रविवार, 22 जून 2014

यात्री सुविधाओं पर भी ध्यान दीजिए मंत्री जी

रेल का किराया एकाएक बढा दिया गया, जिससे आम यात्री की जेब पर अचानक बोझ बढ़ गया। मंहगाई वैसे ही कमर तोड़ रही है। अच्छे दिनों की आशा ने मोदी सरकार को आशा से अधिक सीटें देकर संसद में बहुमत प्रदान किया और दिल्ली में सरकार बनवा दी। सरकार बनने के एक महीने के भीतर गैस, पैट्रोल, डीजल, एवं रेलभाड़े के बढने की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी थी। पिछली सरकार ने भी इन चीजों के दाम बढाने में कोई कमी नहीं रखी। इनके दाम बढने का सीधा असर अन्य आवश्यक वस्तुओं पर भी पड़ता है। परिवहन दर में वृद्धि होने पर खाद्यान्न एवं आवश्यक वस्तुओं के दाम भी बढ जाते है।
मोदी सरकार ने कुछ दिनों पूर्व अप्रिय फ़ैसले लेने की बात कही थी। जो जनता को पसंद नही आएंगे, उसकी शुरुआत रेल का किराया बढने से हो गई। रेल का किराया 14 प्रतिशत से अधिक बढा दिया गया और माल भाड़े में भी वृद्धि की गई। सरकार का कहना है कि खजाना खाली हो गया है और उसे भरने के लिए कड़े कदम उठाने होगें। साथ ही भाजपा के प्रवक्ता बचकानी दलील दे रहे हैं कि यह फ़ैसला पिछली सरकार का है। अगर पिछली सरकार का फ़ैसला है तो ऐसी कौन सी बाध्यता है कि जो इसे लागु किया जाए। सरकार फ़ैसला बदल भी सकती है। 
यह तो भारत की जनता है, कितना जुल्म कर लो, दो चार दिनों में रो-पीट कर चुप हो जाएगी। संसद में विपक्ष बचा नहीं जो हो हल्ला मचाएगा। कांग्रेस अपने कर्मो से कोमा में चली गई है। ऐसी स्थिति में मनचाहे निर्णय लिए जा सकते हैं। रेल का किराया बढाने के पीछे यह भी तर्क दिया जा रहा है कि रेल यात्रियों के लिए सुविधाओं का विस्तार होगा। अगर कभी मुंबई हावड़ा या अहमदाबाद हावड़ा ट्रेन की सामान्य बोगी में सफ़र करके देखें। नानी याद आ जाएगी। पैर रखने की जगह नहीं रहती और गंतव्य स्थान से ही गाड़ी फ़ुल हो जाती है। 
किराया बढाने के साथ यात्री सुविधा बढाने वाली बात थोड़ी राहत दे सकती है। परन्तु भारतीय रेल के यात्रियों की असुविधाओं को ध्यान में रख कर यात्री सुविधाएँ विकसित की जानी चाहिए। प्रथमत: तो तत्काल के नाम पर घोटाला बंद किया जाना चाहिए। तत्काल कोटा बना कर यात्रियों की जेब पर डाका डाला जा रहा है और इस कोटे में भी वेटिंग टिकिट दी जाती है, जो नान रिफ़ंडेबल होती है। अगर कोई यात्री मजबूरी में तत्काल की वेटिंग टिकिट ले लेता है और कन्फ़र्म नहीं होती तो उसके पैसे भी रेल्वे हजम कर जाती है। पहले तत्काल का अर्थ था कि गाड़ी चलने से पहले जो टिकिट रद्द कराई जाती थी उन्हें करंट टिकिट की खिड़की से बेच दिया जाता था। अभी तो ट्रेन में आधी सीटों को तत्काल कोटे में डाल दिया गया है। जिससे ट्रेन चलने के समय तक सामान्य कोटे के वेटिंग टिकिट धारी की टिकिट कन्फ़र्म नहीं हो पाती।
इसके साथ ही यात्रियों के जानमाल की पूरी सुरक्षा होनी चाहिए। नीतिश कुमार के रेलमंत्री बनने से पहले यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी जीआरपी की थी। उसे आर पी एफ़ को दे दिया गया। पहले आर पी एफ़ का काम सिर्फ़ रेल्वे की संपत्ति की रक्षा करना था। अब दोनों सुरक्षा बलों में तालमेल के अभाव के कारण ट्रेन में चोरी डकैती एवं अन्य आपराधिक घटनाएँ होती हैं। आम आदमी कार्यवाही के इंतजार में दोनो सुरक्षा बलों के अहम का शिकार होकर पेंडुलम की तरह इधर-उधर लटकता रहता है। यात्री की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी एक बल को दी जानी चाहिए।
स्लीपर में जगह न मिलने पर सामान्य कोच में लम्बी दूरी के यात्री को यात्रा करनी पड़ती है, इससे स्थानीय सवारियों को तकलीफ़ होती है। दैनिक यात्रा करने वाले भी परेशान रहते हैं। इसलिए सामान्य कोच में व्यवस्था करनी चाहिए कि सीटों से अधिक टिकिट न बेची जाएं। जिससे यात्री भेड़ बकरी की तरह यात्रा करने से बच पाएगा तथा दुर्घटनाओं में कमी आएगी। चलती हुई ट्रेन पकड़ने के चक्कर में अत्यधिक दुर्घटनाएँ होती हैं। रेल्वे की खान-पान सेवा भी माशा अल्ला है। अगर कोई यात्री पेंट्रीकार में घुस कर खाना बनते हुए देख ले तो जीवन में पैंट्री का खाना नहीं खाएगा। खाने की गुणवत्ता के साथ पैंट्रीकार का स्तर भी सुधरना चाहिए।
पेयजल की समस्या सभी स्टेशनों पर प्राय: दिखाई देती है। इससे यात्रियों को विभिन्न कम्पनियों के पेयजल की बोतल मंहगे में खरीद कर पीनी पड़ती है। इस वर्ष ट्रेनों में लोकल ब्रांड की पानी की बोतलें भी 20 रुपए प्रति बोतल बिकती हुई दिखाई दी। 20 रुपए में तो आधा लीटर दूध आ जाता है। आज रेलयात्री को दूध की कीमत पर पानी खरीदना पड़ रहा है। इसलिए सभी मुख्य स्टेशनों पर शुद्ध पेयजल की व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे यात्रा के दौरान जलजनित बीमारियों से बचा जा सके। साथ वेंडरों द्वारा अधिक मूल्य पर खाद्य सामग्री बेचे जाने पर भी लगाम लगनी चाहिए। इसके लिए रेल्वे के वाणिज्य विभाग की जवाबदेही तय की जानी चाही। 
यात्रा के दौरान बड़ी अजीब स्थिति हो जाती है जब आप भोजन कर रहे हों और कोई आपसे भोजन मांग ले। यात्रा के दौरान व्यक्ति सीमित भोजन लेकर ही चलता है। भिखारियों के द्वारा रुपया पैसा मांगना यात्री को शर्मिंदा करता है। साथ ही हिजड़ों ने पूरे भारत में रेल के प्रमुख स्टेशनों में अपने अड्डे बना रखे हैं जो यात्रियों की बेईज्जती करके उनसे पैसे वसूल करते हैं। कुछ दिनों पूर्व हिजड़ों द्वारा किसी यात्री को ट्रेन से बाहर धकेलने की भी खबर समाचार पत्रों में आई थी। परिवार के साथ सफ़र कर रहा व्यक्ति इनकी हिंसा का शिकार कब हो जाए इसका पता नहीं चलता। ये टीटी और सुरक्षा बलों की नाक के नीचे जबरिया वसूली करते हैं। ट्रेन का ऐसा कोई भी यात्री नहीं होगा जिसका पाला इनसे नहीं पड़ा होगा। भिखारियों एवं हिजड़ों को ट्रेनों में कड़ाई से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
रेल्वे ने बहुत सारे कार्य ठेके पर दे दिए हैं, जिनमें से ट्रेनों में पानी भरना भी एक है। कई बार ट्रेनों की बोगियों में पानी नहीं भरा जाता और ट्रेन गंतव्य स्थान से रवाना कर दी जाती है। इनकी बदमाशी को यात्री सफ़र के दौरान भुगतते हैं हजार बार शिकायत दर्ज कराने पर भी ट्रेनों में पानी नहीं भरा जाता। यही हाल बोगियों की साफ़ सफ़ाई का भी है। कुछ ट्रेनों में ही सफ़ाई कर्मी दिखाई देते हैं बाकी भगवान भरोसे चल रही हैं। वातानुकूलित बोगियों के यात्रियों को दिए जाने वाले चादर और कंबलों की सफ़ाई नहीं रहती। उन्हें गंदे ही थमा दिए जाते हैं। स्थिति यह हो गई है कि भारतीय रेल समस्याओं एवं असुविधाओं का पिटारा हो गयी है। परिवार लेकर यात्रा में निकला हुआ व्यक्ति किस-किस के साथ पंगा लेगा। इसमें चुप रह कर यात्रा पूरी करने में ही अपनी भलाई समझता है।
दो महीने पहले टिकिट आरक्षण करवाने पर यात्री को उसके जमा के बदले ब्याज के रुप में टिकिट में छूट दी जानी चाहिए। दो महीने तक रेल्वे विभाग उसके पैसों का उपयोग करता है। एक बार ट्रेन चलने के बाद यह टीटीयों के हवाले हो जाती है, जो चाहे करें इनकी मर्जी। क्रमवार प्रतीक्षा सूचि के यात्रियों को सीट नहीं देते, जो इन्हें भेंट चढा देता है उस की सीट कन्फ़र्म कर दी जाती है। ट्रेन में टीटीयों की मनमानी बंद होनी चाहिए। 
यदि ट्रेन का किराया बढाया जा रहा है तो सरकार यात्रियों सुविधाओं की विस्तार की ओर ध्यान देना चाहिए। अगर यात्री सुविधाओं को विस्तार दिया जाएगा और यात्री सकुशलता की गारंटी होगी तो बढा हुआ किराया भी तकलीफ़देह नहीं है। भारत एक  विकासशील देश हैं जहां 50 प्रतिशत जनता आज भी दो वक्त की रोटी के लिए कमरतोड़ मेहनत करती है, जब उनकी जेब पर अत्यधिक भार डाला जा रहा है तो उन्हें बढे हुए किराए के साथ सुविधाएं भी मिलनी चाहिए, तभी अच्छे दिन आएगें।

