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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अभनपुर जंक्शन: सवा सौ बरस पुरानी रेल

रायपुर से चलनी वाली छुकछुक रेलगाड़ी (नेरोगेज) वर्तमान में राजिम एवं धमतरी तक का सफ़र तय करती है। देश में अन्य स्थानों पर तो अमान परिवर्तन हो गया परन्तु हमारे यहाँ अभी भी चल रही है। पहले स्टीम इंजन था अब डीजल इंजन चलता है। रायपुर राजधानी बनने के बाद इस ट्रेन के यात्रियों में बेतहाशा वृद्धि हुई। राजधानी में नवनिर्माण होने लगे तो धमतरी एवं राजिम से काम करने के लिए कम खर्च में इसी ट्रेन से रायपुर तक का सफ़र तय करते हैं। यह ट्रेन अपनी शताब्दी पूर्ण कर चुकी है। यह क्षेत्र वन सम्पदा से भरपूर था और उसके दोहन के लिए अंग्रेजों ने रेल लाईन बिछाई।

इस मार्ग पर 1896 में 45.74 मील लंबी रेल लाइन बनाने का काम शुरू हुआ, जो 5 साल बाद 1901 में पूरा कर लिया गया। यह रेल लाइन ब्रिटिश इंजीनियर एएस एलेन की अगुवाई में में बनाई गई। छत्तीसगढ़ में अकाल के दौरान ग्रामीणों को रोजगार देने के नाम पर इस रेल लाईन का निर्माण किया गया। बताते हैं कि धमतरी मार्ग पर नगरी तक रेल पटरियां बिछाई गई और राजिम मार्ग पर गरियाबंद के जंगलों तक। इसके परिचालन के लिए महानदी पर लकड़ी का पुल बनाया गया। तब कहीं जाकर यह ट्रेन गरियाबंद के जंगलों तक पहुंची। इस ट्रेन के माध्यम से वन संपदा का दोहन युद्ध स्तर पर किया गया। पहले इसे ग्रामीण "दू डबिया गाड़ी" कहते थे। शुरुवाती दिनों में इसमें दो डिब्बे लगाकर ही चलाया जाता था। ग्रामीण इसके इंजन की सीटी सुन कर समय का पता लगाते थे। इसमें भाप का ईंजन 1980 तक चला। इसके बाद डीजल के इंजन लगे और सफ़र थोड़ी अधिक गति से होने लगा। 

सैकड़ों साल पहले रेल परिचालन किस तरह से होता है अगर यह जानना है तो इस छोटी ट्रेन का सफ़र करना चाहिए। यातायात के उसी साधनों का प्रयोग आज भी किया जाता है जो सैकड़ों साल पहले किया जाता था। ट्रेन का ड्रायवर आज भी गोला बंधा रिंग फ़ेंकता है जिसे लोहे की मशीन में डाल कर दो बड़ी चाबियाँ लगा कर फ़िर फ़ोन किया जाता है तब लाईन क्लियर की जाती है। सड़क मार्ग के गेट आज उन बड़ी चाबियों से खुलते हैं। इस मार्ग पर अभनपुर महत्वपूर्ण जंक्शन है। यहाँ से राजिम एवं धमतरी के लिए रेलमार्ग पृथक हो जाता है। स्टेशन पर आज भी वैसा ही है जैसा सवा सौ साल पहले था, रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। सिर्फ़ टिकिट देने वाली मशीन की जगह अब कम्पयूटर लग गया है। डीजल इंजन लगने के कारण पानी की टंकियाँ हटा दी गई हैं। पूर्व राष्ट्रपति अब्दूल कलाम जब डी आर डी ओ के हेड थे तब उन्होने अपनी एक गोपनीय यात्रा इस ट्रेन द्वारा रायपुर से धमतरी तक की थी। 

अब इस ट्रेन के दिन भी लदने वाले हैं। रायपुर से रेल्वे स्टेशन से हटा कर अब इसका परिचालन तेलीबांधा से किया जा रहा है। नई राजधानी से केन्द्री तक बड़ी रेल लाईन बिछाने का कार्य युद्ध गति से चल रहा है और समाचार मिला है कि केन्द्री से धमतरी तक भी इसका अमान परिवर्तन कर नेरोगेज को ब्राड गेज में तब्दील किया जाएगा। परन्तु छोटी गाड़ी के सफ़र का आनंद ही अलग है। इसे नए रायपुर में लोकल ट्रेन जैसे चलाना चाहिए। जिससे आने वाले पर्यटक सुबह शाम राजधानी भ्रमण का आनंद इस ट्रेन के माध्यम से कर सकें। वैसे इस ट्रेन के बंद होने में साल भर तो लग सकता है तब तक इसकी यात्रा का आनंद उठाया जा सकता है।

