सोमवार, 28 जनवरी 2013

बौद्ध मठ एवं तिब्बती औषधालय Manpat


सुबह जल्दी हो गयी, सूर्योदय हो रहा था। सूर्योदय का यही नजारा देखने हम जल्दी उठे थे। ठंड ऐसी थी कि रुम से बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा था। पंकज पहले ही उठकर जोगिंग के लिए जा चुका था। मेरे बाईं तरफ़ सूर्योदय हो रहा था, पहाड़ियों के बीच से। आज धुंध भी अच्छी थी। सूर्योदय की लालिमा क्षीतिज पर बिखर कर अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रही थी। पंकज जोगिंग से लौट आया था और राहुत बिस्तर में ही था। चौकिदार से नहाने लिए गर्म पानी करने कहा। मैं आँवले की दातौन तोड़ी। सुबह दातौन करने में ही मजा है। दांत भी स्वस्थ रहते हैं और स्वास्थ्य भी उत्तम बना रहता है। एक घंटे में हम नहा धोकर तैयार हो गए। क्योंकि आज लौटने का दिन था।
सूर्योदय
इस जंगल में साही भी हैं। जिसके कांटे यत्र-तत्र बिखरे पड़े रहते हैं। साही का कांटा बहुत नुकीला और हड्डी के जैसा मजबूत होता है। चौकिदार कहीं से एक कांटा उठा लाया था। काले और भूरे रंग का कांटा खूबसुरत दिखाई देता है। साही अपने प्राणों की रक्षा इसी से ही करती है। ग्रामीण इससे टोटका भी करते हैं। कहते हैं कि साही के दो कांटे किसी के घर के दरवाजे की चौखट दोनो तरफ़ लगा दिए जाएं तो उसके घर में कलह प्रारंभ हो जाता है। जब तक कांटे वहाँ रहेगे तब तक कलह जारी रहेगा। खैर हमने तो कभी प्रयोग करके देखा नहीं और न ही प्रयोग करने का मन है। क्यों किसी बेचारे के घर में कलह कराया जाए। सोच रहा था कि यदि इसका उपयोग ब्लॉग पर होता तो किसी के ब्लॉग टेम्पलेट के दोनो तरफ़ खोंच देते और मौज लेते रहते। :)
मेहता पाईंट का रेस्ट हाउस
रेस्ट हाऊस से चलते-चलते लगभग 9 बज गए। यहाँ से हमें कैम्प नम्बर 1 के बौद्ध मठ एवं तिब्बति दवाखाना देखना था। मर्करी रिसोर्ट से आगे चलने पर कैम्प नम्बर एक आता है। सबसे पहले हमें तिब्बती औषधालय दिखाई दिय। एक व्यक्ति वहाँ झाड़ू लगा रहा था। डॉक्टर के विषय में पूछने पर वह किसी को बुलाने गया। एक तिब्बती बाहर निकल कर आया और बोला कि डॉक्टर साहब नहीं है वे धर्मशाला गए हैं। मैने थोड़ी देर अस्पताल का निरीक्षण किया। आम अस्पतालों जैसे ही यहाँ भी रजिस्ट्रेशन काऊंटर, ओपीडी, दवाई देने का स्थान एवं औषधालय बना रखा था। 
तिब्बती औषधालय
मेरी जिज्ञासा थी कि जिस तरह चीन में पशु पक्षियों के मांस, मज्जा, रक्त इत्यादि से दवाईयाँ तैयार की जाती है। उसी तरह की दवाईयाँ देखने मिलेगीं पर यहाँ तो शीशियों में बंद गोलियाँ ही दिखाई दी। सारी गोलियाँ एक जैसी थी और उनका रंग भी सभी शीशियों पर तिब्बती भाषा में पहचान लिखी थी। शायद वह व्यक्ति कम्पाऊंडर था। मेरे पूछने पर कहने लगा कि डॉक्टर साहब जिस दवाई का नाम बताते हैं वह मरीजों को निकाल कर दे देते हैं। मुझे नहीं पता कि कौन सी दवाई किस मर्ज में काम आती  है। डॉक्टर होते तो दो चार बीमारियों की तिब्बती चिकित्सा पर बात होती लेकिन निराशा ही हाथ लगी।
लामा
औषधालय थोड़ा आगे चलकर बांए हाथ पर केन्द्रीय विद्यालय है जहाँ पर 8 वीं तक तिब्बतियों के बच्चे पढते है। रास्ते में एक शिक्षिका बच्चों को स्कूल ले जाती हुई दिखाई दी। आगे बढने पर दांए हाथ की तरफ़ के रास्ते में थोड़ी दूर चलने पर बौद्ध मठ दिखाई देता है। हमने कार वहीं दरवाजे पर खड़ी  की और बौद्ध मठ में पहुंचे। बौद्ध मठों में चटख गहरे रंगों का प्रयोग किया जाता है। यहाँ पर भी चित्रकारी उन्ही रंगों  का प्रयोग किया गया है। मठ में प्रवेश करने पर युवा लामा से मुलाकात होती है। 50 बरस हो गए तिब्बतियों को भारत में लेकिन हिन्दी अभी तक नहीं सीख पाए हैं। बोलेगें तो वही हमेशा की तरह टूटी फ़ूटी। जिसे समझने के लिए दिमाग पर जोर डालना पड़ता है। दो स्थानों पर गुरु गद्दी जैसी बनाई गई है जिसके सामने चाँदी की थाली में एक घंटी रखी है उसमें चावल और रुपए चढाए गए हैं।
इस पर ही चावल और रुपया चढाते हैं
पीछे वाली गद्दी के पास इस घंटी के अतिरिक्त एक पात्र भी रखा है। तभी एक तिब्बती आता है उसके हाथ में इम्पिरियल ब्लू का क्वाटर है। गद्दी को प्रणाम कर 10 रुपए का नोट चढाता है और शीशी खोल कर पात्र में मद्यपेय अर्पण कर देता है। इस प्रक्रिया को राहुल दृष्टि गड़ाए हुए देख रहा था कि ये कैसा मठ है जहाँ एक पात्र रखा है और उसमें दारु दारु डाली जा रही है। शाम तक तो लामा महाराज का फ़ुल इंतजाम हो जाता होगा टुन्न होने का। उससे रहा नहीं गया तो लामा से पूछ ही लिया। लामा ने बताया कि वह दारु नहीं चाय है। तिब्बती सुबह चाय लेकर आते हैं और इस पात्र में डाल देते हैं। सामने ही वज्र रखा था। ठीक वैसा ही वज्र जैसा सिरपुर में उत्खनन के दौरान प्राप्त हुआ है। इससे जाहिर होता है बौद्ध मठों में धातू का वज्र एवं घंटी रखने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। 
वज्र एवं घंटी- ऐसा ही सिरपुर के उत्खनन में प्राप्त हुआ
मठ में बड़े आकार के तिब्बती लामाओं द्वारा पहने जाने वाले टोपे रखे हैं। राहुल एक टोपा पहन कर फ़ोटो खिंचाना चाहता था। परन्तु लामा ने मना कर दिया कि आप उसके पात्र नहीं है। इसे दीक्षित लामा ही पहन सकते हैं। मठ के प्रांगण में सौर उर्जा से भोजन इत्यादि पकाने का चलित सौर उर्जा यंत्र रखा हुआ है। इसे सूर्य की किरणो को परवर्तित करने के लिए चलित बनाया गया है। डिस्क जैसी छतरी उपर-नीचे और अगल-बगल घुमाई जा सकती है। इसके मध्य में एक बर्तन रखा हुआ है। जिसमें पकाने वाली सामग्री रखी जाती है। बौद्ध मठ से निकल कर हम बस स्टैंड पहुंचते है, यहाँ एक होटल में गर्मा गरम आलु गुंडे बन रहे थे। सुबह का नाश्ता हमने यहीं पर किया। आलु गुंडे के साथ टमाटर और हरी मिर्च की चटनी बहुत ही उम्दा थी। मजा आ गया नाश्ता करके। अब हम यहाँ से अम्बिकापुर की ओर चल पड़े। जहाँ अमित सिंह देव से मुलाकात होनी थी और आगे की यात्रा में चलना था। आगे पढ़ें 

रविवार, 27 जनवरी 2013

जिन्दगी भर नहीं भूलेगी ........

