सोमवार, 23 अप्रैल 2012

नकटा मंदिर ---- ललित शर्मा


चाय आप अभी पीयेगें या स्नानाबाद? सुनकर आँख खुली तो बाबु साहब पूछ रहे थे। घड़ी साढे पांच बजा रही थी। मैने कहा - अभी ही, स्नान तो उसके बाद में ही होगा। बाबु साहब चाय बनाकर लाते हैं और अपनी सुबह हो जाती है। बाबु साहब तैयार हो गए हैं और हम भी थोड़ी देर में तैयार हो लेते हैं। घोड़ी भी दाना-पानी लेकर तैयार हो गयी यात्रा के लिए। आज हमारा पहला पड़ाव जांजगीर का विष्णु मंदिर है। बहुत दिनों से तमन्ना थी इसे देखने की। परन्तु सुअवसर आया ही नही था। आज मुहूर्त निकला इसे देखने का। हम 6 बजे जांजगीर के लिए चल पड़े। सूर्योदय हो चुका था। अधिक समय होने पर गर्मी झेलने को तैयार रहना था। विष्णु मंदिर देखते ही तबियत हरी-भरी हो गयी। भीतर से आवाज आई कि "इसे तो पहले ही देख लेना था।" लेकिन समय और अवसर भी कोई चीज होती है। बड़े बुजुर्ग कह गए हैं कि समय से पहले और भाग्य से अधिक कुछ नहीं मिलता। सामने दो मंदिर दिखाई दे रहे हैं, एक अधूरा और एक पूरा। अधुरा मंदिर लाल बलुआ पत्थरों का बना है तथा दूसरा मंदिर चूना पत्थरों का। चूना पत्थर छत्तीसगढ में बहुतायत में पाए जाते हैं। अधिकतर निर्माण इसी से होता है। 

जांजगीर जाज्वल्य देव की नगरी है। यह मंदिर कल्चुरी काल की मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है। मंदिर में जड़े पत्थर शिल्प में पुरातनकालीन परंपरा को दर्शाया गया है। अधूरा निर्माण होने के कारण इसे "नकटा" मंदिर भी कहा जाता है। इतिहास के झरोखों में जाज्वल्य देव द्वारा निर्मित विष्णु मंदिर प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है, जिसका निर्माण 12 वीं शताब्दी में होना बताया जाता है। विष्णु मंदिर कचहरी चौक से आधा किलोमीटर की दूरी पर जांजगीर की पुरानी बस्ती के समीप है। यह मंदिर कल्चुरी कालीन मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण है। लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित इंस मंदिर की दीवारें भगवान विष्णु के अनेकों रूपों के अलावा अन्य देवताओं कुबेर, सूर्यदेव, ऋषि मुनियों, देवगणिकाओं की मूर्तियों से सुसज्जित किन्तु खंडित है। विष्णु मंदिर के पास ही कल्चुरी काल का एक शिव मंदिर भी है। मंदिर का अधिष्ठान पांच बंधनों में विभक्त है। नीचे के बंधन सादे किन्तु उपरी बंधनों में रत्न पुष्प अलंकरण है। अधिष्ठान के पार्श्व में गजधर दो भागों में विभक्त है। अंतराल और गर्भगृह के भद्ररथों पर देव कोष्ठ हैं। कर्णरथों पर दिपाल एवं अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं उकेरी गई।

विष्णु मंदिर के बगल में ही विशाल भीमा तालाब है। सैकड़ों एकड़ क्षेत्रफल में फैल भीमा तालाब को भीम ने बनाया था, ऐसी मान्यता है। मंदिर के चारों ओर अत्यन्त सुंदर एवं अलंकरणयुक्त प्रतिमाओ का अंकन है जिससे तत्कालीन मूर्तिकला के विकास का पता चलता है। गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनो ओर देवी गंगा और जमुना के साथ द्वारपाल जय-विजय स्थित हैं। इसके अतिरिक्त त्रिमूर्ति के रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मूर्ति है। ठीक इसके ऊपर गरुणासीन भगवान विष्णु की मूर्ति स्थित है। मंदिर की जगती के दोनों फलक में अलग-अलग दृश्य अंकित हैं। एक फलक पर धनुर्धारी राम, सीता, लक्ष्मण तथा रावण और मृग अंकित हैं। दूसरे फलक पर रावण का भिक्षाटन और सीता हरण के दृश्य है।श्री राम द्वारा मृग वध और रावण द्वारा सीता हरण के दृश्य मंदिर के प्रवेशद्वार के दोनों पार्श्वों पर दो-दो के जोड़े में हैं जो दो मुख्य खंडों में बँटे हैं। 

इसमें लंबोदर तथा त्रिशीर्ष मुकुट युक्त कुबेर का अंकन है। मंदिर के शिखर में मृदंगवादिनी, पुरुष से आलिंगनबद्ध मोहिनी, खड्गधारी, नृत्यांगना मंजुघोषा, झांझर बजाती हंसावली आदि देवांगनाएँ अंकित हैं। मंदिर की उत्तरी जंघा में आंखों में अंजन लगाती अलसयुक्त लीलावती, चंवरधारी चामरा, बांसुरी बजाती वंशीवादिनी, मृदंगवादिनी, दर्पण लेकर बिंदी लगाती विधिवेत्ता आदि देवांगनाएं स्थित हैं। दक्षिण जंघा में वीणा वादिनी सरस्वती, केश गुम्फिणी, लीलावती, हंसावली, मानिनी, चामरा आदि देवांगनाएँ स्थित हैं।मंदिर के उत्तरी, दक्षिणी और पश्चिमी जंघा में विभिन्न मुद्राओं में साधकों की मूर्तियाँ अंकित है। इसके अतिरिक्त उत्तरी जंघा के निचले छेद में स्थित मूर्ति तथा प्रवेशद्वार के दोनों पार्श्वों में अंकित संगीत समाज के दृश्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 

