहुंचने का मार्ग नहीं बना है।
मैनपाट
मैनपाट जलजली (वेट लैंड)
मेरा मानना है कि यह स्थान देश में धरती बनने की प्रक्रिया का प्रथम उदाहरण है। जब धरती पर जल ही जल था और उसके बाद धीरे-धीरे जल में वनस्पति का जमाव होने लगा और जल दलदल में परिवर्तित होकर ठोस होते गया. 

करोड़ों वर्षों की प्रक्रिया के पश्चात जल ठोस भूमि में परिवर्तित हो गया। यहाँ पर जल से भूमि बनने की यह प्रक्रिया अभी भी चल रही है। सैकड़ों वर्षों के पश्चात यह भूमि भी ठोस हो जाएगी। 
मैनपाट जलजली
मैनपाट जलजली (वेट लैंड)
दलदली की इस भूमि के नीचे नदी बहती है। वनस्पति ने इस भूमि को इतना अधिक जकड़ रखा है कि इसका क्षरण भी नहीं होता और कूदने पर हमेशा यह इसी तरह की प्रतिक्रिया करती है। 

नदी के जल के ऊपर मिट्टी और वनस्पति की लगभग 4-5 मीटर मोटी परत है, इस पर मैने पत्थर से भरी ट्राली लेकर ट्रेक्टर को भी जाते हुए देखा है, यह जमीन इतने वजन के बाद भी फ़टती नहीं है और न ट्रेक्टर के पहिए इसमें धंसते हैं। प्रकृति का यह अजूबा मैने मैनपाट में देखा और कहीं नहीं।

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

मीना बाज़ार का इतिहास एवं वर्तमान

नगर में मीना बाज़ार लगा हुआ है, सांझ होते ही उदय भैया का मन मीना बाजार घूमने का करता है। यहाँ  मनोरंजन के कई साधन जुटाए गए  हैं।

जिसमें कई तरह के झुले, मौत का कुंआ, नाचने वाली सोलह साल की नागिन के साथ खिलौनों, टिकुली फ़ुंदरी की दुकान एवं  खाने के लिए चाट पकौड़ी की दुकाने भी लगी हैं।

कुल मिलाकर बच्चों एवं महिलाओं के मनोरंजन का समस्त साधन जुटाया गया है। वैसे तो वर्तमान में मीना बाजार मेले-ठेलों में दिखाई देते हैं, परन्तु बरसाती खर्चा निकालने के लिए मीना बाजार वाले कस्बों का रुख कर लेते हैं।
मीना बाज़ार

भारत में मीना बाजार रजवाड़ों में लगाए जाते थे, जिसमें सिर्फ़ महिलाओं का प्रवेश ही होता था। रजवाड़ों की महिलाओं की सौंदर्य प्रसाधन एवं अन्य आवश्यकता की वस्तुओं की पूर्ति मीना बाजारों के माध्यम से की जाती थी।

आमेर के किले रनिवास में मीना बाजार लगने का उल्लेख मिलता है, जहाँ रनिवास की महिलाएँ, गहने गुंथे, चूड़ियां, कपड़े इत्यादि की खरीदी करती थी। इसके साथ ही मनोरंजन भी हो जाता था।

मीना बाजार नामकरण के पीछे प्रतीत होता है कि गहनों पर की जाने वाली मीनाकारी के नाम पर ही इसका नाम मीना बाजार पड़ा होगा। 
मीना बाज़ार

इतिहास में पीछे मुड़कर देखें तो अकबर में काल में मीना बाजार बहुत बदनाम हुए। अकबर की काम लालसा ने दिल्ली में मीना बाजार लगवाना प्रारंभ किया, जिसमें सिर्फ़ स्त्रियों का ही प्रवेश होता था और बाजार की चौकीदारी के लिए तातारी महिलाएं नियुक्त कर रखी थी।

बाजार में आने वाली कोई भी महिला उसे पसंद आ जाती तो उठवा लिया करता था। बीकानेर के राव कल्याणमल की पुत्रवधु सिसौदिया वंश की किरण कुंवर से लात खाने के बाद उसने मीना बाजार की नौटंकी बंद की।  
मीना बाज़ार

