पितृपक्ष लगते ही रुठे पितरों को मनाने एवं मने हुए पितरों की श्रद्धा सेवा याने श्राद्ध की तैयारी होनी शुरु हो जाती है। लोकमान्यतानुसार पितर पितृ पक्ष में ही आते हैं। कहते हैं "जीयत पिता से दंगम दंगा, मरे पिता को पहुंचाए गंगा।" कथावाचक महाराज - जीवंता ने न दियो अनाज और मरया को कर दियो काज। जीते जी कुछ भी कैसा भी रहा हो पर मरने के बाद उसे पितर मानना जरुरी है। मृत्यु के तीसरे साल नए पितरों को पुराने पितरों से मिलाने की परम्परा है। उसके लिए भी बड़ा आयोजन किया जाता है, कुटुम सगे संबंधियों, बहन, बेटी को बुलाया जाता है, भोज के साथ मन भर दक्षिणा भी दी जाती है। तभी पितर तर्पण से तृप्त होकर नए पितरों को अपनी बिरादरी मे शामिल करते हैं। पितरों का रुठना-मनाना भी बहुत होता है, मनाने की इस प्रक्रिया में पुरोहित महाराज की भूमिका महत्वपुर्ण होती है। पुरोहित की दान दक्षिणा कम रह जाए तो पितरों को मनाना और भी कठिन हो जाता है साथ ही काल सर्पदोष का खतरा और बढ जाता है। इसलिए पितर खुश हों या न हो पर पुरोहित का खुश होना जरुरी है।
एक बार बेमतलब ही ज्ञानार्जन के लिए गरुण पुराण पढने की इच्छा हो गयी। जिज्ञासावश रेल्वे स्टेशन की दुकान से खरीद लाया। घर लाकर पढना शुरु किया, एक दो अध्याय पढे थे कि रात को अचानक चाचा जी तबियत खराब होने की सूचना मिली, टीवी पर कौन बनेगा करोड़पति सीरियल चल रहा था, करोड़पति को छोड़ कर आधे अधुरे कपड़े पहन कर भागे, जाकर देखा तो वे उठने के लायक नही थी, सांस लेने में तकलीफ़ हो रही थी। जल्दी से उठाकर कार में बैठाया गया और फ़ुल स्पीड में शहर के अस्पताल का रुख किया, उन्हे हृदयाघात हुआ था, आधे रास्ते में ही सांस रुक गयी। अस्पताल भी नहीं पहुंच पाए। वहीं से गाड़ी वापस लेकर घर आ गए। सुबह क्रिया कर्म किया गया। खबर लगते ही सब सगे संबंधी पहुंचने लगे। उन्हे पता चला कि मैं गरुड़ पुराण बांच रहा था। सब मेरे उपर चढ बैठे, कि बेमतलब के गरुड़ पुराण बांचने का फ़ल देख लिया। मैने कहा कि - जो व्यक्ति जीते जी गरुड़ पुराण बांच लेता है वह अमर हो जाता है। मरने के बाद तो कौन सुनता है? अगर चाचा जी भी बांच लेते तो मरते ही नहीं, क्योंकि उसमें मृतक क्रिया के लिए जितनी दान-दक्षिणा पुरोहित को देना लिखा है, सारी प्रापर्टी भी बेच कर नहीं चुका सकते थे। अब ऐसी हालत में कौन मरकर पितर बनना पसंद करेगा।
