गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

ललित डाट कॉम का उदय

मैने इस ब्लॉग पर 15  सितम्बर 2009 मंगलवार हिंदी दिवस से लिखना प्रारंभ किया था. सामाजिक सरोकारों से संबधित विषयों पर एक अलग ब्लाग होना चाहिए. 

यह सोच कर ललित डाट कॉम का उदय हुआ. जिस दिन मैंने  इस पर पहली पोस्ट डाली, उस दिन हिंदी दिवस था. मेरा प्रथम आलेख हिंदी दिवस को ही समर्पित था. 

१५ सितम्बर को इस लेख को कितने पाठकों ने पढ़ा? ये तो मुझे नहीं पता. लेकिन १६ सितम्बर की दो टिप्पणियाँ दिख रही हैं. 

पहली है संगीता पुरी १६ सितम्बर २००९ ६:५७ AM  िबिल्‍कुल सही कहना है आपका .. हिन्‍दी के प्रति आपकी भावना बहुत अच्‍छी लगी Udan Tashtari १६ सितम्बर २००९ ७:०० ऍम सही कहा..सहमत!! 

उस दिन मैने पहली पोस्ट मे लिखा था। इन १०० पोस्टो में मैंने ब्लाग जगत को बड़े करीब से साक्षी भाव से देखा है. यहाँ होती हुयी हलचलों से मैं वाकिफ हुआ. 

ब्लॉग के बुखार को समझने की कोशिश की. जीवन में नए ब्लॉग मित्र बने. सभी से मुझे सहयोग मिला. यह आभासी दुनिया भी वास्तविक जीवन के बड़े करीब लगी. क्योंकि सारे किरदार तो वहीं से आते हैं. कोई अलग दुनिया नहीं है. 

वही दुनिया की अच्छाईयाँ-बुराईयाँ, पक्ष-विपक्ष मैंने यहाँ पाए. कुछ तो सिर्फ इसी में उलझ रहते हैं तो कुछ योगी भाव से सृजन में लगे हैं. हां कुछ युवा- नव जवान साथी हैं जो पूरी  उर्जा के साथ ब्लोगिंग को अंजाम दे रहे हैं. 

मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ और आग्रह करता हूँ. वे लेखन जैसे शुभ और पवित्र कर्म को अहर्निश जारी रखे. ताकि आने वाली पीढ़ी आपको एक आदर्श के रूप में याद रख सके. 
मैंने यहाँ पर बहुत कुछ सीखा. इन 100 दिनों में मैंने बहुत कुछ अनुभव किया. इन 100 पोस्टों में मुझे पढ़ने के लिए लगभग 69451 पाठक आये. 

अभी पोस्ट लिखे जाने तक 613 टिप्पणियाँ प्राप्त हुयी. गूगल में पेज रेंक 3 है. यह सतत लेखन का परिणाम ही है.  

इस अवधि में जिन्होंने मुझे प्रत्यक्ष-और अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग दिया. मैं उनका आभारी हूँ एवं सभी पाठको का अभिनन्दन करता हूँ जिन्होंने मेरे लेखन को पढ़ा और सराहा. 

कुछ विशिष्ट साथी हैं जो निरंतर मेंरा उत्साह वर्धन करते है. उनका उल्लेख एक अलग पोस्ट में करूँगा. सभी को मेरा विनम्र प्रणाम. नूतन वर्ष की हार्दिक शुभ कामनाएं.

बुधवार, 30 दिसंबर 2009

ताला की विलक्षण प्रतिमा

आज हम भारतीय शिल्पकला की चर्चा करते हैं. भारतीय शिल्प में मूर्ति निर्माण की परंपरा बहुत ही प्राचीन काल से चली आ रही है. 

कला इतिहासकारों इन प्रतिमाओं को उनके लक्षण एवं शैलियों के आधार पर विवेचनाएँ प्रस्तुत की हैं किन्तु कभी कभी ऐसी विलक्षण प्रतिमाएं मिल जाती हैं, 

जो पुरातत्व वेत्ताओं  एवं कला इतिहासज्ञों के लिए समस्या बन जाती है. ऐसी ही एक प्रतिमा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के तला गांव में प्राप्त हुई है. इस प्रतिमा को मैं लग-भग 10 बार देख चूका हूँ. बड़ी ही अद्भुत प्रतिमा है.


बिलासपुर से ३० किलो मीटर दूर मनियारी नदी के किनारे अमेरी-कांपा नामक गांव के "ताला" नामक स्थान पर दो भग्न मंदिर हैं. जो देवरानी-जेठानी मंदिर के नाम से प्रसिद्द हैं. 

जेठानी मंदिर अत्यंत ही ख़राब हालत में है, एक पत्थरों के टीले में बदल चूका है. जबकि देवरानी मंदिर अपेक्षाकृत बेहतर हालत में है. 

ये दोनों मंदिर अपनी विशिष्ट कला के कारण देश-विदेश में प्रसिद्द हैं. समय समय पर यहाँ मलबे की सफाई होती रहती है. 

मैंने वहां एक गांव के व्यक्ति से पूछा कि यह पहले किस अवस्था में था? तो उसने बताया कि यहाँ पर पहले मिटटी के बड़े-बड़े ढेर थे. फिर किसी ने इनकी खुदाई की तो इसमें से बड़े-बड़े पत्थरों पर खुदाई किये हुए खम्भे निकले. 

उसके बाद पुरातत्व विभाग ने यहाँ पर खुदाई की और ये मंदिर निकले. भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी डॉ. के.के. चक्रवर्ती  के मार्ग दर्शन में इस स्थान का मलबा सफाई का काम हुआ. जिससे 17  जनवरी 1988 को एक विलक्षण प्रतिमा प्रकाश में आई.

यह  विशाल प्रतिमा 9 फुट ऊँची एवं 5 टन वजनी तथा शिल्प कि दृष्टि से अद्भुत है. 

इसमें शिल्पी ने प्रतिमा के शारीरिक विन्यास में पशु पक्षियों का अद्भुत संयोजन किया है. मूर्ति के सर पर पगड़ी के रूप में लपेटे हुए दो सांप है. नाक और आँखों की भौहों के स्थान पर छिपकिली जैसे प्राणी का अंकन किया गया है, 

मूछें दो मछलियों से बनायीं हैं. जबकि ठोढ़ी का निर्माण केकड़े से किया गया है. कानों को मोर (मयूर) की आकृति से बानाया है. सर के पीछे दोनों तरफ सांप के फेन बनाये हैं. कन्धों को मगर के मुख जैसा बनाया है जिसमे से दोनों भुजाएं निकलती हुयी दिखाई देती हैं.  

शरीर के विभिन्न अंगों में 7 मानव मुखाकृतियों का चित्रण मिलता है. वक्ष स्थल के दोनों ओर से दो छोटी मुखों का चित्रण किया गया है. पेट (उदर) का निर्माण एक बड़े मानव मुख से किया गया है. 

तीनो मुख मूछ युक्त हैं. जांघों के सामने की ओर अंजलिबद्ध दो मुख तथा दोनों पार्श्वों में दो अन्य मुख अंकित है. दो सिंह मुख घुटनों में प्रदर्शित किये गए हैं.  

उर्ध्वाकार लिंग के निर्माण के लिए मुंह निकाले कच्छप (कछुए) का प्रयोग हुआ है. घंटा की आकृति के अंडकोष पिछले पैरों से बने हैं. 

सर्पों का प्रयोग पेट तथा कटिसूत्र (तागड़ी) के लिए किया गया हैं. हाथों के नाख़ून सर्प मुख  जैसे हैं. बांयें पैर के पास एक सर्प का अंकन मिलता हैं. 

इस प्रकार की प्रतिमा देश के किसी भी भाग में नहीं मिली हैं. अभी तक यह नहीं जाना जा सका हैं कि यह प्रतिमा किसकी हैं और इसका निर्माण किसने और क्यों किया? 

यह प्रतिमा पुराविदों के लिए भी एक पहेली बन गई है। फ़िर भी इसे "रुद्र शिव" माना जा रहा है।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

छत्तीगढ़ के लजीज के व्यंजन

खाने का शौक़ीन तो प्रत्येक व्यक्ति होता है. व्यंजन तो सभी को भाते हैं. चले वो किसी भी प्रदेश या देश का रहने वाला हो. एक कहावत भी है कि " किसी के दिल में प्रवेश करने का रास्ता पेट से होकर जाता है. 

अगर आप किसी अजनबी को भी अच्छे व्यंजनों से युक्त भोजन करवा देते हैं. तो वो आपका हो जाता है. 

आज कल बड़ी बड़ी बिजनेश डील भी होटलों में लंच के समय निपटा दी जाती हैं अगर लंच के समय कुछ विवाद रह गया तो वो डीनर टेबल पर स्काच के साथ निपट जाता है.

हमारे छत्तीसगढ़ में भी त्योहारों और उत्सवों के अवसर पर विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाये जाते है. 

गांव में जितने घर होते हैं, उतने प्रकार के व्यंजन होते है. छत्तीसगढ़ी व्यंजनों की अलग पहचान है. 

धान का देश होने के कारण ज्यादातर व्यंजन चावल से ही बनाये जाते हैं. कार्य की सफलता के लिए माथे पर रोली के साथ चावल ही शोभायमान होता है. 

अगर किसी के यहाँ मंगल कार्य है तो उसकी सुचना भी पीले चावल के साथ दी जाती है. मंगल और पवित्रता का द्योतक यही चावल जीवन आधार है. 

फिर इससे बनाये गए व्यंजनों का स्वाद निराला क्यों नहीं होगा? 

यहाँ बहुत ही खुशबूदार चावल होते हैं जिनकी पहचान पुरे विश्व में है. इनकी खुशबु के बारे में बात करते हुए लोग कहते हैं" इंहा भात रान्धबे तो जम्मो मोहल्ला मा महमहा जाही". 

