शनिवार, 26 नवंबर 2011

तेरे बाप का राज है क्या? -- ललित शर्मा

आराम के मोड में
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टो वाले भी मुफ़्त का फ़ायदा उठाना चाहते थे। मेरे साथ हृदयलाल गिलहरे, पंकज नामदेव, चौरसिया जी, बीएस ठाकुर गुरुजी और उनके साथ 3 महिलाएं थी। ॠषिकेश जाने के 1500 रुपए देना मुझे बहुत अखर रहा था। लेकिन साथियों की जिद के आगे झुकना पड़ा। ॠषिकेश पहुंच कर ऑटोवाले ने युनियन में मुझसे 1500 रुपए जमा कराने को कहा और जब पर्ची काटने के 10रुपए और मांगे तो खोपड़ी घुम गयी। मैने जोर से गरिया दिया उसे। तो ड्राईवर ने पर्ची के 10रुपए अपनी जेब से दिए। पर्ची लेकर उसने हमें लक्ष्मण झूला मार्ग पर छोड़ दिया और 6 बजे बस स्टैंड पर मिलने कहा। हरिद्वार और ॠषिकेश में 500 का नोट तुड़वाना भी एक समस्या ही है। कोई भी छुट्टे देने को तैयार नहीं। हम सबके पास बड़े नोट ही थे। एक जगह पानी की दो बोतल लेने के बाद भी छुट्टे नहीं मिले। हम पानी की बोतल ले रहे थे तभी एक गाईड आ गया। बोला की 40 रुपए लूंगा और सारी जगह दिखाऊंगा। हमने उसे साथ रख लिया।

पंकज, चौरसिया जी, गुरुजी, बी एस ठाकुर
।वह सबसे पहले एक मंदिर में ले गया। कोई नया मंदिर ही था, उसके विषय में बताने लगा। फ़िर एक जेम्स की दुकान में ले जाकर घुसा दिया। दुकान का नाम Uttrakhand Handicraft Gems Centre था और साईन बोर्ड से लग रहा था कि उत्तराखंड सरकार के हैंडीक्राफ़्ट विभाग का शो रुम है। लेकिन हकीकत में ऐसा था नहीं। उसने लिख रखा था Directorate fo industries Govt. of Uttrakhanad) मैने उससे कई बार कहा कि - आप तो ऐसा लिख रहे हैं जैसे यह उत्तराखंड सरकार का ही शो रुम हैं। तो उसने अपना नाम आर सी चतुर्वेदी बताया और इस शो रुम को उत्तराखंड सरकार का ही बताया। मैने उसका विजिटिंग कार्ड ले लिया। वह हमें पत्थर दिखाने लगा। स्फ़टिक के कई सैम्पल दिखाए। तब तक मैने उसकी दुकान में मोबाईल चार्ज किया। थोड़ा बहुत चार्ज हो जाए तो बात हो जाए लोगों से। 15मिनट तक हम उसका सामान देखते रहे। फ़िर आगे बढ लिए।

लक्ष्मण झूला
ठाकुर गुरुजी को आगे चलने की आदत है। वे सपाटे से चलते हैं, पीछे मुड़ कर भी नहीं देखते। उनकी बहन पत्नी और सास पीछे छूट गयी। मुझे बार बार कह रही थी कि वे दिख नहीं रहे हैं। मैने उन्हे कहा कि लक्ष्मण झूले के पास मिल जाएगें। आप चिंता न करें। जब हम लक्ष्मण झूले के पास पहुंचे तो वे वहीं खड़े मिले। मेले मे लोग इसी तरह छूटा करते थे। लक्ष्मण झूला पर हमने फ़ोटो खींचे। फ़ोन चालु होते ही सबसे पहले संगीता पुरी जी का फ़ोन आया। उन्होने हाल चाल पता किया, फ़िर संध्या शर्मा जी का मैसेज मिला। अभनपुर एवं रायपुर से मित्रों के फ़ोन आने शुरु हो गए। 10 मिनट तक चलने के बाद फ़ोन फ़िर बंद हो गया। मतलब जै राम जी, अब किसी से समपर्क नहीं हो सकेगा। लक्ष्मण झूले से मछलियों को आटे की गोलियाँ खिलाई। पुल पर दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ थी।

सड़कों पर बसंत उतर आया
हमने शाम को डूबते हुए सूरज और उगते हुए चाँद के चित्र लिए। बाजार से चलते हुए चोटी वाले के होटल में पहुंचे। ये चोटीवाले होटल ॠषिकेश की पहचान बन गए हैं। होटल के सामने घंटी लेकर बैठे हुए ये चोटी वाले ग्राहकों को आकर्षित करते हैं। मार्केटिंग का यह फ़ंडा अच्छा है। ऊंची कुर्सी पर बैठे ये चोटी वाले होटल के सामने भीड़ भी नहीं लगने देते। यहाँ से हम दुसरे झूले याने राम झूला पर पहुंचते हैं। पिछली बार जब आया था मैने यहां एक दुकान से एक किलो आटा लेकर गोलियाँ बनाकर मछलियों को खिलाई थी। बड़ी बड़ी मछलियाँ आकर आटे की गोलियाँ खाती हैं। मछलियों को आटे की गोली खिलाने से उग्र ग्रह शांत होते हैं। ऐसा कहा जाता है, कई ज्योतिषि यह टोटका करने कहते हैं। ग्रह शांत हो न हो पर मन की शांति तो हो जाती है। 

राम झूला पर चढने से पहले वहां पर चबुतरे बने हैं। पैदल चल कर थक लिए थे इसलिए वहीं बैठकर विश्राम करने लगे। मै चबुतरे पर बैठा तो पंकज फ़ोटो लेने लगा। मैने बगल में मुड़ कर देखा तो एक जाना पहचाना चेहरा सामने आ गया। ये थे पेंड्रारोड़ के रामनिवास तिवारी जी, अपनी डुकरिया के साथ तीरथ करने आए थे। मैने उन्हे देखा और उन्होने मुझे देखा। बोले शर्मा जी, हमने कहा- हाँ तिवारी जी, कैसे हैं? गजब मुलाकात हुई भाई। फ़िर क्या था तिवारी सुनाने लगे, वे किसान कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। पेंड्रारोड़ का बच्चा बच्चा उन्हे जानता है। पिछले इलेक्शन में हम भी उनके यहाँ के पहुंचे थे। पान चबाते हुए गले में चुंदड़ी स्टाईल का पटका डाले मिले। गजब कहानी है भाई। धन्य हो गए तिवारी जी से मिल कर। जब मै फ़ोटो लेने लगा तो पता चला कि वे पंकज के पापा के भी परिचित निकले।

पंकज सिह 
रामझूला पर चढे तो वह हिल रहा था, गुजरात की कुछ महिलाएं डरते हुए उस पर चल रही हैं। नदी पर केबल के सहारे बना हुआ यह पुल कारीगरी की अद्भुत मिशाल है। मोटर सायकिल और स्कूटर वाले भी इसी पुल से जा रहे थे और पुल लगातार हिल रहा था। डर भी लगता है कि कहीं गिर न जाए। लेकिन जब इतने बरसों से नहीं गिरा तो हमारे चलने से क्या गिरेगा। हमारे आगे गिलहरे गुरुजी और चौरसिया जी थे। हम पीछे पीछे चल रहे थे फ़ोटो लेते हुए। पुल पार करके हम धीरे धीरे बाजार की तरफ़ हो लिए, आगे बस अड्डा था। वहीं पर हमें ऑटो वाला मिल गया। बलदाऊ गुरुजी भी वहीं इंतजार करते मिले परिवार के साथ। लेकिन गिलहरे गुरुजी और चौरसिया जी नहीं आए थे। ऑटो वाला जल्दी चलने के लिए हाय तौबा मचाने लगा। मैं इन्हे ढूंढ रहा था। मोबाईल की बैटरी खत्म थी इसलिए इन्हे ढूंढने में समस्या हो रही थी। पैदल चलने की इच्छा न होने पर भी इन्हे ढूंढा। कहीं नहीं मिले, जमीन खा गयी कि आसमां निगल गया।

प्यास बुझाएं - मेरी फ़ोटोग्राफ़ी
ऑटो वाला कह रहा था कि गुरु जी नहीं मिले तो उन्हे छोड़ कर चले जाएगें। अरे कैसे छोड़ कर चले जाएगें, तेरे बाप का राज है क्या? तुझे अधिक जल्दी है तो जाकर ढूंढ कर ला। अभी 6 नहीं बजे हैं और हमारे पास 6 बजे तक का समय है। हम उन्हे ढूंढते-ढूंढते थक हार कर बैठ गए। जब वे आएगें तभी चलेगें। मैं समझ तो गया था कि वे गलत रास्ते चले गए पुल से। दांए मुड़ने की बजाए बांए चले गए, जैसे नीरज जाट एवं जाट देवता में दांए बांए का लफ़ड़ा हो जाता है वैसा ही इनके बीच भी हुआ होगा। आखिर में हमने तय किया कि 10 मिनट में ये लोग नहीं आते हैं तो इन्हे छोड़कर ही चले जाएगें। ऐसा विचार बनाते ही ये दोनो सामने नजर आए और वही हुआ कि ये पुल से बांए तरफ़ चल गए थे। इसलिए रास्ता भूल गए थे। लेकिन वह जगह भूलने वाली नहीं है। ऑटो वाले ने युनियन में आकर पर्ची देकर 1500 रुपए लिए और अपनी जेब में रख लिए। मैने सोचा कि चलो हरिद्वार जाकर देने हैं उसने पैसे अभी रख लिए तो कोई बात नहीं।