भोपाल में भी रिसायती दौर में मीना बाजार लगने की जानकारी मिलती है, जहाँ इसे परी बाजार कहा जाता था। ब्रिटेन की महारानी सन् 1909 में जब भोपाल आई तो प्रिंसेस ऑफ वेल्स क्लब की स्थापना हुई।

वर्ष 1916 में बेगम सुल्तानजहाँ ने महिला क्लब के माध्यम से मीना बाजार लगाया। बाजार में महिलाओं द्वारा निर्मित हस्तशिल्प सामग्री बिक्री के लिये रखी जाती थी उस दौर में मीना बाजार को परी-बाजार इसलिये कहा जाता था,

क्योंकि पढ़ी-लिखी बच्चियाँ सुंदर वस्त्र धारण कर परी के रूप में इन मेलों में भाग लेती थीं। पुराने भोपाल में आज भी एक मोहल्ला परी बाजार कहलाता है। 
मीना बाज़ार

इस तरह अन्य स्थानों पर नवाबों द्वारा मीना बाजार लगाने का उल्लेख मिलता है। लखनऊ के कैसर बाग से लेकर पाकिस्तान के लाहौर तक मीना बाजार महिलाओं की आवश्यकता वस्तुओं की पूर्ति करते थे।

राजे रजवाड़े खत्म हो गए, परन्तु आज भी मीना बाजार चल रहे हैं, उनकी वही रौनक है, जो पहले हुआ करती थी। अब मेलों-ठेलों में मीना बाजार दिखाई देते हैं, जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक सफ़र करते रहते हैं। 
मीना बाज़ार

कई स्थानों के हाट अब स्थाई बाजारों में बदल गए, सूरत का चौटा बाजार, रायपुर की टुरी हटरी, बिलासपुर का गोलबाजार इस तरह सभी स्थानों पर स्थाई बाजार हो गए हैं।

भले ही मीना बाजारों के ढांचे में बदलाव आया है परन्तु मीना बाजारों को देखकर लगता है कि इतिहास की एक महत्वपूर्ण परम्परा हमारे बीच जीवित है।

बुधवार, 7 सितंबर 2016

हिंगलाज माता का बलोचिस्तान से छत्तीसगढ़ का सफ़र


सरगुजा भ्रमण के दौरान सुरजपुर जिले के प्रतापपुर के प्राचीन मंदिरों का छायांकन किया। यहाँ राजा के बनवाए हुए कई मंदिर हैं जो सतत पूजित हैं। साथी अजय चतुर्वेदी एक स्थान पर मुझे ले गए जो अम्बिकापुर रोड़ पर एक रिहायशी मकान के पीछे था। 

यहाँ चबूतरे पर गोल पाषाण की एक चट्टान रखी है। इसे उन्होनें "हिंगलाज" माता का स्थान बताया। जिसे देख कर मैं चकित रह गया। चकित होने का कारण भी था। जिस तरह ग्रामीण अंचल में देवगुड़ी होती है और ठाकुर देवता बिना किसी छत के चबूतरे विराजते हैं उसी तरह "हिंगलाज" माई भी यहां विराजमान थी। 

छत्तीसगढ़ में मैने अन्य किसी स्थान पर हिंगलाज माता की विराजित होना नहीं पाया। न हि कहीं उत्खनन में उनकी कोई प्रतिमा प्राप्त होने की जानकारी मुझे है। पूछने पर पता चला कि प्रतापपुर के सभी देवता रक्सेल राजाओं की रियासत के पूर्व से हैं। उस समय यहाँ गोंड़ राजाओं का शासन होता था।
हिंगलाज माता प्रतापपुर सरगुजा छत्तीसगढ़
मेरी जानकारी में हिंगलाज माता के 3 तीन स्थान, पहला पाकिस्तान के बलोचिस्तान में, दूसरा उड़ीसा के तालचर से 14 किमी की दूरी पर और तीसरा वाराणसी की एक गुफा क्रीं कुण्ड में बाबा कीनाराम द्वारा स्थापित हिंगलाज माता की प्रतिमूर्ति है। 

