सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

बालसमुंद एवं सिद्धेश्वर मंदिर : पलारी छत्तीसगढ़

त्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से बलोदाबाजार रोड पर 70 कि॰मी॰ दूर स्थित पलारी ग्राम में बालसमुंद तालाब के तटबंध पर यह शिवालय स्थित है। इस मंदिर का निर्माण लगभग ७-८वीं शती ईस्वी में हुआ था। ईष्टिका निर्मित यह मंदिर पश्चिमाभिमुखी है। मंदिर की द्वार शाखा पर नदी देवी गंगा एवं यमुना त्रिभंगमुद्रा में प्रदर्शित हुई हैं।


प्रवेश द्वार स्थित सिरदल पर शिव विवाह का दृश्य सुन्दर ढंग से उकेरा गया है एवं द्वार शाखा पर अष्ट दिक्पालों का अंकन है। गर्भगृह में सिध्देश्वर नामक शिवलिंग प्रतिष्ठापित है। इस मंदिर का शिखर भाग कीर्तिमुख, गजमुख एवं व्याल की आकृतियों से अलंकृत है जो चैत्य गवाक्ष के भीतर निर्मित हैं। विद्यमान छत्तीसगढ़ के ईंट निर्मित मंदिरों का यह उत्तम नमूना है। 

जनश्रुतियों के अनुसार इस मंदिर एवं तालाब का निर्माण नायकों ने छैमासी रात में किया गया। इस अंचल में घुमंतू नायक जाति होती है जो नमक का व्यापार करती थी। उनका कबीला नमक लेकर दूर दूर तक भ्रमण करता था। कहते हैं कि इस पड़ाव पर नायकों को जल की समस्या हमेशा बनी रहती थी। उन्होने यहां तालाब बनवाने का कार्य शुरु किया। (नायकों द्वारा तालाब निर्माण की कहानी अन्य स्थानों पर भी सुनाई देती हैं, खारुन नदी के उद्गम पेटेचुआ का तालाब भी नायकों ने बनवाया था। इससे प्रतीत होता है कि नायक अपने व्यापार के मार्ग में जलसंसाधन का निर्माण करते थे।) 

तालाब का निर्माण होने के बाद इस तालाब में पानी नहीं आया तो किसी बुजूर्ग के कहने से नायकों के प्रमुख ने अपने नवजात शिशु को परात में रख कर तालाब में छोड़ दिया, इसके बाद तालाब में भरपूर पानी आ गया और यह लबालब भर गया। बालक भी सुरक्षित परात सहित उपर आ गया। तब से इस तालाब का नाम बालसमुंद रखा गया। इस तालाब का विस्तार 120 एकड़ में है। जल साफ़ एवं सुथरा है। तालाब का पानी कभी नहीं सूखता। 

तालाब के मध्य में एक टापू बना हुआ है, कहते हैं इसका निर्माण तालाब खोदने के दौरान तगाड़ी झाड़ने से झड़ी हुई मिट्टी से हुआ। इस मंदिर का जीर्णोद्धार तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री बृजलाल वर्मा ने 1960-61 के दौरान करवाया तथा गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित करवाया। इस स्थान पर प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा दे दिन मेला भरता है, जिसमें हजारों श्रद्धालू आकर बालसमुंद में स्नान कर पूण्यार्जित करते हैं।

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

प्राचीन विश्व में सूर्यपूजा

3म् सूर्यो ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा। मानव ने धरती पर जन्म लेकर सबसे पहले नभ में चमकते हुए गोले सूर्य को देखा। धीरे-धीरे उसने सूर्य के महत्व समझा और उसका उपासक हो गया। सूर्य ही ब्रह्माण्ड की धुरी है। जिसने अपने आकर्षण में सभी ग्रहों एवं उपग्रहों को बांध रखा है। इसका व्यवहार किसी परिवार के मुखिया की तरह ही है जो सभी परिजनों को स्नेह का समान वितरण करता है। प्राचीन पुरातात्विक अवशेषों एवं अभिलेखों से ज्ञात होता है कि धरती की सभी सभ्यताओं में सूर्य की उपासना प्रमुखता से होती थी। यूनान, मिश्र की सभ्यताओं से लेकर सिंधू घाटी की सभ्यता तक सूर्य प्रथम पूज्य हैं। राजाओं ने अपने कुल को अमरता प्रदान करने के लिए सूर्य के साथ जोड़ा और सूर्यवंशी कहलाए तथा विश्व की अनेको सभ्यताओं में भिन्न-भिन्न नामों से जाने वाले सूर्य की प्रतिमाओं का निर्माण हुआ। सूर्य मानव सभ्यता के लिए उर्जा का प्रथम स्रोत है, जब धरती अंधकार में डूब जाती है, तब सूर्य ही धरती पर आकर उजाला फ़ैलाता है, प्रकाश करता है।

वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है। ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है। और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। 

सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है। पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी। बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं। वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।

भगवान भास्कर की पूजा सिर्फ अपने देश में नहीं, बल्कि दुनिया के कई मुल्कों में अलग-अलग नाम, मान्यता और अपनी-अपनी परंपराओं के अनुसार होती है। प्राचीन इतिहास को खंगालें, तो हिंदू बौद्ध धर्म के अलावा यूनान, मिस्र, एजटेक (सेंट्रल मैक्सिको), चीन, तुर्की और इंका (दक्षिण अमेरिका) सभ्यता में भी सूर्य की पूजा होती थी। वर्तमान में पेरू, उरुग्वे, अर्जेंटीना, जापान आदि देश सूर्य को अपना राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में उपयोग करते हैं। वेद की ॠचाओं में ओ3म् सूर्यो ज्योतिर्ज्योति: सूर्य: स्वाहा कह कर सूर्य की आराधना की गई है। मित्र, मिहिर, सविता आदि शब्द सूर्य के पर्याय हैं। भारत के अलावा जापान, रुस, कोरिया, इंग्लैंड मैक्सिको में भी सूर्य मंदिर हैं। भारत में कोणार्क उड़ीसा, मार्तण्ड काश्मीर, झालरापाटण राजस्थान , रनकपुर राजस्थान , ओसियो राजस्थान , मोधेरा गुजरात इत्यादि अनेक स्थानों पर प्राचीन सूर्य मंदिर प्राप्त होते हैं।

पूर्वांचल के साथ अन्य प्रदेशों में सूर्य देवता की उपासना के लिए छठ पर्व मनाया जाता है। यह प्राचीन काल से चली आ रही सूर्योपासना की परम्परा ही है जो मानव को सूर्य के साथ संबद्ध करती है तथा सूर्य देव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पर्व भी माना जा सकता है। छठ पर्व के दिन सभी को सूर्य आराधकों को ढेर सारी शुभकामनाएं।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

