मंगलवार, 19 नवंबर 2013

ई मुंबई है रे बबूआ : डर्टी पोस्ट

घर से चलने के पूर्व अतुल को फ़ोन कर दिया था कि मैं फ़लाँ फ़लाँ ट्रेन से आ रहा हूँ। यह मुंबई की मेरी पहली यात्रा थी। काफ़ी कुछ टीवी और सिनेमा के माध्यम से मुंबई के विषय में देख और सुन चुका था। मन में धुक धुकी लगी हुई थी कि शहर कैसा होगा, शहर के लोगों का बर्ताव कैसा होगा? कहीं सामान चोरी तो नहीं हो जाएगा। कोई ऑटो वाला गलत जगह ले जाकर लूट तो नहीं लेगा। तरह तरह की शंकाएँ, कुशंकाएँ, आशंकाएं मन में उमड़-घुमड़ रही थी। दिन पूरी तरह से नहीं निकला था। मेरी ट्रेन सुबह 5 बजे कुर्ला स्टेशन पहुंची। अतुल का फ़ोन बंद था। उसके घर का पता भी मुझे नहीं मालूम, अब क्या किया जाए? वहीं पर पड़ी एक बैंच पर बैठ गया। आसमान में उड़ते हुए हवाई जहाजों को देखने लगा। एक हवाई जहाज टेक ऑफ़ करता था तो उसके एक मिनट बाद कोई दूसरा हवाई जहाज लैंड करता था। इन्हें देख कर ही टाईम पास करने लगा। मेरी ट्रेन की सवारियाँ एक-एक कर निकल गई। मेरे जैसे कुछ लोग ही बच गए थे।

सामान के नाम पर मेरे पास सिर्फ़ एक बैग था। चाय की चाह हो रही थी, लेकिन चाय नहीं पी सकता था। चाय पीते ही शौचालय की तरफ़ दौड़ना पड़ता। फ़िर बैग की रखवाली कौन करता? अकेले होने के कारण सामान की रखवाली की समस्या आती ही है। सोच रहा था कि कोई मुझे लेने आ जाए तो वहीं दैनिक क्रिया से निवृत हो लूंगा। एक घंटा हो गया, कोई मुझे लेने के लिए नहीं आया। पेट में गुड़गुड़ी मचने लगी। धीरे-धीरे प्रेशर बढने लगा। लगा कि आज तो बिना चाय के ही बम फ़ूट जाएगा। बम फ़ूट जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन फ़ोड़ने की माकूल जगह भी होनी चाहिए। थोड़ी देर तो रुक सका लेकिन फ़िर रोका नहीं जा सका। शौचालय के विषय में पूछने पर बताया कि वो परली तरफ़ है। बैग संभालते हुए उधर दौड़ कर गया। देखा की लोग लाईन में लगे हुए थे। जब तक अपना नम्बर आए तब तक तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।

इस तरह की घटना मेरे साथ पहली बार घट रही थी। इससे पहले सार्वजनिक शौचालय के चक्कर में फ़ंसना नहीं हुआ। घुमक्कड़ी में जिन्दगी के काफ़ी वर्ष निकाल दिए, लेकिन यह अनुभव पहली बार था। मेरे पीछे भी आठ-दस लोग लाईन लगाए खड़े थे। पन्द्रह बीस मिनट बाद मेरा नम्बर आया। बैग धारण कर जैसे ही शौचालय में प्रवेश किया, वैसे ही बदबू के पहले झोंके से दिमाग पंचर हो गया। शौच की बदबू के साथ बीड़ी की बदबू फ़्री में मिल रही थी। अगर प्रेशर रोका जा सकता तो इस शौचालय में कभी प्रवेश नहीं करता। कहीं खुली जगह खेत या किसी का खाली प्लाट होता तो किसी आड़ में निपट लिया जाता। लेकिन यह मुंबई थी। यहाँ पर कहाँ खेत और खाली प्लाट मिलने वाला है। मन मार कर शौचालय में प्रवेश किया। बैग को दरवाजे के पीछे लटकाया और रुमाल निकाल कर सबसे पहले नाक बांधा, जिससे बदबू छन कर कम हो जाए।

बैठते ही दो काम होने लगे। पहला तो जिसके लिए मैं दौड़ कर आया था, दूसरा दिमाग की सोचनीय इंद्री शुरु हो गई। वह सोचने लगी शौचालय में। कहाँ फ़ँस गया मैं बड़े कस्बे की खुली हवा में रहने वाला। जहाँ मेरा बाड़ा ही 3 एकड़ का है। चारों तरफ़ खुला वातावरण एवं वृक्षों से छन कर आती सुवास के साथ मस्त हवा। मुझे मालूम होता कि यह गति होने वाली है तो मुंबई आना ही स्थगित कर देता। फ़ँसा हुआ व्यक्ति क्या करे। वैसे भी इनपुट होगा तो आऊटपुट होना ही है। अगर पता यह स्थिति होने वाली है तो इनपुट नहीं करता, 24 घंटे का उपवास ही रख लेता। मुझे बैठे 1 मिनट नहीं हुआ होगा, इतने में किसी ने बाहर दरवाजा खटखटा दिया। आवाज सुन कर हड़बड़ा गया। गाँव में तो मैदान में झुरमुट की आड़ में बैठने के बाद भी किसी की आहट आ जाए तो शौच नहीं होती। यहाँ तो 8 लोग लाईन लगा कर खड़े थे।
  
दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनकर दरवाजे की तरफ़ देखता रहा कि कहीं कुंडी न खुल जाए और लोगों को दिल्ली के साथ पाकिस्तान दर्शन न हो जाए। बड़ी ही खतरनाक स्थिति थी। एक मिनट के बीच इतना कुछ घट रहा था कि जैसे किसी फ़ायटर पायलेट के प्लेन में गोला लगने से आग लग गई हो और उसके पास जान बचाने के लिए सिर्फ़ 1 मिनट का ही समय हो। जैसे ही दूसरा मिनट बीता फ़िर किसी ने दरवाजा खटखटाया। अबकि बार आवाज आई - जल्दी निकलो। मुझे गुस्सा आ गया। लेकिन कुछ कहने और करने की हालत में नहीं था। अगर प्रेशर में नहीं होता तो मुक्का मार कर दरवाजा खटखटाने वाले का मुंह तोड़ देता। गुस्से के कारण स्थिति सांप छछुंदर जैसी हो गई, न भीतर रहे न बाहर निकले। जैसे-तैसे पहला राऊंड पूरा हुआ और बाहर से आवाज आई - जल्दी निकलो।

अबे! मैं क्या यहाँ घर बसाने आया हूँ, साले चैन से फ़ारिग भी नहीं होने देते। 2 मिनट ही तो हुआ है। मैं गुस्से में जोर से चिल्लाया। बाहर से आवाज आई - 2 मिनट में तो 4 लोकल ट्रेन निकल जाती है। कब तक भीतर ही बैठा रहेंगा। मुझे लगा कि अब बाहर निकल ही जाना चाहिए, वरना दूसरा कोई प्रेशर के मारे दरवाजा तोड़ कर भीतर घुस जाएगा। सुबह का प्रेशर बड़ा खतरनाक होता है। पानी डाल कर जैसे ही उठा, फ़िर दरवाजा खटखटाने लगे। मैने पैंट संभाली और दरवाजे से अपना बैग उतारा। इतनी देर में फ़िर हाजतमंद ने दरवाजा खटखटा दिया। जैसे ही मैने सिटकिनी खोली और दरवाजा थोड़ा सा खुला मेरे निकलने से पहले ही एक आदमी ट्रेन की सवारी जैसे भीतर घुसने लगा। मै उसे धक्का देकर किसी तरह बाहर निकला और बाहर आकर एक लम्बी सांस ली।