पाकिस्तान के बलोचिस्तान राज्य में हिंगोल नदी के समीप हिंगलाज क्षेत्र में स्थित हिंगलाज माता मंदिर हिन्दू भक्तों की आस्था का प्रमुख केंद्र और प्रधान 51 शक्तिपीठों में से एक है। 

पौराणिक कथानुसार जब भगवान शंकर माता सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर लेकर तांडव नृत्य करने लगे, तो ब्रह्माण्ड को प्रलय से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता के मृत शरीर को 51 भागों में काट दिया. मान्यतानुसार हिंगलाज ही वह जगह है जहां माता का सिर गिरा था. 

यहां माता सती कोटटरी रूप में जबकि भगवान भोलेनाथ भीमलोचन भैरव रूप में प्रतिष्ठित हैं। माता हिंगलाज मंदिर परिसर में श्रीगणेश, कालिका माता की प्रतिमा के अलावा ब्रह्मकुंड और तीरकुंड आदि प्रसिद्ध तीर्थ हैं।
गुफ़ा में बिराजी हिन्गलाज माता बलोचिस्तान पाकिस्तान

वैसे छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में माता सेवा में गाए जाने वाली पारम्परिक सेवा गीतों (जस गीत) में माता हिंगलाज का उल्लेख आता है तथा देवी के मान्य रुपों के साथ हिंगलाज माता की आराधना भी की जाती है। महामाई की आरती में भी हिंगलाज माता का स्मरण किया जाता है। यथा -

गढ़ हिंगलाज में गड़े हिंडोला
लख आये लख जाए
लख आये लख जाए
माता लख आए लख जाए
एक नइ आवय लाल लगुंरवा
जियरा के परान अधार
महामाई ले लो आरती हो माय
गुफ़ा में बिराजी हिन्गलाज माता बलोचिस्तान पाकिस्तान में भक्तगण
सारंगढ बिलासपुर रोड पर भटगाँव के समीप देवसागर में हिंगलाज माता है, सुना है सारंगढ राजा कही से ला रहे थे तो वही विराजमान हो गई।छिन्दवाड़ा जिले में हिंगलाज का भव्य मंदिर है।यह आदि संस्कृति के मातृ पूजा का ही एक रूप है...

मातृ पूजा या शक्ति पूजा भारतीय संस्कृति की मुख्यधाराओं में से एक है और लोक संस्कृतियों में झलक मिलती है...नाम, स्थान और भाषा भिन्न हो सकती है..जैसे छत्तीसगढ़ में हिंगलाज माता को बंजारी, बूढीमाई, माई, महामाई, इत्यादि कहा जाता है। 

यह प्रायः अनगढ़ शिला खंड के रूप में पाई जाती है। सुतियापाठ (सहसपुर लोहारा से करीब 15 km दूर) पहाड़ ऊपर हिंगलाज माई बिराजी हैं यहाँ दुर्गम रास्ता तय करके पहुंचा जा सकता है। इसके समीप गहरी सुरंग हैं और नदी भी प्रवाहित होती है। 

अब किस तरह हिंगलाज माता बलोचिस्तान से छत्तीसगढ़ का सफ़र तय करते हुए लोकगीतों में समाहित हुई और अन्य देवी के साथ आराध्य हुई, यह शोध का विषय है। इसके साथ ही सरगुजा के प्रतापपुर के अलावा अन्य स्थानों पर मिलना भी कम रोचक नहीं है।

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

श्रीपुर की महारानी वासटा की शिलालेखीय आज्ञा


छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध 7वीं शताब्दी ईस्वीं में ईष्टिका निर्मित मंदिर (लक्ष्मण मंदिर) का निर्माण महारानी (राजमाता) वासटा ने करवाया था। मंदिर निर्माण एवं उसकी व्यवस्था को लेकर एक शिलालेख खंडित मंदिर का मलबा साफ़ करते हुए प्राप्त हुआ था। 

