बुधवार, 31 अगस्त 2016

अजंता की गुफ़ाओं की सैर

अजंता (अजिंठा लेणी) की दूरी एलोरा से लगभग 101 किलोमीटर है, हम एलोरा से घाट चढ़ कर अजंता पहुंचे। जो एलोरा देखने जाता है वह अजंता भी पहुचता है। मेरी यह यात्रा 1994 के दौरान की है, और चित्र भी उसी समय के रोल कैमरे से खींचे गए हैं।

यहाँ चट्टानों को काटकर बनाए गए बौद्ध गुफ़ा मंदिर व मठ, अजंता गाँव के समीप, उत्तर-मध्य महाराष्ट्र, पश्चिमी भारत में स्थित है, जो अपनी भित्ति चित्रकारी के लिए विख्यात है।

औरंगाबाद से 107 किलोमीटर पूर्वोत्तर में वगुर्ना नदी घाटी के 20 मीटर गहरे बाएँ छोर पर एक चट्टान के आग्नेय पत्थरों की परतों को खोखला करके ये मंदिर बनाए गए हैं।

गुफ़ाओं के इस समूह की खुदाई पहली शताब्दी ई. पू. और सातवीं शताब्दी के बीच दो रूपों में की गई थी- चैत्य (मंदिर) और विहार (मठ)। यद्यपि इन मंदिरों की मूर्तिकला, ख़ासकर चैत्य स्तंभों का अलंकरण अद्भुत तो है, लेकिन अंजता की गुफ़ाओं का मुख्य आकर्षण भित्ति चित्रकारी है। 

इन चित्रों में बौद्ध धार्मिक आख्यानों और देवताओं का जितनी प्रचुरता और जीवंतता के साथ चित्रण किया गया है, वह भारतीय कला के क्षेत्र में अद्वितीय है।
अजंता की गुफ़ांए
घोड़े के नाल की आकार की अजंता लेणी
अजंता की गुफाएं बौद्ध धर्म द्वारा प्रेरित और उनकी करुणामय भावनाओं से भरी हुई शिल्‍पकला और चित्रकला से ओतप्रोत हैं, जो मानवीय इतिहास में कला के उत्‍कृष्‍ट ज्ञान और अनमोल समय को दर्शाती हैं।

बौद्ध तथा जैन सम्‍प्रदाय द्वारा बनाई गई ये गुफाएं सजावटी रूप से तराशी गई हैं। फिर भी इनमें एक शांति और अध्‍यात्‍म झलकता है तथा ये दैवीय ऊर्जा और शक्ति से भरपूर हैं।

दूसरी शताब्‍दी डी. सी. में आरंभ करते हुए और छठवीं शताब्‍दी ए. डी. में जारी रखते हुए महाराष्ट्र में औरंगाबाद शहर से लगभग 107 किलो मीटर की दूरी पर अजंता की ये गुफाएं पहाड़ को काट कर विशाल घोड़े की नाल के आकार में बनाई गई हैं।

अजंता में 29 गुफाओं का एक झुंड बौद्ध वास्‍तुकला, गुफा चित्रकला और शिल्‍प चित्रकला के उत्‍कृष्‍तम उदाहरणों में से एक है।

इन गुफाओं में चैत्‍य कक्ष या मठ है, जो भगवान बुद्ध और विहार को समर्पित हैं, जिनका उपयोग बौद्ध भिक्षुओं द्वारा ध्‍यान लगाने और भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का अध्‍ययन करने के लिए किया जाता था।

गुफाओं की दीवारों तथा छतों पर बनाई गई ये तस्‍वीरें भगवान बुद्ध के जीवन की विभिन्‍न घटनाओं और विभिन्‍न बौद्ध देवत्‍व की घटनाओं का चित्रण करती हैं।

इसमें से सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण चित्रों में जातक कथाएं हैं, जो बोधिसत्व के रूप में बुद्ध के पिछले जन्‍म से संबंधित विविध कहानियों का चित्रण करते हैं, ये एक संत थे जिन्‍हें बुद्ध बनने की नियति प्राप्‍त थी।

ये शिल्‍पकलाओं और तस्‍वीरों को प्रभावशाली रूप में प्रस्‍तुत करती हैं जबकि ये समय के असर से मुक्‍त है। ये सुंदर छवियां और तस्‍वीरें बुद्ध को शांत और पवित्र मुद्रा में दर्शाती हैं।
अजंता की गुफ़ांओं में ललित शर्मा
लेखक के पार्श्व में अजंता लेणी
सह्याद्रि की पहाडि़यों पर स्थित इन गुफाओं में लगभग 5 प्रार्थना भवन और 25 बौद्ध मठ हैं। इन गुफाओं की खोज आर्मी ऑफिसर जॉन स्मिथ व उनके दल द्वारा सन् 1819 में की गई थी। 

वे यहाँ शिकार करने आए थे, तभी उन्हें कतारबद्ध 29 गुफाओं की एक शृंखला नज़र आई और इस तरह ये गुफाएँ प्रसिद्ध हो गई।

घोड़े की नाल के आकार में निर्मित ये गुफाएँ अत्यन्त ही प्राचीन व ऐतिहासिक महत्त्व की है। इनमें 200 ईसा पूर्व से 650 ईसा पश्चात तक के बौद्ध धर्म का चित्रण किया गया है। 

अजंता की गुफाओं में दीवारों पर ख़ूबसूरत अप्सराओं व राजकुमारियों के विभिन्न मुद्राओं वाले सुंदर चित्र भी उकेरे गए है, जो यहाँ की उत्कृष्ट चित्रकारी व मूर्तिकला के बेहद ही सुंदर नमूने है।

अजंता की गुफाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है। एक भाग में बौद्ध धर्म के हीनयान और दूसरे भाग में महायान संप्रदाय की झलक देखने को मिलती है। हीनयान वाले भाग में 2 चैत्य और 4 विहार है तथा महायान वाले भाग में 3 चैत्य और 11 विहार है।

ये 19वीं शताब्दी की गुफाएँ है, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं की मूर्तियाँ व चित्र है। हथौड़े और छैनी की सहायता से तराशी गई ये मूर्तियाँ अपने आप में अप्रतिम सुंदरता को समेटे है।
अजंता की गुफ़ांए
अजंता की गुफ़ांए

अजन्ता में निर्मित कुल 29 गुफाओं में वर्तमान में केवल 6 ही, गुफा संख्या 1, 2, 9, 10, 16, 17 शेष है। इन 6 गुफाओं में गुफा संख्या 16 एवं 17 ही गुप्तकालीन हैं। अजन्ता के चित्र तकनीकि दृष्टि से विश्व में प्रथम स्थान रखते हैं।

इन गुफाओं में अनेक प्रकार के फूल-पत्तियों, वृक्षों एवं पशु आकृति से सजावट का काम तथा बुद्ध एवं बोधिसत्वों की प्रतिमाओं के चित्रण का काम, जातक ग्रंथों से ली गई कहानियों का वर्णनात्मक दृश्य के रूप में प्रयोग हुआ है।

ये चित्र अधिकतर जातक कथाओं को दर्शाते हैं। इन चित्रों में कहीं-कही गैर भारतीय मूल के मानव चरित्र भी दर्शाये गये हैं। अजन्ता की चित्रकला की एक विशेषता यह है कि इन चित्रों में दृश्यों को अलग अलग विन्यास में नहीं विभाजित किया गया है।

अजन्ता में 'फ़्रेस्को' तथा 'टेम्पेरा' दोनों ही विधियों से चित्र बनाये गए हैं। चित्र बनाने से पूर्व दीवार को भली भांति रगड़कर साफ़ किया जाता था तथा फिर उसके ऊपर लेप चढ़ाया जाता था।

अजन्ता की गुफा संख्या 16 में उत्कीर्ण ‘मरणासन्न राजकुमारी‘ का चित्र प्रशंसनीय है। इस चित्र की प्रशंसा करते हुए ग्रिफिथ, वर्गेस एवं फर्गुसन ने कहा,- ‘करुणा, भाव एवं अपनी कथा को स्पष्ट ढंग से कहने की दृष्टि‘ यह चित्रकला के इतिहास में अनतिक्रमणीय है। 
अजंता की गुफ़ांए
अजंता की गुफ़ाओं का अनुपम दृश्य
वाकाटक वंश के वसुगुप्त शाखा के शासक हरिषेण (475-500ई.) के मंत्री वराहमंत्री ने गुफा संख्या 16 को बौद्ध संघ को दान में दिया था। 

गुफा संख्या 17 के चित्र को ‘चित्रशाला‘ कहा गया है। इसका निर्माण हरिषेण नामक एक सामन्त ने कराया था। 