बुधवार, 18 जून 2014

आवश्यकता है पढ़ाई के साथ बचपन बचाने की

स्कूल खुल गए है और नवीन सत्र प्रारंभ हो गया। स्कूल प्रारंभ होते ही विद्यार्थी पर मानसिक दबाव प्रारंभ हो जाता है। अच्छे रिजल्ट और प्रतिशत पाने का दबाव उस पर हमेंशा बना रहता है। इस दबाव के परिणाम स्वरुप वह अवसाद का भी शिकार हो जाता है। मेरे मित्र की लड़की के साथ भी यही हुआ। उसके बाद उसे 5 साल सामान्य होने में लगे। लेकिन जब हम लोग पढते थे तब ऐसा कुछ नहीं था, बिंदास मस्ती करते और जब मस्ती से समय बचता तो पढ भी लेते। जब पांचवी पास होकर बड़े स्कूल (मिडिल स्कूल, उसे सब बड़ा स्कूल कहते थे) पहुंचे तो गजब ही हो गया। हम जिस स्कूल में भर्ती हुए वहां सिर्फ़ कस्बे के बच्चे ही पढते थे। जो गांव की दृष्टि में तो शहर था। बड़े स्कूल में आस-पास के लगभग 20 गांव के बच्चे  10 किलोमीटर की दूरी से पढने आते थे। मैने दिखा कि वहां तो बच्चे क्या बड़े-बड़े लड़के भी पढने आए हैं। जिनके दाढी मुंछ आ गई है और हम सब पि्द्दी से थे। बड़ा ही अजीब लगा कि इतने बड़े-बड़े लड़के भी छठवीं क्लास में पढेगें? इतने बड़े तो हमारे गुरुजी थे जो हमें प्रायमरी में पढाते थे। हम होगें 10-11 साल के, वे लड़के थे 15-16 साल के, अजीब ही लगता रहा कु्छ महीनों तक। फ़िर कुछ दिनों बाद सब सामान्य सा लगने लगा।

जब हम आठवीं क्लास में पहुंचे तो पता चला कि उनमें बहुतों की शादी हो गयी है। यह और भी गजब था, अब तक हमें पता चल गया था कि शादी होती है तो बहु भी आती है:)।  जब हम 10 वीं में पहुंचे तो एक-एक, दो-दो बच्चों के बापों के साथ बैठकर पढ़े। इतने सीनियर लोगों के साथ एक साथ बैठकर पढना भी गर्व की बात है। सांसारिक ज्ञान सीधा ही ट्रांसफ़र हो जाता था। हमारे साथ जो लड़कियाँ पढती थी उनकी तो पांचवी-छटवीं में ही शादी हो गयी थी। अब तो वे दादी-नानी बन चुकी हैं जबकि कोई ज्यादा दिनों की सी बात नहीं लगती। उस समय मैट्रिक पास होने वाला लड़का गबरु जवान हो जाता था। आज कर मैट्रिक पास लड़के पिद्दी से नजर आते हैं। इतनी बड़ी क्लास पास करने वाले को बड़ा तो होना ही चाहिए यह मान्यता उस वक्त थी। मैट्रिक पास करते-करते 20-22 साल के हो ही जाते थे। उन्हे पढैया नाम से जाना जाता था, घर में उनके लिए अलग ही वातावरण होता था कि पढैया को कोइ भी घरे्लू काम मत बताओ। उसकी पढाई में व्यवधान उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए उसे घरेलू कार्यों से अलग ही रखा जाता था। 

इस तरह दबाव मुक्त वातावरण में विद्यार्थी का मानसिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास भी निर्बाध गति से होता था। इन 25-30 वर्षों में कितना परिवर्तन आ गया है। आज 15 साल का बच्चा मैट्रिक पास कर लेता है और उसके दिमाग में आगे भविष्य की योजनाएं चलते रहती हैं जिससे लगता है कि बाल सुलभ उछल-कूद, हंसी-ठिठोली जैसे उसके जीवन से गायब ही हो गई है। एक अलग ही तरह का माहौल हो गया है, जैसे कोई गर्दभ रेस की तैयारी हो रही है। विद्यार्थी दबाव के वातावरण में जी रहा है। जिसका प्रभाव उसके शारीरिक विकास पर पड़ रहा है। अगर वह इस दौड़ में शामिल न हो तो भी मुस्किल है औरों से पीछे रह जाएगा। कैसी विडम्बना है यह?

अगर हम आंकड़े उठाकर देखे तो हाल के 8 वर्षों में विद्यार्थियों में आत्महत्या के मामले बढे हैं। अपनी पढाई और रिजल्ट को लेकर इतना मानसिक दबाव उन्हे झेलना पड़ता है कि कई तो इसे सहन ही नहीं कर पाते। बोर्ड परीक्षा के परिणाम आने से पहले ही आत्म हत्या कर लेते हैं, कई परिणामों के बाद। वर्तमान में विद्यार्थियों में एक भय परिक्षा परिणामों के प्रतिशत को लेकर भी होता है, अगर कम प्रतिशत मिले तो अच्छे स्कूल कालेजों में प्रवे्श नहीं मिलेगा। पहले ऐसा नहीं था, प्रतिशत कम हो या ज्यादा जो पढना चाहता है उसे प्रवेश मिल ही जाता था और सभी पढाई कर लेते थे। भले ही उन्हे कामर्स, इंजिनियरिंग, मेड़िकल में प्रवेश नहीं मिलता था, लेकिन मास्टर छड़ी राम बी.ए., एम. ए., एल. एल. बी. तो हो ही जाते थे। डिग्रियों की एक तख्ती उनके घर के सामने टंग ही जाती थी। विवाह के लिए अच्छे रिश्ते मिल ही जाते थे।

उस समय पालक सिर्फ़ यह चाहता था कि उसका पाल्य परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाए। उसे परिणाम के प्रतिशत से कोई मतलब नहीं था। अगर कोई बच्चा अच्छे नम्बर ले आता था तो उसकी मेहनत होती थी। पालक सिर्फ़ उत्तीर्ण होने का समाचार सुनकर खुश हो जाते थे। अब परिस्थितियां बदल गई है। पालकों को मालूम है कि उनका बच्चा पास तो हो जाएगा लेकिन वे उसके डिवीजन को लेकर चिंतित रहते हैं। उनके कुल अंकों के प्रतिशत को लेकर चिंतित होते हैं। बस यहीं पर बचपन खो जाता है और जीवन भर नहीं मिलता। फ़िर कभी नहीं मिलता । आवश्यकता है आज बचपन को बचाने की। चाहे बच्चे के नम्बर और प्रतिशत कम हो जाएं लेकिन ध्यान रहे उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित न हो पाए। वे मानसिक रुग्णता के शिकार न हो पाएं, इसलिए आवश्यकता है बचपन बचाने की। हमें प्रयास करना चाहिए कि पढाई के बोझ से विद्यार्थी का बचपन प्रभावित न हो।