मंदिर के पृष्ठ भाग में सूर्य देव विराजमान हैं। मूर्ति का एक हाथ भग्न है लेकिन रथ और उसमें जुते सात घोड़े स्पष्ट हैं। यहीं नीचे की ओर कृष्ण कथा से सम्बंधित एक रोचक अंकन मंदिर के है, जिसमें वासुदेव कृष्ण को दोनों हाथों से सिर के ऊपर उठाए गतिमान दिखाये गये हैं। इसी प्रकार की अनेक मूर्तियाँ नीचे की दीवारों में खचित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी समय में बिजली गिरने से मंदिर ध्वस्त हो गया था जिससे मूर्तियां बिखर गयी। उन मूर्तियों को मंदिर की मरम्मत करते समय दीवारों पर जड़ दिया गया। मंदिर के चारो ओर अन्य कलात्मक मूर्तियों का भी अंकन है जिनमे से मुख्य रूप से भगवान विष्णु के दशावतारो में से वामन, नरसिह, कृष्ण और राम की प्रतिमाएँ है। छत्तीसगढ के किसी भी मंदिर मे रामायण से सम्बंधित इतने दृश्य कहीं नही मिलते जितने इस विष्णु मंदिर में हैं। यहाँ रामायण के 10 से 15 दृश्यो का भव्य एवं कलात्मक अंकन देखने को मिलता है। इतनी सजावट के बावजूद मंदिर के गर्भगृह में कोई मूर्ति नहीं है, यह मंदिर सूना है।

किंवदंती है कि एक निश्चित समयावधि (कुछ लोग इस छैमासी रात कहते हैं) में शिवरीनारायण मंदिर और जांजगीर के इस मंदिर के निर्माण में प्रतियोगिता थी। भगवान नारायण ने घोषणा की थी कि जो मंदिर पहले पूरा होगा, वे उसी में प्रविष्ट होंगे। शिवरीनारायण का मंदिर पहले पूरा हो गया और भगवान नारायण उसमें प्रविष्ट हुए। जांजगीर का यह मंदिर सदा के लिए अधूरा छूट गया। एक अन्य दंत कथा के अनुसार इस मंदिर निर्माण की प्रतियोगिता में पाली के शिव मंदिर को भी सम्मिलित बताया गया है। इस कथा में पास में स्थित शिव मंदिर को इसका शीर्ष भाग बताया गया है। एक अन्य दंतकथा जो महाबली भीम से जुड़ी है, भी प्रचलित है। कहा जाता है कि मंदिर से लगे भीमा तालाब को भीम ने पांच बार फावड़ा चलाकर खोदा था। किंवदंती के अनुसार भीम को मंदिर का शिल्पी बताया गया है। 

इसके अनुसार एक बार भीम और विश्वकर्मा में एक रात में मंदिर बनाने की प्रतियोगिता हुई। तब भीम ने इस मंदिर का निर्माण कार्य आरम्भ किया। मंदिर निर्माण के दौरान जब भीम की छेनी-हथौड़ी नीचे गिर जाती तब उसका हाथी उसे वापस लाकर देता था। लेकिन एक बार भीम की छेनी पास के तालाब में चली गयी, जिसे हाथी वापस नहीं ला सका और सवेरा हो गया। भीम को प्रतियोगिता हारने का बहुत दुख हुआ और गुस्से में आकर उसने हाथी के दो टुकड़े कर दिया। इस प्रकार मंदिर अधूरा रह गया। आज भी मंदिर परिसर में भीम और हाथी की खंडित प्रतिमा है। खंडित हाथी की प्रतिमा सीढियों के उपर लगी है।

हम विष्णु मंदिर के कुछ चित्र लेते हैं फ़िर हमारी सवारी चाम्पा की तरफ़ बढ चलती है। मुझे मड़वारानी होते हुए पटियापाली जाना है, बाबु साहब ने चाम्पा में एक नया सारथी तैयार कर रखा था जो मुझे मंड़वा रानी दर्शन करवा कर पटियापाली स्कूल तक पहुंचाता और बाबु साहब कुछ आवश्यक कार्य निपटा कर पटियापाली में मुझसे मिलते। चाम्पा स्टेशन पर पहुंचने पर यादव जी स्टेशन पर मिल गए। जाते ही उन्होने प्रणाम कर नारियल का प्रसाद दिया और हम कुछ फ़ल लेकर मड़वा रानी की तरफ़ चल पड़े। रास्ते को पहचानने में कुछ समय लगा। हम चाम्पा-कोरबा मार्ग पर जा रहे थे और इस मार्ग पर मै पहले भी आ चुका हूँ। मड़वारानी पहुंच कर दर्शन किए, यादव ने बताया कि  मड़वा रानी का स्थान पहाड़ी पर है और एक मंदिर नीचे भी बना हुआ है। लोग यहीं दर्शन करते हैं। मड़वारानी के पास ही जगदीश पनिका का गांव कोठारी है, जहां मै दो साल पूर्व आया था।

रविवार, 22 अप्रैल 2012

कटघरी,कोटमी सोनार और बड़े बखरी अकलतरा --- ललित शर्मा

काली घोड़ी बढ रही है कोट गढ से कटघरी की तरफ़, उसके टापों की आवाज वातावरण की खामोशी को भंग कर रही है। बाबु साहब इस इलाके अच्छे जानकार हैं। कहते हैं कि "सामने दलहा पहाड़ है, इस पर नागपंचमी के दिन श्रद्धालु चढते हैं, वे भी कई बार चढे हैं। मैकल श्रेणी है का यह इकलौता पहाड़ है, जो सबसे अलग है।" सड़क के दोनो तरफ़ हरियाली है, धान की रबी फ़सल बोई गयी है। बलखाती सड़क पर कुशलता से बाबु साहब सवारी हांकते हुए कहते हैं - "सड़क के दोनो तरफ़ जहाँ तक आपको बैल आँख से दिखाई देता है वहाँ तक "बड़े बखरी" की मालकियत है। 250 वर्षों के इतिहास में बड़े बखरी के पास 84 गांव की जमीदारी थी। अब भी बहुत कुछ है। जमीन का तो ओर छोर मालिकों को ही नही पता कितनी है, गांव के लोग और दरोगा ही जानते हैं, गांव के लोगों को बोने के लिए बंटाई में दी जाती है। रेग की वसुली दरोगा करता है।