इस चित्रशाला में बुद्ध के जन्म, जीवन, महाभिनिष्क्रमण एवं महापरिनिर्वाण की घटनाओं से संबधित चित्र उकेरे गए हैं। 

गुफा संख्या 17 में उत्कीर्ण सभी चित्रों में माता और शिशु नाम का चित्र सर्वोत्कृष्ट है। अजन्ता की गुफाऐं बौद्ध धर्म की ‘महायान शाखा से संबधित थी।

अजंता की प्रसिद्ध गुफाओं के चित्रों की चमक हज़ार से अधिक वर्ष बीतने के बाद भी आधुनिक समय से विद्वानों के लिए आश्चर्य का विषय है। भगवान बुद्ध से संबंधित घटनाओं को इन चित्रों में अभिव्यक्त किया गया है।

चावल के मांड, गोंद और अन्य कुछ पत्तियों तथा वस्तुओं का सम्मिश्रमण कर आविष्कृत किए गए रंगों से ये चित्र बनाए गए।

लगभग हज़ार साल तक भूमि में दबे रहे और 1819 में पुन: उत्खनन कर इन्हें प्रकाश में लाया गया। हज़ार वर्ष बीतने पर भी इनका रंग हल्का नहीं हुआ, ख़राब नहीं हुआ, चमक यथावत बनी रही।

कहीं कुछ सुधारने या आधुनिक रंग लगाने का प्रयत्न हुआ तो वह असफल ही हुआ। रंगों और रेखाओं की यह तकनीक आज भी गौरवशाली अतीत का याद दिलाती है।

मंगलवार, 30 अगस्त 2016

सरगुजा की कैलाश गुफ़ा


छत्तीसगढ़ प्रदेश का प्राकृतिक सौंदर्य अद्वितीय होने के साथ यहाँ का इतिहास भी उतना ही समृद्ध है। प्रदेश के सरगुजा अंचल हरित वनों, पर्वतों, नदियों का सौंदर्य रमणीय है। प्रत्येक स्थान पौराणिक इतिहास से भरा पुरा है और यहाँ सुरम्यता रमणीय है। रायपुर से हम इस अंचल के कैलाश गुफ़ा क्षेत्र के पर्यटन के लिए चल पड़े। रायपुर से अम्बिकापुर 358 किलोमीटर की दूरी पर है। इस नगर की पूर्व दिशा में सामरबार नामक स्थान पर 80 किलोमीटर की दूरी पर कैलाश गुफ़ा स्थित है। हम अम्बिकापुर से बतौली होते हुए पठार पर पहुंचे, यहाँ से जंगल के रास्ते पर चलते हुए गायबुड़ा नामक ग्राम से बांए सड़क पर चलकर कैलाश गुफ़ा तक पहुंचे। गायबुड़ा से सड़क सीधी पंडरापाट होते हुए बगीचा एवं जशपुर चली जाती है। धार्मिक दृष्टि से भी यह स्थान महत्वपूर्ण है। 

यहाँ आदिवासी समाज के संत रामेश्वर गहिरा गुरु जी ने प्राकृतिक गुफ़ा की चट्टानों को तराश कर वर्तमान रुप दिया है। कैलाश गुफ़ा के नीचे झरना बहता है, जहाँ स्थानीय लोग धार्मिक कर्मकांड सम्पन्न करते हैं। इस स्थान पर आने के पश्चात मन को शांति मिलती है और मनुष्य के प्रकृति से जुड़ जाता है। 

इस स्थान के प्राकृतिक सौंदर्य एवं महत्ता को देखते हुए गहिरा गुरु जी ने अपनी उपासना के लिए चयन किया। सघन वन के बीच आश्रम, गुफ़ाएं, कल-कल करता झरना एवं पक्षियों का मधुर स्वर में आगंतुकों का स्वागत मन को मोह लेता है। ऐसा लगता है कि शहरी भाग दौड़ के से थोड़ा अलग रह कर दो चार दिन इस प्राकृतिक स्थल पर व्यतीत किए जाएं।


प्रकृति से एकाकार होने के लिए यह बहुत ही आदर्श स्थान है। यहाँ श्रद्धालुओं, दर्शनार्थियों एवं पर्यटकों का बारहों मास आना लगा रहता है। यह खुबसूरत स्थान अपने साथ अनेक पौराणिक कथाओं को भी समेटे हुए है। वर्षा काल में इस स्थान की सुंदरता और भी बढ़ जाती है। झरना अपने पूरे यौवन पर होता है, वनांचल में छोटे-मोटे वन्य प्राणी भी दिखाई देते हैं। हमें इस सुंदर स्थान का भ्रमण कर अपूर्व आनंद की अनुभूति हुई। सांझ तक यहाँ रहने के पश्चात हम पंड्रापाट से बगीचा होते हुए मैनपाट के अपने अस्थाई डेरे सैला रिजोर्ट में लौट आए।

सोमवार, 29 अगस्त 2016

अद्भुत शिल्पकारी का अद्भुत नमूना कैलाश मंदिर गुफ़ा एलोरा

भूली बिसरी यादों के पन्नों से एलोरा की कैलाश मंदिर गुफ़ा की आज याद आई। 1994 में मैने कुछ दिन अजंता एवं एलोरा की गुफ़ाएं देखने में बिताए थे। गजब का अनुभव था इन गुफ़ाओं को देखने का। 

एलोरा की गुफ़ाएं तीन प्रकार की हैं 1 -महायानी बौद्ध गुफ़ाएँ, 2 - पौराणिक हिंदू गुफ़ाएँ, 3- दिगंबर जैन गुफ़ाएँ। 
कैलाश मंदिर एलोरा


इन गुफ़ाओं में एक गुफ़ा को 'कैलाश मंदिर' कहा जाता है। मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट शासक कृष्ण प्रथम ने करवया था। यह गुफ़ा शिल्प कला का अद्भुत नमूना है। एक ही चट्टान में काट कर बनाए गए विशाल मंदिर की प्रत्येक मूर्ति का शिल्प उच्च कोटि का है। 

इन गुफ़ाओं से एक किलोमीटर की दूरी पर एलोरा गाँव है। इसी गाँव के नाम पर ये 'एलोरा गुफ़ाएँ' कहलाती हैं।

कैलाश मंदिर एलोरा



एलोरा का कैलाश मन्दिर महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले में प्रसिद्ध 'एलोरा की गुफ़ाओं' में स्थित है। यह मंदिर दुनिया भर में एक ही पत्‍थर की शिला से बनी हुई सबसे बड़ी मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। इस मंदिर को तैयार करने में क़रीब 150 वर्ष लगे और लगभग 7000 मज़दूरों ने लगातार इस पर काम किया। पच्‍चीकारी की दृष्टि से कैलाश मन्दिर अद्भुत है। मंदिर एलोरा की गुफ़ा संख्या 16 में स्थित है। इस मन्दिर में कैलाश पर्वत की अनुकृति निर्मित की गई है।

कैलाश मंदिर एलोरा



एलोरा की गुफ़ा-16 सबसे बड़ी गुफा है, जिसमें सबसे ज़्यादा खुदाई कार्य किया गया है। यहाँ के कैलाश मंदिर में विशाल और भव्‍य नक़्क़ाशी है, जो कि कैलाश के स्‍वामी भगवान शिव को समर्पित है। कैलाश मंदिर 'विरुपाक्ष मन्दिर' से प्रेरित होकर राष्ट्रकूट वंश के शासन के दौरान बनाया गया था। अन्‍य गुफाओं की तरह इसमें भी प्रवेश द्धार, मंडप तथा मूर्तियाँ हैं।


कैलाश मंदिर एलोरा



कैलाश मंदिर को हिमालय के कैलाश का रूप देने में एलोरा के वास्तुकारों ने कुछ कमी नहीं की। शिव का यह दोमंजिला मंदिर पर्वत की ठोस चट्टान को काटकर बनाया गया है और अनुमान है कि प्राय: 30 लाख हाथ पत्थर इसमें से काटकर निकाल लिया गया है। 

एथेंस का प्रसिद्ध मंदिर 'पार्थेनन' इसके आयाम में समूचा समा सकता है और इसकी ऊँचाई पार्थेनन से कम से कम ड्योढ़ी है। कैलाश के भैरव की मूर्ति जितनी भयकारक है, पार्वती की उतनी ही स्नेहशील है और तांडव का वेग तो ऐसा है, जैसा पत्थर में अन्यत्र उपलब्ध नहीं।