गाया भी जाता है. "बांस के पोंगरी मा भर देहिस चांउर हो, कहर महर महकथे भोजनी के राउर हो" 
ऐसा कहर महर महकने वाला चावल छत्तीसगढ़ में ही होता है. इससे बने पकवानों की खुशबु खाने वालों को आल्हादित करती है.  

चावल की यह सुगंध तो अब रासायनिक उर्वरकों ने उड़ा दी है. लेकिन पकवानों की खुशबु में कोई अंतर नहीं पड़ा है. 

समय समय पर बनने वाले मीठे और नमकीन पकवानों में लाडू, पपची, पीडिया, अईरसा, बबरा, गुलगुला, खाजा, कुसली, रोंठ, खुरमा, कतरा पकुआ, दहरौरी, दूध फरा, बबरा, घारी, चीला, चौसेला, भकोस, फरा, बफौरी, ईढर, ठेठरी खुरमी, बटकर, डुबकी, अपना अलग-अलग स्वाद और रस बिखेरते हैं.

कुछ विशिष्ट अवसरों पर विशेष तरह के व्यंजन जरुर बनते हैं. शादी में छींट के लड्डू अवश्य बनते हैं. इसमें पैसे आदि भरकर बेटी के ससुराल विशेष तौर पर भेजे जाते हैं. 

कुसली पपची सधौरी खिलाने के लिए बनता है. जब लड़की का गर्भ सातवें माह में होता है तो उसे कुसली पपची खिलाई जाती है. 

हरेली में जिसे जेठ तिहार भी कहते हैं बबरा चीला बनता है. तो राखी तीजा में ठेठरी खुरमी, पोला में मीठा खुरमा के आटे की गोली तलकर बैल की पूजा होती है. होली में अईरसा कुसली बनती है.

नया चावल आता है तब चौन्सेला, चीला, फरा, का आनंद लिया जाता है. अभी कल ही हमने चीला का भरपूर आनद लिया. 

टमाटर धनिया मिर्ची की चटनी के साथ. नया गुड आता है तो कतरा पकुआ, दहरौरी अच्छी लगती है. 

सावन में दूध का फरा बनता है. तो भादो में ईढर जिसे हम अरबी कहते हैं उसे छत्तीसगढ़ में कोचई कहा जाता है इसमें जब नए पत्ते निकलते हैं तब उसका ईढर बनाकर खाने में मजा आता है. 

बरा (बड़ा) तो सुख दुःख का साथी है. शादी में भी बरा तो मृत्यु भोज में बरा. पितृ पक्ष में तो पन्द्र दिन प्रत्येक घर में बरा बनाया जाता है, 

कौवों को खिलाया जाता है और खुद भी खाया जाता है. इस तरह हमारे छत्तीसगढ़ में  सभी त्योहारों और ऋतुओं के हिसाब से व्यजन बनाकर खाया जाता है और खिलाया जाता है. 

आपका धान के देश छत्तीसगढ़ में स्वागत है.

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

वन ग्राम करमागढ़ की सांस्कृतिक विरासत

चलते हैं एक एतिहासिक गांव की सैर पर. पश्चिम में विशाल पर्वत, पूर्व में वीरान नदी, दक्षिण में सुन्दर झरना और उत्तर में पर्वतों से घिरा एक छोटा सा आदिवासी बाहुल्य एतिहासिक गांव करमागढ़.  

गांव के बीच में पुरातन कालीन देवी स्थल जिसे मानकेसरी गुडी और गांव से दो किलोमीटर दूर चट्टानी खंडहरों के बीच एक एतिहासिक दर्शनीय स्थल जिसे छत्तीसगढ़ आंचल में उषा कोठी  के नाम से जाना जाता है. 

यहाँ ४०० मीटर लम्बी और २०० मीटर ऊंची विशाल चट्टान आकर्षक प्रतिमाएं तथा अज्ञात लिपियाँ हैं जो विद्वानों की समझ से परे हैं. चट्टान के मध्य में वृत्ताकार चिन्ह हैं जिसके मध्य में श्री कृष्ण की छोटी सी प्रतिमा अद्वितीय है. 

आदिवासियों द्वारा प्रतिवर्ष आदिकाल से गांव की तरक्की के लिए विलक्षण पशुबलि दी जाती है और अनोखे ढंग से पूजा-पाठ किया जाता है.

रायगढ़ जिले से ३० वें किलोमीटर उड़ीसा की सीमा पर ग्राम करमागढ़ है. इस गांव के बुजुर्गों का कहना है कि आश्विन चतुर्दशी की रात छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा अंचल के समस्त देवी-देवता रात १२ बजे गांव में प्रवेश करते है. 

इसी रात गांव के पॉँच प्रतिष्ठित बैगा मानकेसरी गुडी में(मंदिर) में निर्वस्त्र होकर घंटों पूजा-पाठ करते है और एक काले बकरे की बलि चढाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं. 

इसलिए गांव के कोटवार द्वारा पहले से ही मुनादी कर दी जाती है कि आज की रात कोई घर से बाहर नहीं निकलेगा.

दुसरे दिन यानी शरद पूर्णिमा को यहाँ मेला लगता है. जिसमे क्षेत्र की समस्त चौहान बाजा पार्टी यहाँ उपस्थित होती है. 

गांव को दुल्हन की तरह सजाया जाता है. संध्या पॉँच बजे मुख्य बैगा (प्रधान पुजारी) पर देवी सवार होती है. अनेकों बाँझ नारियां यहाँ संतान प्राप्ति की आशा में गुडी के समक्ष माथा टेकती हैं. 

देवी सवार बैगा उनके खुले केश पकड़ कर उठता है तथा कुछ ऐसी महिलाओं को पैर से ठोकर मारता है जिन्हें भविष्य में संतान ना होने का प्रमाण है. 

इसके अलावा अत्यधिक लोग पारिवारिक विपदा निवारण, रोजगार, पदौन्नति व रोग मुक्ति के लिए के लिए मन्नत मांगने दूर-दूर से आते है. 

स्थानीय लोगों का कहना है कि यह परंपरा पुरातन काल से चली आ रही और लोगों को विश्वास और आस्था है. यहाँ आने वालों की सारी मन्नते पूरी होती हैं.

शरद पूर्णिमा के दिन देवी सवार बैगा को सैकड़ों लीटर दूध से नहलाया जाता है. देखा गया है कि प्रत्येक बकरे के धड से बैगा रक्त पान करता है और तीन घंटे तक बैगा पुरे गांव का भ्रमण गाजे-बाजे के साथ करता है. 

हजारों लोग इस पशु बलि तथा देवी सवार बैगा के भ्रमण को देखने एवं कटे बकरे के रक्त से तिलक लगाने में शक्ति का बोध करते हैं. लोग फटे पैरों तथा घावों पर बलि का तजा रक्त लगाते हैं. ताकि रोग मुक्त हो सकें.

करमागढ़ वास्तव में एक वन्य ग्राम है. साँझ होते ही विभिन्न पशुओं की किलकारी, शेर की दहाड़ तथा रंग-बिरंगे चहकते पक्षियों के कलरव से मन मुग्ध हो जाता है. 

यहाँ कभी उछलते-फुदकते खरगोश, दौड़ते-भागते हिरन, किसी पेड के नीचे मंडराते मतवाले भालू, उपद्रवी बहुवर्णीय वानर-दल तथा वर्षा ऋतू में मयूर नृत्य हमेशा देखने मिलता है. 

यहाँ के वीरान जंगल में गांव से ३ किलो मीटर दूर पहाडी,नदी व झरने के मध्य एक विशाल चट्टान पर देवी की आकर्षक प्रतिमा है. 

स्थानीय आदिवासी इस स्थान को करमागढ़ का प्रवेश द्वार और स्थापित देवी को करमागढ़िन के नाम से मानते हैं. बहुत ही रमणीय स्थल है करमा गढ़ छत्तीसगढ़ आंचल का. यहाँ कौन नहीं जाना चाहेगा?  

शनिवार, 26 दिसंबर 2009

बस्तर का प्रसिद्द दशहरा पर्व- हमर छत्तीसगढ़

पुराना साल जा रहा है, नया आने वाला है. इस अवसर पर आपको बस्तर के मशहूर दशहरे की एक सैर कराते हैं चित्रों के माध्यम से आशा है आपको अवश्य ही पसंद आएँगी. तो आप इस दशहरा यात्रा का आनंद लीजिये, 

इस यात्रा प्राम्भ हम बस्तरराज की कुलदेवी माँ दन्तेश्वरी के दर्शन से कर रहे हैं,
इसके साथ ही इस दशहरे के विषय में नीचे कुछ संक्षिप्तजानकारियां भी दी जा रही हैं,आप उसका भी आनंद ले तथा अपनी प्रतिक्रियाओं से टिप्पणी द्वारा मुझे अवगत करावे,
बस्तर दशहरा
की जानकारी चित्रों के साथ थोड़े विस्तार से आप तक पहुचाने की कोशिश है,
१.पाटा जात्रा 
बस्तर के आदिवासी अंचल में लकडियों को पवित्र माना जाता  है, आदिवासी संस्कृति में लकडी का एक विशिष्ट स्थान है,दशहरा के रथ के निर्माण के लिए गोल लकडी (पेड़ के तने) का उपयोग किया जाता है,७५ दिनों तक  मनाये जाने वाले दशहरा त्यौहार का प्रारम्भ "पाटा जात्रा" का अर्थात लकडी पूजा से होता है,इसका लकडी के एक बड़े तने को महल के मंदिर के सिंह द्वार पर लाकर हरेली अमावश्या(जुलाई के मध्य में) पूजा जाता है,जिसे पता यात्रा कहते है,
डेरी गढ़ई

भादो माह के शुक्ल पक्ष के १२ दिन एक लकडी के स्तम्भ को "सीरसार" अर्थात जगदलपुर के टाऊन हाल जो कि दशहरा मनाये जाने के केंद्र स्थल है वहां स्थापित किया जाता है,
कंचन गादी
दशहरा उत्सव की वास्तविक शुरुआत में एक मिरगन कुल की एक कन्या पर देवी के रूप में पूजा की जाती है तथा उसे देवी के सिंघासन पर बैठाकर कर झुलाया जाता है,

