बुधवार, 28 मई 2014

सोलह शृंगार: कल और आज

किसी भी सुंदर वस्तु या व्यक्ति के सौंदर्य में अभिवृद्धि के लिए श्रृंगार या अलंकरण का पक्ष महत्वपूर्ण होता है। इसके लिए विभिन्न अलंकरणों के प्रयोग करने को शृंगार करना कहते हैं। शृंगार करने के पश्चात साधारण वस्तु या मनुष्य के सौंदर्य में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है और वह मनमोहक, नयनाभिराम लगता है। उत्खनन से पता चलता है कि प्रतिमाओं का निर्माण हड़प्पा काल से हो रहा है, परन्तु उस समय मृण्मूर्तियाँ बनती थी। यही मृण्मूर्तियाँ मौर्यकाल में भी मिलती हैं तथा अलंकरण भी। परन्तु गुप्तकाल से प्रस्तर प्रतिमाओं का सफ़र प्रारंभ होता है तथा आगे चलकर कलचुरी कालीन मंदिरों की प्रतिमाओं में अलंकरणों की भरमार मिलती है। शिल्पियों ने देवी देवताओं से लेकर यक्ष गंधर्व अप्सराओं की प्रतिमाओं को सुंदर आभूषणों से सजा कर उसके सौंदर्य में वृद्धि करने का विशेष प्रयास किया है। इससे कलचुरीकालीन प्रतिमाएं अपने अलंकरणों से पृथक ही पहचानी जाती हैं। 
यक्षणी  - सिरपुर
स्त्री सौंदर्य वृद्धि के लिए सोलह शृंगार (षोडश शृंगार) का विधान बताया गया है। इन्हीं अलंकरणों से विधानपूर्वक शिल्पी प्रतिमाओं को अलंकृत करते थे। शास्त्र के विधान के अनुरुप प्रतिमाओं का निर्माण करने का मार्गदर्शन शिल्पशास्त्र करते  हैं। वैसे प्राचीन संस्कृत साहित्य में षोडश शृंगार की गणना अज्ञात प्रतीत होती है। षोड़श शृंगार की गणना वल्लभ देव कृत सुभाषितावली में प्रथम बार आती है। वल्ल्भदेवानुसार 12 वीं सदी में सोलह शृंगार इस प्रकार हैं - आद्यौ मज्जनचीरहारतिलकं नेत्राञ्जनं कुंडले, नासामौक्तिककेशपाशरचना सत्कंचुकं नूपुरौ। सौगन्ध्य करकङ्कणं चरणयो रागो रणन्मेखला, ताम्बूलं करदर्पण चतुरता श्रृंगारका षोड़श॥ अर्थात मज्जन, चीर, हार, तिलक, अंजन, कुंडल, नासामुक्ता, केशविन्यास, चोली (कंचुक), नूपुर, अंगराग (सुगंध), कंकण, चरणराग (महावर), करधनी तांबुल तथा करदर्पण (आरसी नामक अंगुठी) का वर्णन है।
मुख दर्शना (तेवर) जबलपुर
कालानुसार सोलह शृंगार के लिए भिन्न वस्तुओं का प्रयोग किया जाता था। सोलहवीं सदी में  श्री रुप गोस्वामी ने उज्वलनीलमणी में सोलह शृंगार को इस प्रकार व्यक्त किया है - स्नातानासाग्रजान्मणिरसितपटा सूत्रिणी बद्धवेणि: सोत्त सा चर्चिताङ्गी कुसुमितचिकुरा स्त्रग्विणी पद्महस्ता। ताम्बूलास्योरुबिन्दुस्तबकितचिबुका कज्जलाक्षी सुचित्रा। राधालक्चोज्वलांघि: स्फ़ूरति तिलकिनी षोडशाकल्पिनीयम॥ अर्थात, स्नान, नासा मुक्ता, असित पट (कृष्ण-काला दुपट्टा), कटि सूत्र (करधनी) वेणीविन्यास, कर्णावतंस, अंगों को चर्चित करना, पुष्पमाल, हाथ में कमल, केश में फ़ूल खोंसना, तांबुल, शरीर पर पत्रावली, मकरीभंग आदि का चित्रण, अलक्तक, तिलक इत्यादि षोडश शृंगार माना गया।
परिचारिका द्वार शाखा पातालेश्वर मंदिर मल्हार
इस दोनो सूचियों में भिन्नता स्पष्ट है। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि जायसी ने षोडश शृंगार का वर्णन इस प्रकार किया है - मज्जन, स्नान, (जायसी ने मज्जन, स्नान को अलग रखा है) वस्त्र, पत्रावली, सिंदूर, तिलक, कुंडल, अंजन, अधरों को रंगना, तांबुल, कुसुमगंध, कपोलों पर तिल, हार, कंचुकी, छुद्रघंटिका और पायल। इससे स्पष्ट हो रहा है कि 17 वीं शताब्दी तक अधररंग (लिपिस्टिक) का प्रयोग नहीं किया जाता था। 18 वीं शताब्दी में लिपिस्टिक एवं गालों पर कृत्रिम तिल बनाना षोडश शृंगार में सम्मिलित हो गया।
परिचारिका द्वार शाखा पातालेश्वर मंदिर मल्हार
इसी प्रकार  रीतिकाव्य के आचार्य केशवदास ने सोलह शृंगार की गणना करते हुए कहा है - प्रथम सकल सुचि, मंजन अमल बास, जावक, सुदेस किस पास कौ सम्हारिबो। अंगराग, भूषन, विविध मुखबास-राग, कज्जल, ललित लोल लोचन निहारिबो॥ बोलन हँसन, मृदुचलन, चितौनि चारु, पल पल पतिब्रत प्रन प्रतिपालिबो। 'केसोदास' सो बिलास करहु कुँवरि राधे, इहि बिधि सोरहै, सिंगारन सिंगारिबो। अर्थात उबटन, स्नान, अमल पट्ट (श्वेत, उज्जवल वस्त्र - दुपट्टा), जाबक (आलता), वेणीगूँथना, माँग सिंदूर, ललाट शौर (ललाट की शोभा बढाने वाला- तिलक), कपोलों पर तिल, अंग में केसर लेपन, मेंहदी, पुष्पाभूषण, स्वर्णाभूषण, मुखवास, दंत मंजन, तांबुल और काजल स्पष्ट है। इस काल में षोडश शृंगार मे कुछ वस्तुएं जुड़ गई और कुछ कम हो गई। इससे पता चल रहा है कि केसर तक नागरिकों की पहुंच हो गई थी और वे इसका महत्व जान चुके थे।
करधन घारिणी परिचारिका सिरपुर
हिंदी विश्वकोश में इन शृंगारों की गणना इस तरह है -उबटन, स्नान, वस्त्रधारण, केश प्रसाधन, काजल, सिंदूर से माँग भरना, महावर, तिलक, चिबुक (ठोढी) पर तिल, मेंहदी, सुगंध लगाना, आभूषण, पुष्पमाल, मिस्सी लगाना, तांबूल, अधरों को रंगना। 19 वीं सदी में षोडश शृंगार में बिंदी, सिंदूर, काजल, मेंहदी, वस्त्र, मांग टीका, नथ, कर्णफ़ूल, हार, बाजूबंद, कंगन या चूड़ी, अंगुठी, करधन, बिछिया, पायल, महावर शामिल थे। विदेशों में रहने वाले भारतीयों के षोडश शृंगार में स्थानीय प्रभाव होने के कारण थोड़ा बदलाव आया है। लंदन में निवासी शिखा वार्ष्णेय कहती है -, शैम्पू, हेयर डाई, बाली, छल्ले (hoops), मालाएँ, टैटू, क्रीम, काजल, लिपिस्टिक, पर्फ़्यूम, ब्लशर, बेल्ट, ब्रेसलेट, घड़ी, मोबाईल, जींस टॉप, पायल (एक पैर में) बिछिया (एक पैर की एक अंगुली में) शृंगार के तौर पर उपयोग में लाए जा रहे हैं।
सौंदर्य पेटिका धारी वनवासिनी  दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा बस्तर
वर्तमान में देखें तो भारत में भी षोडश शृंगार में सम्मिलित कुछ वस्तुओं में परिवर्तन हुआ है। विदेशों की अपेक्षा अत्यधिक परिवर्तन तो यहाँ दिखाई नहीं देता। झरिया निवासी शालिनी खन्ना बताती है - कामकाजी महिलाओं में समय की कमी एवं कार्य स्थल के आवा-गमन को लेकर बदलाव आया है। वर्तमान में विवाहित महिलाएँ शैंपू, परफ़्यूम, बिंदी, लिपिस्टिक, काजल, यारुज, सिंदूर, चूड़ी, मंगलसूत्र, पायल, बिछिया, बाली, मोबाईल, घड़ी, वस्त्र (सलवार कुरती, जींस टॉप) गॉगल का प्रयोग करती हैं। काल परिवर्तन कितना भी हो जाए पर सौंदर्य के प्रति जागरुकता हमेशा बनी रहेगी। इससे पता चलता है कि षोडश शृंगार की कोई निश्चित परिभाषा या सूची नहीं है, देश काल के अनुसार उसमें बदलाव होता रहता है। वर्तमान जब कोई शिल्पकार या चित्रकार अपनी छेनी या कूंची उठाएगा तो अधिक नहीं सिर्फ़ कुछ बदलाव ही दिखाई देगें। जो भविष्य में निर्माण के समय और काल को सूचित करेगें।

