जो राजा प्रजा वत्सल होता है वही राज्य में लोकप्रिय होता है और प्रजा उसे पिता तुल्य मानती है। उसके एक संकेत पर धन जन न्यौछावर हो जाता है। राज्य की व्यवस्था संचालन के लिए धन एवं सैनिक दोनो की आवश्यकता होती है। अगर राजा की कराधान व्यवस्था प्रजा अनुकूल है तो उसे प्रजा के प्रेम के साथ धन भी सहजता से उपलब्ध होता था। लूट पाट कर प्रजा का खून चूसने वाला राज्य अधिक दिनों तक स्थाई नहीं रहता। वर्तमान में भी यही दिखाई देता है। कोणार्क की भित्तियो पर राजकाज को भी स्थान दिया है। राज सभा की गतिविधियों का चित्रण करते हुए तत्कालीन शासक को अपने दरबारियों से मंत्रणा करते हुए दिखाया गया है। शांतिकाल एवं युद्ध काल की राज सभा स्पष्ट दिखाई देती है।
युद्ध पूर्व मंत्रणा |
प्रतिमा संकेतों से ज्ञात होता है कि राजा नृसिंह देव के शासन काल में उन्हें राज्य रक्षा के लिए युद्ध भी लड़ने पड़े। एक चित्र में दिखाया गया है कि सिंहासनारुढ़ नृप अपने राज सभासदों एवं दरबारियों से मंत्रणा कर रहा है। सभी उसकी आज्ञा का पालन करने को तत्पर दिखाई दे रहे हैं। साथ ही दरबार के बाहर अश्व एवं गज सेना तैयार है कि युद्ध मंत्रणा और रणनीति पर चर्चा सम्पन्न होते ही सेना युद्ध के लिए कूच कर जाएगी। एक अन्य प्रतिमा में अश्वारुढ़ राजा को शीश विहीन दिखाया गया है। इससे ज्ञात होता है कि किसी भीषण युद्ध में राजा ने अभूतपूर्व युद्ध कौशल का परिचय देते हुए शत्रु सेना को आतंकित कर प्राण त्याग दिए, प्राणोसर्ग पर्यंत भी उसका धड़ युद्ध करते रहा। युद्ध में अश्व गतिमान दिखाई दे रहा है। शीश कटने के बाद युद्ध करने की कई किवदंतियाँ समाज में प्रचलित हैं। इसका सीधा अर्थ राजा के द्वारा भीषण युद्ध रचाने से लगाया जाता है।
मंत्रणोपरांत युद्ध के लिए प्रयाण |
किसी भी राज्य के विकास के लिए शांति का काल महत्वपूर्ण होता है। शांति काल में राज्य चतुर्दिक उन्नति करता है। प्रजा हितों के लिए शासन नयी योजनाएं बनाता है और उन्हें लागु भी करता है। सड़क, बावड़ी, कुंओं, मंदिरों, सरोवरों एवं भवनों का निर्माण होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के द्वारा प्रजा के मनोरंजन की व्यवस्था भी होती है। युद्धकाल न होने से प्रजा पर अतिरिक्त करों का भार भी नहीं लादा जाता। जिसके कारण राज्य में खुशहाली का वातावरण होता है। कला एवं कलाकारों को भी प्रश्रय मिलता है और उन्हें उचित जीविकोपार्जन हेतु मानदेय के साथ सम्मान भी मिलता है। इस चित्र में राजा शांतिकाल में अपने विश्वस्त परिजनों एवं अनुचरों से चर्चा करते दिखाई दे रहे हैं। यह सब शांति काल में ही संभव है।
शीश विहीन योद्धा रण में गतिमान अश्वारुढ़ |
एक अन्य प्रतिमा से राजा के विषय में एक नई जानकारी मिलती है। यह तो सभी जानते हैं कि शांति काल में राजाओं का प्रमुख मनोरंजन का साधन आखेट होता था और आखेट के लिए वनों में दूर-दूर तक जाकर शिविर लगाए जाते थे। आखेट हेतु राजा समस्त लाव लश्कर के साथ जाता था। इस प्रतिमा चित्र में दिखाया गया है कि राजा हाथी पर हौदे में सवार होकर हाथ में धनुष लेकर आखेट के लिए वन में है और हाथी गतिमान है। उसके सामने कई लोग दिखाई दे रहे हैं जो हाथ उठाकर राजा से कुछ कह रहे हैं या उसका स्वागत कर रहे हैं इसके साथ शिकार हेतु हांका करने की आज्ञा मांग रहे हैं। शिकार के लिए हांका करना महत्वपूर्ण एवं श्रम साध्य कार्य होता था।
शांतिकाल की मंत्रणा, संभवत: मंदिर निर्माण पर विचार विमर्श |