नदियाँ, बाढ और भारत

भारतीय गणतंत्र एक विशाल भूभाग का स्वामी है। देश है जहाँ बारहों महीने सभी मौसम दिखाई देते हैं ऐसा विश्व में अन्य किसी देश में नहीं होता। एक तरफ़ सूखा पड़ता है तो दूसरी तरफ़ बाढ का विनाशकारी तांडव रहता है। आज यही तांडव तमिलनाडू के तटीय क्षेत्र में दिखाई दे रहा है, जिससे जनजीवन बूरी तरह प्रभावित हो गया और करोड़ों अरबों के संसाधनों की हानि के साथ जनहानि भी दिखाई दे रही है। इसका मुख्य कारण वर्षा जल के उचित निकासी के साधन न होना है। पहले छोटे नगर ग्राम होते थे इतनी समस्या नहीं होती थी, अब विशाल महानगर बन गए है। जनसंख्या विस्फ़ोट के साथ निवास के लिए कोई कहीं पर भी बस गया है। उस क्षेत्र का भूगोल का अध्ययन किए बिना ही बड़ी-बड़ी कालोनियों का विकास हो गया है जिससे नदियों का मार्ग अवरुद्ध होना त्रासदी कारक हो गया है।
नदियों का अपना एक तंत्र होता है, सहसा ही कहीं अत्यधिक वर्षा होने से नदियों का निर्माण नहीं होता है। उससे पहले वर्षाजल नालों, उपनदियों, सहायक नदियों से होते हुए मुख्य नदी तक पहुंचता है तब कहीं असंख्य धाराएं चलकर एक नदी का निर्माण करती हैं तथा ढलान पर कई धाराओं में बंट कर समुद्र में समाहित होती है। शहरों में लोगों ने इन नालों, उपनदियों के प्रवाह क्षेत्र को बंद कर उस पर निर्माण कार्य कर लिए हैं, जिसके कारण नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो गया है और अत्यधिक वर्षा के कारण जल निकासी का मार्ग नहीं मिलने के कारण सारा पानी शहर में घुस जाता है। अगर जल निकासी का उचित साधन हो तो शहर या नगर डूबने जैसी घटना नहीं हो सकती।
प्रकृति ने सुरक्षा व्यवस्था स्वयं की है, परन्तु मानव ने उसके सुरक्षा तंत्र को तहस नहस कर डाला है। नदियों के अपवाह क्षेत्र को अवरुद्ध करने के साथ उनके प्रवाह क्षेत्र में भी कब्जा कर बसेरा कर लिया है। जल, अग्नि एवं वायु की शक्ति का  कोई पारावार नहीं है, वह एक झटके में ही बड़े से बड़े निर्माण का सफ़ाया कर देती है, जिससे मानवों के साथ अन्य प्राणी भी प्रभावित होते हैं और जान माल से हाथ धो बैठते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण केदारनाथ की त्रासदी है। लोगो नें नदी के प्रवाह क्षेत्र में कब्जा करके बड़े निर्माण कर लिए थे। काश्मीर में भी इसी कारण बाढ का तांडव जन धन के विनाश का कारण बना।
इस विनाश का एक महत्वपूर्ण कारण जलवायु परिवर्तन भी है। जलवायु परिवर्तन से होने वाली गर्मी के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्र जल स्तर बढ़ रहा है। इसके लिए वैज्ञानिक दशको से चेतावनी दे रहे हैं कि अगर ग्लेशियर इसी तरह पिघलते रहे तो कई देशों का नामोनिशान मिट जाएगा। बांग्ला देश के तटीय क्षेत्र में प्रतिवर्ष लगभग 20 से 30 भूमि को समुद्र प्रतिवर्ष निगल रहा है। एक जमाने में राजस्थान में कभी कोई बाढ के विषय में सोच नहीं सकता था। तीन चार वर्षों पूर्व भारी वर्षा ने जयपुर में बाढ के हालात पैदा कर दिए। अचानक बाढ आने पर पता चला कि वर्षा जल निकालने के लिए नदी नालों का साधन ही नहीं है।
तमिलनाडू के मद्रास शहर में भी यही कमियां विनाश का कारण बन रही हैं। अब समय आ गया है कि नगरों की बसाहट को दुरुस्त किया जाए। ट्रिब्यूटरियों की साफ़-सफ़ाई कर उन्हें जल प्रवाह ले जाने लायक बनाया जाए। इसके साथ ही नई बसाहटें इस तरह बने कि ट्रिब्यूटरियों का उल्लंघन न हों। प्रकृति के द्वारा बनाए गए जल प्रवाह मार्गों को बंद न कर उनको सम्मानपूर्वक यथा स्थिति में रखा जाए। नगरों में जलप्रवाह की निकासी हेतू समुचित साधनों का निर्माण एवं विकास होना चाहिए तभी बाढ इत्यादि से होने वाली त्रासदियों से बचा जा सकता है। अन्यथा प्रकृति के साथ खिलवाड़ मानव सभ्यता के विनाश का प्रमुख कारक बनेगा।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