नल से हाथ मुंह धोकर एक चाय ली। पहली घूंट के साथ फ़ोन की घंटी बजी। "हेलो , सर मैं प्रकाश बोल रहा हूँ। आप अभी कहाँ पर हैं?" "मैं अभी कुर्ला स्टेशन में हूँ। यहीं ऐसी की तैसी करवा रहा हूँ। जब मैने अतुल को बता दिया था कि सुबह की ट्रेन है तो डेंढ घंटे बाद फ़ोन करने के क्या मतलब है" उसकी आवाज सुनकर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर था। " सॉरी सर मुझे उठने में थोड़ी देर हो गई, भाई साहब ने मुझे रात को ही बता दिया था कि आप सुबह की ट्रेन से आने वाले हैं और मुझे रिसीव करने जाना है। सर माफ़ कीजिए मैं आधे घंटे में पहुच रहा हूँ।" प्रकाश के फ़ोन आने के बाद मैं आश्वस्त हो गय कि एकाध घंटे में तो घर पहुंच जाएगें। चाय पीते हुए बैंच पर बैठ गया। साथ ही दो बिहारी नौजवान बैठे थे, शायद वो भी किसी के इंतजार में थे। एक कह रहा था - ई मुंबई है रे सुरेसवा, हियाँ खाने को मिल जाएगा, काम मिल जाएगा पर हगने और सुतने को मिलना बहुत कठिन है। इनकी बातें सुनकर मैं अपना मुड़ खजुवाते आकाश में उड़ते हवाई जहाज देखते हुए प्रकाश का इंतजार कर रहा था। ई मुंबई है रे बबूआ……………

रविवार, 17 नवंबर 2013

मुटरुनंदन की बारात

ढिंग चिका ढिंग चिका ढिंग चिका ढिंग हे ऐ ऐ ऐ ……… बैलगाड़ी में लगा हुआ लाऊडस्पीकर गाना बजा रहा था। शादियों के अवसर पर अक्सर नई फ़िल्मों के गीत बजाए जाते हैं। मुटरु कका के मयारु बेटा की बारात जा रही थी। भोर से ही सारे बारातियों को इकट्ठा कर बैलगाड़ी फ़ांद दिए। सांझ तक भुरकापुर पहुंचना था, तभी बारात परघनी होती। गाना सुनकर बैल भी सिर हिलाते हुए मजे से चल रहे थे। बाराती ढिंग चिका ढिंग चिका का आनंद ले रहे थे।

जैसे ही काफ़िला ढीमर पारा से मुड कर सड़क पर आया, गंजेड़ी हवलदार ने बंदूक तान दी और चिल्लाया - रोको बे! समारु ने बैलों की लगाम जोर से खींची, चरमराते हुए गाड़ी रुक गई और उसके साथ काफ़िला भी।

हवलदार सामने आया, उसने डपट कर हवा में प्रश्न उछाला - किससे पूछ के लाऊड स्पीकर बजा रहे हो? परमीशन लिए हो लाऊड स्पीकर बजाने का?

धोती संभालते हुए मुटरु बैलगाड़ी से उतरा, - लाऊड स्पीकर बजाने के लिए भी परमीशन लेना पड़ता है क्या? मेरे बेटे की शादी है, बारात जा रही है, बिना लाऊड स्पीकर के बारात की क्या शोभा।

सामने कुर्सी पर बैठा जर्दा चबाता दरोगा उठ कर मुटरु के पास आया - तुझे नहीं मालूम का क्या, चुनाव चल रहा है। चुनाव आयोग की अनुमति बिना लाउड स्पीकर बजाना अपराध है। हवलदार इसकी गाड़ी बैला को जप्ती बनाओ और बरातियों को चालान करो।

दरोगा की बातें सुनकर बारातियों में खलबली मच गई। मुटरु हाथ जोड़ कर दरोगा के पैरों में गिर गया - ऐसा मत करो साहब! जो कुछ खर्चा पानी लेना है, ले लो और मामले को रफ़ा-दफ़ा करो। टाईम पर बारात नहीं पहुचेगी तो बेइज्जती हो जाएगी।

दरोगा को घूस देने की कोशिश करता है, कानून भी तोड़ता है। अब तो तुझे हवालात में डालना ही पड़ेगा। हवलदारSSSS, लाऊड स्पीकर जप्ती बनाकर अपराध दर्ज करो, और मुटरु को थाने में बंद करो।

नहीं साहब! माफ़ कर दो, गलती हो गई। नहीं मालूम था हमें कि लाऊड स्पीकर न बजाने के कानून आ गया है। हम लाऊड स्पीकर हटा देगें साहब - मुटरु गिड़गिड़ाते हुए बोला।

तुम्हारे लड़के की शादी में विघ्न न हो, इसलिए तुम्हे निर्वाचन अधिकारी से परमीशन लेकर आना पड़ेगा। तब ही मैं बारात को यहाँ से हिलने दूंगा।

परमीशन कहाँ मिलेगा साहब।

तहसीलदार को दरखास दो, वही परमिशन देगा।

बारात खड़ी रही, बैलों को गाड़ी से ढील दिया। मुटरु, रामस्वरुप को साथ लेकर तहसीलदार के कार्यलय में पहुंचा। अर्जीनवीस से आवेदन पत्र लिखवाया, तहसीलदार के समक्ष प्रस्तुत हुआ - बाराती गाड़ी में लाऊड स्पीकर लगाने का परमीशन चाहिए साहब।

तहसीलदार ने आवेदन पर टीप लिख दिया - लाऊडस्पीकर बजाने का परमीशन निर्वाचन अधिकारी देते हैं, मेरे अधिकार में नहीं है, मैने आवेदन पत्र अग्रेषित कर दिया है। तुम सहायक निर्वाचन अधिकारी से मिलो।

मुटरु के दिमाग में खलबली मची हुई थी। बारात में विलंब हो रहा था - पता नही किस साले का मुंह देख कर घर से निकले थे। गाँव से निकलते ही शनि सवार हो गया। चल कहाँ पर सहायक निर्वाचन अधिकारी बैठता है। 

सहायक निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय में गहमा-गहमी थी। पंक्ति में बैठे हुए बाबू फ़ाईलों में उलझे हुए थे। मुवक्किल और वकील बाबूओं से तारीख ले रहे थे। अधिकारी साहब कुर्सी से गायब थे। - साहब कहाँ मिलेगें? रामस्वरुप ने बाबू से पूछा।

साहब तो रुम न्मबर 10 में बैठे हैं। क्या काम है?

बाराती गाड़ी में लाऊडस्पीकर लगाने का परमिशन चहिए। दरोगा ने रास्ते में गाड़ी रोक ली है और हमें शाम तक भुरकापुर तक परघनी के लिए पहुंचना है। जो कुछ भी खर्चा पानी लगे वो ले लो पर काम जल्दी करवा दो। - मुटरु एक सांस में कह गया।

बाबू ने नाक से उपर चश्मा चढाते हुए चपरासी को आवाज दी - समरित! फ़ाईल कव्हर लेकर आना। इधर बाबू नोटशीट बनाने लग जाता है। नोटशीट तैयार होते ही उसे लेकर  निर्वाचान अधिकारी को प्रस्तुत करता है।

क्या है यह? निर्वाचन अधिकारी ने नोट शीट पर नजर डालते हुए कहा।

लाऊड स्पीकर लगाने का परमिशन चाहिए बाराती गाड़ी में।

तुम्हें 15 वर्ष हो गए नोटशीट बनाते हुए, इसमें गाड़ी का नम्बर कहाँ लिखा और ड्रायवर के लायसेंस की फ़ोटो कॉपी भी नहीं लगाई है। - अधिकारी ने बाबू पर तमकते हुए कहा।

साहब! इन्हें बैलगाड़ी में लाऊड स्पीकर लगाने की अनुमति चाहिए। बैलगाड़ी का रजिस्ट्रेशन नम्बर नहीं होता साहब और न ही इसके ड्रायवर का लायसेंस बनाया जाता।

बाबू का जवाब सुनकर साहब को क्रोध आ गया। उसने फ़ाईल रख ली - जाओ सेकंड हाफ़ में ले जाना। 

बाबू मुंह लटका कर बाहर निकला तो मुटरु उसकी शक्ल देखकर ही समझ गया। कोई गड़बड़ है - क्या हुआ बाबू साहब?