शुक्रवार, 23 मई 2014

शिवालयों में कीर्तिमुख अलंकरण

शिवालयों में द्वारपट, स्तंभों, भित्तियों में एक भयावह मुखाकृति बनी दिखाई देती है। इस आकृति को शिल्पकार अपनी कल्पना शक्ति के अनुसार भयावह निर्मित करते थे। देखने से प्रतीत होता है कि किसी राक्षस की प्रतिमा है। भक्तजन इस मुखाकृति को प्रणाम कर आगे बढ जाते हैं। परन्तु उनके मन में हमेशा इस मुखाकृति के प्रति कौतुहल बना रहता है। कुछ मित्र मुझसे इस आकृति के विषय में हमेशा चर्चा कर अपनी जिज्ञासा शांत करते हैं। उनका प्रश्न रहता है कि इस आकृति को शिवालयों में क्यों निर्मित किया जाता है? यह आकृति शिवालयों के साथ जैन मंदिरों के शिल्प में भी पाई जाती है। खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर में भी इस मुखाकृति को मंदिर शिल्प में स्थान दिया गया है।
कीर्तिमुख (भीमा-कीचक) मल्हार छत्तीसगढ़
इस मुखाकृति को कीर्तिमुख कहा गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसका जीवंत निर्माण लंका के प्रवेशद्वार पर शुक्राचार्य द्वारा किया गया था। वर्णन है कि शुक्राचार्य ने "रुद्र कीर्तिमुख" नाम का दारुपंच अस्त्र लंका के प्रवेशद्वार पर स्थापित किया, बाहर होने वाली प्रत्येक गतिविधि इस पर चित्रित होकर दिखाई देती थी। इसके मुख से अग्नि का गोला निकल कर शत्रु का संहार करता था। लंका में कीर्तिमुख का अस्त्र के रुप में प्रयोग किया गया। वर्तमान में हम घरो, दुकानों एवं अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर सी सी टी वी कैमरों का इस्तेमाल करते हैं, इसी तरह कीर्तिमुख अस्त्र का निर्माण कर प्रयोग किया गया था।

कीर्तिमुख के विषय में एक कथा मत्स्य पुराण अ 251 में आती है -  अंधकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेद बिंदू गिरे उनसे एक भयानक आकृति का पुरुष प्रकट हुआ। जिसने अंधकगणों का रक्त पान किया, परन्तु अतृप्त ही रहा। अतृप्त होने के कारण वह भगवान शंकर का ही भक्षण करने चल दिया। इस कारण महादेवादि देवों ने इसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रुप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया।  इसलिए यह वास्तु पुरुष या वास्तु देवता कहलाने लगा। देवताओं ने वास्तु को  गृह निर्माण, वापी, कूप, तड़ाग, गरी, मंदिर, बाग बगीचा, जीर्णोद्धार, यग्य मंडप निर्माणादि में पूजित होने का वरदान दिया। तब से यह वास्तु देवता के रुप में पूजित एवं प्रतिष्ठित है।
कीर्तिमुख (ताला) छत्तीसगढ़
एक अन्य कथा में  बताया गया है कि प्राचीन काल में  जलंधर नामक एक महाशक्तिशाली दैत्य उत्पन्न हुआ जिसने अपनी तपस्या के बल पर  ब्रह्मा को खुश करके कई वरदान प्राप्त कर लिये। इसने जंगल के मध्य अपने लिए एक भव्य भवन का निर्माण कराया और एक राक्षसी सेना भी तैयार कर ली। इससे इसकी ताकत बहुत बढ़ गई और मन में अहंकार भी समा गया। अब वह प्रतिदिन संध्या समय एक सुंदर रथ पर सवार होकर भ्रमण के लिए निकलता था और  ऐसे-ऐसे कार्यों को अंजाम दे डालता था जिससे प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठती थी।

इसी क्रम में एक दिन जलंधर रथ पर सवार होकर घूम रहा था कि एक मादक सुगंध उसके नाक में समा गई जिससे वह चकित हो उठा और चतुर्दिक दृश्यों को निहारने पर एक अद्वितीय सुंदर नारी जंगल में घूमती हुई दिखाई दी। तब वह चौंका – कौन है यह नारी? इस सुन्दरी के अंदर तो सृष्टि की सारी सुघड़ता सिमटी जैसी दिखाई दे रही है। ‘यह कैलासपति शिव की पत्नी पार्वती है’, एक सेवक ने उत्तर दिया तो वह हंस पड़ा, ‘भला उस बूढ़े शिव के साथ इस अनुपम सुन्दरी का क्या काम? मैं इसे अपनी पटरानी बनाऊंगा।’ दैत्य ने मन में ठान लिया और बेचैन होकर महल में वापस लौट आया फिर अपने एक सेवक को दूत बनाकर शिव के पास भेजा।
कीर्तिमुख पंचायतन शिवालय सुरंग टीला सिरपुर छत्तीसगढ़
इस सेवक का नाम रोनू था। वह कैलास पर्वत पर पहुंचा तो भोलेनाथ योगसाधना में मगन थे। इससे रोनू तनिक सहमा किंतु शीघ्र अपनी राक्षसी प्रवृत्ति के अनुकूल जोर-जोर से चिल्लाने लगा, ‘आप पार्वती को तुरंत हमारे हवाले करें क्योंकि दैत्यपति जलधर को वह पसंद आ गयी है।’ शिव कुछ सुन नहीं पाये क्योंकि उनकी आंखें मुंदी थीं और पूरा शरीर एकदम स्थिर था। मगर रोनू का हठ तो पराकाष्ठा पर पहुंच गया और अपनी बात चिल्ला-चिल्ला कर बताने लगा। उसकी चिल्लाहट से शिव की तंद्रा टूट गयी और और उन्होंने रोनू की तरफ लाल-लाल आंखों से देखा फिर क्रोध से अपने त्रिनेत्र खोल लिये। इस त्रिनेत्र के खुलते ही आक्रोश की एक रक्तिम धारा बहने लगी जिससे एक विचित्र जीव पैदा हो गया। 

इस जीव के चेहरे का आकार बाघ पशु के समान चौड़ा एवं मजबूत था जबकि हाथ-पैर रस्सी की भांति पतला तथा छिन्न। यह जीव जन्म लेते ही भूख-भूख चिल्लाने लगा और रोनू की ओर लपका। वह शिव के चरणों में गिर पड़ा और प्राण रक्षा के लिए गुहार लगाने लगा। रोनू के गिड़गिड़ाने से शिव को दया आ गयी और उन्होंने माफ कर दिया, पर उस जीव की भूख को मिटाना आवश्यक था। इससे शिव सोच में पड़ गये किंतु शीघ्र ही इस जीव का नामकरण कीर्तिमुख किया फिर प्रेमपूर्ण दृष्टि से निहारते हुए समझाया – पुत्र कीर्तिमुख, जब तक भोजन का प्रबंध नहीं होता तब तक अपने ही हाथ-पैर खाकर भूख मिटा लो।
कीर्तिमुख कंसुवा शिवालय कोटा (फ़ोटो - रिंकेश अग्रवाल कोटा)
बस फिर क्या कहना था, कीर्तिमुख अपने ही हाथ-पैर पर टूट पड़ा और पेट-पीठ भी खा गया। इसके बाद गर्दन की ओर बढ़ा तो शिव ने रोकते हुए कहा  पुत्र कीर्तिमुख, तुम्हारा जीवित रहना आवश्यक है ताकि मेरी कुटिया की सुरक्षा होती रहे अत: तुम द्वार पर नियुक्त हो जाओ। शिव से आदेश पाकर कीर्तिमुख इनके द्वार  का प्रहरी बन गया और अपने जीवन को धन्य कर लिया। इस जीव के अंदर शिव-मस्तिष्क का कल्याण समाहित है, इसलिए शिवालयों में इसकी दैत्यनुमा आकृति बनाने की परम्परा है और यह भी मान्यता है कि जो व्यक्ति कीर्तिमुख की पूजा करके शिवालय में प्रवेश करता है उसकी प्रार्थना शिव तुरंत सुनते हैं। इसी मान्यता स्वरुप शिवालयों में कीर्तिमुख का निर्माण किया जाता है।

गुरुवार, 15 मई 2014

कुंआ: मानव सभ्यता की पहचान

ल ही जीवन है, क्षितिज, जल, अग्नि, गगन एवं हवा आदि पंच तत्वों में अनिवार्य तत्व जल भी है। बिना जल के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मानव ने सभ्यता के विकास के क्रम में जल की अनिवार्य आवश्यकता की पूर्ति हेतु नदियों एवं प्राकृतिक झीलों के किनारे अपना बसेरा किया। वह नदियों एवं झीलों के जल से निस्तारी करता था। जब मानव समूह विशाल रुप लेने लगे तो गाँव एवं नगर बसने  लगे। निवासियों के लिए जल उपलब्ध कराने की दृष्टि से कुंए, तालाब इत्यादि निर्मित किए जाने लगे। आवागमन के मार्गों पर जल की व्यवस्था कुंए एवं प्याऊ के रुप में की जाने लगी। इस तरह भू-गर्भ जल की उपस्थिति को मनुष्य ने जान लिया और मानवकृत जल के संसाधन विकसित होने लगे।
हड़प्पाकालीन नगर लोथल (गुजरात) के कुंए का निरीक्षण करते हुए विनोद गुप्ता जी के साथ
पेयजल की उपलब्धता के लिए प्राचीन काल से मानव ने कुंए, बावड़ियों एवं तालाबों का निर्माण किया। पुरातात्विक स्थलों के उत्खनन के दौरान प्राचीन नगर बसाहटों में कुंए मिलते हैं। हड़प्पा काल में नगर के मध्य एवं व्यापारिक केन्द्रों में पक्के कुंए होते थे। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा, लोथल इत्यादि स्थानों पर उत्खनन के दौरान पक्के कुंए प्राप्त हुए हैं। इसी तरह छत्तीसगढ़ अंचल के सिरपुर में पक्के प्राचीन कुंए उत्खनन में प्राप्त हुए हैं, जिनमें अभी भी मीठा जल उपलब्ध है। इसके साथ ही प्राचीन व्यापार मार्गों पर भी कुंओं के अवशेष मिलते हैं। 