एक दिन पहले से ही पितर जी को खुश करने की तैयारी शुरु हो गयी। उत्तम पक्का भोजन बनना चाहिए, क्योंकि जब तक पितर जी का मन प्रसन्न नहीं होगा तब तक सुचारु रुप से गृहस्थी चलने का आशीर्वाद नहीं मिलेगा। कहते हैं किसी के मन को खुश करने का रास्ता पेट से होकर जाता है। पकवानों से पेट भरा रहे तो सब खुश। श्रीमती जी ने शाम से ही बड़बड़ाना शुरु कर दिया कि - "दुध वाला 5 लीटर दुध सुबह ही दे गया। बार बार बिजली जाने से फ़्रिज गरम हो गया है, ऐसे में खीर के लिए दुध कैसे बचेगा? शाम को उसे दुध लाना चाहिए था। सब्जी के तोराई नहीं आई है, कल तोराई की सब्जी बनाना जरुरी है।" मैने कहा - "अभी हाजिर हो जाएगी, फ़ालतु टेंशन लेने की जरुरत नहीं है।" बाजार पहुंचने पर पता चला की तोराई 70 रुपए किलो बिक रही है। सब्जी वाले ने बताया कि पितृपक्ष में तो मंहगी ही मिलेगी। 2-4 रुपए किलो बिकने वाली तोराई के भाव आसमान पर थे। तोराई की बेलें यूं ही घर में पेड़ों पर लटके रहती थीं, कोई तोड़ता भी नहीं था, सुखने पर उसके रेशों का उपयोग नहाने-धोने के ही काम आता था। लेकिन अब तोराई भी तसमई बन गयी।
घर पहुंचने पर नया आदेश मिला कि - "पंडितों को भोजन के लिए कहा कि नहीं।" मैने कहा - "भूल गया।" "तीन दिनों से कह रही हूँ कि पंडितों को भोजन करने के लिए फ़ोन कर दो, लेकिन मेरी सुनते कहाँ हो? दिन और रात इस कम्प्युपर बैठे-बैठे खोपड़ी खराब हो गयी है।", मैने कहा - अरे इसमें नाराज होने की क्या बात है, तुम भी चलाना सीख लो, कितने दिनों से कह रहा हूँ, मेरी बात पर ध्यान ही नहीं देती। एक ब्लॉगर और बढ जाएगा।" श्रीमती जी बोली - "मैं तो इसको आग भी नहीं लगाने वाली। फ़ालतु बैठे ठालों का काम है। मुझे तो बहुत काम है, मुबारक हो आपको कम्पयुटर।" मेरा ये दांव भी बेकार गया। मैने कहा - ऐसा कम्प्युटर चलाने में और लिखने में कौन सा जोर लगता है। लिख लेना दो चार लाईन और लगा देना अपने ब्लॉग पे, कविता हो जाएगी। कमेंट भी मेरे से अधिक ही मिलेगें।" "फ़ालतु काम छोड़ो पहले पंडितों को फ़ोन लगाओ।" अब आदेश मानना जरुरी था। रात दस बजे चौबे जी, शर्मा जी और पाण्डे जी को फ़ोन लगाकर भोजन का निमंत्रण दिया। एक ने तो असर्मथता जाहिर कर दी। बाकी तैयार हो गए।
सुबह 3 बजे से ही कड़ाही की आवाजें आने लगी। मुझे भी उठा दिया गया - "मैने कहा पितर जी को तो आने दो, अभी तो वे भी सोए होगें। 4 बजे ही मुझे जगा रही हो।" "पानी गर्म है फ़टाफ़ट नहा लो, मैं रसोई तैयार कर रही हूँ सुबह 8 बजे पंडित जी आ जाएगें"-जवाब मिला। पितर जी आना मुझे हमेशा कष्टदायक लगता है। अब सुबह से ही नया ड्रामा शुरु हो जाएगा। कौंवों को ढुंढा जाए, कौंवे भी इतने होशियार की बरस भर सिर पर बैठकर कांव-कांव लगाए रहते हैं और पितर आने पर गायब हो जाते हैं। छत पर चिल्लाते रहा मजाल है कोई एक कौंवा भी दिख जाए। बहुत इंतजार के बाद एक कौंवा आया, मै थाली लेकर खड़ा कांव-कांव कर रहा, वह भी भाव खा रहा था। डिस्क के एन्टिना पर बैठा मुझे कोई तवज्जो नही दे रहा था। आज इन्होने ही मुझे अपनी बिरादरी में शामिल कर लिया। जब पितर ही इनके द्वारा भोजन ग्रहण करते हैं तो इनकी बिरादरी में ही शामिल समझा जाए। ज्ञानी कहते हैं कि जब कोई मनुष्य धरती पर आता है तो उसका पहला जन्म कौंवे के रुप में ही होता है, इसलिए पितर कौंवे के रुप में ही आते हैं। इनको भोजन कराने से पितर तृप्त होकर आशीर्वाद देते हैं। हम लगे रहे आशीर्वाद पाने की प्रक्रिया में। थोड़ी देर में कौंवा महाराज हमारे मनुहार से प्रसन्न हो गए और उन्होने भोजन ग्रहण किया।