रास्ते की बस्तियाँ सुनसान थी। ठंड अधिक होने कारण  लोग अपने घरों के दरवाजे बंद कर गरम हो गए थे। हम जंगल में भटक रहे थे। ये कैसी विडमबना है कि जंगल का आदमी शहर की तरफ़ भागता है और शहरी जंगल की तरफ़।  हम तो सभी जगह खुश रहते हैं। जहाँ जो मिल जाए वही चल जाए। एक यायावर की जिन्दगी यही होती है। जाहि बिधि राखे राम तेही बिधि रहिए। वीरान कच्चे रास्ते पर लक्जरी कार चलना ऐसा लगता है कि जैसे कार के साथ अत्याचार हो रहा है। मुझे ठंड लग रही थी। हम रेस्ट हाउस पहुचे तो चौकीदार तैयार था। उसने आकर गेट खोला और हम रेस्ट हाऊस के भीतर हुए। चारों तरफ़ बिजली की रोशनी थी। जहाँ तक बिजली की रोशनी थी वहीं तक दिखाई देता था उसके आगे अंधेर गुप्प था। 
विश्राम गृह मेहता पाईंट
मेहता पाईंट के इस रेस्ट हाऊस में दो भवन हैं। एक भवन में तीन कमरे हैं और दूसरे भवन में दो कमरे। जिनकी हालत खस्ता है। दो कमरे वाले भवन में पलंग बिछा  है जिस पर गद्दे लगे हुए थे। चौकीदार से चादर मंगाई तो उसे देखकर यहाँ ठहरने की हिम्मत नहीं हुई। हमारे पास कम्बल और चादर थी। साथ ही एक बालक की जिद के कारण हमें रुकना ही पड़ गया। चादरों की हालत देख कर लग गया था कि यहाँ का चौकिदार कितना अधिक कामचोर है। 10 रुपए के निरमा पावडर से चादर साफ़ हो सकती थी। लेकिन सरकारी मामला है, वह क्यों मगजमारी करे। पूछने पर कहने लगा कि अगर कोई बड़ा अधिकारी इधर आता है तो साहब लोग अम्बिकापुर से सारा सामान साथ ले आते हैं। यहाँ से कुछ भी लेने की जरुरत नहीं पड़ती। 
इस रात की सुबह नहीं
राहुल ने गाड़ी से उतरते ही कैम्प फ़ायर का मन बना लिया चौकीदार के साथ लकड़ियां लेकर आया और रेस्ट हाऊस के पीछे कुर्सियां और टेबल लगवाई। फ़िर कैम्पफ़ायर हुआ। खाने का कार्यक्रम शुरु हुआ। चौकीदार भी वहीं बैठ गया आगी तापने के एवं कैम्पफ़ायर का मजा लेने के लिए। कहने लगा कि आप पहले बता देते तो मैं खाना यहीं बना देता। क्योंकि कुक्कड़ कम पड़ गए। अब गांव में सब लोग सो गए होंगे इसलिए मिलने से रहे। हमें भी लगा कि पहले ही इंतजाम कर लिया होता तो ठीक था। लेकिन अब क्या करते जितने भी थे वहीं उदरस्थ किए। राहुल ने फ़िर माउथ आर्गन बजा कर ब्लंडर किया। हँसी मजाक के साथ कार्यक्रम चलते रहा। इतनी ठंड में खुले आसमान के नीचे भी बैठना बेवकूफ़ी ही है। 
कैम्प फ़ायर
रामसे बदर्स की फ़िल्म का चौकीदार अपनी चादर ओढ कर हमारे पास ही बैठ गया । रात गहराते जा रही थी, जंगली जानवरों की आवाजें आने लगी। सूनसान वीराने में हल्की सी आवाज भी दूर तक हवा में तैर जाती है। कार के एफ़ एम रेडियो पर रायगढ का प्रसारण चल रहा था। हम फ़ोन इन कार्यक्रम का आनंद ले रहे थे। एफ़ एम आने के बाद ग्रामीण अंचल में रेडियो का चलन एक बार फ़िर बढ गया। साथ ही गांव तक मोबाईल फ़ोन पहुचने के कारण फ़ोन इन कार्यक्रम काफ़ी सफ़ल हो रहे हैं। रात्रि का भोजन करने के बाद ग्रामीण रेडियो सुनते हुए अपनी फ़रमाईश का गाना सुनने के लिए फ़ोन लगाते रहते हैं। जिसका फ़ोन लग गया समझो उसकी तो बल्ले बल्ले हो गई। साथ ही फ़ोन करने वाला भी एंकर के साथ इतनी आत्मीयता से बात करता है जानों उसे बरसों से जानता हो। बस सुनसान स्थान पर कैम्प फ़ायर के साथ रेडियो का आनंद अद्भुत वातावरण बना रहा था।
आग की गर्मी के सहारे तिहारे पियारे
चौकीदार से मैने रेस्ट हाऊस की बुरी हालत के विषय में पूछा तो कहने लगा कि - सर क्या बताऊं आपको, इस साल में सिर्फ़ 3 बार ही यहां पर कोई रुका है आकर। अब आप लोग चौथे हैं जो यहाँ रात को ठहर रहे हैं। कोइ डर के मारे यहाँ रुकता ही  नहीं है। आस-पास भी 2-3 किलोमीटर तक कोई आबादी नहीं है, यदि कोई हादसा हो गया तो मुफ़्ते में मारे जाएगें। रात को जंगली जानवर आते हैं। बरहा और भालुओं की तो भरमार है। जब मेरी चौकीदारी यहाँ लगी तो सब खंडहर पड़ा था। उधर (मैदान की तरफ़ संकेत करते हुए) सब झाड़-झंखाड़ था। मेरे आने के बाद सब बिल्डिंग की मरम्मत हुई। एक बात बताऊं सर! यहाँ पर कई चुडैलों का डेरा है। मै कई बार सुना हूँ। छत पर धम-धम कूदने की आवाज आती  है। कमरों में छन-छन पायल की आवाज आती  है। मैं यहाँ पर अकेला रहता हूँ। एक साथी और है जो आ जाता है दोनो यहाँ रहते हैं। नहीं तो अकेला ही रहना पड़ता है।
स्वानानंद महाराज अपने चेले के साथ आग तापते हुए
हम लोग तो यहीं के रहने वाले हैं। किसी चीज से नहीं डरते। यहीं खाना बना लेते है और पड़े रहते हैं। दिन में घूमने वाले आते हैं और खा-पीकर घूम-घाम कर चले जाते हैं। रात को सिर्फ़ हम ही बचते हैं। वह धारा प्रवाह कथा कहे जा रहा और हम उसकी बात सुनते जा रहे थे। तो चुडैलें अभी भी हैं क्या? अभी नहीं हैं, एक बाबाजी यहां आकर रुके तो उन्होने भी कहा था कि यहां पर चुड़ैले हैं। बोले कि दूबारा आऊंगा तो इनका मंतर-तंतर से इलाज कर दुंगा। कुछ दिनों के बाद वे दुबारा आए तो उन्होने कुछ जादू मंतर किया । अब क्या किया वे ही जाने, तब से पायल बजने की आवाजें आना बंद हो गयी कहते हुए उसने धीरे से चादर के भीतर से गिलास निकालकर धीरे आगे सरका दिया। दो स्वानानंद महाराज भी आनंदित भए चौकिदार का प्रवचन सुन रहे थे।
लो हो गया अब कैम्प फ़ायर
फ़िर आगे कहने लगा कि ये पूरा ईलाका सरगुजा राजा का था। बूढे लोग बताते है कि कीर्ति राजा यहां पर शिकार खेलने आते थे तो हांका करने के लिए आस पास के सारे गांव वालों को जाना पड़ता था। जो जिस हालत में होता था उसे उसी हालत में जंगल में हांका करने जाना पड़ता था। अगर चुल्हे पर हंडी चढी है तो उसे भी वैसे ही छोड़ कर जाना होता था। जब तीन तरफ़ से हांका शुरु होता था तब राजा शेर का शिकार करते थे। मैट्रिक तक पढा-लिखा चौकिदार होशियार बहुत है। उसकी बाते चल रही थी और मुझे नींद आ रही थी। बिजली की रोशनी होने के कारण कोई समस्या नहीं थी। अगर बिजली चली जाती तो आग की रोशनी में भूत ही भूत दिखाई देते। मैं तो सोने चला आया कमरे में। पंकज पहले ही आकर सो गया था। राहुल कब तक उसकी कहानी सुनता रहा पता नहीं। निद्रा देवी भी कब तक प्रतीक्षा करती। उसे भी तो अपनी जिम्मेदारी  निभानी थी……… आगे पढ़ें 

