बुधवार, 30 अप्रैल 2014

मल्हार: देऊर मंदिर


प्राचीन नगर की सैर करते हुए सूरज सिर पर चढने लगा था। हमें अभी देऊर मंदिर देखना था। यहीं से एक रास्ता कसडोल एवँ गिरोदपुरी होते हुए रायपुर को जाता है। देऊर मंदिर के मुख्य द्वार पर पहुंचने पर मन प्रसन्न हो गया। देऊर मंदिर की भग्न संरचना देखने से ही पता चलता है कि यह मंदिर विशाल रहा होगा।। इसका अधिष्ठान भूतल पर ही है। गर्भ गृह द्वार पर नदी देवियों की सुंदर प्रतिमाएँ हैं। अलंकृत द्वार की ऊंचाई लगभग 14 फ़ुट होगी। इसकी विशालता से ही मंदिर के महत्व का पता चलता है।
भव्य देऊर मंदिर (शिवालाय)
प्राचीन काल में मल्हार महत्वपूर्ण नगर रहा होगा। इस नगर को राजधानी का दर्जा प्राप्त था या न था। इस पर अध्येताओं के विभिन्न मत हैं। इस नगर का उत्खनन प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति विभाग सागर विश्वविद्यालय के के डी बाजपेयी एवँ एस के पाण्डे ने 1975 से 1978 के दौरान किया था। जिसमें प्रतिमाएँ, विभिन्न संरचनाएँ, सिक्के, पॉटरी, शिलालेख एवं अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुई थी। 
नदी देवियाँ (जमुना एवं गंगा)
इनके आधार पर आंकलन किया गया कि इस स्थान से पाँच ऐतिहासिक काल खंडों के प्रमाण मिलते है। आद्य ऐतिहासिक काल - 1000 से 350 ई पू, मौर्य, शुंग, सातवाहन काल - 300 से 350 ईसा पूर्व, शरभपुरीय एवं सोमवंशी काल - 300 से 650 ईस्वीं, सोमवंशी काल - 650 से 900 ईंस्वी, कलचुरी काल - 900 से 1300 ईस्वीं माना गया है।

भीमा - कीचक
इस अवधि तक यह नगर आबाद रहा। इसके पश्चात यह टीले रुप में प्राप्त हुआ, जिसके उत्खनन के पश्चात 7 वीं से 8 वीं सदी का यह मंदिर प्राप्त हुआ। इस शिवालय का निर्माण सोमवंशी शासकों ने कराया था। मंदिर के समीप ही प्रांगण में दो बड़ी प्रतिमाओं के शीर्ष भाग रखे हुए हैं। विशालता देखते हुए ग्रामीण जनों में महाभारत कालीन भीमा-कीचक के रुप में उनकी पहचान स्थापित हो गई।
शिव परिवार
मंदिर के द्वार पट पर शिव के गणों की प्रतिमाएं उकेरी गई हैं, मुख्य द्वार शाखा पर परिचारिकाएँ स्थापित हैं। द्वार पर किए गए बेलबूटे के अलंकरण देख कर सिरपुर के तिवर देव विहार का स्मरण हो उठता है। मंदिर की भित्तियों में प्रतिमाएँ लगाई गई हैं तथा मंदिर के निर्माण में बड़े पत्थरों का प्रयोग किया गया। द्वार के एक-एक पट का वजन ही कम से कम 10 टन होगा।
यज्ञ करते हुए ब्रह्मा
मंदिर की भित्तियों पर पशु, पक्षियों, यक्ष, यक्षिणी, गंधर्व, कीर्तीमुख, भारवाहक इत्यादि की प्रतिमाएं प्रमुख हैं। द्वार शाखा पर ब्रह्मा को यज्ञ करते हुए, उमा महेश्वर संग कार्तिकेय उत्कीर्ण किया है। द्वार पर स्थापित नदीं देवियों के वस्त्र अलंकरण मनमोहक हैं। शिल्पकार ने अपने कार्य को महीनता से अंजाम दिया है।
शिल्पकार द्वारा अधूरा छोड़ा गया महिषासुर मर्दनी का अंकन
शिवालय के द्वार पट पर एक अधूरी प्रतिमा का दागबेल दिखाई दिया। यह प्रतिमा महिषासुर मर्दनी की बनाई जानी थी। शिल्पकार ने सुरमई से अंकन के बाद छेनी चलाकर उसे पक्का भी कर दिया था। इसके पश्चात प्रतिमा का अंकन होना था। पता नहीं क्या कारण था जो इतने बड़े एवं भव्य मंदिर में वह सिर्फ़ एक शिल्प अधूरा छोड़ कर चला गया।
कीर्तिमुख
शिवालयों के अलंकरण में कीर्ति मुख का स्थान अनिवार्य माना जाता है। भगवान शिव के इस गण को मंदिरों में आवश्यक रुप से बनाया जाता है। कीर्तिमुख को शिव ने वरदान दिया था। मंदिर की भव्यता देखने के पश्चात लगा कि यदि इस मंदिर का अवलोकन हम नहीं करते तो मल्हार के विषय में काफ़ी कुछ जानने से वंचित रह जाते। मंदिर दर्शन के पश्चात हम बिलासपुर की ओर चल पड़े। …… इति मल्हार यात्रा कथा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी पोस्ट के द्वारा इस अत्यंत प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर का पौराणिक और सांस्कृतिक महत्त्व पता चला. लाज़वाब मनमोहक, तथ्यपरक शैली … अत्यंत आवश्यकता है ऐसे लेखन की ताकि हमारी आने वाली पीढ़ी के साथ-साथ वर्तमान पीढ़ी भी अपने इतिहास, कला और संस्कृति को जान-पहचान सके, गर्व कर सके इनपर …संग्रहणीय आलेख... हार्दिक आभार

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  2. desh ke kuchh khas jane mane sthano ke alawa sudoor ilakon me kitane hi pouranik mahatv ke sathal moujood hai ..aapki yatra hame in sthano se roobaro karvati hai ..sundar pics se saji post ..abhar

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