सोमवार, 9 जून 2014

निर्माणाधीन जैन मंदिर अमरकंटक : अद्भुत कारीगरी


ल्याण आश्रम से उत्तर की तरफ़ ऊपर देखने पर जैन मंदिर दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण विगत कई वर्षों से हो रहा है। गत वर्ष भी मैं यहाँ आया था, उस समय मंदिर का कार्य प्रगति पर था। राजस्थान के कारीगरों की छेनी हथौड़ियाँ बज रही थी। छेनी हथौड़ियों की आवाजें मुझे मंदिर तक खींच ले गई। पहले नर्मदा कुंड के सामने से ही यहाँ पहुंचने का रास्ता था। अब इस रास्ते को खूंटे लगा कर बंद कर दिया गया है। हमें मंदिर तक पहुंचने के लिए उससे थोड़ा आगे चलकर विश्राम गृह का एक लम्बा चक्कर काटते हुए जाना पड़ा। सूर्यदेव ने हीटर का वाल्यूम थोड़ा और बढा दिया था। मंदिर निर्माण स्थल पर अब कई खिलौनों की दुकाने एवं होटल खुल चुके हैं। इससे जाहिर होता है कि मंदिर देखने बड़ी संख्या में पर्यटक निरंतर पहुंच रहे हैं।  
निर्माणाधीन जैन मंदिर एवं विशाल क्रेन
मंदिर के समक्ष वृक्ष के नीचे गाड़ी खड़ी कर दी, सामने मंदिर का विशाल गुम्बद दिखाई दे रहा था। कलचुरियों के बाद यदि किसी मंदिर का निर्माण हो रहा है तो यही तीर्थंकर आदिनाथ मंदिर है। धौलपुर के गुलाबी पाषाणों की कटाई-छटाई की आवाजें दूर तक आ रही थी। निर्माण योजना के अनुसार मंदिर ऊँचाई 151 फ़ुट,  चौड़ाई 125 फ़ुट तथा लम्बाई 490 फ़ुट है। इसके निर्माण में 25-30 टन वजन के पाषाणो का भी प्रयोग किया गया है। जब मंदिर निर्माण की योजना बनी थी तब इसकी लागत लगभग 60 करोड़ रुपए आँकी गई थी। बढ़ती हुई मंहगाई को देखते हुए लगता है कि यह लागत बढकर 1 अरब रुपए तक पहुंच जाएगी। 
द्वीस्तरीय मंडप एवं गर्भ गृह
गर्भगृह में भगवान आदिनाथ विराजित हैं, इसके साथ परम्परानुसार अष्टमंगल चिन्ह उत्कीर्ण किए गए हैं। प्रतिमा का आभामंडल विशाल है, दाँए-बाँए चंवरधारिणी तथा इनके ऊपर मंगल कलश स्थापित है। द्वार शाखाओं एवं सिरदल पर कमल पुष्पांकन है। मंदिर में प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की 24 टन भारी अष्टधातु की प्रतिमा विराजित है। इसे आचार्य श्री विद्यासागरजी ने 6 नवम्बर 2006 को विधि-विधान से स्थापति किया। अष्टधातू से निर्मित यह प्रतिमा 28 टन के  अष्टधातू निर्मित कमल पुष्प पर विराजित है। प्रतिमा के वक्ष स्थल पर जैन प्रतिमा लांछन श्री वत्स बना हुआ है। बल्ब की रोशनी में धातू प्रतिमा प्रभाव उत्पन्न कर रही थी।
भगवान आदिनाथ
कारीगर छेनी हथौड़ी लिए प्रस्तर स्तंभों को अलंकृत कर रहे थे। शिल्पांकन की दृष्टि से धौलपुर का पत्थर उत्तम प्रतीत होता दिखाई देता है। छेनी की मार से पत्थर से से "चट" उखड़ती दिखाई नहीं दे रही थी। जिस तरह सागौन की लकड़ी को खरोंच कर प्रतिमाएं बना दी जाती हैं वैसा ही कुछ प्रतीत हो रहा था। पर यह पत्थर लकड़ी के इतना नरम नहीं है।  प्रस्तर पर अलंकरण करना श्रम साध्य कार्य है। मंदिर के वितान में सुंदर कमलाकृति का निर्मित की गई है। जिसकी पंखुड़ियाँ अलग दिखाई देते है। छत का निर्माण देखकर तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रत्थरों को गढ़कर स्थापित करने के दौरान कम्प्यूटर की गणना भी चूक जाएगी पर शिल्पकारों की गणना नहीं चूकने वाली।
अलंकृत भव्य वितान
मंदिर निर्माण में एक बड़ी क्रेन सहायक बनी है। बिना क्रेन के निर्माण संभव नहीं था। प्राचीन काल में माल परिवहन के साधन नहीं होने के कारण मंदिर निर्माण सामग्री जहाँ समीप में उपलब्ध होती है, वहीं मंदिरों का निर्माण कराया जाता था। जिसका उदाहरण हमें कर्ण मंदिर में देखने मिलता है। कल्पना करें कि हजार दो हजार साल बाद जब कोई नई सभ्यता होगी वह इन मंदिरों की विशालता को देखकर आश्चर्य चकित रह जाएगी तथा मंदिर में प्रयुक्त पत्थरों की खदान ढूंढना चाहेगी तो प्रमाण के लिए उन्हें धौलपुर की प्रस्तर खानों की भी खोज करनी होगी। वर्तमान में परिवहन की सुविधा होने के कारण सुदूर से भी कारीगर एवं निर्माण सामग्री मंगाई जा सकती है।
शिल्पकार और छेनी हथौड़ी
प्राचीन काल से निर्माणादि कार्यों में हिन्दू धर्म के मानने वाले शिल्पियों का बोलबाला था तथा इनका ही एकाधिकार था। कालांतर में शिल्पियों के वंशजों ने कार्य की कठिनाई एवं कम आमदनी को देखते हुए जीवन यापन के लिए अन्य व्यवसाय अपना लिए। शिल्पियों की कमी होने के कारण मुख्य शिल्पियों ने मुसलमान लड़कों को यह कार्य सिखाना प्रारंभ कर दिया। जिसके कारण अब मंदिर निर्माण में मुसलमान कारीगर दिखाई देने लगे। इस मंदिर का निर्माण शिल्प शास्त्रों के दिशा निर्देशानुसार राजस्थान के नागौर जिले से आए हुए मुसलमान शिल्पी कर रहे है। शिल्पांकन में अब पहले जैसी कठिनाईयाँ नहीं रह गई। पत्थर काटने से लेकर बेल-बूटे बनाने तक का कार्य मशीनों से होता है। सिर्फ़ अंतिम रुप प्रदान करने के लिए मानव श्रम का उपयोग होता है।

भव्य निर्माण को अचंभित होकर देखती देवी
पत्थरों को जोड़ने के लिए सूर्खी चूना एवं गुड़ इत्यादि के प्राचीन मिश्रण का ही उपयोग हो रहा है। मंदिर में सीमेंट का कहीं उपयोग नहीं किया जा रहा। सीमेंट भले ही 53/56 ग्रेड की हो पर कुछ वर्षों के उपरांत अपनी पकड़ छोड़ देती है। सूर्खी, चून, गुड़, उड़द, बेल (बिल्व) गोंद इत्यादि के मिश्रण से बनाए गए मसाले का जोड़ हजारों वर्षों तक अपनी पकड़ नहीं छोड़ते। तभी प्राचीन संरचनाएँ एवं भवनों को आज भी हम देख पा रहे हैं। एक बार का वाकया याद आता है जब एक सभा के दौरान तत्कालीन पीडब्लूडी मंत्री प्राचीन भवनों की तारीफ़ करते हुए भावनाओं के उद्वेग में मानव निर्मित महापाषाणकालीन संरचना "स्टोनहेंज" तक पहुंच गए। तब एक दिलजले ने पूछ लिया कि " वर्तमान में जिन भवनों का निर्माण आपका विभाग करता है उनके 20 वर्षों तक के स्थायित्व की गारंटी लेते हैं क्या? इतना सुनने के बाद मंत्री जी को बगलें झांकना पड़ा।
गर्भ गृह के सामने वाला मंडप, अद्भुत कारीगरी की मिशाल
मंदिर में प्रतिमाओं का अभाव और पुष्प वल्लरियों, लघुघंटिकाओं, बेल-बूटों का अंकन सर्वत्र दिखाई देता है। इसका कारण समझ नहीं आया। बस गर्भगृह में मुख्य देव की प्रतिमा ही विराजमान  है। इनके अनुषांगी तीर्थकंर परिचारक तथा अन्य मान्य देवी देवताओं का अलंकरण मंदिर को और भी भव्यवता प्रदान करता। स्तंभों में प्रतिमाओं का स्थान रिक्त दिखाई देता है। भीतर द्वार के दांई ओर एक प्रतिमा का निर्माण दिखाई देता है परन्तु बांई ओर का स्थान खाली है। देखने के बाद प्रतीत हुआ कि इन पर प्रतिमाओं का अंकन बाद में किया जाएगा। पर इतना तो जाहिर है कि इस मंदिर जैसे भव्य संरचना निर्मित होना इस सदी के गौरव की बात है। ………  इति श्री रेवा खंडे स्थित अमरकंटक अचानकमार यात्रा सम्पन्नम्। 

रविवार, 8 जून 2014

अमरकंटक : कर्ण मंदिर

प्रारंभ से पढें 


धूप का कहर बढ चुका था, 10 बजे ही सूरज आग के गोले बरसाने लगा था। बाबा, बिरला और बाक्साईट का असर अमरकंटक के मौसम पर भी दिखाई देने लगा है। गर्मी के मौसम में अमरकंटक सूरज की मार से अप्रभावित रहता था। अंधाधूंध वनों की कटाई, बाक्साईट की खुदाई और बाबाओं की जमाई ने यहाँ गर्मी बढा दी। 
जरा देख लिया जाए स्नैप : प्राण चड्डा जी
फ़िर भी शाम का मौसम ठीक ही रहता है। रात को पंखा चलने पर कंबल सुहाता है। अमरकंटक के पर्यावरण को हो रही हानि यही पर ठहर जानी चाहिए। अन्यथा यह स्थान भी गर्मी के मौसम में भ्रमण करने के लायक नहीं रहेगा। मेरे बाहर आते तक चड्डा जी कुंड के समीप वृक्ष के नीचे बैठ कर विश्राम कर रहे थे, मैं भी धूप से बचने के लिए थोड़ी विश्राम करने लगा।
नर्मदा नदी का विहंगम दृश्य
चर्चा के दौरान चड्डा जी कहने लगे - पहले सभी तीर्थ यात्री नर्मदा कुंड में ही स्नान करते थे। वहाँ स्नान बंद करने के बाद बाहर बने हुए इस कुंड में स्नान करते हैं। जब कुंड की धार पतली होने लगी तो नर्मदा उद्गम पर संकट मंडराने लगा। इस संकट से वाकिफ़ होने पर कोटा विधानसभा के विधायक एवं पूर्व विधानसभा अध्यक्ष छत्तीसगढ़ स्व: डॉ राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला ने 20 वर्ष पूर्व यहाँ पर एक कार्यक्रम करवाया, जिसमें अजय (राहुल) सिंह भी उपस्थित हुए। मुद्दे पर गंभीरता से विचार विमर्श होने पर स्नान के लिए पृथक कुंड एवं अन्य घाट बनाने का निर्णय लिया, यह कार्य वर्तमान में फ़लीभूत दिखाई देते हैं तथा नर्मदा कुंड को नवजीवन मिल गया।
पंच मठ 
हमारा अगला पड़ाव था कर्ण मंदिर समूह। यह मंदिर समूह तीन स्तरों पर है। परिसर में प्रवेश करते ही पंच मठ दिखाई देता है। इसकी शैली बंगाल एवं असम में बनने वाले मठ मंदिरों जैसी है। इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान कभी वाममार्गियों का भी साधना केन्द्र रहा है। इस तरह के मठों में अघोर एकांत साधनाएँ होती थी। पंच मठ के दाएँ तरफ़ कर्ण मंदिर एवं शिव मंदिर हैं। शिवमंदिर में श्वेतलिंग है तथा इससे समीप वाले मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। 
जोहिला मंदिर
इन मंदिरों के सामने ही जोहिला मंदिर एवं पातालेश्वर शिवालय है। इसके समीप पुष्करी भी निर्मित है।, इन मंदिरों से आगे बढने पर उन्नत शिखर युक्त तीन मंदिरों का समूह है जिनका निर्माण ऊंचे अधिष्ठान पर हुआ है। यहाँ भी कोई प्रतिमा नहीं है तथा द्वार पर ताला लगा हुआ है। इन मंदिरों का निर्माण बाक्साईट मिश्रित लेट्राईट से हुआ है। 
विष्णु मंदिर
पातालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर पंचरथ नागर शैली में निर्मित हैं। इनका मंडप पिरामिड आकार का बना हुआ है। पातालेश्वर मंदिर एवं कर्ण मंदिर समूह का निर्माण कल्चुरी नरेश कर्णदेव ने कराया। यह एक प्रतापी शासक हुए,जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। 
पातालेश्वर
सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे। इनका काल 1041 से 1073 ईस्वीं माना गया है। वैसे इस स्थान का इतिहास आठवीं सदी ईस्वीं तक जाता है। मान्यता है कि नर्मदा नदी का स्थान निश्चित करने के लिए सूर्य कुंड का निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था।
शिव मंदिर
नर्मदा कुंड के पीछे की तरफ़ बर्फ़ानी बाबा का आश्रम है तथा कर्ण मंदिर समूह के उपर की तरफ़ गायत्री मंदिर निर्मित किया गया है। बाकी अन्य दर्शनीय स्थल भी हैं, जिन्हे वाहन द्वारा देखना ही संभव है। कपिलधारा नर्मदा नदी का पहला झरना है। जो लगभग 100 फ़ुट उपर से गिरता है, वर्तमान में निर्माण के कारण यह सूख गया है। एक पतली सी धारा गिरते हुए दिखाई देती है। जैसे लगता है कि इससे सिर्फ़ पानी का एक गिलास भरा जा सकता है। 
कर्ण मंदिर
कपिलधारा डिंडोरी जिले के करंजिया जनपद के अंतर्गत है। इसके आगे दुधधारा है। जहां उपर से गिरता हुआ पानी दूध जैसे शुभ्र दिखाई देता है। इसके साथ ही विगत 10 वर्षों से तीर्थंकर आदिनाथ मंदिर का भी निर्माण हो रहा है। यह विशाल एवं भव्य जैन मंदिर लगभग 1 अरब रुपए की लागत से बन रहा है। ……  आगे पढें

