बुधवार, 29 दिसंबर 2010

उधारी में हजामत, दो लड़कियाँ, महुआ की हंड़िया और गांव का हाट

आरम्भ से पढ़ें 
शाम हो रही थी। शोण कुंड के पास ही साप्ताहिक हाट लगा हुआ था। छत्तीसगढ में सुदूर अंचल के गावों में साप्ताहिक हाट लगना सामान्य बात है।

यहां पर लोग अपने रोजर्मरा के काम आने वाले सामान खरीद लेते है सप्ताह भर के लिए। वस्तु विनिमय भी हो जाता है।

इन साप्ताहिक बाजारों का अपना ही महत्व है। पांच सात गावों के मुख्य गांव में यह बाजार लगते है। बाजार में आने वाले लोग अपने आस-पास के गावों में रहने वाले परिजनों से भी मिल लेते हैं। उनका हाल-चाल भी जान लेते है। कुछ समय साथ-साथ बिता लेते हैं।

माँ को बेटी मिल जाती है। वह उसका हाल चाल पूछ लेती है। हाट से उसे कुछ सामान दिला देती है। अगर गांव से कुछ सामान लेकर आई है तो वह बेटी तक पहुंच जाता है। 

हाट बाजार में आवश्यकता की सभी वस्तुएं मिल जाती है। सब्जी से लेकर इलेक्ट्रानिक सामान तक। सभी दुकाने अस्थाई होती हैं लेकिन उसके लगने की जगह, दिन और समय निश्चित होता है।

बाजार का दृश्य मनमोहक होता है। सजी धजी महिलाएं और पुरुष मोल भाव करते नजर आते हैं तो युवा लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे से पहचान बढाते।

आधुनिकता के इस दौर में गांव भी अछूते नहीं है मोबाईल क्रांति की मार से। पहले लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे के गांव का पता पूछते थे तो अब मोबाईल नम्बर नोट करते हैं और जान लेते हैं कब बाजार पहुंच रहे हैं।

मेरे मन में हाट बाजार देखने की इच्छा हुई। बाजार तो हमारे गांव में भी भरता है लेकिन यहां का बाजार कुछ भिन्न लगा।

बाजार के रास्ते में तालाब के किनारे पेड़ के नीचे एक हीरो होन्डा सवार तराजु लगाए खड़ा था। उसके पास ग्रामीण महिलाएं किलो दो किलो धान बेच कर नगद पैसे ले रही थी जिससे बाजार में कुछ सामान खरीदा जा सके।

बाजार में पीपल के पेड़ के नीचे एक कुर्सी पर एक नाई की दुकान चल रही थी। एक ग्राहक उससे हजामत करने कह रहा था। नाई कह रहा था कि बाजार के दिन उधारी में हजामत नहीं करेगा। उधारी में हजामत सिर्फ़ गांव में होगी, बाजार में नहीं। यहां नगदी लगेगा।  

मेरी निगाह बाजार में कपड़े सिलते कुछ दर्जियों पर पड़ी। उसे महिलाएं ब्लाऊज का कपड़ा दे रही थी सिलने के लिए। टेलर नाप जोख ले रहा था कपड़े जमा कर रहा था। अगले बाजार में सिल कर लाएगा। ब्लाऊज के लिए एक हफ़्ते का इंतजार तो करना पड़ेगा।

एक जगह स्कूल की किताब कापियों की दुकान लगी हुई थी। लोग जूते चप्पल खरीद रहे थे। पास ही एक मोची अपनी रांपी सूजा सूत लेकर बैठा ग्राहक का इंतजार कर रहा था।

पॉलिश का काम तो यहां है नहीं लेकिन टूटे जूते चप्पलों की रिपेयरिंग कराने लोग आते हैं। उसने बताया। एक जगह टार्च से लेकर रेड़ियो, वाकमेन और अन्य इलेक्ट्रानिक सामान बेचने वाले की दुकान थी। कुछ लड़के एफ़ एम रेड़ियो खरीदने के लिए मोल भाव कर रहे थे।

उसके पास ही एक तराजु लगा कर महुआ खरीद रहा था। महुआ भी ग्रामीण अंचल के लोगों को नगद उपलब्ध कराता है।

गर्मी के सीजन में इमली आ जाती है। ग्रामीण इमली भी इकट्ठी करके बेचते हैं। पास में ही एक होटल चल रहा था। उसमें गरमा-गरम जलेबियां तली जा रही थी। लोग अपने बच्चों के लिए खाई-खजानी खरीद रहे थे।

आगे किराने की दुकान लगी हुई थी।दो लड़कियाँ खड़ी हुई किसी का इंतजार कर रही थी। कुछ लोग पान दुकान पर खड़े होकर बतिया रहे थे।

एक महिला कपड़े की दुकान वाले को गरिया रही थी कि उसने जो कपड़ा दिया वह खराब निकला। सिलाई अलग से लग गयी मुफ़्त में। कपड़े को रख कर उसका पैसा वापस करो।कुल मिला कर यहीं असल जिन्दगी के मेले देखने मिलते हैं। 

होटल की आड़ में कुछ दूर पर भीड़ लगी थी एक आदमी हंडिया लेकर बैठा था। वह दोने में कुछ डाल कर उन्हे दे रही था। नजदीक जाने पर पता चला कि 3 रुपया दोना महुआ रस पान हो रहा है।

एक तरफ़ बैल और भैंसो का बाजार लगा था। बहुत सारे लोग बैल-भैंसा खरीदने आए हुए थे। एक ने बताया की रतनपुर जैसा ही बड़ा मवेशी बाजार यहां भरता है।