पानी वाले बाबा- आधा सच
अब हरिद्वार हम मेन रोड़ से जा रहे थे। राजाजी पार्क वाला रास्ता रात में बंद कर दिया जाता है। जंगली जानवरों के हमला होने और बियाबान में लूटपाट का खतरा है। रास्ते में श्यामपुर की पुलिस चौकी के पास दो तीन लड़के मिले, उन्होने ऑटो वाले को रोक लिया और उनमें आपस में कुछ बातें होने लगी। मेरा ध्यान उनके तरफ़ ही था पता चला कि ऑटो ड्रायवर का नहीं था और वह किसी से किराए पर चलाने के लिए लाया था। जिसकी मियाद 6 बजे तक थी। अब ऑटो मालिक अपना ऑटो वापस मांग रहा था और कह रहा था कि सवारी जाए भाड़ में, मुझे अभी ऑटो चाहिए। तुम जानो और सवारी जाने। ऑटो ड्रायवर ने हमें पहुंचाने के लिए दुसरे ऑटो वाले से बात की। वह 400 मांग रहा था हमें छोड़ के आने के। यह 400 देने को तैयार नहीं था। इस तरह उसने सड़क पर ही 20 मिनट लगा दिए। मुझसे कहने लगा कि हरिद्वार रोड़ पुलिस ने बंद कर रखा है आपको किसी और साधन से जाना पड़ेगा। मैं आगे नहीं ले सकता। गाड़ी ही नहीं जा रही है।

विचार क्रांति अभियान की मशाल
आधे रास्ते में गाड़ी रोक कर साले तमाशा करने लगे। बस फ़िर अपन ने अपना फ़ार्मुला नम्बर 45 इस्तेमाल किया। उस ऑटो मालिक को कोने में ले जाकर मंत्र दिया। उस पर मंत्र का असर बिच्छु के डंक मारने जैसा हुआ। जो अभी तक ऑटो मांग रहा था वह उस ड्रायवर से बोला- साले सवारी देख कर बैठाए करो, खुद भी मरोगे और हमें भी मरवाओगे। चलो अब जैसे भी होगा इन्हे गौरीशंकर 1 तक पहुंचा कर आना है। अब इन्होने यहीं से हिसाब लगाना शुरु कर दिया कि रास्ता बंद होने पर किधर से गौरीशंकर तक पहुंचा जाएगा। पहले हमें हर की पौड़ी तक छोड़ने की बातें करने लगे। वहां से हरिशंकर लगभग 5 किलो मीटर है। मैने कहा कि - एक बार तो तुम्हे समझा दिया, फ़िर मत कहना कि जादू नहीं दिखाया। जब जादू देख लोगे तो भालू के बालों वाला ताबीज भी लेना पड़ेगा। जब ताबीज ले लिया तो गले में डालना पड़ेगा। बहुत दुखदायी होगा तुम्हारे लिए।

हरिद्वार में गंगा जी का पुल - मुसीबत की जड़
इधर उधर से घुमाते हुए वे हमें पुल के नीचे ले आए जहाँ से हमें बैठाया था। मैने कहा कि पर्ची में गौरीशंकर लिखा है देख ले। हमें वहाँ तक छोड़ना पड़ेगा। वह अड़ गया कि गौरीशंकर तक नहीं जाऊंगा। मैने कहा कि बहुत देर से तुझे बरज रहा था। अब तेरे क्रियाकर्म का समय आ गया है। जब नहीं ही मानेगा तो फ़ार्मुला नम्बर 36 लगाना पड़ेगा और फ़िर तू दो चार दिन किसी काबिल नहीं रहेगा। सोच ले अब, वैसे भी बिना गौरी शंकर जाए हम ऑटो से नहीं उतरने वाले। साले तुझे हराम का माल चाहिए, मुफ़्त में 1500 सौ रुपए नहीं दिए हैं। जात भी देगा और जगात भी देगा। फ़िर वह हमें गौरीशंकर 1 तक छोड़ने के लिए चल पड़ा। ठंड बढ चुकी थी, लाउडस्पीकर पर प्रसारण हो रहा था कि- शांतिकूंज हरिद्वार द्वारा बाकी कार्यक्रम स्थगित कर दिए गए हैं, कल सिर्फ़ पूर्णाहूति होगी, जो परिजन अपने वाहनों से आए हैं वे वापस चले जाएं। ट्रेन आदि से आए हुए परिजन अपने टेंटों में रहे। भोजन की व्यवस्था यथावत चलती रहेगी तथा स्नान करने के लिए गंगा के किनारे न जाएं। जिससे भीड़ बढ जाए, खास कर हर की पौड़ी की तरफ़ जाने की मनाही है। भोजन करने के पश्चात योग निद्रा में पहुंच गए। जारी है --
(फ़ोटो - पंकज सिंह के सौजन्य से)

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

बसंती तागें वाली और हरिद्वार--- ललित शर्मा

तांगे की सवारी - बी एस ठाकुर एवं गिलहरे के साथ
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संती तांगे वाली हमें पुल पर छोड़कर फ़रार हो गयी, पुल पर बहुत भीड़ थी बड़ी मुस्किल से नीचे उतरने के बाद हमने गौरीशंकर 1 का पता पूछा तो पता चला कि पुल के आखरी छोर से रास्ता बना है। मेरे पास वी आई पी पास था, वीआईपी व्यवस्था यज्ञशाला के पास ही की गयी थी। लेकिन वहाँ वीआईपी बनकर अकेले रहने की बजाय साथियों के दल में रहना ही उपयुक्त लगा। हम अपना सामान लाद कर गौरीशंकर 1 के लिए चल पड़े। सीढियों के पास से लगभग 3 किलोमीटर पैदल जाना पड़ा। रास्ते में एक जगह पुल पर लगी लोहे की सीढी से लोग उपर चढ रहे थे। यह बहुत ही खतरनाक कार्य था। महिलाएं भी सीढी पर उपर चढ रही थी। लोग पैदल चलने से बचने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे थे और लगभग आधा किलोमीटर लाईन में लग कर अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। अगर पैदल चलते तो पहुंच जाते। इस सीढी से भी दुर्घटना हो सकती थी। मैने एक फ़ोटो ली और आगे बढ गया।

बसाहट का नक्शा
गौरी शंकर 1 के रिसेप्शन पर लोग आमद देकर अपना टेंट नम्बर ले रहे थे। हमें टेंट नम्बर छत्तीसगढ 220 मिला। यह लगभग 100 लोगों के रहने के लिए मुफ़ीद था। यहाँ से गंगा का किनारा भी समीप होने से रोज गंगा स्नान हो सकता था। सभी को प्रिंटेट परिचय पत्र दिए गए। तीन माह पहले से सभी शक्तिपीठों से आने वाले परिजनों की लिस्ट मंगा ली गयी थी और सभी के परिचय पत्र यहां बन कर तैयार थे। इतने बड़े आयोजन की सुरक्षा की दृष्टि से यह सही कदम था। टेंट के कई शहर बसाए गए थे। जिनमें छत्तीसगढ से आने वालों की संख्या अधिक थी। हमारे सीताराम गुरुजी दो महीने पहले से ही समय दान के लिए पहुंच गए थे। उनकी ड्युटी पंत द्वीप में थी और उन्होने मिलने की इच्छा भी जाहिर की थी। यहाँ कहीं भी जाने के लिए पैदल ही जाना पड़ेगा, यह मैं जानता था। कोई सवारी और साधन उपलब्ध नहीं था।

अपना सामान लेकर टेंट की ओर जाते सहयात्री
गायत्री परिवार के इस आयोजन की तैयारी तीन साल पहले से हो रही थी। कुंभ से भी विशाल आयोजन और इंतजाम था। जिसमें प्रशासन की कहीं पर भी भागीदारी नहीं थी। समय दानी वालिएन्टर्स अपना योगदान दे रहे थे। मुस्तैदी से अपनी ड्युटी पर लगे थे। जिस दिन हम पहुंचे बताते हैं कि उस दिन लगभग 50 लाख गायत्री परिजन हरिद्वार पहुंच चुके थे। उनके रहने, खाने एवं निस्तारी की उत्तम व्यवस्था थी। कुंभ में अरबों रुपए खर्च करके भी शासन इतनी सुंदर व्यवस्था नहीं कर पाता। जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को उसका परिचय पत्र बना हुआ तैयार मिल रहा था और रहने के लिए तुरंत छोलदारियों का आबंटन कर दिया गया। खानी की व्यवस्था सुबह से प्रारंभ हो जाती थी। लोग स्वयं जाकर भोजनालय में अपनी सेवाएं दे रहे थे। सेवा भाव से भोजन करवा रहे थे। भोजन के लिए अनुशासित कतारबद्ध लोग खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। हम अपने टेंट की ओर चल पड़े।

सीढी पर चढते लोग
टेंट में सामान रख कर साथी लोग गंगा स्नान के लिंए चले गए और हम सामान की चौकीदारी करते रहे। छोलदारी में रात गुजारने का अपना ही आनंद है। वीआइपी लोगों के लिए स्विस कॉटेज का इंतजाम था। जिसमें पलंग, लैट्रिन बाथरुम, पंखा था। छोलदारी में लाईट और दरी बस थी। इस पर ही रात गुजारनी थी। साथियों के आने के बाद हम स्नानादि से निवृत्त हुए। हमारा कार्यक्रम मसूरी जाने का था। इसलिए बस स्टैंड के लिए जल्दी निकलना चाहते थे। बस स्टैंड जाने के लिए फ़िर उसी पुल पर चढना था। हम 4किलोमीटर चलते हुए सीढी के पास पहुंचे तो वहाँ पुलिस लग चुकी थी और सिर्फ़ लोगों को उतरने दिया जा रहा था। चढने नहीं दिया गया। हमारी योजना खटाई में पड़ चुकी थी। वापस पुल पर आने के लिए 5 किलोमीटर का चक्कर लगाना पड़ता और 12 बज रहे थे। मसूरी जाकर वापस आना संभव नहीं था।