बड़े साहब बोले हैं कि परमिशन सेकेंड हाफ़ में  मिलेगी।

मुझे मिलवा दो साहब से, बहुत जरुरी है, बारात रास्ते में खड़ी है।

साहब गुस्से में है, नहीं मिलने वाले - बाबू ने फ़ाईल वाला हाथ हिलाते हुए कहा।

सब गड़बड़ हो गया रामस्वरुप, पहले पता होता तो हफ़्ता भर पहले परमीशन ले लेते। अरे बिना लाऊड स्पीकर के ही चलते हैं, परन्तु इज्जत का कचरा हो जाएगा। गाँव वाले क्या सोचेगें। एक लाऊड स्पीकर भी बजाने के लायक नहीं है मुटरु। किसी की काठी में आया क्या? 

सिरतोन कह रहे हो कका। अब बेर भी मुड़ उपर आ गया है, बैलगाड़ी से तो भुरकापुर पहुंच नहीं सकते और कुछ उदिम करना पड़ेगा।

एक काम कर, कन्हैया बनिया को मोबाईल लगा कर उसका मेटाडोर बुलवा। जो भी रुपया पैसा खर्चा होगा देखा जाएगा। बारात तो जाना ही है, कान धर के चेत जा बेटा कि अब चुनाव के बेरा में कभी बिहाव नहीं रचाना है। मुटरु ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा तथा कचहरी से बाहर निकल गया। 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