अगला कदम था गाय को खिलाना। गाय तो हमारे घर पर नहीं है। इसलिए खीर पुरी की थाली साथ में लेकर गाय ढुंढनी पड़ती है। जहाँ कहीं भी मिल जाए उसका स्वागत सत्कार किया जाए। गाय को खिलाना भी जरुरी होता है, गाय में समस्त देवताओं का वास बताया गया है। हमारे घर में बारहों महीना गाँव की गाएं आकर हरी-हरी घास चरती हैं पर जिस दिन पितर आते हैं, इनका भाव बढ जाता है, एक भी दिखाई नहीं देती। माता जी समेत पुरा घर गायों को ताकते रहता है। घर के सामने से गाँव की सारी गाएं लेकर चरवाहा चराने जाता है, इधर गाएं नजर नहीं आ रही थी और पंडितों के आने का समय हो चुका था। बिना गाए को खिलाए पंडितों को कैसे खिलाएं, आज उन्हे भी कई जगह जाना रहता है भोजन करने। तभी सामने एक गाय आती दिखाई, दौड़ कर उसके पास गया। उसका मुंह और पैर धोकर आदर के साथ खीर पुरी खिलाई। गाय ने प्रसन्नता पूर्वक सिर हिलाकर आशीर्वाद दिया। हम तृप्त हो गए और पितर भी। लेकिन अभी तो कार्य पुरा नहीं हुआ है, कथा का एक खंड और बाकी है।
8 बज गए, इधर से निपटे तो पंडितों का इंतजार होने लगा, उनकी कहीं आहट ही सुनाई नही दे रही थी। गेट से निकल कर देखा तो चौबे जी अपने घर के सामने पीपल के नीचे कुर्सी डाले हमारे से मुंह फ़ेरे बैठे हैं। मैं भी सोचता रहा कि रोज तो इनके मुंह की दिशा हमारी तरफ़ रहती है, आज विपरीत दिशा में कैसे बैठे हैं? हमने आवाज लगाई, तो बोले तैयार होकर आता हूँ। लड़का नहा है, वह भी बड़ा खाने आउंगा कह रहा था। मैने कहा कि सभी आ जाईए लेकिन जल्दी आईए। गजब है यार तोराई का भाव बढा तो बढा चौबे जी का भी भाव बढा गया। रोज यहीं मेरे से खैनी मांग कर खाते गपियाते रहते हैं, आज काम पड़ा तो नक्शा ही बदल गया। चौबे जी पहुंचे पुत्तन के साथ अब पाण्डे जी इंतजार होने लगा। उन्हे फ़ोन लगाया तो पता चला कि उनकी सायकिल पंचर है, गाड़ी भेजोगे तब आएगें, छोटे भाई को दौड़ाया गाड़ी लेकर पाण्डे जी को लाने। थोड़ी देर में पाण्डे भी हाजिर थे। भोजन दान-दक्षिणा सम्पन्न हुई। सभी देवता अपने-अपने लोक में चले गए। हमने भी भोजन कर अपने को तृप्त कर धन्य समझा। धन्य इसलिए समझा कि पितर को प्रशन्न करना एक परियोजना के पूर्ण होने के समान ही लगा। गया जी जाने तक पितर तृप्तिकरण की यह परियोजना जारी रहेगी।
ब्लोगोदय एग्रीगेटर
समय असमय आते जीवन के ये मोड़, क्या भरोसा है इसका।
जवाब देंहटाएंपर पितरों की पत्नियों को इतनी चिंता क्यों होती है?