तुलसीदास जी ने रामचरित मानस में रावण की वाटिका वर्णन करते हुए लिखा है - बन बाग उपवन वाटिका, सर कूप वापी सोहाई। जल के बिना जीवन नहीं है, अत: रावण की लंका में भी कूप, वापी सरोवरों की बहुतायता पाई गई। स्नान के लिए सरोवर, पेयजल की प्राप्ति के लिए कूप एवं सिंचाई तथा पशुओं की निस्तारी के लिए बावड़ियों का निर्माण कराया गया था। राज्य द्वारा प्रजा की सुविधाओं को ध्यान में रखते हुए जल की उत्तम व्यवस्था की जाती थी। 

संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कवि बाण अपनी कृति कादंबरी (सातवीं शताब्दी) में पोखर-सरोवर खुदवाने को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे. लोक-कल्याण हेतु इस प्रकार के खुदवाए गए जलकोष को चार वर्गों में विभाजित किया गया है- 1.कूप जिसका व्यास 7 फीट से 75 फीट हो सकता है और जिससे पानी डोल-डोरी से निकाला जाए, 2. वापी, छोटा चौकोर पोखर, लंबाई 75 से 150 फीट हो और जिसमें जलस्तर तक पाँव के सहारे पहुँचा जा सके, 3.पुष्करणी, छोटा पोखर, गोलाकार, जिसका व्यास 150 से 300 फीट तक हो, 4.तड़ाग पोखर, चौकोर, जिसकी लंबाई 300 से 450 फीट तक हो.।

जल की व्यवस्था हमारे समाज के लिए कभी मजबूरी रही होगी परन्तु कालांतर में इसने परम्परा का रुप ले लिया। पोखर की चर्चा ऋग्वेद में भी है. गृह्मसूत्र के अनुसार, किसी भी वर्ग या जाति का कोई भी व्यक्ति, पुरूष या स्त्री पोखर खुदवा सकता है और यज्ञ करवाकर समाज के सभी प्राणियों के कल्याण-हेतु उसका उत्सर्ग कर सकता है. आज भी यह काम पुण्य कमाने का समझा जाता है। कुंआ पोखर आदि निर्माण करने को प्रोत्साहित करने के लिए शास्त्रों द्वारा महिमा मंडन किया गया, कहते है - जो धनी पुरुष उत्तम फल के साधन भूत ‘तडाग’ का निर्माण करता है और दरिद्र एक कुआँ बनवाता है, उन दोनों का पुण्य समान होता है। जो पोखरा खुदवाते हैं, वे भगवान् विष्णु के साथ पूजित होते हैं।

महाभारत में भीष्म पर्व के माध्यम से वेदव्यास ने कोई तालाब कितने समय के लिए पानी संचित रख सकता है उसके अनुरूप उनका विभाजन किया है। उन्होंने इस तरह के तालाबों के निर्माण से मिलने वाले पुण्य की भी व्याख्या की है। हिन्दू संस्कृति में इस तरह के जल-स्रोतों का निर्माण एक धार्मिक कृत्य माना जाता रहा है और इसे अपनी कीर्ति रक्षा का सबसे सहज उपाय भी बताया गया है। कूप या कुएं इस श्रृंखला की सब से छोटी इकाई हुआ करते थे जो कि न केवल पेय जल के स्रोत थे वरन उनके आकार के अनुसार उनसे सिंचाई की भी संभावनाएं बनती थीं। 
सिरपुर के बाजार क्षेत्र के मध्य कुंआ
कवि केशवदास ने कविप्रिया में नगर वर्णन करते हुए लिखा है -  खाई कोट अट ध्वजा, वापी कूप तड़ाग, वार नारी असती सती, वरनहु नगर सभाग। पदमावत में जिक्र है कि वारी सुफ़ल आहि, तुम बालापन में ही फ़ल गई, मध्यकाल में वाटिका लगाने के बाद उसका विवाह किया जाता था। तब तक लगाने वाला उसका फ़ल न खाता था। वाटिका लगाने एवं फ़लने के बाद वापी कूप तड़ाग का विवाह करने के बाद ही स्वामी उनका उपभोग करता था। व्यंग्य करते हुए कहा है कि - तुम्हारी वाटिका तो कुंवारी ही फ़ल गई।

कुंओं का निर्माण करना साधारण कार्य नहीं था। भू-गर्भ से जल निकालने के लिए भू-तल तक उत्खनन करना पड़ता था। कुंओं का निर्माण करने के लिए शिल्पशास्त्रों ने विधान बताया है। शिल्पशास्त्र मयमतम के रचयिता कहते हैं - ग्राम आदि में यदि कूप नैऋत्य कोण में हो तो व्याधि एवं पीड़ा, वरुण दिधा में पशु की वृद्धि, वायव्य कोण में शत्रु-नाश, उत्तर दिशा में सभी सुखों को प्रदान करने वाला तथा ईशान कोण में शत्रु का नाश करने वाला होता है । ऐसा कहा गया है ॥१-२॥ वराह मिहिर ने कहा है -  यदि ग्राम के या पुर के आग्नेय कोण में कूप हो तो वह सदा भय प्रदान करता है तथा मनुष्य का नाश करता है । नैऋत्य कोण में कूप होने पर धन की हानि तथा वायव्य कोण में होने पर स्त्री की हाने होती है । इन तीनों दिशाओं को छोड़कर शेष दिशाओं में कूप शुभ होता है ॥४-५॥

स्थान चयन के लिए परम्परागत साधनों से भू जल की उपस्थिति जांचने के बाद समस्त देवताओं का आहवान एवं पूजन करके कूप का निर्माण निश्चित किया जाता था। सही मुहूर्त में कूप का निर्माण प्रारंभ किया जाता था। भूमि के आधार पर कुंओं को खोदने के पृथक पृथक निर्माण विधि प्रयोग में लाई जाती थी। जहाँ मिट्टी मजबूत होती थी वहाँ वांछित गहराई तक कुंआ खोदने के पश्चात उसे ईंटों या पत्थरों से पक्का बांधा जाता था। जहाँ रेत पाई जाती है वहाँ जमीन पर ही कुंओं की चिनाई करके बाद उसके नीचे की रेत धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक निकाली जाती है। इसे स्थानीय भाषा में "कोठी गलाना" कहते हैं। यह विधि खतरनाक भी  है क्योंकि यहाँ कुंओं में जल सामान्य से अधिक उत्खनन के पश्चात निकलता है। कभी कभी ईटों के भसकने के कारण मजदूरो के दब जाने से जान लेवा दुर्घटनाएँ हो जाती हैं।

शास्त्रकार कूप निर्माणकार के प्रोत्साहन की दृष्टि से नारद पुराण कहता है- एकाहं तु स्थितं पृथिव्यां राजसन्तम। कुलानि तारयेत् तस्य सप्त-सप्त पराण्यपि।।65।। अर्थात्-जिसकी खुदवाई हुई पृथ्वी में केवल एक दिन भी जल स्थित रहता है, वह जल उसके सात कुलों को तार देता है। दीपालोक प्रदानेन वपुष्मान् स भवेन्नरः। प्रेक्षणीय प्रदानेन स्मृतिं मेधां च विंदति।।66।। अर्थात्- ‘दीप दान’ करने से मनुष्य का शरीर उत्तम हो जाता है और जल के दान के कारण उसकी स्मृति और मेधा बढ़ जाती है। -बृहस्पति स्मृति।  

शास्त्रों में नृपों के लिए स्पष्ट निर्देश देकर जल प्रदुषित एवं जल साधन नष्ट करने वाले के लिए दंड का विधान किया गया है। लिखित स्मृति कहती है- पूर्णे कूप वापीनां वृक्षच्छेदन पातने। विक्रीणीत गजं चाश्वं गोवधं तस्य निर्द्दिशेत्।। अर्थात्- जो मनुष्य कुआँ या बावड़ी को पाट देता है, वृक्षों को काट कर गिरा देता है तथा हाथी या घोड़े को बेचता है, उसे ‘गौ के हत्यारे’ के समान मानकर दण्डित करना चाहिए। ‘तडाग देवतागार भेदकान् घातयेन्नृपः।।‘ ‘अग्नि पुराण’ में राजाओं के लिए स्पष्ट निर्देश है कि यदि कोई व्यक्ति जलाशय या देवमंदिर को नष्ट करता है तो राजा उसे ‘मृत्युदण्ड’ से दण्डित करे। स्कंद पुराण के माहेश्वर खण्ड में कहा गया है कि जो व्यक्ति पोखरा को बेच देते हैं, जो जल में मैथुन करते हैं तथा जो तालाब और कुओं को नष्ट करते हैं, वे ‘उपपातकी’ हैं। ऐसे व्यक्ति जब दुबारा जन्म लेते हैं तो वे अपने ‘हाथों’ से वंचित होते हैं।
सिरपुर के प्राचीन बाजार क्षेत्र के मध्य कुंआ
जल सर्वकाल में मानव एवं चराचर जगत के लिए जीवन का स्रोत है, इसके महत्व को प्राचीन काल के मानवों ने समझा तथा जल की समुचित व्यवस्था की ओर ध्यान देते हुए जल के संसाधनों के रुप में कूप, तालाबों का निर्माण करवाया। हरियाणा, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के हरितक्षेत्र में कुंआ पूजन का विधान है। पुत्र जन्म होने पर स्त्रियाँ सद्य: प्रसुता से कुंए की समारोह पूर्वक पूजा करवाती हैं। यह जल संसाधन के प्रति सम्मान एवं कृतज्ञता प्रकट करने का सामाजिक नियम निर्मित किया गया है। इस तरह कुंए प्राचीन काल से मानव सभ्यता एवं प्राणी जगत की जलापूर्ति का साधन बने हुए हैं। बढती हुई जनसंख्या के समक्ष जलापूर्ति एक विकराल समस्या के रुप में सामने आ रही है। भू-जल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। पर्जन्य से जितना जल पृथ्वी पर आता है उसे बचाकर भू-गर्भ के जल की वृद्धि करने का प्रयत्न करना चाहिए।

शुक्रवार, 9 मई 2014

कौड़ी, तू कितने कौड़ी की?