तिरपट पंडित दर्शन एवं ब्लॉगर मिलन

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
त्तीसगढ़ की सीमा समीप आ रही थी, घर पहुंचने की व्यग्रता बढते जा रही थी। शहडोल से हम अनूपपुर की ओर बढ रहे थे। तभी पाबला जी को याद आया कि हमारे ब्लॉगर साथी धीरेंद्र भदौरिया जी  व्यंकटनगर में निवास करते हैं। तो मैने झट उन्हें फ़ोन लगाया। फ़ोन पर वे मिल गए, मैने बताया कि हम लौट रहे हैं नेपाल से। व्यंकटनगर से पेंड्रा होते हुए जाएगें। तो उन्होनें घर आने का निमंत्रण दिया। मैने हिसाब लगाया कि दोपहर तक हम वहाँ पहुंच जाएगें। उन्हे भोजन व्यवस्था के लिए कह दिया और कहा कि ठाकुर भोजन नहीं करेगें। तो उन्होने हँसते हुए कहा कि हम आपको ब्राह्मण भोजन ही कराएगें। 
शहडोल ( सहस्त्र डोल)
एक स्थान पर हमने नाला देख कर इसे दिशा मैदान के लिए उपयुक्त स्थान समझा। यहां से निवृत होने पर आगे बढे। इसके बाद धीरेंद्र भदौरिया जी बार बार फ़ोन पर हम लोगों का लोकेशन लेते रहे। उन्होने कहा कि अमलाई चचाई होते हुए आप व्यंकट नगर पहुंचिए। एक बारगी तो मैने व्यंकटनगर जाना त्याग दिया था। हम लोग अमरकंटक की राह पर बढ गए थे। लेकिन धीरेन्द्र जी के पुन: आग्रह को त्याग नहीं सके। अमलाई और चचाई की तरफ़ चल पड़े। यहां से बिलासपुर लगभग 200 किलोमीटर था और बिलासपुर से रायपुर 110 किलोमीटर। आज हमें किसी भी हालत में घर पहुंचना था। मालकिन का फ़ोन आने पर हमने कह दिया था कि रात तक हम घर पहुंच जाएगें। रास्ते में एक तिरपट पंडित दिखाई दिया। बस लग गया था कि आगे का सफ़र अभी भी कठिनाईयों भरा है।
नाले किनारे दो ब्लॉगर
व्यंकटनगर छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। व्यंकट नगर से छत्तीसगढ़ की सीमा प्रारंभ हो जाती है। भदौरिया जी ने बताया कि वे व्यंकट नगर में सड़क के दांई तरफ़ की दुकान पर बैठे हैं। व्यंकट नगर में प्रवेश करने पर भदौरिया जी प्रतीक्षा करते दिखाई दिए। यहाँ पहुंच कर पता चला कि उनका गाँव पोंड़ी यहाँ से 6-7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अब एक रेल्वे लाईन पार करके हम इनके गांव पहुचे। भदौरिया जी यहाँ के सरपंच भी रह चुके हैं तथा राजनीति में अच्छा रसूख बना रखा है। गाँव से बाहर आने पर इनका फ़ार्म हाऊस दिखाई दिया। किसी फ़िल्म के बंगले की तरह बाग बगीचा सजा रखा रखा है। पुराने जमाने के ठाकुरों जैसी नई हवेली बनी हुई है।
उच्चासनस्थ धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
भदौरिया जी के घर पहुंचने पर पाबला जी तो सोने चले गए और हमने स्नान करने का कार्यक्रम बना लिया। कैसी भी परिस्थितियाँ हो दैनिक स्नान के बिना रहा नहीं जा सकता। एक बार भोजन न मिले, स्नान होने से फ़ूर्ति आ जाती है। इधर भोजन भी तैयार हो गया था। गिरीश भैया और हमने स्नान किया। भोजन लग गया तो पाबला जी भी उठ गए। भोजनोपरांत भदौरिया जी ने ब्लॉगिंग रुम दिखाया। उनकी कुछ तकनीकि समस्या का हल पाबला जी ने किया। अब हमारा लौटने का समय हो रहा था। आसमान में बारिश के आसार दिखाई दे रहे थे। पाबला जी ने पालिथिन की आवश्यक्ता महसूस की। लेकिन भदौरिया जी के यहाँ इंतजाम नहीं हो सका। उन्होने कहा कि व्यंकट नगर में मिल जाएगी, नहीं तो पेंड्रारोड़ में तो मिलना तय है।
बरसात शुरु
जैसे ही हम पोंड़ी से बाहर निकले, बूंदा बांदी शुरु हो गई। व्यंकट नगर के बाद पेंड्रा रोड़ तक की सड़क बहुत खराब निकली। इकहरी सड़क पर गड्ढे ही गड्ढे थे। धीरे-धीरे हम आगे सरकते रहे। लगभग 4 बजे हमने गौरेला में प्रवेश किया। अब पेंड्रा में हमने पालिथिन ढूंढनी प्रारंभ की। तब तक बरसात बढ चुकी थी। 10 मिनट की मूसलाधार वर्षा में ही पेंड्रा की सड़कों पर पानी भर चुका था। नाली और सड़क बराबर हो चुकी थी। सुरभि लाज वाले चौराहे पर हमने कई दुकानों पर पालिथिन तलाश की, नहीं मिली। फ़िर एक दुकानदार ने बताया कि चौराहे पर फ़लां दुकान में मिल जाएगी। मैने पाबला जी से गाड़ी में छाता होने के बारे में पूछा तो उन्होने छाता निकाल कर दिया।
गांव की डगर पर मातृशक्ति
मैं छतरी लेकर बरसते मेह में पालिथिन लेने गया। बरसात बहुत अधिक हो रही थी। दुकानदार से 2 मीटर पालिथिन ली और बांधने के लिए साथ में सुतली भी। गिरीश भैया ने चद्दर पकड़ रखी थी। पानी गाड़ी के भीतर आने लगा था। जिससे बैग भीग रहे थे। हमने बैग बीच वाली सीट पर रख लिए। अब बरसात रुके तो पालिथिन भी लगाई जाए। नगर की गलियों में चक्कर लगाते रहे, न रास्ता मिला, न पालिथिन लगाने के लिए स्थान। पेंड्रा से बिलासपुर जाने के लिए 3 रास्ते हैं। पहला जटका पसान कटघोरा होते हुए बिलासपुर। 2सरा कारीआम, मझगंवा होते हुए रतनपुर से बिलासपुर और 3सरा अचानकमार के जंगलों से कोटा होते हुए बिलासपुर। इसमें पहला मार्ग लम्बा है। दूसरा मार्ग खराब है, एक बार हम पहले भुगत चुके थे। तीसरे मार्ग पर जाना था।
तेरा पीछा न छोड़ूंगा………
मुझे याद था कि रेल्वे लाईन पार करने के बाद दो रास्ते निकलते हैं बांई तरफ़ बिलासपुर के लिए तथा दांई तरफ़ अमरकटंक के लिए। जब हम रास्ता ढूंढ रहे थे तब मालकिन का फ़ोन आया - कहां तक पहुचे हैं? अभी पेंड्रा में है, बिलासपुर के लिए निकल रहे हैं। - इतनी देर कैसे हो गई? अभी फ़ोन बंद करो, हम बारिश में फ़ंसे हैं बाद में बात करते हैं। - हमारा दिमाग भन्ना गया। जैसे तैसे करके हमें रास्ता मिल गया। एक जगह गाड़ी खड़ी करके डिक्की पर पालिथिन चढा ली। चलो अब बरसात भी होती है तो अधिक हानि नहीं होगी। जीपीएस वाली बाई ने कई बार धोखे से खराब रास्ते में डाल दिया था इसलिए उस पर सहज विश्वास नहीं हो रहा था। अगर रात को कोटा वाले जंगली रास्ते पर पड़ गए तो फ़िर लक्ष्मण झूला झूलते हुए रात काटनी पड़ती तथा इस मार्ग पर रात में अन्य वाहन भी नहीं चलते।
बढते कदम
अब हम रास्ते पर बढ चले थे। केंवची पहुंचते तक शाम ढल चुकी थी। केंवची के होटल में हमने चाय पी और अचानकमार के जंगल में प्रवेश कर गए। भारी वाहनों के लिए शाम छ: बजे के बाद प्रवेश वर्जित है। केंवची के प्रवेश करने पर घाटी पर ही गाड़ी चलती है। एक स्थान पर सड़क किनारे महिला दिखाई दी। उसने सलवार सूट पहन रखा था। सुनसान सड़क पर महिला दिखाई देने से सबसे पहले ध्यान आता है चमड़े के जहाज का व्यवसाय तथा दूसरा ध्यान आता है कोई परेतिन हो सकती है। हम परीक्षण करने के लिए रुके तो नहीं, लेकिन गिरीश भैया के साथ चर्चा अवश्य शुरु हो गई। नारी विमर्श पर गहन चर्चा के साथ हास परिहास होते रहा और गाड़ी आगे बढते रही।
चलती है गाड़ी उड़ती है धूल
पहाड़ी समाप्त होने पर वन विभाग का चेक नाका आता है। वहाँ गाड़ी का नम्बर और आने का समय दर्ज किया जाता है। फ़ारेस्ट वाले ने एक सवारी भी लाद दी हमारे साथ। उसे अचानकमार गाँव जाना था। लाठीधारी अनजान आदमी को हमने गाड़ी में बैठा लिया। उसके बैठते ही दारु का भभका सीधा नाक से टकराया। लगा कि चौकी से ही हैप्पी बर्थ डे मना कर आ रहा है या हो सकता है चौकी तक महुआ पहुंचाने गया होगा। उसे हमने अचानकमार में छोड़ा और आगे बढ़े। रात के 8 बजे होगें। लग रहा था कि 9 बजे तक बिलासपुर पहुंच पाना संभव नहीं है। मौसम बरसाती हो गया था। कोटा होते हुए हम बिलासपुर रिंग रोड़ से निकल लिए। यह रिंग रोड़ लगभग 15 किलोमीटर का है और सीधे हिर्री मांईस के समीप जाकर निकलता है। 
नेपाल से लौटते तक लौकी 60 रुपए किलो हो गई 
पिछली गर्मी में आया था तो सड़क की हालत अच्छी थी लेकिन बरसात में ओव्हर लोड गाड़ियों ने इसकी गत मार दी। हमारी गाड़ी की चाल नहीं सुधरी। हम वैसे ही लड़खड़ाते हुए आगे बढते रहे। आधे - पौन घंटे के बाद हम मुख्य मार्ग तक पहुच चुके थे। रायपुर बिलासपुर मार्ग का निर्माण चल रहा है। इसे 4 लाईन बनाया जा रहा है। नींद की झपकी आने लगी थी। हिर्री के आगे चलकर एक स्थान पर ढाबा दिखाई दिया। यहाँ हमने उड़द की काली दाल के साथ तंदूरी रोटियों से पेट भरा। ढाबे वाले सरदार जी पुराने पत्रकार निकले। गिरीश जी ने वर्षों के बाद भी उन्हें पह्चान लिया। सड़क पर ढाबा चलाने के लिए एक - दो अखबारों की एजेंसी लेने से धौंस जम ही जाती है।
गुड़हल का फ़ूल धीरेंद्र भदौरिया जी के बगीचे में
भोजन के बाद हमें नींद आने लगी। मेरी तो आँखे खुल ही नहीं रही थी। आंखे खोलने का प्रयत्न करता लेकिन आँखों को बंद होने से नहीं रोक पा रहा था। पाबला जी की हालत भी कुछ वैसी ही थी। हमने गाड़ी सड़क के किनारे लगा कर सोने का फ़ैसला किया। जब आँख खुल जाएगी तो आगे चल पड़ेगें।  सीट लम्बी करके सो गए। लेकिन नींद आती कहाँ है ऐसी परिस्थितियों में। थोड़ी देर बाद पाबला जी हड़बड़ा कर उठे। मेरी आँख खुल गई, लगा कि जैसे उनकी सांस बंद हो गई है। उन्होने हाथ के इशारे मुझसे पानी मांगा। मैने तुरंत पानी की बोतल उन्हे पकड़ाई। जब उन्होने सांस ली तो मेरी जान में जान आई। वे बोले- रात को सोने भी नहीं देता, रेल पटरियों पर बिखरा नजर आता है। मैं चुप हो गया और उनसे सोने का प्रयत्न करने को कहा।