कटघरी की जनसंख्या लगभग 1800 है, जिसमें 80% गोंड़, कंवर, नायक जाति के लोग हैं, बाकी 20% में क्षत्रिय, सतनामी, केवंट इत्यादि हैं। सिंचाई का साधन होने के कारण दो फ़सली है। फ़सल में धान, गेंहूं, तिलहन-दलहन इत्यादि बोई जाती है। दलहा पहाड़ की तराई में मुनि कुंड है, मान्यता है कि इसमें स्नान करने से चर्मरोग इत्यादि का शमन होता है। यहां जगदेवानंद जी की समाधि है। कटघरी के चारों ओर कोटगढ, पचरी, पंडरिया एवं पोंड़ी गांव हैं। इन गांव की सीमा से कटघरी की सीमा जुड़ती है। यहाँ पर की पहाड़ी पर चांदी के सिक्के भी मिलते हैं। कहते हैं कि किसी राजा का खजाना इस पहाड़ी में गड़ा है। चांदी के सिक्के पहाड़ी पर जाने वाले किसी को भी प्राप्त हो जाते हैं। बरसात के दिनों में संभावना अधिक रहती है क्योंकि पानी से मिट्टी धुल जाती है और सिक्के उभर आते हैं।

कटघरी गाँव में प्रवेश करते ही स्कूल दिखाई देता है। इस स्कूल को सत्येन्द्र सिंह जी ने बनवाया था। बड़े बखरी के बाड़े में पहुंचते हैं तो बाबु साहब दरोगा को आवाज देते हैं। दरोगा तो दिखाई नहीं देता पर एक महिला आती है और घर का ताला खोलती है।काफ़ी बड़ा सारा घर है, खेती का सामान पड़ा है। बड़े बखरी के मालिक यहाँ नहीं रहते, वे बिलासपुर और रायपुर में रहते हैं। यहां कभी कभी आते हैं, दरोगिन कहती है। सामने ही 10 एकड़ का बगीचा है। सत्येन्द्र सिंह जी आमों के बड़े शौकिन थे, इस बगीचे में आमों की सभी किस्मे हैं। लेकिन देख रेख के आभाव में बगीचा उजाड़ पड़ा है। पानी पीकर यहाँ से हम दलहा पोंड़ी की ओर चलते हैं। रास्ते में अघोर पंथ वाले अवधूत राम जी का आश्रम है। बाबु साहब आश्रम देखने के लिए पूछते हैं तो समयाभाव के कारण मै मना कर देता हूं। बनोरा वाले आश्रम की ही शाखा है यह भी। काफ़ी बड़ा एरिया घेर रखा है।

पोंड़ी दहला के बीच से शार्ट कट रास्ता निकाल कर बाबु साहब कोटमी सोनार की ओर चलते हैं। रास्ते में एक छोटी सी दुकान तालाब के किनारे पर दिखाई देती है, वहां कोल्ड ड्रिंक रखी हुई दिखने पर हम रुकते हैं, प्यास अधिक होने के कारण एक-एक कोल्ड ड्रिंक उदरस्थ करते हैं। तालाब के बारे में किंवदंती है कि इसमें कलगी वाला बड़ा सांप है। जो कभी कभी दिखाई देता है। रात को ठहरे पानी में सांप की हलचल के कारण बुलबुले उठते हैं। गांव में मनोरंजन के लिए लोग फ़ंतासियां गढ लेते हैं जो पीढी दर पीढी चलते रहती है। एक से बढकर एक कहानियां सुनाई देती हैं। सफ़ेद घोड़े पर सवार की कहानियां लोग बड़े आत्मविश्वास से बताते हैं कि उन्होने देखा है। परन्तु दिखाने के नाम पर मौन रह जाते हैं या कोई विशेष तिथि एवं परिस्थिति होने पर दिखाई देने का बहाना बना देते हैं।

पोंडी से हम कोटमी सोनार पहुंचते हैं, रास्ता बहुत अच्छा है, डामर रोड़ है। कोटमी पहुंचने पर एक बड़े तालाब के चारों ओर तारों की बड़ी बड़ी बाड़ दिखाई देती है। मुख्य द्वार पर वनविभाग की देख रेख में होना लिखा है। यहां से एक फ़र्लांग पर ही कोटमी सोनार का पैसेंजर हाल्ट भी है। लोकल ट्रेन से बिलासपुर से यहां पहुंचा जा सकता है। पिकनिक स्पॉट के रुप में इसे विकसित किया जा रहा है। यहाँ प्रवेश करने के लिए पॉच रुपए की टिकिट लेनी पड़ती है। बच्चों के लिए मुफ़्त सेवा है। हम तालाब के किनारे पहुंचते हैं तो एक व्यक्ति रजिस्टर लिए बैठा है, वहां पहुचने वालों के नाम गांव दर्ज करता है। बाबु साहब ने हाजरी लगा दी। सूर्य अस्ताचल की ओर है, मगरमच्छ दिखाई नहीं देते। तालाब के बीच में बनी टेकरी पर के वृक्षों पर असंख्य बगुले बैठे दिखाई देते हैं। हम तालाब का एक चक्कर लगाते हैं। मगरमच्छ नहीं दिखने पर निराश होकर वापस जाने का मन बनाते है। तभी सामने सीताराम बाबा दिखाई देते हैं।