प्राचीन स्थलों पर उत्खनन के दौरान अन्य वस्तुओं के साथ कौड़ियाँ, शंख, सीप भी पाई जाती हैं। इससे जाहिर होता है कि ये मानव जीवन का अहम हिस्सा थी। शंखों से चूड़ियाँ बनाई जाती थी तो सीप और छोटी शंखियाँ आभुषण के रुप में प्रयुक्त होती थी। इनमें कौड़ियों का अहम भूमिका थी। मानव ने जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए समाज का निर्माण किया और समूहों में रहने लगा। जीवनोपयोगी आवश्यकताओं की वस्तु के लिए चोरी डकैती करने की बजाए उसने  विनिमय के तौर पर वस्तुओं का आदान-प्रदान किया। स्वयं के पास आवश्यकता से अधिक कोई वस्तु उपलब्ध होने पर अन्य आवश्यक वस्तु से बदला किया। वस्तु विनिमय में बहुत जटिलताएं थी, वस्तु के योग्य मूल्य नहीं मिल पाता था तथा संचयन आदि की आवश्यकता को देखते हुए विनिमय के लिए मुद्रा की आवश्यकता हुई, तब उसने कौड़ियों का इस्तेमाल विनिमय के लिए प्रारंभ किया होगा।

ऐसा नहीं है कि कौड़ियाँ उन्हे सहज ही उपलब्ध हो जाती थी। प्राप्त करने के लिए श्रम करना पड़ता था। कौड़ी जल में पाए जाने वाले जीव (घोंघा) की एक प्रकार की जाति गैस्ट्रोपोडा की उपजाति प्रोसेब्रैकिया है। कौड़ी इस जीव का अस्थिकोश है। यह कुबड़ा खोल रंगीन एवं चमकीला होता है तथा विभिन्न आकृतियों में पाया जाता है। कौड़ियाँ प्राय: हिन्द एवं प्रशांत महासागर के तटीय जल में पाई जाती हैं। रंगीन कौड़ी को प्रशांत महासागर क्षेत्रीय राजा आभुषण के तौर धारण करते थे तथा अफ़्रीका एवं भारत में मुद्रा के तौर पर प्रचलित थी। कौड़ियों की खास पहचान होती है, कौड़ियों के 165 प्रकारों में कुछ प्रयोग ही मुद्रा के तौर होता था। सिर्फ़ "मनी कौड़ी" एवं "रिंग कौड़ी" मे से मनी कौड़ी पीली या हल्के पीले रंग की होती है। भारत एवं एशिया में इसका ही मुद्रा के तौर पर चलन था।

कौड़ियों के विनिमय का मापदंड तय करके लागु किया गया। जिसे विभिन्न कालों में पृथक-पृथक नामों से जाना जाता था। लगभग 3000 से 4500 वर्ष पहले, मध्य चीन में कौड़ी को मुद्रा का प्रारंभिक रूप माना जाता है, मार्कोपोलो ने अपनी चीन यात्रा के दौरान कौड़ियों का प्रयोग मुद्रा के तौर पर होते देखा। अफ़्रीका तथा युरोप के देशों में मुद्रा के तौर पर कौड़ियों का चलन रहा है। मालद्वीप को "कौड़ियों का देश" कहा जाता था इस स्थान से जहाजों भर कर कौड़ियाँ युरोप के देशों में ले जाई जाती थी। यदि मालदीव कौड़ियों को इकठ्ठा करने का केंद्र था तो भारत उनके वितरण का केंद्र था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ज़माने में भारत में हर वर्ष चालीस हजार पौंड के मूल्य की कौड़ियों का आयात किया जाता था। मुद्रा के तौर पर इसका चलन भारत में 20 वीं शताब्दी में सन् 1939 ईस्वीं तक था। 

प्रारंभिक मुद्रा के रुप में कौड़ियों का प्रचलन था। धातू के सिक्के आने के बाद इसके मानक तय किए गए। भविष्य पुराण में मजदूरों को पारिश्रमिक देने का उल्लेख मिलता है। उस काल में मजदूरी "पण" मुद्रा के रुप में दी जाती थी। बीस कौड़ी की एक कांकिणी और चार कांकिणी का एक "पण" माना गया। मेवाड़ राज्य में  २० भाग = १ कौड़ी, २० कौड़ी = आधा दाम, २ आधा दाम = १ रुपया माना जाता था। सर जॉन माल्कन के अनुसार  ४ कौड़ी = १ गण्डा, ३ गण्डा = १ दमड़ी, २ दमड़ी = १ छदाम,  २ छदाम = १ रुपया (अधेला), ४ छदाम = १ रुपया = ९६ कौड़ी मुद्रा मान था। छत्तीसगढ़ में सदियों से कोरी का मान चलता है, जिससे कौड़ी का भ्रम होता है। पर एक कोरी का मान 20 है और सारी गणना इसके आगे पीछे ही चलती है, जैसे दू आगर 10 कोरी = 202 या फ़िर पाँच कम 10 कोरी = 95 की संख्या होती है।

कौड़ियों ने मानव की सभ्यता के साथ एक लम्बा सफ़र तय किया है। इसके प्रचलन के बाद ही धातुओं के सिक्के विनिमय के लिए प्रयोग में आए। तांबे, चाँदी एवं सोने ने सिक्के का रुप लेकर मुद्रा का स्थान प्राप्त कर लिया और कौड़ी चलन से बाहर हो गई। परन्तु इसका प्रयोग वर्तमान में भी मांगलिक कार्यों एवं श्रृंगार के तौर पर हो रहा है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में आज भी कौड़ियों का उपयोग होता है। अहिर जाति इसे अपने अंग वस्त्रों में लगाकर सौंदर्य वृद्दि करती है वहीं आदिवासी अंचल में नृत्य के समय कलाकार कौड़ियों के आभुषण धारण कर सौंदर्य वृद्धि करते हैं। भारत के अन्य प्रदेशों में भी कौड़ियों का प्रयोग होता है। किसी न किसी तरह से कौड़ी मानव की जीवन यात्रा में भौतिकता के इस दौर में भी सम्मिलित है।

कहावतों में कौड़ियाँ भी ढल गई, दो कौड़ी का आदमी, इससे तात्पर्य है वह आदमी किसी काम का नहीं है। दौ कौड़ी में भी मंहगा है, अर्थात अनुपयुक्त है, कोई काम का नहीं है। फ़ूटी कौड़ी  एवं कानी कौड़ी आदि कहावतों से जाहिर होता है विनिमय के लिए फ़ूटी कौड़ी एवं कानी (छिद्र युक्त) कौड़ी को दोषपूर्ण माना जाता था। जिस तरह वर्तमान में खोटा सिक्का या कटा फ़टा नोट समझा जाता है। दूर की कौड़ी लाना अर्थात कोई महत्वपूर्ण वस्तु, सुझाव या जानकारी लाना। इससे जाहिर होता क्षेत्र के अलावा अन्य कहीं दूरस्थ स्थान से बेहतरीन स्तर की कौड़ी भी लाई जाती थी। इस तरह कई तरह की कहावतों में कौड़ियों का इस्तेमाल हुआ है। 

कौड़ी से पासे का खेल खेला जाता था और खेला भी जाता है। अभी भी गावों में समय व्यतीत करने एवं मनोरंजन के लिए कौड़ियों से तीरी-पासा खेला जाता है। कौड़ी एवं सीपों अब घर सजाने के लिए विभिन्न तरह के सजावटी बंदनवार, तोरण, हैंगर इत्यादि बनाए जाने लगे हैं। कौड़ी को लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। त्यौहारों में विवाहादि मांगलिक अवसरों पर कौड़ी का चलन अब भी कायम है। भले ही कौड़ी मुद्रा के रुप में चलन से बाहर हो गई हो पर कहावतों एवं लोकसंस्कृति में लोक के जनमानस में अभी भी श्रद्धा की पात्र बनी हुई है।चाहे कितना भी सांस्कृतिक बदलाव आ जाए पर कौड़ी प्राचीन काल से लेकर अब तक मानव के साथ जुड़ी हुई है। कौड़ी से बिछुड़ने की सोचना भी दूर की कौड़ी है।

