सोमवार, 12 मार्च 2012

नि:शब्द मौन के बोल -- ललित शर्मा



नि:शब्द
मौन के बोल
अबोल से झरते
शब्द
ज्यूँ झरता
अनहद से रसानंद
बजता अनहद नाद
अंतर में
यूँ लगा
कबीर हो गया
बजा जब
अनहद मृदंग
शुन्य में
पुलकित रोम रोम
एकाकार होते
उष्मा भरे वलय
ब्रह्माण्ड समाया हो
अंतर में
उष्मा से भरा अंतरिक्ष
फ़िर भीषण प्रकाश
और प्रकाश ही प्रकाश
हुआ अंतर आलोकित
तिमिर कलुष भागे
अबोल से झरे शब्द
यूँ लगा कि
तुमसे मिलकर
परमहंस हो गया
रोम रोम काव्य मय हुआ
स्वरलहरियां चल पड़ी
शब्दों से मिलने
बनकर गीत गुंजेगी
मेरे अंतस  में नित
अनहद नाद की तरह
जो बजता है अनवरत

17 टिप्‍पणियां:

  1. यूँ लगा कि
    तुमसे मिलकर
    परमहंस हो गया
    निःशब्द कर दिया इन शब्दों ने... समर्पण की चरम सीमा...

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  2. बाबा बने के तैय्यारी लगथे

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  3. मौन के बोल अनहद नाद कर रहे हैं ॥खूबसूरत प्रस्तुति

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  4. सुबह सुबह एकदम ताजा, झरने सी झर-झर झरती कविता का रसानन्द करके मजा आ गया .

    बहुत खूब ललित जी, आभार

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  5. तुमसे मिलकर
    परमहंस हो गया......"

    परम आन्नद की प्राप्ति ? बेहद कम शब्दों में सारी बाते कह देना आपकी विशेषता हैं .. बेहद खूबसूरती प्रस्तुतिकरण में ...जय हो ....बाबा ललितान्नद की ...:))))))

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  6. क्या बात है... क्या बात है...
    परमहंस को नमन.

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  7. मौन का भी अर्थ होता है ..
    अच्‍छी प्रस्‍तुति !!

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  8. हुआ अंतर आलोकित कलुष तिमिर भागे ...
    मौन का अनहद नाद हो जाना बहुत सुखद है !
    सुन्दर कविता!

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  9. अन्तः जब मदमस्त मगन हो गाता है,
    संशय को अपना उत्तर मिल जाता है।

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  10. फेसबुक के मौन के बाद भी आपकी अनुगूंज है.

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  11. nihshabd hi ho gye hai...achhi kawita . tarif ke liye shabd hi km ho jayenge. badhai..

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  12. आध्यात्मिक भाव युक्त, गहरी कविता। बहुत सुंदर!

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