आरम्भ से पढ़ें शाम को जब हम नूरपुर से धर्मशाला पहुंचे तो केवल ने पूछा कि-"आपने कभी मोमो खाया है? मैने कहा नहीं। तो वह बोला चलो आज मोमो खाते हैं। तिब्बतियन स्पेशल है। मैने कहा- "देख रे भाई! मोमो के चक्कर में कहीं अंट-शंट खा लिया तो मुझे 2 हजार किलो मीटर से भी अधिक की यात्रा करनी है और बस भी नहीं रुकती रास्ते में।" मोमो की दुकान में पहुंच गए। पता चला कि मोमो 2 तरह के बनते हैं। वेज और नानवेज। हमने वेज मोमो का आर्डर दिया। नानवेज का क्या भरोसा? मोमो लाते तक मैं उसके विषय में तस्दीक करते रहा कि कैसे बनता है और उसमें क्या मसाला डाला जाता है।
मोमो का आर्डर आ चुका था। कुछ-कुछ गुझिया जैसी आकृति थी और गर्म था। इसे गुझिया जैसे बेल कर हरी सब्जी का मसाला भर दिया जाता है और फ़िर भाप में पकाया जाता है। साथ में लालमिर्च और लहसुन की चटनी के साथ परोसा जाता है। स्वाद तो अच्छा लगा। लेकिन मैदा की चिंता सदा रही थी, कहीं परेशानी का कारण न बन जाए। मोमो यहाँ समोसे जैसे फ़ास्ट फ़ुड के रुप में प्रचलित है। जहाँ थोड़ी भूख लगी और मोमो खा लिए। तिब्बती अपने साथ अपनी पाक कला भी लेकर आए। जो परम्पराएं तिब्बत में थी, उन्ही परम्पराओं में अभी भी जी रहे हैं। अब मोमो बनाने का काम भारतीय लोग भी करने लगे हैं, बड़े बड़े रेस्टोरेंट खोल कर मोमो और तिब्बतियन फ़ुड बेच रहे हैं।
मैं और केवल 1 मई शाम से 7 मई शाम तक साथ ही रहे। कभी नहीं लगा कि किसी अलग कुनबे-कबीले से हैं। अंतरताना माध्यम बना हम दोनो के रुबरु होने का। हँस-मुख स्वभाव होने के कारण केवल मनमोहन हो जाता है और मैं ललित ही रहता हूँ। मैं आस-पास को अच्छी तरह परखता हूँ। प्राकृतिक सौंदर्य में रम जाता हूँ बाकी सब भूल कर। समस्याओं की गठरी सर पर धर कर नहीं चलता। जहाँ का सामान था वहीं छोड़ दिया और आगे बढ लिए। समस्याएं तो हर जगह पर मिल जाती हैं और चिंता करने का सबब जब चाहे तब। यही मेरी यायावरी है। लोग भ्रम में रहते हैं कि वे दुनिया को चला रहे हैं। लेकिन जो दुनिया को चला रहा है वह जानता है कि यह कैसे चल रही है।
केवल का रुम अच्छी जगह है। सामने धौलाधार की बर्फ़ से आच्छादित पहाड़ियाँ और चारों तरफ़ हरियाली। पास ही बड़ा सा खेल का मैदान और रुम के सामने तैनात मालिक-ए-मकान का झबरीला स्वान। पहले एक दो बार तो देख कर गुर्राया। फ़िर पहचान लिया कि कोई मेहमान है जो रोज सुबह जाता है और शाम-रात को वापिस आता है। एक दिन सुबह मकान वाली अंटी जी ने चेरी लाकर दी। रंग तो उनका बहुत सुंदर था। कटोरी में उन्हे धोया और एक चेरी मुंह में डाली तो उसका स्वाद बहुत ही खट्टा था। उसे खाना मेरे तो बस की बात नहीं थी। केवल के हवाले कर दिया। चेरी मीठी हो तो उसका स्वाद ही कुछ अलहदा होता है। लेकिन रंग तो गजब का ही होता है।
