गुरुवार, 7 जनवरी 2016

रामायणकालीन खरदूषण की नगरी : खरौद


तपोभूमि छत्तीसगढ़ को प्राचीन काल में दक्षिण कोसल के नाम से जाना जाता था। रामायण में वर्णित यह दण्डकारण्य प्रदेश अपने सघन वनों, सरल एवं सहज निवासियों, वन्य प्राणियों की आदर्श निवास स्थली, खनिजों एवं सुरम्य प्राकृतिक वातावरण के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ तीर्थों की भी कमी नहीं है। यहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के मठ-मंदिर, देवालय इस प्रदेश की विशिष्ट संस्कृति एवं परम्पराओं की पहचान हैं, शैव, वैष्णव, शाक्त, जैन, बौद्ध धर्म समान रुप से फ़ले एवं फ़ूले। प्रयागराज राजिम, रतनपुर, डोंगरगढ़, खल्लारी, दंतेवाड़ा, बारसूर, देवभोग, सिहावा, आरंग, भीमखोज, सिरपुर, भोरमदेव, मल्हार, शिवरीनारायण, ताला, जांजगीर, पाली, खरौद, डीपाडीह, दंतेवाड़ा, भैरमगढ़, कवर्धा, अंबिकापुर, दामाखेड़ा, गिरौदपुरी जैसे साधना के पावन केन्द्र इस धरा की अलौकिकता एवं दिव्यता को प्रदर्शित करते हैं। 


ऐसा ही एक प्राचीन तीर्थ स्थल खरौद नगर, सबरी तीर्थ शिवरीनारायण से 3 किमी एवं राजधानी रायपुर से लगभग 120 किमी की दूरी पर स्थित है। कहते है कि भगवन राम ने यहाँ पर खर व दूषण का वध किया था इसलिए इस जगह का नाम खरौद पड़ा। खरौद नगर में प्राचीन कालीन अनेक मंदिरों की उपस्थिति के कारण इसे छत्तीसगढ़ की काशी भी कहा जाता है। यहां के लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना भगवान राम ने खर और दूषण के वध के पश्चात भ्राता लक्ष्मण के कहने पर की थी। इसलिए इसे लक्ष्मणेश्वर मंदिर कहा जाता है।

लक्ष्मणेश्वर महादेव मंदिर के निर्माण को 8 वीं सदी का माना गया है, इसके गर्भगृह में एक शिवलिंग है जिसके बारे में मान्यता है की इसकी स्थापना स्वयं लक्ष्मण ने की थी। इस शिवलिंग में एक लाख छिद्र है इसलिए इसे लक्षलिंग कहा जाता है। इन लाख छिद्रों में से एक छिद्र ऐसा है जो पातालगामी है, उसमे जितना भी जल डालो वो सब समा जाता है जबकि एक छिद्र अक्षय कुण्ड है जोकि हमेशा जल से भरा ही रहता है। लक्षलिंग पर चढ़ाया जल, मंदिर के पीछे स्थित कुण्ड में चले जाने की भी मान्यता है, क्योंकि कुण्ड कभी सूखता नहीं। लक्ष्य लिंग को स्वयंभू लिंग भी माना जाता है।

यह मंदिर नगर के प्रमुख देव के रूप में पश्चिम दिशा में पूर्वाभिमुख स्थित है। मंदिर में चारों ओर पत्थर की मजबूत दीवार है। इस दीवार के अंदर 110 फ़ुट लंबा और 48 फ़ुट चौड़ा चबूतरा है जिसके ऊपर 48 फुट ऊँचा और 30 फुट की परिधि में मंदिर निर्मित हैं। मंदिर के अवलोकन से पता चलता है कि पहले इस चबूतरे में बृहदाकार मंदिर के निर्माण की योजना थी, क्योंकि इसके अधोभाग स्पष्टत: मंदिर की आकृति में निर्मित है। चबूतरे के ऊपरी भाग को परिक्रमा कहते हैं। सभा मंडप के सामने के भाग में सत्यनारायण मंडप, नन्दी मंडप और भोगशाला हैं। 

मंदिर के मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही सभा मंडप है। इसके दक्षिण तथा वाम भाग में एक-एक शिलालेख दीवार में लगा है। यहां लगे शिलालेख में आठवी शताब्दी के इन्द्रबल तथा ईशानदेव नामक शासकों का उल्लेख हुआ है। मंदिर के वाम भाग का शिलालेख संस्कृत भाषा में है। इसमें ४४ श्लोक है। चन्द्रवंशी हैहयवंश में रत्नपुर के राजाओं का जन्म हुआ था। इनके द्वारा अनेक मंदिर, मठ और तालाब आदि निर्मित कराने का उल्लेख इस शिलालेख में है। तदनुसार रत्नदेव तृतीय की राल्हा और पद्मा नाम की दो रानियाँ थीं। राल्हा से सम्प्रद और जीजाक नामक पुत्र हुए। पद्मा से सिंहतुल्य पराक्रमी पुत्र खड्गदेव हुए जो रत्नपुर के राजा भी हुए जिसने लक्ष्मणेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इससे पता चलता है कि मंदिर आठवीं शताब्दी तक जीर्ण हो चुका था जिसके उद्धार की आवश्यकता पड़ी। इस आधार पर कुछ विद्वान इसको छठी शताब्दी का मानते हैं।

मूल मंदिर के प्रवेश द्वार के उभय पार्श्व में कलाकृति से सुसज्जित दो पाषाण स्तम्भ हैं। इनमें से एक स्तम्भ में रावण द्वारा कैलासोत्तालन तथा अर्द्धनारीश्वर के दृश्य खुदे हैं। इसी प्रकार दूसरे स्तम्भ में राम चरित्र से सम्बंधित दृश्य जैसे राम-सुग्रीव मित्रता, बाली का वध, शिव तांडव और सामान्य जीवन से सम्बंधित एक बालक के साथ स्त्री-पुरूष और दंडधरी पुरुष खुदे हैं। प्रवेश द्वार पर गंगा-यमुना की मूर्ति स्थित है। मूर्तियों में मकर और कच्छप वाहन स्पष्ट दिखाई देते हैं। उनके पार्श्व में दो स्त्री प्रतिमाएँ हैं। इसके नीचे प्रत्येक पार्श्व में द्वारपाल जय और विजय की मूर्ति है। मंदिर के बाहर परिक्रमा में राजा खड्गदेव और उनकी रानी हाथ जोड़े स्थापित हैं। प्रति वर्ष यहाँ महाशिवरात्रि के मेले में शिव की बारात निकाली जाती है तथा लक्ष्मणेश्वर महादेव के इस मंदिर में सावन मास में श्रावणी और महाशिवरात्रि में मेला लगता है।

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