महाशिवगुप्त बालार्जुन की माता वासटा मगध के राजा सूर्यवर्मा की पुत्री थी। इस शिलालेख में लिखा है कि अपने वैष्णव पति की स्मृति में राजमाता वासटा ने हरि (विष्णु) मंदिर का निर्माण कराया। 

इस शिलालेख की प्रशस्ति रचना करने वाले का नाम कवि ईशान उल्लेखित है जिसका उपनाम चिंतातुरांक था। इस लेख में 26 पंक्तियाँ और छंदबद्ध 42 श्लोक रचे गए हैं।
प्राचीन राजधानी सिरपुर
सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, जिसका निर्माण महारानी वासटा ने कराया था

मैं विशेष रुप से मंदिर की संचालन व्यवस्था की जानकारी हेतु इसका उल्लेख कर रहा हूँ। प्रशस्ति के उत्तरार्ध में मंदिर के प्रतिपालन एवं प्रबंधन के लिए की गई व्यवस्था का उल्लेख है। 

बताया गया है कि तोडंकण, मधुवेढ, नालीपद्र, कुरुपद्र और वाणपद्र नामक पाँच गांव मंदिर में दिए गए थे। उन गाँव से होने वाली आय को चार भागों में विभाजित किया गया था। 

इसमें से एक-एक भाग मंदिर में आयोजित सत्र (सामूहिक भोजन), मंदिर चालू मरम्मत, और पुजारी के परिवार के पोषण हेतु क्रमश: दिया गया था। 

आय का चौथा हिस्सा बचाकर उसके बराबर पन्द्रह भाग किए गए और 1- त्रिविक्रम, 2-अर्क, 3-विष्णुदेव, 4-महिरदेव, इन चारों ॠग्वेदी ब्राह्मणों, 5- कर्दपोपाध्याय, 6- भास्कर, 7-मधुसूदन तथा 8- वेदगर्भ, इन चार यजुर्वेदी ब्राह्मणों, 9- भास्कर देव, 10- स्थिरोपाध्याय, 11-त्रैलोक्यहंस तथा 12- मोउट्ठ, इन चार सामवेदी ब्राह्मणों तथा 13 - स्वस्तिकवाचक वासवनन्दी, 14 - वामन एवं 15 - श्रीधर नामक भागवत ब्राह्मणों को एक-एक भाग दान दिया गया था। 

यह आय उनके पुत्र-पौत्रों को भी प्राप्त होते रहने की व्यवस्था की गई थी। यदि वे लोग भी छ: अंग युक्त और अग्निहोत्री रहें तथा जुआ, वेश्यागमन आदि के व्यसनी न हों और न ही किसी की चाकरी करें।



यदि कोई इसके विपरीत आचरण करे अथवा कोई निपूता मर जाय तो उसके स्थान पर विद्या और वय से वृद्ध संबंधी को सम्मिलित कर लेने की व्यवस्था कर दी गई थी। किन्तु यह चुनाव उपर्युक्त ब्राह्मणों की सहमति से ही हो सकता था, राजाज्ञा से नहीं। 

ब्राह्मण अपने भाग को न तो किसी को दान में दे सकते थे, न बेच सकते थे और न ही गहन धर सकते थे। इन सबके भोजन की भी व्यवस्था की गई थी और महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रशस्ति के लेखक आर्य गोण्ण के भोजन की व्यवस्था भी की गई थी।

एक अन्य ग्राम वर्गुल्लक भगवान के लिए बलि, चरु, नैवेद्य तथा सत्र के लिए अलग से दिया गया था। इसका प्रबंध पुजारी, मुख्य मुख्य ब्राह्मणों की सलाह से करता था। 

भावी राजाओं से प्रार्थना की गई है कि वे इस स्थिति का पालन करेगें। इसके साथ ही मंदिर का निर्माण करने वाले कारीगर केदार के नाम का उल्लेख है। 

परन्तु कारीगर के जीविकोपार्जन के लिए क्या व्यवस्था की गई है, इसका उल्लेख नहीं मिलता। ईष्टिका निर्मित यह भव्य मंदिर आज भी शान से अटल है और दर्शनीय है।