कलश  स्थापना 
नवरात्रि के प्रथम दिवस में पवित्र कलश की स्थापना की जाती है

जोगी  बिठाई
इस परमपरा के अंतरगत सिरासर चौक में एक व्यक्ति के बैठने लायक एक गड्ढा खोद कर एक युवा जोगी (पुरोहित) को बैठाया जाता है जो नौ दिन नौ रात तक वहां पर बैठ कर इस समारोह की सफलता के लिए प्रार्थना करता है, उपरोक्त पूजा कार्य क्रम का प्राम्भ मांगुर प्रजाति की मछली की बलि से किया जाता है,
रथ परिक्रमा 
जोगी बिठाई के दुसरे दिन ही रथ परिक्रमा प्रारंभ होती है,पूर्व में १२ चक्के का एक रथ बनाया जाता था, लेकिन वर्त्तमान में दो रथ क्रमश: ४-एवं ८ चक्के के बनाये जाते है, पूलों से सजे ४ चक्के के रथ को "फूल रथ" कहा जाता है, जिसे दुसरे दिन से लेकर सातवें दिन तक हाथों से खिंच कर चलाया जाता है,पूर्व में राजा फूलों की पगड़ी पहन कर इस रथ पर विराजमान होते थे ,वर्तमान में कुलदेवी दन्तेश्वरी का छत्र रथ पर विराजित होता है,  
निशा  जात्रा- 
इसमें रात्रि कालीन उत्सव में प्रकाश युक्त जुलुस इतवारी बाजार से पूजा मंडप तक निकला जाता है,

जोगी  उठाई 
नव रात्रि के नवमे दिन शाम को गड्ढे में बैठाये गए जोगी को परम्परागत पूजन विधि के साथ भेंट देकर धार्मिक उत्साह के साथ उठाया जाता है,
मोली  परघाव- 
महाष्टमी की रात्रि में मौली माता का दन्तेवाडा के दन्तेश्वरी मंदिर से दशहरा उत्सव हेतु विशिष्ट रूप से  आगमन होता है, चन्दन लेपित एवं पुष्प से सज्जित नविन वस्त्र के रूप में आकर जगदलपुर के महल द्वार में स्थित दन्तेश्वरी मंदिर में विराजित होती है, 
भीतर  रैनी-
विजयादशमी वाले दिन से ८ चक्के का रथ चलने को तैयार होता है, इस रथ पर पहले राजा विराजते थे अब माँ दन्तेश्वरी का छत्र विराजता है,तथा ये रथ पूर्व में चले हुए फूल रथ के मार्ग पर ही चलता है,जब यह रथ सीरासार चौक पर पहुचता है तो इसे मुरिया जनजाति के व्यक्ति द्वारा चुरा कर २ किलोमीटर दूर कुम्भदकोट नामक स्थान पर ले जाया जाता है,

बाहर  रैनी  
११ वें दिन कुम्भ्दकोट का राजा नयी फसल के चावल का भोग देवी को चढाकर सबको प्रसाद वितरित करते हैं, और रथ को समारोह पूर्वक मुख्य मार्ग से खींच कर महल के सिंह द्वार तक पुन: लाया जाता है,
कचन  जात्रा- 
समारोह के १२ दिन देवी कंचन को समारोह के सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के उपलक्ष्य में कृतज्ञता ज्ञापित की जाती है,
मुरिया  दरबार  
उसी दिन सीरासार चौक पर मुरिया समुदाय के मुखिया, जनप्रतिनिधि एवं प्रशासक एकत्रित होकर जन कल्याण के विषयों पर चर्चा करते है,
देवी माँ की बिदाई - 
समारोह के १३ दिन मौली माता को शहर के पश्चिमी छोर पर स्थित मौली शिविर में समारोह पूर्वक विदाई दी जाती है, इस अवसर पर अन्य ग्राम एवं स्थान देवताओं को भी परम्परगत रूप से बिदाई दी जाती है, इस प्रकार यह संपूर्ण समारोह सम्पन्न होता है,


(फोटो -डी.डी.सोनी से साभार) 

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2009

सायकिल चलाना जिम्मेदारी का अहसास करना है

सायकिल चलाना सीखने के बाद अब मेरे पंख लग गए थे. कुछ महीनों बाद सायकिल मैं अच्छे से चला सकता था। कभी छोटे भाई को बैठा कर चलाने का प्रयास भी कर लिया करता था।

स्कूल में सबको पता चल गया कि मैं अब सायकिल चलाना सीख गया हूँ, लेकिन मैंने कभी सायकिल सड़क पर नहीं चलाई थी।

हमारे घर के सामने से रायपुर से विशाखापत्तनम नेशनल हाईवे गुजरता है उसपे वाहनों का आवागमन अधिक है, जिसके कारण सड़क पर सायकिल चलाने की अनुमति नहीं मिली थी। 
सायकिल
अभनपुर का बस स्टैंड तिराहा
एक दिन दोपहर में सायकिल लेकर सड़क पर आ गया। घर से बस स्टैंड आधा फर्लांग पर है। सोचा कि बस स्टैंड के तिराहे का एक चक्कर काट कर वापस आया जाए,

मैं सायकिल लेकर सड़क पर पहुंचा और चलानी शुरू की। बस स्टैंड तक सही सलामत पहुँच गया. जैसे ही वापस हो रहा था एक आदमी सामने आ गया,

बहुत कोशिश की मेरे से ब्रेक नहीं लगा दोनों टकरा गए। सायकिल के हैंडिल से उस आदमी की छाती में लगी मैं भी गिर गया।

आदमी छाती पकड़ कर बैठ गया। दोनों उठे एक दुसरे को देखा तो मुझे वो पहचान गया और बोला "सायकिल घर में चलाए करो", मैं घर आ गया।

सायकिल
मेरा स्कूल
हमारे मध्य प्रदेश में पांचवी की बोर्ड परीक्षा होती थी. पढाई जोर शोर से चल रही थी. परीक्षा केंद्र हमारे  घर से लग-भग दो किलो मीटर दूर था। अब वहां परीक्षा देने जाना था।

व्यवस्था हुई कि एक नौकर सायकिल पर लेकर जायेगा और परीक्षा होते तक खड़ा रहेगा, फिर वही वापस लेकर आएगा। लेकिन मैं स्वयं सायकिल लेकर जाना चाहता।

यह प्रस्ताव मैंने दादी को सुनाया और कहा कि मेरी बात पापा जी तक पहुंचा दी जाए। दादी ने मेरी तरफ से वकालत की और उनकी दलीलें काम आई। 
सायकिल
इस तरह से मुझ पर पहली बार विश्वास करके पूरे घर वालों ने सायकिल बाहर ले जाने की छूट दी। एक तरह से जिम्मेदारी का परमिट दिया।

मैं सायकिल लेकर शान से स्कुल गया और मेरे मन में एक जिम्मेदारी का अहसास उस दिन पहली बार हुआ। अब अपने आपको,

सायकिल को, सड़क पर चलने वालों को एवं बड़ी गाड़ियों से खुद को बचाना मेरी जिम्मेदारी थी.

जिस विश्वास के साथ मुझे सायकिल दी गई थी उसे भी टूटने से बचाना था अर्थात सायकिल चलाना चौतरफ़ा जिम्मेदारी थी।

इसलिए मेरे लिए वह सिर्फ लौहे सायकिल ही नहीं एक जिम्मेदारी भी थी जिसे निभाकर घर के लोगों का विश्वास अर्जित करना और बनाए भी रखना था.

गुरुवार, 24 दिसंबर 2009

वो बचपन के दिन और सायकिल का चलाना

बचपन में अपने कदमो से पूरे गांव को नापते दो चार लोगों को सायकिल चलाते हुए देखते थे तो लगता था कि अगर हमें भी सायकिल चलाना आ जाए तो हमारे पैरों में भी चक्के लग जाएँ।

हमारे घर में दो-दो सायकिलें थी और एक रायल इनफिल्ड मोटर सायकिल, एक वैली जीप सब अपनी-अपनी गाड़ियाँ चलाते थे, लेकिन मुझे सायकिल चलाने कोई नही देता था.

चौथी कक्षा में पढता था. पुरजोर कोशिश करता था कि कोई मुझे सायकिल चलानी सिखाये. उस समय सायकिल चलाना भी एक सरकस की कलाकारी से काम नहीं था.

जिस तरह सरकस के करतब को हम दांतों तले उंगली दबा कर चकित होकर देखते थे उसी तरह से लोग उस समय सायकिल चालक को देखते थे.

मैंने भी सायकिल चलाने की जिद पकड़ रखी थी. किसी तरह एक बार हाथ आ जाये बस फिर तो क्या? मैं भी उड़ता ही फिरूंगा किसी फिरंगी की तरह।

हमारी सायकिल हरक्युलिस कम्पनी की २४ इंच की थी. उस समय लोग सायकिल की हिफाजत अपनी जान से भी ज्यादा करते थे. बैठे-बैठे उसे मोड़ते भी नहीं थे. जब सायकिल मोड़ना होता था तो उतरकर उसे पूरी इज्जत बख्शते हुए जमीन से अधर उठा कर मोड़ा-घुमाया जाता था. मेरी इतनी ऊंचाई नहीं थी कि सायकिल को संभाल सकूँ.

लेकिन एक दिन मैं अपने इरादों में कामयाब हो गया. पापा जी कहीं गए हुए थे. उस दिन कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं था जो मुझे रोके टोके. बस मैंने धीरे से सायकिल उठाई और हैंडल पकड़ कर धीरे-धीरे बाहर निकाला,

हमारा घर चार एकड़ के प्लाट में है. और बाउंड्री के अन्दर ही बहुत जगह है सायकिल चलाने के लिए. सड़क और मैदान में जाने की जरुरत ही नहीं थी. बस सायकिल मिल जाने से कल्पनाओं को पंख मिल गए और मैं उड़ान के लिए तैयार.