कैलाश मंदिर एलोरा


शिव-पार्वती का परिणय भावी सुख की मर्यादा बाँधता है, जैसे रावण का कैलाशत्तोलन पौरुष को मूर्तिमान कर देता है। उसकी भुजाएँ फैलकर कैलाश के तल को जैसे घेर लेती हैं और इतने जोर से हिलाती हैं कि उसकी चूलें ढीली हो जाती हैं और उमा के साथ ही कैलाश के अन्य जीव भी संत्रस्त काँप उठते हैं। फिर शिव पैर के अँगूठे से पर्वत को हल्के से दबाकर रावण के गर्व को चूर-चूर कर देते हैं। 
कैलाश मंदिर एलोरा

कालिदास ने कुमारसंभव में जो रावण के इस प्रयत्न से कैलाश की संधियों के बिखर जाने की बात कही है, वह इस दृश्य में सर्वथा कलाकारों ने प्रस्तुत कर दी है। एलोरा का वैभव भारतीय मूर्तिकला की मूर्धन्य उपलब्धि है। यह मंदिर बहुत खूबसूरत है, शिल्पकारों की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम है। अब पुन: एक बार अंजता एलोरा की गुफ़ाएँ देखने का विचार है।

रविवार, 28 अगस्त 2016

जंगल, हाथी और किसान

प्राचीन काल से छत्तीसगढ के वन हाथियों की आदर्श शरण स्थली रहे हैं। विशेषकर सरगुजा अंचल हाथियों के लिए प्रसिद्ध रहा है। मान्यता है कि इंद्र के एरावत जैसे सुंदर गजों के स्वर यहां के वनों में गूंजने के कारण इस अंचल का नाम सरगजा (surgaja) लोक प्रसिद्ध हुआ। यहां के हाथियों का दर्शन लाभ मुझे भी हुए। अबकि बार की सरगुजा बाईक यात्रा के दौरान प्रतापपुर के घाटपेंडारी में 32 हाथियों के दल की उपस्थिति मिली।

उड़ीसा एव॔ झारखंड से हाथियों के आने-जाने का कारीडोर बना हुआ है । इन तीनो राज्यों मे हाथी स्वच्छन्द विचरण करते हैं। बार नवापारा के जंगल में उड़ीसा से आए हुए एक गजदल ने कुछ वर्षों से स्थाई निवास बना लिया है। जंगल कटने के कारण इनका रहवास क्षेत्र निरंतर छोटा होते जा रहा है। नित्य ही हाथियों और मनुष्यों की आपसी मुड़भेड़ के समाचार मिलते रहते हैं। जिनमें कभी हाथियों के हमले से मनुष्य मारे जाते है तो कभी मनुष्यों के हमले से हाथी। दोनो में आपसी मुड़भेड़ सतत जारी है।

खबर है कि जशपुर क्षेत्र के ठाकुरटोली ग्राम में एक हाथी खेत की सुरक्षा के लिए खींचे गये विद्यूत तारों की चपेट में आकर मारा गया। आज आदमी जीत गया, एक खेत की फसल बचाने में कामयाब रहा और एक हाथी की पुन: बलि हो गयी। विडम्बना है कि दोनों को ही वनवास करना है पर दोनो को ही एक दूसरे की उपस्थिति फूटी आंख भी नहीं सुहा रही। जिसके दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं। ग्रामीण मानते हैं कि हाथी उनके क्षेत्र का अतिक्रमण कर रहे हैं और जंगल हाथियों की बपौती है। निर्वहन करने कहां जाएगें?

झारखंड राज्य के प्रमुख सचिव सतपथी का कहना था कि वे छत्तीसगढ की सीमा पर हाथियों के आवा गमन के लिए उनके रास्ते मे प्राकृतिक जैसे दिखाई देने वाले सेतू का निर्माण कर रहे हैं जिससे हाथियों को रहवास एवं विचरण के लिए बड़ा क्षेत्र मिल जाएगा तथा आदमी और हाथियों की मुड़भेड़ कम हो जाएगी। छत्तीसगढ सरकार ने भी भी असम से हाथी विशेषज्ञ पार्वती बरूवा को बुलाया था। करोड़ों खर्च हुए पर वह भी कुछ विशेष नहीं कर पाई।

इस आपसी मुड़भेड़ में प्रतिवर्ष कईयों के प्राण हरण होते हैं। ऐसी स्थिति में वनांचल निवासियों को हाथियों को स्वीकार करना होगा तथा सह अस्तित्व मानकर निर्वहन करना होगा। तुम उनके रास्ते मे न आओ वे तुम्हारे रास्ते हे नहीं है। जब तक दोनो एक दूसरे की उपस्थिति स्वीकार नहीं करेगें तब तक दोनो का ही जीना कठिन है। अब हाथी मेरे साथी बनाकर ही जीने से समस्या का हल निकल सकता है।
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शनिवार, 27 अगस्त 2016

जंगल में भालुओं से भेंट

छत्तीसगढ़ के वनांचल में भालूओं की अच्छी खासी संख्या है। जंगल यात्रा के दौरान इनसे मुलाकात हो ही जाती है। इनके द्वारा ग्रामीणों पर हमले के समाचार मिलते ही रहते हैं। खास कर महुआ फ़ूल के सीजन में शिकायतें बढ़ जाती है। महिलाएं महुआ फ़ूल चुगने जाती हैं तो भालू उन पर हमला कर घायल कर देते हैं जिससे हमले में कईयों की तो मौत भी हो जाती है। लोगों को लगता है कि भारी भरकम दिखने वाला भालू दौड़ नहीं सकता, परन्तु भालू अड़तालिस किलोमीटर प्रति घंटा की गति से दौड़ सकता है। 
अर्जुन के वृक्ष पर भालू के पंजों के चिन्ह
भालू के पिछले पांव अगले पावों की अपेक्षा अधिक लम्बे होते हैं इसलिए वह ढाल पर तेजी से नहीं दौड़ पाता ऐसी स्थिति में वह गोल होकर लुढक जाता है। भालू को मीठे फल बहुत प्रिय हैं। शहद को भी वह बड़े चाव से खाता है। मधुमक्खी के छत्तों की खोज में वह प्राय: गाँवों में घुस जाता है। क्रोधित मधुमक्खियाँ उस पर आक्रमण करती हैं, किन्तु उसके शरीर के लम्बे, झबरे और रूखे बालों पर मधुमक्खी के डंको का कोई असर नहीं होता। 
नदी की रेत पर भालुओं के पद चिन्ह
हमारे देश में जब महुआ फूलता है, तो भालू प्रात:काल गिरे हुए फूलों को खाने के लिए आते हैं। कभी-कभी भालू स्वयं महुए के वृक्ष पर चढ़ जाते हैं, और डालियों को हिलाकर फूल गिराते हैं। जंगल भ्रमण के दौरान भालूओं से भेंट होते रहती है। पर हम यहाँ सावधान रहते हैं, भालू की उपस्थिति के चिन्हों को देखते हुए चलना पड़ता है। नदी के किनारे एवं जंगल में इनके पदचिन्ह मिल जाते हैं साथ ही जब ये शहद खाने पेड़ों पर चढ़ते है तो इनके नाखूनों के चिन्ह पेड़ों पर दिखाई देते हैं। 
जंगल में भालू
ऐसी स्थिति में इनसे बचना ही श्रेयकर रहता है। सूरजपुर के प्रेमनगर के जंगल में एक भालू ने वनकर्मी पर हमला कर उसे मौत के घाट उतार दिया। यह घटना पिछले साल 22 दिसंबर की है। भालू ने 24 घंटे के अंदर दो लोगों की जान ली थी। पेंड्रा के पास गांव में भालूओं ने हमला किया तो ये ग्रामीणों के क्रोध का शिकार बने और मार डाले गए। मानव और ग्रामीण जनों के आपसी संघर्ष की सूचनाएं मिलते रहती हैं। उपरोक्त सभी चित्र मेरे द्वारा खींचे गए हैं।

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

जतमई में नैसर्गिक सौंदर्य का आनंद

छत्तीसगढ़ में गरियाबंद जिले के छुरा ब्लॉक अंतर्गत जतमई नामक प्राकृतिक झरना है। हरितिमा से आच्छादित पहाड़ी से यह झरता हुआ यह झरना बरसात के दिनों में सैलानियों के आकर्षण का केन्द्र होता है। रायपुर से लगभग 75 किलोमीटर की दूरी पर होने के कारण शहर एवं आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों के सैलानी सप्ताहांत में यहाँ पहुंच जाते हैं और जतमई माता के दर्शन के साथ झरने में जलकिलोल करने का लुफ़्त उठाते हैं। 