साप्ताहिक हाट बाजार ग्रामीण अंचल की दैनिक आवश्यकता को पुरी करने के मुख्य साधन है। यहां पर सभी तरह की काम की चीजें आसानी के साथ उपलब्ध हो जाती है। गांव के बाजार भी साप्ताहिक दिनों में बंटे होते हैं।

एक के बाद एक दिन अलग-अलग गांव में बाजार लगते हैं। हम भी पान की दुकान से पान खाकर चल पड़े पेंड्रा रोड़ की ओर। आगे पढ़ें 

21 टिप्‍पणियां:

  1. शोण कुंड यानि अमरकंटक, जैसा अक्‍सर मान लिया जाता है, आपने नहीं उल्‍लेख किया, कोई खास कारण. (दिन कौन सा था, दुकानदार और लोग कहां-कहां से आए थे, जिज्ञासा हुई)

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  2. यह भी रोचक और ज्ञानवर्धक रहा भाई ...शुक्रिया

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  3. साप्ताहिक हाटों में अभी भी अच्छी खरीददारी हो जाती है औऱ घुमक्कड़ी भी हो जाती है।

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  4. दो तीन साल छत्तीसगढ़ में बिताया है मैंने ... कोरबा, जांजगीर-चंपा, बस्तर जैसे जिलों में ... हर जगह साप्ताहिक हाट लगते हैं ... जब भी लगते थे घूमने जाता था ...

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  5. पहले गांवो में तो साप्‍ताहिक हाटें ही क्रय विक्रय का मुख्‍य स्‍थान हुआ करती थी .. जिन वस्‍तुओं का उत्‍पादन आसपास के गांवों में नहीं होता था .. वैसी चीजें लोग मेलों में खरीदा करते थे .. अभी भी बहुत सारी जरूरतों के लिए लोग साप्‍ताहिक हाट या मेलों पर निर्भरता बनी हुई है .. दिल्‍ली के मुहल्‍लों में भी साप्‍ताहिक हाटें लगते देखा तो मुझे ताज्‍जुब हुआ था !!

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  6. साप्ताहिक हाट एक मुकम्मल बाजार के साथ सामाजिक सम्मिलन भी उपलब्ध कराता है। गाँवों में कुछ ब्लागर पैदा हो लेंगे तो ब्लागर मीट भी हुआ करेगी।

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  7. वाह ,ललित भाई ! आपके इस आलेख में गाँव के साप्ताहिक बाज़ार की लुभावनी झांकी मन को प्रफुल्लित कर देती है. पढ़ कर मुझे भी अपने गावं और आस-पास के गाँवों की याद आने लगी , जिनसे बिछुड़ने के लम्बे अरसे बाद भी जिन्हें भूल पाना मेरे जैसे लोगों के लिए कतई संभव नहीं है. पता नहीं क्यों आज की दुनिया के हम लोग गाँवों के सहज-सरल जीवन से दूर होते जा रहे हैं ?

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  8. ग्रामीण हाट का रोचक विवरण!

    पढ़कर आनन्द आ गया!

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  9. ललितजी, सुन्दर तरीके से बताया आपने गाँव और हाट के बारे में.. ग्रामीण जीवन का अभिन्न हिस्सा है हाट. राजस्थान में कम ही देखने को मिलते हैं.

    फ़ोटो अच्छी लगीं.

    मनोज

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  10. साप्ताहिक बाज़ार की बढ़िया झांकी दिखाई

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  11. दिल्ली में भी गांव के हाट-बाजार लगते हैं जी
    रवि बाजार
    मंगल बाजार
    बुद्ध बाजार
    वीर बाजार
    आदि वारों के नाम पर
    बढिया विवरण दिया जी आपने, धन्यवाद

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  12. ग्राम्यजीवन की सजीव झांकी है आपकी ये पोस्ट |राजस्थान मे इस प्रकार का साप्ताहिक बाजार किसी आदिवासी बहुल क्षेत्र मे लगता हो तो तो उसका मुझे पता नही बाकी कही देखने मे नही आया है |

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  13. मुझे भी जशपुर का हाट बाजार याद आ गया। बहुत आनन्‍द आया था उस बाजार में।

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  14. हाट क्या होती है कभी देखी तो नहीं पर उसका चित्रण ,वर्णन पापा सुनाया करते थे .आज आपका खींचा चित्र काफी करीब लगा उसके बस समय के साथ कुछ इलेक्ट्रोनिक्स बड गए :)
    बहुत अच्छी लगी ये पोस्ट .

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  15. गाँव के मेले की सैर , शहर बैठकर ही कर ली ।

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  16. वाह...!!
    एक बार फिर बड़ी अच्छी और रोचक जानकारी देने के लिए आभार...

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  17. ललित भाई मुझे तो बहुत मजा आता हे इन मेलो मे घुमने पर, ओर सारा दिन भी घुमु थकावाट नही होती, बहुत अच्छा विवरण किया आप ने धन्यवाद

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  18. ऐसे बाज़ार आज भी ग्रामीण अंचल में प्रासंगिक हैं... रोजगारों और धनार्जन के विस्तृत अवसरों की जगह मोबाइल, एफ एम् आदि के रूप में विकास ज्यादा तेज़ी से गावों में पहुँचा है.. आर्थिक सक्षमता अभी भी गावों में पर्याप्त नहीं दिखती है... ऐसे में साप्ताहिक बाज़ार के सस्ते सौदे काम चला देते हैं..

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