हिर्री मांइस के पास के ढाबे में
थोड़ी देर आराम करने के बाद हम फ़िर चल पड़े। रात गहराती जा रही थी। बिलासपुर रायपुर मार्ग पर रात में गाड़ी चलाना भी खतरे से खाली नहीं है। सारी हैवी लोडेड ट्रकें चलती है और रोज कोई न कोई हादसा होते ही रहता है। अगर आप सही चल रहे हैं तो कोई भरोसा नहीं ट्रक वाला ही आपसे भिड़ जाए। धरसींवा चरोदा से आगे बढने पर हम विधानसभा वाले रोड़ पर मुड़ गए। इधर से जल्दी पहुंचने की संभावना थी। सड़क और प्लाई ओव्हर के कारण लाईटों की चकाचौंध में रोड़ ही समझ नहीं आया। थोड़ी देर तक पाबला जी से नोक झोंक होते रही। फ़िर उन्होने चुप करवा दिया और आगे बढे। थोड़ी देर में गिरीश जी के घर पहुंच गए। गिरीश जी को घर छोड़ा। मेरा नेट श्रेया रायपुर ले आई थी। बिना नेट के जग सूना।
ब्लेक बाक्स सफ़र का साथी
नेट लेने के लिए हमने फ़ैसला किया कि कृषक नगर से नेट लेकर नई राजधानी होते हुए घर पहुंच जाएगें। भाई को फ़ोन करके बता दिया कि हम पहुंच रहे हैं वो नेट लेकर घर के बाहर मिले। वैसा ही हुआ, हम अब नई राजधानी होकर अभनपुर पहुंच गए। लगभग सुबह के 4 बज रहे थे। पाबला जी को यहाँ से 50 किलोमीटर दूर भिलाई जाना था। मैं घर के गेट के सामने उतर गया। पाबला जी सत श्री अकाल कह कर मेरी यात्रा को विराम दिया और आगे बढ गए। सत श्री अकाल के उद्भोष के साथ हमारी यात्रा प्रारंभ हुई थी। करतार ने हमारी साप्ताहिक यात्रा को सफ़ल बनाते हुए सकुशल घर पहुंचा दिया। इस तरह हमारी नेपाल यात्रा सम्पन्न हुई। मारुति इको ने विश्वास के साथ इतना लम्बा सफ़र निभाया। उसके साथ जीपीएस वाली बाई को भी धन्यवाद। आज भी सज्जे-खब्बे की उसकी मधुर आवाज मेरे कानों में गुंजती है। 

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

विराट नगर का कलचुरी कालीन मंदिर

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
लाहाबाद से रीवा की ओर बढ चले। एकबारगी तो हमने तय किया कि रीवा से जबलपुर, कवर्धा होते हुए रायपुर पहुंचे और जबलपुर पहुंच कर गाड़ी का ब्रेक सीधे ही तोप कारखाने के सामने लगाया जाए।। प्राचीन एवं नवीन ब्लॉगर मिलन हो जाएगा। परन्तु उधर के भी रास्ते के खराब होने का समाचार मिला तो हमने जबलपुर जाने का इरादा त्याग दिया। इलाहाबाद से इज्जतगंज होते हुए हम रीवा की ओर बढे। रास्ते में ट्रैफ़िक कमोबेश पहले जैसा ही था। एक स्थान पर आने वाले मार्ग पर जाम लगा हुआ था और हम अपनी साईड में चल रहे थे। तभी हमारे सामने एक उड़ीसा नम्बर की गाड़ी आ गई। जबकि उसे दिख रहा था कि सामने से गाड़ी आ रही है। पाबला जी ने अपनी गाड़ी वहीं रोक ली और सड़क न छोड़ने की ठान ली।

हमारी गाड़ी रुकने से पीछे भी जाम लग रहा था। थोड़ी देर बार जीप वाला तो गाड़ी नीचे से उतार कर ले गया। उसके पीछे पीछे एक ट्रक वाला भी घुस गया। अब पाबला जी की खोपड़ी खराब हो गई। उन्होने ट्रक वाले को बगल से जाने कहा। ट्रक वाला कच्चे में गाड़ी उतारने को तैयार नहीं था और पाबला जी भी अपने स्थान से टस से मस होने को तैयार नहीं थे। गुस्से के मारे चेहरा तमतमा रहा था और आँखे लाल हो गई थी। मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे रहे थे। अब जाम पूरी तरह से लग चुका था। मैं सोच रहा था कि अगर इस जाम में फ़ंस गए तो फ़िर 2-4 घंटे की फ़ुरसत। क्योंकि जाम हमारी गाड़ी के कारण ही लग रहा था। मैंने पाबला जी को बहुत मनाया तब कहीं जाकर वे गाड़ी सड़क से नीचे उतार कर आगे बढे। नहीं तो हो गया था पंगा।

मध्यप्रदेश की सीमा तक सड़क ठीक थी। जैसे ही हमने मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश किया वैसे बड़े बड़े गड्ढों वाली सड़क से सामना हुआ। आगे बढने पर सड़क ही गायब हो गई थी। सिर्फ़ गड्ढे ही गड्ढे थे। रीवा से कुछ दूर पहले हमें एक ठीक ठाक होटल नजर आया। रात के 9 बज रहे थे। सोचा कि यहीं भोजन कर लिया जाए। होटल किसी भाजपानुमा नेता का था। मध्यप्रदेश पहुंच कर लगा कि हम घर ही पहुंच गए हैं क्योंकि मध्यप्रदेश हमारा बंटवारा भाई जो है। लेकिन यह नहीं सोचा था कि सड़क इतनी खराब होगी। भोजनोपरांत मैने पीछे की सीट संभाल ली और सो गया। अब रात को गाड़ी कहाँ कहाँ और कैसे-कैसे चली उसका मुझे पता नहीं।

सुबह शहडोल के पहले मेरी नींद खुली अर्थात हम अनूपपुर पेंड्रा वाले मार्ग पर थे। तभी सोहागपुर में एक मंदिर दिखाई दिया। स्थापत्य की शैली से दूर से ही कलचुरी कालीन मंदिर दिख रहा था। मैने तत्काल गाड़ी रुकवाई। जैसे मनचाही मुराद मिल गई हो। इस मंदिर को विराट मंदिर कहा जाता है। कहते हैं कि महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान जिस विराट नगर का वर्णन है वह यही विराट नगर है। यहाँ के सम्राट राजा विराट थे। समीप ही बाणगंगा में पाताल तोड़ अर्जुन कुंड स्थित है। शहडोल का पूर्व नाम सहस्त्र डोल बताया जाता है। कलचुरी राजाओं का राज जहाँ भी रहा उन्होने वहाँ सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया है।

मंदिर प्रांगण में प्रवेश करने पर यह पीछे की तरफ़ झुका हुआ दिखाई देता है। आगे बढने पर एक केयर टेकर मिला। उसने बताया कि वह फ़ौज से अवकाश प्राप्त है। लेकिन उसके पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कोई परिचय पत्र नहीं था। उसने मुझसे कहा कि यहाँ फ़ोटो खींचने का 25 रुपए चार्ज लगता है तथा वह रसीद लेकर आ गया। मैने जब उसका मेन्युअल देखा तो उसमें वीडियो बनाने का चार्ज 25 रुपए लिखा था और फ़ोटो लेना फ़्री था। इस तरफ़ केयरटेकर पर्यटकों को ठग कर अतिरिक्त कमाई कर रहा है। गिरीश भैया और हम दोनो मंदिर के दर्शन करने के लिए आए और पाबला जी गेट के समीप ही रुक गए। उनके पैर की एडी में तकलीफ़ होने के कारण अधिक दूर चल नहीं पा रहे थे।