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

टाईगर पाईंट और मर्करी रिसोर्ट ... Mainpat


मलेश्वरपु्र से सीतापुर जाने वाले मार्ग पर थोड़ी दूर जाने पर टाइगर पाईंट आता है। यहां छोटी पहाड़ी नदी पर एक झरना है जिसकी खाई में कभी शेर इत्यादि जंगली जानवर पानी पीने आते होगें। अब तो सिर्फ़ टाईगर नाम ही रह गया है। पर्यटक सोचते होगें कि टाईगर दिखेगा। लेकिन अब कहाँ टाईगर दिखाई देगें। नदी के पानी गिरने के स्थान पर रेलिंग लगा कर सुरक्षित कर दिया गया है। यह घाटी मनोरम दिखाई देती है। जब हम पहुचे तब धुंधलका होने लगा था और पहाड़ी की छाया घाटी पर पड़ने के कारण स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। राहुल और पंकज घाटी  में उतरना चाहते थे। उपर से गिरते हुए झरने के समीप खड़े होकर आनंद जो लेना था।
मैनपाट का गुगल व्यु
वे तीनों नीचे घाटी में उतर गए, मौसम में शीतलता आ रही थी। झरने के पानी गिरने से नीचे जंगल में  थोड़ी धुंध भी बन रही थी। मै और विष्णु उपर ही रह गए। नीचे उतरने से ठंड लगने की समस्या थी और मैं अपने साथ कोई गर्म कपड़े नहीं लाया था। लेकिन मैनपाट की ठंड का अहसास होने लगा था। कुछ लोग वहां पिकनिक मना रहे थे। पास ही एक मंदिर बना हुआ था। लोगों ने बड़े हंडे चढा रखे थे। किसी का खाना बन रहा था तो कोई भोजन करके पत्तलें समेंट रहा था पत्तलें और डिस्पोजल गिलास यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे। इंसान की अजब फ़ितरत है, जहां भी जाएगा वहीं गंदगी फ़ैलाएगा। इससे तो जानवर ही भले हैं जो गंदगी साफ़ करते  हैं। इस सुंदर प्राकृतिक स्थल को प्लास्टिक से पाट रखा है।
टायगर प्वांईट पर टायगर 
लैला मजनु की सयुंक्त औलादों के कारनामों के तो क्या कहने। पत्थर तो पत्थर ग्वारपाठे के पत्तों पर भी दिल चिपका रखा  है। साथ ही विरदावली लिख रखी  है। जैसे जब कभी भी यह सभ्यता नष्ट होगी तो आने वाली नयी सभ्यता को इनकी प्रेम कहानी पत्तों पत्तों पर लिखी मिलेगी फ़ासिल्स के रुप में। मैं कुछ यही सोच रहा था इस स्थान पर, तभी साथी भी आ गए घाटी में से घूम कर, बोले बहुत ठंड है  नीचे। अच्छा हो गया आप उपर ही रह गए। अब मैं इन्हे मना करता तो मानते नहीं। आज कल के छोकरों का यही रोना है। मनमानी ही करते हैं। अब संध्या नास्ते के लिए समोसे निकाले गए। समोसों  की चटनी उम्दा थी। सभी के हिस्से दो-दो समोसे आए। सांझ होने को थी अब हमे लौटना था कमलेश्वरपुर की ओर।
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल तुम्हारा जाने हे
राहुल के सिर पर सुबह से ही मैनपाट में रात्रि विश्राम करने का भूत सवार था। मैनपाट के हालात देखते हुए मेरा रुकने का मन नहीं था और  न ही विष्णु सिंह और उसका साथी रुकना चाहता था। राहुल ने जिद पकड़ ली कि उसे मैनपाट में ही रुकना है वरना अपने दोस्तों को क्या मुंह देखाएगा कि मैनपाट गया और वहां रात नहीं रुका। बात मुंह दिखाने तक पहुंच गयी थी। हमारे रुकने की व्यवस्था मेहता पाईंट स्थित विश्राम गृह में की गयी थी। हम सब एक बार यह स्थान देखना चाहते थे। टाईगर पाईंट से मेहता पाईंट दक्षिण दिशा की ओर है। कमलेश्वरपुर से लगभग 7-8 किलोमीटर की दूरी होगी। ढूंढते हुए हम मेहता पाईंट पहुचे तो सूर्यास्त होने को था। 
रेस्ट हाऊस में पहुंचने पर कोई दिखाई नहीं दिया। 
टाईगर प्वाईंट की ढलती हुई सांझ
थोड़ी देर तक आवाज देने पर एक चौकीदार निकल कर आया और आते ही बोला कि यहाँ के नल की मोटर खराब हो गयी है और सुबह आपको नहाने के लिए पानी नहीं मिलेगा। राहुल को तो रात मैनपाट में काटनी थी। वह इस स्थिति में भी तैयार था। हमने थोड़ी देर रुक कर प्राकृतिक नजारे का आनंद लिया। दाई तरफ़ सूर्यास्त हो रहा था। बड़ा ही मनमोहक दृश्य था। अंदाजा लग गया था कि जब सुबह होगी तो घाटी में बाईं तरफ़ सूर्योदय होगा। ऐसा दुर्लभ नजारा कम ही स्थानों पर मिलता है जब एक तरफ़ सूर्यास्त हो और सुबह दूसरी तरफ़ सूर्योदय हो। सामने घाटी में छोटा सा बांध दिखाई दे रहा था। सूरज की लालिमा पहाड़ों से होते हुए घाटी तक जाना चाहती थी।
पिकनिक के अवशेष टाईगर प्वाईंट पर
यह दृश्य देख कर मैने भी यहीं रात्रि विश्राम करने का मन बना लिया। यहाँ दो भवन हैं एक में 2 कमरे हैं और दूसरे में तीन चार कमरे बने हुए हैं। लेकिन रुकने के लायक कोई व्यवस्था दिखाई  नही दी। फ़िर भी हम चौकीदार को वापस आने की कहकर विष्णु सिंह एवं उसके साथी को तिब्बती कैंप नम्बर 1 के समीप स्थित बस स्टैंड छोड़ने के लिए आए। वापस अम्बिकापुर जाने का  कोई साधन तो दिखाई नहीं दिया। तभी एक बोलेरो वाले से चर्चा करने पर वो विष्णु सिंह एवं उसके साथी को  अम्बिकापुर ले जाने को तैयार हो गया। वे जब बोलेरो में बैठ गए और  वह चल पड़ी तब हमने राहत की सांस ली। क्योंकि उन्हे रात अम्बिकापुर में किसी मित्र के यहाँ शादी में जाना था।
मर्करी रिसोर्ट की छोलदारी का इंटिरियर
रेस्ट हाऊस में खाना बनाने की व्यवस्था नहीं होने के कारण अब हमें खाना ढूंढना था। पूछने पर पता चला कि थोड़ी दूर पर मर्करी रिसोर्ट है अब खाना वहीं मिल सकता है। हम मर्करी रिसोर्ट पहुचें। बरसाती नाले के किनारे पर 6 टैंट (छोलदारी) लगा कर रुकने का इंतजाम किया गया है। किचन एवं रेस्टोरेंट बांस से बनाया हुआ है। रेस्टोरेंट की टेबल एंव कुर्सियां भी बांस की ही हैं। पूरा इंटीरियर ही बांस का बनाया हुआ है। सामने लॉन में कुछ टेबल और कुर्सियाँ लगा रखी हैं। रात रुकने के लिए एक स्विस कॉटेज का किराया 1800 रुपए बताया। बार्गेनिंग करने पर 1500 तक बात पहुच गयी। एक बैड अलग डालने के 300 रुपए अतिरिक्त लगेगें। हमने छोलदारियाँ देखी, उनमें लैट्रिन-बाथरुम अटैच था। साथ ही एसी की व्यवस्था भी थी।
मर्करी रिसोर्ट का रेस्टोरेंट
हमने खाना पार्सल करने का आदेश दिया और तब तक चाय की व्यवस्था करने कहा। मैनपाट में यही एक मात्र रेस्टोरेंट हैं जहाँ खाना मिल सकता है। चाय में शुगर फ़्री डालने कहा तो वेटर के मैनेजर ने भी असमर्थता जता दी। इससे मुझे पता चल गया कि इस रिसोर्ट का क्या स्तर है। सिर्फ़ नाम का ही रिसोर्ट लगा। पूछने पर पता चला कि बाकी सब व्यवस्था हो जाएगी लेकिन शुगर फ़्री नहीं मिलेगी। चाय लेकर आया तो वह ठंडी पड़ी थी और बाहर का टेम्परेचर लगभग 3-4 डिग्री के आस पास था। ठंडी चाय की घुंट लेते ही खोपड़ी घूम गयी। मन ही मन सोचा कि कहाँ फ़ंस गए आकर। एक तरफ़ सरकार मैनपाट नहीं देखा तो क्या देखा के बोर्ड लगा रही है और इधर मैनपाट पहुंचने पर ये हालात हो रही है।
मेहता प्वाईंट का सूर्यास्त
हमने खाने का पार्सल लिया। बिल पूछने पर थोड़ा मंहगा ही लगा। अब मैनपाट में जब और दूसरी जगह खाना नहीं मिलना है तो एकाधिकार रहेगा ही। जो भी जिस भाव में मिल जाए लो और मौज करो। हम अपने रेस्ट हाऊस  की तरफ़ चल पड़े। रात के लगभग साढे आठ बज रहे थे। मैनपाट सुनसान पड़ा था। जहाँ पर हमें रुकना था वहाँ दो-तीन किलोमीटर तक बस्ती का कोई नाम निशान नहीं था। आस पास भी कोई आबादी नहीं थी। एक तरफ़ खाली मैदान और दूसरी तरफ़ खाई के साथ जंगल और जंगली जानवर। चौकीदार भी रामसे बदर्स की पुरानी हवेली के चौकीदार जैसा ही था। अब जो होगा सो देखा जाएगा। रात तो यहीं गुजारनी है। 

