शुक्रवार, 4 जून 2010

दिल्ली यात्रा-7 अदृश्य ब्लॉगर के साथ यात्रा

यात्रा वृतान्त आरम्भ से पढ़ें 
ये लो भाई मैने दिल्ली यात्रा की सारी राम कहानी तो लिख दी, लेकिन एक बात बताना भूल ही गया जो कि निहायत ही जरुरी थी। दिल्ली यात्रा में मेरे साथ एक ब्लागर और भी थे जो कि पूरी यात्रा में अदृश्य बने रहे। जिनके बारे में कोई नहीं जान पाया और मुझे भी ब्लागरों से परिचय कराने का समय नहीं मिल पाया।
बात यह है कि जब मै दिल्ली यात्रा के लिए प्रस्थान करने वाला था तो उस रात मुझे एक विवाह समारोह में भी उपस्थित होना था। लेकिन मेरे पास कुछ समय था शहर में देने के लिए, क्योंकि विवाह समारोह में मुझे रात नौ बजे के बाद पहुंचना था।

समय का सदुपयोग करते हुए मैं गिरीश पंकज भैया से मिलने से मिलने के लिए उनके निवास पर पहुंच गया। मुझे आया देख कर गिरीश भाई बहुत खुश हुए, उनसे मैं लगभग 6 माह बाद मिल रहा था। फ़ोन पर तो बातें हो जाती है लेकिन प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो पाती। उनसे लेखन के विषय में भी समय समय पर मार्ग दर्शन लेते रहता हूँ।

उनका एक बहुचर्चित उपन्यास है जिसका नाम है मिठलबरा की आत्मकथा। जिसे मै पढ नही पाया था, उन्हो्ने मुझे वह उपन्यास पढने के लिए दिया तथा कहा कि मेरे पास एक ही  प्रति है इसे पढकर लौटाना पड़ेगा। मैने कहा ठीक है लौटा दिया जाएगा।

बस कुछ देर पश्चात हम उनसे चर्चा करके उपन्यास लेते हुए विवाह समारोह में जाने के लिए चल पड़े। वहां पहुंचे तो हमारी मुलाकात भुतपुर्व मंत्री एवं कांग्रेस के कार्यवाहक प्रदेश अध्यक्ष श्री सत्यनारायण शर्मा जी एवें भूतपूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष भाई अशोक बजाज जी से हुई। दोनों

सत्ता पक्ष एवं विपक्ष के बीच में आत्मीय संवाद हो रहे थे। वाटर हार्वेस्टींग को अनिवार्य किए जाने के शासन के निर्णय पर पक्ष विपक्ष में दलीलें हो रही थी। हमने भी दोनो का अभिवादन किया और थोड़ी सी राय अपनी भी रखी साथ ही भोजन का भी स्वाद लेते रहे। सुबह हमें ट्रेन की सवारी करनी थी दिल्ली जाने के लिए, यह सोच कर हम वहां से 12 बजे मेजबान से इजाजत लेकर घर पहुंचे और अपनी तैयारी में लग गए।

सुबह जब हम घर से निकले दिल्ली के लिए तो हमारे साथ अदृश्य ब्लागर गि्रीश पंकज जी मिठलबरा की आत्मकथा के रुप में चल पड़े और हमारे साथ सतत यात्रा में बने रहे। लेकिन उनके इस प्रभावी उपन्यास से किसी का परि्चय नहीं करा पाया।

मिठलबरा की आत्मकथा एक ऐसा उपन्यास है जो आज की पत्रकारिता की कलई खोल कर सामने रख देता है। हालांकि दो दशक पूर्व लिखा गया था लेकिन आज भी प्रासंगिक है। इस उपन्यास में वर्णित घटनाओं से प्रत्येक पत्रकार का साबका पड़ा होगा।

एक अखबार का दफ़्तर भी किसी मायालोक से कम नहीं होता। यहां भी सारे दुनियावी हथकंडे उपयोग में लाए जाते हैं। कुर्सियों की उठा-पटक के लिए सारे तिकड़म लगाए जाते हैं। मैने भी कुछ दिन रह कर यह सब देखा है। यहां भी गुटबाजी होती है, कौन चम्मच कितना मलाई खा रहा है सब दिखता है। मैं गिरीश भाई के इस उपन्यास को नागपुर तक पूरा पढ गया था, एक ही बैठक में।