सोमवार, 27 सितंबर 2010

काले कोट वाले सर--------ललित शर्मा

“साहब सिर्फ़ एक बर्थ दे दीजिए,छोटे बच्चे साथ में हैं,मुंबई तक जाना है, प्लीज”- एक यात्री काले कोट वाले साहब के सामने गिड़ गिड़ा रहा था। उसके पीछे 15 लोगों की लाईन और लगी हुई थी। टी टी साहेब गर्दन ऊंची किए पेट में हवा भर कर जवाब दे रहे थे-
“कोई सीट खाली नहीं है, आप लोग पीछा छोड़िए, जाईए जनरल बोगी में बैठिए।”
“चार्ट देखिए न सर, एक सीट तो मिल जाएगी। आप जो कहेंगे वो दे दुंगा।“- एक ने कहा।
“जाईए आप अपनी सीट पर बैठिए, मैं आपसे वहीं सम्पर्क कर लुंगा।“-काले कोट वाले ने कहा।
“सर मेरा आर ए सी है”,
“अरे मेरे को पहले चार्ट तो देखने दीजिए, अभी नहीं बता सकता मैं कु्छ। दो स्टेशन बाद सम्पर्क कीजिए।“ काले कोट वाले ने जवाब दिया।
ट्रेन चल पड़ी, सवारी जहां तहां एडजेस्ट होने की कोशिश करती रही। टीटी महोदय ट्रेन मेन टिकिट चेक करते रहे। फ़िर उस सवारी से बोले-“एसी वन में आ जाना वहीं बना दुंगा।“-इतना कह कर टी टी चल पड़ा। मतलब इशारा हो चुका था कि उसके पास सीट है और एसी तक आने का मतलब कुछ ज्यादा जेब ढीली करने वाले ही सम्पर्क करें।
थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति जल्दी-जल्दी आया और बीबी से बोला-“सामान उठाओ और चलो एस-6 में दी है सीट, साले ने 600 ले लिए।“
थोड़ी देर बाद वह डिब्बे में फ़िर आता है तो वह आर ए सी वाला कहता है-“ सर मेरा आर ए सी है, क्लीयर हो गया क्या?”
“शांति रखिए रात 8 बजे तक क्लीयर हो जाएगा। अभी तो बैठिए आप सीट पर”
हम जब भी सफ़र में जाते हैं तो यह नजारे आम ही दिख जाते हैं। जब काले कोट वाले रेल के मालिक सवारियों को खुले आम लुटते हैं और रिजर्वेशन ना हो तो अफ़सर हो या नेता या फ़िर आम आदमी सब इस काले कोट वाले रेल भगवान के सामने जोजियाते रहते हैं, पुष्प पत्र लेकर मनुहार करते है,फ़िर इनका भाव देखिए,ये सलाम सिर्फ़ रेल मंत्रालय वालों को ही करते हैं। बस उसके बाद भगवान को भी नहीं।
रेल मंत्रालय ने सारा जोर लगा लिया लेकिन काले कोट वालों की काट नहीं निकाल सका। ये ट्रेन में बिना नेम प्लेट के ही वसूली करते हैं। बैज भी नहीं रखते कि कोई पढ कर शिकायत न कर दे। जब ट्रेन स्टेशन से छूट गयी और कम्प्युटर से चार्ट निकल गया तो आखरी स्टेशन तक ट्रेन के मालिक यही हैं।
एक बार मैने इनकी शिकायत सीनियर डीसीएम से की। ये सीधे उनके ही विभाग का मामला है। तो उन्होने कहा कि “महाराज, इनसे भिड़ना बहुत मुस्किल है, आप कहते हैं तो उसे मैं सस्पेंड कर देता हूँ लेकिन ये सुधरने वाले नहीं है और जबरिया मेरी भी शिकायत किसी सांसद से करवा देगें। सभी इनको ट्रेन में मिलते हैं बस थोड़ी सी सेवा चाकरी की और वहीं लेटर पेड पर लिखवा लेगें।“ इनका क्या किया जाए?
अब रेल्वे के एक उच्चाधिकारी का यह कहना है तो क्या किया जा सकता है? एक बार तो मैने देखा कि एक टी टी रायपुर से बिना रिजर्वशन  कई सवारियों को दिल्ली तक ले गया, रास्ते में किसी ने चेकिंग नहीं की, सवारी जनरल टिकिट पर रिजर्वेशन बोगी में चढ के आराम से निजामुद्दीन पहुंच गयी।
ये काले कोट वाले रेल के असली मालिक हैं, मंत्रालय और प्रशासनिक तंत्र ट्रेन के चलने के बाद काम करना बंद कर देते हैं। रेल इनके हवाले हो जाती है, कितनी ही कम्पयुटर की व्यवस्था कर ली जाए, ट्रेन चलते ही सारे सिस्टम फ़ेल हो जाते हैं। इनकी जो मर्जी है वही करते हैं। आर ए सी वाले को भी सीट नहीं मिल पाती और जनरल की टिकिट वाले आराम से 1500 किलोमीटर का सफ़र सोते हुए तय कर लेते हैं। रेल्वे की काले कोट वाली व्यवस्था को नमन है, इसके अलावा कर ही क्या सकते हैं?