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

तिब्बत से निर्वासन की टीस बाकी है आज तक ………

मैनपाट पर पहुचने पर एक स्थान पर दूर से ही हवा में लहराती हुई रंग बिरंगी पताकाएं दिखाई देने लगी। लगभग 12 बजने को थे। पताकाओं लिखे तिब्बती बौद्ध प्रार्थना मंत्र हवा के माध्यम से प्रसारित हो रहे थे। बस मुझे तो इस गाँव में पहुंचना है। साथियों को चेता दिया मैने। छत्तीसगढ अंचल में बनने वाले कवेलू और मिट्टी के घरों को चटक भड़कीले रंगो से पोता गया था। दूर से ही देखने से पता चल जाता है कि यह कोई तिब्बती बस्ती है। जब मैं धर्मशाला गया था तब वहाँ से लौटते हुए बस में एक तिब्बती सेवानिवृत्त प्रोफ़ेसर से मुलाकात हुई थी। रास्ते में धर्मशाला से खजियार तक मेरी उनसे तिब्बत के विषय पर चर्चा हुई। जिससे तिब्बतियों के विषय में भरपूर जानकारी मिली।
मोनेस्ट्री की दीवार पर तिब्बती भाषा
इस तिब्बतियों की बस्ती को कमलेश्वरपुर कह्ते हैं एवं शरणार्थियों की बसाहट के हिसाब से इसे कैम्प नम्बर 2 नाम दिया गया है। यहाँ प्रार्थना करने के लिए छोटा मठ भी है। मंदिर परिसर में मैने छोटे मनौती स्तूपों से लेकर एक दीवार पर निर्मित सहस्त्र बुद्ध प्रतिमाएं भी देखी। मैनपाट में तिब्बतियों के 7 कैम्प हैं। प्रत्येक कैम्प का एक मुखिया है और सभी 7 कैम्पों  का एक प्रधान मुखिया है। यहाँ से निर्वासित तिब्बती सरकार का एक सांसद चुना जाता है। शरणार्थी होने के कारण ये भारत के निर्वाचन में मतदान नहीं कर सकते। भारत में इनकी  कई पीढियाँ हो चुकी है फ़िर भी इन्होने बांग्लादेशियों  जैसे भारत की नागरिकता के लिए कोई आवेदन नहीं किया है। इनकी आशा अभी तक लगी हुई है कि चीन से तिब्बत को आजादी मिलने के बाद अपने वतन को वापस चले जाएगें।
तिब्बतियों के गाँव की सुनसान गली
इस कैम्प में मेरी मुलाकात तिब्बतियों के बुजुर्ग लोतेन से होती है। मैं गलियों में घुमते हुए उनके घर के पास पहुचता हूँ। टीन शेड का सुंदर मकान में बड़ा सा आंगन है। आँगन के भीतर एक मचान पर खाल में भुसा भरा हुआ बछड़ा रखा है। एक अरसे के बाद यह दृश्य देखने मिला। शावक की मौत होने पर भैंस या गाय दूध देना बंद कर देती  हैं। इसलिए उस शावक की खाल में भूसा भरवा कर उसके समक्ष रखने से भैंस और गाय दूध देने लगती हैं। इस बछड़े के पुतले का उपयोग इसी प्रयोजन से किया जाता है। एक मचान पर मक्का के भुट्टे सुखाने के लिए लटकाए हुए थे। आँगन में धान सुखाया हुआ था जिसे दो मजदूर बोरों में भरकर घर के भीतर रख रहे थे। इससे जाहिर होता है कि तिब्बती खेती करने में भी माहिर हैं।
सरसों की फ़सल एवं हवा में तैरती मंत्र पताकाएं
तिब्बतियों का यह गाँव सुनसान दिख रहा था। सिर्फ़ कुछ बुजुर्ग एवं कुछ बच्चे ही दिखाई दे रहे थे। मुझे देखकर लोतेन की  पत्नी कुर्सियाँ लेकर आती है और 1942 में तिब्बत के खम्नांचिन में जन्मे लोतेन मेरे पास आकर बैठ जाते हैं। उनसे चर्चा प्रारंभ होती है। वे बताते हैं कि तिब्बत 1961 में निर्वासित होने के बाद सबसे पहले वे नेपाल के मोनकोट में आए। उसके पश्चात 1963 में नेपाल से भारत में प्रवेश किया। इनके परिवार ने नेपाल से भारत में पैदल ही प्रवेश किया। तब भारत सरकार ने इन्हे शरणार्थी मान कर भारत में शरण दी। ठंडे प्रदेशों में रहने के कारण तिब्बतियों की भारत की गर्म जलवायु रास नहीं आई। जिससे कईयों की मृत्यु हो गयी। दलाई लामा के प्रयास से भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने भारत के प्रदेशों में ठंडे स्थान की खोज करवा कर वह स्थान इनके रहने के लिए आबंटित किए।
सहस्त्र बुद्ध 
उनमें से एक स्थान छत्तीसगढ का मैनपाट भी था। मैनपाट में तिब्बतियों की बसाहट 1965 में हुई। एक परिवार के 7 सदस्यों के हिसाब से इन्हे जीवन यापन के लिए 5 एकड़ भूमि दी गयी। मकान बनाकर देने के साथ 3 साल तक फ़्री राशन दिया गया। लोतेन भारत सरकार का आभार व्यक्त करते हैं। वे बताते हैं कि इन्होने ने यहाँ आलू, मक्का, टाऊ आदि की कम पानी की खपत वाली फ़सलें लगाना प्रारंभ किया। जिससे जीवन यापन होने लगा। साथ ही कालीन एवं स्वेटर का निर्माण का परम्परागत व्यवसाय भी प्रारंभ किया गया। महिलाएं हाथ से स्वेटर बनाकर अम्बिकापुर में बेचकर आती थी। अब हाथ की बनी मोटी स्वेटर को कोई पहनता नहीं है। इसलिए लुधियाना से मशीन की बनी हुई स्वेटर लाई जाती है। अभी गाँव के सारे जवान स्त्री पुरुष स्वेटर बेचने के लिए छत्तीसगढ एवं मध्य प्रदेश के अन्य शहरों में गए हुए हैं।
बौद्ध मठ  की पीठिका
लोतेन की उत्त्मार्ध चाय बनाकर ले आती हैं। चीनी बड़े-बड़े मग चाय के भरे हुए थे। एक कप चाय पीना कठिन था। लेकिन उनके आग्रह को देखते हुए चाय पीनी पड़ी। उन्होने बताया कि सारे कैम्पों मे। लगभग ढाई हजार तिब्बती निवास करते हैं। यहाँ पर परम्परागत तिब्बती औषधियों से युक्त अस्पताल भी है। जिसमें धर्मशाला से तिब्बती डॉक्टर आकर ईलाज करते  हैं। कैम्प नम्बर 1 में मुख्य मठ है जहाँ लामा निवास करते हैं। मुख्य धार्मिक कर्मकांड वहीं सम्पन्न कराए जाते हैं। उन्होने मुझे अपना और पत्नी का पासपोर्ट दिखाया जिसमें उनका  नाम पता एवं उम्र के साथ नेपाल के रास्ते पैदल भारत आने का विवरण दर्ज है। यह भारतीय पासपोर्ट इन्हे भारत का शरणार्थी होने का जिक्र करते हुए जारी किया गया।
लोतेन के साथ यायावर 
मै लोतेन से चर्चा कर रहा था और राहुल, पंकज एवं विष्णु वहाँ से गायब हो चुके थे। शायद मेरी और लोतेन की चर्चा उन्हे निरर्थक लगी होगी। क्योंकि यह चर्चा उनके कोई काम की नहीं थी। ये निर्वासित लोग बड़ी मेहनत के बाद परदेश में अपने जीवन की गाड़ी को पटरी पर लेकर आए हैं। एक बात गौर करने योग्य है। 50 बरस बाद भी इन लोगों ने अपनी भाषा, कर्मकांड, संस्कृति को नहीं छोड़ा है। मैनपाट में तिब्बतियों के लिए केन्द्रीय स्कुल है, जहाँ पढाई 8 वीं तक होती है इसके पश्चात आगे की कक्षाओं की पढाई के लिए हिमाचल प्रदेश स्थित धर्मशाला जाना पड़ता है। मैनपाट स्थित तिब्बतियों का संबंध इनकी निर्वासित सरकार के साथ सतत बना रहता है। उनके निर्देशों के अलावा भारत सरकार के कानूनों का पालन करते हैं। अपनी मिट्टी से उजड़ने का दर्द इनके मन को कचोटता है। दर्द इनकी आँखों में स्पष्ट झलकता है। भले ही यहाँ जन्म लेने वाली इनकी अगली पीढी ने तिब्बत नहीं देखा पर जंतर मंतर तक तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए इनकी आवाज गुंजती  है।
इहै है सिक्छा कर्मी परतापपुर के
लोतेन से विदा लेकर बाहर गली में निकला तो ये चारों गायब थे। गलियों में दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिए। मै पैदल ही पैदल मोनेस्ट्री तक आ गया। वहाँ लगी मूर्तियों को निहारने लगा। थोड़ा समय व्यतीत होने पर आगे बढा तो एक चौराहा दिखाई दिया। जहाँ सायकिल की दुकान पर कुछ तिब्बती युवा महफ़िल जमाए हुए थे। समीप ही आदिमजाति कल्याण विभाग का छात्रावास था। छात्रावास के मैदान में बड़ी बड़ी घास उगी हुई थी। वातावरण में ठंडक होने के कारण शिक्षक ने अपनी कुर्सी मैदान में ही डाल रखी थी। बच्चे सब खेल रहे थे। मैंने आश्रम परिसर में प्रवेश किया और शिक्षक के पास पहुंचा। उसने मेरे आगमन पर कोई ध्यान नहीं दिया। टेबल पर रखे रजिस्टर में कुछ लिखता रहा। चर्चा करने पर पता चला कि एक शिक्षा कर्मी है और प्रतापपुर से यहाँ पढाने के लिए आता है। इतनी देर में पंकज का फ़ोन आ गया कि वे गरम समोसे बनवा कर ला रहे हैं। थोड़ी देर में आ पहुंचे और हम टाईगर प्वांईट की ओर चल पड़े।

