घर से चलने के पूर्व अतुल को फ़ोन कर दिया था कि मैं फ़लाँ फ़लाँ ट्रेन से आ रहा हूँ। यह मुंबई की मेरी पहली यात्रा थी। काफ़ी कुछ टीवी और सिनेमा के माध्यम से मुंबई के विषय में देख और सुन चुका था। मन में धुक धुकी लगी हुई थी कि शहर कैसा होगा, शहर के लोगों का बर्ताव कैसा होगा? कहीं सामान चोरी तो नहीं हो जाएगा। कोई ऑटो वाला गलत जगह ले जाकर लूट तो नहीं लेगा। तरह तरह की शंकाएँ, कुशंकाएँ, आशंकाएं मन में उमड़-घुमड़ रही थी। दिन पूरी तरह से नहीं निकला था। मेरी ट्रेन सुबह 5 बजे कुर्ला स्टेशन पहुंची। अतुल का फ़ोन बंद था। उसके घर का पता भी मुझे नहीं मालूम, अब क्या किया जाए? वहीं पर पड़ी एक बैंच पर बैठ गया। आसमान में उड़ते हुए हवाई जहाजों को देखने लगा। एक हवाई जहाज टेक ऑफ़ करता था तो उसके एक मिनट बाद कोई दूसरा हवाई जहाज लैंड करता था। इन्हें देख कर ही टाईम पास करने लगा। मेरी ट्रेन की सवारियाँ एक-एक कर निकल गई। मेरे जैसे कुछ लोग ही बच गए थे।
सामान के नाम पर मेरे पास सिर्फ़ एक बैग था। चाय की चाह हो रही थी, लेकिन चाय नहीं पी सकता था। चाय पीते ही शौचालय की तरफ़ दौड़ना पड़ता। फ़िर बैग की रखवाली कौन करता? अकेले होने के कारण सामान की रखवाली की समस्या आती ही है। सोच रहा था कि कोई मुझे लेने आ जाए तो वहीं दैनिक क्रिया से निवृत हो लूंगा। एक घंटा हो गया, कोई मुझे लेने के लिए नहीं आया। पेट में गुड़गुड़ी मचने लगी। धीरे-धीरे प्रेशर बढने लगा। लगा कि आज तो बिना चाय के ही बम फ़ूट जाएगा। बम फ़ूट जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन फ़ोड़ने की माकूल जगह भी होनी चाहिए। थोड़ी देर तो रुक सका लेकिन फ़िर रोका नहीं जा सका। शौचालय के विषय में पूछने पर बताया कि वो परली तरफ़ है। बैग संभालते हुए उधर दौड़ कर गया। देखा की लोग लाईन में लगे हुए थे। जब तक अपना नम्बर आए तब तक तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।
इस तरह की घटना मेरे साथ पहली बार घट रही थी। इससे पहले सार्वजनिक शौचालय के चक्कर में फ़ंसना नहीं हुआ। घुमक्कड़ी में जिन्दगी के काफ़ी वर्ष निकाल दिए, लेकिन यह अनुभव पहली बार था। मेरे पीछे भी आठ-दस लोग लाईन लगाए खड़े थे। पन्द्रह बीस मिनट बाद मेरा नम्बर आया। बैग धारण कर जैसे ही शौचालय में प्रवेश किया, वैसे ही बदबू के पहले झोंके से दिमाग पंचर हो गया। शौच की बदबू के साथ बीड़ी की बदबू फ़्री में मिल रही थी। अगर प्रेशर रोका जा सकता तो इस शौचालय में कभी प्रवेश नहीं करता। कहीं खुली जगह खेत या किसी का खाली प्लाट होता तो किसी आड़ में निपट लिया जाता। लेकिन यह मुंबई थी। यहाँ पर कहाँ खेत और खाली प्लाट मिलने वाला है। मन मार कर शौचालय में प्रवेश किया। बैग को दरवाजे के पीछे लटकाया और रुमाल निकाल कर सबसे पहले नाक बांधा, जिससे बदबू छन कर कम हो जाए।