मंगलवार, 6 मई 2014

खोपड़ी: महापाषाण कालीन सभ्यता का साक्षी

भूगोल में किसी एक प्रदेश या भूखंड में सभ्यताएं स्थाई नहीं रही। प्रकृति के चक्र के साथ नया बनता गया तो पुराना उजड़ता गया। जब आर्यावर्त की सभ्यता डंके सारे विश्व में बजते थे तब आज के शक्तिशाली राज्य अमेरिका नामो निशान भी नहीं था। महाभारत के युद्ध में सब कुछ गंवा देने के बाद आर्यावर्त में नई सभ्यता का उदय हो रहा था। तब इस काल में मिश्र की सभ्यता उत्कर्ष पर थी और हम पुन: विकास की ओर बढ रहे थे। इन सभ्यताओं के उदय एवं पतन के साक्ष्य धरती पर पाए जाते हैं, प्राचीन काल के मानव एवं उसकी सभ्यता को जानने के लिए पुरातत्व पर आश्रित होना पड़ता है। पुरातत्ववेत्ता तकनीकि प्रमाणों के आधार पर प्राचीन सभ्यता को सामने लाते हैं। 
माला चा गोटा
अध्ययन की दृष्टि से इतिहास को कई कालखंडों में विभाजित किया गया है। इसमें एक काल खंड मेगालिथिक पीरियड (महापाषाण काल) कहलाता है। भारतवर्ष में विशाल पाषाणखंडों से बनी कुछ समाधियाँ (मृतक स्मृतियाँ) प्राप्त होती हैं जिन्हें महापाषाणीय स्मारक के नाम से सम्बोधित करते हैं। जिस काल में इनका निर्माण हुआ उसे महापाषाण काल कहते हैं। महाराष्ट्र प्रदेश के विदर्भ अंचल में नागपुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर कुही कस्बा है। इस क्षेत्र में महापाषाण कालीन अवशेष पाए जाते हैं। जिसके उत्खनन की जानकारी मुझे डेक्कन कॉलेज के डॉ कांति पवार सहायक प्राध्यापक डेक्कन कॉलेज द्वारा प्राप्त हुई थी। उनके सहयोगियों एवं विद्यार्थियों द्वारा इस उत्खनन कार्य को अंजाम दिया जा रहा था। इस महापाषाण कालीन स्थल पर उत्खनन हो रहे उत्खनन कार्य को मैं देखना चाहता था। 
माला चा गोटा
मुंबई से लौटते हुए उत्खनन निदेशक कांति पवार को फ़ोन करने के पश्चात ज्ञात हुआ कि वे कुही में ही हैं। आज गर्मी बहुत अधिक थी, लू भी चल रही थी। पारा सातवें आसमान पर था, परन्तु उत्खनन स्थल पर पहुंचने की ललक ने तपते हुए सूरज का अहसास नहीं होने दिया। नागपुर से उमरेड़ मार्ग पर पाँच गाँव से बाँए हाथ को कुही के लिए रास्ता जाता है। इस रास्ते पर पत्थर की खदाने भी दिखाई देती हैं। जिनमें अभी उत्खनन जारी है। प्रारंभ में तो रास्ता धूल घक्कड़ से भरा हुआ है परन्तु आगे बढने पर ग्रामीण वातावरण की झलक दिखाई देने लगती है। हम लगभग भोजन के समय ही कुही पहुंचे। डॉ कांति पवार भोजन के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने साथ ही भोजन किया और साईड देखने चल पड़े।
महापाषाण कालीन स्मारक
कुही कस्बे से थोड़ी दूर पर "माला च गोटा" नामक महापाषाण कालीन स्थल है। देखने से प्रतीत होता है कभी यह घन घोर वन क्षेत्र रहा होगा। सड़क के बांई तरफ़ बड़े पत्थरों का गोला बना हुआ है। जिसका ब्यास लगभग 15 मीटर होगा। इसे मेगालिथिक सर्कल (महापाषाण कालीन वृत) कहते हैं। इस सर्कल में सफ़ेद पत्थरों का प्रयोग किया गया है। शायद आस पास कहीं इन पत्थरों की उपलब्धता हो। पत्थरों का आकार बड़ा होने से ज्ञात होता है कि इस स्थान पर दफ़्न किया गया व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से उच्च स्थान एवं सम्मान का पात्र होगा। अन्य स्थानों पर मेगालिथिक सर्कल मिलते हैं पर बड़े आकार के पत्थर मेंरी दृष्टि में देखने में नहीं आए। अगर इन पत्थरों को ध्यान से देखें तो "स्टोंन हेंज" की संरचना सामने आती है। उसमें गढे हुए पत्थर हैं और ये अनगढ़, बस फ़र्क इतना ही है। स्टोन हेंज एवं माला च गोटा दोनो को बनाने का प्रयोजन एक ही रहा होगा।
उत्खनन कार्य
स्मृति शब्द से ही  स्मरण रखने, करने का अर्थ निकलता है। वर्तमान में भी हम देखते हैं कि किसी की मृत्यू होने के पश्चात उसे याद रखने के लिए लोग मंदिर, धर्मशाला, प्याऊ, स्कूल एवं प्रतिमाओं का निर्माण करवाते हैं। यही याद रखने वाली एषणा मनुष्य की सभ्यता के साथ चली आ रही है। इस नश्वर लोक में व्यक्ति कुछ ऐसा कर जाना चाहता है कि जिससे उसे युग युगांतर आने वाली पीढियाँ याद कर सकें, स्मृति में संजोकर स्मरण कर सकें।  महापाषाण काल में भी मृतकों के लिए स्मारकों का निर्माण किया जाता था। मृतक के अंतिम यात्रा स्थल पर स्मृति स्वरुप विशालकाय पत्थरों का प्रयोग किया जाता था। किसी कब्र के स्थान पर एक पत्थर प्राप्त होता है किसी स्थान पर स्मृति वृत बना हुआ प्राप्त होता है। मृतक के साथ उसकी दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुएँ एवं उसकी निजी प्रिय वस्तुओं को भी दफ़नाया जाता था। इस मैगालिथिक सर्कल में मुझे 3 बड़े गड्ढे दिखाई, जाहिर होता है कि "ट्रेजर हंटर्स" ने खजाने की खोज में इसे भी खोद डाला।
उत्खनन में प्राप्त मृदाभांड के टुकड़े
मेगालिथिक सर्कल एक टीले पर बना हुआ है। इसके बांई तरफ़ एक नाला बहता है और नाले के उस तरफ़ भी ऊंचाई वाला स्थान है। यही उत्खनन कार्य चल रहा है। इस स्थल के समीप ही नाग नदी बहती है। हमने स्थल निरीक्षण किया और पाया कि इस स्थान पर अन्य मेगालिथिक प्रमाण भी उपस्थित हैं। उत्खनन स्थल "खोपड़ी" कहलाता है। इसे रीठी गाँव कहते हैं। रीठी गाँव से तात्पर्य है वीरान गाँव, जो कभी आबाद था और उजड़ गया। राजस्व रिकार्ड में खोपड़ी गाँव का नाम दर्ज है और उसका रकबा भी है। परन्तु स्थान पर कोई बसाहट नहीं है। प्राचीन काल में इस स्थान पर मानवों की बड़ी आबादी रही होगी। जिसके अवशेष उत्खनन में प्राप्त हो रहे हैं। 5 वर्ष पूर्व इस स्थान सर्वेक्षण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पुराविद डॉ सुभाष खमारी ने किया था तथा वर्तमान में उत्खनन कार्य डेक्कन कॉलेज के उत्खनन निदेशक कांति पवार के निर्देशन में  डॉ गुरुदास शेटे, डॉ रेशमा सांवत के द्वारा किया जा रहा है।
उत्खनन स्थल पर डॉ रेशमा सावंत, ललित शर्मा एवं किसान भाऊ
डॉ कांति पवार ने बताया कि इस स्थान से उत्खन में भूतल के तीन स्तर पाए गए हैं, साथ ही अस्थियाँ, काले एवँ लाल मृदाभांड के टुकड़े एवं चित्रित मृदा भांड अवशेष, खाद्यान्न जमा करने के बड़े भांड, सिल बट्टा, लोहे का चीजल, लोहे की छड़ एवं अन्य सामग्री प्राप्त हुई है। जो इतिहास की नई परतें प्रकाश में ला रही हैं। महापाषाण काल की संस्कृति को लगभग 3500 वर्ष प्राचीन माना जाता है। उत्खनन धीमी गति से पर पुरातात्विय मानकों के आधार पर किया जा रहा है। जिससे की एक भी प्रमाण नष्ट न होने पाए। इस उत्खनन स्थल की 15 हेक्टेयर भूमि पे खेत हैं जिनमें गेंहू की फ़सल बोई गई थी। यह भूमि कुही के किसी जमीदार की है। उन्होने इसे उत्खनन कार्य के लिए सौंप दिया है। किसी को अपनी निजी भूमि पर उत्खनन कार्य कराने के लिए तैयार करना ही बड़ी बात होती है।
डॉ कांति पवार (सहायक प्राध्यापक डेक्कन महाविद्यालय पुणे)
डॉ कांति पवार कहते हैं कि महापाषाण कालीन उपलब्धियों से कुही क्षेत्र समृद्द है। कुही ब्लॉक के 30 किलोमीटर के दायरे में अड़म, मांडल, पचखेड़ी, पोड़ासा, राजोला, लोहरा इत्यादि महापाषाण कालीन स्थल पाए जाते हैं। अड़म में डॉ अमरनाथ ने उत्खनन किया था जहाँ मध्य पाषाणकाल से लेकर सातवाहन काल तक के पुरावशेष प्राप्त हुए। मांडल से वाकाटक नरेश प्रवर सेन का ताम्रपत्र प्राप्त हुआ। पचखेड़ी से मृतक स्तंभ प्राप्त हुआ है। इस तरह कुही क्षेत्र से पुरासम्पदाएँ प्रकाश में आने के कारण इतिहास की परते उघड़ रही हैं। डेक्कन महाविद्यालय का पुरातत्व विभाग इस क्षेत्र में अग्रणी हो कर कार्य कर रहा है।