बाबु साहब बोले- बन गए काम, बाबा जी आ गे हे, अब दिखाही मंगर। बाबा से राम राम होती है, बाबु साहब मेरा परिचय बाबा से राहुल सिंह जी के मित्र के रुप में कराते हैं तो बाबा बहुत खुश होते हैं और तालाब के किनारे आवाज देते हुए आगे बढ़ते हैं - आ, आSSSS आ, आSSSS, चले आओ, आओ। बाबा की आवाज सुनकर पानी में हलचल होने लगती है। तल में डूबे मगरमच्छ पानी के उपर आने लगते हैं। तीन मगरमच्छ विभिन्न दिशाओं से किनारे की ओर बढते हैं जहां बाबा खड़े होकर आवाज दे रहे हैं। बाबा बताते हैं कि इस तालाब में लगभग 350 से 400 मगरमच्छ हैं। इनके खाने के लिए तालाब में मछली डाली जाती हैं। मगरमच्छों को आगे बढते देख कर और भी दर्शक आ जाते हैं। जबकि यह तो हमारे लिए विशेष प्रदर्शन करवा रहे हैं बाबा सीताराम। जिसका लाभ अन्य सैलानियों ने भी उठा लिया।

एक मगरमच्छ तालाब के किनारे पर आकर मेरे समीप बैठ जाता है और आंखे बंद कर लेता है। जैसे नमन कर रहा हो। यह लगभग 9 से 10 फ़िट लम्बाई का होगा। मैं समीप से ही उसका चित्र लेता हूँ। वह एक दो पोज देता है चित्र के लिए, फ़िर शिथिल होकर चित्त हो जाता है। बाबा जी का बांया हाथ आधा किसी मगरमच्छ ने खा लिया। वे गमछे से बार-बार उसे छिपाते हैं। इतना होने पर भी मगरमच्छों को गाय भैंस जैसे ही हांकते हैं। राहुल सिंह जी की बड़ी तारीफ़ करते हैं। हमने भी राहुल सिंह जी का आभार माना। उनके नाम से ही बाबा जी ने मगरमच्छ बाहर निकाल दिए। जिससे हम देख सके। बाबा जी राहुल सिंह जी अपना अभिवादन हमारे हाथों भेजते हैं और कहते हैं कि - मैं रायपुर आकर मिलूंगा। मैने कहा - स्वागत है आपका। हम भी दर्शनाभिलाषी है, जरुर आईए।

अब हम अकलतरा चलते हैं, वहां पहुच कर बाबु साहब हमें महल में ले चलते हैं और बताते हैं कि महल में कौन रहता है और किसके हिस्से में कौन सा क्षेत्र है। पुरानी हवेली नुमा आंगन और चौबारे वाली कोठी है। बीच में देव स्थान है, यहीं की मिट्टी से मान्यतानुसार मुसलमान ताजिए बनाने की शुरुवात करते हैं। महल के सामने एक लेटर बाक्स लगा है जिसका ताला टूटा हुआ है पेंदा भी जंग खा चुका है। लगता है अब इसका उपयोग नहीं होता। पर किसी जमाने में सुदूर सम्पर्क यही एकमात्र साधन था। लेटर बाक्स के हवाले चिट्ठी करके निश्चिंत हो जाते थे कि अब यह ठिकाने तक पहुंच जाएगी और कुछ दिनों में जवाब भी मिल जाएगा। अब इंटरनेट, मोबाईल फ़ोन का जमाना है, चिट्ठियां लिखता ही कौन है? चिट्ठियां गुजरे जमाने की बात हो गयी। सिर्फ़ सरकारी चिट्ठियों एवं नोटिसों से ही डाक विभाग चल रहा है।

यहां से हम अमित राजा (स्थानीय विधायक सौरभ सिंह) के ठिकाने तक पहुंचते हैं, पता चलता है कि वे कहीं दौरे पर हैं। इनसे मुलाकात पर फ़िर कभी लिखेगें। बगल में ही टॉकिज हैं, यहां "कहानी" का प्रदर्शन हो रहा है। पता चलता है कि दर्शकों का तोड़ा पड़ गया है। रात के शो में तो 10-12 दर्शक आ गए वही बहुत है। लेकिन शो तो करना ही पड़ेगा। "कहानी" पिट चुकी है। घर पहुंचने पर भोजन बन चुका है। माताजी भोजन करने का आग्रह करती हैं और मै थोड़ी देर के लिए नेट पर ऑन लाईन हो जाता है। चैट पर राहुल सिंह जी याद दिलाते हैं कि विवेकराज सिंह अकलतरा में ही रहते हैं और उनका नम्बर देते हैं। बाबु साहब उन्हे फ़ोन लगा कर बुलाते हैं, हमारे भोजन करने के बाद  विवेकराज सिंह जी पहुंच जाते हैं।  विवेकराज सिंह अविवाहित युवा हैं, इनका क्रेशर का काम है और लिखते भी अच्छा हैं। मैने उन्हे पढा है। वे अपने क्रेशर पर चलने की जिद करते हैं तो हम तैयार होकर चल पड़ते हैं। 10 बज रहे हैं एक घंटे बाद वापस आने का वादा है।

क्रेशर पहुचते हैं, अलग-अलग साईज की गिट्टियां बनाई जाती है। अभी सारी सप्लाई वर्धा इलेक्ट्रिसिटी जनरेशन प्लांट में हो रही है। घड़ी में रात के 11 बज चुके हैं, हम वर्धा प्लांट की ओर चलते हैं। 600X 600 मेगावाट का प्लांट हैं। 6 टरबाईनों से 3600 मेगावाट बिजली तैयार होगी। प्रथम टरबाईन का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है वह शीघ्र ही चालु हो सकता है। प्लांट के भीतर ही विवादित "रोगदा बांध" है। जिसे वर्धा प्लांट वालों ने मिट्टी से पाट दिया है। यह बांध लगभग 100 एकड़ में बना है। अब मिट्टी का ढेर दिखाई दे रहा है। रात के अंधेरे में रोशनी से जगमग करता हुआ प्लांट निराली छटा बिखेर रहा है।  विवेकराज सिंह कहते हैं कि इस प्लांट के प्रारंभ होने पर अकलतरा का तापमान बढ जाएगा। ग्रीष्म काल में गर्मी जम के पड़ेगी। जब भट्ठी में कोयला जलेगा तो उससे गर्मी होना और धूल का उड़ना स्वाभाविक है। पर्यावरण को भी नुकसान होगा।