शनिवार, 7 जून 2014

हर हर नर्मदे: अमरकंटक

प्रारंभ से पढें
स्नानोपरांत सबसे पहले दर्शन के लिए नर्मदा कुंड पहुंचे। अन्य तीर्थों की तरह यहाँ भी भिखारियों की भरमार दिखी। एक खास बात और है कि यहाँ तथाकथित वैद्य जड़ी बूटियाँ लेकर बैठे रहते हैं जो जूड़ी ताप से लेकर कैंसर के इलाज तक का दावा करते हैं। कोई न कोई बंदा तो इनके झांसे में फ़ंस ही जाता है। कहते हैं जिस बिमारी की कोई दवा नहीं होती उसके हजार वैकल्पिक इलाज हैं। वैसे भी भारत में मुफ़्त की सलाह देने वाले भी बहुत मिलते हैं। जो ऐसे-ऐसे इलाज बताते हैं कि आदमी खा कर मर जाए या अपना माथा पीट ले। ऐसा ही एक कैंसर का इलाज करने वाला मिला था जिसे चड्डा जी ने फ़टकार दिया। उस बेचारे का मुंह उतर गया।
नर्मदा उद्गम कुंड का प्रवेश द्वार
नर्मदा उद्गम कुंड परिसर में कई मंदिर बने हुए हैं। जिसमें कुंड के समीप ही लगा हुआ नर्मदा माता का मंदिर है, मंदिर  में असित पाषाण की प्रतिमा स्थापित है तथा इसके बांए तरफ़ किसी भग्न मंदिर का आमलक रखा हुआ है। जिस पर लोग फ़ूल चढा कर पूजा करते हैं। मुंडन करवाने वालों की भी अच्छी भीड़ दिखाई दी। समीप ही कार्तिकेय स्वामी जी का मंदिर है जहां लिखा है  - अपस्मार कुष्ट क्षयार्श: प्रमेह ज्वरोन्मादि गुल्मादि रोगा महंत:, पिशाचाश्च सर्वे भवत् पत्र भूतिम् विलोक्य क्षणाक्तारकारे द्रवन्ते।। नर्मदा कुंड के भीतर श्री बंगेश्वर महादेव, लक्ष्मी नारायण, रोहणी माता, शिवालय, सिद्धेश्वर महादेव एवं अन्य मंदिर बने हुए हैं, जिनमें एक मंदिर रक्त पाषाण निर्मित है। परिसर के द्वार पर प्रसाद का काऊंटर बना हुआ है, जहाँ से दर्शनार्थी प्रसाद खरीदते हैं। 
बुलकने का खेला
नर्मदा मंदिर एवं उद्गम कुंड के मध्य असित पाषाण की सिरकटी गज सवार एवं लोहित पाषाण की अश्व सवार की प्रतिमाएं स्थापित हैं। गज प्रतिमा के साथ किंवदन्ति जुड़ी हुई है कि इसके पैरो में मध्य से सिर्फ़ धर्मात्मा ही निकल सकता है चाहे वह कितना ही मोटा हो। अगर कोई पापी रहे तो पतला भी इसमें फ़ंस जाता है। लोग इस खेल का मजा लेते हैं। गज के इस खेल से पंडित जी की दुकान चलती है। वे प्रत्येक से दक्षिणा स्वरुप 10-20 रुपया लेते हैं। कुछ लोग पोल खुलने के भय से ही गज के पैरों से निकलने का प्रयास नहीं करते। गत यात्रा के समय इसके बीच से मैं दो बार निकला था सिर्फ़ थोड़ी सी ट्रिक की आवश्यकता होती है। 
लक्ष्मी नारायण
धार्मिक ग्रंथों में नर्मदा की महिमा अपार बताई गई है। नर्मदा नदी को समस्त तत्वों की जननी कहा गया है। नर्मदा को सरितां वरा माना जाता है। नर्मदा तट पर दाह संस्कार के बाद गंगा तट पर नहीं जाते क्योंकि नर्मदा जी से मिलने के लिए स्वयं गंगा जी आती है। नर्मदा अपने उद्गम स्थान से प्रकट होकर नीचे से उपर की ओर बहती है। कहते हैं कि नर्मदा में प्रवाहित अस्थियाँ एवं लकड़ियां कालांतर में पाषाण में परिवर्तित हो जाती हैं। नर्मदा अपने उदगम स्थान से लेकर समुद्र पर्यन्त उतर एवं दक्षिण दोनों तटों में, दोनों ओर सात मील तक पृथ्वी के भीतर प्रवाहित होती हैं , पृथ्वी के उपर तो वे मात्र दर्शनार्थ प्रवाहित होती हैं | नर्मदा नदी के तट पर जीवाश्म प्राप्त होते हैं। नर्मदा पुराण के अनुसार नर्मदा ही एक मात्र नदी देवी हैं, जो सदा हास्य मुद्रा में रहती है |
नर्मदा स्नान कुंड
जनमान्यता है कि नर्मदा (प्रवाहित ) जल में नियमित स्नान करने से असाध्य चर्मरोग मिट जाता है। नर्मदा कभी भी मर्यादा भंग नहीं करती है, वर्षा काल में पूर्व दिशा से प्रवाहित होकर, पश्चिम दिशा के ओर ही जाती हैं। अन्य नदियाँ, वर्षा काल में अपने तट बंध तोडकर अन्य दिशा में भी प्रवाहित होने लगती हैं। नर्मदा पर्वतो का मान मर्दन करती हुई पर्वतीय क्षेत्र में प्रवाहित होकर जन ,धन हानि नहीं करती हैं (मानव निर्मित बांधों को छोडकर )अन्य नदियाँ मैदानी, रेतीले भू-भाग में प्रवाहित होकर बाढ़ रूपी विनाशकारी तांडव करती हैं। नर्मदा ही विश्व में एक मात्र नदी हैं जिनकी परिक्रमा का विधान हैं, अन्य नदियों की परिक्रमा नहीं होती हैं। नर्मदा के दक्षिण और गुजरात के भागों में विक्रम सम्बत का वर्ष कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को प्रारंभ होता हैं।
नर्मदा कुंड स्थित श्री बंगेश्वर महादेव
होशंगाबाद मध्यप्रदेश की जीवनदायिनी नर्मदा का जल गंगाजल से भी ज्यादा शुद्ध है। इस तथ्य का खुलासा केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की एक रिपोर्ट में हुआ है। नर्मदा के पानी में घुलित आक्सीजन का निम्नतम स्तर गंगा नदी से काफी ज्यादा है, इस कारण नदियों की ग्रेडिंग में नर्मदा को बी और गंगा को सी ग्रेड दी गई है। बोर्ड विभिन्न स्रोतों से प्राप्तजल की मासिक सेंपलिंग कर उसका परीक्षण करता है। इसमे देश भर की विभिन्न नदियों के पानी काभी परीक्षण किया जाता है। परीक्षण के आधार पर नदी जल की ग्रेडिंग होती है।प्राकृतिक स्रोत से प्राप्त जल में नर्मदा नदी के पानी को सर्वाधिक उच्च गुणवत्तायुक्त पाया गया है।
परिसर स्थित शिवालय
नर्मदा जी वैराग्य की अधिष्ठात्री मूर्तिमान स्वरूप है। गंगा जी ज्ञान की, यमुना जी भक्ति की, ब्रह्मपुत्रा तेज की, गोदावरी ऐश्वर्य की, कृष्णा कामना की और सरस्वती जी विवेक के प्रतिष्ठान के लिये संसार में आई हैं। सारा संसार इनकी निर्मलता और ओजस्विता व मांगलिक भाव के कारण आदर करता है व श्रद्धा से पूजन करता है। मानव जीवन में जल का विशेष महत्व होता है। यही महत्व जीवन को स्वार्थ, परमार्थ से जोडता है। प्रकृति और मानव का गहरा संबंध है। नर्मदा तटवासी माँ नर्मदा के करुणामय व वात्सल्य स्वरूप को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं। बडी श्रद्धा से पैदल चलते हुए इनकी परिक्रमा करते हैं।
कुंड के पश्चात नर्मदा का प्रवाह राम घाट 
नर्मदा जी की परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। अनेक देवगणों ने नर्मदा तत्व का अवगाहन ध्यान किया है। ऐसी एक मान्यता है कि द्रोणपुत्र अभी भी माँ नर्मदा की परिक्रमा कर रहे हैं। इन्हीं नर्मदा के किनारे न जाने कितने दिव्य तीर्थ, ज्योतिर्लिंग, उपलिंग आदि स्थापित हैं। जिनकी महत्ता चहुँ ओर फैली है। परिक्रमावासी लगभग तेरह सौ बारह किलोमीटर के दोनों तटों पर निरंतर पैदल चलते हुए परिक्रमा करते हैं। श्री नर्मदा जी की जहाँ से परिक्रमावासी परिक्रमा का संकल्प लेते हैं वहाँ के योग्य व्यक्ति से अपनी स्पष्ट विश्वसनीयता का प्रमाण पत्र लेते हैं। परिक्रमा श्री नर्मदा पूजन व कढाई चढाने के बाद प्रारंभ होती है।
मंदिर परिसर का दृश्य
नर्मदा की इसी ख्याति के कारण यह विश्व की अकेली  नदी है जिसकी विधिवत परिक्रमा की जाती है । प्रतिदिन नर्मदा का दर्शन करते हुए उसे सदैव अपनी दाहिनी ओर रखते हुए, उसे पार किए बिना दोनों तटों की पदयात्रा को नर्मदा प्रदक्षिणा या परिक्रमा कहा जाता है । यह परिक्रमा अमरकंटक या ओंकारेश्वर से प्रारंभ करके नदी के किनारे-किनारे चलते हुए दोनों तटों की पूरी यात्रा के बाद वहीं पर पूरी की जाती है जहाँ से प्रारंभ की गई थी । व्रत और निष्ठापूर्वक की जाने वाली नर्मदा परिक्रमा 3 वर्ष 3 माह और 13 दिन में पूरी करने का विधान है, परन्तु कुछ लोग इसे 108 दिनों में भी पूरी करते हैं । आजकल सडक मार्ग से वाहन द्वारा काफी कम समय में भी परिक्रमा करने का चलन हो गया है । मोटर सायकिल से नर्मदा परिक्रमा करने की मेरी भी इच्छा है अब समय ही बताएगा इच्छा कब पूरी होती है।  जारी है  ………  आगे पढें