रोज सुबह उठने के लिए घड़ी में अलार्म भरने की जरुरत नहीं थी। केवल के रुम के साथ ही मुर्गियों का दड़बा था। उसमें 20-25 तगड़ी-तगड़ी मुर्गियाँ थी। वे बांग देना शुरु कर देती थी। फ़िर दोपहर में भी बांग देती थी। मैने पूछा कि-क्या इनके लिए दो बार सवेरा होता है। सुना है कि जब मुर्गियाँ बीमार होती हैं तो बासते रहती हैं। केवल ने बताया कि दोपहर में अन्डे देने के बाद भी बांग देती हैं। मतलब ईमानदारी से मालिक को सूचित करती हैं, अन्डे बाहर आ गए हैं, फ़िर मत कहना कि बताया नहीं। जानवरों एवं पक्षियों में ईमानदारी होती है। चचा की मुर्गियां जैसे ये मुर्गियां चतुर चालाक बेईमान नही थी। एक आदमी ही बेईमान है जिसकी ईमानदारी कब फ़ना हो जाए उसका पता ही नहीं चलता।
अन्डे देने के बाद मालकिन मुर्गियों को आजाद कर देती थी। उनके लिए आंगन मे दाने बिखेर देती थी और उधर अन्डों को उठा लेती थी। मुर्गियाँ भी मालिक को पहचानती हैं। केवल मुझे कई दिनों से चिकन के लिए कह रहा था। इसको वो मुर्गियाँ भी सुन रही थी। जब भी यह बाहर निकलता इसे देख कर गुर्राने लगती थी। मैं मना कर देता था, अभी तो घास-फ़ूस ही खाने का मन है। मुर्गियाँ भी खुश थी। एक दिन केवल ने फ़िर पूछ लिया सुबह-सुबह और मैने भी हाँ कर दी। बस फ़िर क्या था। वो लाल वाली मुर्गी, जो मुर्गियों की सरदार थी। क्रोधित होकर मेरी ओर जोर से गुर्राई और मेरे कैमरे मे कैद हो गयी। मैने उसे आश्वस्त किया कि माल तुम्हारे दबड़े से नहीं आएगा, निश्चिंत रहो। केवल मार्केट से ही लेकर आएगा।
शाम को लौटते समय सब सामान साथ था बिरयानी बनाने का। बटर, दही, मसाला, चावल, मैजिक मुव्हमेंट, सोडा चखना इत्यादि। बिरयानी बनाने लगे। घन्टा लग गया बिरयानी बनाने में। गिरीश दादा बोले-"हमारे लिए थोड़ी चैट बाक्स में ही डाल दीजिए।" कभी-कभी बचपना कर ही जाते हैं। अब पराठे बनाने का नम्बर था। मैने कई लेयर वाला पराठा बनाना बताया केवल को। बस फ़िर क्या था, केवल ने वैसे ही देशी घी में कई पराठे बना डाले। सुबह के नाश्ते में भी वही पराठे बनाए। बहुत दिनों के बाद पसंदीदा पराठे खाकर आनंद आ गया। सुबह हुयी तो फ़िर वही मुर्गी सामने आ गयी। देख कर गुर्राई। मैने केवल से कहा कि अब इसका भी इंतजाम करना पड़ेगा। साला! कोई बेवजह हमें गुर्राए और उसे हम छोड़ दें ,कदापि नहीं । यह बेइन्साफ़ी नहीं हो सकती। मुर्गी ने सुन लिया, समझ गयी कि परदेशी को बिला वजह गुर्राना ठीक नहीं है। वरना खतरा हो सकता है। पता नहीं कब आधी रात को काम तमाम हो जाए।
अन्डों का रेट भी बहुत बढ गया है। मैने तो सोचा भी नहीं था कि 30 रुपये दर्जन होगें। सुनकर बड़ा झटका लगा। जब मैं कॉलेज में पढता था तो 3 रुपए दर्जन थे। एक दर्जन से तीन दिन का काम चल जाता था। सुबह बेकमेंस की ब्रेड के साथ आमलेट का नास्ता काफ़ी होता था। कभी सब्जी के भी काम आ जाते थे। जब वर्जिस करते थे और 3 घंटे रोज व्हाली बॉल की प्रैक्टिस, तो 1 दर्जन अन्डो की नित्य की खुराक थी। शाम को जब खेल कर वापस आता तो गोवर्धन आमलेट बनाकर और उबाल कर तैयार रखता था। उसके बड़े ग्राहक हम ही थे। उसके बाद आज तक कभी खरीदने की नौबत ही नहीं आई। क्योंकि खाए ही नहीं। जब से पढा कि इसमें "सालमोनेला" एवं "डी डी टी" होता है जो शारीरिक नुकसान करता है।