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह, क्या खूब वर्णन किया आपने, आजकल ये आम समस्या है, सभी गृहणियों और गृहस्वामियों को इसी तरह की परिस्थितियों से दो चार होना पड़ता है.....आपके लेख ने खूब सही खाका खींचा....बधाई
जवाब देंहटाएं@बहुत इंतजार के बाद एक कौंवा आया, मै थाली लेकर खड़ा कांव-कांव कर रहा, वह भी भाव खा रहा था।
जवाब देंहटाएं;)
बहुत कठिन है डगर ...
बड़ा ही मधुर हास्य-व्यंग्य.सारे दृश्य "आँखों देखी" की भाँति चलते रहे.गरुड़ पुराण,कौवा,गाय,खीर,तरोई,पण्डित,पितर,गया याने पितृपक्ष के सारे कैरेक्टर और सिचुएशन इस चल-चित्र में समाहित हो गये.
जवाब देंहटाएंएक श्रेष्ठ लेखक में मंजा हुआ निर्देशक भी नजर आ रहा है.
बढ़िया व्यंग्य है ललित भाई। गरुड़ पुराण में लिखी बातों को लेकर मैं भी हैरान हो जाता हूं। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि इस लोक से उस लोक जाते हुए आत्मा को कैसे कैसे कष्ट उठाने पड़ते है। इसके निवारण के लिए ही पंडित को तरह-तरह का दान दिया जाता है। दूसरी ओर गीता कहती है कि आत्मा को न तो जलाया जा सकता है, छेदा जा सकता है, न गीला किया जा सकता है, न सुखाया जा सकता है। इस विरोधाभाष के बारे में भी कभी आपके ब्लाग पर कुछ पढ़ने मिले, तो ज्ञान और बढे।
जवाब देंहटाएंमज़ा आ गया , पूरा दृश्य सचित्र घूम गया ..... इसीलिए संभवतः बच्चन जी कह गए - तर्पण अर्पण करना मुझको पढ़ पढ़ करके मधुशाला ....
जवाब देंहटाएंपूरा दृश्य मानों आँखों के सामने साक्षात चल रहा था...रोचक वर्णन...कई नई बातें भी पता चली...आभार इस रोचक पोस्ट के लिए
जवाब देंहटाएंहोश उड़ा देने वाले कर्मकाण्ड के बीच पितरों का स्मरण...
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक यतार्थ को चितरण करता वर्णन
जवाब देंहटाएंयहा पधारें
http://sbhamboo.blogspot.com/2010/09/blog-post_26.html
जब हम छोटे थे तो एक चुटकला सुना था की एक बार एक जाट और एक पंडित बद्रीनाथ तीर्थ दर्शन करने गए तो जब बहुत उचाई पर पहुँच गए वहाँ जाकर जाट देवता बोले पंडित जी जो कोई ऊपर तै गिर जै तो कै बचे ? पंडित बोल्या फेर कै बचे फेर तो गरुड ही बचे । हरयानवी मे बचने को पढनाभी कहते है । तो ललित जी गरुड बाचने की मन मे कैसे आ गयी। खैर ये तो रही बात हंसी की अब मुद्दे की बात पर आते है ।
जवाब देंहटाएंक्या हमारे पूर्वजो को इतना भी अधिकार नहीं की उन्हे साल भर मे 15 दिन याद कर लिया जाए ? क्योकि मरना तो स्वाभाविक क्रिया है हम आपको भी मारना है क्या आप चाहेंगे की आपको कभी याद ना किया जाए ? फिर अच्छा जी लिखा है ज्ञान वर्धक है । धन्यवाद
@आचार्य सतीश महाराज! पूर्वजों को तो हम साल भर याद करते हैं, १५ दिन का तो कोई लोचा नहीं है.बस बात ये है की पूर्वजों के नाम से जीभ के चटखारे ले लिए जाएं, यही सही है.........:)
जवाब देंहटाएंभगवान का लाख -लाख शुक्र हैं की आपकी श्रीमती जी 'ब्लोगिग' में नहीं आई ..वरना आज तो आपको ही खीर -पुरी बनानी पड़ती ... और पितरो को महा खुश करना पड़ता ? मजा आ गया ? आखिर कोई तो माँ का लाल (कव्वा ) मिला ? तुम्हे ठीक करने वाला ?