शनिवार, 3 मई 2014

किल्ला बंदर: वसई फ़ोर्ट की सैर -2

म भी लौट रहे थे कि रास्ते के किनारे एक भवन दिखाई दिया जिस पर आर्किओलाजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया का बोर्ड लगा था। सोचा कि बाकी जानकारी यहाँ मिल जाएगी। वहाँ मुझे जितेन्द्र कुमार मिले। फ़िर उन्होने बताया कि इस किले 109 एकड़ भूमि में विस्तार है। तब मुझे लगा कि हम तो बहुत कम ही देखे हैं, मतलब काफ़ी कुछ यहाँ पर छूट रहा है। अब जितेन्द्र के साथ आम्रवन में भ्रमण करने लगे। किले में उत्खनन एवं सरंक्षण कार्य प्रारंभ है। इस स्थान पर पुर्तगालियों ने कैदखाना बना रखा था। जिसके खंडहर आज भी विद्यमान हैं। जितेन्द्र ने बताया कि ये भूमि में दबे हुए थे और इन्हें उत्खनन के द्वारा बाहर निकाला गया है तथा साथ ही साथ संरक्षण कार्य भी किया गया है।
वसई फ़ोर्ट का एरियल व्यू
हमें पता चला कि इस किले में 5 चर्च थे, जिनमें से 2 चर्च जमींदोज हो चुके हैं और 3 चर्चों के अवशेष अभी भी मौजूद हैं। आगे बढने पर हमें शाही स्नानागार दिखाई दिया। जिसमें एक बहुत ही सुंदर हौद बना हुआ है। हौद तक पहुंचने के लिए पैड़ियाँ भी बनाई हुई है। हौद को सीपियों से अलंकृत किया गया है। अलंकरण में सीपों का प्रयोग मैने पहली बार देखा। देख कर ही लगता है इसे बड़े मनोयोग से निर्मित एवं अलंकृत किया गया है। अलंकरण में रकाबियों का प्रयोग भी किया गया है। प्रतीत होता है कि यह हौद किसी विशिष्ट रानी के लिए बनाया गया होगा। यह शाही स्नानघर किले के मध्य में स्थित है। 
रानी का हौद
आगे बढने पर कस्टम कालोनी किले के भीतर बनी हुई दिखाई दी। पता चला कि इस कालोनी का निर्माण भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा अपने अधिकार में लेने के पूर्व किया गया है। इस कालोने के पास एक प्राचीन हनुमान मंदिर भी है। जिसका दीप स्तंभ पाषाण निर्मित है। इस मंदिर के समीप ही सेंट फ़्रांसिस चर्च की विशाल ईमारत है। इस ईमारत को जितेन्द्र ने कब्रिस्तान बताया। जब हम ईमारत में पहुंचे तो इसके फ़र्श पर स्मृति पट लगे हुए दिखाई दिए। पढने पर ज्ञात हुआ कि ये पुर्तगालियों के हैं। कई पत्थरों पर राज्य चिन्ह बना हुआ था और उसके नीचे मृतक के विषय में जानकारी दी हुई थी। कई स्मृतिपट लगभग 8 फ़ुट के भी दिखाई दिए।
मृतक स्मृति शिलापट
इतिहास पर नजर डालें तो वसई गाँव उल्लास नदी के तट पर बसा है, इसे वसई बेसिन भी कहते हैं। वसई फ़ोर्ट का इतिहास अधिक पुराना तो नहीं है पर यह जलदूर्ग अपने समय में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। यह स्थान बड़ा व्यापारिक केंद्र था इसलिए गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने 1533 ईस्वी में इस दुर्ग की संरचना के रुप में बाले किला को अंजाम दिया। व्यापारिक दृष्टि से इस किले पर पुर्तगालियों की नजर थी। उन्होने अपने सेना के द्वारा इस किले पर कब्जा कर लिया और गुजरात के सुल्तान के साथ 23 दिसम्बर 1534 को संधि के द्वारा मुंबई सहित पूरे तटीय क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। 1590 में परकोटे का निर्माण कराया गया। पुर्तगालियों ने इसे नए सिरे से बनवाया। जिससे पूरी बस्ती ही इस परकोटे भीतर समा गई। 
वसई फ़ोर्ट का पिछला द्वार
सुरक्षा की दृष्टि से किले के चारों ओर 11 बुर्जों का निर्माण करवाया और भव्य चर्च एवं भवनों का निर्माण किया। इसे पुर्तगालियों ने अपनी व्यापारिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र बनाया। पुर्तगाल की राजकुमारी का विवाह इंग्लैंड के राजकुमार से 1665 में हुआ। कन्याधन के रुप में मुंबई का द्वीप समूह एवं आस पास के क्षेत्र अंग्रेजों को ह्स्तांतरित कर दिए गए। यह किला लगातार 200 वर्षों तक पुर्तगालियों के अधिकार में रहा। मराठा शासक बाजीराव पेश्वा के छोटे भाई चीमा जी अप्पा ने 1739 में अपने कब्जे में ले लिया। इस युद्ध में भवनों एवं चर्चों को अपार क्षति पहुंची, भारी लूट पाट की गई, चर्चों के घंटों को हाथियों पर लाद कर ले जाया गया और उन्हें मंदिरों में स्थापित कर दिया गया। सन 1801 में  बाजीराव द्वितीय के निरंकुश शासन से तंग आकर यशवंत राव होलकर ने बगावत का झंडा बुलंद कर दिया। 
पिछले द्वार के समीप हनुमान  जी का मंदिर
इस युद्ध में बाजीराव द्वितीय पराजित हुआ। उसने वसई के किले में शरण ली। इसके बाद कुछ वर्षों तक वसई किले का नाम बाजीपुर भी रहा। सन 1802 में बाजीराव द्वितीय एवं अंग्रेजों के बीच संधि (बेसीन संधि) हुई। जिसके तहत बाजीराव को पुन: पेशवा की गद्दी पर बैठाने का वचन अंग्रेजों ने दिया। इस कूटनीतिक चाल के बदले अंग्रेजों वसई के किले साथ सम्पूर्ण  समुद्री क्षेत्र पर ही अधिकार कर लिया। वैसे पुर्तगालियों ने इस स्थान को अपनी नौसेना का प्रमुख केंद्र बनाया था और इस तट पर जहाज निर्माण के कारखाने भी संचालित किए थे। 
सेंट फ़्रांसिस चर्च (कब्रिस्तान)
इस भवन में कई खंड हैं, मध्य खंड  के अंतिम छोर पर वेदी बनी दिखाई देती है। जहाँ से पादरी धार्मिक प्रार्थना करवाते होगें। हो सकता है यह स्मृति शिलापट कहीं अन्य स्थान से लाकर यहाँ लगाए गए होगें। क्योंकि मुझे वहां कब्र जैसी कोई संरचना दिखाई नहीं थी। दूसरे खंड में कुछ गोलटोपी वाले क्रिकेट खेल रहे थे। स्मारक के भीतर किसी को क्रिकेट खेलते हुए देख कर मुझे हैरानी भी हुई। परन्तु फ़िर ख्याल आया कि वर्तमान में पर्यटकों सुरक्षा की दृष्टि से यह स्थान असुरक्षित है। किसके साथ कब दुर्घटना घट जाए उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इस सुनसान स्थान का उपयोग आपराधिक प्रवृत्ति के लोग निर्बाध रुप से करते हैं। यहाँ कई हत्या एवं आत्महत्या जैसी घटनाएँ घट चुकी हैं। क्योंकि सारे अपराध सुनसान स्थानों पर ही होते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के कर्मचारी इन अपराधिक तत्वों से मुड़भेड़ नहीं कर सकते, जान सभी को प्यारी है।
चर्च की वेदी पर लव स्टोरी
इस स्थान का उपयोग अधिकतर प्रेमालाप के लिए किया जाता है। दूर-दूर से लड़के एवं लड़कियाँ बाईक पर आते हैं और प्रेमार्थ प्रयोजन सिद्ध करते हैं। सेंट फ़्रांसिस चर्च कि जिस वेदी की मैं चर्चा कर रहा था उस वेदी पर एक जोड़ा काफ़ी देर से आलिंगनबद्ध था। उसे हमारी उपस्थिति की भी कोई समस्या नहीं थी। मुंबई में स्पेस की कमी है। विवाहित जोड़ों को भी सप्ताह में एक बार होटल बुक करना पड़ता है। अगर किसी के पास इतनी राशि नहीं है तो वे ऐसे ही निर्जन स्थानों पर अपनी क्षुधा शांत करते हैं। जब मैं फ़ोटो लेने लगा तो वह जोड़ा अलग हुआ और बैठ गया। मेरे चित्र लेने से उसे कोई परहेज नहीं था। वर्तमान में कमोबेश सभी पर्यटक स्थलों पर यह नजारे देखने मिल जाते हैं। मैने कई बार दिल्ली के बोट क्लब में दोपहर में ही झाड़ियों की हल्की सी आड़ में खेल होते देखे हैं फ़िर भी यह तो मुंबई है। 
कब्रिस्तान में लेखक

यहाँ से लौटने पर हमारी भेंट वसई फ़ोर्ट के उत्खनन एवं संरक्षण इंचार्ज कैलाशनाथ शिंदे से होती है। इनके निर्देशन में ही यहाँ उत्खनन कार्य हो रहा है। कैलाशनाथ शिन्दे मुझे 30-35 वर्ष के उर्जावान युवा दिखाई दिए। उन्होने किले से उत्खनन में प्राप्त सामग्री दिखाई। जिसमें मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक की सामग्री थी। 5 किलो से लेकर 50 किलो वजन तक के तोप के गोले उत्खनन में प्राप्त हुए। पुर्तगालियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले चीने के बर्तन भी उत्खनन में प्राप्त हुए हैं। काफ़ी बड़ी संख्या में मृदाभांड के टुकड़े भी दिखाई दिए। लोहा, तांबा, कांसे की सामग्री भी दिखाई दी। हम थोड़ी देर उनके दफ़्तर में बैठे। सामग्री के अवलोकन के साथ ठंडा पानी पीते हुए चर्चा हुई।
किले का कारागार
मैने कहा कि किले भीतर की ईमारतें सुनामी में नष्ट हुई हैं। सुनकर कैलाशनाथ ने कहा कि आपने यह आंकलन कैसे किया? मैने कहा कि किला तीन तरफ़ से समुद्र से घिरा हुआ है और इसके समीप इतनी बड़ी कोई नहीं है जिसकी बाढ के कारण इसे नुकसान पहुंचे। उत्खनन में दिखाई दे रहा है कि लगभग 6 फ़ुट से 10 फ़ुट तक गाद (शिल्ट) जमी हुई है। यह गाद भीषण बाढ़ द्वारा ही लाई जा सकती है। नदी की बाढ में 10 फ़ुट तक गाद जमना मुस्किल है, परन्तु सुनामी की एक लहर ही इतनी गाद जमा सकती और भवन को धराशायी कर सकती है। अब अगर कोई लिखित प्रमाण मिल जाए कि अंग्रेजों के समय में या पुर्तगालियों के समय में इस स्थान कौन से वर्ष में सुनामी आई थी, तो मेरा आंकलन प्रमाणित हो सकता है। मेरे विचारों से कैलाशनाथ भी सहमत थे। 
भवनों का संरक्षण कार्य
इनसे विदा लेकर समीप ही स्थित बस स्टॉप पहुंचे। हमें शाम 5 बजे तक वसई रोड़ स्थित घर पहुंचना था। बस स्टॉप के सामने नहर दिखाई दी इस नहर का प्रयोग किले के भीतर जलप्रंबधन के लिए होता होगा। नहर के समीप ही  ब्रजेश्वरी देवी एवं नागेश्वर महादेव के मंदिर बने हुए हैं। इन मंदिरों में सतत पूजित हैं तथा इनकी संरचना भी नई है। बस आने में 10 मिनट हो गए तो कैलाशनाथ शिंदे ऑटो लेकर आ गए और उन्होने वसई रोड़ तक हमारे छोड़ने की व्यवस्था की तथा ऑटो का पेमेंट भी खुद ही किया, हमारे मना  करने पर भी उन्होने किराया नहीं देने दिया। इस तरह हमारा वसई फ़ोर्ट भ्रमण सम्पन्न हुआ। 