रविवार के दिन तो यहाँ पर रेलमपेल मची रहती है। वनक्षेत्र के रमणीय वातावरण का आनंद इस स्थान पर लिया जा सकता है। वनांचल में प्राकृतिक झरना होने के कारण कुछ वर्षों से पर्यटकों की बड़ी संख्या इस स्थान पर मनोरंजन के लिए पहुंचती है, इसके साथ ही वनदेवी जतमई के दर्शन करने के लिए भी बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं। वैसे तो जतमई का बरसाती झरना जुलाई से दिसम्बर तक ही रहता है। नववर्ष के दिन पिकनिक मनाने वालों का भीड़ अत्यधिक रहती है।


ग्राम पटेवा के निकट यह स्थान होने के कारण स्थानीय लोग एक समिति बनाकर इस स्थान का विकास कर रहे हैं। यह झरना 70 फ़ुट की ऊंचाई से गिरता है। यहां विशालकाय चट्टाने एक के ऊपर एक इस तरह से रखी हैं कि लगता है किसी कुशल कारीगर ने इन्हें स्थापित कर दिया हो। जतमई मंदिर के निकट सिद्ध बाबा का प्राचीन स्थान है, यहां पर एक चिमटा रखा हुआ है। कहते हैं कि इस स्थान पर 400 बरस पहले कोई सिद्ध बाबा रहते थे। उनके कारण इस स्थान की मान्यता अधिक हो गई। 


यहीं पर एक शेर माड़ा भी है, जिसे लोग शेरगुफ़ा कहते हैं। पहले इस स्थान पर जंगली जानवर भी बड़ी संख्या में रहते थे। भालुओं की आमदरफ़्त तो अभी भी रहती है। शहर के समीप रविवारिय मनोरंजन के लिए यह एक आदर्श प्राकृतिक स्थल है। इस स्थान का सौंदर्य देखने लायक है। एक बात गौर करने लायक यह भी है कि अत्यधिक पर्यटकों के पहुंचने के कारण इस स्थान पर प्लाटिक की पन्नियों, खाने की सामग्री के रैपरों एवं पर्यटकों द्वारा फ़ैलाई गई गंदगी के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है। प्लास्टिक के सामानों पर यहां प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

ब्लॉगिंग को रोजगार मूलक बनाने की आवश्यकता: रायपुर में कार्यशाला सम्पन्न


माईक्रो ब्लॉगिंग प्रारंभ होने के बाद ब्लॉग लेखकों का वेब ब्लॉग की तरफ़ ध्यान कम हो गया। पुराने ब्लॉगरों की पोस्ट आवृत्तियाँ कम हुई हैं, जिसका मुख्य कारण फ़ेसबुक एवं ट्वीटर आदि पर अधिक समय व्यत्तीत करना है। फ़िर भी आज पुराने ब्लॉगर अपने ब्लॉग़ से जुड़े हुए हैं। वैसे ब्लॉग आज भी बन रहे हैं और निरंतर लिखे जा रहे हैं, ब्लॉगिंग को पुन: जागृत करने की दृष्टि से रायपुर के कलिंगा विश्वविद्यालय में ब्लॉगिंग कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस आयोजन में पी एच डी चेम्बर ऑफ़ कामर्स एवं इंडस्ट्रीज की भूमिका महत्वपूर्ण है। ब्लॉगिंग को लेकर विश्व विद्यालय स्तर पर भारत में यह प्रथम आयोजन था। 


ब्लॉग जैसे मंच पर अब वर्तमान युवा पीढी की भी उपस्थिति आवश्यक है। नई पीढी को ब्लॉगिंग से जोड़ने के लिए कार्यशाला की अत्यंत आवश्यकता महसूस की जा रही थी, इस ओर मेरा ध्यान कई वर्षों से था, परन्तु ब्लॉगिग जैसी विधा के प्रचार प्रसार के लिए उचित आयोजक एवं प्रायोजक की कमी थी, जो पीएचडी चेम्बर ने पूर्ण की और आगे हाथ बढाकर इस आयोजन का जिम्मा अपने हाथों में लिया। जिसमें सहयोगी के तौर पर कलिंगा विश्वविद्यालय जैसे सम्मानित संस्था ने भी अपना हाथ बढा कर कार्यशाला को अपने कैम्पस में आयोजित करने का जिम्मा लिया।

इस कार्यशाला को सम्पन्न कराने की जिम्मेदारी पी एच डी चेम्बर से होते हुए मेरे कंधों पर आ गई। छत्तीसगढ़ में हिन्दी ब्लॉगर्स की संख्या सभी प्रदेशों से अधिक है, तभी इसे ब्लॉगरगढ़ भी कहा जाता है। वर्तमान में भी छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर्स द्वारा निरंतर ब्लॉग लेखन जारी है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि छत्तीसगढ़ के लोगों इंटरनेट के माध्यम से जितनी जानकारी ली होगी, उसका कई गुना यहाँ के ब्लॉगर्स ने अपने लेखन द्वारा इंटरनेट के माध्यम से लोगों को दिया भी है। छत्तीसगढ़ में सभी विधाओं के ब्लॉग लेखक हैं, जिनमे तकनीक से लेकर साहित्य फ़ोटोग्राफ़ी तक सम्मिलित है। इनके ब्लॉग़ ज्ञान के भंडार कहे जा सकते हैं। जिनमें सामाजिक सरोकार से संबंधित पोस्टें भी प्रमुखता से लिखी गई।

इस कार्यशाला का लाभ लगभग 150 प्रतिभागियों ने उठाया, जिसमें विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं भी सम्मिलित थे। महासमुंद, धमतरी, बेमेतरा, बिलासपुर, रायपुर, दुर्ग -भिलाई, राजनांदगांव, धमतरी, राजिम, अभनपुर इत्यादि से आए हुए ब्लॉग जिज्ञासुओं ने भी अपनी सक्रीय उपस्थिति देकर कार्यशाला को सफ़ल बनाया। यह कार्यशाला ब्लॉगिंग के प्रचार प्रसार में एक मील का पत्थर साबित होगी, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। ब्लॉग जगत के नामचीन ब्लॉग लेखकों ने उपस्थित होकर प्रतिभागियों को ब्लॉगिंग के महत्व के विषय में जानकारियाँ दी।

तकनीकि ब्लॉगर श्री बी एस पाबला जी ने अपने व्याख्यान में ब्लॉग एवं इंटरनेट तकनीक की जानकारी दी, ब्लॉगर श्री जी के अवधिया ने गुगल एवं संस्थाओं द्वारा ब्लॉग पर दिए जा रहे विज्ञापनों एवं उनसे होने वाली आय के विषय में सद्य ब्लॉगर्स को जानकारी दी। ब्लॉग लेखन में एग्रीगेटर पाठकों तक पोस्ट पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य करता है, इसकी जानकारी देने के लिए हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से डॉ केवल राम उपस्थित थे, उन्होंने अपने एग्रीगेटर ब्लॉग सेतू की कार्यप्रणाली की जानकारी दी। 


इसके बाद द्वितीय सत्र में नागपुर से पधारी ब्लॉगर संध्या शर्मा जी ने ब्लॉग में साहित्य विषय पर विस्तृत जानकारी दी एवं साहित्य से जुड़े हुए ब्लॉगों से रुबरु करवाया। ब्लॉगर ललित शर्मा ने ब्लॉगिंग के सामाजिक सरोकारों के विषय में वृहद जानकारी दी एवं विभिन्न विषयों के ब्लॉगों का उल्लेख किया। ब्लॉग़िंग में क्षेत्रीय भाषा का भी अपना अल्ग ही महत्व है। क्षेत्रीय भाषाओं की उपस्थित भी ब्लॉग पर एक दशक से है। जिनमें तमिल, पंजाबी, तेलगु, मराठी, कन्नड़, बंगाली, गुजराती, मलयालम एवं देवनागरी में लिखी जाने वाली भाषांएं यथा छत्तीसगढ़ी, मराठी, नेपाली, हरियाणी राजस्थानी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, पहाड़ी भी ब्लॉग पर उपलब्ध हैं, इस सत्र की जिम्मेदारी का वहन ब्लॉगर संजीव तिवारी ने किया। उन्होने क्षेत्रीय भाषाओं पर अपनी जानकारी उपस्थितों के साथ साझा की।

इस कार्यक्रम में उत्साह वर्धन करने के लिए क्षेत्रीय एक्साईज कमिश्नर श्री अजय पाण्डे जी मुख्य अतिथि के बतौर उपस्थित थे, वे उर्दू के एक अच्छे गजलकार एवं ब्लॉग लेखक भी हैं, उन्होंने ब्लॉग लेखन को लेकर अपने अनुभवों को साझा किया। उपस्थित लोगों में कई ब्लॉग लेखन को लेकर उत्साहित थे और ब्लॉग निर्माण कर लेखन प्रति भी पुरजोर उत्साह दिखाया। यह सब देखकर हमें भी प्रशन्नता हुई कि नई पीढी भी ब्लॉग लेखन के प्रति उत्साहित है। कार्यक्रम समाप्ति पर कार्यशाला में प्रशिक्षित सभी प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र एवं उपस्थ्ति वक्तागणों का स्मृति चिन्ह एवं पत्र पुष्प से अभिनंदन संस्थान द्वारा किया गया। 