लेकिन जैसे ही एक हाथ से सीट और एक हाथ से हैंडिल पकड कर सायकिल के पैडल पर पैर रखा. हो गया "धडाम". आवाज सुन कर नौकर दौड़े. मैं सायकिल के नीचे दबा हुआ था. उन्होंने निकाला. सायकिल उठाई, देखा तो सायकिल का एक पैडल भी मूड गया था.

अब वो चैन कव्हर में फँस गया था. बस मेरी तो हवा बंद हो गई. अब पापाजी को पता चल जायेगा और आज डांट पक्की है. मेरे घुटने फुट गए थे. खून रिस रहा था.

दादी ने देखा तो दवाई लगायी, और डांट लगायी अब फिर ऐसा मत करना. लेकिन मुझे लगता था उस दिन वो भीतर ही भीतर खुश थी कि मेरा पोता इतना बड़ा हो गया कि सायकिल चलाने के लिए हाथ मार रहा है.

मैं सायकिल प्रेम में डूब चुका था अब वो सायकिल मुझे सपने में भी दिखती थी और मैं उसे चलाने की कोशिश करता था.

जब यह कांड पापाजी को पता चला तो उन्होंने मुझे डांट पिलाई और कहा की मत चलाना नहीं तो किसी दिन गिरकर हाथ और टूट जायेंगे. मैंने सर हिला दिया.

लेकिन पापा जी को पता था कि ये भले ही अभी सर हिला रहा है लेकिन मानेगा नहीं मौका देखकर फिर हाथ आजमाएगा. तो उन्होंने कहा कि तुम जोईधा (हमारा नौकर) को साथ लेकर चलाना.

लेकिन स्कुल का गृहकार्य करने के बाद पूरा एक घंटा मिलेगा. फिर क्या था? रोज स्कुल से आते ही खाना खाकर गृहकार्य करता और फिर जोईधा को साथ लेकर प्रशिक्षण शुरू हो जाता.

जोईधा सायकिल का हैंडिल संभालता और मै कैंची (क्रास) पैडल मारता. अब रोज ऐसे ही सायकिल चलाते. लेकिन मुझे तो सायकिल का पूरा नियंत्रण अपने हाथ में लेना था. जब नियंत्रण अपने हाथ में होगा तो उसका मजा ही अलग है. इस तरह लग-भग 6 महीने निकल गए. फिर मैंने एक दिन चुपके से सायकिल निकाली और कैंची चलाने के लिए फ्रेम के बीच से पैर डाल पैडल मारा. वह फिर क्या था? मैंने स्वयं के नियंत्रण में सायकिल 50 फुट तक चलाई, उसके बाद फिर "धडाम".

लेकिन उस दिन 50 फुट जो सायकिल पहली बार मैंने स्वयं के नियंत्रण में चलाई उस रोमांच का वर्णन करने लिए आज भी मेरे पास शब्द नहीं है. बहुत खुश था मै. क्योंकि जो गुरूजी मुझे पढ़ाते थे उन्हें सायकिल चलाना नहीं आता था और मैं सीख गया था. अपनी ये ख़ुशी मैं सबके साथ बाँटना चाहता था. दोस्तों को बताना चाहता था कि मैंने आज सायकिल चलाई. फिर सोचता था मुझे सायकिल चलते हुए किस किस ने देखा? जो मुझे शाबासी देंगे कि आज तुमने सायकिल चला ली. नीलआर्मस्ट्रांग ने जो ख़ुशी चाँद की धरती पर पैर रखने पर पाई होगी वही ख़ुशी मैं उस दिन सायकिल चला कर पाई थी.

मैंने सभी को ख़ुशी से बताया कि अब सायकिल चला लेता हूँ. लेकिन चलाते हुए सिर्फ मेरे छोटे भाई ने ही देखा था. दुसरे दिन फिर सभी को इकट्ठा कर मैंने सबके सामने 200 फुट सायकिल चलायी. अब मैंने जता दिया था कि मै अब सायकिल चलाना सीख गया हूँ .

आज सायकिल ही घरों से गायब हो गयी है. सायकिल जगह मोटर सायकिल ने ले ली एक एक घर में चार-चार मोटर सायकिलें है. लेकिन जो आनंद सायकिल चलाने का था वो किसी और में कहाँ?

बुधवार, 23 दिसंबर 2009

रात-रात भर दारू और पैसे बांटे गए मतदान के पूर्व

हमारे यहाँ स्थानीय निकायों के चुनाव हो रहे हैं. चुनाव आयोग के निर्देशों के बाद भी उसके आदेशों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं. जैसे हमेशा होता रहा हैं नोट और दारू के प्रलोभन खूब चले हैं. 

प्रत्याशियों ने हद ही कर दी इस समय. रात-रात भर दारू और पैसे बांटे गए मतदान अपने पक्ष में करवाने के लिए. शायद कुछ ही लोग बचे होंगे जिन्होंने दारू नहीं पी होगी. 

इस दारू ने कहर ढाया है. १० दिन के चुनाव प्रचार के समय का शराब बिक्री का आंकड़ा उठाया जाये तो जितनी साल भर में नहीं बिकी होगी उतनी १० दिनों में बिक गई. 

मतदान के पहले की जिस रात को नेता लोग क़त्ल की रात कहते हैं वह रात वास्तविक में दो लोगों के लिए क़त्ल की रात ही बनकर आई. दारू ने कहर ढाया, जो दारू बांटी गई थी उसके घातक परिणाम निकल कर सामने आये.

एक व्यक्ति ने शराब पीकर नशे में अपनी पत्नी को फावड़े से काट कर उसकी नृशंस हत्या कर डाली. इस हत्या से पूरा गांव स्तब्ध है. 

मृतका की छोटी लड़की ने बताया की उसके बाप ने ही उसकी माँ से झगडा करके उसे फावड़े से काट डाला और उसके हाथ पैर अलग कर डाले.

एक व्यक्ति ने मुफ्त की इतनी ज्यादा दारू पी ली कि सुबह वो फिर उठ ही नहीं सका और उसकी मौत हो गई. इस तरह दो अर्थियां इस चुनाव में उठी. दो परिवार उजड़ गए. अब उनके बच्चों का पालन पोषण कौन करेगा? 

दारू बाँटने वाले प्रत्याशी या ढील देने वाली सरकार. रात को जब मैं गांव में घुमने निकला तो कुछ लोग इस ठण्ड के मौसम में सड़क पर पड़े थे. उन्होंने इतनी दारू पी डाली थी कि घर तक नहीं पहुँचना मुस्किल हो रहा था. 

जब सभी प्रत्याशियों की दारू मिल रही है तो पीने क्यों कसर रखी जाये. जब मुफ्त में बांटी जा रही है. तो लेने वाले क्यों छोड़ें? 

चुनाव आयोग को शराब के वेयर हॉउस से चुनाव के दौरान उठने वाली दारू पर नियंत्रण रखना चाहिए. एक तरफ फैक्ट्रियों से दारू निकलते रहती है, दूसरी तरफ कहा जाता है कि चुनाव आयोग ने शिकंजा कस रखा है, सब कुछ नियंत्रण में है. 

अगर सब कुछ नियंत्रण में होता तो इस तरह की घटनाएँ कैसे घट जाती जो लोकतंत्र को शर्मशार कर रही हैं. जब तक नोट और दारू से वोट ख़रीदे जाते रहेंगे और लोग बिकते रहेंगे तब तक लोग ऐसे ही मरते रहेंगे और ये दारू-रुपया-साड़ी आदि प्रलोभनों के दम पर नेता बनकर जनता का खून चूसते रहेंगे.

मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

कबूतरों ने दिया गौशाला के लिए लाखों का दान

हमारे देश में कबूतरों को दाना चुगाना बड़ा पुण्य का काम समझा जाता है. कुछ लोग नित्य ही नियम से कबूतरों को दाना डालते हैं और उनकी गुटर गुं सुनते हैं. लेकिन मैंने कभी नहीं सोचा था कि कबूतरों का बैंक में भी एकाउंट होगा, उनकी जमीन जायदाद होगी और कबूतर भी दान देने की हैसियत रखेंगे वो भी लाखों में.

यह संभव हो सका है राजस्थान के जोधपुर जिले के आसोप गांव में. आसोप गांव के वासी कई वर्षों से कबूतरों को दाना चुगा रहे हैं. दाना चुगाते-चुगाते इन्हें कबूतरों से इतना प्रेम हो गया कि किसी ने कबूतरों के लिए जमीन दान में दे दी तो किसी ने कबूतरों के दाना चुगने के लिए चबूतरे बना दिये. इस काम में गांव वालों ने बढ़-चढ़ कर अपनी जिम्मेदारी निभाई. 

ग्राम वासियों ने मिलकर एक "कबुतरान कमेटी" का गठन कर लिया. इस कमेटी के पास कबूतरों के नाम पर 365 बीघा जमीन भी है. जिसकी कीमत करोड़ों में है. कमेटी की ओर से कबूतरों ने अपने नाम से बैंक में खाता भी खुलवा दिया है. जिसमे लग-भग 20  लाख रुपया भी जमा है.

आसोप गांव में गौ पालन के लिए एक गौशाला की आवश्यकता भी महसूस की जा रही थी. गांववासियों ने 40 लाख की लागत से  एक गौशाला बनाने का निर्णय लिया. जिसमे सभी गांव वालों ने अपनी अपनी हैसियत से दान दिया. अब कबूतर भी कहाँ पीछे रहते बात गौ सेवा की हो रही थी. कबूतरों ने भी अपने बैंक खाते से 10  लाख रुपया गौशाला निर्माण में दान कर दिया. 

इस तरह एक पशु-पक्षी प्रेम की अनूठी मिशाल देखने मिली. आज मंहगाई के दौर में एक परिवार का भरण-पोषण होना मुस्किल हो गया है. उस दौर में पशु पक्षियों के संरक्षण के लिए आसोप गांव के निवासियों द्वारा उठाये गए कदम मेरा प्रणाम.

