शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

निठल्लाई: साधो सहज समाधि भली

घुमक्कड़ी और लेखन का सिलसिला ही टूट गया, 4 महीने हो गए, जब से दिल्ली में चोट खाई तब दना-दन चोटें जारी हैं, एक ठीक होती है दूसरी लग जाती है। इनसे उबरने की कोशिश जारी है फ़िल्में देख-देख कर साधो सहज समाधि भली। जितनी फ़िल्में सारे जीवन में नहीं देखी, उतनी एक महीने में देखी। नेट और यू ट्यूब का अच्छे से दोहन किया। थोड़ा बहुत समय फ़िल्मों के बीच मिलता है वह फ़ेसबुक की भेंट चढ जाता है। घुमक्कड़ी से हासिल उर्जा जीवन की गाड़ी को आगे बढाती है। घुमक्कड़ी रुक जाती है तो लगता है कि दुनिया ठहर गई, सांसों का स्पन्दन भी सुनाई नहीं देता। चलती है धीरे-धीरे जीवित होने का अहसास कराते हुए। 

बरसात की झड़ी जारी है। बरसती बूंदों के बीच फ़सल हरिया रही है तो रुपया पीला पड़ते हुए मरणासन्न है, औंधे मुंह गिर रहा है धरा पर। जिसके पास धरा है वह भी धरे-धरे धराशाई हो रहा है और जिसके पास नहीं धरा वह तो नंगा ही खड़ा है, क्या खाए और क्या खिलाए। देश की अर्थ व्यवस्था धराशाई हो रही है और नेताओं के खजाने में अकूत संपत्ति जमा होती जा रही है। जिसे गिनने वाला कोई नहीं। बोरों में भरे हुए नोट गिनने का समय इनके पास कहाँ है? भरे के भरे बोरों का इस्तेमाल ही जाता है। 

रायपुर से घर लौटते हुए रास्ते में डूमरतराई के समीप गोलगप्पे का ठेला लगा देखा तो कंट्रोल नहीं हुआ। चलो गोल गप्पे खा लिए जाएं। गोल गप्पे में भरने के लिए मुझे अपनी पसंद का मसाला चाहिए। जिसमें प्याज होना जरुरी है। गोलगप्पे वाले कहा कि - महाराज प्याज नहीं है। मैने एक लड़के को 10 रुपए देकर प्याज लेने भेजा। वह 10 रुपए में एक ही प्याज लेकर आया। देख माथा खराब हो गया। प्याज की एक-एक परत एक-एक रुपए हो गई। जिसके पास हराम का धन है उसे क्या फ़र्क पड़ने वाला है। एक बार कुर्सी पर बैठते ही सात पुश्तों का जमा कर लेते हैं और गोवा में जाकर आयटम सांग करते हैं। यहाँ जांगर तोड़ कमाने के बाद भी कुछ नहीं बचता।

सबसे अधिक त्रासदी तो अब मध्यमवर्ग भुगतने वाला है। अभी तक किसानों के द्वारा ही आत्महत्या करने की खबरें मिलती थी। अब अर्थ व्यवस्था का यही हाल रहा तो मध्यमवर्ग से भी समाचार आने प्रारंभ हो जाएगें। खाद्य सुरक्षा बिल लोकसभा में पास हो गया। वोटों की राजनीति के कारण मुफ़्त बांटने की परम्परा शुरु हो गई। सत्तारुढ पार्टियाँ वोट बैंक बनाने के उद्देश्य से जनता की गाढी कमाई को दोनों हाथों से मुफ़्त बांट रही है। जिसका भार मध्यम वर्ग को झेलना है। उच्च वर्ग को टैक्स चुरा कर काला धन बनाने में लगा हुआ है। मध्यम वर्ग को ही प्रत्येक स्थान पर अप्रत्यक्ष एवं प्रत्यक्ष कर देना पड़ता है। मुफ़्त का माल मिलने से कामचोरी बढते जाएगी। अगर खाना मुफ़्त में मिल जाएगा तो कमाने कौन जाएगा?