कटघरी का घ्रर 
वर्धा प्लांट देखकर हम घर चलते हैं, घर से निकले दो घंटे हो गए, हम एक घंटे में ही वापस आने वाले थे। वर्धा प्लांट देखने के चक्कर में एक घंटा और लग गया।  विवेकराज सिंह जी के साथ समय का पता ही न चला। बाबु साहब कार में बैठे-बैठे झपकी ले रहे हैं, आज सुबह से ही भाग दौड़ जारी है, थकान ने चूर कर दिया। सुबह जल्दी उठ कर जांजगीर होते हुए हमें पटियापाली जाना है। लगभग 65 किलोमीटर का सफ़र है और वापस भी आना है। घर पहुंच कर  विवेकराज सिंह को धन्यवाद देते है और उनके निमंत्रण पर पुन: आने का वादा करके आराम करने की जुगत लगाते हैं। सुबह जल्दी जो उठना है आगे के सफ़र के लिए।

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

धूलि दुर्ग: कोट गढ --- ललित शर्मा

प्रारंभ से पढें
कोट गढ अकलतरा से डेढ किलोमीटर पर उत्तर दिशा में स्थित है।  है। बर्फ़ गोले की चुस्कियों के साथ काली घोड़ी के सवार कोट गढ की ओर बढते जा रहे हैं। मेरे पास अकलतरा के एक ब्लॉगर का हमेशा मेल आता है। वो लिखते हैं "http://khandeliya.blogspot.com/ पर एक छोटा सा बेकार सा पोस्ट आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी आशा है आपकी कृपामय प्रतिक्रिया मिलेगी सप्रनाम", इनका नाम ईश्वर खंडेलिया है। बाबु साहब को याद दिलाने पर वे उनकी दुकान अंकुर दिखाते हैं। पर मेरे पास उनसे मिलने का समय नहीं था। फ़िर कभी मिलेगें सोच कर आगे बढते हैं। कोट गाँव का नाम है इस गांव में गढ होने के कारण कोट गढ नाम प्रचलित हुआ। गढ प्रवेश से पहले एक बड़ा तालाब दिखाई देता है। जिसके किनारे के करंज के वृक्ष पर बच्चों की टोली जल क्रीड़ा मे वयस्त थी। गर्मी के मौसम में तालाब के पानी में पेड़ से छलांग लगा कर आनंद लिया जा रहा था। बचपन याद आ गया, कभी हम भी इसी तरह नंग धड़ंग कुदान मारा करते थे। फ़ोटो लेकर आगे बढते हैं।

बाबु साहब घोड़ी हांक रहे हैं। आगे चल कर समझ आता है कि यह तालाब नहीं, गढ की रक्षा के लिए बनी हुई परिखा (खाई) है। इसके बीच से ही गढ में जाने का रास्ता दिखाई देता है। कुछ ग्रामीण हमें अजनबी निगाहों से देखते हैं, उनकी आँखों में हमारे बारे में जानने के भाव दिखाई देते हैं। सामने महामाया माई का मंदिर है, जिसके बांए तरफ़ से कोट गढ में जाने का रास्ता दिखाई देता हैं। हम सबसे पहले गढ की मिट्टी की दीवार पर चढते हैं। वहां से किले के चारों तरफ़ बनी हुई रक्षा परिखा दिखाई देती है। गढ के तीन तरफ़ बरगवां, खटोला और महमंदपुर गांव हैं। गढ के बीच में एक तालाब है, जिसमें कुछ भैंसे गर्मी से बचने के प्रयास में डूबकी लगा रही हैं। सामने क्षितिज में सूरज अस्ताचल की ओर जा रहा है, जैसे इस गढ का वैभव चला गया। 

गढ या दुर्ग तीन तरह के होते हैं, 1 जल दुर्ग, 2 गिरि दुर्ग एवं 3 धूलि दुर्ग। कोट गढ धूलि दुर्ग की श्रेणी में आता है। गढ के चारों ओर सुरक्षा की गहरी खाई है और उससे लगी हुई मिट्टी की दीवार। पुराविज्ञ इस गढ को लगभग 25 सौ वर्ष पुराना मानते है। गढ के आस पास उस काल खंड के ईंटों के टुकड़े एवं उपकरण मिलते हैं। इस खाई में घड़ियाल, मगर एवं सांप डाले जाते थे जिससे दुश्मन गढ पर आक्रमण न कर सके। गढ की में आने के लिए परिखा (खाई) में सिर्फ़ एक ही रास्ता होता था। मगर मच्छों के प्रमाण तो इससे पास ही कुछ किलोमीटर पर कोटमी सोनार में मिल जाते हैं। गढ के दोनो तरफ़ 11 वीं 12 वीं शताब्दी की कलचुरी कालीन राज पुरुष, अप्सरा, भैरव, बजरंग बली, गणेश इत्यादि की महत्वपूर्ण मूर्तियाँ मिलती हैं। बरसात के समय में  ये खाईयां लबालब भर जाती हैं। वर्तमान में गांव के लोग अपने दैनिक जीवन में उपयोग के लिए इन खाईयों के पानी का उपयोग कर रहे हैं। साथ ही बाड़ी बखरी की सिंचाई के काम भी आता है।  