सोमवार, 5 सितंबर 2016

मांग भरने की प्रथा के प्राचीन प्रमाण

मंदिरों में देवी-देवताओं के अतिरिक्त ग्राम्य जीवन की झांकी भी शिल्पांकित की जाती थी। जिससे पता चलता था कि उस काल का रहन सहन एवं पहनावा किस तरह का है। 

वाण वंश के राजा विक्रमादित्य द्वारा 870-900 ईंस्वीं में निर्मित पाली जिला कोरबा छत्तीसगढ़ के शिवालय में करदर्पण देख कर मांग में सिंदूर भरती विवाहित स्त्री का मनोहर शिल्पांकन किया गया है। 

इससे यह प्रमाण मिलता है कि उस काल में माँग भरने का प्रचलन था। वैसे तो वैदिक काल से विवाहित स्त्रियों को मांग में सिंदूर भरना अनिवार्य था।
पाली का शिवालय और मांग भरती  स्त्री 
दरअसल इसके पीछे स्वास्थ्य से जुड़ा एक बड़ा वैज्ञानिक कारण बताया जाता है। सिर के उस स्थान पर जहां मांग भरी जाने की परंपरा है, मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण ग्रंथी होती है, जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। 

यह अत्यंत संवेदनशील भी होती है। यह मांग के स्थान यानी कपाल के अंत से लेकर सिर के मध्य तक होती है। सिंदूर इसलिए लगाया जाता है क्योंकि इसमें पारा नाम की धातु होती है। 

पारा ब्रह्मरंध्र के लिए औषधि का काम करता है। महिलाओं को तनाव से दूर रखता है और मस्तिष्क हमेशा चैतन्य अवस्था में रखता है। 

विवाह के बाद ही मांग इसलिए भरी जाती है क्योंकि विवाहके बाद जब गृहस्थी का दबाव महिला पर आता है तो उसे तनाव, चिंता और अनिद्रा जैसी बीमारिया आमतौर पर घेर लेती हैं। 

पारा एकमात्र ऐसी धातु है जो तरल रूप में रहती है। यह मष्तिष्क के लिए लाभकारी है, इस कारण सिंदूर मांग में भरा जाता है। 

ज्ञात हो कि 10 वीं 11 वीं शताब्दी में इस शिवालय का जीर्णोद्धार कलचुरी शासक जाज्ल्लदेव ने कराया था।

शनिवार, 3 सितंबर 2016

शिल्पांकन में आलिंगन भेद - वृक्षाधिरूढकम

तीवरदेव विहार सिरपुर छत्तीसगढ़ की द्वार शाखा का शिल्पांकन नयनाभिराम है, इस पर इतने सारे रचना शिल्प अंकित किए गए हैं कि द्वार शाखा के शिल्प का बखान करते हुए ही एक किताब लिखी जा सकती है। जिसमें जातक कथाओं से लेकर पशुमैथुन तक को विषय बनाया गया है। 

शिल्पकार शास्त्र विधान के अनुसार प्रतिमाओं का निर्माण करते थे। शिल्प को देखने के बाद यदि उसे शास्त्रों में ढूंढा जाए तो उसका मूल मिल जाएगा। 

जैसे पहले पटकथा लिखी जाती है और उसके बाद उसका फ़िल्मांकन किया जाता है ठीक वैसे ही शास्त्रों से विषय लिए जाते थे फ़िर उनका शिल्पांकन किया जाता है। 

आलिंगन भेद - वृक्षाधिरूढकम
उपरोक्त मिथुन चित्र में आलिंगनबद्ध चुम्बनरत नर-नारी दिखाई दे रहे हैं। यह आलिंगन भेद का एक प्रकार है। वात्स्यायन ने कुंवारे और विवाहित लोगों के आलिंगन भेद बताए हैं। 

कहते हैं कि (तत्रासमागतयोः प्रीति लिंग द्योतनार्थमालिंगन चतुष्टयम्।स्पृष्टकम्, विद्धकम, उदधृष्टकम, प्रीडितकम्, इति।।) प्रेम को प्रकट करने के लिए स्पृष्टकम, विद्धकम, उदधृष्टकम, प्रीडितकम आदि चार तरह का आलिंगन होता है। 