शुक्रवार, 6 जून 2014

कल्याण आश्रम अमरकंटक


चीं चीं चीं चीं ……… की ध्वनि से आँखें खुल गई, लगा कि सुबह हो गई। आँख खुली तो दिखा चलभाष पर कोई याद कर रहा है। नम्बर पर निंगाह पड़ी तो झुंझलाहट आई ब्लॉग़र भी कब सोते हैं कब उठते हैं पता नहीं? जबलपुरिया ब्रिग्रेड के ब्रिगेडियर गिरीश बिल्लौरे जी का बातचीत का आहवान था। अल सुबह उनका डिंडौरी आने का निमंत्रण था। कहने लगे कि अमरकंटक तक आ गए तो डिंडौरी पहुंच जाओ। दो दिन यहाँ घुमक्कड़ी कर के चले जाना। हमने कहा कि अभी नर्मदे हर  कर लेते हैं फ़िर सोच कर बताते हैं। सुबह के 5 बजे ही नींद खुल गई, बाहर निकल कर देखा तो उजाला हो गया था। कल्याण आश्रम परिसर में बने हुए मंदिर एवं उसके बगीचे की छटा मनमोहक थी। इसकी एक फ़ोटो हमने फ़ेसबुक पर लगाकर दिन की शुरुआत की।
आवासीय परिसर से दिखाई देता मंदिर
चड्डा जी पहले ही उठ गए थे, शायद आरती की घंटिका की आवाज सुनकर नींद खुल गई। हिमाद्री मुनि सुबह ही उठकर दैनिक उपासना में लग जाते हैं। चड्डा जी कैमरा लेकर बाग बगीचे की फ़ोटो खींच रहे थे, हमने भी अपना कैमरा उठा लिया क्योंकि फ़ोटो खींचने के लिए सुबह और शाम का समय ही श्रेयकर होता है। बगीचे में तरह-तरह के फ़ूल खिले हुए थे। दूब की हरियाली की छटा देखते ही बन रही थी। मंदिर को विभिन्न रंगों से सजाया गया है। विशाल परिसर में निर्मित मंदिर के वास्तु पर उड़ीसा शैली का प्रभाव दिखाई देता है।  मंदिर के एक तरफ़ अन्न सत्र बना हुआ है। जहां नियत समय पर भोजन की व्यवस्था की जाती है। 
कल्याण आश्रम का भव्य मुख्य द्वार
मंदिर के समक्ष तिमंजला आवासीय भवन है। जिसकी लम्बाई लगभग 300 फ़ुट होगी। मध्य में बगीचा बनाकर इसे सुंदर रुप प्रदान किया गया है। आश्रम के विशाल द्वार के दोनो तरफ़ शार्दुल बनाए गए हैं और मंदिर के सामने दो द्वारपालों की प्रतिमा भी बनी हुई है। मुख्य द्वार के बांए तरफ़ पुस्तकालय एवं एवँ दांए तरफ़ सुरक्षा व्यवस्था के साथ दान ग्रहण करने का काऊंटर भी बना है। इसके साथ पूजा सामग्री एवं रत्न विक्रय करने की दुकान भी दिखाई दी।
मेघों से आच्छादित मंदिर शिखर 
कुछ चित्र लेने के बाद स्नान करके नर्मदे दर्शन करना था। आश्रम के विषय में चड्डा जी से बात शुरु हो गई। रात को जब हम आए तो चड्डा जी ने आश्रम के व्यावस्थापक हिमाद्री मुनि से भेंट करवाई, इस आश्रम की देख-रेख की जिम्मेदारी इन्हीं के कंधो पर है। कल्याण आश्रम द्वारा सीबीएसई से संबंधित भव्य विद्यालय कल्यानिका संचालित होता है। इसके साथ ही उन्होने स्नातक स्तर पर कोई तकनीकि कोर्स भी चलाने की बात कही। आश्रम के द्वारा अस्पताल भी चलाया जाता है, चिकित्सकों की कमी होने के कारण सिर्फ़ बाह्य चिकित्सा लाभ ही मरीजों को मिल पाता है। किसी भी संस्था को चलाने के लिए लगन की आवश्यकता होती है, फ़िर संसाधन तो जुड़ते चले जाते हैं।
विद्यालय परिसर
इस आश्रम के निर्माण के विषय में चड्डा जी ने एक बात और बताई - जब अजीत जोगी शहडोल के कलेक्टर थे तब अमकंटक में कोई बड़ी डकैती पड़ गई। जिसकी जाँच करने के लिए वे भी एस पी के साथ आए। रात को जब इस जगह से निकले तो देखा कि एक साल के पेड़ के नीचे बाबाजी धूनी रमा कर बैठे हैं तभी बरसात के ओले गिरने लग गए। बाबा जी अपने स्थान से हिले नहीं, उन्होने ओलावृष्टि से बचने के लिए अपनी जटाओं को मुंह के सामने कर लिया, जिससे मुंह पर चोट न लगे। यह देख कर अजीत जोगी आगे बढ गए और रेस्ट हाऊस चले गए।
आवासीय परिसर एवं उपवन
सुबह की सैर के वक्त उनके मन में धूनी रमाए बाबा जी से मिलने की इच्छा जगी। वे इधर ही चले आए, देखा तो बाबा जी वर्षा से शीतल हुई धूने की अग्नि को पुन: प्रज्जवलित करने के प्रयास में लगे हैं। अजीत जोगी ने उनसे नाम पूछा तो उन्होने कल्याण बाबा बताया। अमरकंटक आने का प्रयोजन नर्मदा दर्शन एवं साधना करना बताया और कहा कि दो-चार दिन रुक कर चले जाएगें। जोगी जी ने उनसे रुकने का आग्रह किया तो उन्होने ठहरने के लिए झोपड़ी इत्यादि की समस्या बताई। 
नर्मदा तट को जाता रास्ता एव साल वृक्षों की दीवार
जोगी जी ने उन्हें झोपड़ी बनवाकर देने का आश्वासन दिया और पूछा कि आश्रम के लिए कितनी जमीन चाहिए। बाबा जी ने इशारा कर के बताया तो जोगी जी ने उतनी जमीन का नक्शा सिगरेट की पन्नी पर खींच कर उनके नाम करने का आदेश एस डी एम तहसीलदार को कर दिया। पटवारी ने जमीन नापकर प्रतिवेदन संबंधित अधिकारियों को भेज दिया और इस तरह कल्याण आश्रम की नींव पड़ी। आश्रम निर्माण के उपरांत बाबाजी सूखे हुए साल के वृक्ष के नीचे ही तपस्या करते थे। उन्होने आश्रम में प्रवेश नहीं किया था। तब रायपुर स्थित रामकृष्ण आश्रम के संचालक स्वामी आत्मानंद अमरकंटक पधारे। उन्होने बाबा जी से निवेदन किया कि अब आत्म साधना बहुत हो गई, आपकी आवश्यकता समाज को है और आप जनकल्याण के कार्यों में अपने को समर्पित कीजिए। तब बाबा जी ने उनका आग्रह मान कर आश्रम प्रवेश किया और जनकल्याण के कार्य प्रारंभ हो गई। साधना के साथ जनकल्याण का कार्य भी प्रारंभ हो गया। जो आज विशाल रुप में हमारे सामने दिखाई देता है। संकल्प शक्ति में बहुत बल होता है, जो मानव से देवता सदृश्य महान कार्य करवा देता है। ……… आगे पढें।