उपन्यास के कथानक में मिठलबरा कहता है कि सरायपुर टाइम्स को कसाईबाड़ा कहते हुए मुझे तनिक भी अफ़सोस नहीं है।  कसाई मालिकों के यहां नौकरी करके मै खुद भी कसाई हो गया हुँ। मेरी हालत उस कुत्ते जैसी है जो बाहर तो बहुत भोंकता है लेकिन मालिक के सामने दूम हिलाने लगता है।

अखबार के बाहर में क्रांति की, समाजवाद की बातें करता था औ जैसे ही दफ़्तर में घुसता था,क्रांति और समाजवाद को जूते की तरह उतार कर बाहर ही छोड़ देता था और पुंजी पतियों का ठेठ दलाल बन अधीनस्थों को हड़काया करता था।

अपने बारे में सोचता हूँ तो मुझे अचरज होता है कि मैं मनुष्य योनि में कैसे आ गया। मुझे तो होना था केंचुआ। मे्री रीढ की हड्डी तो खैर जन्म से ही नहीं है। सबको बड़ा आश्चर्य होता था कि मै जीवित कैसे बचा। सरायपुर टाईम्स में रहते हुए, मैने जितने छल-छंद किए, उनको लिखने में अब काहे की शर्म।

एक जगह मिठलबरा कहता है कि आज से बीस पच्चीस साल पहले जब मै सरायपुर टाईम्स में आया था तो मेरे पास कुछ भी नहीं था। सिवा्य एक दर्जन "आलपिन" और खुराफ़ातों से भरे दिमाग के।

मैने अपना शहर कल्पनापुर इसलिए छोड़ा कि वहां पर "पेन पत्रकारिता" होती थी और मुझे "पिन पत्रकारिता "की आदत थी (पिन पत्रकारिता यानी दूसरे अखबारों की खबरें या लेखादि पिन के सहारे काट कर अपने अखबार में छापना।)

जि्स अखबार में काम करता था,उसका मालिक पत्रकारिता को मिशन मानता था और पत्रकारिता को कमीशन के धंधे में तब्दील कर देना चाहता था।

उस मोटू सेठ से मेरी मुलाकात सरायपुर में हुयी। तारीख अभी तक याद है 14अक्तुबर 1967। सेठ अपनी मोटी तोंद पर पड़े 'सरायपुर टाईम्स' में छ्पे फ़िल्मी विज्ञापन पर नजरें टिकाए हुए था। मुझे देखकर उसने खलनायकी मुस्कान फ़ेंकी। मैने सामने की जे्ब में एक दुकान से चुराई हुई चमकदार पेन खोंस रखी थी।

सेठ ने मुंह से पान चुचुवाते हुए पूछा था "पेन तो बड़ी प्यारी है तैं ये बता, तेरे पास आलपिन भी है?" मैने कहा - है सेठ जी। सेठ चहका "तो आ जा कल से। मुझे वे पत्रकार बड़े प्यारे लगते हैं जो पेन से नहीं, पिन से पतरकारिता करते हैं, भाया। हें हें हें। प्रेस का रोकड़ा बचता है ना। हें हें हें।

यह उपन्यास सटीक तौर पर आज पत्रकारिता के काले पक्ष पर सीधा प्रहार करता है। पत्रकारिता की आड़ में हो रहे काले कारनामों को उजागर करता है। एक सच्ची कहानी को ईमानदारी से प्रस्तुत करता है। इसे पढकर पता चलता है कि पत्रकारिता के ग्लैमर की आड़ में क्या हो रहा है।

किस तरह मालिकों द्वारा पत्रकारों का शोषण हो रहा है। किस तरह यहां भी चमचाजीवी लोग अपना उल्लु सीधा कर रहे हैं। उपन्यास पढने के बाद मेरी कोशिस यह है कि इसे पीडीएफ़ के रुप में नेट के पाठकों को उपलब्ध कराया जाए जिसे सब पढ सकें। श्रम साध्य अवश्य है लेकिन उपलब्ध कराया जा सकता है।

24 टिप्‍पणियां:

  1. आईये जाने ..... मन ही मंदिर है !

    आचार्य जी

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  2. श्री गिरीश जी दिल्ली में रहते हैं क्या??? मैं तो रायपुर समझता था.. उपन्यास की एक कॉपी मुझे भी..

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  3. आपके इस अदृश्य साथी की चर्चा अच्छी लगी....अब नेट पर इसका इंतज़ार है ...आभार

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  4. ...बहुत ही मायावी ढंग से दिल्ली दर्शन कराये जा रहे हैं !!!!