भोजन की लाईन
जब मैं गौरीशंकर से पुल की तरफ़ आ रहा था, लगभग 11 बजे होगें, तब घर से श्रीमती जी का फ़ोन आया कि हरिद्वार में भगदड़ मच गयी है। कई लोग मारे गए हैं, फ़िर एक मित्र का फ़ोन आया कि हरिद्वार में यज्ञ स्थल पर दंगा हो गया है। ऐसा मुझे कहीं नजर नहीं आया। टेंट में दिन में बिजली न होने से हमारा मोबाईल चार्ज नहीं हो पाया था। इसलिए बंद हो गया। अब किसी से सम्पर्क नहीं हो सकता था। यह भी एक समस्या हो गयी। जितने भी इष्ट मित्र परिजन थे इस अवधि में आशंकाओं से दो चार होते रहे। वे फ़ोन से जानकारी लेना चाहते थे लेकिन मोबाईल बंद होने से उन्हे सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी। जैसा अफ़रा तफ़री एवं भगदड का माहौल बताया जा रहा था वैसा तो मुझे वहाँ नहीं लगा। हम लोग सीढी के पास से वापस आते हुए थक चुके थे। अब कहीं बैठने की जगह देख रहे थे। जहाँ खड़े होने के लिए जगह नहीं थी वहाँ बैठने के लिए जगह तलाश करना बड़ी बात है।

छोलदारियों का विहंगम दृश्य
हम चलते हुए आगे बढे तो एक स्थान पर चायवाले की 5-6 कुर्सियाँ खाली दिखी। बस हमने उन्हे हथिया लिया और चाय का आर्डर दिया। सभी ने आराम किया। उसने चाय एकदम घटिया बनाई। हमें चाय से कोई मतलब नहीं था, हमारा मुख्य उद्देश्य कुछ देर आराम करना था। यहां 1बज गए थे, पंकज और मैने कुछ फ़ोटुएं ली। अब विचार बनाया कि मसूरी की बजाए ॠषिकेश चला जाए। जब पहले मैं आया था तब हरिद्वार से ॠषिकेश जाने के 5 रुपए लगते थे। मैने सोचा कि अब अधिक से अधिक 20 रुपए लगेंगे। लेकिन जब पुल के नीचे जाकर ऑटोवालों से पूछा तो उन्होने आठ सवारी के 1600 रुपए बताए, ॠषिकेश से घुमाकर वापस लाने के। मै तो भौंचक रह गया। एक बार तो मन में आया कि बजाऊं उसके कान के नीचे। साले अनाप-शनाप किराया बता रहे हैं। दो चार ऑटो वालों से पूछा तो उन्होने भी यही किराया बताया। 

जय बाबा की - वानप्रस्थ की ओर अग्रसर :)
ॠषिकेश दो बार मेरा पहले भी देखा हुआ था, लेकिन जो नए लोग मेरे साथ आए थे वे देखना चाहते थे। आखिर 1500 रुपए में एक ऑटो तैयार हुआ। वह हमें मुख्यमार्ग की बजाय राजा जी पार्क के भीतर से नहर के किनारे-किनारे ॠषिकेश लेकर गया। उसने बताया कि ॠषिकेश पहुंचकर आपको 1500 रुपए युनियन में जमा करने होगें। फ़िर वहां से आपको रसीद और टाईम दिया जाएगा। उस टाईम पर आपको वापस आना है। युनियन वालों ने भी फ़र्जीवाड़ा खोल रखा है। पैसे की रसीद काटने के 10रुपए लेते हैं सवारियों से। खुले आम डकैती का शिकार हो रहे हैं पर्यटक। घुमकर आने के बाद रसीद दिखाने पर वह आपके रुपए वापस करेगा। ऑटो वाले कहा कि जब आपको वापस छोड़ देगें तभी आप किराया देना। ऑटो वाला गाजीपुर का था, कुछ अधिक ही चलता पुर्जा नजर आ रहा था। सोच रहा था कि मुफ़्त में ही 1500 हजम कर ले। लेकिन उसका पाला तो मोगेम्बो से पड़ा था। अभी उसने मेरा चमत्कार नहीं देखा था। जारी है.....आगे पढें।

बुधवार, 23 नवंबर 2011

चाहिए हमदर्द का टॉनिक सिंकारा --- ललित शर्मा

मथुरा जंक्शन में हमारे साथी
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में हरिद्वार के लिए मसूरी एक्सप्रेस से जाना था, मसुरी एक्सप्रेस सरायरोहिल्ला से बन कर पुरानी दिल्ली से चलती है। अब समस्या यह थी कि मथुरा से कोई सीधी ट्रेन हो जो हम सबको पुरानी दिल्ली पहुंचाए। हम मथुरा से पुरानी दिल्ली तक की गाड़ी पकड़ने में असमर्थ रहे। पवन शर्मा जी ने जो लोकल बताई थी वह मथुरा से सुबह 10 बजे ही चल पड़ती है। इतनी जल्दी कोई भी स्टेशन नहीं पहुंच पाता। आखिर तय किया गया कि समता एक्सप्रेस से ही निजामुद्दीन पहुंचा जाए। पवन शर्मा जी ने हमें उसके बाद बुलंद शहर वाली लोकल बताई जो पुरानी दिल्ली जाती है निजामुद्दीन से ही बन कर। इसका चलने का समय 6 बजे हैं उन्होने हमारी सहायता की। हम मथुरा से ढाई बजे दोपहर में चल कर शाम को साढे पांच बजे निजामुद्दीन पहुंचे। प्लेट फ़ार्म नम्बर 3 पर बुलंदशहर वाली पैसेजंर खड़ी थी। सब उसमें सवार हो गए। सवा सौ सवारियों को सामान के साथ चढना उतरना भी महाभारत ही है। कोई एकाध नहीं उतर पाया या चढ नहीं पाया तो समस्या ही है।

ट्रेन का इंतजार
पुरानी दिल्ली पहुंच कर देखा तो कईयों की टिकिट कन्फ़र्म नहीं थी। मोबाईल से पी एन आर देखा तो गलत बता रहा था। इसलिए हमने सदा नेट पर रहने वाले ब्लॉगरों की तलाश की। जिसमें संगीता पुरी जी ही ऑनलाईन मिली। राजीव भाई तो अपनी ससुराल में थे, साली का जन्मदिन मना रहे थे। जी के अवधिया जी, पी के अवधिया हो गए थे। अब मजाल है कोई उनसे बात कर सके। इसलिए मैने संगीता जी से फ़ोन पर पी एन आर कन्फ़र्म किए। हमारे साथ बी एस ठाकुर सर थे, इन्होने मुझे मिडिल स्कूल में गणित विषय पढाया था। जिसकी वजह से गणित में सम्मानजनक अंक मिल गए थे, बाकी तो राम जाने कैसे पास हो गए। इन्होने मुझसे गुरु दक्षिणा स्वरुप मेट्रो में घुमाने का संकल्प लिया।

अपुन है भाई
गुरु का आदेश सिर माथे पर लिया और सवा सौ सवारियों में उन्हे चुपके से लेकर मैट्रो की सैर कराने ले गया। पुरानी दिल्ली मैट्रो स्टेशन में टिकिट ले रहा था तभी पीछे से आवाज आई "पकड़ लिया अंकल आपको" अरे! छोड़ो यह पकड़ा पकड़ी मत करो। कुछ नौजवानों ने मुझे स्टेशन के बाहर निकलते देख लिया था। वे भी पीछे पीछे पहुंच गए। अब उन्होने ने भी राजीव चौक की टिकिट ली। मुझे छोड़ कर मैट्रो देखने का सभी का पहला अनुभव था। सभी मुंह फ़ाड़े मैट्रो स्टेशन को ही देख रहे थे। एक कह रहा था कि ऐसा लगता है कि हम सिंगापुर में पहुच गए। अरे भाई दिल्ली सिंगापुर से कम नहीं है।

रात में दिन
बस जेब में माल होना चाहिए फ़िर सिंगापुर ही दिल्ली आ जाएगा। सारी मौज मस्ती सिंगापुर वाली ही मिल जाएगी। मुझे तो तब हँसी आई जब जो पहली बार दिल्ली पहुंचा है वही इसकी तुलना सिंगापुर से कर रहा था। मतलब हमारे देहात के लोग टीवी और फ़िल्मों के माध्यम से सिंगापुर पहले पहुंचते हैं और दिल्ली बाद में। पुरानी दिल्ली से हम राजीव चौक पहुंचे। गेट नम्बर 5 पर निकल कर बाहर आए। अब इन्हे पालिका बाजार दिखाया। पालिका बाजार का एक चक्कर लगाकर हम वापस उसी रास्ते से मैट्रो में बैठकर पुरानी दिल्ली पहुंच गए। एक घंटे में मैट्रो की सैर हो गई और हम भी गुरु ॠण से उॠण हो गए। अच्छा हुआ गुरुजी ने मैट्रो की सैर के लिए कहा, वरना यहाँ तो अंगुठा मांगने की परम्परा है। गुरु से चतुर चेले हो गए, अंगुठा देते नही वरन दिखा जरुर देते हैं।