जो पैसा संसाधनों के विकास में लगना चाहिए वह मुफ़्तखोरी की भेंट चढता जा रहा है। लगाए जाओ तुम्हारे बाप का है, तुमने तो कमाया नहीं है जो खर्च करने में जान निकलेगी। इधर चीन बार बार सीमाएं लांघ जाता है। भारतीय सैनिकों के खाना-पानी मांगता है। मांगने की बीमारी प्रत्येक जगह है। अब तो म्यांमार के सैनिक भी मांगने भारतीय सीमा में घुसे चले आ रहे हैं। सोचता हूँ खाद्य सुरक्षा लागु होने के बाद देश में कहीं पर भी भिखारी नहीं दिखाई देगें। क्योंकि जब सरकार भरपेट में मुफ़्त में भोजन देगी और निराश्रित पेंशन इत्यादि मिल रही होती तो भीख मांगने की आवश्यकता ही खत्म हो जाएगी। हर हाथ को काम की जगह नारा होना चाहिए "हर पेट को खाना"। 

कई स्थानों से संगोष्ठियों के निमंत्रण आ रहे हैं। कई तो एक ही दिन पड़ रहे हैं, ऐसे में अलग-अलग स्थानों पर एक ही तारीख को उपलब्ध हो पाना असंभव है। रविन्द्र प्रभात जी भी काठमांडू में कार्यक्रम कर रहे हैं। परिकल्पना की टीम ने नेपाल में सम्मान देने की घोषणा की है। उन्हें समारोह की सफ़लता के लिए मेरी शुभकामनाएं। बरसात खत्म हो तो कुछ यात्राएं की जाएं। भोपाल में "मीडिया चौपाल" का इस वर्ष पुन: आयोजन हो रहा है। अनिल सौमित्र जी का निमंत्रण आया हुआ है। उम्मीद है कि नेपाल नहीं सही तो भोपाल जाना हो सकता है तथा उसके साथ ही आस-पास के स्थानों की घुमक्कड़ी करने का इरादा है।

दो बरस हो गए, पांडीचेरी गए। वहाँ काफ़ी मित्र हैं जो इंतजार करते हैं। भाषा अवश्य समस्या बनती है पर भावों से काम चल जाता है। नागमणि दूभाषिए की भूमिका निभा लेती हैं। एक बार पुन: पांडीचेरी जाने का मन बन रहा है। मित्र वी तंगम का फ़ोन आया था कि दो बरस हो गए पांडीचेरी आए। वैसे अभी पांडीचेरी का मौसम अच्छा होगा। समुद्र ठाठें मार रहा होगा और लहरें सिंहगर्जना कर रही होगी। रात के समय समुद्र किनारे आँख बंद कर बैठने पर लहरों का स्वर किसी दूसरी दुनिया में ले जाता है तथा बड़ा ही अलौकिक एवं अद्भुत अनुभव होता है। इसके साथ किनारे पर स्थित "ली कैफ़े" की काफ़ी और "शंकरा" के चखने का तो कोई तोड़ ही नहीं है। अभी तो जयपुर की दाल-बाटी-चूरमा का योग बन रहा है। फ़िर जोधपुर के मिर्ची भजिए का। बाकी बाद में देखा जाएगा।

रविवार, 4 अगस्त 2013

दर्द ही दर्द


दर्द होने पर चेहरे पर विभिन्न तरह की भंगिमाएं बनती हैं। दर्दमंद मनुष्य के चेहरे को देख कर गुणी जन अंदाज लगा लेते हैं कि उसे शारीरिक या मानसिक किस तरह का दर्द है। दोनो तरह के दर्दों की चुगली मनुष्य का चेहरा करता है। शारीरिक चोटों और फ़ोड़े फ़ुंसियों से होने वाले अंगों के दर्द चेहरे पर दिखाई देते हैं। चेहरा देख कर पता चल जाता है कि उसके किस अंग में दर्द है। अंगों के दर्द के अनुसार चेहरे पर दर्द के भाव प्रगट होते हैं। अब इन भावों को पहचाना और उनका बयान करना बहुत कठिन है। विभिन्न तरह के दर्दों से भावों को जोड़कर देखने का प्रयास करने पर ही सिद्धियाँ हासिल होती हैं।