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  5. उपन्‍यास के बारे में पढ़कर ललक पैदा हो गयी है इसे पढ़ने की। उपलब्‍ध कराएं।

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  6. उपन्यास की पी डी एफ फाईल का इंतज़ार रहेगा ..
    बढ़िया रोचक विवरण

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  7. गिरीश पंकज जी जैसे अदृश्य शक्ति से परिचय करवाने के लिए आभार | ऐसे लोगों को ब्लॉग पोस्ट पर चर्चा के रूप में लाकर आपने उम्दा कार्य किया |

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  8. जिग्यासा का हुआ अन्त्। आदरणीय पन्कज जी को हमारा नमस्कार्। इसमे नही रहेगी दरकार कि उपन्यास हमे जरूर पढायेन्गे ललित सरकार। (ललित भाई "सरकार ल अपन उपनाम या गवर्न्मेन्ट मत समझ लेबे)।एमा टिप्पणी दे के जाहू कहिके रुक गे रेहेव्। अब जय जोहार्……… चलन दे यात्रा के सीन्।

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  9. ललित जी, आप कई बार हमारे पास रायपुर आये हैं किन्तु कभी गिरीश पंकज जी से मुलाकात नहीं करवाया। आशा है कि अगली बार अवश्य मुलाकात करवायेंगे।

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  10. ब्लाग4वार्ता और ललित डॉट कॉम पर नापसंदी आतंकवादियों का धुंवाधार हमला जारी है। सभी मोर्चों से लगे हुए हैं,नापसंद के चटके लगाने में। हमारी पोस्ट को महत्वपूर्ण बनाने के लिए इन्हे शुभकामनाएं देते हैं तथा इनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं।

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  11. ब्लाग4वार्ता और ललित डॉट कॉम पर नापसंदी आतंकवादियों का धुंवाधार हमला जारी है। सभी मोर्चों से लगे हुए हैं,नापसंद के चटके लगाने में। हमारी पोस्ट को महत्वपूर्ण बनाने के लिए इन्हे शुभकामनाएं देते हैं तथा इनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं।

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  12. गिरीश जी से मुलाकात और बातें तो होती ही रहती हैं। यहाँ उपन्यास की जानकारी से उनकी लेखनी के कुछ और आयाम पता चले

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  13. गज़ब कर दिया भाई,.'अदृश्य ब्लागर' को सामने लाकर. पता नहीं कितनो का दिन ख़राब हो गया होगा, आज कितने लोग रात को कुछ ज्यादा ''पी'' जायेंगे ..पता नहीं कितने फोन करेंगे कि ये क्या चुतियापा कर रहे हो? किसके बारे में लिखकर समय नष्ट कर रहे हो? यह सब होगा, फिर भी मेरे बारे में लिख कर तुमने अपने प्यार का ही इज़हार किया है, उसके लिए आभार बोलना ठीक नहीं. जिस वक्त यह उपन्यास मैंने लिखा था-सन १९९९ में- तब कुछ मठाधीशों ने समझ कि उन पर व्यंग्य किया गया है. लेकिन अपनी आत्मा पर हाथ धर कर कहता हूँ, कि मैंने पत्रकारिता का चेहरा दिखाया है. यह चेहरा और ज्यादा कुरूप हो चुका है. पहले लोग ''पिन'' से काम चलते थे, अब ''इंटरनेट'' है. मालेमुफ्त दिलेबेरहम का दौर अब भी जारी है. खैर, दिल्ली-यात्रा के दौरान एक अदृश्य ब्लागर के रूप में मै साथ रहा, यह अपनी खुशकिस्मती है. ग्यारह साल बाद किसी ने इस पर फिर से कुछ लिखा तो. और सच कहू, फिर इस किताब के दिन फिरे है. एक शुभ सूचना कि ''मिठलबरा'' का तेलुगु अनुवाद ''माटलमारे एडिटर'' के नाम से , हैदराबाद के पाक्षिक ''नीली जेंडा'' में धारावाहिक छप रहा है. अनुवाद किया है श्री आरजी राव ने. देवभोग के श्री केके अजनबी ने इस उपन्यास का ओरिया में भी अनुवाद किया है.

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  14. हमें भी इंतजार रहेगा इस उपन्यास के पीडीएफ के रुप में नेट पर आने का, ताकि हम भी पढ सकें।
    गिरीश जी को भी प्रणाम
    आपके बारे में जानकर अच्छा लगा जी

    ललित जी मुझे अडहा के गोठ का अर्थ भी बताइयेगा।

    नमस्कार

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  15. बहुत बढ़िया तरीके से अदृश्य ब्लॉगर का राज खोला।
    गिरीश जी के इस उपन्यास को कई वरिष्ठ पत्रकार अपने उपर लेते हैं। इसलिए यह उपन्यास हमेशा ही चर्चा में रहा है।

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  16. आपके इस अदृश्य साथी की चर्चा अच्छी लगी......bahut hi rochak yaatra-vritaant.