गुरुवार, 5 जून 2014

दुर्गाधारा : अमरकंटक


चानकमार अभ्यारण्य के बीच का सफ़र लगभग 60-65 किलोमीटर का होगा। इतने सफ़र में मैने कहीं पर "पढे, लिखे या डॉ फ़लाँ फ़लाँ से मिले" वाला विज्ञापन नहीं देखा। वनवासियों का इन डॉक्टरों के बिना ही काम चल जाता है। वरना भारत का कोई गांव शहर नहीं है जहाँ चाँदसी विज्ञापन देखने न मिलें। चाँद सी मेहबूबा मिले या न मिले पर चाँदसी विज्ञापन जरुर मिल जाते हैं। यहाँ इस तरह के विज्ञापन मिल भी नहीं सकते क्योंकि बैगा स्वयं परम्परागत चिकित्सक हैं जो जड़ी-बूटियों से अपना इलाज करते हैं। एक बार मुझे भी जड़ी बूटियों का शौक चढा था और अपने बाड़ा में लगभग 100 तरह की जड़ी-बूटियाँ लगाई थी। जब तक नुस्खे अनुभूत न हों तब तक दवाईयों पर विश्वास करना कठिन होता है। हाँ सिमगा के पास एक ऐसे ही कैंसर चिकित्सक का सूचना फ़लक दिखाई दे गया।
फ़ायर वाचर की झोपड़ी
एक बाँस की झोपड़ी दिखाई दी, जिसके बाहर बांस का ही तख्त सा बना हुआ था। चड्डा साहब ने इसका नामकरण "हनीमून कॉटेज" किया। खैर जंगल में यह स्थान हनीमून के लिए भी उचित लगा। बस छत के उपर नीचे से कोई साँप न लटके। वरना इससे हारर हनीमून कहीं दूसरा न मनेगा। वास्तव में यह बांस की झोपड़ी अभ्यारण्य के फ़ायर वाचर का ठिकाना है। जहाँ से वह जंगल की रखवाली करता है। कहीं कोई आग न लगा दे। जंगल की आग से बहुत नुकसान होता है। अभी अप्रेल में ही शिकार पकड़ने के लिए लगाई गई आग ने विकराल रुप धारण कर लिया था। वनवासी एक घेरा बना कर आग लगा देते हैं तथा आग से डर कर खरगोश कोटरी आदि बाहर निकलते हैं तो पता कर लेते हैं। कभी महुआ बीनने वालों की लगाई आग भी विकराल रुप धारण कर लेती है। आग की जानकारी रखने के लिए फ़ायर वाचर नियुक्त किए जाते हैं।  
रास्ते में स्पेशल डिग्री वाले डॉ की दुकान
लमनी से केंवची पहुंचने पर पता चला कि टायर की हवा फ़िर कम हो गई है, सोचे कि यहीं पंचर बनवा लें, परन्तु पंचर दुकान वाला नहाने धोने में व्यस्त था। कहने लगा आधे घंटे बाद काम पर लौटुंगा तब पंचर बनेगा। हमने फ़िर हवा भरवा ली और आगे बढ गए। ट्यूब लेस टायर के पंचर भी हर जगह नहीं बनते। नई विधा को सीखने में समय लगता है। केंवची से एक रास्ता अमरकंटक जाता है तथा दूसरा रास्ता गौरेला पेंड्रा। हमें पेंड्रा में थोड़ी देर के लिए आवश्यक काम था। गौरेला पहुंचने पर टायर की हवा फ़िर कम हो गई। वहाँ पंचर दुकान वाले ने बनाने की सहमती दे दी और हमने नए टायर का जोड़ा डालने के लिए दुकान भी ढूंढ ली। परन्तु टायर मिस्त्री ने आधे घंटे में पंचर बना दिया। हम आधे घंटे और बैठे, दुबारा चेक करवाया तो हवा नहीं निकली थी। चलो बन गया काम। 
केंवची का तिराहा (अमरकंटक एवं रायपुर रोड़)
अमरकंटक जाने के लिए 3 रास्ते हैं, पहला 44 किलोमीटर का रास्ता पेंड्रा रोड़ से केंवची होकर जाता है तथा दो रास्ते गौरेला पेंड्रा से जाते हैं। गौरेला पेंड्रा से 20 किलोमीटर का रास्ता दुर्गाधारा होकर तथा दूसरा 25 किलोमीटर का रास्ता जलेश्वर महादेव होकर जाता है। हमने दुर्गाधारा वाला मार्ग पकड़ा। आश्रम में फ़ोन करके बता दिए कि हम विलंब से पहुंचेगे इसलिए द्वार खुला रखें। दुर्गाधारा होकर अमरकंटक मार्ग की दुरी लगभग 25 किलोमीटर है। पर रास्ता पहाड़ी होने के कारण समय अधिक लगता है। इस रास्ते पर हमें हाईना (लकड़बग्घा) दिखाई दिया। कार की रोशनी में कुछ देर खड़ा रहा फ़िर जंगल में भाग गया। पहाड़ी पर एक स्थान पर बाबाजी ने डेरा बना रखा है। हमने कुछ देर के लिए यहाँ गाड़ी रोकी। इस इलाके में बाक्साईट की पहाड़ियाँ हैं।
दुर्गाधारा में अलाव तापते लोग
हम रात के अंधेरे में दुर्गाधारा पहुंचे, तो वहाँ 5-6 लोग दिखाई दिए, उन्होंने मंदिर के बाहर आग जला रखी और ताप रहे थे। बाहर ठंडी हवा चल रही थी। रात होते ही यहाँ का तापमान और अधिक गिरने वाला था इसलिए मंदिर में रहने वालों ने रात की व्यवस्था कर ली थी। मंदिर के पीछे पहाड़ी छोटा झरना गिरता है। जिसे दुर्गाधारा कहते हैं। चड्डा जी ने बैग से टार्च निकाल कर हमारा मार्गदर्शन किया, वरना अमावश के बाद की पहली रात को घुप्प अंधेरे में दुर्गाधारा तक पहुंचना संभव नहीं था। हमने अंधेरे में ही दुर्गाधारा देखी। थोड़ी देर खड़े रहने पर ठंड लगने लगी। मैं अंधेरे में फ़ोटो लेने का प्रयास किया, मुझे संदेह था कि मेरे कैमरे का फ़्लेश घुप्प अंधेरे में काम करेगा या नहीं। पर रात्रि के हिसाब से परिणाम अच्छा ही आया। यहां से चलकर हम 9 बजे लगभग कल्याण आश्रम पहुंच गए। वहाँ पर हमारे लिए 2 कमरे खोल दिए गए। 
दुर्गाधारा का कैमरे के फ़्लेश के साथ चित्र
विलंब होने से आश्रम में भोजन की व्यवस्था नहीं हो सकी,  हम लगभग 11 बजे बाजार की तरफ़ आ गए। बाजार में एक होटल में दाल-चावल, सब्जी रोटी इत्यादि का भोजन मिल गया। किसी ने बताया था कि एम पी टुरिज्म का रेस्टोरेंट भी है जहाँ भोजन मिल जाता है, पर कीमत अधिक होती है। एक सर्वोदय होटल भी है जहाँ भोजन एवं ठहरने की व्यवस्था है। हम भोजन करके आश्रम लौट आए। अमरकंटक में रात का मौसम ठंडा हो जाता है। इसलिए कंबल की आवश्यकता पड़ जाती है। हमें रात को कंबल की आवश्यकता पड़ी। अब कल अमरकंटक भ्रमण करना है इसलिए बिस्तर के हवाले हो गए। सफ़र जारी है … आगे पढें