इस गढ से मराठा कालीन इतिहास भी जुड़ा हुआ है। वर्तमान में दिखाई देने वाले दरवाजे मराठा शासकों ने बनाए थे। इससे जाहिर होता था कि यह गढ उनके आधिपत्य में भी रहा है। महामाया मंदिर के बाएं तरफ़ का मुख्य द्वार सलामत है। इसके बगल में कुछ  मूर्तियाँ खुले में रखी हैं, जिस पर श्रद्धालुओं ने फ़ूल पान चढा रखे थे। गढ के भीतर घूमने के लिए समय कम था और भीतर ऐसा कुछ निर्माण भी नही है जिसे देखा जा सके। तालाब के ईर्द गिर्द खुला मैदान पड़ा है। गढ की मिट्टी की दीवारों पर बडे बडे वृक्ष हैं। मुझे गढ में आने के पांच दरवाजे दिखाई दिए। प्राचीन कालीन सुरक्षा से सुसज्जित कोट गढ देख कर अंदाजा लगाया जा सकता है कि उस समय के राजा किस तरह से अपने जान माल की सुरक्षा का इंतजाम करते थे। बाबु साहब और हमने गढ के मुख्य द्वार की कुछ फ़ोटुंए भी ली।

किसी पुरानी जगह से जुड़ी हुई कोई जनश्रुति न हो, ये तो हो ही नहीं सकता है। कुछ ऐसा ही इस गढ के साथ जुड़ा है। कहते हैं कि कोट गढ से लेकर अकलतरा के हाथी बंधान तक एक सुरंग है। इसके गढीदार भुनेश्वर मिश्र हुआ करते थे। उनके पास एक अदभुत घोड़ी "बिजली" थी। वे इस सुरंग के माध्यम से ही घोड़ी पर सवार होकर अकलतरा के हाथी बंधान तक जाया करते थे। उनकी सोनाखान के जमीदार से दुश्मनी थी और आपस में लड़ाई होते रहती थी। वे देवी शक्ति के पुजारी थे। एक बार सोनाखान का जमीदार खांडा लेकर उन्हे मारने आया तब देवी ने उनकी जान बचाई। सुरंग का रास्ता तो मुझे दिखाई नहीं दिया। फ़िर कभी आए तो अवश्य ही ढूंढने का प्रयास करेगें। गुगल अर्थ से देखने पर कोट गढ की वर्तमान स्थिति का पता चलता है, चित्र में गोलाई में बनी हुई खाई स्पष्ट दिख रही है और अभी तक मौजूद भी है। बाबु साहब से रास्ते भर कोट गढ के विषय में चर्चा होते रही, अब हम चल पड़े कटघरी की ओर…… (कटघरी, राहुल सिंह जी के पूर्वजों का गांव है) ....... आगे पढें

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

अकलतरा की ओर ------------ ललित शर्मा

बिलासपुर स्टेशन
सीटी बजाती हुई गाड़ी आगे बढती जा रही है। मैं स्लीपर कोच में बैठा अपनी मंजिल तक पहुंचने का इंतजार कर रहा हूं। तभी उपर वाली बर्थ खाली होती है और मैं उस पर चढ कर सोने का मन बनाता हूं। चलती गाड़ी के हिचकोलों में नींद आना भी मुश्किल है,ट्रेन को बिलासपुर से आगे नहीं जाना है। इसलिए आगे निकलने का खतरा नहीं है। सोचता हूँ, बाबु साहब से वादा किया था, 9 तारीख को अकलतरा पहुंचने का। 9 तारीख की सुबह चैट पर बाबु साहब ने याद दिलाया कि आज अकलतरा पहुंचना है मुझे, वे इंतजार कर रहे हैं। मेरा मन नहीं था जाने को। दोपहर की धूप के विषय में सोच कर। गर्मी बहुत बढ गयी है। घर पर ही रहा जाए तो ठीक है, लेकिन बाबु साहब ने फ़िर फ़ोन पर चर्चा कि और कहा कि चांपा का टिकिट ले लेना, मै आपको चांपा में मिलुंगा। मैने कहा कि - शाम को शताब्दी से आऊंगा और रात को आराम करके सुबह चलेगें घुमने। तो वे उस पर भी राजी हो गए। इतना कहने के बाद मैं अचानक उठ कर तैयार हो गया और घर से निकलते हुए बाबु साहब को फ़ोन लगा कर इत्तिला दी कि छत्तीसगढ एक्सप्रेस से पहुंच रहा हूं, यह गाड़ी बिलासपुर तक ही है। इसके बाद उत्कल से चांपा तक यात्रा करनी है।

दो ब्लॉगर - ललित शर्मा  और रमाकांत सिंह (बाबु साहब)
स्टेशन पहुंचने पर बाबु साहब ने मुझे नैला उतरने कहा, फ़िर थोड़ी देर बाद अकलतरा पहुचने। इतनी देर में ही तीन बार कार्यक्रम बदल चुका था। बिलासपुर पहुंचने पर पता चला कि उत्कल तो कब की छूट चुकी है। अब अकलतरा के लिए गोंदिया-झारसुगड़ा पैसेंजर ट्रेन का ही सहारा है। इस बीच एक घंटा मुझे बिलासपुर स्टेशन पर ही बिताना पड़ेगा। अब अरविंद झा याद आए, उन्हे फ़ोन लगाया, तो आधे घंटे में पहुचने का कह रहे थे। भूख भी लगने लगी थी, कुछ हल्का फ़ुल्का चटर-पटर खाया। तब तक अरविंद झा भी पहुंच गए। पैसेंजर ट्रेन प्लेट फ़ार्म पर लग चुकी थी। अरविंद झा एकदम चकाचक दिख रहे थे, कुछ बदलाव नजर आया मुझे उनमें, फ़िर ध्यान दिया तो मुंछों का फ़र्क था, उनकी नयी मुछें कहर ढा रही थी। हमारी बिरादरी में मिलने की तैयारी लगी। अगले माह दरभंगा जाने का प्रोग्राम बन गया। फ़िर वहीं से जनकपुर इत्यादि। ट्रेन ने सीटी बजाई, गार्ड ने झंडी दिखाई और गाड़ी चल पड़ी। अरविंद स्टेशन पर छूट गए। वापसी में मिलने का वादा रहा। रात को मिल बैठेगें दीवाने तीन, मै, अरविंद और श्याम कोरी "उदय", फ़िर जम जाएगी महफ़िल।