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

इस बीमारी की कोई दवा नहीं

आज कल नई-नई बीमारियाँ आ रही हैं और वैज्ञानिक उनका तोड़ भी निकालने में लगे हुए हैं. बीमारी की पहचान होती है फिर उसका नामकरण किया जाता है. उसके बाद बीमारी को ठीक करने के लिए दवाईयों की खोज भी की जाती है. 

लेकिन एक बीमारी ऐसी है जिसका नामकरण तो हो गया लेकिन उसकी दवाई अभी तक नहीं ढूंढ़ सके हैं. उसका नाम है "छपास रोग". बस एक बार किसी तरह अखबार या पत्रिका में नाम और फोटो छप जाये फिर तो लोग तरह-तरह के तरीके निकाल कर किसी तरह बस छपना चाहते हैं.

नेता लोगों का छपना अलग तरह का होता है और साहित्यकार, कहानीकार, कवियों का अलग तरह का. यह छपास का रोग तन को भी लग जाता है और मन को भी.

अभी पिछले दिनों की बात है, एक बड़े नेता चुनाव में खड़े होने के लिए परचा भरने अपने लाव-लश्कर के साथ निर्वाचन अधिकारी के सामने प्रस्तुत हुए और परचा भरा.खूब फोटुयें ली गई और अख़बारों में भी छापी गई.

नेताजी का एक चमचा हमारे मोहल्ले में भी रहता था. वह सुबह-सुबह अख़बार लेकर मेरे पास आया और बोला भैया- आज मेरी फोटो अखबार में छपी है आपने देखा क्या? 

मैंने कहा- पूरा अखबार तो चाट लिया तुम्हारी फोटो कहीं नहीं दिखी नेताजी के साथ. तो उसने कहा-देखो मैं दिखाता हूँ आपने ठीक से नही देखा. उसने मुझे वो फोटो दिखाई तो समझ में आया कि एक अदद फोटो के लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ती है. फोटो में नेताजी अपने समर्थकों से घिरे हुए थे. धक्का मुक्की जैसा माहोल दिख रहा था,.

उस भीड़ में नेता जी के चमचे ने लोगों के बीच से अपना एक हाथ निकाल कर "वी" का चिन्ह बना रखा था और हाथ के सिवा फोटो में उसके शरीर का कोई अंग नहीं दिख रहा था. उसने कहा भैया फोटो में जो "वी" बनाया हुआ हाथ दिख रहा है. वो मेरा ही है. मैंने कहा बहुत ही शानदार फोटो छपी है भाई तुम्हारी. बधाई हो. तुमने तो मोहल्ले की नाक ही बचा ली, कम से कम हाथ तो छप गया. 

अभी भी तुम्हे कितने मायूस लोग मिलेंगे जिनका कुछ भी नहीं छपा होगा. अगर नेता जी जीत गए तो भाई तुम्हारी तो पौ बारह हो जाएगी क्योंकि  सबसे पहले विजय का इशारा तुमने ही किया था और  सबूत के लिए अख़बार भी है तुम्हारे पास.

इसी चुनाव में एक बड़े फ़िल्मी अभिनेता भी चुनाव प्रचार में आये थे, हमारे मोहल्ले के नेता जी भी जोर शोर से प्रचार में लगे थे. दिन भर कलफ वाला कुरता पैजामा लगाये, मंच बनवाने के कार्य में लगे रहे. 

जब शाम को अभिनेता आये तो वो भी धक्का मुक्की करके मंच पर चढ़ गए. जैसे है कैमरे के फ्लेश चमकने लगे, वो धीरे से वरिष्ठों के बीच जगह बनाते हुए अभिनेता के पास पहुँच गए जैसे ही उनकी फोटो खींचने वाली थी वैसे ही अभिनेता ने अपना हाथ घुमा दिया. नेता जी धक्का खा कर गिर गए मंच के नीचे. लोगों दौड़ कर उठाया, अस्पताल पहुँचाया.

अस्पताल ले जाने पर पता चला कि उनकी एक टांग टूट गई है. अब अस्पताल में पड़े थे खूंटी पर टांग लटकाए. बात मोहल्ले की थी हम भी उनका दर्द बाँटने, हमदर्दी दिखाने अस्पताल पहुचे. जाते ही उन्होंने अखबार निकाला और खुश होते हुए बोले- भैया देखो हमारी फोटू छपी है. हमने अख़बार देखा तो बेड पर टांग लटकाए हुए उनकी फोटो छपी थी,  उनके चेहरे पर बड़ा ही संतुष्टि का भाव था. चलो आज पूरी फोटो तो छपी, टांग तुडवाई तो क्या हुआ फिर जुड़ जाएगी. 

तो भैया छपास का रोग बहुत ही भयानक है एक बार किसी को लगा दो तो जिन्दगी भर यह बीमारी नहीं जाती और तो और राम-नाम सत्य होने के बाद भी अख़बार में फोटो छप ही जाती है जिससे मृतात्मा को शांति मिलती है. अगर नहीं छपी तो आत्मा वहीं प्रेस के पास चक्कर काटते रहती है. छपास का रोग छूत की बीमारी है. जो स्वयं लगती नहीं है. लगायी जाती है. 

एक बार अखबार में किसी तरह पहली बार फोटो या नाम छप जाये उसके बाद एक नया रोगी तैयार हो जाता है. जब तक किसी तरह सप्ताह में एक बार या दो बार नाम नहीं छपे तो व्याकुलता बढ़ जाती है. इसलिए छपना जरुरी हो जाता है. चाहे इसके लिए लात-घूंसे खाने पड़े या टांग तुडवानी पड़े.  आज तक इस छूतहा रोग की कोई दवाई नहीं मिली है. 

रविवार, 20 दिसंबर 2009

अवधिया जी की चार सीखें 4 D

धान के देश में हमने जन्म लिया, हमारे पूर्वजों की जन्म भूमि और कर्म भूमि धान का देश ही रहा, 

हम छत्तीसगढ़ महतारी की गोद में खेल कर बड़े हुए और उसका स्नेह पा रहे हैं. अपने को भाग्यशाली मान रहे हैं. 

जब ब्लॉग पर हमने एक दिन "धान के देश में"  देखा तो समझ गए कि ये तो हमारे सहोदर ही होंगे और उनसे मिलने की जुगत लगाने लगे. 

रायपुर में अवधिया पारा है और मैं भी कुछ अवधिया लोंगो को जानता हूँ ,तो सोचा था एक दिन हमारी मुलाकात जी.के. अवधिया जी से अवश्य ही हो जाएगी. 

एक दिन मैंने अवधिया जी को मेल किया और अपना मोबाइल नंबर दिया. तो अवधिया जी ने तुरंत फोन लगाया, हाँ महाराज ! मैं अवधिया बोलत हंव". अवधिया जी से उस दिन बात करके बड़ा आनंद आया. 

फिर एक दिन हमारा मिलना तय हो गया. हमारी मुलाकात उस दिन की सिर्फ २० मिनट की रही क्योंकि मुझे उस दिन यात्रा पर जाना था और इस बीच  मेरे पास २० मिनट का समय ही था. फिर मिलने का वादा करके मैं अपने सफ़र पर चल पड़ा. 

अभी कुछ दिन पहले हम पुरे तीन घंटे बैठे और ब्लोगिंग के सभी पहलुओं पर  चर्चा हुई . अवधिया जी एक योगी की तरह ब्लॉग जगत की सेवा में लगे हैं. उन्होंने मुझे बहुत प्रभावित किया, उनका लेखन तो सबको प्रभावित करता है. 
मैं रोज लगभग 60 -70 ब्लॉग तो पढ़ता ही हूँ. लेकिन अवधिया जी के लेखन की बात ही कुछ और है. एक सरल सौम्य और शानदार व्यक्तित्व के स्वामी अवधिया जी सुबह 9  बजे से कंप्यूटर देव के सामने अगर बत्ती लगा कर बैठते हैं और रात ८ बजे तक लगे रहते हैं लेखन कार्य में, 

एक साधक की तरह. गूगल बाबा की सभी हरकतों और नस नाड़ियों के जानकर वैद्य हैं और हमेशा एक ही चिंतन रहता है कि ब्लॉग से कमाई कैसे हो? ब्लॉग से कमाई के सारे रास्ते तलाश करते रहते हैं. मेरे वहां पहुँचने पर उन्होंने कई गुरु मंत्र दिये. 

फिर मेरा उनसे विदा लेने का समय आ गया था. क्योंकि जिस कार्य को अधुरा छोड़ कर आया था उसे पूरा करने का समय आ गया था. अवधिया जी से काफी चर्चाएँ हुयी जिनकी चर्चा मैं बाद में करूँगा. आज उनका एक गुरु मंत्र आपके लिए भी छोड़ रहा हूँ.

चलते चलते
अवधिया जी मुझे बताया कि पीने के लिए चार चीजों का ध्यान रखना जरुरी है.
जिसे उन होने  फोर- डी कह कर सम्बोधित किया.
१. ड्रिंक- उत्तम क्वालिटी का हो
२.डाल्युट- पानी सोडा सही मात्र में होना चाहिए.
३.ड्यूरेशन- पीने के दौरान एक सिप और दूसरी सिप के बीच में अन्तराल होना चाहिए.
४.डाईट- जब पी लो, तो खाना भी डट कर होना चाहिए.
अगर इस नियम कायदे से चला जाये तो  पीना हानि कारक नहीं है. 

बुधवार, 16 दिसंबर 2009

एलियन से फोन पर बात चीत : सत्य घटना

आज तो हमारे साथ गजब ही हो गया. एलियन से बात  गई, लोग सोचते हैं कि  एलियन परग्रही हैं, उनसे बात नहीं हो सकती, परन्तु मेरी एलियन से बात हुई, यह सत्य घटना है. सुबह योगेन्द्र मौदगिल जी से फोन पर बतिया रहे थे. बड़ा मजा आ रहा था. एक से एक किस्से निकलते जा रहे थे और हंसी के ठहाके फोन पर ही लग रहे थे.  