इस आयोजन में मुख्य भूमिका पी एच डी चेम्बर ऑफ़ कामर्स एवं इंडस्ट्रीज के श्री ज्ञानेन्द्र पाण्डेय एवं उनके सहयोगियों एवं कलिंगा विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता श्री संदीप गांधी की रही। इन्हें ढेर सारा साधूवाद। आगे भी ब्लॉगिंग के प्रचार एवं प्रसार के लिए इस तरह के आयोजन होते रहेंगे। इसके साथ ही हम ब्लॉगिंग को रोजगार मूलक बनाने के लिए प्रदेश के किसी एक विश्व विद्यालय में "एडवांस डिप्लोमा इन ब्लॉगिंए एन्ड न्यू मीडिया"विषय पर छैमासी डिप्लोमा कार्यक्रम चलाने पर प्रयास करेंगे, वर्तमान में बड़े संस्थानों एवं सरकारी संस्थानों द्वारा न्यू मीडिया आपरेट करने के लिए वेतन पर नियुक्तियां हो रही हैं, डिप्लोमा कोर्स होने के बाद लोगों को इससे रोजगार भी मिल सकेगा। इसके लिए पाठ्यक्रम का निर्माण किया जा रहा है। आशा है कि आगामी सत्र तक यह कार्य सम्पन्न हो जाएगा।

बुधवार, 24 अगस्त 2016

चीतल मृग - बार नवापारा अभ्यारण्य छत्तीसगढ़

अभ्यारण्य में भ्रमण करते हुए चीतलों का झूंड कई जगह दिखाई दिया। परन्तु मनचाहे चित्र नहीं मिल पाए। इस वन में बुंदिया बाघ (तेंदुआ - बिल्ली का फ़ूफ़ा) भी खासी संख्या है। इसलिए संझा के समय अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता होती है। घास चरने वाले प्राणी सांझ के समय दिन ढलने से पूर्व जल स्रोतों के समीप पानी पीने आते हैं। हमें दूर से तालाब की ओर एक झूंड आते हुए दिखाई दिया। बस अच्छी फ़ोटो की चाह में रुक गए। मादा चीतलों के साथ नर चीतल भी था। 

मैने तालाब के किनारे एक पेड की आड़ ले ली, तालाब तक आने के लिए इनका आधा घंटा इंतजार करना पड़ा। चौकन्ने चीतल धीरे-धीरे अगल-बगल देखते हुए जल पीने के लिए तालाब में उतरे। नर चीतल तालाब की मेड़ पर चौकस खड़ा हो कर चौकीदारी कर अपने नर होने का दायित्व निभा रहा था। मैने पेड़ की आड़ से एक के बाद एक कई चित्र लिए। तभी मेडाडोर में सवार पीए-खाए लोग हल्ला मचाते पहुंच गए। 

उनकी आवाज सुनकर सारे चीतल भाग गए। गुस्सा तो इतना आया कि मत पूछो। पर क्रोध पर नियंत्रण करना भी योग ही माना जाता है। खुले में वन्य प्राणियों के अच्छे चित्र मिलना भी किस्मत की बात ही होती है। चीतलों के शिकार की खबर अखबारों में आते रहती है। शिकारी इसे मांस के लिए मारते हैं। फ़िर भी भारत में ये काफ़ी संख्या में दिखाई देते है, पर पाकिस्तान में तो सारे चीतलों को मार कर खा गए, इसलिए वहाँ इनकी संख्या बहुत ही कम है। 


बार नवापारा अभयारण्य रायपुर से लगभग 100 किमी की दूरी पर कलकत्ता मार्ग पर है। यहाँ पिथौरा होते हुए भी जा सकते हैं और बलौदाबाजार से भी जाना हो सकता है। बार नवापारा के अतिरिक्त श्री लंका, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश में भी चीतल पाए जाते हैं। बार के जंगल में इनका उन्मुक्त विचरण काफ़ी राहत देता है। जरुरत है इन्हें इस प्राकृतिक आवास में शिकारियों से बचाने की……।

मंगलवार, 23 अगस्त 2016

छत्तीसगढ़ का मॉरिशस बुका

राजधानी रायपुर से कटघोरा होते हुए 230 किलोमीटर की दूरी पर मड़ई गांव से 5 किलोमीटर की दूरी पर हसदेव बांगो बांध के डुबान क्षेत्र में विकसित पर्यटन केन्द्र बुका में नौका विहार का मजा ले सकते हैं। वन विभाग ने यहां पर्यटकों के लिए काटेज का निर्माण कराया है। जहां शुल्क जमा कर रूक सकते हैं। 

छत्तीसगढ़ में भले ही समुद्र नहीं है लेकिन ‘सी बीच’ की सैर करने और बोटिंग की तमन्ना रखने वालों को मायूस होने की जरूरत नहीं। शहरों की आपाधापी से दूर प्राकृतिक सौंदर्य से भरी यह ऐसी जगह है, जहाँ गर्मी में भी दिलोदिमाग को सुकून मिलता है। यहां मीलों तक 400-450 फीट की गहराई में पानी ही पानी है। हरे-भरे जंगल और पहाड़ों के बीच झीलनुमा इस जगह पर नीला जल दिल-ओ-दिमाग पर छा जाता है। 


झील के बीच में प्राकृतिक रूप से उभरे टापू और उस पर खड़े दरख्तों की हरियाली की वजह से इसे छत्तीसगढ़ का मॉरिशस कहा जाने लगा है। कटघोरा के पास स्थित जल विहार ‘बुका’ खूबसूरती अनूठी है। पहाड़ियों से घिरे बुका के गहरे पानी के बीच स्थित टिहरीसराई के मध्य निकली एक चट्टान में प्राकृतिक रुप से बने गणेश का स्वरूप दिखाई देता है।


सूर्योदय के समय ग्लास हाउस से आसमान में उगते सूरज का अप्रतिम होता है। मौसम के अनुसार दिन चढ़ने से शाम ढलने तक अलग-अलग रंग देखने को मिलते हैं। गर्मियों में बुका में सुबह-शाम स्वीमिंग और बोटिंग का लुत्फ उठाने लोग दूर-दूर से आते हैं। बोट से 16 किमी के सफर में कई छोटे-छोटे टापू हैं तो साल, सागौन, साजा, सेन्हा आदि के पेड़ों की श्रृंखला मन को सुकून देती है। 

थकान मिटाने के लिए टेंट, रेस्ट हाउस और ग्लास हाउस हैं, जहां सौर ऊर्जा की रोशनी तो तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं। बुका प्रदेश का संभवत: पहला पर्यटक स्थल है, जहां कई टूरिस्ट प्लेस का सफर बोट से किया जाता है। बुका से बांगो डैम का फासला 25 किमी का है। बुका से बोट के जरिए दो घंटे में वहां पहुंचा जा सकता है। इसी तरह डेढ़ घंटे में सतरेंगा, घंटेभर में गोल्डन आईलैंड तथा केंदई जल प्रपात, मंजूरखोर आदि टूरिस्ट प्लेस तक जा सकते हैं।

