कहावत है कि अस्पताल, थाना, कचहरी व्यक्ति अपनी खुशी से नहीं जाता। मजबूरी में ही जाना पड़ता है। व्यक्ति को जीवन में चिकित्सकों से पाला पड़ता ही है, शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा मिले जिसे डॉक्टर के पास न जाना पड़ा हो,चिकित्सा को विश्वास का पेशा माना गया है और चिकित्सक को भगवान। मरीज अपने प्राण चिकित्सक के हाथ में सहर्ष सौंप देता है। समाज में यह पेशा प्रतिष्ठा का माना जाता है, अगर हम किसी भी व्यक्ति से पूछे तो सबसे पहले वह अपने बच्चे को डॉक्टर बनाना चाहता है। उसके पश्चात अन्य पेशे के विषय में सोचता है। पहले और वर्तमान के चिकित्सकों की कार्य प्रणाली में अत्यधिक बदलाव देखा जा रहा है।
पहले डॉक्टरी के पेशे को सेवा भाव के से किया जाता था, डॉक्टरों का कार्य मरीज की सेवा सुश्रुषा करके स्वास्थ्य प्रदान करना था। वर्तमान में चिकित्सा का पेशा व्यावसायिकता की पराकाष्ठा पर पहुंच चुका हैं। इनकी कारगुजारियाँ और स्थिति यह है कि अब मरीज मजबूरी में ही इनके पास जाना चाहता है तथा एक बार किसी नर्सिंग होम या अस्पताल में भर्ती हुए तो समझ लो सारा बैंक बैलेंस खत्म। ॠण लेकर ही इनकी जेब भरनी पड़ेगी। ऐसा नहीं है कि मैं सभी चिकित्सक समाज को एक तुला पर ही तौल रहा हूँ, कुछ डॉक्टर ऐसे भी हैं जो पूर्वजों से मिले उत्तम संस्कार के द्वारा मानवीय मूल्यों को समझ कर पेशे की पवित्रता कायम रखे हुए हैं।
एक डॉक्टर मित्र से इस विषय पर चर्चा हो रही थी, तो उन्होने कहा कि अब डॉक्टर "माल प्रैक्टिस" पर उतर आए हैं। इनसे ही मुझे प्रैक्टिस के नए तरीके के विषय में पता चला। साथ ही "माल प्रैक्टिस" क्या होती है, इस विषय में भी। मानवता को दरकिनार कर लूटने में लगे हुए हैं। एक मित्र ने बताया कि उनकी पत्नी को बच्चा होने वाला था, नर्सिंग होम लेकर गए, वहाँ डॉक्टर ने सभी पैथालाजिकल, सोनोग्राफ़ी एवं अन्य टेस्ट कराए। उसके पश्चात पेशेंट को अकेले में समझाया गया की पेट में बच्चे ने गंदा पानी पी लिया है और पॉटी कर सकता है, जिससे जच्चा और बच्चा दोनों की जान को खतरा है। इसलिए सिजेरियन आपरेशन तुरंत करना पड़ेगा। 20,000 रुपए जमा करवा दीजिए। मित्र ने रुपए जमा कराए और ऑपरेशन के फ़ार्म पर हस्ताक्षर कर दिए। थोड़ी देर बाद बिना ऑपरेशन के ही उनकी पत्नी ने बच्चे को जन्म दे दिया। जच्चा-बच्चा दोनो स्वस्थ्य थे। ईश्वर ने डॉक्टर के षड़यंत्र को विफ़ल कर दिया।
वर्तमान में अतिरिक्त कमाई के लालच में 90% जच्चाओं के सिजेरियन ऑपरेशन कर दिए जाते हैं,"माल प्रैक्टिस" जोरों पर है। बच्चे के जन्म लेने के तीसरे-चौथे दिन उसकी त्वचा हल्की पीली दिखाई देती है। तब उसे तुरंत पीलिया बता कर नीले प्रकाश में रख दिया है। जहाँ 1000 रुपए से लेकर 2000 रुपए तक प्रतिदिन का चार्ज वसूला जाता है। जच्चा और बच्चा दोनो से "माल पैक्टिस" चालु है। "माल प्रैक्टिस" करने वाले डॉक्टरों ने चिकित्सा जैसे पावन पेशे को बदनाम कर दिया। अस्पताल जाने के नाम पर जेब और रुह दोनो काँप जाती है। प्राण बचे न बचे पर अस्पताल का चार्ज ले ही लिया जाता है। किडनी एवं शरीर के अन्य अंग चोरी से निकालने के समाचार मिलते ही रहते हैं।
सिजेरियन ऑपरेशन के बाद अब महिलाओं की बच्चे दानी निकालने का काम जोरों पर चल रहा है। किसी महिला को कमर के नीचे थोड़ा सा भी दर्द हुआ तो समझ लो बच्चे दानी निकलवाने की सलाह डॉक्टर तुरंत दे देते हैं। 25-30 साल की महिलाओं की बच्चे दानी बेधड़क निकाली जा रही है। भले ही फ़िर उस महिला को जीवन भर भुगतना पड़े। गर्भाशय निकालने के इस दुष्कृत्य में ग्रामीण स्वास्थ्य रक्षकों के रुप में तैनात "मितानिन" मुख्य तौर पर सम्मिलित हैं। निजी नर्सिंग होम संचालकों ने इन्हे मोबाईल बांट रखे हैं, साथ ही गर्भाशय आपरेशन के प्रत्येक मरीज पर 1000 से 2000 रुपए का का कमीशन तय है। कुछ दिनों पूर्व समाचार था कि मृत शरीर को वेंटिलेटर पर रख कर हजारों रुपए वसूल लिए गए। डॉक्टर का कहना था कि मशीनों का चार्ज तो लेना ही पड़ेगा। मरीज चाहे बचे या न बचे। इस पेशे से संवेदनाएं समाप्त होती जा रही हैं। गरीब आदमी का तो मरण ही है। सरकार ने चिकित्सा बीमा योजना शुरु की है इसमें भी ये घोटाला करने से बाज नहीं आ रहे। मरीज के चिकित्सा बीमा की राशि को ध्यान में रख कर बिल बनाया जाता है। एक ही झटके में उसका सारा बीमा बैलेंस खाली कर दिया जाता है।
सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए तथा नागरिकों को भी जागरुक होने की आवश्यकता है। अगर मरीज को उपभोक्ता के तौर पर देखा जा रहा है तो इन डॉक्टरों से दुकानदार जैसा ही व्यवहार होना चाहिए तथा सजा निश्चित की जानी चाहिए। चिकित्सकीय लापरवाही से हुई मौत पर हत्या का अपराध दर्ज होना चाहिए। लापरवाही के कारण कभी किसी के पेट में कैंची, गॉज बैंडेज या तौलिया छोड़ने जैसी घटनाओं पर रोक लगेगी। इनकी लापरवाही की सजा तो मरीज को ही भुगतनी पड़ती है।