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बुधवार, 23 जनवरी 2013

तिब्बतियों का टाउ……

सुबह जल्दी ही आँख खुल गयी। सूरज भी रजाई ओढे गुड़ की लाल चाय की ताक में था। चाय आई तभी वह रजाई से बाहर निकला और सूर्योदय हुआ, इसके बाद मैने आंवला की दातौन का प्रयोग दांत मांजने के लिए करते हुए विश्राम गृह के लॉन के दो तीन चक्कर लगाए। राहुल और पंकज भी सोकर उठ गए। कमरे में यत्र-तत्र गुजरी हुई रात को बजे माउथ आर्गन के ब्लंडर की निशानियाँ मौजूद थीं। राहुल मोबाईल उठा कर दूर एक कोने में बतियाने लगा।  हम मार्निंग वाक करते हुए उसके समीप से गुजरे तो उसकी धीमी-धीमी आवाज सुनाई दी लेकिन समझ में नहीं आया क्या बतिया रहा था। समझ में नहीं आया कि उसकी कौन सी गर्लफ़्रेंड एक दम फ़ुरसत में थी जो अल सुबह ही इसे फ़ुसफ़ुसाने का मौका दे रही थी। चलो छोड़ा जाए इन बातों को, क्या रखा है, अगर हमारे जमाने में ऐसे फ़ोनवा होता तो ………:)
उदयपुर  का  विश्राम गृह 
स्नानाबाद अमित सिंह देव का फ़ोन आया और उन्होने जानकारी दी कि किसी विशेष कार्य से आज उपस्थित नहीं रहेगें। हमारे साथ विष्णु सिंह देव जाएगें मैनपाट के लिए। नाश्ता करने का मन नहीं था। रात का खाया ही हजम नहीं हुआ था। विरेन्द्र प्रभा होटल का कमाल था एक बार खाओ तो कई दिन तक भूख न लगे। शायद कोई नया फ़ार्मुला विकसित किया है।  अम्बिकापुर पहुंचने पर विष्णु सिंह देव मिल गए, साथ ही उनका एक साथी भी था। ये कांग्रेस की छात्र राजनीति में सक्रीय हैं और राजनीति को ही कैरियर बनाने के पक्ष में अधिक दिखाई दिए। थोड़ी जिज्ञासु प्रवृति होना इनके लिए लाभदायक है। जिज्ञासु होने से ही ज्ञान बढता है और उचित मार्ग दिखाई देता है।
मैनपाट का रास्ता  
हमने रास्ते के नाश्ते के लिए केले लिए और दरिमा होते हुए मैन पाट की ओर चल पड़े। मैनपाट को छत्तीसगढ का शिमला या धर्मशाला मान सकते हैं। शिमला इसलिए कि यहाँ का मौसम ठंडा है और धर्मशाला इसलिए कि यहाँ शरणार्थी तिब्बतियों का बसेरा है। अम्बिकापुर से मैनपाट जाने के लिए 2 रास्ते हैं। पहला अम्बिकापुर व्हाया सीतापुर होते हुए दूसरा अम्बिकापुर व्हाया दरिमा होते हुए। अम्बिकापुर से मैनपाट की दूरी 75 किलोमीटर है। पाट से तात्पर्य है पठार, मैनपाट विंध्य पर्वतमाला पर समुद्र तल से 3781 फ़ुट की ऊंचाई पर स्थित है। इसकी लम्बाई 28 किलो मीटर एवं चौड़ाई लगभग 13 किलोमीटर है। मैनपाट से रिहन्द एवं मांड नदी का उद्गम हुआ है।
टाऊ  के खेत में भविष्य  का ताऊ 
दरिमा के बाद मैनपाट की चढाई प्रारंभ हो जाती है। वन क्षेत्र से होते हुए हम मैनपाट की ओर बढ रहे थे। रास्ते में बड़े ट्रक मिलने लगे। पता चला कि यहां पर बाक्साईट की खदाने हैं जिनसे कच्चा माल निकाला जा रहा है। 1993 से बाक्साईट की  खदाने खुलने के कारण अंधाधुंध वनों को काटा गया जिससे यहाँ के प्राकृतिक परिवेश को नुकसान पहुंचा है। इन भारी ट्रकों के कारण सड़क का भी सत्यानाश हो गया है। बीच में सड़क निर्माण का कार्य भी चालु है। पठार पर पहुंचने के बाद गुलाबी सफ़ेद फ़ूलों से भरे हुए खेत दिखाई देने लगे। ये खेत टाऊ के थे। टाऊ का आटा बनता है जिसका उपयोग व्रत उपवास में फ़लाहार के लिए किया जाता है। 
टाऊ 
टाऊ को कुट्टु कहा जाता है। उत्तर भारत में इसके आटे का उपयोग नवरात्रि इत्यादि व्रत उपवास के समय फ़लाहारी के रुप में प्रयोग में लाया जाता है।  2011 की नवरात्रियों के दौरान  दिल्ली, बुलंदशहर और मुजफ्फरनगर, नोयडा आदि शहरों में कुट्टु  के मिलावटी आटे का कहर बरपा, जिसके कारण नोयडा में एक व्यक्ति की मौत हो गयी एवं लगभग 600 अस्पताल में भरती कराया  गया। कुट्टु  चावल की एक प्रजाति मानी जाती है जिसका बाटनिकल नाम फ़ैगोपायरम-एफ़क्युलैंटम है। यह एक हाई प्रोटीन फ़ुड है और इसे संग्रहित करने पर इसमें फ़ंगस लग जाती है और यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाता है। इसके आटे को घर में ही तैयार करना चाहिए। हमने कुट्टु की फ़ोटो ली और आगे बढे।
देवानंद ने 3 किलो सोना ख़रीदा 
मैनपाट में वनों से हवा के साथ आने वाली प्राकृतिक फ़ूलों की खुशबू मन और आत्मा को तरंगित कर देती है। पक्षियाँ का कलरव एवं झरनों की कल-कल स्वर्गिक वातावरण का निर्माण  करती है। लगता है कि यही आकर धूनी रमाई जाए। सोचना तो ठीक है लेकिन निर्वहन करना कठिन वातावरण में ठंडक बनी हुई है और लगता है शाम तक अच्छी ठंड होने वाली है। रात का तापमान तो लगभग मायनस डिग्री में पहुंच जाता है जिससे पाला भी पड़ जाता है। तिब्बतियों के निवास के लिए यह मौसम आदर्श है। सड़क के किनारे साल के बड़े-बड़े वृक्ष आसमान से होड़ यहीं लेते हैं। रात को इस पठार में भालुओं का भ्रमण भी होता है। यदा कदा निवासियों से उनकी मुड़भेड़ होने के समाचार मिलते रहते हैं।