जयराम नगर स्टेशन में संगमरमर का बोर्ड
बिलासपुर से चलकर गतौरा स्टेशन में ट्रेन रुकी। ट्रेन की खिड़कियों में हुक लगा कर दूध के डिब्बे और सब्जियों की गठरियाँ भी टांग रखी थी। ट्रेन रुकते ही वे अपना सामान फ़टाफ़ट उतारने लगे। मेरी खिड़की पर भी यही हाल था। बड़ी बड़ी गठरियां लदी हुई थी। पैसेंजर ट्रेन है, आवश्यकता पड़ने पर बकरियाँ भी लाद ली जाती हैं बिना टिकिट। टिकिट बाबु को 10-20 देने से काम चल जाता है। हम तो सुपरफ़ास्ट की टिकिट लेकर पैसेंजर की सवारी कर रहे थे। अरपा नदी का पुल पार करने के बाद जयरामनगर स्टेशन आता है पहले इसे पाराघाट कहा जाता है। जयराम नगर एकमात्र स्टेशन है जहाँ संगमरमर का बोर्ड लगा है स्टेशन के नाम का। इसके बाद पैसेंजर हाल्ट कोटमी सोनार आता है। दाएं तरफ़ देखने से वाच टावर जैसी संरचना दिखाई देती है साथ ही तारों की बाड़ की घेरे बंदी भी। मै इस स्थान के बारे में कयास लगा रहा था तभी बाबु साहब का फ़ोन आता है और वे बताते हैं कि यही क्रोकोडायल पार्क है। इसे कहते हैं टेलीपैथी। मै ट्रेन में क्या सोच रहा हूं यह जानकारी बाबु साहब को हो जाती है और वे मुझे फ़ोन पर उस स्थान के बारे में बता देते हैं। सिद्ध पुरुषों के यही चमत्कार होते हैं।

अकलतरा का स्कूल
छुक छुक गाड़ी अकलतरा स्टेशन पर पहुंचती है। इस स्टेशन से कई बार होकर गुजरा लेकिन यहां उतरा एक बार भी नहीं। डिब्बे से बाहर आता हूँ तो लू की लपट लगती है, टेम्परेचर 42 के पार लगता है। 22N01 82E26 अक्षांश देशांश पर अकलतरा स्थित है, डिब्बे से बाहर आते ही बाबु साहब नजर आते हैं, राम राम होने के बाद हम उनके घर चल पड़ते हैं। 2 बज रहे हैं, मंझनियाँ का समय और सूरज अपने पराक्रम पर। घर पहुंच कर सबसे पहले हस्त-मुख प्रक्षालन होता है। बाबु साहब कहते हैं - भोजन करके थोड़ा आराम कर लेते हैं फ़िर घुमने चलेगें। उन्होने कई जगह जाने का कार्यक्रम पहले से ही बना रखा है। उनकी माता जी एवं बहने बढिया खाना खिलाती हैं, बड़ी बिजौरी के साथ परम्परागत भोजन का आनंद ही कुछ और है। अंत में एक कटोरी गोरस भोजन पचाने के लिए काफ़ी होता है। थोड़ा आराम करने के बाद हम अकलतरा के कोट गढ के मड फ़ोर्ट को देखने निकलते है तो बाबु साहब कहते हैं, तनि स्कूल और बैंक देखते हुए चलते हैं। इस स्कूल के सांस्कृतिक मंच की गरिमा है कि इस पर देश की नामी हस्तियों ने अपनी बात कही है।

सहकारी भवन
हम स्कूल की ओर चलते हैं। बाबू साहब मुझे स्कूल और सहकारी बैंक दिखाना चाहते हैं। सहकारी बैंक की पुरानी बिल्डिंग खंडहर हो चुकी है। उसमें जड़े तालों में जंग लग चुकी है। सहकारी बैंक की स्थापना डॉ इंद्रजीत सिंह  (अकलतरा के मालगुजार और राहुल भैया के दादा जी) ने की थी, वे सहकारी आंदोलन से जुड़े थे और   भूमि दान की थी बैंक की स्‍थापना के लिए, वे ट्रस्‍टीशिप और सहकारिता के प्रबल पक्षधर थे। उन्‍हीं की प्रेरणा मानी जा सकती है कि अकलतरा का उ मा शाला का संचालन आज भी सफलता और कुशलतापूर्वक निजी संस्‍था द्वारा किया जा रहा है। स्कूल, अस्पताल, थाना, सहकारी बैंक एवं अन्य संस्थानों के लिए डॉ इंद्रजीत सिंह ने मुक्त हस्त से भूमि दान की। हम सहकारी बैंक में लगे उद्धाटन शिला की फ़ोटो लेना चाहते थे। परन्तु तालों में जंग लगने के कारण वे खुले नहीं। बाबु साहब ने बहुत कोशिश की।

सहकारी बैंक के बड़े बकायादार
आखरी इलाज इन्हे तोड़कर ही खोलने का था, जो हमने स्थगित कर दिया। सहकारी बैंक नए भवन में चला गया है, पुराना भवन खंडहर होकर ढह रहा है। इस भवन में कालातीत ॠणियों (बकायादारों) की सूची लगी है। कुछ लोगों के लिए खुशी की बात होती थी कि बैंक के ॠणियों की सूची में नाम होना। अगर जिसका नाम सूची में नहीं है उसकी इज्जत ही क्या है। बैंक का चुनाव भी लड़ने की पात्रता उसे ही है जो बैंक का कर्जदार होता है। इसलिए सहकारी बैंक से कर्ज लेना अनिवार्य मजबूरी है समझिए। एक ऐसी ही लिस्ट मुझे यहाँ देखने मिली। स्कूल के सामने ग्राऊंड में बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं और साथ ही चुस्की वाले का ठेला भी लगा है। गर्मी में ठंडक का अहसास लेना है तो चुस्की का आनंद लेना ही पड़ेगा। अब चुस्की का आनंद लेते हुए हम चल पड़ते हैं कोट गढ की ओर… … ……  आगे पढें