सोमवार, 22 अगस्त 2016

तीरथगढ़ जलप्रपात बस्तर

बड़े बूढे कह गए हैं कि जल, वायू और अग्नि से कभी खिलवाड़ नहीं करना चाहिए और न ही इनकी शक्ति को कम करके आंकना चाहिए। खासकर बरसात के दिनों में नदी, नालों, झरनो में वर्षा जल कब बढ़ जाए इसका पता नहीं चलता। नदी किलोमीटरों दूर से बहकर आती है इसलिए अगर 25 किलोमीटर दूर मुसलाधार वर्षा हो रही हो और आप जहाँ है वहाँ वर्षा न हो रही हो तो नदी का जल तेज गति से आकर आपको घेर सकता है। इसलिए नदी, नालों एवं झरनों में अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए। 
तीरथगढ़ जलप्रपात बस्तर
अब बात करते हैं तीरथगढ़ जलप्रपात की, यह जल प्रपात जगदलपुर की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 35 किमी की दूरी पर स्थित है। तीरथगढ़ की ऊंचाई 300 फ़ुट होने के कारण यह भारत के सबसे ऊँचे झरनों में से एक है। कुछ दिनों पूर्व हम तीरथगढ़ जलप्रपात घूमने चले गए। गहराई में उतरने से पहले हम ऊपर से ही फ़ोटो लेने लगे, तभी बारिश आ गयी। हम लोगों ने वहीं पर बनी एक जर्जर ईमारत की शरण ली। वहाँ से देखा कि कुछ लोग झरने में नीचे उतरे हुए हैं और बारिश होने के कारण वहीं पर बनी एक छोटी सी पुलिया के नीचे घुस गए। 
तीरथगढ जलप्रपात बस्तर में पुलिया के नीचे लोग
उनके हाथ में मोबाईल था जिससे खेलते हुए बारिश रुकने का इंतजार करने लगे। बारिश रुकने पर हम नीचे गए और अच्छी लोकेशन देख कर कुछ चित्र लिए। बस्तर में मानसून पहुंचने के कारण पिछले 48 घंटों तक लगातार बारिश हुई। जगदलपुर से बैंक ऑफ़ इंडिया के मैनेजर के परिवार के 4 सदस्य अपरान्ह 3 बजे तीरथगढ़ पहुंचे और जलप्रपात में नीचे उतर गए। उन्हें पहुंचे 15 मिनट ही हुए थे कि बरसात शुरु हो गयी, तो वहां के मंदिर के पुजारी ने बारिश से बचने के लिए उन्हें अपने पास बुला लिया। इसके बाद जो मुसलाधार बारिश शुरु हुई कि रुकने का नाम ही नहीं लिया। 
तीरथगढ़ जलप्रपात में रेस्क्यू ऑपरेशन
झरने में जल का स्तर बढ़ने से वे टापू पर फ़ंस गए और वापस भी नहीं आ सकते थे। मोबाईल का नेटवर्क भी नहीं बता रहा था। किसी तरह थोड़ा नेटवर्क आने पर उन्होने अपने परिचित फ़ोन किया और उन्होने पुलिस को। पुलिस की रेस्क्यू टीम वहां रात को पहुंच गई। लेकिन जल का बहाव तेज होने के कारण कार्यवाही करने में अक्षम हो गई। उन्होने सुबह होने का इंतजार किया। 16 घंटे मौत के साये में गुजारने के बाद उन्हें पुलिस की रेस्क्यू टीम ने बचाया। इसलिए बारिश के मौसम में नदी, नालों एवं झरनों में अतिउत्साह में खतरा मोल न लें।

रविवार, 21 अगस्त 2016

सम्राट अशोक का धौली एवं रुपनाथ शिलालेख

अशोक का रुपनाथ शिलालेख
सम्राट अशोक के शिलालेख उड़ीसा के समुद्र तट से लेकर अफ़गानिस्तान तक पाए जाते हैं। इन शिलालेखों से धर्मादेशों के साथ शासन व्यवस्था की भी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। अशोक का यह शिलालेख तहसील बहोरीबंद के ग्राम पडरिया जिला कटनी में स्थित है जो कि जबलपुर से लगभग 83 किलोमीटर दूर है। सम्राट अशोक शिलोत्कीर्ण धर्मादेशों में एक तीसरी शताब्दी ईस्वीं पूर्व का शिलालेख यहां प्राप्त हुआ है। यह शिला लेख साढ़े चार फुट लंबा, और 1 फुट चौड़ा है तथा उसमें 6 पंक्तियां है। जिनके विषय में विश्वास किया जाता है कि वे ई0 पूर्व लगभग 232 में उत्कीर्ण की गई थी। धर्मादेश में स्थानीय बौद्ध संध को संबोधित किया गया है जिससे यह पता चलता है कि उसे जारी करने के ढाई वर्ष पूर्व महान् मौर्य सम्राट बौद्ध बन चुका था। उसका उद्देश्य संध के सदस्यों को उत्साही बनने तथा कर्तव्य परायण जीवन व्यतीत करने के लिये प्रोत्साहित करना था। उक्त शिलालेख ब्राम्हीलिपि तथा पाली भाषा में है।
अशोक का रुपनाथ शिलालेख
रूपनाथ के शिलालेख का हिन्दी अनुवाद
(क) देवानांप्रिय ने ऐसा कहाः-
(ख) ढाई वर्ष और कुछ अधिक व्यतीत हुये मैं प्रकाश रूप से शाक्य था।
(ग) किन्तु मैनें अधिक पराक्रम नहीं किया।
(घ) किन्तु एक वर्ष और कुछ अधिक व्यतीत हुए जबकि मैंने संघ की यात्रा की है (तबसे) अधिक पराक्रम करता हूं।
(ड) इस काल में जम्बू दीप में जो देवता (मनुष्यों से) अमिश्र थे वे इस समय (मेरे द्वारा) (उनके साथ) मिश्र किये गये है।
(च) पराक्रम का ही यह फल है।
(छ) यह (केवल) उच्च पदवाले (व्यक्ति) से प्राप्त नहीं होता (किन्तु) क्षुद्र (व्यक्ति) से भी पराक्रम द्वारा विपुल स्वर्ग की प्राप्ति शक्य है।
(ज) और इस प्रयोजन के लिये श्रावण (उद्घोषणा) की व्यवस्था की गई जिससे क्षुद्र और उदार सभी पराक्रम करे और (मेरे) सीमावर्ती लोगा भी (इसे) जानें (और) यह कि यहीं पराक्रम चिरस्थायी हो।
(झ) यह प्रयोजन (मेरे द्वारा) अधिकाधिक बढ़ाया जायेगा, और विपुलतया बढ़ाया जायेगा कम से कम डेढ़ गुना बढ़ाया जायेगा।
(झ) इस विषय को अवसर के अनुकूल पर्वत पर उत्कीर्ण करावें और यहां जहां भी शिलास्तंभ हों, शिला-स्ंतभों पर लिखवायें।
(ट) और इस श्रावण (उद्घोषणा) के अक्षर के अनुसार (आप) सर्वत्र (एक अधिकारी) भेजें जहां तक आपके आहार (जिले) का विस्तार हो।
(ठ) यह श्रावण (उद्घोषणा) मेरे द्वारा यात्रा (व्युष्ट) के समय किया गया जब
(ड.) 256 पडाव (निवास) यात्रा में बीत चुके थे।

अशोक का धौली शिलालेख

भुवनेश्वर से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर धौली नामक टेकरी है, जहाँ पर मौर्य राजवंश के सम्राट अशोक द्वारा अंकित करवाए हुए कुल ३३ अभिलेखों में से एक प्राप्त हुआ हैं। यह ब्राह्मी शिलालेख अशोक ने स्तंभों, चट्टानों और गुफ़ाओं की दीवारों में अपने २६९ ईसापूर्व से २३१ ईसापूर्व चलने वाले शासनकाल में खुदवाए। ये आधुनिक बंगलादेश, भारत, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और नेपाल में जगह-जगह पर मिलते हैं और बौद्ध धर्म के अस्तित्व के सबसे प्राचीन प्रमाणों में से हैं। इस ब्राह्मी शिलालेख को 1837 में लेफ़्टिनेंट मार्कम किट्टो द्वारा ढूंढा गया था। इस शिलालेख में अशोक के चौदह अनुशासनों में से 11 को लिपिबद्ध किया गया है। कलिंग युद्ध के पश्चात अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ, उसने जनसाधारण पर अपनी सहृदयता की छाप छोड़ने के उद्देश्य से इस आदेश का प्रचार करवाया। इसमें लिखा है कि - 
अशोक का धौली शिलालेख
1 - किसी पशु का वध न किया जाए और राजकीय पाकशाला एवं मनोरंजन उत्सव न किए जाएं।
2 - मनुष्यों एवं पशुओं के चिकित्सालय खुलवाए जाएं एवं उसमें औषधि की व्यवस्था की जाए। मनुष्यों एवं पशुओं की सुविधा के लिए मार्ग में छायादार वृक्ष लगवाए जाएं एवं राहगीरों के लिए जल की व्यवस्था कुंए खुदवा कर की जाए।
3 - राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिया गया कि प्रति पांच वर्ष पश्चात धर्म प्रचार के लिए जाएं।
4 - राजकीय पदाधिकारियों को आदेश दिया गया कि व्यवहार के सनातन नियमों यथा नैतिकता एवं दया का सर्वत्र प्रचार किया जाए।
5 - धर्ममहामात्रों की नियुक्ति एवं धर्म एवं नैतिकता का प्रचार प्रसार किया जाए।
6 - राजकीय पदाधिकारियों को स्पष्ट आदेश है कि सर्वलोकहितकारी कुछ भी प्रशासनिक सुझाव एवं सूचना मुझे प्रत्येक स्थान एवं समय पर दें।
7- सभी जाति एवं धर्मों के लोग सभी स्थानों पर रह सकें क्योंकि वे आत्म संयम एवं हृदय की पवित्रता चाहते हैं।
8-राज्याभिषेक के दसवें वर्ष अशोक सम्बोधि (बोध गया) की यात्रा कर धर्म यात्राओं का प्रारंभ किया जाए। ब्राह्मणों एवं श्रमणों का दर्शन एवं गरीबों के नैतिक कल्याण का प्रचार किया जाए।
9- दास तथा अनुचरों के प्रति शिष्टाचार का पालन करें, जानवरों के प्रति उदारता एवं ब्राह्मणो तथा श्रमणों के प्रति उचित व्यवहार करने का आदेश दिया गया।
10- अशोक ने घोषणा कि यश एवं कीर्ति के लिए नैतिकता होनी चाहिए।
11- धर्म प्रचारार्थ अशोक ने अपने विशाल साम्राज्य के विभिन्न स्थानों पर शिलाओं पर धम्म लिपिबद्ध कराया जिसमें धर्म संबंधी महत्वपूर्ण सूचनाओं का वर्णन है।
एक अन्य पृथक शिलालेख ;में अशोक तोशाली के महामत्तों को आदेश देता है कि सभी प्रजा मेरी संतान है, जिस प्रकार मैं अपनी संतान के लिए इच्छा करता हूं कि इहलोक एवं परलोक में उनकी सुख समृद्धि हो,उसी प्रकार सम्पूर्ण प्रजा के लिए मेरी यही इच्छा है। बिना उचित कारण के किसी को शारीरिक दंड, ईर्ष्या, क्रोध आदि दुर्गुणों से रहित निष्पक्ष मार्ग का अनुशरण करने का आदेश देता हूँ।
तोशाली के महामात्रों को आदेश है कि सीमांत राज्यों के लोगों के हित - कल्याण को ध्यान में रखा जाए एवं उनपर अनुग्रह की नीति अपनाई जाए।