शुक्रवार, 2 मई 2014

किल्ला बंदर : वसई फ़ोर्ट की सैर -1

मुंबई की चाल ही निराली है, दिन रात बस चलती ही रहती है। 27 तारीख का दिन फ़ुरसत का था और हमारे पास कोई काम भी नहीं था। आज मुझे वसई फ़ोर्ट देखने जाना था। सिसोदिया साहब भी तैयार हो गए साथ चलने के लिए। मुझे खंडहरों में ही आनंद का अनुभव होता है। हमने वसई फ़ोर्ट जाने का रास्ता पता किया। दर्शन जी के घर से 10-10 रुपए में आटो वाले ने हमें स्टेशन रोड़ पर छोड़ दिया, वहाँ से "पार नाका" जाने के लिए आटो वाले ने 7-7 रुपए लिए। पार नाका मतलब पुराना वसई गाँव। यहाँ से समुद्र के किनारे तक जाने के लिए आटो वाले ने 20-20 रुपए लिए और सीधा ले जा कर किल्ले बंदर छोड़ा। यहाँ से हमारी वसई फ़ोर्ट यात्रा प्रारंभ हुई।
वसई तट पर यार्ड
ऑटो वाले ने हमें जहां छोड़ा, वह स्थान मुझे शिपयार्ड लगा। क्योंकि पुराने कुछ नावें खड़ी थी और उनकी मरम्मत हो रही थी। पास ही एक चाय स्नेक्स का छोटा सा होटल है। आज धूप बहुत चटक है, डायरेक्ट खोपड़ी को गर्म कर रही है। हवा में चिपचिपाहट के साथ धूप आँखों को चुभ रही थी। मेरे पास धूप का चश्मा नहीं था, वरना कुछ राहत मिल जाती। 
एक सेल्फ़ी विद राधेश्याम जी
पिछले साल ही 3 चश्मों की वाट लग गई और वर्तमान में कोई भी ढंग का धूप का चश्मा 500 रुपए से कम में नहीं मिलता। मंहगाई को देखते हुए चश्मा लेना स्थगित कर रखा है, कहना चाहिए नीयत ही नहीं हो रही लेने की। उम्र बढने के साथ पढने वाले चश्मे की भी जरुरत रहती है। अब दो चश्मे लटका के घूमना रास नहीं आ रहा। इसलिए धूप का चश्मा खरीदने की योजना खटाई में पड़ जाती है।
किल्ले बंदर का समुद्रतटीय द्वार
समुद्र के किनारे से किले का द्वार दिखाई देता है, हमने अपने साथ एक पानी की बोतल बैग में रख ली थी, कुछ स्नेक्स एवं कोल्ड ड्रिंक भी। पता नहीं कुछ खाने को मिले या न मिले, इसलिए पहले से ही व्यवस्था कर लेनी चाहिए। वैसे भी आज सुबह का नाश्ता नहीं किया था। नहा धोकर वसई फ़ोर्ट ही चले आए। किले के इस द्वार  की ऊंचाई लगभग 20 फ़ुट होगी। बाहर से दरवाजे में लगे हुए सभी पत्थर गुनिए में दिखाई दे रहे थे। 
द्वार के किवाड़

किले का द्वार मोटी फ़ट्टों से बना हुआ है, फ़्ट्टों की मोटाई लगभग 3 इंच होगी तथा बाहरी तरफ़ से उसे लोहे की पट्टियों से ढका गया है। प्रत्येक पट्टी में नें 9-9 इंच पर मोटी कीलें लगी हुई है। निर्माण की दृष्टि से दरवाजा मजबूत बना हुआ है। पर दरवाजे में कोई झरोखा नहीं है, जिससे आना जाना हो सकता। आवा गमन के लिए पुरा दरवाजा ही खोलना पड़ता होगा और आमदरफ़्त भी कम ही होगी।
द्वार के समीप हनुमान जी का मंदिर और पाठ करते हुए राधे श्याम जी
इस दरवाजे से लगा हुआ आम्र वृक्ष के नीचे हनुमान जी का मंदिर है। जिसकी छत कवेलू की बनी हुई है, लगता है किसी ने व्यक्तिगत अपने घर पर पूजा करने के लिए स्थापित किया होगा, बाद में सार्वजनिक हो गया होगा। सिसोदिया जी बजरंगबली का दर्शन करके वहीं बैठ गए और हनुमान चालिसा एवं बजरंग बाण का पाठ करने लग गए। उनके पाठ करते तक मुझे इंतजार करना पड़ा। 
पुर्तगाली चर्च
आगे बढने पर चर्च का खंडहर दिखाई दिया, खंडहर से पता चल रहा था कि यह चर्च भव्य रहा होगा। चर्च का भ्रमण करने के पश्चात मुझे पता चला कि इस स्थान पर पुर्तगालियों एवं अंग्रेजों का भी कब्जा रहा है। अन्यथा मैं इसे हिन्दू राजाओं का किला समझ कर ही आया था। हम आगे बढते गए और किले के इतिहास की परतें धीरे-धीरे खुलती गई।
किले के भीतर किला
थोड़ा आगे बढने पर किले के भीतर एक दुर्ग का परकोटा दिखाई दिया। इस द्वार पर पुर्तगाली वास्तुशिल्प की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही थी।  द्वारा शीर्ष पर बांई तरफ़ क्रास बना हुआ है, मध्य में राजचिन्ह तथा दांई तरफ़ ग्लोब बना हुआ है। इन चिन्हों से जाहिर होता है कि शासक की मंशा क्या थी। शासक ईसाई धर्म के मार्ग पर चलकर पूरी दुनिया को जीतने की अभिलाषा रखता था, चक्रवर्ती सम्राट होने की लालसा रखता था। अपने धर्म को सम्पूर्ण विश्व में प्रसारित करना चाहता था यह संदेश वह आगंतुकों को अपने प्रवेश द्वार से ही देना प्रारंभ कर देता था। परकोटे से भीतर प्रवेश करने पर भवनों के अवशेष दिखाई दे रहे थे। साथ ही कुछ भवन बहुमंजिला भी थे। एक दुमंजिला भवन के समीप चिमनी बनी हुई है। इस स्थान पर बड़ा चूल्हा रहा होगा, इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान पाकशाला के रुप में प्रयुक्त होता था। 
किले के भीतर मंच एवं कुंआ
दुर्ग के मध्य में लगभग 4 फ़ुट ऊंचा चबूतरा बना हुआ है, जाहिर है दुर्ग के भीतर इस चबूतरे का मंच के रुप में प्रयोग होता होगा। यहाँ पर शासक संध्याकालीन सभा लगाता होगा था नृत्यांगनाओं के नृत्य देखता होगा। इस दुर्ग के भीतर तीन-चार कुंए हैं, जिसमें से एक कुंआ तो वर्तमान में भी निस्तारी के लिए उपयोग किया जा रहा है। दुर्ग से बाहर निकलने के लिए बांई तरफ़ एक द्बार है तथा एक द्वार चर्च में जाकर निकलता है। इस दुर्ग के साथ भी एक भव्य चर्च बना हुआ है। 
अन्य चर्च
यह किला वीरान है तथा चारों तरफ़ झाड़ झंखाड़ उगे हुए हैं। समुद्र के किनारे होने से हवाएं चलते रहती है मिट्टी में नमी होने के कारण हरियाली बनी रहती है। यह सुनसान किला प्रेमालाप करने वालों को उन्मुक्त वातावरण प्रदान करता है। हमें एक स्त्री एवं पुरुष की आवाज सुनाई दे रही थी पर वे कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे। ध्यान देने पर पता चला कि वे गुंबंद के भीतर सीढियों पर कोका सिद्ध कर रहे हैं। इस चर्च से बाहर निकलने पर हम पक्की सड़क पर आ जाते हैं,  जहाँ आम के पेड़ के नीचे लकड़ी के दो लट्ठे पड़े हैं। साथ ही बर्फ़ गोले वाले का ठेला खड़ा है। मुझे इससे उपयुक्त स्थान विश्राम के लिए अन्य कोई दिखाई नहीं दिया। हम लट्ठे पर बैठे और साथ में लाया हुआ नाश्ता करते हुए आते जाते मुसाफ़िरों को देखते रहे, इसका एक फ़ायदा यह हुआ कि हमें सिटी बसें चलती हुई दिखाई दी। इनका अंतिम स्टॉप किल्ले बंदर ही है और यहाँ से चलकर ये बसें वसई रोड़ स्टेशन पहुंचाती है। 
वृक्ष की छांव में स्वानपुत्र संग

पेड़ की छांव में राहत मिली, वरना धूप तो झुलसा रही थी। यहाँ हमने लगभग 1 घंटा विश्राम किया, नाश्ता करने के बाद बर्फ़ गोला वाले से दो गोले बनवाए, दो गोले के उसने 40 रुपए लिए, पर खाने के बाद मजा आ गया। अब हम यहाँ से वापसी की जुगत लगा रहे थे। सोचा कि बस के अंतिम स्टाप तक पैदल ही घूम आएं। हम टहलते हुए बस स्थानक तक पहुंच गए। पर यहाँ स्थानक जैसा कुछ नहीं था। बस आती थी और यहाँ से घूम कर लौट जाती थी। 