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  17. @ Sanjeet Tripathi,
    गिरीश जी के इस उपन्यास को कई वरिष्ठ पत्रकार अपने उपर लेते हैं। इसलिए यह उपन्यास हमेशा ही चर्चा में रहा है।

    शायद इसी लिए चर्चा में रहा हो।
    मुझे इस विषय में जानकारी नहीं थी भाई,
    क्योंकि रायपुर के पत्रकारिता जगत से मै काफ़ी दिनों दूर रहा।
    लेकिन गिरीश भाई ने सच कह दिया है,कलई खोल के धर दी है।
    शायद आपने जो कुछ कहा,ऐसा ही हुआ हो।

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  18. गिरीश भाई ने काफी काम किया है। वे अब भी चुपचाप अपने कर्म में लगे हुए हैं। उनके साथ सबसे अच्छी बात यह है कि उन्होंने कभी भी लिखने-पढ़ने में रूचि रखने वाले किसी नए अथवा पुराने को निराश नहीं किया। साहित्य, पत्रकारिता के अलावा अब ब्लाग जगत भी उन पर अपना प्यार, सम्मान बरसा रहा है।
    मैं तो गिरीश भाई का सबसे नजदीकी पड़ोसी हूं। मैंने कभी अपने जीवन में कल्पना नहीं की थी कि एक दिन मैं उनका पड़ोसी बन जाऊंगा, अब मौका मिलते ही आइसक्रीम गटकने पहुंच जाता हूं।
    एक बात और जब मैं पत्रकारिता का प भी नहीं जानता था तब गिरीश भाई ने मेरे उत्साह को देखते हुए कहा था कि तुम लिखते रहना। गिरीश भाई पर तो मैं कुछ लंबा लिखने वाला हूं लेकिन यह क्या होगा इसे सस्पेंस ही रहने दो। कहते हैं आप से जो बड़े होते हैं वे आपको कुछ देते ही रहते हैं। प्यार देते हैं, स्नेह देते हैं, झिड़की देते हैं, कभी अच्छे-बुरे के रूप में समझाइश देते हैं।
    मैं गिरीश भाई का कब अनजाने में अपना सा बन गया यह मैं नहीं जानता। इस अनजाने से अपने ने गिरीश भाई से बहुत कुछ हासिल किया है। आपने बहुत अच्छा किया ललित भाई. आपने एक सही आदमी के बारे में लिखकर मेरी नजर अपना सम्मान और बढ़ा लिया है।

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  19. आप के अद्र्श्य मित्र (गिरीश पंकज जी) जी के उपन्यास के बारे पढ कर बहुत अच्छा लगा, गिरिश पंकज जि को धन्यवाद, जब भी मोका मिला इस उपन्यास को जरुर पढेगे, आप का धन्यवाद

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  20. फिल्म- देशप्रेमी
    गीत-महाकवि आनन्द बख्शी
    संगीत- लक्ष्मीकांत- प्यारेलाल
    नफरत की लाठी तोड़ो
    लालच का खंजर फेंको
    जिद के पीछे मत दौड़ो
    तुम देश के पंछी हो देश प्रेमियों
    आपस में प्रेम करो देश प्रेमियों
    देखो ये धरती.... हम सबकी माता है
    सोचो, आपस में क्या अपना नाता है
    हम आपस में लड़ बैठे तो देश को कौन संभालेगा
    कोई बाहर वाला अपने घर से हमें निकालेगा
    दीवानों होश करो..... मेरे देश प्रेमियों आपस में प्रेम करो

    मीठे पानी में ये जहर न तुम घोलो
    जब भी बोलो, ये सोचके तुम बोलो
    भर जाता है गहरा घाव, जो बनता है गोली से
    पर वो घाव नहीं भरता, जो बना हो कड़वी बोली से
    दो मीठे बोल कहो, मेरे देशप्रेमियों....

    तोड़ो दीवारें ये चार दिशाओं की
    रोको मत राहें, इन मस्त हवाओं की
    पूरब-पश्चिम- उत्तर- दक्षिण का क्या मतलब है
    इस माटी से पूछो, क्या भाषा क्या इसका मजहब है
    फिर मुझसे बात करो
    ब्लागप्रेमियों... आपस में प्रेम करो

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  21. उपन्यास के पीडीएफ़ का इंतजार है

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