शनिवार, 20 अगस्त 2016

बाबू घाट की सुनहली सांझ

आरम्भ से पढ़ें 
हम पारो से लगातार चलते हुए तीन बजे फ़ुंतशोलिन पहुंचे। यहां से हमे छोटी गाड़ियों से न्यू जलपाईगुड़ी जाना था। फ़ुंतशोलिन पहुंच कर देखा कि वहां सिर्फ़ दो गाड़ियां आई हैं और हम कुल सत्रह लोग थे। टूर आपरेटर ने फ़ोन करके और गाड़ियों के लिए बोला तो पता चला कि मोदी जी के आगमन के कारण सभी गाड़ियां बुक हो गई हैं। मैने सोचा कि एक गाड़ी में द्वारिका प्रसाद जी एवं संतराम तारक जी का परिवार कुल सात नग चले जाएंगे। बाकियों के लिए और गाड़ी का इंतजाम हो रहा था। 
पारो का सुंदर दाचेन हिल रिसोर्ट
इंतजाम नहीं हुआ तो जैसे-तैसे हम लोग एक गाड़ी से पहुंच जाएंगे। इनको तकलीफ़ नहीं होगी, क्योंकि संग में महिलाएं भी थी। संतराम तारक जी का सामान उस गाड़ी में चढा दिया गया। जब ये गाड़ी में बैठे तो श्रीमती द्वारिका अग्रवाल ने कह दिया कि इस गाड़ी में तो हमारी फ़ैमिली जाएगी। तारक जी गाड़ी से उतर गए। अब इतना समय नहीं था कि कैरियर में बंधे हुए सामान को खोलकर फ़िर से निकाला जाए। मैने उस गाड़ी में नवीन तिवारी जी और राजेश अग्रवाल जी को भेज दिया और गाड़ी रवाना कर दी।
दाचेन हिल रिसोर्ट के कर्मचारी
इसके बाद एक छोटी कार आई उसमें ललित वर्मा टीकाराम वर्मा एवं संतराम तारक जी को सपत्नी भेज दिया । इसके बाद एक और गाड़ी की व्यवस्था हो गई, जिसमें मैं बिकाश, हेमंत, अंकित एवं राजेश सेहरावत आदि सबसे आखिर में चले। इसमें बसु दा भी साथ थे, उन्हें हासीमारा छोड़ना था। द्वारिका प्रसाद जी की गाड़ी को निकले आधा घंटा से अधिक हो चुका था। बसु दा को हासीमारा छोड़कर हम आगे बढे। हमारा ड्रायवर होशियार था, उसने गाड़ी सिलीगुड़ी ले जाने की बजाय एक अन्य रोड़ पर डाल दी। हम बांध के उपर से चलते हुए न्यू जलपाईगुड़ी पहुंचे। दार्जलिंग मेल के चलने में मात्र पन्द्रह मिनट का समय बचा था।
दाचेन हिल रिसोर्ट के कर्मचारी
सतराम तारक जी अपने सामान की प्रतीक्षा कर रहे थे। मै द्वारिका प्रसाद जी के फ़ोन में घंटी बजा रहा था पर वे फ़ोन नहीं उठा रहे थे। आखिर में जब पांच मिनट बचे तो राजेश सेहरावत ने संतराम जी का बाकी सामान उठाया और दौड़ते हुए ट्रेन तक पहुंचे। हम लोग चिंतित थे कि इन लोग अभी तक नहीं पहुंचे हैं, गाड़ी के पास पहुंचकर देखा तो सारे लोग पहुंच चुके थे। जिनके कारण हमे विलंब हुआ और हम गेट पर खड़े होकर इंतजार करते रहे। हमारे ट्रेन में चढते ही वह चल पड़ी। अगर हम पारो से आठ बजे भी निकल लिए होते तो भागते हुए ट्रेन नहीं पकड़नी पड़ती। बिकास, अंकित और हेमंत यहीं रह गए। उनकी टेन हमारे बाद थी। हम एक ही बोगी में राजेश सेहरावत, संतराम तारक जी, राजेश अग्रवाल आदि थे। भोजन साथ में किए और सो गए।
फ़ुंतसोलिन की चेक पोस्ट
 सुबह हम कलकत्ता पहुंचे तो बसु के बताए होटल में गए, होटल बहुत घटिया सा था। उसने कहा नान एसी रुम खाली नहीं है। एक एसी रुम है पन्द्रह सौ में। मैने वह रुम ले लिया, क्योंकि मुझे अब अन्य किसी स्थान पर होटल ढूंढने की इच्छा नहीं हो रही थी। सोचा कि जैसा भी है, यहीं टिका जाए। शाम को तो यहां से निकलना है। बाकी लोग हावड़ा के लिए चले गए। मैं नहा धोकर आराम करने लगा। तभी याद आया कि यहां किशन लाल बाहेती जी रहते हैं, समय है उनसे ही मिल लिया जाए। फ़ोन लगाने पर उन्हें प्रसन्नता जाहिर की और अपना पता बता दिया। 
किशन जी बाहेती कोलकाता
मैं टैक्सी लेकर उनके बताए पते पहुंचा। उनका एक आदमी मुझे लेकर उनकी दुकान तक गया। उनके भाई साहब के दुकान में आने के बाद वे फ़ारिग हो गए और हम कलकता घूमने चल पड़े। सबसे पहले तो कुछ खाने की सोचे तो मैने कहा कि टिपिकल बंगाली खाना खाया जाए। किशन जी मुझे बंगाली रेस्टोरेंट भजो  हरि मन्ना लेकर गए। कोलकाता में "भजोहरी मन्ना" परंपरागत बंगाली खाने के प्रसिद्ध रेस्टोरेंट की श्रृंखला है, जो भारत के अन्य मेट्रो सिटी में भी पाई जाती है। मुझे इसकी जानकारी नहीं थी। यह रेस्टोरेंट धरमतल्ला एक्सप्लेनेड मैट्रो के समीप स्थित है। पहुंचने पर देखा तो काफी भीड़ थी, 10 मिनट तक अपनी बारी का इंतजार किया है, भूख चरम सीमा पर थी।