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

भई, कार्यक्रम हो तो ऐसा ----- ललित शर्मा

ई अब तो लिखना ही पड़ेगा कि कार्यक्रम हो तो ऐसा! अनिल पुसदकर ने एक महीने पहले फ़ोन कर के बताया कि उनकी कृति "क्यों जाऊं बस्तर? मरने! का विमोचन 31 मार्च को होना है, साथ ही यह भी कहा कि "31 मार्च को कहीं दूसरी जगह का कार्यक्रम न बनाना और कार्यक्रम में उपस्थित होना है। मैं निमंत्रण पत्र भिजवा रहा हूँ। मैने कहा कि - निमंत्रण पत्र की आवश्यकता नहीं है, आपका फ़ोन ही काफ़ी है। मैं समय पर पहुंच जाऊंगा। उसके बाद अनिल भाई भी व्यस्त हो गए विमोचन के इंतजाम में और हम भी अपनी निठल्लाई में लग गए। अनिल भाई से लगाव तो सदा से ही रहा है। उनकी साफ़गोई पसंद आती है। मन भेद कभी रहा नहीं।

पुस्तक विमोचन का प्रचार कार्य जोरों पर चल रहा था। 31 मार्च 2012 का वह दिन भी आ गया। पुस्तक के प्रकाशक सुधीर शर्मा जी का भी मैसेज आया था कि यह उनके प्रकाशन की 300 वीं पुस्तक है जरुर आना है। हम दोपहर 12 बजे ही पंहुच गए, भई कार्यक्रम अपना ही था, इसलिए जल्दी भी पहुंचना जरुरी था। पुस्तक का विमोचन छत्तीसगढ के यशस्वी मुंख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के हाथों होना था। स्थान मेडिकल कॉलेज का सभागृह था। पुस्तक विमोचन कार्यक्रम 4 बजे होना था। हम (राहुल सिंह, जी के अवधिया, राकेश तिवारी, अरुणेश दवे) भी मेडिकल कॉलेज 4 बजे ही पंहुच गए। पंहुचते ही अनिल भाई मिले और हमने उन्हे शुभकामनाएं दी। व्यस्तता के बीच उन्होने हमें समय दिया। हमने अपना स्थान ग्रहण किया।

थोड़ी ही देर मे सभागृह खचाखच भर चुका था। नेता, अभिनेता, अधिकारी, कर्मचारी, आम नागरिक, खास नागरिक, डॉक्टर्स, यार दोस्त सभी, याने छोटे बड़े हर तबके से लोग पहुंच चुके थे। जितने लोग भीतर बैठे थे उतने ही बाहर खड़े थे। ऐसा वृहद और गरिमामय पुस्तक विमोचन समारोह मैने पहली बार देखा। यह सब अनिल भाई के व्यक्तिगत संबंधों का प्रताप था। उपस्थित जनों को देखकर इनके सामाजिक संबंधों के दायरे का पता चलता है। सभी लोगों से सहज भाव से मिलना और उसे आत्मीयता का अहसास करा देना अनिल भाई की खूबी है। जिसका परिचय कार्यक्रम में उपस्थिति से पता चलता है।

अनिल भाई के बचपन एवं स्कूल-कॉलेज के मित्रों ने मोर्चा संभाल रखा था। कार्यक्रम के मुख्यातिथि छत्तीसगढ के यशस्वी मुंख्यमंत्री डॉ रमन सिंह, मुख्य वक्ता राज्यसभा सदस्य तरुण विजय थे एवं विशेष अतिथि बस्तर के आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा थे। कार्यक्रम 2 घंटे विलंब से शुरु हुआ। उपस्थित महानुभावों के द्वारा पुस्तक का विमोचन किया गया तथा पुस्तक पर चर्चा हुई।

मुख्यमंत्री डॉ.रमनसिंह ने अपने उद्बोधन में कहा कि इस कार्यक्रम में आने के लिए कई लोगों ने मुझे मना किया। मुख्यमंत्री ने कहा यह कोई सरकारी आयोजन नहीं है। एक पत्रकार का आयोजन है इसलिये मैं यहां आया। उन्होंने कहा कि मैं चाहता हूं ऐसे कार्यक्रम जगह-जगह आयोजित हो , स्वस्थ्य बहस हो और नक्सल समस्या का शीघ्र समाधान निकले। शीर्षक और मुद्दे पर कम चर्चा हुई, किन्तु अनुकंपा नियुक्ति के मामले पर उन्होंने कहा कि अनुकंपा नियुक्ति कोई बडी़ बात नहीं है। सरकार ने नियम बना दिये हैं कि शहीद के परिजनों को तब तक पूरा वेतन दिया जायेगा, जब तक शहीद की उम्र रिटायर्ड तक पूरी नहीं हो जाती।

कार्यक्रम में महेन्द्र कर्मा ने कहा कि नक्सल समस्या अब अकेले कांग्रेस या भाजपा या फिर किसी एक पार्टी के बस की बात नहीं है। सबको मिलकर इसका समाधान खोजना होगा। सरकार को दांव पर भी लगाना पड़ सकता है। विशेष यह था कि अनिल भाई ने पुस्तक के कुछ अंश को पॉडकास्ट भी किया। गंभीर आवाज में पुस्तक का वाचन बहुत अच्छे ढंग से किया गया। अनिल भाई को मेरी तरफ़ से एक बार पुन: बधाई एवं शुभकामनाएं। ये सच है कि ऐसा पुस्तक विमोचन कार्यक्रम मैने कभी देखा नहीं।