प्रदर्शित प्रतिमा शिल्प में आचार्य वाभ्रवीय द्वारा बताए गए आलिंगन के एक प्रकार "वृक्षाधिरुढ़कम" का प्रयोग किया गया है। 

इस आलिंगन के प्रकार को विस्तार देते हुए कहते हैं - चरणेन चरणामाक्रम्य द्वितीयेनोरुदेशामाक्रमन्ती वेष्टयन्ती वातत्पृष्ठ सक्तैक बाहुद्विती येनां समवनमयन्ती ईषन्मन्द सीत्कृत कूजिता चुम्बनार्थ मेवाधिरोढुमिच्छेदिति वृक्षाधिरूढकम्।। 

वृक्षाधिरूढकम - जिस तरह से पेड़ पर चढ़ते हैं उसी तरह वृक्षाधिरूढकम आलिंगन में स्त्री अपने एक पैर से पुरुष के पैर को दबाती हैं और अपने दूसरे पैर से पुरुष के दूसरे पैर को पूरी तरह से लपेट लेती हैं। 

इसके साथ ही अपने एक हाथ को पुरुष की पीठ पर रखकर दूसरे हाथ से उसके कंधे तथा गर्दन को नीचे की तरफ झुकाती हैं और फिर धीरे-धीरे से पुरुष को चूमने लगती हैं और उस पर चढ़ने की कोशिश करती हैं। 

इस आलिंगन को वृक्षाधिरूढकम आलिंगन कहा जाता है। इस तरह मंदिरों विहारों की भित्तियों पर अनेक शिल्पांकन प्राप्त होते हैं। काम कला की शिक्षा देने के उद्देश्य से इनका शिल्पांकन प्रमुख स्थान पर किया जाता था

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

आरंग का भांड देऊल जैन मंदिर

छत्तीसगढ अंचल में जैन धर्मावलंबियों का निवास प्राचीन काल से ही रहा है। अनेक स्थानों पर जैन मंदिर एवं उत्खनन में तीर्थंकरों की प्रतिमाएं प्राप्त होती हैं। 

सरगुजा के रामगढ़ की गुफ़ा जोगीमाड़ा के भित्ति चित्रों से लेकर बस्तर तक जैन उपस्थिति दर्ज होती है। चित्र में दिखाया गया मंदिर रायपुर सम्बलपुर मार्ग पर 37 वें किमी पर रायपुर जिला स्थित आरंग तहसील का 11 वीं सदी निर्मित "भांड देऊल" मंदिर का है। 
भांड देऊल मंदिर आरंग
भांड देवल मंदिर आरंग
ऊंची जगती पर बना पश्चिमाभिमुखी भाण्ड देवल" इस श्रृंखला में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ताराकृत शैली में बने इस जैन मंदिर के गर्भगृह में 6 फ़ुट ऊंची पीठिका पर श्रेयांशनाथ, शांतिनाथ एवं अनंतनाथ तीर्थकंरों की ओपदार पालिश युक्त काले पत्थर से निर्मित तीन प्रतिमाएं स्थापित हैं। मंदिर की बाहरी भित्तियों पर अनेक प्रतिमाएं स्थापित हैं, जिनमें मिथुन मुर्तियों को प्रमुखता से स्थान दिया गया है।
तीर्थंकर जैन
जैन तीर्थंकर श्रेयांशनाथ, शांतिनाथ एवं अनंतनाथ
आरंग जैन धर्म का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है। भांड देउल के अतिरिक्त सभी मंदिरों शैव, वैष्णव धर्म के देवों के साथ-साथ जैन तीर्थकंरों की प्रतिमाएं भी विद्यमान हैं। चण्डी मंदिर में 6 जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं भी हैं। हनुमान मंदिर की बाह्य भित्तियों पर सोमवंश कालीन ब्राह्मण प्रतिमाओं के साथ कायोत्सर्ग मुद्रा में एक जैन तीर्थंकर भी हैं। 