गुरुवार, 1 मई 2014

सनी दा ब्याह @ मुंबई

नेट भी ऐसा वर्क करता है कि दूरस्थ बैठे लोगों को भी जोड़ देता है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। अंतरजाल पर आने के बाद कुछ बहुत अच्छे दोस्त मिले तो कुछ बहुत घटिया भी। जो घटिया थे उन्हें मैने छांट दिया और उनकी शक्ल भी नहीं देखता। वे स्वमेव किनारे हो गए। ये घटिया लोग जीवन में इस तरह रड़कते हैं जिस तरह रोटी चबाते वक्त अगर कोई कंकरी दांत के नीचे आ जाए। बस हमने कंकरियों को निमार दिया।
मुंबई लोकल की सवारी
जिन मित्रों की जिंदादिली से दुनिया कायम है उनमें से एक हैं दर्शन कौर धनोए। उनकी मेरी पहचान ब्लॉग़ पर आने के बाद ही हुई। शास्त्र कहते हैं न - संगच्छध्वं संवदध्वं संवोमनांसि जानताम्। अगर मिजाज एक जैसा हो तो मित्रता हो ही जाती है। ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ, दर्शन जी को घुमक्कड़ी का शौक है और मुझे देशाटन का। मित्रता की बात कुछ ऐसे ही जम गई। 
चल भंगड़ा पाईएं
मुझे ब्लॉग लेखन में आए 5 वर्ष बीत गए, अब छठवां वर्ष प्रारंभ है। इस अवधि में न जाने कितने ब्लॉगर आए और कितने चले गए। कईयों का ब्लॉग तो बरसों से बंद पड़ा है और उस पर धूल की परतें जमा हो गई है। पर कुछ लोग अभी भी हैं जो निरंतर लिख रहे हैं भले ही पोस्टों की आवृत्ति कम हो गई, लेकिन उपस्थित बनी हुई है। कुछ महीनों पहले दर्शन जी ने फ़ोन पर कहा कि उनके पुत्र का विवाह है और आपको विवाह समारोह में उपस्थित होना है।
बल्ले बल्ले, तुस्सी किद्धर चल्ले
मैंने हामी भर ली और बात आयी गयी हो गयी। बीच-बीच में वे मुझे याद दिला देती थी। मैं भी हामी भर देता था। फ़िर सोचता था कि बात मुंबई जाने की है। मुझे तो सिर्फ़ दर्शन जी ही पहचानती हैं और अगर शादी में चला गया तो अकेले बोर हो जाऊंगा। क्योंकि शादी में जाने का मतलब है कि उससे जुड़े सभी कार्यक्रमों में उपस्थित भी रहना होगा।
बारात विद डांस
विवाह 26 मार्च का था, मुझे 25 को मुंबई पहुंचना था। 15 मार्च को रेल्वे स्टेशन गया टिकिट करवाने के लिए, टोकन ले लिया जब मेरा नम्बर टिकिट के लिए आने वाला था तब मैने सोचा कि अगर चला गया तो बोर हो जाऊंगा और यही बोरियत मेरे मन पर इतनी हावी हो गई कि बिना टिकिट कराए घर वापस चला आया। मालकिन ने टिकिट के लिए पूछा तो मैने अपने मन की दुविधा बता दी। विवाह के एक हफ़्ते पहले निमंत्रण पत्र भी पहुंच गया। मालकिन ने बताया कि निमंत्रण पत्र आया है, आपको जाना चाहिए। रात को चैट पे मैने बिकास से कहा तो उसने सुबह उठकर तत्काल में 24 मार्च की जाने की टिकिट कर दी। तो मुझे भी जाने की तैयारी करनी पड़ी। 
बारात एवं बाराती 
24 मार्च की सुबह हावड़ा मुंबई मेल से मुंबई के लिए चल पड़ा। दोपहर का खाना नागपुर में मिल गया और रात का खाना घर से लेकर चला था। सफ़र में मुझे बाहर का खाना जमता नहीं है। अगर कोई आपातकालीन स्थिति बन जाए तो फ़लादि का सेवन कर लेता हूँ, पर तला हुआ खाना मेरे लिए पेरु हो जाता है। रायपुर से मुंबई के लिए 2 तरह की ट्रेन चलती हैं। एक तो यहाँ से चलकर सीएसटी जाती हैं, दूसरी एल टी टी कुर्ला जाती है। कुर्ला जाने वाली ट्रेन में जाने से एक तकलीफ़ ये रहती है कि वहाँ से कहीं जाने के लिए 2 बार ट्रेन बदलनी पड़ती है। सीएसटी वाली में दादर उतरने के बाद कहीं भी जाया जा सकता है। इसलिए मैने हावड़ा मुंबई मेल का चयन किया।
गुरुद्वारे में सगाई 
रायपुर से चलने की सूचना मैने मेसेज द्वारा दर्शन जी को दे दी थी। उन्होने कहा कि दादर पहुंचने पर फ़ोन कर देना। हम आ जाएगें लेने के लिए। हमारी ट्रेन सुबह लगभग 5 बजे दादर स्टेशन पर पहुंची। अब मुझे सेंट्रल लाईन से लोकल वाली लाईन पर जाना था। जहाँ से वसई रोड़ के लिए ट्रेन चलती है। पूछने पर पता चला कि 3 नम्बर प्लेटफ़ार्म से वसई रोड़ के लिए ट्रेन जाएगी।
शादी का फ़ुल्ल लोड
दादर से वसई रोड़ के लिए 15 रुपए की टिकिट लेनी पड़ती है, जो फ़ास्ट लोकल एवं स्लो लोकल दोनों में लागु होती है। हमारे यहाँ की अपेक्षा मुंबई में दिन थोड़ी देर से निकलता है। एक ट्रेन आकर प्लेटफ़ार्म पर रुकी और मैं उसमें सवार हो गया। वहीं पर मुझे एक बिलासपुर के अग्रवाल जी मिल गए, उन्हें मीरा रोड़ उतरना था। मीरा रोड़ तो मैं पहले भी आ चुका था संजय जी के पास। मैने दर्शन जी को फ़ोन लगा कर बता दिया कि अब मीरा रोड़ पहुंच रहे हैं। इससे आगे ही वसई रोड़ स्टेशन आता है।
निकासी
मुझे वसई वेस्ट में जाना था। वेस्ट के प्लेट फ़ार्म पर उतरा तो मोबाईल बजा। देखा कि दर्शन की कॉल थी। अर्थात वे प्लेट फ़ार्म  पर पहुंच गई हैं। प्लेट फ़ार्म पर थोड़ा चलने के बाद वे दिख गई। ये हमारी पहली मुलाकात थी। हमने एक दूसरे को पहचान लिया। फ़िर वे मुझे ऑटो से गुरुद्वारा लेकर गयी। हमारी आवास की व्यवस्था गुरुद्वारे में ही थी। वहाँ मेरी पहचान इन्होने ने अपने परिजनों से कराई।
सगाई के वक्त सरदार जुझार सिंह, बहु एवं दर्शन कौर धनोए
जिसमें इनके एक पारिवारिक मित्र सेवानिवृत फ़ुड कंट्रोलर राधे श्याम सिसोदिया जी भी थे। उनसे चर्चा होने पर पता चला कि उन्होनें बस्तर में कई बरसों तक नौकरी की है। उनके कई अधिकारी और दोस्त हमारे कामन फ़्रेंड निकल गए और बात जम गई। अब बोर होने का सवाल नहीं था। मामला फ़िट हो गया। बारात नवी मुंबई के लिए दोपहर निकलनी थी। इसलिए सभी को तैयार होकर इनके घर समय पर पहुंचना था।
शादी में कुछ रुपयों को भी धुंआ दिखानी पड़ती है।
वसई मुंबई का ही एक कस्बा है। जो मुंबई में जनसंख्या का दबाव बढने के कारण अब नगर बन गया है। मुंबई के ऑटो रिक्शा वालों की तारीफ़ तो करनी पड़ेगी। चाहे आदमी नया हो या पुराना सबसे तय किराया ही लेते हैं। अगर 9 रुपया हुआ तो 1 रुपए बाकायदा वापस देते हैं। बाकी अन्य शहरों में देखा कि ऑटो वाले सवारियों के कपड़े भी उतारने को तैयार हो जाते हैं। 
तन्ने घोड़ी किन्ने चढाया …… :)
हम तैयार होकर बराती बन गए, दोपहर 2 बजे हम नवी मुंबई के लिए चल पड़े। गुरुद्वारे में आज सगाई का कार्यक्रम होना था और अगले दिन यहीं से बारात निकल कर खारघर गुरुद्वारे में विवाह होना था। शाम तक हम नवी मुंबई पहुंच गए, गुरुद्वारे में सगाई का कार्यक्रम हो गया और फ़िर वहाँ से चलकर पंजाबी भवन में बाकी कार्यक्रम हुआ। यहीं मेरी मुलाकात अल्जिरा लोबो एवं मीना से हुई।
आनंद कारज 
दर्शन जी के मिस्टर सरदार जुझार सिंह जी से तो 25 को ही भेंट हो चुकी थी। वे मुंबई में टी टी ई थे, उन्होने बताया कि वे मुंबई से राजधानी एक्सप्रेस लेकर दिल्ली जाते थे। अब सेवानिवृत होकर घर पर ही रहते हैं। दर्शन जी ने विवाह का कार्यक्रम मुस्तैदी से संभाल रखा था। अगली सुबह हम बारात लेकर विवाह स्थल खारघर गए और वहीं सभी की उपस्थिति में आनंद कारज सम्पन्न हुआ।
आनंद कारज सम्पन्न
वहाँ से बारात विदा होने के बाद हम रात 9 बजे वसई रोड़ पहुंच गए। नवी मुंबई में ब्लॉगर देव कुमार झा भी रहते हैं। मैने उन्हें फ़ोन पर आने की सूचना दी थी और उन्होने वादा किया था कि वे आकर मिलेगें। पर हम एक दिन नवी मुंबई में रहे। वे पहुंच नहीं पाए, शायद कोई आवश्यक काम आ गया हो। न ही उसके बाद हमारी कोई चर्चा हुई। इस तरह दो दिनों में विवाह समारोह निपट गया।