मीरा ने कहा है - हे री मै तो प्रेम दीवानी, मेरो दर्द न जाने कोय। दर्द तो वह जानता है जो जिसे दर्द होय या वह किसी दूसरे के दर्द से अनुभव ले। दर्दों का राजा दिल के दर्द को माना गया है। साहित्य में दिल के दर्द को उच्चतम स्थान प्राप्त है। कवियों और लेखकों ने दिल के दर्द को बयान करने में सारी उम्र गुजार दी। दिल की धड़कने जरुर बंद हो गई पर दर्द नहीं गया। ऊर्दु शायरों का दर्द तो "सरापा" हो जाता है। ऐसा कोई अंग ही नहीं जहाँ इश्किया दर्द न हो। बस यहीं से करुण रस टपकना प्रारंभ हो जाता है। शेर कहते कहते गज़ल हो जाती है और गज़ाला की आँखों से टपकता सारा दर्द गज़ल में उतर आता है।

इश्किया दर्द का मारा व्यक्ति खुजैले कुत्ते की तरह इधर-उधर सिर मारता हुआ फ़िरता है पर किसी से अपना दर्द बयान नहीं कर पाता। अस्तु उसे कागजों पर उतारना प्रारंभ करता है तो शायर या कवि की उपाधि पा जाता है। किसी किसी को दर्द में पारंगत होने पर पद्मश्री से भी नवाजा जा चुका है। दिल का दर्द रचनात्मक होने के साथ विध्वन्सात्मक भी हो जाता है जब वह सिर पटकने लगता है। खुजैले कुत्ते को जब तक दो-चार डंडे न पड़ जाएं तब तक दर्द का ईलाज नहीं हो पाता। इसके अतिरिक्त इस दर्द का ईलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं।

आँख में तिनका गिरने पर दर्द कसकता बहुत है। आँख ही नहीं खोलने देता, अश्रुधार प्रवाहित होने से पता चल जाता है कि आँख की किरकिरी है। नाक में दर्द होने पर नाक लम्बी होकर लाल हो जाती है। माथे का दर्द होने पर व्यक्ति सिर झटकता है। कान का दर्द होने पर उसे सहलाते बैठा रहता है। दांत का मीठा-मीठा दर्द सुहाता है पर अधिक बढने पर सत्यानाशी रुप ले लेता है। चेहरे पर उमड़ता दर्द जहरीला हो जाता है। पेट की मरोड़ के तो क्या कहने। जैसे समंदर की लहरें उठती और गिरती हों। कभी दर्द कभी मुस्कान, कभी धूप कभी छाया। शरीर अन्य किसी अंगों का दर्द तो झेला जा सकता है पर मर्म स्थलों का दर्द बेचैन कर जाता है।

दर्द पर लिखने के लिए मुझे प्रेरणा आचारज जी से मिली। लेकिन आचारज जी कौन हैं, यह न पूछिएगा, तलाशिए आपके ईर्द-गिर्द ही मिल जाएगें। जब कभी उन्हे देखता हूँ तो उनकी दर्द भरी मुस्कान कत्ल करने के लिए काफ़ी होती है। मंचासीन होने पर कुर्सी पर बैठे बैठे जब दर्द की लहर उठती है तो आचारज जी का चेहरा देखने लायक होता है। चेहरे की भंगिमाएं ही चुगली कर जाती हैं कि बवासीर का दर्द भयंकर कष्ट दायक होता है। अगर मंच से किसी षोडसी पर निगाह टिक जाती है तो बढता हुआ दर्द अचानक तिरोहित हो जाता है।कुटिल नागरी मुस्कान चेहरे पर छा जाती है और मुंह ऐसा दिखाई देता है जैसे कोई फ़ोड़ा फ़ूटकर मवाद बह निकला हो।

इस दर्द भरी दुनिया में सिर्फ़ दर्द ही दर्द नजर आता है। किसी को मनवांछित फ़ल न प्राप्त होने का दर्द है, किसी को कार्योपरांत निष्कर्ष प्राप्त न होने का दर्द है, किसी को पड़ोसी की उजली कमीज का दर्द है, तो किसी को टूटी हुई पसली का दर्द है। किसी को बच्चे की फ़ीस न भर पाने का दर्द है, तो किसी को चाँद पर न पहुंच पाने का दर्द, किसी को कुर्सी का दर्द है तो किसी को अर्थी का दर्द है, किसी को अर्थ का दर्द है तो किसी को व्यर्थ का दर्द है। किसी को गिलास का दर्द है तो किसी को पास का दर्द है। किसी को राज का दर्द है तो किसी को काज का दर्द है। बस चहुं ओर दर्द ही दर्द है। दर्दमय संसार में बेदर्द न मिलया कोय। दर्द की फ़िकर वह करे जो दर्दमंद होय।