मंडप ढहने के कारण पुन: निर्मित दिखाई दे रहा था। केयर टेकर ने बताया कि 70 साल पहले मंदिर के सामने का हिस्सा धराशायी हो गया था, जिसे तत्कालीन रीवा नरेश गुलाबसिंह ने ठीक कराया था। उसके बाद ठाकुर साधूसिंह और इलाकेदार लाल राजेन्द्रसिंह ने भी मंदिर की देखरेख पर ध्यान दिया। अब यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है। मंदिर का मुख्य द्वार शिल्प की दृष्टि से उत्तम है। मुख्यद्वार के सिरदल पर मध्य में चतुर्भुजी विष्णु विराजित हैं। बांई ओर वीणावादिनी एवं दांई ओर बांया घुटना मोड़ कर बैठे हुए गणेश जी स्थापित हैं। मंदिर का वितान भग्न होने के कारण उसमें बनाई गई शिल्पकारी गायब है।

मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। जिसकी ऊंचाई लगभग 8 इंच होगी तथा जलहरी निर्मित है एवं तांबे के एक फ़णीनाग भी शिवलिंग पर विराजित हैं। यह मंदिर सतत पूजित है। जब मैने गर्भ गृह में प्रवेश किया तो कुछ महिलाएं पूजा कर रही थी। मंदिर के शिखर पर आमलक एवं कलश मौजूद है। बाहरी भित्तियों पर सुंदर प्रतिमाएं लगी हुई है। दांई ओर की दीवाल पर वीणावादनी, पीछे की भित्ती पर शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी विष्णु तथा बांई ओर स्थानक मुद्रा में ब्रम्हा दिखाई देते हैं। साथ ही स्थानक मुद्रा में नंदीराज, गांडीवधारी प्रत्यंचा चढाए अर्जुन, उमामहेश्वर, वरद मुद्रा में गणपति तथा विभिन्न तरह का व्यालांकन भी दिखाई देता है।

मिथुन मूर्तियों के अंकन की दृष्टि से भी यह मंदिर समृद्ध है। उन्मत्त नायक नायिका कामकला के विभिन्न आसनों को प्रदर्शित करते हैं। इन कामकेलि आसनों को देख कर मुझे आश्चर्य होता है कि काम को क्रीड़ा के रुप में लेकर उन्मुक्त केलि की जाती थी। यहाँ मैथुनरत स्त्री के साथ दाढी वाला पुरुष दिखाई देता है। इससे जाहिर होता है कि यह स्थान शैव तंत्र के लिए भी प्रसिद्ध रहा होगा। प्रतिमाओं में प्रदर्शित मैथुनरत पुरुष कापालिक है। कापालिक वाममार्गी तांत्रिक होते हैं। वे पंच मकारों को धारण करते हैं - मद्यं, मांसं, मीनं, मुद्रां, मैथुनं एव च। ऐते पंचमकार: स्योर्मोक्षदे युगे युगे। कापालिक मान्यता है कि जिस तरह ब्रह्मा के मुख से चार वेद निकले, उसी तरह तंत्र की उत्पत्ति भोले भंडारी के श्रीमुख से हुई। इसलिए कापालिक शैवोपासना करते हैं।

ज्ञात इतिहास के अनुसार उन्तिवाटिका ताम्रलेख के अनुसार जिला का पूर्वी भाग, विशेषकर सोहागपुर के आसपास का भाग लगभग सातवी शताब्दी में मानपुर नामक स्थान के राष्ट्रकूट वंशीय राजा अभिमन्यु के अधिकार में था. उदय वर्मा के भोपाल शिलालेख में ई. सन् 1199 में विन्ध्य मंडल में नर्मदापुर प्रतिजागरणक के ग्राम गुनौरा के दान में दिये जाने का उल्लेख है. इससे तथा देवपाल देव (ई. सन् 1208) के हरसूद शिलालेख से यह पता उल्लेख है कि जिले के मध्य तथा पश्चिमी भागों पर धार के राजाओं का अधिकार था. गंजाल के पूर्व में स्थित सिवनी-मालवा होशंगाबाद तथा सोहागपुर तहसीलों में आने वाली शेष रियासतों पर धीरे-धीरे ई.सन् 1740 तथा 1755 के मध्य नागपुर के भोंसला राजा का अधिकार होता गया. भंवरगढ़ के उसके सूबेदार बेनीसिंह ने 1796 में होशंगाबाद के किले पर भी अधिकार कर लिया. 1802 से 1808 तक होशंगाबाद तथा सिवनी पर भोपाल के नबाव का अधिकार हो गया, किंतु 1808 में नागपुर के भोंसला राजा ने अंतत: उस पर पुन: अधिकार कर लिया।

वर्ष 1817 के अंतिम अंग्रेज-मराठा युध्द में होशंगाबाद पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया तथा उसे सन् 1818 में अप्पा साहेब भोंसला द्वारा किए गए अस्थायी करार के अधीन रखा गया. सन् 1820 में भोंसला तथा पेशवा द्वारा अर्पित जिले सागर, तथा नर्मदा भू-भाग के नाम से समेकित कर दिए गए तथा उन्हें गवर्नर जनरल के एजेंट के अधीन रखा गया, जो जबलपुर में रहता था. उस समय होशंगाबाद जिले में सोहागपुर से लेकर गंजाल नदी तक का क्षेत्र सम्मिलित था तथा हरदा और हंडिया सिंधिया के पास थे. सन् 1835 से 1842 तक होशंगाबाद, बैतूल तथा नरसिंहपुर जिले एक साथ सम्मिलित थे, और उनका मुख्यालय होशंगाबाद था. 1842 के बुंदेला विद्रोह के परिणाम स्वरूप उन्हें पहले की तरह पुन: तीन जिलों में विभक्त कर दिया गया।

इस मंदिर के आस पास कई छतरियाँ (मृतक स्मारक) बनी दिखाई देती हैं। मंदिर के मंडप में अन्य स्थानों से प्राप्त कई प्रतिमाएं रखी हुई हैं। जिनमें पद्मासनस्थ बुद्ध की मूर्ति भी सम्मिलित है। मंदिर का अधिष्ठान भी क्षरित हो चुका है। इसका सरंक्षण जारी दिखाई दिया। विराट मंदिर के दर्शन करके मन प्रसन्न हो गया। कलचुरीकालीन गौरव का प्रतीक विराट मंदिर सहस्त्र वर्ष बीत जाने पर भी गर्व से सीना तानकर आसमान से टक्कर ले रहा है। अगर इसका संरक्षण कार्य ढंग से नहीं हुआ तो यह ऐतिहासिक धरोधर धूल में मिल सकती है। यहाँ से हम अपने मार्ग पर चल पड़े।

रविवार, 3 नवंबर 2013

हैप्पी दीवाली: कुछ उनकी, कुछ अपनी

दृश्य-1

कल दशहरा मना लिया गया, रावण अपने धाम को विदा हो गया। मौसम में दीवाली महक आ गई है। सुबह-सुबह ओस के साथ मौसम दीवालियाना लगने लगा है। चाय का कप लिए करंज के पेड़ के नीचे कुर्सी डाले बैठा हूँ। इस एक महीने के त्यौहार में कितने काम रुक जाते हैं और कितने काम हो जाते हैं सोच रहा हूँ। रामगढ़ पर मेरी पुस्तक अधूरी है, उसे पूरा करने के लिए मुझे एक बार 2-4 दिनों के लिए रामगढ़ और जाना होगा। पिछले छ: महीने से योजना बना रहा हूँ। लेकिन कुछ न कुछ अड़ंगा आ जाता है। बरसात के चार महीने तो जंगल में घुसने लायक भी नहीं हैं। अब चुनाव का डंका बज चुका है। घर में रहकर ही राजनैतिक प्रतिस्पर्धा (लड़ाई) का आनंद लिया जाए। उसके बाद देखा जाएगा, कहीं जाना होगा तो। वैसे भी दीवाली का कितना काम पड़ा है।