बुधवार, 4 जून 2014

अचानकमार: लमनी के गाँधी प्रोफ़ेसर खैरा

प्रारंभ से पढे

तिलाई डबरा से बायसन से साक्षात्कार के बाद सफ़र आगे बढा, राह में अचानकमार गाँव है, 10 बरसों से देख रहा हूँ कोई बदलाव नहीं है। सड़क पर वही इकलौता झोंपड़ी वाला होटल, जिसमें भजिया, बिस्कुट एवं चाय मिलती है। ठंड के दिनों में यहाँ से गुजरने वाले यात्रियों के लिए आग तापने का एकमात्र सहारा है। एक बार ठंड से ठिठुरते हुए मैने भी गर्माहट के लिए हाथ पैर तापे थे। होटल की भट्टी में लगे हुए मोटे लट्ठ किसी बाबाजी के धूने या बिरहाग्नि की तरह 24X7 कल्लाक जलते रहता है। आज का मौसम आग तापने लायक नहीं था। गाड़ी वाताकूलन पर थी। हम सीधे जा रहे थे पर सड़कें लहरा रही थी किसी मदमस्त त्वंगी की मानिंद। पिछली बार नेपाल से लौटते हुए लमनी नाका से चढे हुए एक महुआ मतंग को हमने यही पर उतारा था।
अचानकमार का केंवची द्वार
हम अचानकमार के चर्चित ग्राम लमनी पहुंच गए। चड्डा जी ने ब्रेक लगाने का आदेश दिया। गाड़ी से उतरते ही दुकान के समाने बैठे खादीधारी कृशकाय व्यक्ति पर निगाह पड़ी। मैने तुरंत पहचान लिया कि ये "दिल्ली वाले प्रोफ़ेसर" हैं, नाम भूल रहा था। चड्डा साहब और उनका परस्पर 20 वर्षों का स्नेहिल संबंध है। दोनो ही जंगल और उसके निवासियों के संरक्षण हेतू तपस्या कर रहे हैं। दुआ सलाम के पश्चात चड्डा साहब ने हमारा परिचय प्रोफ़ेसर खैरा से कराया। उन्होने ने अपना थैला खोला और उसमें से चनामुर्रा (जिसमें मिक्चर मिला रखा था) मुट्ठी भर मेरे हाथ पर धर दिया। उनके थैले में कागज और स्केच पेन के साथ दो-चार पैकेट पारले जी एवं कुछ टेबलेट भी दिखाई दी। मुर्रा चबाते हुए उनसे चर्चा होने लगी। 
प्रोफ़ेसर पीडी खैरा चना मुर्रा देते हुए
जानकारी के लिए बता दूं इन शख्सियत का नाम प्रो पी डी खैरा है। ये दिल्ली विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे हैं। पहले अपने छात्रों के साथ बैगा आदिवासियों पर किसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में अचानकमार आए। वापस लौटने के बाद इन पर भी वैरियर एल्विन की आत्मा सवार हो गई और 25 वर्षों से इस लमनी ग्राम में ही निवास कर बैगा आदिवासियों के उत्थान के लिए कार्य कर रहे हैं। 80 वर्ष की उम्र में छपरवा के हाई स्कूल में बच्चों को अंग्रेजी पढाने जाते हैं। पहले इस स्कूल में अंग्रेजी का कोई शिक्षक नहीं था। वहाँ से लौट कर लमनी के छोटे बच्चों से वनांचल के जीवन से संबंधित चित्र बनवाते हैं। जब उन्होने मुझसे चित्रों के विषय में चर्चा की तो लगा कि आदिवासियों की परम्परागत चित्रकारी पर कोई काम करवा रहे हैं। परन्तु लमनी के बच्चे सफ़ेद कागज पर स्केच पेन से रंगीन चित्र बना रहे हैं जिसमें उनकी दिनचर्या झलकती है।
लमनी स्थित प्रोफ़ेसर पीडी खैरा की पर्ण कुटी
चर्चा करते हुए कार पर निगाह पड़ी तो चक्का पंचर दिखाई दिया। गाड़ी के टायर ट्यूबलेस थे, प्रोफ़ेसर खैरा ने एक बंदे को हवा भरने कहा और मुझे अपनी पर्ण कुटी में बच्चों की बनाई पेंटिंग दिखाने ले गए। एक कमरे की उनकी कुटिया सुंदर है, जिसमें दो खिड़कियाँ और एक दरवाजा है, सामने छोटी परछी है और थोड़ा लकड़ियों का घेरा। कमरे में प्रवेश करने पर थोड़ा सा ही सामान दिखाई दिया। थोड़े से बर्तन एवं एक टेबल एक तख्त। टेबल पर कागज, पुस्तकें फ़ाईले इत्यादि रखी है और तख्त इनके सोने के काम आता है। सीधी साधी साधू सी जिन्दगी पर जज्बा आसमान से भी बड़ा। एक सीएफ़एल बल्ब कवेलू की छत से लटक रहा था। पूछने पर पता चला की बैटरी से चलता है। इस गांव में मोबाईल फ़ोन काम नहीं करता। एक व्यक्ति ने डब्लु एल एल कनेक्शन लेकर पीसीओ खोल रखा है, आवश्यकता होने पर उसी से बात होती है। 
आदिवासी बच्चों के बनाए चित्र दिखाते हुए
प्रोफ़ेसर खैरा कुटिया से बाहर आते हैं उनके हाथों में बहुत सारे बच्चों के बनाए चित्र हैं  जिन्हें मुझे दिखाते हैं। चित्रों में आदिवासी जनजीवन की कहानियाँ  चित्रित हैं, जो रोजमर्रा में घटित होता है वही उनके चित्रों का विषय है। मछली पकड़ना। पेड़ काटना, शिकार करना। जंगली जानवरों के चित्र, जिन्हें वे अपने आस पास हमेशा देखते हैं। बच्चों ने अपनी कलम से सारा जहान रच डाला है। चित्रों से दिखाई देता है कि उन्हें रंगो की कितनी समझ है। रंग बिरंगे फ़ूलों के साथ रंग बिरंगी चहचहाती चिड़िया और काली बिल्ली भी बनाई हुई है। प्रोफ़ेसर खैरा चिंता व्यक्त करते हुए कहते हैं - सरकार वन ग्रामों को राजस्व ग्रामों में बदल रही है। इसके विषय में कुछ करना होगा। आप भी लिखिए और मैं भी कुछ प्रयास करता हूँ। 
लमनी के गांधी प्रोफ़ेसर खैरा
गांधीवादी विचारों से ओत प्रोत व्यक्ति दिल्ली जैसी सर्वसुविधायुक्त राजधानी को छोड़ कर अचानकमार के लमनी जैसे गाँव में बैगा आदिवासियों के बीच रह कर उनके विकास के लिए कार्य कर रहा है, यह आज के जमाने में बड़ी बात है। जहाँ मोबाईल फ़ोन, बिजली, डॉक्टर जैसी सामान्य सुविधा उपलब्ध नहीं है, वहाँ बैगा आदिवासियों के साथ उनके जैसी ही झोपड़ी में रहकर उनके दुख दर्द को समझा जा सकता है। कहते हैं कि प्रोफ़ेसर खैरा बैगा आदिवासियों के लिए प्रशासनिक स्तर से लेकर न्यायालय स्तर तक लड़ाई लड़ते हैं। आदिवासियों के स्वास्थ्य, शिक्षा एवं विस्थापन के मुद्दे पर उन्होने 25 वषों तक उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर सफ़र तय किया है। हमारी गाड़ी के टायर में हवा भर जाती है और हम उनसे पुन; मिलने का वादा करके विदा लेते हैं।  सफ़र जारी है……… आगे पढें

मंगलवार, 3 जून 2014

अचानकमार: बायसन ( गौर) से साक्षात्कार


बिलासपुर वन प्रभाग का उत्तर पश्चिमी वन विकास खण्‍ड, अचानकमार वन्‍य जीवन अभयारण्‍य भारत का एक समृद्ध अभयारण्‍य है। अचानकमार नाम कुछ अजीब सा लगता है, मैने इसके नामकरण के विषय में जानना चाहा तो प्राण चडडा  कहते हैं - "इस नाम के पीछे कई किंवदंतियाँ हैं। जैसे किसी ने शेर को अचानक मार दिया इसलिए लिए अचानकमार नाम पड़ा। इससे संबंध एक किंवदन्ति है कि वनवासियों ने आवास के लिए अचानक जंगल काट डाला इसलिए अचानकमार कहा जाने लगा।" वैसे नाम के साथ पुर जुड़ने पर यह नाम अधिक पुराना नहीं लगता है। फ़िर भी नाम के प्रति जिज्ञासा बनी रहती है। 
 अभ्यारण्य का छपरवा गाँव
"राहुल सिंह कहते हैं कि अचानकमार शब्‍द स्‍पष्‍टतः ‘अचानक’ और ‘मार’, इन दो शब्‍दों से मिल कर बना है। अचानक के साथ पुर जुड़कर छत्‍तीसगढ़ में जंगली इलाकों में ग्राम नाम बनते हैं- अचानकपुर। ध्‍यान देने योग्‍य है कि पुर शब्‍द भी यहां पुराने प्रचलन का नहीं है। अब दूसरे शब्‍द ‘मार’ के बारे में सोचें। मार या इससे जुड़े एकदम करीब के शब्‍द हैं- सुअरमार या सुअरमाल, बाघमड़ा, भालूमाड़ा, अबुझमाड़ (अबुझ भी अचानक की तरह ही अजनबी सा शब्‍द लगता है), जोगीमारा (सरगुजा), प्राचीन स्‍थल माड़ा (सीधी-सिंगरौली में कोरिया जिले की सीमा के पास)। इन पर विचार करने से स्‍पष्‍ट होता है कि ‘मार’ या इसके करीब के शब्‍द पहाड़, पहाड़ी गुफा, स्‍थान (जिसे ठांव, ठांह या ठिहां भी कहा जाता है) जैसा कुछ अर्थ होगा, मरने-मारने से खास कुछ लेना-देना नहीं है इस शब्‍द का।"
"दियाबार" जंगल को जाता हुआ वन मार्ग
अचानकमार का वन क्षेत्र तो सहस्त्राब्दियों पुराना है पर इसे अभ्यारण्य के तौर पर 1975 में तैयार किया गया था। फ़िर इसे टायगर रिजर्व क्षेत्र घोषित किया गया और यह संरक्षित क्षेत्र हो गया।  वन विभाग के अनुसार 557.55 वर्ग किलो मीटर के क्षेत्रफल में फ़ैले इस अभ्यारण्य में अनेक प्रकार के वन प्राणी पाए जाते हैं जिनमें चीतल, जंगली भालू, तेंदुआ, बाघ, पट्टीदार हाईना (लकड़ बग्घा) भेड़िया, जंगली कुत्ते, चार सिंग वाले एंटीलॉप, चिंकारा, ब्लैक बग, जंगली सुअर के साथ अनेक प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं। यहाँ बाघों की संख्या सर्वाधिक मानी जाती है। फ़रवरी 2011 में यहाँ दुर्लभ काला तेंदुआ मिला। जिसकी जानकारी वाईल्ड लाईफ़ ऑफ़ इंडिया की टीम के कैमरों से हुई। जहाँ आमतौर पर रोशनी नहीं पहुंच पाती वहीं काले तेंदुए पाए जाते हैं। अचानकमार जंगल के एक भाग को "दियाबार" जंगल कहा जाता है। इससे साबित होता है कि यह जंगल इतना घना है कि दिन के समय भी देखने के लिए दीए का सहारा लेना पड़ता है।
मैकूमठ - स्मृति
रास्ते में एक स्मारक दिखाई देता है जिस पर "मैकू मठ" लिखा हुआ है। हम गाड़ी रोकते हैं और मैकू मठ की फ़ोटो लेते हैं। अचानकमार वन के लिए मैकू का मठ महत्वपूर्ण है क्योंकि मैकू ने वन संरक्षण कर्तव्य का निर्वहन करते हुए प्राण गंवाए थे। मठ पर लिखा है कि "यहाँ मैकू गोंड़ फ़ायर वाचर को आदमखोर शेरनी ने ता 10/4/1949 को मारा था, जिसे ता 13/4/1949 को श्री एम डब्लू के खोखर रेंज ऑफ़िसर कोटा ने मरी पर बैठकर गोली से मारा।" यह स्थान अभी भी शेरों का ही है। शेर पीढी दर पीढी अपना इलाका नहीं छोड़ते। प्राण चड्डा जी कहते है कि अभी अचानकमार में लगभग 13 शेरों की उपस्थिति दर्ज की गई है। कुछ शेरों की फ़ोटो वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इण्डिया (डब्ल्यू डब्ल्यू आई) की टीम ने बाघों की गणना के लिए लगाए गए कैमरों से ली हैं। कुछ की गणना पदचिन्हों के आधार पर की गई है। 
ऐसा ही होता है टाईगर ;)
अचानकमार अभ्यारण्य में अधिकतर बैगा आदिवासी निवास करते हैं। जिनका जीवन वनोपज पर ही आधारित है। इस वन को टायगर रिजर्व घोषित करने के बाद इनके जीवन पर संकट मंडरा रहा है। क्योंकि सरकार इनका विस्थापन वन क्षेत्र के बाहर करना चाहती है। अचानकमार वन्य प्राणी अभ्यारण्य के कोर एरिया में बैगाओं के 25 गांव प्रभावित हुए हैं। पहले चरण के विस्थापन का प्रारंभ वन विभाग ने छह गांव जल्दा, कूबा, सांभरधसान, बोकराकछार, बांकल, बहाउड़ से किया। परन्तु विस्थापन के नियमों के पालन नहीं करने का आरोप इन पर लगते रहा। विस्थापित किए गए बैगाओं को वे सुविधाएं नहीं मिली जिनका दावा किया जाता रहा है। दूसरे चरण में अन्य गाँवों को विस्थापित किया जाना है परन्तु विस्थापन के लिए सरकार के पास न जमीन है न पैसा। कुल मिलाकर विस्थापन अधर में लटका हुआ है और इसके साथ विस्थापित होने वालों की जान भी सांसत में है।
बैगा परिवार 
आगे चलकर छपरवा गाँव आता है, जहाँ वन विभाग का विश्राम गृह होता था। अब इसे बंद कर दिया गया है तथा रात रुकना प्रतिबंधित कर दिया गया है। यहाँ से अमरकंटक 55 किलोमीटर की दूरी पर है। छपरवा से आगे बढने के बाद घाट की चढाई पड़ती है, मैं तो अपनी बातों में मशगूल था, अचानक तिलाई डबरा के पास प्राण चड्डा की निगाह सड़क के किनारे पड़ती है और वे गाड़ी रोकने का इशारा करते हैं। सड़क के किनारे खाई में एक बायसन (गौर) पत्ते चरता हुआ दिखाई देता है। हम बिना आवाज किए उसके कुछ चित्र लेते हैं। घनी झाड़ियों के बीच मेहनत करने के बाद कुछ चित्र ही अच्छे लेने में सफ़ल होते हैं। प्राण चड्डा कहते हैं - इसे देखने के लिए लोग आते हैं और 4-5 दिन घूमने के बाद भी दिखाई नहीं देता, हम लोगों को सहज ही सड़क के किनारे चलता हुआ मिल गया, यात्रा सफ़ल हो गई। 
अचानकमार का बायसन (गौर)
बायसन (गौर) संरक्षित प्रजाति का पशु है, यह उष्णकटिबंधिय क्षेत्र में पाया जाता है। आकार में बड़ा होने के साथ संवेदनशील होता है। इसका वजन 700 से 1500 किलोग्राम तक हो सकता है। इसकी मुख्य पहचान घुटने तक सफ़ेद मोजे, बड़े सींग, काल रंग अंतर जोड़ों पर गहरा भूरा रंग लिए, मुंह और माथा सफ़ेद होना है। यह घास, पत्तियां, टहनियाँ खाकर अपना पेट भरता है। इसे जान का खतरा लगने पर हमला कर देता है, शेर भी इसे देखकर पीछे हट जाते हैं। 25 वर्षों पूर्व एक वनविभाग के अधिकारी ने समीप से फ़ोटो खींचनी चाही तो उसे हमला कर के जान से मार डाला। इसे दूर से ही देखने में भलाई है। मुफ़्त में खतरा मोल नहीं लेना चाहिए। बस्तर के माड़िया आदिवासी गौर सींग से बने मुकुट को पहन कर परम्परागत गौर नृत्य करते हैं। कारवां आगे बढ रहा है, सफ़र जारी है……… आगे पढें