सुबह सुबह हास्य टानिक एवं विटामिन का सेवन हो रहा रहा. मुझे ऐसा लगा कि बचपन में मेले के बिछड़े हुए किसी भाई से मुलाकात हो गई है. बड़ा आनंद का समा बंधा हुआ था. इस मुलाकात का जिक्र तो फिर करेंगे.

जैसे ही मैंने फोन बंद किया और वैसे ही एक काल और आई, 

फोन नंबर मुझे तो कहीं बाहर का लगा, 

उठाया तो आवाज आई "ललित भाई नम्बर देख रहे हैं क्या? 
कहाँ का है? 

आवाज मेरी समझ में नहीं आई. मुझे लगा कि हमारे एक मित्र विनोद गुप्ता जी का है, जो अभी सचिवालय में विशेष सचिव है. 

योगेन्द्र जी से बात होने के बाद मैं भी बड़े हलके मजाक के मूड में था, सोचा कि विनोद गुप्ता जी किसी नई कंपनी के नंबर से मजे ले रहे है. 

तो मैंने कहा कि "लगता है अन्तरिक्ष का नंबर है किसी का."

तो फोन में आवाज आई, "अन्तरिक्ष में किसको किसको जानते हैं?"

मैंने कहा "अन्तरिक्ष क्या पूरा ब्रह्माण्ड हमको जानता है."

बस फोन पे आवाज आई "अन्तरिक्ष से ही बोल रहा हूं."

अब मैं चक्कर में पड़ गया और मेरी तो पुतली घूम गई के आज तो भाई एलियन का फोन आ गया, और अब इनकी निगाह मेरे गांव पर पड़ गई, एकाध दिन में यु ऍफ़ ओ (उड़न तश्तरी)यहीं उतरने वाला. अब क्या होगा? बस अब तो वाट लग गई. 

दिसम्बर 2012 का महाप्रलय तो मेरे लिए 16 दिसंबर 2009 में ही आ गया. कुछ दिन और जी लेते दोस्तों के साथ खा पी के मौज मना लेते, भले ही फिर चाहे कुछ भी हो जाये. ऐसे सोच रहा था. 

तभी फोन में आवाज आई "पहचाना"? 

अब मैं पहचानने की कोशिश करने लगा कि "ये तो भाई कोई जानकर आदमी है. जो मौज ले रहा है. ऐसी स्थिति में कह भी नहीं सकता था कि नहीं पहचान पाया यार जरा नाम तो बताओ? 

फिर उधर से आवाज आई "ललित भाई मैं समीर लाल बोल रहा हूँ." 

क्या बताऊँ ? जिस कुर्सी पे मैं बैठा वो ही उछलने वाली थी. बच गया, 

"हाँ कहिये समीर भाई क्या हाल चाल है?"

ऐसा लगा कि कहीं लाखों चिराग लाल उठे हैं. एक रौशनी का सैलाब सा आ गया. 

समीर भाई ने कहा कि "मैं मार्च अप्रेल में आ रहा हूँ. अगर हो सका तो फरवरी में भी पहुँच सकता हूँ." 

फिर कुछ बातें और हुई, उन्होंने राजकुमार ग्वालानी जी का नंबर लिया मेरे से और उनसे बात करने निकल पड़े. 

हम तो बहुत खुश हैं कि अब हमारे गांव में भी उड़न तश्तरी लैंड करेगी और गांव के लोग भी देख पाएंगे. उड़न तश्तरी कैसी होती है? अब तक तो सिर्फ नाम ही सुना था. "समीर भाई शुक्रिया" समझाना कि ये कविता आपको  बुलाने के  लिए पुकार है. 

इसी ख़ुशी में हमारे ब्लॉग ने भी नया चोला पहन लिया पुराना उतार कर, कैसा लगा बताएं?
 ओ!!!! मेरे परदेशी सजना
लौट के आ घर दूर नही
बाट जोह रही राह है तेरी
आ जा अब तू जरुर यहीं

बालकपन का भोला बचपन
रह-रह याद दिलाता है
गांव पार का बुढा बरगद
तुझको रोज बुलाता है

खेलकूद कर जिस पर तुने
यौवन पाया जरुर यहीं
ओ!!!!मेरे परदेशी सजना.....

पनघट की जिस राह चला तू
उसकी याद सताएगी
चंदा की पायल की छम-छम
प्रीत के गीत सुनाएगी

पंख फैलाये नाचेंगे तेरे
चारों ओर मोर वही
ओ!!!मेरे परदेशी सजना........

आए बसंत तो सुमन खिलेंगे
पवन झकोरे खूब चलेंगे
महकाए जो तुझे हमेशा
मधुर सुवासित समीर बहेंगे

खेतों की विकल क्यारी की 
तुझे याद आएगी जरुर कहीं
ओ!!!! मेरे परदेशी सजना........

वह माँ के आँचल की छाया
जिसमे छिपकर सो जाता था
वही पुराना टुटा छप्पर
जहाँ सपनों में खो जाता था

मधुर सुरीली माँ की लोरी
तुझे तडफाएगी जरुर कहीं
ओ!!!!मेरे परदेशी सजना
लौट के आ घर दूर नही..  

मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

अजमेरे में बचपन के मित्र से सुखद मिलन

बचपन का मित्रबचपन में जब हम पढ़ते थे तो एक मेरा दोस्त था. जो पहली क्लास से ही मेरे साथ पढ़ता था. 

हम ज्यादातर समय एक दुसरे के साथ ही गुजारते थे. एक साथ पेंटिंग करते थे. हाथी, घोडा, गिलहरी और भी पुस्तकों में जितने भी चित्र दिए होते थे सभी बनाते थे. 

दोनों को ही पेंटिंग का बड़ा शौक था. गांव के स्कुल में पढ़ते थे तो वहां सरकारी स्कुल में पेंटिंग सिखाने जैसी कोई क्लास नहीं होती थी और गुरूजी लोग सिखाते भी नहीं थे. 

मेरे उस दोस्त का नाम चंद्रशेखर है.आठवीं पास करने के बाद उनका परिवार अजमेर चला गया. फिर हम अलग हो गये. 

अब अजमेर का नाम सुना था लेकिन कहाँ है? यह पता नहीं था. समय बीतता गया. कैलेण्डर पर धूल चढ़ती रही. पुरानी यादों पर धुल की परत जम गई और मैं भी भूल गया. 

एक साल पहले मेरा अजमेर जाने का कार्यक्रम बना. तब मुझे याद आया कि यहाँ तो मेरा बचपन का दोस्त भी रहता है. अगर उसका पता या फोन नंबर मिल जाए तो उससे भी मिल लेता, 

29  साल बीत गए मिले हुए, अगर मिल भी गए तो एक दुसरे को पहचानेंगे कैसे? 

पहचानना तो बाद में देखा जायेगा. पहले मिल तो जाये. 

अजमेर के एक साहित्यकार हैं अमरचंद जी वो मुझे दिल्ली में मिले थे. उनका नंबर था मेरे पास, मैंने उन्हें फोन लगाया और चंद्रशेखर को ढूंढने में मदद करने को कहा. तो अमरचंद जी कहा कि इतना बड़ा अजमेर हैं उसे कैसे ढूंढेंगे? 

चलो फिर भी कोशिश करते है. 

अमरचंद जी को पुरे एक साल फोन लगाता रहा. वो भी ढूंढते रहे. पिछली दीवाली से पहले धन तेरस को उनका फोन आया और उन्होंने मुझे चंद्रशेखर के पापा का नंबर दिया. 

मैं बहुत खुश हो गया . अमरचंद जी ने फूस में से सुई ढूंढ़ कर दी, मैंने उन्हें बहुत धन्यवाद दिया. चंद्रशेखर के पापा से मेरी बात हुई, उन्होंने पहचान लिया. और फिर चंद्रशेखर का नंबर दिया. 

मेरी उससे 29 साल बाद बात हो रही थी. उसके बाद मै देवउठनी एकादशी से पहले ही सपरिवार अजमेर पहुँच गया. उसने मुझे कहा कि स्टेशन पर तेरे को कैसे पह्चानुगा? 

मैं बोला- तू आ जाना फिर मैं पहचान लूँगा. और वह स्टेशन पर आया मैंने पहचान लिया. ये हम मित्रों का मिलन था. 29 साल बाद बचपन के मित्र से मिलना कितना सुखद होता है? 

सोमवार, 14 दिसंबर 2009

माया सभ्यता के कैलेंडर का महाप्रलय

महाप्रलयमहाप्रलय होने वाला है, दुनिया खत्म हो जाएगी। लोग बाग चिल्ला रहे हैं टी.वी. चैनलों में लगातार, फिल्मे बन रही है, 

इलेक्ट्रानिक मिडिया और प्रिंट मिडिया भी प्रमुखता से खबरे छाप रहा है. "अब दिसम्बर २०१२ में महाप्रलय होने वाला है?" 

इस खबर को बड़े ही डरावने तरीके के प्रस्तुत किया जा रहा है. लोग खबरें देख देख कर आशंकित हैं कि "क्या होगा २०१२ में'

 इससे पहले भी कई बार महाप्रलय की सुचना जारी हो चुकी है, लेकिन महाप्रलय नहीं आया. एक बार पहले भी महाप्रलय की स्थिति बनी थी, 

शायद १९८० में जब "स्काईलेब" नामक प्रयोग शाला पृथ्वी पर गिरने वाली थी. लोग रात-रात भर जागते थे कि कहीं उनके मोहल्ले और मकान पर ही ना गिर जाये. 

आदिवासी पिछड़े अंचलो में लोग रोज दारू और मुर्गा की पार्टी कर रहे थे, जमीन जायदाद और घर बेचकर, जब दुनिया ही ख़तम होगी तो क्या धन सम्पत्ति लेकर तो नहीं जाना है. 