बैठते ही दो काम होने लगे। पहला तो जिसके लिए मैं दौड़ कर आया था, दूसरा दिमाग की सोचनीय इंद्री शुरु हो गई। वह सोचने लगी शौचालय में। कहाँ फ़ँस गया मैं बड़े कस्बे की खुली हवा में रहने वाला। जहाँ मेरा बाड़ा ही 3 एकड़ का है। चारों तरफ़ खुला वातावरण एवं वृक्षों से छन कर आती सुवास के साथ मस्त हवा। मुझे मालूम होता कि यह गति होने वाली है तो मुंबई आना ही स्थगित कर देता। फ़ँसा हुआ व्यक्ति क्या करे। वैसे भी इनपुट होगा तो आऊटपुट होना ही है। अगर पता यह स्थिति होने वाली है तो इनपुट नहीं करता, 24 घंटे का उपवास ही रख लेता। मुझे बैठे 1 मिनट नहीं हुआ होगा, इतने में किसी ने बाहर दरवाजा खटखटा दिया। आवाज सुन कर हड़बड़ा गया। गाँव में तो मैदान में झुरमुट की आड़ में बैठने के बाद भी किसी की आहट आ जाए तो शौच नहीं होती। यहाँ तो 8 लोग लाईन लगा कर खड़े थे।
दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनकर दरवाजे की तरफ़ देखता रहा कि कहीं कुंडी न खुल जाए और लोगों को दिल्ली के साथ पाकिस्तान दर्शन न हो जाए। बड़ी ही खतरनाक स्थिति थी। एक मिनट के बीच इतना कुछ घट रहा था कि जैसे किसी फ़ायटर पायलेट के प्लेन में गोला लगने से आग लग गई हो और उसके पास जान बचाने के लिए सिर्फ़ 1 मिनट का ही समय हो। जैसे ही दूसरा मिनट बीता फ़िर किसी ने दरवाजा खटखटाया। अबकि बार आवाज आई - जल्दी निकलो। मुझे गुस्सा आ गया। लेकिन कुछ कहने और करने की हालत में नहीं था। अगर प्रेशर में नहीं होता तो मुक्का मार कर दरवाजा खटखटाने वाले का मुंह तोड़ देता। गुस्से के कारण स्थिति सांप छछुंदर जैसी हो गई, न भीतर रहे न बाहर निकले। जैसे-तैसे पहला राऊंड पूरा हुआ और बाहर से आवाज आई - जल्दी निकलो।
अबे! मैं क्या यहाँ घर बसाने आया हूँ, साले चैन से फ़ारिग भी नहीं होने देते। 2 मिनट ही तो हुआ है। मैं गुस्से में जोर से चिल्लाया। बाहर से आवाज आई - 2 मिनट में तो 4 लोकल ट्रेन निकल जाती है। कब तक भीतर ही बैठा रहेंगा। मुझे लगा कि अब बाहर निकल ही जाना चाहिए, वरना दूसरा कोई प्रेशर के मारे दरवाजा तोड़ कर भीतर घुस जाएगा। सुबह का प्रेशर बड़ा खतरनाक होता है। पानी डाल कर जैसे ही उठा, फ़िर दरवाजा खटखटाने लगे। मैने पैंट संभाली और दरवाजे से अपना बैग उतारा। इतनी देर में फ़िर हाजतमंद ने दरवाजा खटखटा दिया। जैसे ही मैने सिटकिनी खोली और दरवाजा थोड़ा सा खुला मेरे निकलने से पहले ही एक आदमी ट्रेन की सवारी जैसे भीतर घुसने लगा। मै उसे धक्का देकर किसी तरह बाहर निकला और बाहर आकर एक लम्बी सांस ली।
नल से हाथ मुंह धोकर एक चाय ली। पहली घूंट के साथ फ़ोन की घंटी बजी। "हेलो , सर मैं प्रकाश बोल रहा हूँ। आप अभी कहाँ पर हैं?" "मैं अभी कुर्ला स्टेशन में हूँ। यहीं ऐसी की तैसी करवा रहा हूँ। जब मैने अतुल को बता दिया था कि सुबह की ट्रेन है तो डेंढ घंटे बाद फ़ोन करने के क्या मतलब है" उसकी आवाज सुनकर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर था। " सॉरी सर मुझे उठने में थोड़ी देर हो गई, भाई साहब ने मुझे रात को ही बता दिया था कि आप सुबह की ट्रेन से आने वाले हैं और मुझे रिसीव करने जाना है। सर माफ़ कीजिए मैं आधे घंटे में पहुच रहा हूँ।" प्रकाश के फ़ोन आने के बाद मैं आश्वस्त हो गय कि एकाध घंटे में तो घर पहुंच जाएगें। चाय पीते हुए बैंच पर बैठ गया। साथ ही दो बिहारी नौजवान बैठे थे, शायद वो भी किसी के इंतजार में थे। एक कह रहा था - ई मुंबई है रे सुरेसवा, हियाँ खाने को मिल जाएगा, काम मिल जाएगा पर हगने और सुतने को मिलना बहुत कठिन है। इनकी बातें सुनकर मैं अपना मुड़ खजुवाते आकाश में उड़ते हवाई जहाज देखते हुए प्रकाश का इंतजार कर रहा था। ई मुंबई है रे बबूआ……………