इनके साथ एक जिराफ़ भी दिखाई दे रहा है। जाहिर है जिराफ़ भारत में तो पाया नहीं जाता। जिराफ़ दक्षिण अफ़्रीका के वनों में सोमालिया तक पाया जाता है। इससे यह जानकारी मिलती है कि कलिंग का राजनीयिक संबंध दक्षिण अफ़्रीका से था तथा कलिंग के राजा आखेट हेतु अफ़्रीका के वनों तक जाते थे। बीसवीं सदी में सरगुजा महाराज रामानुजशरण सिंह देव द्वारा अफ़्रीका के वनों में शिकार करने का उल्लेख है तथा वे विश्व के तीसरे बड़े शिकारी माने जाते हैं। उन्होने 1100 शेरो का शिकार किया था। यह आंकड़ा उनके नाम से गिनीज बुक में भी दर्ज है। इससे इस धारणा को बल मिलता है कि कलिंग राजा भी आखेट के लिए अफ़्रीका के वनों तक जाते थे। ऐसे राजा को प्रतापी राजा ही कहा जाएगा।
अफ़्रीका के वनों में नृप हाथी एवं जिराफ़ |
तत्कालीन जनजीवन की झांकी दिखाते हुए कुछ प्रतिमाएं भी बहुत सुंदर दिखाई देते हैं। इस प्रतिमा में एक व्यक्ति ने हाथ में छूरी धारण कर रखी है और दूसरे हाथ में कुत्ते की एक टांग पकड़ कर उल्टा लटका रखा है। शायद शिल्पकार इस चित्र में मनो विनोद प्रदर्शित करना चाहता है। जब राजा गजारुढ़ होकर शेर और जिराफ़ का शिकार कर सकता है तो एक आम आदमी कुत्ते का शिकार क्यों नहीं कर सकता। एक वानर स्तंभ पर चढ़ कर उसके इस कार्य को विस्फ़ारित आंखो से देख रहा है। कुत्ता भी मुंह फ़ाड़ कर कांय कांय कर रहा है आखिर जान उसको भी प्यारी है। एक बात और हो सकती है, हो सकता है उस समय लोग कुत्ते का मांस खाते हों, वैसे उत्त्तर पूर्व में आज भी कुत्ते का मांस बड़े चाव से खाया जाता है।
स्वान संहार का दृश्य |
अन्य प्रतिमा में एक दंपत्ति अपने बच्चे के साथ जीवन यापन के लिए पलायन कर रहा है और थकने पर मार्ग में वृक्ष ने नीचे कुछ पल के लिए ठहर गया है। परम्परागत उड़िया परिवार दिखाई दे रहा है। पुरुष ने भी जूड़ा बना रखा है, कमर पर पोटली धारण कर रखी है, एक हाथ में धारित खड़ग कांधे पर है, दूसरा हाथ पीछे छुपा हुआ है, स्त्री ने सिर पर समान की पेटिका रखी हुई है और कमर पे बच्चे को बैठाकर स्तनपान करवा रही है। सिर पर रखा कुंदे वाला बक्सा वर्तमान में भी प्रचलन में दिखाई देता है। स्त्री के गले में हार और मंगलसूत्र दिखाई दे रहा है। जिसका बड़ा सा पैंडल स्तन मध्य में झूल रहा है। उड़ीसा से आज भी लोग जीवन यापन के लिए अन्य प्रदेशों की ओर पलायन करते हैं, यह पलायन तब से आज तक सतत जारी है। शिल्पकार ने इस दृष्य को इतना अधिक जीवंत बनाया है कि जैसे यह आज ही मेरे समक्ष घट रहा हो।
जीवन यापन के लिए पलायन करते दंपत्ति |
इस तरह कोणार्क भी भित्तियों पर उत्कीर्ण प्रतिमाएं इतिहास की परतें लगातार खोलती हैं अगर आपके पास समय है तो वे तत्काल आपके साथ संवाद करने को तत्पर हैं। बस समझना आपको है कि वे क्या कह रही हैं। भित्तियों पर इतने सारे विषयोन को स्थान दिया गया है कि अनुसंधान करने में ही बरसों लग जाएगें। कोणार्क का शिल्पांकन एक खुली किताब की तरह है, आईए और पढ़ते जाइए, इतिहास के सागर में गोता लगाते जाईए आपको सारे रत्न मिल जाएगें और सबसे कीमती रत्न संतोष रत्न मिलेगा। जिसे प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। राज नृसिंह देव भी भव्य मंदिर का निर्माण कर युगों युगों तक के लिए अपनी कीर्ति स्थापना कर संतोषानंद पाना चाहता था। आगे पढ़ेगें मंदिर के निर्माण एवं पतन की कहानी। जारी है आगे पढ़ें……॥
सचमुच ऐसा जीवंत वर्णन जैसे उस युग को जी लिए हों … आभार इस सुन्दर सृजन हेतु
जवाब देंहटाएंआश्चर्यजनक इन भीति चिन्हों को देखकर इतना इतिहास बताना सचमुच कमाल है। हम तो उस लोक में ही चले गए थे.....आपकी पैनी नजर और कलम की जितनी तारीफ़ करे कम है .--शुक्रिया यह सब बताने का और इतिहास को इतने नजदीक से जानने का।
जवाब देंहटाएंजय हो राजा नरसिंह देव बर्मन की और ललित शर्मा जी की जो हमने इतना बढ़िया जानकारी पढ़ने को मिली.
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