जवाब देंहटाएंपितरों को स्मरण करने का अच्छा पर्व है लेकिन कर्मकाण्ड में उलझते ही जा रहे हैं। ये कौवे भी समूह बनाकर झील किनारे बैठे रहते हैं, मैनें तो इन्हें वहीं देखा है इन दिनों। बहुत अच्छा लिखा है आनन्द आ गया।
जवाब देंहटाएंएकदम सार्थक लेखन. इस परियोजना के अंतर्गत पितर खुश हों या न हो पर पुरोहित का खुश होना वाकई जरुरी है
जवाब देंहटाएंहा हा हा हा करारा पितर मनाया आपने हमे ही बुला लेते गुरूदक्षिणा और पितर दक्षिणा कट मट हो जाती और स्वादिष्ट खाना मिलता सो अलग
जवाब देंहटाएंपितरों को खुश करने के बहाने और लोग खुश हो लेते हैं .....
जवाब देंहटाएंपिटर से लेकर कौवों तक सभी की व्याख्या कर डाली.जबर्दस्त्त बन पड़ा है व्यंग.काश ये प्रथा गरीब बच्चों को खिलाने की होती.
जवाब देंहटाएंये बढ़िया रही --पंडित जी को भी पंडित ढूंढना पड़ा ।
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो ५००वी पोस्ट के लिए बहुत -बहुत बधाई...रोचक वर्णन...बहुत सी नई जानकारियां भी मिली और साथ में जबर्दस्त्त व्यंग...आभार इस रोचक पोस्ट के लिए....
जवाब देंहटाएंबहुते सटीक लिखा.
जवाब देंहटाएंरामराम.
बहुत दिलचस्प .... बहुत रोचक ...
जवाब देंहटाएंखूब ... हर पक्ष समेट लिया आपने
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक मगर सही खाका खींचा है।
जवाब देंहटाएंधन्य होंगे वे पंडित .. जिन्होने सामाजिक जीवन जीने के लिए ऐसे ऐसे कर्मकांड बनाए .. प्रकृति में मौजूद कण कण को कभी न कभी महत्व मिल जाया करता है .. बाकी जीयत पिता से दंगम दंगा, मरे पिता को पहुंचाए गंगा मेरे हिसाब से भी बेकार ही है !!
जवाब देंहटाएंवाह जी वाह, क्या खूब वर्णन किया आपने, आजकल ये आम समस्या है, सभी गृहणियों और गृहस्वामियों को इसी तरह की परिस्थितियों से दो चार होना पड़ता है.....आपके लेख ने खूब सही खाका खींचा....बधाई
जवाब देंहटाएंये बढ़िया रही --पंडित जी को भी पंडित ढूंढना पड़ा ।
ललित जी नमस्कार। बहुत सुन्दर आलेख साथ ही हास्य का पुट भी है। बधाई रचना के लिये आपको ।
जवाब देंहटाएंबने गोठियाये हस भईया... दुनिया भर ल समेत लेथस अपन लेखन म अउ कोनो मेर संकरी टूटय घला निही...
जवाब देंहटाएंसादर...
साल में एक बार पितरो के नाम पर ब्राह्मणों को खिलाया जा सकता है. इसलिए सभी लोग ऐसा करते हैं . :):)
जवाब देंहटाएंरोज यहीं मेरे से खैनी मांग कर खाते गपियाते रहते हैं, आज काम पड़ा तो नक्शा ही बदल गया। ///
ये तो सबके साथ ही जरुर होता है जिस दिन काम रहता है उस दिन बाबा जी अपना भाव बढ़ा देते हैं .. ...
क्या बढ़िया सटीक वर्णन किया है.
जवाब देंहटाएंsundar rochk aalekh...
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