सोमवार, 2 जून 2014

प्राण चड्डा: अचानकमार के प्राण

प्रारंभ से पढें

चानकमार वन में प्रवेश करते ही साल वृक्ष के फ़ूलों की गमक ने हमारा स्वागत किया। महुआ फ़ूल के बाद मई माह में साल(सरई) बीज चुनने का समय आता है। छत्तीसगढ़ के लगभग सभी इलाकों में सरई के वृक्ष हैं।राहुल सिंह कहते हैं कि साल का वृक्ष 100 साल बड़ा, 100 साल खड़ा एवं 100 साल तक पड़ा रहता है। अर्थात इसे तैयार होने में 100 साल लगते हैं, सौ साल तक खड़ा रहता है। यदि यह गिर जाता है तो 100 साल तक पड़ा रहता है अर्थात साल वृक्ष की उम्र 300 साल होती है, इस लकड़ी की नमी सूखती नहीं है। इमारती लकड़ी के तौर पर साल की लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता है। भीतर की नमी इसकी उम्र बढाती है। 
बारी घाट अचानकमार
आदिवासियों का जीवन वनोपज पर आधारित होता है। वे सरई फ़ूल चुनते हैं। इसे फ़ोड़ कर बीज निकाला जाता है और उसे बाजार में बेचा जाता है। इनकी आमदनी का एकमात्र माध्यम वनोपज संग्रहण ही है। वनोपज की खरीदी वन समितियों के माध्यम से की जाती है। सरई बीज का निर्यात विदेशों में होता है। जापान इंग्लैंड इत्यादि में नारियल के मक्खन एवं चाकलेट में इसका उपयोग होता है। भारत में खाद्य पदार्थों में इसका मिश्रण नहीं किया जाता इसलिए साल बीज का प्रसंस्करण कर तेल निकाला जाता है। साल वृक्ष का गोंद जलाने पर मनमोहक खुश्बू देता है। इसका प्रयोग धूपबत्ती बनाने में किया जाता है। 
सरई (साल) फ़ूल
जिंदादिल व्यक्तित्व के धनी प्राण चड्डा जी का अचानकमार के जंगलों से जुड़ाव आधी सदी पुराना है, पहले पिताजी के साथ शिकारी के रुप में, अब वन्य प्राणी संरक्षक के रुप में। ये इस वन के चप्पे चप्पे से वाकिफ़ हैं। कहते हैं "मेरी पहली पीढी ने जो शिकार किए हैं मैं प्रायश्चित कर रहा हूँ, अब 30 वर्षों से उनकी सुरक्षा कर रहा हूँ।" चड्डा जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में लम्बा सफ़र तय किया है, वे 15 वर्षों तक  बिलासपुर दैनिक भास्कर के संस्थापक सम्पादक भी रहे हैं। साथ ही 3 वर्षों तक दैनिक भास्कर के प्रबंधक के तौर पर भी कार्य किया। 
सरई बीजा
जंगल से इनका लगाव दीवानगी की हद तक है, वर्तमान में इनका पूरा ध्यान जंगल एवं पर्यावरण बचाने पर है। असर वन विभाग के कर्मचारियों एवं अधिकारियों पर भी दिखाई देता है। वे सप्ताह में एक बार तो इस अभ्यारण्य का दौरा कर लेते हैं। जिससे वन विभाग के अधिकारी एवं कर्मचारी सतर्क रहते हैं। वे 20 वर्षों से वाईल्ड लाईफ़ एडवायजरी बोर्ड सदस्य हैं। पत्रकारिता का धर्म निभाते हुए इन्होने कलम के माध्यम से वन्य प्राणी एवं वन सरंक्षण के मुद्दे उठाए हैं। जिनकी चर्चा शीर्ष स्तर तक हुई है। चड्डा जी के साथ वनों पर चर्चा करते सफ़र कटते जा रहा था और मेरा ज्ञानार्जन भी हो रहा था। 
वन्य प्राणी संरक्षक प्राण चड्डा जी
सच है एक जमाना था जब शिकार के शौकीन हफ़्तों महीनों का राशन लेकर लवा जमा के साथ शिकार करने के लिए जंगलों की खाक छानते थे और जो शिकार मिल जाता था उसकी ट्राफ़ी बनवा कर अपने घरों में सजाते थे। शिकार करना अभिजात्य वर्ग का फ़ैशन था और वनवासियों के उदर पोषण का माध्यम भी। साथ ही पेड़ भी कटते गए जिससे जैविक संतुलन बिगड़ने लगा और वन से वन्य प्राणी गायब होने लगे। इसका खामियाजा वर्तमान पीढी को भुगतना पड़ रहा है। अभी भी अचानकमार बस्ती तक पहुंचने पर सितम्बर अक्टुबर में सामान्य शहरी को गर्म कपड़ों की आवश्यकता पड़ जाती है। नवम्बर दिसम्बर में तो कड़ाके की ठंड पड़ती है। 
बजरंग केडिया जी (फ़ोटो-प्राण चड्डा जी से साभार)
चड्डा जी बता रहे थे कि बारीघाट लगभग डेढ किलोमीटर है पर गाड़ियों का दम निकाल देता है। बारी घाट समाप्त होने पर प्रकृति का खूबसूरत नजारा देखने मिलता है। साल के वृक्षों के बीच दुनिया की सबसे बड़ी घास बाँस के झुरमुट हरियाली बनाए हुए हैं। कार बजरंग केडिया जी के आम्रवन के आमों की खुश्बू से गमक रही थी। खुश्बू से लगता था कि आज का दिन बन गया। घाट पर कुछ चित्र खींचे गए। चित्रों के प्रति चड्डा जी काफ़ी संवेदनशील हैं। साथ ही आधी सदी के फ़ोटोग्राफ़ी के अनुभव ने इन्हें अच्छा फ़ोटोग्राफ़र भी बना दिया। अनुभव तो कहीं किताबों में मिलता नहीं, उसके लिए जीना पड़ता है। सतत जीवंत अभ्यास बनाए रखना होता है। …… आगे पढें