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

वेलसर गाँव का हर्रा टोला

भोजन के वक्त विष्णु सिंह से शंकर गढ के समीप अन्य पुरातात्विक स्थानों के विषय में जानकारी ली तो उन्होने शंकरगढ के समीप ही स्थित हर्रा टोला बेलसर का जिक्र किया। हमने भोजनोपरांत हर्राटोला जाना तय किया। शंकरगढ से 5-6 किलोमीटर की दूरी पर वेलसर गाँव का हर्रा टोला एक मोहल्ला है।  रास्ते में एक नदी आती है जिसका नाम पूछने पर महान नदी बताया गया। हमें दूर से ही ऊंचे आयताकार टीले पर एक भग्न मंदिर दिखाई देता है। यह स्थान चार दिवारी से घिरा हुआ है। गाड़ी रोकने पर एक व्यक्ति से मुलाकात होती है। शायद वह यहाँ का चौकीदार है।
सामत सरना का दृश्य 
प्रवेश द्वार के समीप ही भग्न मंदिर की सामग्री पड़ी हुई है। थोड़ा आगे बढने पर किसी मंदिर के द्वार का सिरदल दिखाई देता है। मुख्य टीले पर स्थित मंदिर का शीर्ष भाग इस तरह दिखाई दे रहा था जैसे किन्ही आदिम मनुष्यों ने पत्थरों को एक दूसरे के उपर रख कर वर्तमान संरचना खड़ी कर दी हो। मंदिर के समीप पहुंचने पर दिखाई दिया कि यह कोई अकेला मंदिर नहीं है। यह तो मंदिरों का समूह है। चौकीदार ने बताया कि पहले यह मंदिर पूरा मिट्टी के टीले में दबा हुआ था। लगभग बीस साल पहले रायकवार साहब ने इसका उद्धार किया था। चलो यह तो अच्छा हुआ मैने रायकवार साहब को फ़ोन लगा कर इस स्थल के बारे में जानकारी ली और जिज्ञासा की शांति की।
अमित सिंह, ललित शर्मा, विष्णु सिंह, बादशाह खान हर्रा टोला में 
पूर्वाभिमुखी मुख्य मंदिर के समीप ही ईष्टिका निर्मित मंदिर के अवशेष दिखाई देते हैं साथ ही छोटे-छोटे अन्य मंदिर भी हैं। मुख्य मंदिर का मंडप गिर चुका है। सरसरी तौर पर देखने से ज्ञात होता है कि मंदिर द्वार के सिरदल पर नंदीआरुढ शिव पार्वती के साथ शिव परिवार का अंकन है। जिसमें गरुड़ पर सवार कार्तिकेय एवं गणेश जी प्रदर्शित हैं। इसके साथ ही कीर्तिमुख, देवी, भारवाहक विष्णु लक्ष्मी के साथ नदी देवियों का भी अंकन किया गया है। मंदिर के द्वार के समीप ही एक प्रतिमा के केश बुद्ध की प्रतिमा जैसे दिखाई  दिए, लेकिन उसके अलंकरण से बुद्ध प्रतीत नहीं होते। जी एल रायकवार ने जिज्ञासा शांत करने हेतु बताया कि यह शिव की सेना का ही एक किरदार है।
हर्रा टोला बेलसर का भग्न शिवालय 
उन्होने बताया कि स्थापत्य शैली के अनुसार इसे आठवीं सदी के आस-पास का माना गया है। इस स्थल से प्राप्त कूछ प्रतिमाएं अम्बिकापुर स्थित जिला पुरातत्व संग्रहालय में रखी हुई हैं। आस-पास देखने और चौकीदार से पता चला कि यह मंदिर केराकछार एवं महान नदी के संगम पर स्थित है। अब सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा था और हमे अम्बिकापुर तक का सफ़र तय करना था। समीप ही एक व्यक्ति टाट लगा कर बनाई हुई छोटी सी दुकान में भजिया तल रहा था। शायद चखना जैसा ही कोई उपक्रम था। हमने कुछ चित्र लिए और हर्रा टोला से अम्बिकापुर की ओर प्रस्थान किया। 
हर्रा टोला मंदिर समूह का  शिवालय 
रास्ते में महान नदी के कटाव पर रेत मिश्रित मिट्टी की कई परतें जमी हुई दिखाई दी। जिज्ञासावश गाड़ी रोक कर हमने देखने का प्रयास किया। क्योंकि नदी के तटों पर ही सभ्यताओं का विकास एवं अवसान हुआ है। इस तरह के कटाव पर ही उनके अवशेष प्राप्त होते हैं। आदिम कालीन प्राचीन प्रस्तर के मानवोपयोगी उपस्कर एवं आयुध इन परतों में स्थित होते हैं। इन्हे देखने एवं पहचानने के लिए भरपुर समय की आवश्यकता होती है। वह हमारे पास नहीं था। हम तो सिर्फ़ घुमक्कड़ है, शोध तलाश और अनुसंधान का कार्य विषय विशेषज्ञों एवं संबंधित विद्याथियों के लिए छोड़ देना सही है। हर्रा टोला पहुंच कर आनंद आया। हमने विष्णु सिंह देव को मन ही  मन धन्यवाद दिया।
भग्न मंदिर के अवशेष 
आज की रात अम्बिकापुर में विश्राम करके सुबह मैनपाट जाने का कार्यक्रम बनाया गया था। अमित सिंह देव ने अपनी सफ़ारी गाड़ी को मरम्मत के लिए गैरेज में छोड़ा था। गैरज पहुंचने पर पता चला कि गाड़ी की मरम्मत का कार्य चालु है। हम अब रात्रि विश्राम के लिए सर्किट हाऊस पहुंचे। पूर्व के अनुभवानुसार पता चला कि कोई भी रुम खाली नहीं है। हमारा मोबाईल गुम होने के कारण एस डी एम तीर्थराज अग्रवाल का नम्बर गुम गया था। साथियों ने प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी। अब हमने तय किया कि वापस उदयपुर चला जाए। वहीं के विश्राम गृह में एक रात और काटी जाए। भोजन का इंतजाम हमने अमित सिंह देव की सलाह पर अम्बिकापुर के अच्छे माने जाने वाले रेस्टोरेंट विरेन्द्र प्रभा से किया। उक्कड़-कुक्कड़ खाने का मन नहीं था। सिर्फ़ अंडा करी, सादी सब्जी के साथ रोटियों और पुलाव का पार्सल लिया।
शिव सेवक बुद्ध के रूप में 
अब हम अमित सिंह देव के साथ उदयपुर के मार्ग पर थे।  रास्ते में ही इनकी जमीदारी लखनपुर आती है। हमने उन्हे घर छोड़ा और उदयपुर के विश्राम गृह पहुंचे। यहाँ पहुचने पर चौकीदार ने बताया कि एक कमरा तो बुक हो गया है। अन्य कोई शासकीय कर्मचारी ठहरे हैं। उसने हमारे लिए 1 नम्बर रुम खोल दिया। मैंने सुबह जाते वक्त चौकीदार को कहा था कि रात्रि विश्राम करने के लिए हम इधर लौट कर आएगें तो बात बन गयी थी। जब विरेन्द्र प्रभा होटल के भोजन का पार्सल खोला गया तो सब्जी में उपर तक तेल भरा हुआ था। देखते ही माथा ठनक गया। जैसे-तैसे जितना तेल सब्जी में से गिराया जा सकता था उतना फ़ेंका और भोजन किया और बिस्तर के हवाले हो गया। ठंड अच्छी थी, इसलिए सोना ही ठीक था। राहुल काफ़ी देर तक माउथ आर्गन बजा कर ब्लंडर करते रहा। पंकज और राहुल कब सोए इसका मुझे पता नहीं चला।