आरंग में पारदर्शी स्फ़टिक प्रस्तर की तीन पद्मासन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं चांदी के सिंहासन पर स्थापित प्राप्त हुई हैं जो रायपुर के दिगम्बर जैन मंदिर में स्थापित हैं। उन्हें देखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ है। इन प्रतिमाओं का निर्माण कुशल शिल्पी के द्वारा हुआ प्रतीत होता है।
भांड देऊल मंदिर आरंग की मिथुन मूर्तियां
मिथुनांकन
आरंग प्राचीन काल से महत्वपूर्ण नगर रहा है और वर्तमान में भी ऐतिहासिक एवं पुरातत्वीय दृष्टि से महत्वपूर्ण बना हुआ है। क्योंकि यहां से कई उत्कीर्ण लेख प्राप्त हुए हैं जिनमें चौथी शताब्दी का ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण राजर्षितुल्य कुल के भीमसेन द्वितीय का गुप्त संवत 182 (501ई) ताम्रपत्र है तथा शरभपुरिया वंश के जयराज द्वारा अपने शासन काल में जारी ताम्रपत्र इसकी प्राचीनता की पुष्टि करता है। 

किंवदन्तियों में इसे मोरध्वज की नगरी भी कहा जाता है। लोकगीतों में गाये जाने वाली प्रेम कहानी "लोरिक चंदा" का गृह भी आरंग को माना जाता है। जबकि यह प्रेम कहानी प्रदेश की सीमाओं से बाहर अन्य प्रदेशों में गाई जाती है। इस तरह प्राचीन काल में आरंग एक महत्वपूर्ण नगर एवं राजर्षितुल्य कुल की राजधानी रहा है

गुरुवार, 1 सितंबर 2016

उदयगिरि की प्राचीन गुफ़ाएँ

विश्व हिन्दी सम्मेलन के बाद 13 सितम्बर 2015 को सांची होते हुए उदयगिरि जाना हुआ। उदयगिरि विदिशा से वैसनगर होते हुए भी पहुँचा जा सकता है। नदी से यह गिरि लगभग 1 मील की दूरी पर है। पहाड़ी के पूरब की तरफ पत्थरों को काटकर गुफाएँ बनाई गई हैं। इन गुफाओं में प्रस्तर- मूर्तियों के प्रमाण मिलते हैं, जो भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है। 
उदयगिरि में ललित शर्मा
गुफ़ा नम्बर 5 वराह अवतार
उत्खनन से प्राप्त ध्वंसावशेष अपनी अलग कहानी कहते हैं।उदयगिरि को पहले नीचैगिरि के नाम से जाना जाता था। कालिदास ने भी इसे इसी नाम से संबोधित किया है। १० वीं शताब्दी में जब विदिशा धार के परमारों के हाथ में आ गया, तो राजा भोज के पौत्र उदयादित्य ने अपने नाम से इस स्थान का नाम उदयगिरि रख दिया।
उदयगिरि
गुफ़ा नम्बर 4
गुफा संख्या - 5 वाराह गुफा के नाम से जाना जाता है तथा उदयगिरि की समस्त गुफाओं में सर्वश्रेष्ठ है। इसे पांचवी छठी शताब्दी की माना जाता है। वास्तव में यह पहाड़ी को काटकर एक दालान के रुप में बनाई गई है, जो २२ फीट लंबी तथा १२ फीट ८ इंच ऊँची एवं ३ फीट ४ इंच पत्थर में भीतर की ओर गहरी है।
उदयगिरि वराह अवतार
वराह अवतार