दृश्य-2

बाईक स्टार्ट कर रहा हूँ, बाजार जाना है। तभी मालकिन पहुंच जाती है - दीवाली सिर पर आ गई है। रंगाई, पोताई, साफ़-सफ़ाई नहीं करवानी क्या? कोई चिंता ही नहीं है आपको। बाजार जा रहे हो तो रंग रोगन ले कर आना। परसों से काम शुरु हो जाना चाहिए।
अरे! हर साल रंग-रोगन तो टाटा-बिड़ला के यहाँ भी नहीं होता। पहले मकानों में चूना करना होता था तो लोग हर साल पुताई कर लेते थे। अब कितना मंहगा हो गया है, रंग-पेंट। दस हजार से कम का नहीं आएगा और पेंटरों का भी भाव बढा हुआ है। कहाँ ढूंढने जाऊंगा।
कहीं से लाईए ढूंढ कर। मुझे घर की रंगाई पुताई करवानी है। एक साल में घर की दीवारें कितनी गंदी हो जाती हैं। आपको नहीं दिखता क्या? मालकिन ने अपना आदेश सुना दिया और चली गई। मजबूरी युक्त हमारी मजदूरी शुरु हो गई।

दृश्य - 3

रंग-रोगन की दुकान में भारी भीड़। लोग सामान धक्का मुक्की कर सामान खरीद रहे हैं। सोच रहा हूँ कि ये भी मेरे जैसे ही होगें। इनकी मालकिनों ने भी इन्हें खदेड़ा होगा। दुकानदार की नजर मुझ पर पड़ती है - नमस्कार भैया! कैसे आना हुआ?
नमस्कार! यार मैं सोच रहा था कि तेरी बारात में जाने के बाद भूल गया ही गया। कम से कम बच्चों के बारे में पूछना चाहिए था कि कितने हुए। आज याद आया तो पता करने चला आया।
हे हे हे हे! आप भी मजाक करते हैं भैया। 10 साल बाद आपको याद आई।
अरे! मुझे रंग रोगन लेना है, इसलिए आया हूँ। इतना भी नहीं समझता। एशियन का इमल्शन पेंट लेना है। कलर कार्ड दिखा  मुझे। हॉल के लिए 2 रंग। बैडरुम के लिए 2 रंग, दूसरे बैडरुम में 2 रंग। भगवान के कमरे के लिए अलग लेना है। बाकी जो बच गया किचन में लगा लेगें। छत और बार्डर का रंग मिला कर भीतर के लिए लगभग 15 लीटर लग जाएगा तथा बाहर के लिए स्नोशेम कलर भिजवा दे। साथ में 1 छ: इंची ब्रस, 1 दो इंची, एमरी पेपर 80 नम्बर, व्हाईट सीमेंट 5 किलो भी साथ में देना।

दृश्य -3

भोजन जारी है- बोल आए रंग रोगन के लिए? मालकिन ने प्रश्न दागा। मेरे जवाब देते तक ही डोर बेल बजी। लड़का रंग रोगन का डिब्बा लिए सामने खड़ा था। मालकिन के चेहरे पर विजयी मुस्कान की चमक आ गई थी। रख दो भैया, उधर कोने में। साथ ही मेरी ओर मुखातिब होते बोली- कल सुबह सातपारा जाकर पेंटर का पता करके आओ। अब अधिक समय नहीं रह गया है। घर की साफ़ सफ़ाई भी करनी पड़ती है। रंग रोगन के बाद फ़र्श पर कितना कचरा फ़ैल जाता है। काम वाली बाई भी नौंटकी करने लगती है। आपका क्या है, जब देखो तब कम्पयूटर पर डटे रहते हो। थोड़ा भी ध्यान न दूं तो सारा काम ऐसे ही पड़ा रहे। आखिर सारा काम मुझे ही करना पड़ता है। मैं सिर झुकाए खाने में व्यस्त हूँ। आदेश सुनाई दे गया। अब कल की कल देखी जाएगी।

दृश्य-4

रात के 10 बज रहे हैं और मैं नेपाल यात्रा के पोस्ट लेखन से जूझ रहा हूँ। सब कुछ याद है कि कुछ भूल रहा हूँ। कीबोर्ड की खटर पटर जारी है। इसी बीच मालकिन का आगमन होता है - रविवार को बच्चों के कपड़े लेने जाना है। फ़िर सब छंटे छंटाए मिलेगें।
चले जाना भई, मैने कब रोका है। - मैने कीबोर्ड खटखटाते हुए कहा।
आप सारा दिन इसी में लगे रहते हो। कभी फ़ुरसत है यह सब सोचने की।
अरे! सारे ही सोचने लग जाएगें तो काम बिगड़ जाएगा। परिवार का काम यही है कि सब सोचें और कार्य पर विजय पाएं। अब मैं भी सोचने लग गया तो तुम्हारे लिए सोचने के लिए क्या बचेगा। इसलिए जिसका काम उसी को साजे, नही साजे तो डंडा बाजे।

दृश्य-5

कीबोर्ड विराम मोड में है और माऊस का काम चल रहा है। पोस्ट में फ़ोटो अपलोड हो रही हैं। दिमाग सोचनीय मोड में है। इसी घर में बचपन में देखते थे कि पितृपक्ष समाप्ति और नवरात्रि के पहले दिन से ही दीवाली के काम शुरु हो जाते थे। कामगारों की रेलम पेल। खेत से फ़सल आने की तैयारी। खलिहान की लिपाई शुरु हो जाती थी। उरला गाँव का बुधारु टेलर सिलाई मशीन लेकर बैठक की परछी में डेरा लगा लेता था। पंजाबी की दुकान से थान के थान कपड़े आते थे और सभी बच्चों के नाप के हिसाब से 2-2 जोड़ी कपड़ों की सिलाई शुरु हो जाती थी। स्कूल से आते ही पहला काम होता था कि आज टेलर ने किसके कपड़े सीले हैं और कल किसकी बारी है। कपड़े की दुकान घर पर ही खुल जाती थी। टेलर की भी मौज हो जाती थी, एक ही घर के कपड़े सीने में उसकी दीवाली मन जाती थी।

दृश्य-6

पेंटर काम पे लगे हुए हैं, उनकी सहायता के लिए उदय महाराज तैयार हैं, कभी इस डिब्बे की ब्रश उस डिब्बे में तो कभी इधर का पेंट उधर। हम कम्प्यूटर पर चिपके हुए हैं। कभी झांक कर देख लेते हैं क्या काम हो रहा है। आप यहाँ बैठे है और उदय उन्हें काम नहीं करने दे रहा है - तमतमाते हुए मालकिन का आगमन होता है।
उदयSSSSSSS! क्यों फ़ालतू परेशान कर रहा है। काम करने दे। चल तुझे एक काम देता हूँ, देख कितनी सारी तितलियाँ बाड़े में उड़ रही हैं। दो-चार सुंदर की फ़ोटो ही खींच ले। कम्प्यूटर का वाल पेपर बनाएगें। खुशी खुशी उदय कैमरा लेकर मंदिर की तरफ़ चला जाता है।
ये श्रुति भी न, जब काम होगा तभी स्कूल जाएगी। नहीं तो छुट्टी कर लेती है। काम के बोझ के नीचे कोई नहीं आता। सारा दिन रात खटना पड़ता है। तब कहीं जाकर दीपावली का काम निपटता है। अभी तो बिजली मिस्त्री को बुलाना है। 2 महीने से बाहर की ट्यूब लाईट खराब पड़ी है। उसे ठीक करवाना है। कोई ध्यान ही नहीं देता। - मालकिन बड़बड़ा रही थी।