बाबा साहेब याने गिलहरे गुरुजी
यात्रा आयोजक ने सबसे कह दिया था कि दिल्ली घूमने के लिए आपके पास पूरा समय है, लोग उत्साहित थे, लेकिन इन्हे दिल्ली घुमने के नाम पर मात्र 3 घंटे ही मिले। इतने कम समय में कहाँ जाए और कहाँ न जाएं। हमारी मेट्रो से वापसी तक कुछ लोग चांदनी चौक और लालकिले तक हो आए थे। गिलहरे गुरुजी मुझे पुल पर मिले और गुस्से बोले "आई नेवर टॉक टू यू"। मेरा माथा भी ठनक गया। इतनी गरिष्ठ अंग्रेजी मुझे हजम नहीं हुई। मैने भी कह दिया "जैसे तोर मर्जी, मोरो मन नइ हे तोर ले गोठियाए के' और आगे बढ गया। मैने किसी का ठेका ले रखा है क्या? जो कोई भी मेरे साथ लद ले। थोड़ी देर बाद गुरुजी को लगा होगा कि गलत कह दिया। वे आए और साफ़-सफ़ाई देने लगे। मसूरी एक्सप्रेस प्लेटफ़ार्म पर लग चुकी थी। स्लीपर कोच के बीच एसी बोगी लगा रखी थी। हमारी सवारियां दो हिस्सों में बंट गयी। तीन कोच में सवारियाँ थी और टी टी भी तीन थे। पहले एस 2 के टी टी को टिकट चेक कराई।

जप ले  हरि का नाम बंदे - बंछोर जी
एस 4 का टीटी हमारे यात्रियों को टिकिट चेक होने के बाद भी परेशान कर रहा था। इस बोगी में वेटिंग की 5 सवारियाँ थी, उन्हे जनरल में भेजने की धमकी दे रहा था। वे सवारियाँ मेरे पास दौड़ कर आई। मैं जब टी टी ई के पास गया तो मुझे कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर बाद सवारियों को फ़िर धमका दिया। बाद में पता चला कि वह प्रति सवारी 100 रुपए चाहता था। फ़िर मैने उसे हिन्दी में समझाया, तब उसे समझ आया। गजरौला स्टेशन में गाड़ी आधे घंटे रुकी, तब तक लगभग 12 बज गए थे। यह वही गजरौला है जहाँ से गजरौला टाईम्स निकलता है और एक कालम में चिट्ठाकारों की पोस्टें छपती हैं। मेरी भी कई पोस्टें गजरौला टाईम्स में प्रकाशित हो चुकी हैं। सभी सवारियों को व्यवस्थित करने के बाद मैने भी अपनी सीट पर सोने का इरादा बनाया तो वहाँ ठाकुर गुरुजी सोए थे। सोचा कि नीचे ही हिन्दुस्तान टाईम्स बिछाया जाए और लेट मारी जाए। लेकिन गुरुजी ने जबरन सीट खाली कर दी। उनका आग्रह न टाल सका और सीट पर सो गया।

मौनी बाबा - नम्बर 1
रात को किसी के अकेले ही बड़बड़ाने की आवाज नींद में खलल डाल रही थी। उठकर देखा तो एक माता जी अपने से बातें कर रही थी। मैने उन्हे हाथ जोड़ कर निवेदन किया, "माता जी आपकी कृपा हो तो मैं सो जाऊं, अगर आप चुप रहें। तीन दिनों से सोया नहीं हूँ।" माता जी ने कृपा की और चुप हो गयी। थोड़ी देर बाद फ़िर वही बड़बड़ाने की आवाज आई। माता जी पुन: शुरु हो चुकी थी। मैं भी उनके साथ चर्चा में शामिल हो गया। अल सुबह अमृतवाणी श्रवण कर पूण्य लाभ प्राप्त कर रहा था। पौ फ़टने को थी, मौनी बाबा (चौरसिया जी) भी उठ चुके थे। ये सुबह उठने के बाद से आठ बजे तक नित्य मौन रहते हैं। इशारों से ही बातें करते हैं। माता जी इनके पीत वस्त्रों से प्रभावित होकर 21 रुपए की दक्षिणा से स्वागत किया। मौनी बाबा इशारे मना कर रहे थे पर वो मानने वाली कहाँ थी, 21 रुपए थमा कर ही मानी। यहाँ से मौनी बाबा के वानप्रस्थ की शुरुवात हो चुकी। हम भी मजे ले रहे थे। हरिद्वार स्टेशन आ गया। सभी प्लेट फ़ार्म पर रोलकॉल के उपस्थित हुए। एक महिला यात्री कम निकली। उसे एक घंटे तक ढूंढा गया, पता चला कि वह पहले ही वेटिंग रुम में जा चुकी थी।

चाहिए हमदर्द का टानिक सिंकारा
स्टेशन से बाहर निकलते ही ठंड का अहसास हुआ। मैने अपनी लोई डाल ली। स्टेशन के बाहर गायत्री परिवार का सहायता केन्द्र बना था। वहां सम्पर्क करने पर उन्होने हमें गौरीशंकर 1 का पता दिया। ऑटो वाले भी सवारियों को देख कर अनाप-शनाप किराया बता रहे थे। पुल तक ही पंहुचाने का 40 रुपए मांग रहे थे। जबकि वहां का किराया 5 रुपए से अधिक नहीं है। हमने एक तांगा 15 रुपए सवारी में तय किया। हरिद्वार में सुबह-सुबह गुलाबी ठंडे एवं हवा के बीच तांगे की सवारी करने का मजा लेना जो था। हमारा तांगा चल पड़ा। तांगे वाला भी डेढ होशियार था। उसने हमें पुल की गंगा जी में उतरने वाली सीढियों के पास उतार दिया। पुल से विशाल जन समुद्र का विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा था। नर-नारियों का रेला चारों तरफ़ से आ रहा था। पुल की सीढियों पर गंगा जी से चढने वालों की भीड़ थी। उतरने वालों को कोई जगह नहीं दे रहा था। हमें मालुम नहीं था गौरी शंकर 1 किधर है। इसलिए मैने किनारे से रास्ता बनाकर उतरना चाहा। यह कदम बड़ा खतरनाक रहा। दो बार पैर फ़िसलने के कारण गिरते गिरते बचा। जारी है.........आगे पढें।

शनिवार, 19 नवंबर 2011

भूतों का बनाया मंदिर और गरम जलेबियाँ -- ललित शर्मा

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सुबह स्नान ध्यान के पश्चात वृंदावन दर्शन करने का विचार था, ठंडे पानी से स्नान और सुबह की गुलाबी ठंड याद रहेगी। तपोभूमि में सुबह खिचड़ी का प्रात:राश था इसलिए हमने बाहर जाकर नाश्ता करने का विचार बनाया। सुबह-सुबह गर्म जलेबियाँ मिल जाए दूध या दही के साथ तो फ़िर क्या कहने। हम सड़क पर होटल तलाशने लगे जहाँ तई में कोई हलवाई गर्म जलेबियाँ तलता दिख जाए। थोड़ी देर की मेहनत के बाद एक जगह गर्म जलेबियाँ तलता हलवाई दिख ही गया। कहने लगा -"5 मिनट रुकिए बाबूजी, आपको गर्म गर्म बेड़ई के साथ गर्म जलेबियाँ खिलाता हूँ। हमने आधा किलो जलेबी का आर्डर दिया और उससे पाव भर दही का इंतजाम करने कहा। एक लड़का दही ले आया। दही भी उम्दा था, न खट्टा न मीठा, मन माफ़िक स्वाद पाया। मैने और गुरुजी ने डट कर नाश्ता किया। गरमा गरम जलेबियों ने तो क्षूधा शांत करने के साथ तन-मन को आनंद से भर दिया। मैने खुशी से हलवाई को 10 रुपए दिए तो मालिक मेरी तरफ़ देख रहा था। शायद सोच रहा कि हलवाई को भी टिप देकर बिगाड़ने वाले मिल गए।

वहीं से हम ऑटो रिक्शा से वृंदावन की ओर चल पड़े। तपोभूमि से ऑटो रिक्शा का किराया 10 रुपए प्रति सवारी है। वृंदावन पहुंच कर राधे-राधे की मधुर ध्वनि सुनाई दी। ऑटो वाले ने हमे नगर पालिका के पास उतार दिया। वृंदावन में गंदगी चारों ओर बिखरी पड़ी है। कहीं भी हगो मूतो। नगर पालिका का भवन ही सामने से चकाचक दिखाई दे रहा था। तिराहे से हम आगे बढे श्री रंगनाथ जी के मंदिर दर्शन करने के लिए। सड़क दोनो तरफ़ नास्ते के होटल और रहड़ियाँ लगी हैं, सड़क पर आकर होटल वाले ग्राहकों को आमंत्रित करते हैं। श्री रंगनाथ जी के मंदिए पहुंचे तो पुजारियों ने बताया कि अभी दर्शन नहीं होगें। हमने भी सोचा कि कोई बात नहीं। मंदिर का शिल्प ही देख लेगें। हमने मंदिर के गलियारों का एक चक्कर लगाया। काफ़ी पर्यटक यहाँ पहुंचे हुए थे। कुछ गुज्जु भाई बहन डांडिया कर रहे थे। एक गाईड उनके साथ था, वह उन्हे वृंदा राक्षसी के विषय में जानकारी दे रहा था, जिसके नाम पर वृंदावन है। उसे राक्षस जलंधर की पत्नी बताया।

सारे गुज्जु भाई गाईड का प्रवचन सुन रहे थे, हम भी थोड़ी देर खड़े हो गए उनके पास, मुफ़्त का ज्ञान लेने। इतिहास पर बोलते-बोलते गाईड दर्शन पर चले गया। कहने लगा कि दुनिया क्षण भंगुर है। क्या लेकर आए थे जो साथ ले जाओगे। माया-ममता तो ध्यान और प्रभु मिलन के रास्ते में बाधा है। सिर्फ़ एक चीज ही मनुष्य के साथ जाती है वह है उसका कर्म, जो दान करता है वह सुख पाता है। मैं समझ गया था कि पंडे गाईड का जाने का समय हो गया और अब इसे दक्षिणा चाहिए इसलिए वैराग दर्शन दे रहा है। गुज्जु भाई भी अर्ध श्रद्धापूर्वक ज्ञानरंजन कर रहे थे। कुछ माताएं राधे-राधे जप रही थी। बिहारी कहीं दिख नहीं रहे थे। राधे-राधे का संकीर्तन जारी था, जय श्री कृष्ण का उद्घोष गगन गुंजित कर रहा था। पिछले दरवाजे पर भक्त जन दर्शन के लिए कतार लगाए हुए थे। पंडे पुजारी भगवान एवं भक्त की राह का रोड़ा बने हुए थे।

 श्रीरंगनाथ मंदिर का गुंबद
हमने दिव्य चक्षुओं से दर्शन कर पुजारियों को 10-20 की दक्षिणा का झटका दे दिया। भगवान और भक्त के बीच में बाधा उत्पन्न करने वाले को तो दंड तो मिलना ही चाहिए। श्री रंगनाथ मंदिर का मुख्य भाग दक्षिण भारतीय मीनाक्षी मंदिर शैली में बना है। प्रवेश द्वार राजस्थान की जयपुरी शैली में निर्मित है। जोधपुर के लाल पत्थरों पर जालीदार नक्काशी का काम हुआ है। यह उत्तर भारत का सबसे विशाल मंदिर है। श्री रंगनाथ मंदिर में जन्माष्टी के दूसरे दिन नंदोत्सव की धूम रहती है। यहां सुप्रसिद्ध लट्ठामेले का आयोजन होता है। जब भगवान रथ पर विराजमान होकर पश्चिम द्वार पर आते हैं तो लट्ठे पर चढने वाले पहलवान भगवान को दंडवत कर विजय श्री का आशीर्वाद लेते हैं फ़िर लट्ठ पर चढना शुरु करते हैं।35 फ़िट ऊंचे लट्ठ पर जब पहलवान चढते हैं तो ग्वाल बाल उन पर तेल और पानी की बौछार करते हैं। घंटो की रस्साकसी के पश्चात कोई न कोई पहलवान तो विजय श्री प्राप्त कर लेता है। इस रोमांच को देखने के लिए देश विदेश से लोग आते हैं और लट्ठामेले का आनंद उठाते हैं।

मंदिर प्रांगण में
श्री रंगनाथमंदिर का निर्माण सेठ लक्ष्मीचंद ने अपने गुरु आचार्य रंगदेशिकस्वामी की प्रेरणा से कराया था और निर्माण कार्य सन् 1849में पूरा हुआ था।किवदंतीके अनुसार मंदिर का निर्माण पूरा होने और उसमें सामान्य पूजा दर्शन प्रारंभ होने के कुछ ही दिन बाद एक बालक तथा एक बालिका ने रात में स्वामीजीसे स्वप्न में कहा कि आपने सब कुछ तो किया परन्तु हमारे लिए लड्डुओं के भोग की व्यवस्था तो की ही नहीं। बालक-बालिका ने अपना परिचय देते हुए कहा कि हम गोदा रंगनाथ हैं। प्रात:जागने के बाद स्वामीजीने तुरंत बेसन के लड्डुओं की व्यवस्था कर दी जो आज भी चल रही है।

बाबा साहब (गुरुजी)
दक्षिण भारतीय शैली पर निर्मित वृंदावन का विशाल मंदिर है जिसके मुख्य द्वार का निर्माण राजस्थानी शैली पर आधारित है। मंदिर प्रांगण में लगभग 50फुट ऊंचा स्वर्ण गरूडस्तंभ है। इस मंदिर में पूजा सेवा पारंपरिक वेशभूषा में दक्षिणी ब्राह्मणोंद्वारा की जाती है। हम बेमौसम पहुंचे थे, इसलिए हम लट्ठामेले का आयोजन न देख सके। फ़िर कभी देखेगें। गुरुजी आज बाबा साहब के गेटअप में थे, सिर एक संविधान की हाथ में देने एवं उंगली आसमान की ओर उठाने पर मामला फ़िट हो जाता। गलियारे में खड़े होकर एक फ़ोटो गुरुजी की लेने के बाद हम गोविंद देव जी के मंदिर के दर्शन करने के लिए बढे।

श्री गोविंद देव मंदिर मथुरा
गोविंद देव जी का मंदिर भी जोधपुरी लाल पत्थरों द्वारा निर्मित है। इसकी भव्यता का अंदाजा दूर से ही हो जाता है। किवदन्ती है कि इसे 2100 साल पहले भूतों ने बनाया था। किसी के चक्की चलाने की आहट सुनकर भूत इसे अधुरा छोड़ कर भाग गए। तब से यह मंदिर अधुरा ही है, गाईड बताते हैं कि इस मंदिर की 4 मंजिलों को औरंगजेब ने ध्वस्त करवा दिया था और इसमें जड़े हीरे जवाहरात निकाल ले गया। बताया जाता है कि इस मंदिर में जब दीयों की रोशनी की जाती थी तो दिल्ली तक दिखाई देती थी। इसलिए औरंगजेब ने इसकी 4 मंजिलों को तुड़वाया। मंदिर के गर्भगृह में फ़ोटो लेने की मनाही है। यह मंदिर पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के सर्वेक्षण में है। इस मंदिर की असली प्रतिमा जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में स्थापित है, यहाँ पर उस मूर्ति की प्रतिकृति स्थापित है। जयपुर का गोविंद देव जी का मंदिर बहुत प्रसिद्ध है।

गोविंद देव मंदिर का संरक्षण के पुर्व का चित्र - गुगल से साभार
गोविंद देव मंदिर से हम बांके बिहारी के दर्शन करने गए। यह मंदिर पुराने शहर के बीचों बीच स्थित है। मंदिर मार्ग भी संकीर्ण है। हमने नगरपालिका के पास से 20 रुपए में रिक्शा किया और बांके बिहारी मंदिर तक पंहुचे। वहां दर्शनार्थियों की भीड़ लगी थी। मंदिर प्रांगण में ही प्रवेश करना बड़ी मशक्कत का काम था। एक दिन पहले पंचकोशी परिक्रमा यात्रा थी, इसलिए श्रद्धालुओं की भीड़ अभी तक मौजुद थी। धक्के मुक्के खाकर हमने गर्भगृह में प्रवेशकर बांके बिहारी जी के दर्शन किए। मंदिर में पुष्पसज्जा देखते ही बनती थी। बांके बिहारी जी की पुष्पसज्जा अलौकिक लगी। अतिसुन्दर, नयनाभिराम। बांके बिहारी जी मंदिर से निकल कर हमने पुन: रिक्शा लिया।

बांके बिहारी मंदिर में दर्शनार्थियों  की भीड़
बस स्टैंड आ गए। क्योंकि समय कम था और आज हमें हरिद्वार के लिए जाना था। दो-तीन रातों की नींद ने घायल कर रखा था। इसलिए तपोभूमि पहुंचकर कुछ देर सोना चाहता था। हम तपोभूमि के लिए ऑटो से चल पड़े। ऑटो वाले ने 15 सवारी चढा ली, मतलब डेढ सौ रुपए का एक ट्रिप। उसने बताया कि खर्चा काट कर रोज 400-500 रुपए कमा लेता है। चर्चा करते हुए तपोभूमि पहुंच कर बिस्तर पर पड़ गया। जैसे ही झपकी आ रही थी वैसे ही आवाज आई - "पायलागी महाराज, सुत गेस का? आँख खोल कर देखा तो तेजराम ने मेरी नींद की वाट लगा दी, आशीर्वाद देने की बजाए उसे जोर से गाली देने की इच्छा हुई, पर क्या करता, खुश रहो, आनंद रहो की ही ध्वनि निकली। आगे चलेगें हरिद्वार की ओर……।

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

तपोभूमि से जन्मभूमि के दर्शन -- मथुरा की सैर -- ललित शर्मा

गायत्री तपोभूमि-मुख्यद्वार
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गायत्री तपोभूमि जहाँ श्रीराम शर्मा ने अखंड ज्योति जलाई थी, आज गायत्री परिजनों के लिए शक्ति का केन्द्र एवं तीर्थ स्थल बन चुका है। यहां ठहरने एवं भोजन की उत्तम व्यवस्था है, भोजन एवं प्रात:राश समय पर उपलब्ध होता है। हम समय के दायरे के बाहर थे इसलिए भोजन एवं प्रात:राश से वंचित रहे। दिन ढल चुका था, हमारे साथी स्वव्यवस्थानुसार भ्रमण पर जा चुके थे। किंचित आराम करने के पश्चात हम लोग (मैं और गिलहरे गुरुजी) मथुरा भ्रमण को चल पड़े। तपोभूमि से कृष्ण जन्मभूमि जाने के लिए ऑटो की सवारी ली। रास्ते में पवन वर्मा भी पैदल आते दिख गए, उन्हे आवाज देकर ऑटो में साथ बैठा लिया। भूख लग रही थी, मन में कुछ चटर-पटर खाने की इच्छा थी। ऑटो वाले ने रेल्वे क्रासिंग पर छोड़ दिया। वहाँ चौक से 25 कदमों की दूरी पर जन्मभूमि है। जन्मभूमि सड़क पर यु पी पी ने सुरक्षा घेरा डाल रखा था। अगले दिन बकरीद थी, इसलिए सुरक्षा व्यवस्था बढी हुई लगी।

हृदयलाल गुरुजी और इडली पाक
सड़क पर मद्रास रेस्टोरेंट का बोर्ड लगा देखा तो दक्षिण भारतीय नास्ता करने की इच्छा हुई। सामने ही पेड़े वाले की दुकान थी, मैने गुरुजी से एक पाव पेड़े लेने को कहा और रेस्टोरेंट में प्रवेश किया। रेस्टोरेंट साधारण दर्जे का ही था, उसका मालिक भी मथुरा का ही था। उससे खाने के विषय में पूछा तो उसने कहा कि 10 मिनट में सांभर बनने पर इडली खिला सकता हूँ। मैने उसे लस्सी का लाने कहा और तब तक पेड़े का स्वाद लेने लगे। लस्सी भी केशरयुक्त उम्दा किस्म की थी। हाँ थोड़ी मीठी अधिक थी। फ़िर सांभर इडली भी आ गयी। सांभर का स्वाद बहुत अच्छा था। मैने सांभर बनाने की विधि पूछी और मसाले के विषय में जानकारी ली। दक्षिण भारतीय मसाले की अपेक्षा यहां की सांभर में थोड़ी खटाई एवं मिर्च की मात्रा अधिक थी। होटल वाले ने अपना नाम सौरभ शर्मा बताया और कहा कि उसके बड़े भाई और भी बढिया सांभर बनाते हैं पर वे अभी हैं नहीं। सांभर इडली का नाश्ता करके हम बाहर निकले तो पानी के पताशों (गुपचुप) का ठेला लगा हुआ था। थोड़ा उसका भी जायका लिया। अच्छा रहा यह जायका भी।

पवन वर्मा  - गुरु्जी
अब मंदिर की तरफ़ आगे बढे तो दर्शनार्थियों का रेला लगा हुआ था। गेट पर पहले मैनुअली एवं मेटल डिक्टेटर लगा कर दर्शनार्थियों की जांच की जा रही थी। जेब में रुपए पैसों को छोड़कर कुछ भी भीतर नहीं ले जाने दिया जा रहा था। पान-गुटका, मोबाईल इत्यादि बाहर ही रखवाया जा रहा था।  पवन वर्मा ने के पास बंदुक थी, इसलिए वे भीतर न जा सके, हमने अपना सामान उन्हे ही थमाया और मंदिर के भीतर प्रवेश किया। प्रवेश द्वार के समीप जूते-चप्पल इत्यादि रखने की जगह बनी थी। वहीं हमने अपनी पादुकाएं रखी, प्रसाद लेकर कृष्ण कन्हाई के दर्शन करने पहुंच गए। गुजरात और बंगाल से भी एक दल वहाँ आया हुआ था। दर्शन करके आने पर हमारे यात्री दल के लगभग लोग वहीं मिल गए। गुरुजी को सांभर का मसाला असर कर गया। वे मंदिर परिसर में व्यग्रता से जनसुविधा तलाश करने लगे। एक जवान से पूछने पर उसने जनसुविधा का रास्ता बताया। गुरुजी मुझे कोट थमा कर रफ़ुचक्कर हो गए। थोड़ी देर बाद आराम से पहुंचे, और बताया की गुपचुप का पानी असरदार था।

कृष्ण जन्मभूमी और शाही मस्जिद (गुगल से साभार)
मंदिर परिसर में अन्य तीर्थ स्थलों जैसे मनको-मूर्तियों की दुकाने लगी थी। नए ग्राहक फ़ंस रहे थे जाल में और मुड़ा रहे थे मुड़। मंदिर के आंगन में खड़े होने पर जन्मभूमि की जड़ में बनी हुई मस्जिद भी दिखाई दे रही थी। ऐसा सभी जगहों पर दिखाई देता है, जब मुगलों का शासन रहा तब उन्होने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हुए हिन्दुओं के तमाम तीर्थ स्थानों पर एक मस्जिद या मजार जरुर बनवा दिया। चाहे अयोध्या हो या काशी विश्वनाथ। काशी विश्वनाथ में तो सिर्फ़ मंदिर की छत को तोड़ कर उसे मस्जिद का रुप दे दिया गया। नीवं और स्तम्भ मंदिर के ही है। चाहे हम कितने भी साम्प्रदायिक सौहाद्र की मिशाल बनने की कोशिश करें पर ऐसे हालात देख कर थोड़ा अटपटा तो लगता है। मंदिर परिसर में कैमरे नहीं ले जाने दिए जाते, अन्यथा आपको चित्र दिखाए जाते। काशी विश्वनाथ मंदिर में भी कैमरे और मोबाईलफ़ोन ले जाने की मनाही है। मंदिर परिसर में ही एक कृत्रिम गुफ़ा बनाई गयी है, इसके दर्शन करने लिए 3 रुपए की टिकिट लेनी पड़ती है।

कृष्ण जन्मभूमि मुख्यद्वार
मंदिर परिसर के रेस्ट हाऊस के समीप ही एक रेस्टोरेंट है, जहां कम कीमत पर अच्छा भोजन मिल जाता है। हमारी चावल खाने की इच्छा थी। क्योंकि मंदिर परिसर में मिले सहयात्रियों ने बताया था कि तपोभूमि में शाम को ही एक घंटे भोजन मिलता है। इसलिए हमने भी बाजार से भोजन करके जाने की सोच ली। गुरुजी एवं पवन वर्मा ने भोजन की अनिच्छा जताई। फ़िर मुझे भी भोजन का कार्यक्रम स्थगित करना पड़ा। उसकी जगह 10 रुपए के पानी के पताशे उदरस्थ किए। बकरीद और देवउठनी की भीड़ बाजार में स्पष्ट दिख रही थी। ऑटो सब भरे हुए जा रहे थे। थोड़ी देर बाद हमें भी तपोभूमी के लिए ऑटो मिल गया। तपोभूमि पहुंच कर जल्दी सोना चाहता था। जिससे कुछ सोनागार में वृद्धि हो जाए। दो रात एवं दो दिनों से पूरी नींद नहीं ले पाया था। शरीर थक कर चूर हो गया था और साथ नहीं दे रहा था। तपोभूमि पहुंचने पर पता चला कि नंदकुमार (हमारा दूधवाला) और उसके साथी अभनपुर से सूमो में हरिद्वार जा रहे हैं और पड़ाव के रुप में अभी तपोभूमि पहुंचे हैं। इन्होने भी कमाल किया, 13 लोग सूमों 1400 किलोमीटर का सफ़र किस तरह करके आए होगें? यह समस्या इन पर ही छोड़ी और बिस्तर संभाल कर सोने लगा। 

वृंदा राक्षसी से भय से ग्रसित
निंदिया रानी धीरे-धीरे आगोश में ले रही थी, रात के 12 बज रहे थे।तभी मुझे दीनबंधू मिश्रा ने आवाज दी।"ललित महाराज सुत गेस का?" मुझे जवाब देना पड़ा उठकर। "काय होगे गा?" तो उन्होने कहा कि सांस नहीं आ रही है और छटपटाहट हो रही है और बोले कि "आपके पास ही सो रहा हूँ, कुछ समस्या होगी तो बताऊंगा, कह कर मेरे गद्दे पर ही लेट गए, पंखे के नीचे चित्त। मैने उनसे पूछ कि ठंडा पसीना भी आ रहा है क्या? तो उन्होने मना किया। मुझे थोड़ी तसल्ली हुई। वे लेट गए, लेकिन मेरी नींद का धनिया बो दिया। अब मै करवट बदलता सोच रहा था कि अगर इसे अटैक आ गया तो क्या व्यवस्था करनी पड़ेगी? कौन से अस्पताल पास है, जहाँ जीवन रक्षक सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहाँ सीपीआर देते हुए पहुंचा जा सकता है कि नहीं? मै लेटे-लेटे आगे की कार्यवाही करने लगा। नीचे उतर कर आफ़िस में जाकर उन्हे अवगत कराया कि कुछ आकस्मिक दुर्घटना घटने पर कितनी देर में वहाँ सहायता उपलब्ध हो सकती है। संतुष्ट होने पर वापस आकर लेटा। दीनबंधु भैया अपने स्थान पर सोते दिखाई दिए। सहयात्रियों की जिम्मेदारी ने फ़िर नहीं सोने दिया। जैसे तैसे करके सुबह हुई और हमने वृंदा राक्षसी से मिलने जाने का उद्यम किया। आगे पढें

मंगलवार, 15 नवंबर 2011

देशाटन, तीर्थाटन और पर्यटन - मथुरा की ओर -- ललित शर्मा

घड़ी चौक रायपुर
जिज्ञासु प्रवृत्ति मनुष्य को देशाटन, तीर्थाटन को प्रेरित करती है, वह अज्ञात को जानना चाहता है। यही अज्ञात को जानने की ललक उससे यात्राएं करवाती हैं। पहले लोग जीवन के उत्तरार्ध में तीर्थाटन करते थे, बैलगाड़ी, घोड़े एवं पैदल यात्रा करनी पड़ती थी। सुरक्षा की दृष्टि से ये यात्राएं समूहों में होती थी, यदा कदा ही कोई यायावर अकेले यात्रा करता था। लोग जब तीर्थाटन को जाते थे तो गाँव के लोग उन्हे विदा करते और गाँव की सीमा तक गाजे-बाजे के साथ छोड़कर आते। तीर्थाटन निर्विघ्न समपन्न होने पर सकुशल घर लौटते तो उन्हे गाजे बाजे से ही परघाया जाता। सकुशल वापस आने की खुशी में पूजा-पाठ करके सामुहिक भोज का आयोजन भी किया जाता। वैसे अभी भी तीर्थ करके आने पर प्रसादी की जाती है, जिसमें इष्ट मित्रों को आमंत्रित किया जाता है और खुशी मनाई जाती है। अब किसी भी उम्र में, कभी भी तीर्थयात्रा की जा सकती है,यात्रा के तीव्रतम साधन उपलब्ध हैं, अगर कहीं दुर्घटना न हो तो तीर्थ यात्राएं कम समय में सकुशल सम्पन्न हो जाती हैं।
रास्ते का स्टेशन (सवाल जाट जी के लिए)
ऐसी ही एक सामुहिक तीर्थ यात्रा के सुत्रधार थे रामसजीवन चौरसिया जी। शांतिकूंज हरिद्वार के आमंत्रण पर दो-तीन माह से यात्रा की तैयारियाँ हो रही थी। चौरसिया जी का आग्रह था कि मैं भी उनके साथ यात्रा पर चलुं। आगामी कार्यक्रमों को देखते हुए मेरे मन में इस यात्रा को करने का विचार कम ही था। मैने अनमने मन से हाँ तो कर दी थी, पर पूर्ण रुप से यात्रा के लिए मन नहीं बना पाया था। चौरसिया जी ने 117 यात्रियों का दल बताया था। अब इतने सारे लोगों को एक साथ लेकर यात्रा कराना भी कठिन कार्य है। जिसमें बच्चों से लेकर उम्र दराज सभी शामिल हों। सामुहिक यात्रा कि अपनी कठिनाईयाँ भी हैं। हमारी यात्रा 5 नवम्बर से प्रारंभ होने वाली थी, मैने दो दिन पहले ही जाने का विचार त्याग दिया था क्योंकि 18 नवम्बर को छत्तीसगढ के राज्योत्सव कार्यक्रम में दिल्ली जाने का विचार था। 

सामुहिक चित्र
यात्रा के एक दिन पहले चौरसिया जी ने साथ चलने का विशेष आग्रह किया तो टाल न सका और यात्रा की तैयारी हो गयी।सभी की टिकिट एक ही ट्रेन में न होने के कारण 29 यात्रियों को गोंडवाना एक्सप्रेस से सुबह जाना था और बाकी बचे यात्रियों को समता एक्सप्रेस से शाम को निकलना था। यात्रा का पहला पड़ाव मथुरा था। दिल्ली रुट पर ट्रेन द्वारा छत्तीसगढ से जाने के लिए मेरी पहली पसंद गोंडवाना एक्सप्रेस ही है। क्योंकि रायपुर से सुबह 7/50 पर चलकर अगली सुबह 7/30 बजे दिल्ली पहुंचा देती है। एक ही दिन यात्रा में लगता है और दिल्ली पहुंच कर दिन भर काम करने के लिए मिल जाता है। समता एक्सप्रेस से जाने पर 2 दिन और 2 रात खराब होती है। सफ़र लम्बा लगने लगता है। सभी लोगों को 4 बजे तक स्टेशन पहुंचना था, मैं और गिलहरे गुरुजी घर से एक साथ ही चले थे और स्टेशन पहुंचने पर सभी लोग वहाँ मिल गए। सभी के मित्र मंडली के हिसाब से अलग-अलग ग्रुप बने थे। कुछ विशुद्ध तीर्थ यात्री थे तो कुछ विशुद्ध पर्यटक, घुमने का नजरिया अलग-अलग था। यात्रा करने का उल्लास सभी के चेहरे से प्रतीत हो रहा था। कुछ तो पहली बार इतनी लम्बी यात्रा पर जा रहे थे।
भजन यात्रा
समता एक्सप्रेस प्लेटफ़ार्म पर पहुंची, साथियों ने टूर आपरेटर (चौरसिया जी) के बताए अनुसार बोगियों में चढ कर सीटें संभाल ली। इस ट्रेन में हरिद्वार जाने वाले अन्य गायत्री परिजन भी थे। फ़ुल हाऊस चल रहा था। टिकिट चेक कराने पर मालूम हुआ कि लगभग 30 टिकिटें कन्फ़र्म नहीं हुई हैं। इसलिए जितनी सीटें हैं उन पर ही सभी को समायोजित हो कर जाना है। कुछ सहयात्री ऐसे थे कि वे अपनी सीट पर किसी और को बैठाने के लिए तैयार नहीं थे। अपनी सीटें संभालते ही उन्होने बिस्तर लगा लिया। हम तीन चार बोगियों में घूम कर उन्हे सीट दिलाते रहे। मेरी सीट पर भी कोई अन्य जम गए थे। सहयात्रियों में महिलाओं की संख्या अधिक थी, महिलाओं की सीट मिल जाए तो पुरुष कहीं पर भी रात का समय निकाल सकते हैं। पर कुछ महापुरुष थे जो अपनी सीट छोड़ने को ही तैयार नहीं थे। जैसे-तैसे करके सभी को स्थान दिलाया। सहयात्रियों ने डफ़ली लेकर भजन शुरु कर दिए। बड़ा ही अच्छा माहौल बन गया था। भजन कीर्तन में लग गए, बंछोर जी ने बढिया भजन सुनाए।

मथुरा जंक्शन
कुछ फ़ोर्स के भी जवान थे उस बोगी में, उन्होने दरवाजा बंद करके वहीं पर अपना डेरा लगा लिया और बोतल खोल ली। ट्रेन में ही कार्यक्रम शुरु कर दिया, शायद फ़ोर्स के जवानों के लिए ट्रेन में शराबखोरी की छूट है। ये ट्रेन में शराबखोरी करते हुए गाहे-बगाहे मिल ही जाते हैं। ट्रेन मंजिल की ओर दौड़ रही थी, मेरी सीट पर एक सज्जन सोए हुए थे। मैने सोचा कि इन्हे सोने दिया जाए, रात 1 बजे के बाद इन्हे उठाकर दो चार घंटे के लिए आराम कर लेगें। 1 बजे मैने अपनी सीट संभाली। नींद का समय निकल जाने पर बुलाने से भी नहीं आ रही थी। करवटे बदलते रहा, जैसे ही नींद आने लगी तो कुछ सवारीयाँ जोर-जोर से बातें करने लगी। उनके वार्तालाप से नींद में व्यवधान हो रहा था। जैसे-तैसे करके एकाध झपकी ली और भोपाल आ गया। चे गरम, चे गरम की आवाज सुनकर उठना पड़ा। चाय के साथ अखबार लिया पर थकान काफ़ी हो गयी थी। चाय पीकर पुन: लेट गया। सहयात्रियों ने अपनी नींद पूरी कर ली थी। शाम को तीन बजे हम मथुरा स्टेशन पर पहुंचे। सारी सवारियों के उतरने के बाद जाँच की गयी, कोई ट्रेन में छूट तो नहीं गया है।

ऑटो रिक्शा की सवारी भूखनलाल जी के साथ
प्लेटफ़ार्म के बाहर निकलते ही ऑटो वालों ने घेर लिया। सब के अलग-अलग रेट थे, तपोभूमि तक जाने के 10 सवारियों के कोई 250 कह रहा था कोई 200 रुपए। हमने थोड़ा इंतजार किया तो प्रति सवारी 15 रुपए के हिसाब से ऑटो तय हुआ। 8 ऑटो रिक्शा करके हम तपोभूमि की ओर चल पड़े। राजस्थान जैसे इधर के ऑटो में भी पीछे डिक्की तरफ़ भी एक सीट लगा रखी थी। जिस पर 4 सवारियाँ बैठ जाती हैं, अगल-बगल और पीछे लटकाकर 20 सवारी तो ले ही जाते हैं। ट्रैफ़िक वाले चौक पर खड़े देखते रहते हैं। किसी ऑटो वाले को बाहर लटकी सवारियाँ देखकर भी रोकते-टोकते नहीं। तपोभूमि पहुंच कर आमद दी और स्नान ध्यान कर मथुरा घूमने का कार्यक्रम बनाया। मैने और गिलहरे गुरुजी ने अलग ही जाने का विचार किया। तपोभूमि की सड़क पर ही ऑटो मिल जाते हैं, डीग गेट से कृष्ण जन्मभूमि जाने के लिए। हमसे ऑटो वाले ने 3 रुपए प्रति सवारी लिए।  आगे पढें 

शुक्रवार, 11 नवंबर 2011

मिलते हैं ब्रेक के बाद ------------- ललित शर्मा

अयोध्या से


फिर मिलते हैं घर पहुँच कर ............. 

शनिवार, 5 नवंबर 2011

लखनऊ में मिलेगें स्वामी ललितानंद एवं स्वामी महफ़ूजानंद --- -ललित शर्मा

पं श्रीराम शर्मा आचार्य
सामुहिक यात्रा के भी अपने मजे हैं, अकेले दुकेले यात्राएं बहुत की, लेकिन सामुहिक यात्रा दो-तीन ही हुई। आज से एक सामुहिक यात्रा पर फ़िर चल रहे हैं। पूरे गेंग में 117 यात्री हैं। बच्चे से लेकर बूढे तक। सामुहिक यात्रा के मजे हैं तो कुछ कठिनाईयाँ भी हैं। सभी का एक साथ ट्रेन में चढना उतरना एवं फ़िर उनको सही सलामत घर तक पहूंचाना एक बड़ी जिम्मेदारी हो जाती है। सन 1999 में हरिद्वार में अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन हुआ, तो मित्र चौरसिया जी के कहने पर हरिद्वार के लिए चल पड़े, मुझे 16 नवम्बर को दिल्ली में काम था। इसलिए 4 नवम्बर को रायपुर से चल कर हरिद्वार में कुछ दिन घुमक्कड़ी करके दिल्ली पहुंचना तय हुआ। लम्बी दूरी की मेरी पहली सामुहिक यात्रा थी। मेरी सीट कनफ़र्म थी, पर सभी लोग सामान्य श्रेणी के सवार थे, संगलोभ के कारण इनके साथ ही जाना तय किया। ट्रेन में मजदूरी के लिए छत्तीसगढ से पलायन करने वालों की भीड़ थी। हम लोग कुल 17 नग थे। जैसे तैसे ट्रेन में चढे और ट्रेन चल पड़ी।
विचार क्रांति अभिय
दुर्ग पार होने के बाद हमारे एक साथी को घड़ी मिली, उसने आवाज लगाकर पूछा कि यह घड़ी किसकी है? किसी ने जवाब नहीं दिया। तो घड़ी हमने रख ली, अगर कोई दावेदार होगा तो उसे लौटा दी जाएगी। शाम को हमारे एक साथी ने अपनी घड़ी गायब होने की सूचना दी। जब पूछा जा रहा था तो वे सामने ही थे, लेकिन तब ध्यान नहीं दिया। शिनाख्त करवा कर उनको घड़ी सौंप दी। गाड़ी आगे बढती गयी और सभी को स्थान मिलता गया। जैसे तैसे करके निजामुद्दीन से पुरानी दिल्ली पहुंचे। वहां से हमे रात को मसूरी एक्सप्रेस से हरिद्वार पहुंचना था। पुरानी दिल्ली पहुंचकर इन्होने दिल्ली भ्रमण का विचार किया। एक टूर वाले से मोल भाव करके प्रतिव्यक्ति 60 रुपए में दिल्ली घूमना ठहराया। बस से सभी दिल्ली भ्रमण पर निकल गए। बस वाले ने अपना रुट तय कर रखा था। साथ में एक फ़ोटोग्राफ़र भी था। एक फ़ोटो के 20 रुपए दाम और निगेटिव भी नहीं दूंगा कह रहा था। मेरे पास अपना कैमरा था, इसलिए मुझे जरुरत नहीं पड़ी। दिन भर दिल्ली घूमते रहे। शाम को बिड़ला मंदिर देखने के बाद पुरानी दिल्ली वापसी होनी थी। वहां पहुंचकर बस का डीजल खत्म हो गया, ईंजन ने एयर ले ली।
मसूरी का सर्पीला रास्ता
अब हमने उतर कर पुरानी दिल्ली के लिए बस पकड़ी। मेरे साथ पीछे सीट पर एक साथी बैठ गया। जैसे ही आगे की सीट खाली हुई, मैं आगे बढ गया और पुरानी दिल्ली सभी उतर गए। जब मसूरी एक्सप्रेस आई तो सवारियां गिने जानी लगी। एक सवारी कम निकली, कई बार गिन डाला। जैसे जैसे ट्रेन चलने का समय निकट आ रहा था, उस सवारी की तलाश व्यग्रता से बढते जा रही थी। आखिए में वह लड़का दौड़ते हुए आया और मेरे को बोला कि "महाराज आप मेरे को बस में छोड़ आए थे।" तो मैने कहा कि तु उतरा क्यों नहीं? तो उसने कहा कि "नींद लग गयी थी।" मुझे अनुभव हो गया कि ऐसे नींद लगाने वाले लोग रास्ते भर परेशान करेगें।" सुबह हरिद्वार पहुंचे, वहाँ टेन्ट की नगरी बसाई गयी थी। सभी ने रजिस्ट्रेशन करवा कर अपना अपना टेंट संभाला। टेंट में रुकने का मेरा यह पहला अनुभव था। ठंड अच्छी हो चुकी थी। ठंडे पानी से स्नान करना पड़ा। कौन गरम पानी का इंतजाम करके देता। यहां से गए यात्रियों ने वहां पहुंच कर अपना काम संभाल लिया, कोई सब्जी काटने लगा तो कोई तगाड़ी लेकर मिट्टी फ़ेंकने लगा। मतलब गुरु सेवा प्रारंभ हो चुकी थी। मैं आराम से कुर्सी पर बैठ कर देखता रहा। क्योंकि इस तरह का पहला अनुभव था।
द्रोणाचार्य गुफ़ा  सहस्त्र धारा
दुसरे दिन हमने (सीताराम गुरुजी और लखन वर्मा) ने तय किया कि घुमने चला जाए। जहां भी हम छत्तीसगढी में बात क्ररते थे आटो रिक्शा वालों का किराया 5 रुपए बढ जाता था, तो हमने तय किया कि इनसे बात सिर्फ़ मैं ही करुंगा। इसके बाद हम ॠषिकेष गए। दिन भर घूमे अच्छा लगा, शाम को गंगा आरती शामिल हुए। दुसरे दिन फ़िर वहीं पहुंच गए, चोटी वाले का होटल में नास्ता करके घूमे। लक्ष्मण झूला से मछलियों को आटे की गोलियां खिलाई। अगले दिन मसूरी जाने का कार्यक्रम बनाया। रात को हर की पौड़ी के पास एक ट्रेवलस से 155 रुपए में तीन टिकिट करवाई मसूरी के लिए, उसने बताया कि बस स्टैंड से सुबह 8 बजे 2x2 बस मिलेगी। जब हम बस स्टैंड पहुंचे तो हमे 3x2 की पिछली सीट में बैठाने लगा। मैने कहा कि टिकिट तो 2x2 का है और तुम 3x2 में बैठा रहे हो। उसने सीधा कहा कि "बैठ जाओ, नहीं तो पिट जाओगे", बड़ा अप्रत्याशित घटा। मेरा क्रोध चढ गया, मैने बिना कुछ कहे उसके सिर के बाल पकड़ कर तीन डंडे मारे तो स्टैंड के सारे ड्रायवर, कंडेक्टर आ गए। मैने गुरुजी से कहा कि "कंट्रोल रुम को फ़ोन करो, अभी इनकी सारी हेकड़ी उतार कर जाएगें। सालों ने दादा गिरी मचा रखी है। सवारियों से बदसलूकी कर रहे हैं।" फ़िर कुछ लोग बीच-बचौवल एवं मान मनौवल पर आ गए। उन्होने हमे सामने की सीट दी।
कैम्प टी फ़ॉल
अब नजारे देखते हुए, मसूरी की ओर चल पड़े। पहले स्थान था झंडू नाला, जिसे सहस्त्रधारा और द्रोणाचार्य गुफ़ा भी कहते हैं। यहां पहाड़ की चट्टानों से धाराओं में पानी निकलता है, मैने सोचा कि यही तो असली मिनरल वाटर है, न जाने कितने तरह की आयुर्वैदिक जड़ी बूटियों के सम्पर्क से बहते आ रहा है। वाटर बोटल में मैने पानी भर लिया। अब आगे चले तो पहाड़ियों की चढाईयाँ थी। चलते चलते टॉप पर पहुंचे, दृश्य इतने नयनाभिराम थे कि आँखों में ही नहीं समा रहे थे। कैमरे की आंखे भी नहीं समेट पा रही थी। पहाड़ों की रानी मसूरी आ चुकी थी। उपर पहुंच कर गाईड ने कहा कि"मसूरी के मौसम का और दिल्ली की लड़की का कोई भरोसा नहीं, कब धोखा दे जाए?" सभी सवारियाँ मुस्कुराकर रह गयी। मसूरी में माल रोड़ और गन हिल देखी। गनहिल तक रोप वे है। 50 रुपए टिकिट ले रहा था रोपवे वाला। वहां से कैम्प टी फ़ाल पहुंच गए, अच्छी जगह है, कैम्प टी फ़ाल की मैने 100 साल पुरानी तश्वीर देखी थी कहीं लेकिन अब वैसा नहीं है। इसके चारों तरफ़ अतिक्रमण की बाढ है। दुकानदारों ने इसे चारों तरफ़ से घेर इसकी सुंदरता को बरबाद कर दिया है। बाकी फ़िर कभी..........
आचार्य सतीश - अनंतबोध बाबा जी
आज मैं फ़िर एक सामुहिक यात्रा में चल पड़ा हूँ, जो मथुरा, वृंदावन से दिल्ली, दिल्ली से हरिद्वार, हरिद्वार हम मसूरी एक्सप्रेस से जाएगें और हरिद्वार में डेढ दिन का मुकाम है, वहां से मसूरी जाना चाहूंगा, पुरानी यादें ताजा करने के लिए, फ़िर हरिद्वार से लखनऊ, लखनऊ के लिए एक दिन का पूरा समय है, वहां से लखनऊ नरेश के साथ श्रावस्ती जाने का कार्यक्रम है, श्रावस्ती में भगवान बुद्ध ने अपने जीवन का सबसे अधिक समय बिताया था। इस एतिहासिक स्थल को देखे बिना यात्रा अधुरी ही रहेगी। श्रावस्ती से अयोध्या आकर रायपुर के लिए वापसी करनी है। डेढ दिन हरिद्वार में गंगा के किनारे स्वीस कॉटेज का आनंद लिया जाएगा और ॠषिकेश भी घूमा जाएगा। बाबा जी नर्मदा तट पर धूनी रमा रहे हैं, उन्हे कह दिया है कि हरिद्वार पहुंच जाएं। इब तो बाबा जी को मिलना ही पड़ेगा, नहीं तो दंड भरने को तैयार रहें :)। यह यात्रा शांतिकुंज हरिद्वार के आमंत्रण पर हो रही है, वहां महापूर्णाहूति समारोह के युग सृजन महाकूंभ में शामिल होगें। हमारा 117 यात्रियों का दल अब चल पड़ा है भ्रमण पर। वापस आकर यात्रा की कथा सुनाएंगे। इस बीच अगर कोई ब्लागर मित्र सम्पर्क करना चाहते हैं तो फ़ोन पर उपलब्ध हूँ।