प्राचीन भारतिय विद्या: योग

यस्य नास्ति स्वयंप्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्याम विहिनस्य दर्पणा: किम करिष्यति॥
आठवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में सुभाषितानी में उपरोक्त नीति शतक का श्लोक पढ़ा था। आज के घटना क्रम को देख कर स्मरन हो आया। आज विश्व के 197 देशों में योग दिवस मनाया गया। भारत की प्राचीन विद्या को सम्पूर्ण विश्व में प्रचार एवं स्थान मिला। दुनिया का कौन ऐसा प्राणी है जो स्वस्थ्य रहना नहीं चाहेगा। पर मनुष्य को छोड़ कर अन्य प्राणी योग विद्या का लाभ नहीं उठा सकते। ईश्वर ने इस विद्या को धारण करने के लिए मनुष्य को ही बनाया। 
आज गर्व का दिन है कि भारतीय योग पद्धति को सम्पूर्ण विश्व अपना रहा है तथा वर्ष में एक दिन "योग दिवस" के रुप में मनाने के लिए विश्व समुदाय द्वारा निर्धारित किया गया। अगर इसका श्रेय किसी को दिया जाना चाहिए तो वह हैं "बाबा रामदेव" और "प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी"। उन्होने विस्मृत हो चुकी इस प्राचीन विद्या को घर-घर तक पहुंचा दिया। लोग स्वास्थ्य के प्रति जागरुक हुए और उन्होने अपनी जीवन शैली बदली। 
यह देश के जनमानस में एक क्रांतिकारी परिवर्तन माना जा सकता है। बाबा रामदेव ने हठयोग और व्यायाम को जोड़ कर स्वास्थ्य का पैकेज तैयार किया और उसकी ब्रांडिग भी की। जिन्होने योग और जीवन शैली में बदलाव कर प्राचीन शास्त्रोक्त आचार विचार को अपनाया उन्हें आशातीत परिणाम भी मिले। जो उनके घोर विरोधी है, वह भी असाध्य व्याधि से ग्रसित होने पर चुपचाप भारतीय चिकित्सा पद्धति एवं योग की शरण लेते हैं। कंबल ओढ़ कर गुड़ खाते हैं, पर किसी को दिखना नहीं चाहिए। जो जन्म भूमि से प्यार करता है वह हमारी प्राचीन जीवन विद्या को भी मानता है।
कुछ लोग दुनिया में नकारात्मकता लेकर पैदा होते हैं, कितना भी अच्छा काम हो जाए उन्हें उसमें बुराई दिखाई ही देती है क्योंकि उन्होने कभी सकारात्मक जीवन ही नहीं जीया। सुबह से एक चित्र फ़ेसबुक पर घूम रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री सुखासन में बैठ कर योग क्रिया कर रहे हैं। तो लोग कह रहे हैं उन्हें पद्मासन लगाना नहीं आता। कोई कह रहा है अर्धपद्मासन लगा रखा है। अरे भाई जरा किताबें पढ़ लो, देख लो, समझ लो, अर्ध पद्मासन कहीं होता ही नहीं है और यह किसी योगाचार्य ने नहीं कहा कि सुखासन में अनुलोम विलोम नहीं किया जा सकता। आप अपने सांसो की किसी भी प्रकार के आसन में सुख पूर्वक बैठ कर साध सकते हैं। 

अब यह तो नहीं हो सकता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने प्राचीन भारतीय विद्या योग को विश्व में पहचान दिलाने का कार्य किया है तो योग के सारे आसन आपको करके दिखाएं। यह तो खिसियानी बिल्ली के खंभा नोचने वाली कहावत हो गयी।अब कहोगे कि चाहे कुछ भी हो मुझे तो विरोध करने से मतलब है। तो भाई इसका ईलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं है। 
लेकिन यह तो स्वीकारना पड़ेगा कि भारत में आदि शंकराचार्य ने धर्म की पुनरुस्थापना की, महर्षि दयानंद ने वेदों को जन-जन तक पहुंचाया और उसी ॠषि परम्परा पर चलते हुए स्वामी रामदेव ने योग को विश्व के कोने कोने तक पहुंचाने का कार्य किया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उसे विश्व में मान्यता दिलाने का महान कार्य किया। उपर लिखे श्लोक का अर्थ बताते हुए अपनी बात खत्म करता हूँ…… जिसके पास स्वयं का विवेक नहीं है, उसे शास्त्र कोई ज्ञान नहीं दे सकते जिस प्रकार प्रज्ञा चक्षू को दर्पण उसकी छवि नहीं दिखला सकता। इसलिए आंखे खोलिए और जो अच्छा है उसे स्वीकार कीजिए …… अस्तु॥

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अभनपुर जंक्शन: सवा सौ बरस पुरानी रेल

रायपुर से चलनी वाली छुकछुक रेलगाड़ी (नेरोगेज) वर्तमान में राजिम एवं धमतरी तक का सफ़र तय करती है। देश में अन्य स्थानों पर तो अमान परिवर्तन हो गया परन्तु हमारे यहाँ अभी भी चल रही है। पहले स्टीम इंजन था अब डीजल इंजन चलता है। रायपुर राजधानी बनने के बाद इस ट्रेन के यात्रियों में बेतहाशा वृद्धि हुई। राजधानी में नवनिर्माण होने लगे तो धमतरी एवं राजिम से काम करने के लिए कम खर्च में इसी ट्रेन से रायपुर तक का सफ़र तय करते हैं। यह ट्रेन अपनी शताब्दी पूर्ण कर चुकी है। यह क्षेत्र वन सम्पदा से भरपूर था और उसके दोहन के लिए अंग्रेजों ने रेल लाईन बिछाई।