7 मई शाम को 6 बजे मेरी बस थी दिल्ली के लिए, जो मुझे 6 बजे आई एस बी टी पहुंचा देती। फ़िर वहाँ से शाम 5/25 को मेरी ट्रेन रायपुर के लिए थी। मैने अविनाश जी को मोबाईल पर कहा कि रविवार है और समय भी है कहीं बैठ कर गपिया लेते। बोले ठीक है, मैं फ़ोन करता हूँ। मैने निजामुद्दीन वाले पंडित जी को भी फ़ोन किया। केवल ने मुझे आराम करने कहा और नाश्ता करके कालेज चला गया। मै जब घर से चला था तो लाहौल स्पिति जाने की सोच रखी थी। अजय से बात करने पर पता चला कि रोहतांग पास अभी खुला नही हैं। 80 फ़ीट बर्फ़ जमी है। बी आर ओ बर्फ़ काट रहा है अभी एकाध हफ़्ता और लग जायेगा। मेरी योजना पर तुषारापात हो चुका था। फ़िर तय किया कि जुलाई में पांगी घाटी और लाहुल दोनो जगह जाएगें और ब्लॉगिंग पर एक कार्यशाला वहीं करेंगे।
दोपहर तक नेट पर गपशप होते रही। कुछ मित्र नित्य का हाल चाल ले लेते थे और सुबह-शाम श्रीमति जी भी। सभी से सम्पर्क बना रहा। दोपहर आकर केवल ने खाना बनाया, मैने खाना खा कर मुर्गियों से विदा ली। लाल वाली मुर्गी ने भी संतोष की सांस ली कि अब खतरा टल गया। परदेशी चला गया। रास्ते हमारे छत्तीसगढिया बंधु लोग पुन: मिल गए, हम बस स्टैंड पहुंचे। अभी बस नही आई थी। केवल ने 11 नम्बर की सीट बुक करवा रखी थी। यह सीट बस की सबसे अच्छी सीट होती है। सीट देखकर ही आनंद आ गया। केवल ने आगे के मार्ग की जानकारी दे दी थी कि कहां खाना खाना है और कहाँ लघुशंका की जगह मिलेगी। बस आ गयी, हमने सीट संभाली। देखा तो वही काणा कंडेक्टर था जो जिसकी बस में हम दिल्ली से आए थे और वही बस थी।
केवल से विदा लेना भी कठिन था। वह बड़े ही भावुक मन का है। उसकी भावुकता को मैं समझ रहा था। तभी बस में एकतारा बजाने वाला लड़का आ गया। उसने धुन बजाई और मैने रिकार्ड कर लिया। बस चल पड़ी, केवल कचहरी के समीप उतरा। मैने भी भारी मन से उसे छोड़ा। एक हरियाणवी फ़िल्म का गाना याद आ रहा था-"परदेशी की प्रीत की रे, कोई मत न करियो होड़, बनजारे की आग यूँ भई, गया सुलगती छोड़"। कुछ ऐसा ही घट रहा था। धर्मशाला में बिताए 6 दिन जीवन की धरोहर बन गए। रात को 9 बजे बस ढलियारा पहुंची। यहीं खाने का इंतजाम था। सभी यात्रियों को खाना खिला कर बस चल पड़ी। रास्ते में निर्मला कपिला जी गाँव आया नंगल। काफ़ी बड़ा गाँव है। नंगल देखकर निर्मला जी याद किया। चलो घर न देखा तो कोई बात नहीं पिंड तो देख लिया। कभी रब ने चाहा तो वो भी देख लेंगे।
मेरी बगल वाली सीट पर एक तिब्बती प्रोफ़ेसर थे। उन्होने धर्मशाला में ही टी शर्ट और हाफ़ पैंट पहन ली थी। उन्होने बताया कि पहाड़ों से नीचे आने पर गर्मी बढ जाती है, इसलिए हाफ़ पैंट पहन ली। मैने कहा-दिल्ली पहुंचकर तो यह भी उतारनी पड़ेगी हा हा हा"। उनसे तिब्बती संस्कृति के विषय में मुझे बहुत कुछ जानने मिला। नंगल के बाद झपकी आने लगी, पैर फ़ैलाकर सो गया। उन्ना में बस रुकी तब आँख खुली। उसके बाद अगला स्टापेज चंडीगढ था। एक झपकी के बाद हम दिल्ली पहुंच चुके थे। बस ने आई.एस.बी.टी. उतार दिया। मैने निजामुद्दीन के लिए मुद्रिका पकड़ी और निजामुद्दीन की ओर चल दिया। अविनाश जी की खबर नहीं आई थी। आगे पढें