दृश्य-7

पेंटर आधा अधूरा काम छोड़ कर गायब हो गए हैं ।मालिक साहब स्टूल पर चढे दीवाल पर रोगन चढा रहे हैं। अरे! इतना तो रंग मत टपकाओ। फ़र्श पर गिरने के बाद चिपक जाता है, साफ़ नहीं होता।
अब ब्रश से चूह जाता है तो मैं क्या करुं? कौन सा मैने पेंटिंग का कोर्स किया है। अब काम वाले नहीं आए तो मैं क्या करुं। ब्लेड से खुरच कर साफ़ कर दूंगा। दीवाली का काम है करना ही पड़ेगा। वरना कौन सुबह-शाम सिर पर बेलन बजवाएगा। हाँ नहीं तो। जरा ड्रम इधर खिसकाना तो।
ये छिपकिलियाँ बहुत परेशान करती हैं। जहाँ देखो वहीं घुसे रहती हैं। फ़ोटो के पीछे, कपड़ों के पीछे, आलमारी के पीछे। किताबों के सेल्फ़ में। मरती भी नहीं है। कोई इलाज नहीं है क्या इनका?
इलाज तो मुझे भी नहीं मालूम। फ़ेसबुक पर लिख कर मित्रों की राय ले लेता हूँ। अगर वे कोई समाधान बताएगें तो अमल में लाया जाएगा।
फ़ेसबुक पर लगाया हुआ महत्वपूर्ण स्टेटस, ही-ही बक-बक की बलि चढ जाता है। लेकिन मगरमच्छ की बहनों से पैदा हुई समस्या का हल नहीं मिलता।

दृश्य-8

पटाखे लाने हैं कि नहीं?
क्या करना है पटाखे लाकर। पिछले साल ही 2500 के लाए थे और किसी ने चलाए भी नहीं। अभी तक पड़े हैं घर में। फ़ालतू खर्च करने से क्या हासिल होगा।
दीवाली है, लोग पटाखे चलाते हैं। फ़िर आदि, हनी, श्रुति, श्रेया, उदय को तो पटाखे चलाने हैं। आप चलाओ चाहे न चलाओ।
रोज अखबार वाले और टीवी वाले कह रहे हैं कि पटाखे चलाने से ध्वनि प्रदूषण एवं वायू प्रदूषण होता है। साथ ही आचार संहिता लगने के कारण आज ही चुनाव आयोग का मेल-पत्र आया है कि रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक पटाखे चलाने पर प्रतिबंध है। अब पटाखे चलाने वालों को पुलिस पकड़ कर ले गई तो समझो मन गई दीवाली। - मैने टालने की कोशिश करते हुए कहा।
कोई पुलिस वाला पकड़ कर नहीं ले जाएगा। साल भर का त्यौहार है, इस दिन भी क्या पटाखे नहीं चलाने देगें। जाओ लेकर आओ और ज्यादा पटाखे नहीं लाना। सभी एक एक पैकेट ले आना।
बाजार से वापसी लौटते हुए उदय के पास एक बड़ी पालिथिन में भरे हुए पटाखे दिखाई देते हैं। इतने सारे क्यों ले आए? मैने तो थोड़े से लाने कहा था।
मुझसे थोड़ा सामान नहीं खरीदा जाता। साला ईज्जत का कचरा हो जाता है। तुम्हे थोड़ा सामान खरीदना हो तो किसी और से मंगवा लिए करो। मुझे मत कहे करो। हाँ ! साथ में लट्टूओं की झालर भी ला दी हैं 6 नग। मुझे मत कहना फ़िर बाजार जाने के लिए।

दृश्य- 9

आम के पत्तों को तोड़ कर नंगा करने पर तुले हैं नंदलाल और उसके लड़के। अरे! सारे पत्ते तुम ही तोड़ ले जाओगे तो दीवाली में हम कहाँ से लाएगें? मैने उन्हें झिड़कते हुए कहा।
दादी से पूछ कर तोड़ रहे हैं।
ले भई, जब दादी ने कह दिया तो पूरा पेड़ ही उखाड़ कर ले जाओ। कल तो कुछ मरदूद फ़ूल तोड़ने भी आएगें। - मैने कहा
तब तक मालकिन भी मैदान में आ जाती है- सब इन्हीं लोग ले जाते हैं दादी की सिफ़ारिश से, हमारे लिए तो बचते ही नहीं। आंगन लीपने के लिए गोबर भी नहीं आया है। श्रुति रंगोली का सारा सामान लेकर आ गई है। गोबर आएगा तो लीपा जाएगा, तब रंगोली बनेगी। इतवारी के लड़के को कब से खोवा (मावा) लाने कही हूँ, अभी तक लेकर नहीं आया है। कितना काम पड़ा है। कब खोवा लेकर आएगा तो कब गुलाब जामुन बनेगें।
मैने तो मना कर दिया था खोवे के लिए। आजकल खोवा खराब आ रहा है और मंहगा भी कितना है। 10 रुपए किलो में कोई कुत्ता भी नहीं पूछता था। आज 400 रुपए किलो हो गया है। वह भी शुद्ध होने की कोई गारंटी नहीं। नकली खोवा खाओ और अपनी तबियत खराब करो। 400 का खोवा और 1400 की दवाई।
आपकी चले तो कोई त्यौहार भी न मने। मैने कहा है उसे खोवा लाने के लिए। अगर तबियत खराब होगी तो मेरी होगी। देखा जाएगा, कम से कम दीवाली तो जी भर के मनाएं।

दृश्य -10

बरगद के पेड़ के नीचे कैमरा लिए बैठा हूँ, कुछ बगुले गाय की पीठ पर सवार हैं और लछमन झूला झूलने का मजा ले रहे हैं। बाड़े में चारों तरफ़ नजर दौड़ाता हूँ तो सूना सूना लगता है। लगता है जैसे काटने को दौड़ रहा हो। कभी इसी जगह पर त्यौहार पर 40-50 परिजन इकट्ठे होते थे। उस आनंद के कहने ही क्या थे। लक्ष्मी पूजन करने के बाद आशीर्वाद लेने-देने का क्रम चलता था और आतिशबाजी रात भर चलती थी। अब ऐसा कुछ नहीं है। कुछ बाहर चले गए, कुछ धरती में समा गए। कुछ अलग हो गए अपने - अपने कुटूंब कबीले को लेकर।
कैसा मजा रह गया है अब इन त्यौहारों का? सिर्फ़ परम्परा का निर्वहन हो रहा है। कल जब लोग पूछेगें कि दीवाली कैसी मनी? तो उन्हें बताने के लिए भी कुछ होना चाहिए। इन परिवार नियोजन वालों ने दुनिया का सत्यानाश कर दिया। वरना एक परिवार की दीवाली इतनी बड़ी होती थी, जितनी आज सारे मोहल्ले की होती है। 8-10 बच्चे होते तो उनकी उछल कूद और उत्साह से लगता कि आज कोई त्यौहार है। जब वे नए कपड़े पहन कर उत्साह से फ़ूलझड़ियाँ चलाते, आतिशबाजी करते। कोई किसी के पटाखे चुराकर जला देता तो किसी की पतलून के पांयचे में चकरी के पतंगे लग जाते। कितना आनंद होता उस दीवाली का।

क्या सोच रहे हो? चाय पीलो और मैने पानी गर्म कर दिया है, नहा धोकर तैयार हो जाओ। पूजा का मुहूर्त 6 बजे का है। आज तो कम से कम आलस छोड़ दो।

इस तरह संसार के रंगमंच पर न जाने कितने ही दृश्यों में पात्र को अभिनय करना पड़ता है और जीना पड़ता है इस दुनिया की वास्तविकता को। जो सपनों से तथा कल्पनाओं से कहीं अलहदा होती हैं। सभी मित्रों की दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं