बुधवार, 5 जुलाई 2017

प्राचीन काल के प्रतिमा शिल्प में आभूषण अलंकरण

स्त्री एवं पुरुष दोनों प्राचीन काल से ही सौंदर्य के प्रति सजग रहे हैं। स्त्री सौंदर्य अभिवृद्धि के लिए सोलह शृंगार की मान्यता संस्कृत साहित्य से लेकर वर्तमान तक चली आ रही है। कवियों ने अपनी कविताओं में नायिका के सोलह शृंगार का प्रमुखता से वर्णन किया है तो शिल्पकार भी क्यों पीछे रहते, उन्होंने भी प्रतिमा शिल्प में सौंदर्य वृद्धि की सभी युक्तियों को कुशलता के साथ उकेरा है। मंदिरों की भित्तियों में स्थापित जब हम प्रतिमा शिल्प को देखते हैं तो नख-शिख अलकंरण दिखाई देता है, जिसमें वस्त्राभूषण अलंकरण प्रमुखता से उकेरे गए हैं।
पायल धारिणी (राजा रानी मंदिर भुवनेश्वर उड़ीसा) फ़ोटो ललित शर्मा
गुप्तकाल से मंदिर शिल्प योजना में भित्तियों में प्रतिमा शिल्प का प्रयोग दिखाई देता है। इसके पश्चात के काल में प्रतिमा शिल्प के अलंकरण में भिन्नता स्पष्ट दिखाई देती है। वस्त्रों के छापे, पहने का ढंग एवं आभूषणों की बनावट भी पृथक दिखाई देती है। इन प्रतिमाओं में हम देखते हैं कि पुरुष सौंदर्य की वृद्धि के लिए केश विन्यास, वस्त्र, माला, बाजूबंद पहने दिखाई देते हैं। जबकि स्त्रियों के आभूषण अलग दिखाई देते हैं। जिस तरह वर्तमान काल में वस्त्रों एवं आभूषणों में बदलाव फ़ैशन के आधार पर होता है उसी तरह प्राचीन काल में बदलाव दिखाई देता है। 
संध्या काल ( सूर्य मंदिर कोणार्क उड़ीसा) फ़ोटो ललित शर्मा
लगभग तीस वर्षों के भ्रमण काल में मैने विभिन्न कालों में निर्मित मंदिरों के स्थापत्य एवं प्रतिमा शिल्प को देखा है। आप प्रतिमा अलंकरण को देखकर उसके निर्माण काल का अंदाजा लगा सकते हैं। आभूषण (आभरण) प्राचीन काल से ही अलंकरण का साधन रहे हैं। भारत के निवासी प्राचीन काल से आभूषन प्रिय रहे हैं जो आभूषण केश से लेकर पैरों तक धारण करते थे। केशों में चिमटी, माथे पर बेन्दा, कानों में कुंडल, गले में हार, बाजू पर बाजूबंद, कलाई में चूड़ी, कमर में कमरधनी, उंगली में अंगूठी एवं पैरों में पायल का अलंकरण होता था। वर्तमान में इन आभूषणों का प्रयोग उसी रुप में विद्यमान है।
संध्या काल ( शिवालय देवर बीजा, जिला बेमेतरा छत्तीसगढ़) फ़ोटो ललित शर्मा
प्रतिमाओं के शीर्ष पर कीरीट मुकुट दिखाई देता है। स्त्री एवं पुरुष कानों को समान रुप से विभूषित करते थे। तत्कालीन साहित्य में कुंडल एवं कर्णिका का वर्णन होता है। विविध धातुओं से निर्मित रत्नकर्णिका, दारुकर्णिका, त्रपुकर्णिका कहलाती थी। इसके अतिरिक्त आमुक्तिका आभूषण का उल्लेख मिलता है। इसमें कुंडल, आधुनिक झुमके, कर्णिका, बाली एवं आमुक्तिका को टॉप्स माना जा सकता है। घोंघे की खोल जैसे टॉप्स वर्तमान में भी दिखाई देते हैं।
नर्तकी (गणेश मंदिर हम्पी कर्नाटक) फ़ोटो ललित शर्मा
समकालीन साहित्य में कंठ में पहने जाने वाले विभिन्न प्रकार के हारों का उल्लेख है।  जिसमें सुवर्ण सूत्र, कंठ सूत्र, अर्ध हार, हार के साथ मुक्ता हारों में नील मुक्ताहार, लोहित मुक्ताहार एवं श्वेत मुक्ताहार तथा विभिन्न धातुओं से निर्मित रत्नहार, रुचक हार, हिरण्यहार, सुवर्णहार, दंतहार, काषार्पण हार चन्द्रहार प्रमुख हैं, इसके परवर्ती राजपूत काल में नौलखा हार की खूब धूम रही। कंठ आभूषणों में वनमाला का उल्लेख भी आवश्यक है। अधिकतर विष्णु की मूर्ति में वनमाला का अंकन मिलता है। बाजू में धारण करने वाले आभूषण वलय, केयूर एवं अंगद नाम से जाने गए। वलय हाथीदांत से युक्त होता था, केयूर स्वर्ण से बनता था तथा अंगद स्वर्ण एवं रजत के तारों से बनाया जाता था। 
कलश धारिणी देवी (जराय का मठ बरुआ सागर उत्तर प्रदेश) फ़ोटो ललित शर्मा
चूड़ियों को कटक वलय यादि कहा जाता था, इन्हें विभिन्न धातुओं से एवं आकारों में बनाया जाता था। अंगुली में पहने के लिए अंगुलिमुद्रा एवं मुद्रिका या अंगुलीयक होती थी। कई प्रतिमाओं में तो कई अंगुलियों में अंगूठी धारण किए हुए दिखाया गया है। इसके साथ ही मेखला कमर का आभूषण था इसे स्त्रियाँ धारण करती थी, यह रत्न एवं ताम्रयुक्त होती थी। इसे करधनी, किंकणी, कटक, सुवर्णसूत्र, रशना, कांची मेखला आदि कहा जाता है। घुंघरुयुक्त बजने वाली करधनी को कांचीगुण कहा गया है। पैरों में पैजनी, पायल इत्यादि धारण की जाती थी, यह लघुघंटिकायुक्त रजत एवं कांसे से निर्मित की जाती थी। 
नदी देवी गंगा ( देऊर मंदिर मल्हार जिला बिलासपुर छत्तीसगढ़) फ़ोटो ललित शर्मा
प्रतिमा शिल्प में अप्सराओं, नायिकाओं एवं देवियों को भिन्न भिन्न तरह के आभूषणों से अलंकृत किया जाता था तथा उनके अनुचरों, परिचारको एवं परिचारिकाओं के शरीर पर आभूषण कम दिखाई देते हैं। उस काल में भी बड़े लोग स्वर्ण, रजत एवं बहुमुल्य रत्न जड़ित आभूषणों का प्रयोग करते थे। जिनके पास (दास दासियाँ) अधिक धन नहीं होता था वे रजत, कांसे एवं तांबे के आभूषण धारण करते थे। वर्तमान में यही परिपाटी दिखाई देती है। आभूषण हमेशा उच्चकुल एवं धनवानों के ही होते हैं।
शाल भंजिका ( मुक्तेशर मंदिर समूह भुवनेश्वर उड़ीसा) फ़ोटो ललित शर्मा
आभूषणों का महत्व सौंदर्य वृद्धि के साथ धार्मिक भी है, जिस प्रकार विवाहित स्त्रियां बेन्दा (टीका) धारण करती हैं, कुछ स्थानों पर मंगलसूत्र विवाहित एवं सौभाग्य का सूचक माना गया है। इसी तरह पुरुष भी ताबीज इत्यादि धारण करते थे। उत्खनन के दौराण अर्ध मूल्यवान रत्न अधिक प्राप्त होते हैं, जिनका आभूषणों में प्रयोग किया जाता था। स्वर्ण एवं रजत के आभूषणों में पत्थर भी जड़े जाते थे, जिन्हें रत्न कहा जाता है। गोमेद, जम्बुमणि, स्फ़टिक, सेलखड़ी, हाथी दांत, शीशा आदि जड़े जाते थे। इसके अतिरिक्त मिट्टी के मनके भी धारण किए जाते थे। 
चंवर धारिणी ( विट्ठल मंदिर हम्पी कर्नाटक) फ़ोटो ललित शर्मा
उपरोक्त आलेख के लिए मैने भारत के चारों ओर के विभिन्न मंदिरों की भित्तियों में जड़ित प्रतिमाओं के चित्रों को जुटाया है। इनमे एक चीज समान है, वह है कि किसी भी प्रतिमा की नाक में छिद्र नहीं है अर्थात प्राचीन काल में नाक में नथ, कील, लौंगादि आभूषण धारण नहीं किए जाते थे। कुछ विद्वानों का मत है कि कुषाण काल तक की प्रतिमाओं में नाक का आभूषण प्राप्त नहीं होता। मेरे द्वारा खींचे गए चित्रों में आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवी एवं पन्द्रहवी शताब्दी तक की प्रतिमाएँ जुटाई गई है। जिसमें किसी ने भी नाक का आभूषण नहीं पहना है।
क्षीर सागर में शेष शैया पर भगवान विष्णु एवं देवी लक्ष्मी (लक्ष्मीनारायण मंदिर ओरछा) फ़ोटो ललित शर्मा
अब प्रश्न यह उठता है कि महिलाओं द्वारा नाक में आभूषण कब से पहने जाने लगा। इसका जवाब भी मंदिरों से प्राप्त होता है। जब मैं ओरछा भ्रमण कर रहा था तब लक्ष्मीनारायण मंदिर की भित्तियों पर अठारवीं शताब्दी की भित्ति चित्रकारी दिखाई थी। इस चित्रकारी में रामायण के प्रसंगों से लेकर अंग्रेजों के साथ युद्ध तक को प्रदर्शित किया गया है। इन भित्ति चित्रों में कृष्ण राधा के उपवन विहार का प्रसंग भी दिखाई देता है, इस चित्र में सभी महिलाओं ने नाक में नथ पहन रखी है। शेष शैया पर विश्राम करते विष्णु के चित्र में भी लक्ष्मी की नाक में नथ पहनाई गई है। इससे स्पष्ट होता है कि नाक में आभूषण पहनने की परम्परा मुगल काल में प्रारंभ हुई और अद्यतन जारी है।    

शनिवार, 1 जुलाई 2017

मानव का पक्षी प्रेम एवं शुक सारिका प्रसंग


क्षियों से मनुष्य का जन्म जन्मानंतर का लगाव रहा है। पक्षियों का सानिध्य मनुष्य को मन की शांति प्रदान करता है तो बहुत कुछ सीखने को उद्यत करता है। कुछ पक्षी तो ऐसे हैं जो मनुष्य से उसकी बोली में बात करते हैं और इन्होंने सामान्य नागरिक के गृह से लेकर राजा महाराजाओं के महलों के अंत:पुर एवं ॠषियों की कुटियों में भी स्थान पाया है। शुक एवं काग ऐसे पक्षी हैं, जो ॠषियों के सानिध्य में ज्ञानार्जन कर शुकदेव एवं कागभुसुण्डि के नाम से लोक में प्रतिष्ठित हुए। शुक के सम्बंध में एक धारणा यह भी है कि वह बहुत बुद्धिमान होता है। एक पौराणिक आख्यान के अनुसार शुक ने शिवजी का समस्त ज्ञान श्रवण द्वारा आत्मसात कर लिया था। वही अध्यात्म-पारंगत शुकदेव रूप में अवतरित हुआ।  इतिहास आलेख  शुक सारिका 
शुक सारिका खजुराहो 
विरहणी के एकांत के संगी के रुप में तोता-मैना लोक प्रसिद्ध हैं। अंत:पुर की विरह व्याकुल रमणी के द्वारा इन पक्षियों के संवाद से संस्कृत साहित्य भरा पड़ा है। तोता-मैना का लोक प्रसिद्ध कहानी एवं संवाद एक समय में यह युवा एवं युवती के मुंह से सुना जा सकता था। शुक-सारिका को लेकर बहुत ही कथाएं प्रचलित हैं, इन्हीं का लोक कथाओं में रूपान्तर ‘किस्सा तोता-मैना’ के नाम से हुआ जिसके विविध संस्करण बाजार में उपलब्ध हैं। ये दोनो पक्षी मनुष्य की बोली में बोलने की क्षमता के कारण प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान तक मनुष्य के साथी बने हुए हैं।

ऐसे में ये पक्षी शिल्पकार की दृष्टि से कैसे ओझल हो सकते थे। तोता-मैना को शिल्पकारों में अपने शिल्प में शुकसारिका के रुप में स्थान दिया। प्राचीन मंदिर स्थापत्य में शुकसारिका का शिल्पांकन प्रमुखता से दिखाई देता है। शिल्पकारों ने शुकसारिका को अपने शिल्प का विषय बनाया, जिससे युगों युगों तक पक्षी एवं मनुष्य के सानिध्य, प्रेम एवं सहवास को आने वाली पीढियाँ जान सकें। मुझे भारत में आठवीं नवमी शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक के स्थापत्य में शुक सारिका का शिल्पांकन दिखाई देता है। ऐसे में शुक सारिका के शिल्पांकन से खजुराहो के मंदिर कैसे अछूते रह सकते हैं। जहाँ कामसूत्र का शिल्पांकन हो वहाँ शुक सारिका का शिल्पांकन अवश्य मिलता है क्योंकि कामसूत्र में शुक सारिकाओं के साथ आलाप करने कराना की क्रिया को चौसठ कलाओं में गिना गया है।
लोक में तोता ही एक ऐसा पक्षी एवं जीव है जो मनुष्य की वाणी का अनुकरण कर सकता है। इसे बोलना सिखाना पड़ता है या यह किसी भी बोलते हुए मनुष्य का अनुकरण कर रटता है, परन्तु मैना स्वत: बोलती है। बस्तर की पहाड़ी मैना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है जिसने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से उनकी आवाज में बात करके अचंभित कर दिया था। शुक सारिका लोक प्रसिद्ध हैं, शुक ख्याति तो ऐसी है कि इसे पालने वाले सबसे पहले राम राम, सीता राम बोलना सिखाना है। किसी के घर के शुक की वाणी सुनकर उस परिवार के आचार विहार का आंकलन किया जा सकता है कि परिवार कितना सुसंस्कृत एवं सभ्य है। 
मुक्तेश्वर मंदिर समूह भुबनेश्वर की शुक सारिका 
साहित्य में शुक ने प्रमुख स्थान पाया है, इसकी उपस्थित संस्कृत साहित्य से लेकर वर्तमान तक प्राप्त होती है। जायसी के ‘पद्मावत’ में तोते को गुरु और मार्गदर्शक का पद प्राप्त है। ‘हीरामन’ नाम से वह रत्नसेन और पद्मावती को परामर्श भी देता है और उनके मिलन में सहायक भी होता है। रचना के अन्त में उसके बारे में स्पष्ट लिखा है—सूआ सोई जे पंथ दिखावा। बिनु गुरु जगत को निर्गण पावा।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी आत्माराम में वेदीग्राम का सुनार महादेव तोते के साथ अपने एकाकीपन को बांट लेता है। तो प्राचीनकाल के अंत:पुर की रमणियाँ भी शुक के साथ संवाद कर अपने एकाकीपन को दूर करती थी। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों में सुआ प्रमुख स्थान रखता है। यहाँ यह विरहणी का संवदिया बनता है और सुआ गीत एवं सुआ नृत्य के रुप में लोक में स्थापित एवं प्रतिष्ठित हो जाता है। 
तोते की चोंच (शुक चंचू) जैसी किंचित टेढ़ी नासिका सौंदर्य का प्रतीक बनती है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने साकेत में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला की शुकनासिका और बिम्ब अधरों का बहुत ही आकर्षक चित्र खींचा है। एक तोते को उर्मिला के नाक के मोती पर होंठों की कान्ति पडऩे के कारण अनार के दाने की भ्रान्ति हुई। फिर नाक को देखकर सोचता है यह दूसरा तोता कहां से आ गयाकवियों ने तोते का अनेक रूपों में चित्रण किया है। बड़े शौक से पाला हुआ तोता भी कभी उपेक्षा का शिकार हो जाता है और काले कौवों को सम्मान मिलता है। बिहारी ने अन्योक्ति के रूप में इसका चित्रण किया है।
मरत प्यास पिंजरा पर्यो सुआ समै के फेर।
आदर दै दै बोलियत वाईसु बलि के बेर॥
शुक-सारिका तो अनादिकाल से ही घरों एवं आश्रमों की शोभा बढ़ाते रहे हैं। जगज्जनी जानकी की विदा के समय उनके द्वारा पाले हुए ये पक्षी इतने दुःखी हुए कि इन्होंने परिजनों को भी अधीर कर दिया—
सुक सारिका जानकी ज्याये। कनक पिंजरन्ह राखि पढ़ाये॥
व्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुवि धीरजु परिहरह न केही॥
शुक सारिकाएँ राज महलों या किसी विलासी नागरिक के बहिर्द्वार तक ही नहीं मिलती थी इनकी उपस्थिति तपोवन में ॠषि निवासों में भी होती थी। सुप्रसिद्ध वाणभट्ट ने अपने पूर्व पुरुष कुबेर भट्ट का परिचय देते हुए गर्व से लिखा है कि उनके गृह के शुकों एवं सारिकाओं ने समस्त वांग्मय का अभ्यास कर लिया था और यजुर्वेद एवं सामवेद का पाठ करते समय पद पद पर ये पक्षी विद्यार्थियों की गलतियां पकड़ा करते थे। कालांतर में तो शुक इतने प्रबुद्ध हो गए कि शास्त्रार्थ तक करने लगे। शास्त्रार्थ-दिग्विजय के लिए निकले आचार्य शंकर ने पनिहारिनों से मंडन मिश्र का घर पूछा तो उन्होंने यही तो कहा था—
स्वतः प्रमाणं परतः प्रमाणं कीरांगना यत्र गिरो गिरन्ति।
द्वारस्थ नीडान्तर सन्निरुद्धः जानाहितं मण्डन मिश्र धामम्॥
मुक्तेश्वर मंदिर समूह भुबनेश्वर में लेखक 
राष्टकवि दिनकर ने कहा था कि पक्षी और बादल। ये भगवान के डाकिये हैं। जो एक महादेश से। दूसरे महादेश को जाते हैं। हम तो समझ नहीं पाते हैं। मगर उनकी लाई चिट्ठियां/पेड़, पौधे, पानी और पहाड़ बांचते हैं। प्राचीन काल से लेकर अद्यतन पक्षियों एवं मनुष्य का साथ बना रहा और पक्षियों के माध्यम से मनुष्य ने अपनी वाणी को विस्तार दिया। इन पक्षियों ने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के कारण साहित्य एवं शिल्प में महत्वपूर्ण स्थान भी पाया। प्रकृति के साथ जुड़े मनुष्यों का भविष्य में भी इनसे साथ बना रहेगा। इति शुक सारिका प्रकरणम्।