रविवार, 20 सितंबर 2009

पेंट्रीकार: चलता फिरता बीमारी का घर


पैसेंजर्स सर्विसेस कमेटी के अध्यक्ष डेरेक ओब्रायन ने आज कहा कि रेलवे स्टेशन का खाना थर्ड क्लास है। ये भारत के स्टेशनों का दौरा कर रहे हैं तथा इसकी रिपोर्ट रेल मंत्री को की जायेगी।  

ये बात इन्होंने बिलासपुर में एक पत्रकार वार्ता में कही। रेल की पेंट्रीकार एक चलता फिरता बीमारी का घर हैं, जो पुरे भारत में बीमारी बाँटते फिर रही है। 

कुछ अन्य बीमारी नहीं तो पीलिया और टी.बी. जरुर बाँट जायेगी। स्टेशनों पर भी जो खाना मिलता हैं वो खाने के लायक हैं ही नही। 

ट्रेन में पेंट्री वाले तय कीमत से ज्यादा में खाना और अन्य सामान यात्रियों को बेच रहे हैं, जो कि सीधी-सीधी लुट है। शिकायत करो तो कहते हैं कि रेल मंत्री को भी बोल दो कुछ नही होने वाला। 

पेंट्रीकार के किचन में कितनी गंदगी होती हैं?अगर कोई जा कर देखेगा तो उसका खाना खाने की हिम्मत ही नही करेगा। 

अभी कुछ दिन पहले एक न्यूज चेनल दिखा रहा था कि हापुड स्टेशन में पोस्टर कलर का दूध बना कर चाय बेची जा रही है। 
८ रूपये में २० लीटर दूध बनता है। जो पीने पर एक बार में ही किडनी फेल कर देगा, पर रेलवे के अधिकारियों को अपनी ऊपर की कमाई से मतलब है, यात्रियों की सेहत से कोई लेना देना नहीं, 

यात्री को मजबूरी में यहाँ का खाना लेना ही पड़ता है। मरता क्या न करता, रेल सुविधाओं कि तरफ रेलमंत्री को विशेष ध्यान देना चाहिए और जवाबदेही तय करनी चाहिए। 

पैसेंजर्स सर्विसेस कमेटी के अध्यक्ष डेरेक ओब्रायन घटिया खाने कि बात स्वयं स्वीकार कर रहे हैं। रेल के खान-पान विभाग में भी माफिया का बोल बाला है, कई तो ऐसे-ऐसे वेंडर हैं जो बरसों से जमे है। 

किसी नए आदमी को इस सिस्टम में घुसने ही नही देते। इनकी रेल अधिकारियों से इतनी सेटिंग हैं कि चाहे सरकार बदल जाए, रेल मंत्री बदल जाए, मगर इनकी ठेकेदारी नहीं बदलती। 

जो अधिकारी इन पर सिकंजा कसता है वह अधिकारी जरुर बदल जाता है। पता नही रेल के खान-पान व्यवस्था के दिन कब बहुरेंगे।