यहीं खा पीकर ख़त्म किया जाये. बस फिर शुरू हो गया दौर बेच-बेच कर खाने पीने का. जब स्काईलेब गिर गया और उसके बाद की स्थिति कितनी ख़राब हुई? ये उस समय देखने वाले ही बता सकते हैं.

अब भी यही होने वाला है, लोगों को डराया जा रहा है. महाप्रलय के नाम पर, 

एक फिल्म भी आ गयी है. माया सभ्यता का हवाला देकर "दिसम्बर २०१२", महाप्रलय भले ही आए या ना आए  लेकिन ये फिल्म बनाने वाले की तिजोरी में नोटों का प्रलय जरुर आ जायेगा. 

टी.वी. चैनल वाले टी.आर.पी. की बाढ़ ला रहे हैं. जबकि ऐसा कुछ नहीं होने वाला.ये कहानी फ़िल्मी फंताशी के आलावा कुछ नहीं है.

इस प्रलय के पहले एक महाप्रलय अवश्य आ चूका है "वह है बेलगाम महंगाई" इस प्रलय से बचने का रास्ता कोई नही निकाल रहा है. 

"सरकार भी शतुरमुर्ग की तरह रेत में सर गडाए खड़ी है" महंगाई काम करने का रास्ता कोई नहीं ढूंढ़ रहा है.

 दिसंबर २०१२ वाला महाप्रलय चाहे ना आये लेकिन इस महंगाई के महा प्रलय में बहुत कुछ तबाह होने वाला है. ये किसी को नही दिख रहा है. 

महंगाई के महाप्रलय से बचने का रास्ता अवश्य ढूँढना चाहिए. अन्यथा बहुत देर हो जाएगी/

रविवार, 13 दिसंबर 2009

भारतीय इतिहास का काल दिन 13 दिसम्बर

मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती हैं, जिन्हें वह चाह कर भी नहीं भूला पाता. इन घटनाओं की छवि मस्तिष्क में स्थायी रूप से जगह बना लेती हैं और जीवन भर याद रहती हैं. 

ऐसी ही एक घटना मेरे साथ भी घटी थी. 13  दिसंबर का वह दिन आज भी मुझे याद है. 

इसके कुछ दिन पहले भाटापारा निवासी नरेश शर्मा ने मुझे कहा कि दिल्ली चलना है. उसके जीजाजी के ट्रांसफर का काम था. नीतिश जी जानते हैं, यदि आप कह देंगे तो जीजाजी की समस्या को देखते हुए उनका ट्रांसफर हो जाएगा. 

मैंने उनसे मिलने का समय लिया, तो पता चला कि वो १३ को दिल्ली में रहेंगे, अब उनसे निवेदन करना हमारा काम था, सही लगा तो ट्रांसफर हो ही जायेगा. 

12 को नरेश और मैं गोंडवाना एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए रायपुर से निकले, दुसरे दिन जब दिल्ली पहुचे तो बड़ी ठण्ड थी, कोहरा छाया हुआ था. 

सबसे पहले हम अपने होटल पहाड़गंज में पहुंचे. स्नान करने के पश्चात् नरेश ने कहा कि उसे संसद भवन देखना है. मैंने कहा चल दिखा देता हूँ, बाद में नीतिश जी से मिल लेंगे. 

अब हम ऑटो करके संसद भवन के पास पहुंचे. पैदल चलते-चलते. सामने से गुजरते हुए निकले तभी अचानक कुछ भगदड़ सी होने लगी खाकी वर्दी वाले सब हरकत में आ गये थे. 

मुझे लगा कि कुछ अनहोनी घट रही है. अब अचानक कुछ घट जाये नए शहर में तो सर छुपाना भी मुस्किल हो जाता है. हम लोग गोल चक्कर से जल्दी जल्दी यु.एन.आई. के आफिस तक पहुंचे. तभी गोलियां चलने की आवाज आने लग गयी थी. 

हम लोग वी.पी. हॉउस के पास यु.एन.आई पहुँच गए. नए शहर में आदमी सबसे पहले अपनी सुरक्षा देखता है, उसके बाद खाना और समाचार. इसके हिसाब से यु.एन.आई का आफिस सुरक्षित था. क्योंकि वहां पर कैंटीन भी थी. 

जब हम पहुंचे तो पता नहीं था क्या हो रहा है. फिर किसी ने कहा की संसद भवन में कोई घुस गया है और बम फोड़ रहा है. गोली चला रहा है. 

नरेश बोला कि अब हम फँस गए. मैंने कहा कि जल्दी से पेट भर नाश्ता कर ले बाद में फिर मिले या ना मिले. कम से कम पेट तो भरा रहेगा, शाम तक के लिए. इस बीच हमने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया. और उसके बाद मेरा मोबाईल बजने लग गया, 

उस समय दिल्ली में रोमिंग के २५ या २८ रूपये मिनट रोमिंग चार्ज लगता था. मित्रों के फोन आने शुरू हो गये, एक घंटे में ही मेरा 1000 बैलेंस ख़तम होगया.मैंने सुबह ही होटल से निकलते हुए रिचार्ज करवाया था. 

घर से फोन था कहाँ पर हो ? घर वाले जानना चाहते थे. तो मैंने पूछा क्या हो गया? तो उन्होंने कहा कि जी टीवी पर संसद भवन में हमले का सीधा प्रसारण कर रहा था. 

हमने सोचा कि अब यहाँ से चला जाये. यु.एन. आई के बगल में वी.पी.हॉउस में समता पार्टी का दफ्तर था जिसमे तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री कृष्णा राव जी रहते थे. मैंने कहा कि वहां चलने पर शरण मिल जाएगी, 

कृष्णा राव जी मुझसे अच्छी तरह परिचित थे. हम लोग वहां से निकल कर वी.पी हॉउस ले लिए चल पड़े, उस समय शायद 11.30  या 12 बज रहे होंगे. 

जब हम समता पार्टी के कार्यालय पहुचे तो सब टी.वी. पर झूमे हुए थे. बस हमने भी वहां बैठ कर संसद में होने वाली आतंकवादी कार्यवाही को देखा. नरेश की बोलती बंद थी. वो बोला कहाँ फँस गए? अब फँस गए तो फँस गए जो होगा सो देखा जायेगा. 

शाम को 3  बजे के बाद हालत कुछ सामान्य लगे. तो हम लोग वहां से होटल के लिए निकले. उसी समय हमारे पास खलीलपुर वाले महाराज सतबीर नाथ जी का फोन आया कि आश्रम में आ जाओ मैं गाड़ी भेज रहा हूँ, 

मेरे मना करने के बाद भी जिद करके उन्होंने अपनी गाड़ी दिल्ली भेज दी.लेकिन मुझे तो सुबह नीतिश जी से मिलना था इसलिए बाबा के यहाँ नहीं जा सकता था. 

बाबाजी की गाड़ी से एस्कार्ट हास्पिटल गया, वहां पर हमारे तत्कालीन राज्यपाल महामहिम दिनेश नंदन सहाय जी की बाइपास सर्जरी हुयी थी, उससे मिलने जाना था. हम एस्कार्ट में सहाय जी से मिले, आधा घंटा हमारी बात-चीत हुई. उसके बाद हम होटल वापस आ गये. 

सुबह जल्दी उठ कर हमने सोचा की जार्ज साहब से मिल लेते हैं कई दिन हो गये थे उनसे मिले, सुबह कोहरा छाया हुआ था. ठंड भी गजब ढा रही थी. 

हम 9 बजे जार्ज साहब के यहाँ पहुँच गए, कृष्ण मेनन रोड  कोठी  नंबर 3 पर, वहां हमें एक घंटा लगा. उसके बाद हम उनकी कोठी से निकल कर पैदल-पैदल सुनहली बाग़ स्टैंड तक पहुँचने के लिए निकल पड़े, जार्ज साहब की कोठी और उस इलाके में अब पुलिस ही पुलिस थी. कदम-कदम पर गन लेकर तैनात थे. 

तभी पुलिस वाले बोले सड़क पर मत चलो साईड में दीवाल की तरफ चलो, हम दीवाल की तरफ सरकते गए. तो फिर बोले दीवाल की तरफ चलो.हम तो पहले ही फुटपाथ के साथ की दीवाल से चिपक लिए थे. तो मैंने कहा कि अब दीवाल में घुस जाएँ क्या? 

इतने एक स्कुल का बच्चा आ गया कंधे पर बैग लटकाए. अब पुलिस वालों ने हमें दो कोठियों के बीच की संकरी सी गली में घुसेड दिया और एक पुलिस वाला हमारे तरफ एके 47  तान कर खड़ा हो गया जैसे हम ही आतंकवादी हों. 

फिर बोला अपने बैग नीचे जमीन पर रख कर चुपचाप खड़े हो जाओ. हमने बेग नीचे रखा दिया, उस बच्चे ने भी अपना स्कुल बेग नीचे रख दिया,  

मैंने उससे पूछा कि ये क्या हो रहा है? 

वह बोला प्वाईंट आया है की अभी महामहिम राष्ट्रपति जी संसद भवन जाने वाले हैं. उनके यहाँ से निकलने के बाद आपको छोड़ दिया जायेगा. 

इतनी मुस्तैद थी उस दिन दिल्ली की पुलिस. अब इन्हें हर आदमी और यहाँ तक स्कुल का बच्चा भी आतंकवादी दिखाई दे रहा था. अरे! इतनी मुस्तैद पहले रहती तो संसद पर हमला ही क्यों होता? 

महामहिम राष्ट्रपति जी का काफिला निकला,उसके बाद हमें वहां से जाने दिया गया. 

नरेश बोला कि हमें अब दिल्ली में नहीं रुकना है, चलो जल्दी से निकल चलो, नहीं तो क्या पता?  इनकी गोलियों का शिकार हम ही हो, 

हमारे मारे जाने बाद ये श्रद्धांजलि दे कर बोल देंगे कि गलती से मारे गए. चलो और अभी चलो. दिल्ली में अफरा-तफरी का माहौल था, हमने भी वहां से टलने में ही अपनी भलाई समझी. 