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सोमवार, 21 जनवरी 2013

सामत सरना एवं टांगीनाथ ……… ललित शर्मा

बिजली विभाग का चीफ़ इंजीनियर
प्रारंभ से पढें
म्बिकापुर से 73 किलोमीटर शंकरगढ से आगे जाने पर डीपाडीह का सामत सरना टीला आता है। हमारी गाड़ी गेट पर रुकती है। राहुल और पंकज मुझसे पहले प्रवेश करते हैं और मै थोड़ी देर पश्चात रास्ते में लगी हुई  मूर्तियों को देखते हुए आगे बढता हूँ। यहीं पर मेरी मुलाकात सामत सरना मंदिर समुह के चौकीदार जगदीश से होती  है। हँसमुख व्यकित्व का धनी जगदीश मुझे मूर्तियों के विषय में जानकारी देता है। मैं कुछ चित्र लेता हूँ। मुख्य मंदिर के समक्ष राहुल एक पंडित नुमा व्यक्ति को अपनी हस्त रेखाएं दिखा रहा था और उससे सवाल कर रहा था। राहुल की शादी के विषय में उसने बताया कि अब  के फ़ागुन में हो जाएगी। राहुल प्रसन्न भए और दस रुपया दक्षिणा किए। इनके संवादों से मेरा ध्यान भी उनकी तरफ़ चला गया।

सामत सरना मे अमित सिंह देव
खल्वाट खोपड़ी, माथे एवं गले में रोळी चंदन, हाथ में कुछ कागज-कापी, पेन के साथ दो फ़िल्मी नायिकाओं के चित्र के साथ अगरबत्ती रखे हुए था। शर्ट के साथ कटिवस्त्र धारित उसका व्यक्तित्व प्रभावशाली लगा। मेरे चर्चा होने पर उसने बताया कि वह बिजली विभाग का चीफ़ इंजीनियर था, बिजली के खंभे पर चढने दौरान उसे बिजली का झटका लग गया। तब से नौकरी छोड़ दिया है। हाथ  में रखी नायिका की फ़ोटो दिखाकर कहता है कि - यह मेरी पत्नी है और यह बेटी है। दूसरी फ़ोटो को इंदिरा गांधी कह रहा था। इससे जाहिर हो गया कि उसका दिमाग फ़िरा हुआ है। फ़िरे हुए दिमागी से इस सिरफ़िरे को और भी चर्चा करने की इच्छा हो रही थी। लेकिन हमारे पास समय कम था। इसलिए अपने उद्धेश्य की ओर मुड़ गए।

गज लक्ष्मी अंकन
डीपाडीह का यह सामत सरना मंदिर समूह है। मुख्य मंदिर का द्वार अलंकरण की दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। सिरदल के ललाट पर पद्मासन में बैठी हुई गजलक्ष्मी के साथ दोनो तरफ़ शिव का अंकन है। द्वार शाखाओं पर नदी देवी गंगा एवं यमुना का अंकन है। बांयी द्वार शाखा पर नदी देवी यमुना के साथ ही चैत्य गवाक्ष के उपर मिथुन अंकन भी दिखाई देता है। दायीं द्वार शाखा में इस स्थान पर वीणावादिका दिखाई देती है। मंदिर के गर्भ गृह में स्थापित शिवलिंग एवं जलहरी खंडित है। इस मंदिर में अन्य मूर्तियां भी स्थापित हैं जिनमें नृवराह, भैरव, गौरी, ब्रह्मा, नृत्य गणेश, कार्तिकेय, महाविष्णु, महिषासुर मर्दनी प्रमुख हैं। भग्नवशेषों से प्रतीत होता है कि इन मंदिरों के अनुपम शिल्प सौंदर्य को देख कर मुसाफ़िर अपनी धड़कन भूल जाया करता होगा।

परशुधारी शिव- सामत राजा
मुख्य मंदिर के सामने बहुत सारे छोटे-छोटे शिवमंदिर हैं।  संख्या में ये लगभग 40 होगें।  मंदिर समूह के निकट ही दो नदियों (गलफ़ुल्ला एवं कन्हर) दो नदियों का संगम है। गलफ़ुल्ला नामकरण पर राहुल सिंह का कहना है कि इस नदी के जल के उपयोग से गला फ़ूलने जैसी कोई बीमारी मानव एवं पशुओं में हो जाती होगी। इसलिए गलफ़ुल्ला नाम प्रचलन में आया होगा। सामत सरना समूह परिसर में  परशुधर शिव की सबसे ऊंची प्रतिमा रखी हुई है। इसे स्थानीय जन सामत सरना राजा रहते हैं। यह प्रतिमा चतुर्भुजी है। अलंकरणो के साथ बांया पैर घुटने से टूटा हुआ है तथा दायां पैर जंघा से खंडित है। बाएं पैर के नीचे परशु दिखाई देता  है। प्रतीत होता है कि यह पैर परशु पर रखा होगा।

मुख्य मंदिर का दृश्य
किंवदंतियों से ज्ञात होता है कि सामत सरना एवं झारखंड राज्य में स्थित टांगीनाथ के मध्य युद्ध हुआ था। जिसमें सामत सरना राजा वीरगति को प्राप्त हुए थे। इसके बाद सामत सरना की सभी रानियों ने परिसर में स्थित बावड़ी में डूब कर प्राण त्याग दिए। परिसर में स्थित परशुधारी शिव की प्रतिमा को स्थानीय जन सामत सरना मान कर पूजा करते हैं। सरगुजा के आदिवासी अंचल में सामत सरना एवं टांगीनाथ के विषय में जनश्रुतियाँ बिखरी पड़ी हैं। ये दोनो स्थानीय निवासियों की श्रद्धा के केन्द्र बन गए हैं। सामत सरना मंदिर के समक्ष शत लिंग स्थापित है। इसके समीप ही एक आमलक भी पड़ा है। मुख्य मंदिर के सामने विशाल नंदी स्थापित है। शिल्पकार ने नंदी प्रतिमा का बहुत सुंदर निर्माण किया है।

विष्णु सिंह देव, शत लिंग एवं केयर टेकर जगदीश
जगदीश कहता है कि पहले यहाँ बहुत सारे पोखर-तालाब इत्यादि थे। अब थोड़े ही बचे हैं। ब्रह्मा की प्रतिमा पगड़ीधारी है साथ ही लिंग भी दिखाई देता है। शिल्पकार ने इस प्रतिमा को अंतिम रुप नहीं दिया है। पत्थर पर छेनी की मार के चिन्ह स्पष्ट दिखाई देते हैं। स्तम्भों पर मिथुन अलंकरण भी दिखाई देता है। साथ ही इस स्थान पर शतलिंग भी दिखाई देता है। खंडहरों से अनुमान होता है कि कभी यह मंदिर समूह भव्यता लिए होगा। सामत सरना समूह का अवलोकन कर हम शंकर गढ की ओर लौट चले। हमारा दोपहर का भोजन शंकर गढ के विश्राम गृह में था। शंकर गढ का विश्राम गृह अधिक पुराना नहीं है। लगभग 30 साल हुए होगें इसका निर्माण हुए। इसके केयर टेकर ने बताया कि विश्राम गृह के आरंभ से ही वह यहाँ पर पदस्थ है। भोजन करने के पश्चात हम आगे की यात्रा पूर्ण करने के लिए चल पड़े। ……… आगे पढें … जारी है।