खुद खेंचु दंडिका से पहली सेल्फ़ी बड़ा बाजार कोलकाता
हमने विभिन्न तरह के बंगाली व्यंजनों का ऑर्डर दे डाला। एलिस मछली बंगालियों को सर्वकालिक प्रिय है। इसे विशेष तौर पर मेहमानों के लिए पकाया जाता है। भोजन लगने के बाद विभिन्न तरह की सब्जी दाल चावल सलाद इत्यादि देख कर मन खुश हो गया। एलिस मछली का स्वाद ही कुछ अलग था। इसके साथ ही पातौड़ी माछ का ग्रेडिएंट एवं मसाला बहुत ही पसंद आया। यह एलिस मछली से बाजी मार ले गई। किशन भाई ने निरामिष भोजन किया और हमने दोनों का आनंद लिया। इस तरह कोलकाता की दोपहर एक यादगार बन गई अगली यात्रा में भी कुछ इसी तरह भोजन का आनंद लिया जाएगा।
बाबू घाट कोलकाता से दिखाई देता विद्यासागर सेतु
इसके बाद हम कुछ सामान खरीदने बड़ा बाजार गए, वहां से अंग्रेजों के बसाए पुराने कलकत्ता शहर में चक्कर काटते हुए टैक्सी लेकर बाबू घाट पहुंचे। यहां की शाम देखी। वैसे कोलकाता में बाबू घाट प्रसिद्ध स्थान है। डूबते हुए सूरज की कुछ फ़ोटुएं खींची। इसके बाद किशन जी को डॉक्टर के पास जाना था वे मुझे एक स्थान पर छोड़ कर चले गए और मैं टैक्सी से होटल पहुंच गया। 
पुत्र उदय एव छोटा भाई कीर्ति
होटल से सामान लेकर हम हावड़ा स्टेशन आ गए। यहां राजेश सेहरावत से भेंट हुई। संतराम तारक और राजेश अग्रवाल की सीट भी मेरे ही कोच में थी।  ट्रेन में बैठने के बाद राजेश सेहरावत से विदा ली, उनको दिल्ली जाना था। संतराम तारक जी होटल से खाना लाए थे, हमने सबने साथ ही खाना खाया और सुबह रायपुर पहुंच गए। स्टेशन पर पुत्र उदय एवं छोटा भाई कीर्ती लेने के लिए आए हुए थे…। इति .........

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

कैम्प में फ़ायर एवं पारो का खतरनाक एयरपोर्ट : भूटान

आरम्भ से पढ़ें 
अब आगे की कथा यह है कि फ़ुंतशोलिन से टीका राम वर्मा जी अपने घुटनों की दशा बताते हुए हमेशा नीचे का रुम ही मांगते रहे और समस्या यह थी कि उनसे पैड़ी नहीं चढी जाती। वो आज टायगर मोनेस्ट्री की खड़ी चढाई चढकर सकुशल नीचे तक पहुंच गए और मैं आधी दूर से लौट आया। इससे मुझे लगा कि कुछ लोग जानबूझकर ही मौज लेते हैं। आज की रात कैम्प फ़ायर का आयोजन किया गया था। हमारी बस आते ही हम रिसोर्ट में लौट आए। जब मैं अपने रुम का ताला खोलने पहुंचा तो ठंड के मारे मुझे कंपकंपी चढ़ गई। टूर आपरेटर तुरंत चाय लेकर आए और मै तीन कंबल रजाई ओढकर सो गया, सांसे लम्बी लम्बी चल रही थी। थामने से रुक नहीं रही थी। एक घंटे के बाद जाकर कहीं तबियत ठिकाने लगी।
कैम्प फ़ायर पारो भूटान
कैम्प फ़ायर की लकड़ियां जल रही थी, परन्तु वहां कोई नहीं था। मैने सबको आवाज देकर बुलाया। स्टीरियो की व्यवस्था भी की गई थी। परन्तु उनके पास भूटानी गानों के अलावा हिन्दी गाने नहीं थे और मेरे पास भी मुकेश के सैड सांग के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ी गाने थे। मोबाईल की चिप निकाल कर लगाने पर छत्तीसगढी गाने बजने लगे। छत्तीसगढ़ी गानों का आनंद की कुछ अलग है। माधुरी अग्रवाल जी ने कहा कि इसे बंद कर दो, मेरा सिर दर्द होने लगा है, अगर हिन्दी गाने हैं तो लगाओ। बाकी लोग छत्तीसगढ़ी गाना सुनना चाहते थे। यहीं से कैम्प फ़ायर का वातावरण खराब होना शुरु हो गया। इस तू-तू मैं-मैं से सब चुप हो गए। जिस आनंद लेने के प्रयोजन से एक क्विंटल लकड़ी जलवाई गई थी वो स्वाहा हो गई।
आग तापते हुए
इतने में टूर आपरेटर ने कहा कि कल सुबह हम जल्दी आठ बजे निकल जाएंगे, क्योंकि कल हमको न्यू जलपाईगुड़ी तक जाना है, यह लम्बी दूरी का सफ़र है, तो द्वारिका प्रसाद जी कहने लगे कि आपने आज हमारा दिन खराब कर दिया, हम नहाए भी नहीं, सबसे पहले तैयार हो गए थे और योग भी छूट गया।  हम तो योग करके निकलेंगे चाहे नौ बज जाए। संतराम तारक जी ने कहा कि आपको सबका ध्यान रखना चाहिए। दल में आप अकेले ही नहीं है। तो द्वारिका प्रसाद जी बोले कि आप लोग चले जाना हम अपनी गाड़ी करके आ जाएंगे। इस तरह नाहक ही ठंड में वातावरण गर्म हो गया। 

टीका राम वर्मा जी एवं द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी
मुझे द्वारिका प्रसाद जी का यह व्यवहार बिलकुल पसंद नहीं आया। जो प्रभा मंडल उनकी आत्मकथा पढकर बना हुआ था वो सारा एक पल में ही चूर चूर हो गया। इसके बाद सभी रात का भोजन करने चले गए। रात की बात आई गई हो गई। सभी भोजन करने के उपरांत सोने चले गए। हम भी अपने बिस्तर के हवाले हो गए। अकेले दुकेले मित्रों के साथ 1985 से सफ़र कर रहा हूँ, भारत में तो डेढ सौ लोगों को भी एक साथ लम्बा टूर करवा चुका हूँ परन्तु पन्द्रह बीस लोगों को अपनी जिम्मेदारी लेकर पहली बार विदेश लेकर आया था, इसलिए बहुत कुछ सीखने भी मिला।
पारो की हवाई पट्टी
छ: अप्रेल की सुबह सभी नहा धोकर आठ बजे निवृत हो गए। बस तक सामान पहुंचाने एवं निकलने वही नौ बज गए। पारो से हम जब निकल रहे थे यहां का एयरपोर्ट भी देखना था। इस एयरपोर्ट को दुनिया के दस खतरनाक हवाई अड्डों में से एक माना गया है। हमारी बस जब एयरपोर्ट से निकल रही थी तो एक प्लेन लैंड कर रहा था। बहुत ही सुंदर अवसर था विमान की लैंडिग देखने का। यह कभी कभी ही मुनासिब हो पाता है, जब आप निकल रहे हो और आपको टेक ऑफ़ करता या लैंड करता प्लेन दिख जाए। एक स्थान पर हमने बस रुकवा ली। सभी उतरकर यह नजारा अपने कैमरे में कैद करने लगे।
लाल घेरे में लैंड करता हूआ प्लेन
इसे खतरनाक माने जाने का कारण यह है कि यह चारों तरफ़ पहाड़ियों से घिरा है और यहाँ विमान उतारना एवं उड़ाना दोनो ही कठिन है। इसलिए यहाँ सिर्फ़ रायल भूटान की फ़्लाईट उसके कुशल पायलटों द्वारा उतारी जाती है। यहाँ के राजा के पास दो प्लेन हैं, जो कोलकाता से सवारियां लाने ले जाने का काम करते हैं। ये प्लेन अस्सी सीटर हैं, परन्तु सुरक्षा के लिहाज से सत्तर सवारियों को ही स्थान दिया जाता है, दस सीटें खाली रखी जाती हैं। यहाँ के पायलटों को विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है, इन पायलेटों एक भूटान के राजा के ससुर भी हैं। जो बड़ी जिम्मेदारी के तहत निरंतर पारो से विमान उड़ान का कार्य करते हैं।
ड्रुक एयर भूटान
यह विमानतल पारो नदी के तट पर उसके कैचमेंट एरिया में बना हुआ है। यहाँ से थिम्पू राजधानी की दूरी एक डेढ घंटे की है। हवाई जहाज से आने वाले यात्रियों को पारो में उतरकर थिम्पू जाना पड़ता है। हवाई अड्डे की सजावट किसी बौद्ध मोनेस्ट्री जैसी ही की गई है। प्लेन का हवाई पट्टी पर उतरना बड़ा ही रोमांचक लगा, जब छोटी सी हवाई पट्टी पर पारो नदी के किनारे विमान लैंड कर रहा था। यहाँ की फ़्लाईट की बुकिंग ऑन लाईन नहीं होती, कुछ एजेंटों के माध्यम से मनमाने मुल्य पर टिकिटें बेची जाती है। चारों तरफ़ पहाड़ियों से घिरे होने के कारण विमान यात्रा रोमांचक हो जाती है और चाहे नास्तिक ही क्यों न हो, यात्री एक बार तो अपने ईष्ट देव को स्मरण कर ही लेते हैं। जारी है आगे पढें…॥