इसके बाद हम जहानाबाद के संसद अरुण कुमार जी के यहाँ वापसी की टिकिट बनवाई तत्काल कोटे से  और २.३० को निजामुद्दीन आकर गोंडवाना एक्सप्रेस में सवार हो गए. 

ये घटना हमें आज भी सालती है. अगर हमारा तन्त्र पहले से ही मजबूत होता तो देश के स्वाभिमान पर हमला नहीं होता. संसद के अन्दर की सुरक्षा जिन सिपाहियों ने अपनी जान पर खेल कर की, उन्हें मेरा सलाम।

शनिवार, 12 दिसंबर 2009

सड़क दुर्घटनाओं में अकाल युवा मौतें



मैं अपनी बाईक से शाम को घर आ रहा था। 

आज कल हमारी सड़क पर ट्रैफिक कुछ ज्यादा हो गया है। 

पहले इतना नहीं था और दुर्घटनाएं बढ़ गई हैं। कुछ ना कुछ रोज घटित होता रहता है। 
सड़क दुर्घटना

मैं अपनी साईड में था सामने से दो मोटर सायकिलें भी आ रही थी। उनके पीछे एक ट्रक था। 

अचानक ट्रक ने पीछे वाली मोटरसायकिल को टक्कर मारी, वह साईड पटरी पर गिर गया. 

आवाज सुन कर उसके आगे वाली मोटर सायकिल वाले लोग रुके, 

पलक झपकते ही उस गिरे हुए सवार के पास पहुंचे तब तक उस ट्रक वाले ने उनकी मोटर सायकिल पर अपनी ट्रक चढ़ा दी, 
सड़क दुर्घटना

जिससे मोटर सायकिल चकना चूर हो गयी. मैं रुका और उस पहले सवार को अस्पताल पहुचाने के लिए थाने में फोन किया। 

ट्रक का ड्राईवर तुरंत ट्रक छोड़ कर रफू चक्कर हो गया। अगर वे बाईक सवार रुकते नहीं तो वे भी दुर्घटना के शिकार हो जाते, 

इसे ही कहते हैं "जाको राखे सांईया मार सके ना कोय" इस दुर्घटना से सम्बंधित चित्रों को भी आप देखिये।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

जादूगर का जादू का कमाल धमाल

हम बचपन से जादू देखते आये हैं, कभी टिकिट लेकर कभी बिना टिकिट सड़क के किनारे, कभी सांप नेवले का खेल, ये सब हमारी वास्तविक जिंदगी में भी होता है.

यहाँ भी सांप नेवले का खेल देखना-दिखाना पड़ता है. इससे पहले मैंने एक पोस्ट इस जादू के खेल पर लिखी थी. साथियों ने और भी इच्छा है कि एक दो जादू की ट्रिक और हो जाये. चलिए अब एक नया जादू देखते है. 

हमारे गांव में एक जादूगर आया. मंदिर के पास उसने डेरा जमाया और अपना तम्बू लगाया, रोज दो खेल जादू के दिखने लगा, 

एक दिन हमारे स्कुल में आकर कहा कि स्कुल के बच्चों के लिए स्पेशल शो है दो रूपये की टिकिट चार आना हो गई है. 

सिर्फ स्कुल के बच्चों के लिए, हम भी घर से चार आना लेकर जादू देखने गए. जादूगर एक कोरे कागज पर बिना स्याही के रंग बिरंगे अक्षर प्रगट कर देता था. कभी किसी का नाम लिखता था, कभी वर्णमाला के अक्षर दिखाता था.

उस समय हम सोचते थे कि यदि ये जादू हमें सीखा दे तो परीक्षा के समय बड़ा काम आयेगा, नक़ल के पुर्जे ऐसे ही कागज पर तैयार करके ले जायेंगे. गुरूजी को दिखेगा भी नहीं अपना भी काम हो जायेगा. अब इसका तोड़ हमने पाया है. चलिए देखते हैं ये जादू कैसे किया जाता था.

एक सादा कागज लो और उस पर निम्बू के रस से कुछ भी लिखो, 

फिर उसे थोड़ी सी आंच दिखाओ अक्षर अपने आप प्रगट होने लगते हैं. अगर हम लहसुन के रस से कागज पर लिखते हैं और उसे आंच दिखाते है तो लिखे हुए को छोड़ कर पूरा कागज लाल दिखाई देगा. 

गाय के दूध से कागज पर लिख कर आंच दिखाते हैं तो लिखा हुआ अक्षर पीला रंग का दिखाई देगा. 

यदि गेंदा के रस लिखते हैं तो भी रंग पिला ही दिखाई देगा.

आंवले के रस से लिख कर कागज गरम करने से हरे रंग के अक्षर दिखाई देंगे. 

नारंगी के रस से हाथ की हथेली पर अक्षर लिख कर उस पर थोड़ी राख डाल दें तो अक्षर काले दिखाई देंगे. आप आजमा कर भी देख सकते हैं. ये था आज का जादू.

सोमवार, 7 दिसंबर 2009

मनुष्य और पशु प्रेम की एक मिशाल !!!!

आदिम काल से ही पशुओं और मनुष्य का संग रहा है. जंगली पशुओं को पालतू बनाया गया.उनसे फिर काम लिया गया. पालतू पशु भी घर परिवार के एक सदस्य की तरह ही हो जाता है. इसका उदहारण हमें देखने मिल जाता है. जब हम पढ़ते तो एक पाठ था "कुकुर समाधी", कुत्ते की स्वामी भक्ति से प्रभावित होकर उसके मालिक ने उसकी मृत्यु पर समाधी बनाकर श्रद्धांजली दी थी. ऐसी एक घटना उत्तर प्रदेश के महोबा के कुल पहाड़ इलाके में हुयी, जहाँ एक कुतिया के बच्चे जनने पर पूरा गांव खुशियाँ मना रहा है. यह पशु प्रेम की एक मिशाल ही है.एक कुतिया का नाम बसंती रखा गया है. बसंती दो साल पहले गांव में घायल अवस्था में मुढारी ग्राम में आई थी. जिसका गांव वालों ने इलाज कराया और इसे सहारा दिया. बसंती भी गांव वालों के प्रेम पर न्योछावर हो गई और उसने गांव नहीं छोड़ा. इसके बदले बसन्ती गांव के बच्चों के साथ खेलती थी और रात में गांव की चौकीदारी करती थी. अगर बसंती कभी भटक कर किसी दिन दुसरे गांव चली जाती थी तो गांव के लोग व्याकुल हो जाते और उसे ढूंढ़ कर लाते, बसंती को सभी गांव वाले अपने परिवार का सदस्य ही मानते हैं. इसी कारण कुछ दिनों पहले जब उसने छ: बच्चों को जन्म दिया तो पुरे गांव में ख़ुशी मनाई गई महिलाओं ने सौहर गए और एक दुसरे को बधाई दी. पूरा गांव ख़ुशी से झूम उठा, गांव वालों ने बाकायदा एक समारोह का आयोजन कर एक दुसरे को मिठाई खिलाई और उत्सव मना कर अपना पशु प्रेम प्रकट किया. इस तरह गांव वालों ने एक मिशाल कायम कर दी.

रविवार, 6 दिसंबर 2009

देखो अब हो गया ना जादू!!

बचपन में जब हम स्कुल में पढ़ते थे तो वहां जादू का खेल दिखाने के लिए जादूगर आते ही रहते थे. पूरा स्कुल बड़े चाव से जादू देखता था. आज भी हम जादू देखते हैं और सोचने को मजबूर हो जाते हैं, कि जादूगर ने यह-कैसे किया? अभी कुछ दिन पहले हमारे स्कुल में एक जादूगर आया. उसने जादू दिखाने की तयारी की. और जादू दिखाने लगा. डिब्बे में से कबूतर, रंग बिरंगे फुल, कागजों को जोड़ना. कागज से नोट बनाना आदि उसने बहुत सारे खेल दिखाए. मेरा बेटा जो उस समय २-३ साल का रहा होगा. अचानक वो जादूगर के पास पहुँच गया और उसकी टेबल पर उसने अपनी खिलौना कार रख दी और बोला " इसे बड़ी कर दो" तो वह जादूगर बोला " बेटा ये जादू मुझे नहीं आता, इसको तो तुम्हारे पापा ही बड़ी कर सकते हैं. मेंरे कहने का तात्पर्य यह है कि जादू देखकर बच्चे बड़े सभी के मन में जिज्ञासा पैदा हो जाती है कि ये जादू कैसे होता है? चलो एक जादू आज रहस्य आपको भी बताते हैं.
हम देखते हैं कि जादूगर एक अंगूठी तमाशबीनों से लेता है और उसमे धागा बांध कर दीवाल के सहारे खूंटी या कील पर लटका देता है. फिर उस धागे में आग लगा कर जला देता है लेकिन अंगूठी गिरती नहीं है. इससे लोगों में बड़ा कौतुहल पैदा होता है कि धागा जलने के बाद अंगूठी गिरी क्यों नहीं?
इसका भेद धागे में छिपा है. जिससे बांध के अंगूठी छिपाई जाती है, अर्थात धागा पहले से तैयार किया हुआ रहता है. धागा तैयार करने की तरकीब यह है कि बारीक़ पिसे हुए नमक में दो बूंद पानी डाल कर उसमे धागे को खूब माला जाता है जब तक नमक धागे अन्दर समा ना जाये. जब धागे के अन्दर नमक पूरी तरह समा जाता है तब उसे दुप में सुखा दें. जब धागा धुप में सूख जाता है, तब समझ लो कि अब धागा खेल के लिए तैयार हो गया. बस अब धागे में अंगूठी बंद कर दीवार पर लगी कील पर बांध दो, ध्यान रहे वहां पर ज्यादा हवा नहीं चल रही हो.अन्यथा अंगूठी के गिरने की आशंका बनी रहेगी. बस अब धागे में आग लगा दें. अब अंगूठी नहीं गिरेगी. देखो अब हो गया ना जादू!!