शनिवार, 19 जनवरी 2013

सामत सरना डीपाडीह की ओर यायावर


बिलासपुर टेसन
यात्राएं चलते रहती हैं जीवन के साथ। जीवन भी एक यात्रा कहा जाता है। मैने देखा कि यात्राओं का कोई कारण होता है। कोई निमित्त होता है, अकारण यात्राएं भी अकारथ नहीं होती। इस यात्रा का कारण पंकज का 27 नवम्बर 2012 की रात का फ़ोन संदेश बना। शाम को पंकज का फ़ोन आता है और वह कहता है कि आज रात को नेपाल चलते हैं कार से। बहुत दिन हो गए कहीं गए। रात को और सीधे नेपाल हीं, नहीं मुझे नहीं जाना है। फ़िर कहीं भी चलिए लेकिन आज ही चलना है। कल सुबह आता हूँ उसके बाद सरगुजा चलते हैं। वहीं के स्मारकों एवं जंगल की सैर करते हैं। कई दिनों से वहां के मित्र बुला भी रहे हैं। सही मौका है उधर ही चला जाए। सरगुजा भ्रमण तय हो जाता है। अगले दिन हमें सरगुजा जाना है। यहाँ जाने का कार्यक्रम बाईक से क्वांर नवरात्रि के समय भी बन गया था। लेकिन पंकज की तरफ़ से ढिलाई होने के कारण रह गए।

सुंदरवन
सरगुजा जाना पहले भी हुआ है। लेकिन जी भर के नहीं देखा था। घने जंगलों के बीच सुरम्य वादियाँ और उतने ही स्नेही निवासी मुझे हमेशा आकृष्ट करते रहे हैं। बिलासपुर पहुंच कर पता चला कि शाम को 4 बजे चलना है। तो मुड खराब हो गया। बना बनाया प्लान चौपट। मुझे रास्ते में चैतुरगढ और कलचुरियों की प्राचीन राजधानी तुम्माण भी देखना था। वैसे नवम्बर-दिसम्बर के माह में दिन छोटे हो जाते हैं। अब 4 बजे निकलने के बाद पाली पहुंचते तक ही शाम हो जाएगी। इसके बाद तुम्माण देखना तो संभव ही नहीं है। दोनो जगहों को देखते हुए हमें रात 8 बजे तक कटघोरा के विश्रामगृह में पहुंचना था। कटघोरा पहुंचते तक अंधेरा हो चुका था। अब हमें उदयपुर तक जाना था तथा हमारा रात्रि विश्राम उदयपुर के विश्रामगृह में तय हुआ। लखनपुर के अमित सिंहदेव ने वहाँ व्यवस्था कर दी थी।

दूरियाँ बताता सूचना फ़लक

अमित सिंह देव लखनपुर ने बताया कि कटघोरा से उदयपुर की दूरी लगभग 70 किलो मीटर होगी। कटघोरा से अम्बिकापुर वाली सड़क पर पहुंच कर यह लगा कि हमने सड़क मार्ग द्वारा अम्बिकापुर जाने की बहुत बड़ी भूल कर दी। सड़क की हालत देखकर लगा कि 70 किलो मीटर का रास्ता अगर रात भर में तय हो जाए तो बहुत बड़ी बात है। सड़क कहीं है ही नहीं, सिर्फ़ गड्ढे ही गड्ढे। कहना चाहिए गड्ढों में सड़क ढूंढना भी बहुत कठिन कार्य है। छत्तीसगढ में इतनी गंदी सड़क पहली बार देखी है। ऐसा लग रहा था किसी अन्य राज्य की सीमा में प्रवेश कर गए। पता नहीं सरगुजा की इस सड़क के प्रति सरकार सौतेला व्यवहार क्यों कर रही है। जब ओंखली में सिर दे ही दिया तो अब मुसल का प्रहार भी सहना पड़ेगा। मै पिछली सीट पर लेट गया, पंकज और राहुल दोनो पायलेट और नेवीगेटर की भूमिका में थे।


उदयपुर विश्राम गृह
रास्ते में भूख लगने लगी। एक ढाबा देख कर गाड़ी को किनारे लगाया और ढाबे में पहुंच गए। ढाबा छोटा ही था, लोग हिलते डुलते नजर आ रहे थे। रात का समय हो और जंगल के निवासी हिलते डुलते नजर न आएं तो समझना चाहिए कि हम वन क्षेत्र में नहीं है। आज कुछ स्पाईसी खाने का मन था। हमने भी जंगली खाने का आडर दिया। उसने कुक्कड़ बहुत बढिया बनाया।  मनवांछित भोजन मिलने के बाद आत्मा तृप्त हो गयी। अन्य सहयात्रियों ने भी खाने की तारीफ़ की। भोजन जैसा महाआयोजन सफ़ल हो गया। इससे हम भी धन्य हो गए। गाड़ी फ़िर सड़क पर आ गयी। मै पिछली सीट पर लेट गया। क्योंकि इस सड़क पर सोते हुए चलना ही ठीक है। जागते हुए तो रास्ता भी नहीं कटता। मेरी आँख 11 बजे उदयपुर रेस्ट हाऊस के मुख्यद्वार पर पहुंच कर खुली। रेस्ट हाऊस के गृह मंत्री ने गेट खोला। ठंड अच्छी थी मै बिस्तर के हवाले हो गया।

सामत सरना शिवमंदिर एवं विष्णु सिंह देव
सुबह चौकीदार लाल चाय बनवा कर ले आया। सुबह की चाय के बाद थोड़ी नींद की खुमारी उतरी। चाय के बाद रेस्ट हाऊस का एक चक्कर लगाया तो आस पास के शहरों दी दूरियाँ बताता हुअ एक सूचना फ़लक दिखाई दिया। जिसमें कटघोरा से उदयपुर की दूरी 112 किलो मीटर लिखी थी। चौकीदार गरम पानी ले आया और हम स्नानाबाद से लौटकर आगे की यात्रा के लिए तैयार हो गए। सुबह से दो बार अमित सिंह देव का फ़ोन आ गया था। हम रेस्ट हाऊस से बिना नाश्ता किए ही लखनपुर चल पड़े। अमित सिंह देव लखनपुर में रहते हैं। इनके विषय में चर्चा बाद में की  जाएगी। इन्होने अम्बिकापुर के युवा नेता विष्णु सिंह देव को साथ लिया। जायसवाल होटल में नाश्ता करके डीपा डीह की ओर चल पड़े। अम्बिकापुर से शंकरगढ 60 किलोमीटर पर एवं शंकरगढ से डीपाडीह 15 किलोमीटर पर स्थित है। डीपाडीह पुरातात्विक स्थल है, जहाँ उत्खनन कार्य राहुल सिंह के द्वारा हुआ॥

विष्णु सिंह देव, अमित सिंह देव, ललित शर्मा
लगभग 10 बजे हम डीपाडीह के लिए चले, अम्बिकापुर से डीपाडीह की सड़क अच्छी है। सड़क को देख कर हम कटघोरा से अम्बिकापुर आने का दर्द भूल चुके थे। विष्णु सिंह देव शंकरगढ जमीदारी से हैं। उन्हे इस इलाके की अच्छी जानकारी होने के कारण उनका साथ हमारे जैसे जिज्ञासु के लिए अच्छा रहा। यह सुरम्य वन आच्छादित इलाका है। डीपाडीह के सामत सरना समूह को देखने इच्छा कर दिनों से थी। कई बार जाने का प्रयास हुआ लेकिन समयाभाव के कारण सफ़लता नहीं  मिली। आज समय आ गया हमारे डीपाडीह पहुचने का। कुछ वर्षों पूर्व इस इलाके में नक्सलियों की आमद हो चुकी है। यह इलाका नक्सल प्रभावित माना जाता है। चर्चा के दौरान हम 12 बजे शंकर गढ पहुंच कर विष्णुसिंह देव के चाचा जी से मिले। उसके बाद हम डीपाडीह के सामत सरना समूह पुरातत्विक स्थल पर पहुंचे।

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