यहाँ पत्थर को काटकर बनाई गई वाराह अवतार की मूर्ति पूरे भारत में सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में से एक मानी जाती है। मूर्ति का मुख भाग वाराह के रुप में है तथा शेष हिस्सा मानवाकृति का है। बलिष्ठ भुजाएँ, मांसल जंघाओं तथा सुडौल बनावट ने मूर्ति को बल, शौर्य तथा सुंदरता का प्रतीक बना दिया है। मूर्ति पीतांबर पहने हुए है तथा साथ- साथ कंठहार, वैजयंतीमाला तथा कंगन भी उत्कीर्ण किये गये हैं।
उदयगिरि जैन मंदिर
उदयगिरि 
बांये पैर को मुकुट पहने किसी विशेष व्यक्ति के हृदय पर रखा हुआ दिखलाया गया है, जिसके मस्तक के ऊपर विशाल १३ फणों वाला नाग स्थित है। वह वाराह की स्तुति करने की मुद्रा में है। इस विशेष व्यक्ति की पहचान के संबंध में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्धान इसे राजा बताते हैं, तो कुछ देवता या विष्णु की मूर्ति। मुझे यह शेषनाग की प्रतिमा लगी क्योंकि कुंडली मारे शेषनाग पर वराह ने अपने चरण स्थिर कर रखे हैं। 
उदयगिरि शेष शैया पर विष्णु
शेष शैया पर विष्णु
पुराणों के अनुसार वाराह भगवान ने हिरण्याक्ष राक्षस से पृथ्वी का उद्धार किया था। अतः कुछ विद्वान इसे हिरण्याक्ष की मूर्ति मानते हैं। परंतु मूर्ति का मुख असुर सदृश नहीं दिखलाया गया है। मूर्ति के ऊपर नाग फणों का घेरा होने के कारण लोग इसे पाताल का स्वामी भी मानते हैं या फिर समुद्रराज। वाराह के बायीं ओर स्तुति करती हुई दिखाई गई रानी, संभवतः नीची की मूर्ति की राजमहिषी हो सकती हे।
उदयगिरि राजनिवास
राज निवास के भग्नावशेष
वाराह के कंधे पर नारी रुपी पृथ्वी को दिखलाया गया है। पृथ्वी के दोनों पैर नीचे लटके हुए दिखाए गये हैं। अंग- प्रत्यंग में करुणा भाव दिखलाया गया है। चोली में स्थित पुष्ट पयोधर पृथ्वी की पोषणात्मक शक्ति के प्रतीक हैं। नीचे स्थित लेटे अवस्था में दिख रही मूर्ति के पीछे स्थित कलश लिए देवता वरुण का प्रतीक प्रतीत होता है। साथ में दिखाई दे रही दो जल- धाराएँ गंगा तथा यमुना की प्रतीक हैं, जो स्वर्ग से नीचे की तरफ अवतरण करती हुई दिखाई गई हैं। 
उदयगिरि का प्रस्तर स्तंभ
भग्न प्रस्तर स्तंभ
गंगा तथा यमुना को अपने- अपने वाहन मकर तथा कच्छप पर दिखलाया गया है। ऊपर अप्सराएँ दिखाई गई हैं तथा बाई ओर पाँच पंक्तियों में यक्ष, किन्नर, गंर्धव व मरुत गणों को स्तुति- गान करते हुए दर्शाया गया है। ऊपरी पंक्ति में दिख रहे गंधर्व के हाथों में स्थित वायलिन जैसा वाद्य यंत्र इस बात के साक्ष्य हैं कि ऐसे यंत्र की उत्पति भारत में ही हुई होगी। दांयी ओर यक्ष व महर्षिगण चार पंक्तियों में दर्शाये गये हैं। ब्रह्मा तथा नंदी वाहन समेत शिव को सबसे ऊपरी पंक्ति में दर्शाया गया है।
उदयगिरि शिकारगाह
ग्वालियर स्टेट द्वारा निर्मित शिकारगाह
उदयगिरि की पहाड़ी पर शंख लिपि के बहुत सारे लेख हैं। इसके साथ ही एक गुफ़ा में प्रस्तर निर्मित किरिट धारित शेष शैया पर विष्णु को शयन करते हुए दिखाया गया है। आगे चलने पर पहाड़ी पर एक विशाल भवन के भग्नावशेष हैं, जिसके समक्ष विशाल प्रस्तर स्तंभ भग्न पड़ा है। इससे आगे बढने पर ग्वालियर स्टेट द्वारा निर्मित शिकार गाह भी है, जो अभी सलामत है।