इस मार्ग पर 1896 में 45.74 मील लंबी रेल लाइन बनाने का काम शुरू हुआ, जो 5 साल बाद 1901 में पूरा कर लिया गया। यह रेल लाइन ब्रिटिश इंजीनियर एएस एलेन की अगुवाई में में बनाई गई। छत्तीसगढ़ में अकाल के दौरान ग्रामीणों को रोजगार देने के नाम पर इस रेल लाईन का निर्माण किया गया। बताते हैं कि धमतरी मार्ग पर नगरी तक रेल पटरियां बिछाई गई और राजिम मार्ग पर गरियाबंद के जंगलों तक। इसके परिचालन के लिए महानदी पर लकड़ी का पुल बनाया गया। तब कहीं जाकर यह ट्रेन गरियाबंद के जंगलों तक पहुंची। इस ट्रेन के माध्यम से वन संपदा का दोहन युद्ध स्तर पर किया गया। पहले इसे ग्रामीण "दू डबिया गाड़ी" कहते थे। शुरुवाती दिनों में इसमें दो डिब्बे लगाकर ही चलाया जाता था। ग्रामीण इसके इंजन की सीटी सुन कर समय का पता लगाते थे। इसमें भाप का ईंजन 1980 तक चला। इसके बाद डीजल के इंजन लगे और सफ़र थोड़ी अधिक गति से होने लगा। 

सैकड़ों साल पहले रेल परिचालन किस तरह से होता है अगर यह जानना है तो इस छोटी ट्रेन का सफ़र करना चाहिए। यातायात के उसी साधनों का प्रयोग आज भी किया जाता है जो सैकड़ों साल पहले किया जाता था। ट्रेन का ड्रायवर आज भी गोला बंधा रिंग फ़ेंकता है जिसे लोहे की मशीन में डाल कर दो बड़ी चाबियाँ लगा कर फ़िर फ़ोन किया जाता है तब लाईन क्लियर की जाती है। सड़क मार्ग के गेट आज उन बड़ी चाबियों से खुलते हैं। इस मार्ग पर अभनपुर महत्वपूर्ण जंक्शन है। यहाँ से राजिम एवं धमतरी के लिए रेलमार्ग पृथक हो जाता है। स्टेशन पर आज भी वैसा ही है जैसा सवा सौ साल पहले था, रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। सिर्फ़ टिकिट देने वाली मशीन की जगह अब कम्पयूटर लग गया है। डीजल इंजन लगने के कारण पानी की टंकियाँ हटा दी गई हैं। पूर्व राष्ट्रपति अब्दूल कलाम जब डी आर डी ओ के हेड थे तब उन्होने अपनी एक गोपनीय यात्रा इस ट्रेन द्वारा रायपुर से धमतरी तक की थी। 

अब इस ट्रेन के दिन भी लदने वाले हैं। रायपुर से रेल्वे स्टेशन से हटा कर अब इसका परिचालन तेलीबांधा से किया जा रहा है। नई राजधानी से केन्द्री तक बड़ी रेल लाईन बिछाने का कार्य युद्ध गति से चल रहा है और समाचार मिला है कि केन्द्री से धमतरी तक भी इसका अमान परिवर्तन कर नेरोगेज को ब्राड गेज में तब्दील किया जाएगा। परन्तु छोटी गाड़ी के सफ़र का आनंद ही अलग है। इसे नए रायपुर में लोकल ट्रेन जैसे चलाना चाहिए। जिससे आने वाले पर्यटक सुबह शाम राजधानी भ्रमण का आनंद इस ट्रेन के माध्यम से कर सकें। वैसे इस ट्रेन के बंद होने में साल भर तो लग सकता है तब तक इसकी यात्रा का आनंद उठाया जा सकता है।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

रानी माई की रहस्यमय दुनिया: बस्तर अंचल

गोड़ मा पैरी, माथा म लाली वो SS, कान मा झुमका तिकोनी वाली होSS मोर गांवे म हाबे मड़ई, देखे ल आबे वोSS… वाहन में बज रहा छत्तीसगढ़ी गीत बसंत के इस मौसम में गाँव की मड़ई देखने का निमंत्रण दे रहा था।
हम भी गांव की ओर जाने वाली सर्पीली सड़क पर गीत सुनते हुए बढ़े जा रहे थे, मड़ई वाला गाँव था रायपुर राजधानी से एक सौ चालिस किमी दूर कांकेर जिले की चारामा तहसील का हल्बा टिकरापारा।

यह गाँव रानी डोंगरी ग्राम पंचायत का आश्रित ग्राम है, बस हमारी कहानी इस गाँव की ही कहानी है। हमारी गाड़ी जब गाँव में पहुंचती है तो बच्चे गाड़ी के पीछे दौड़ने लगते हैं, ऊंघती दोपहरिया में लोग चौकन्ने हो जाते हैं। एक घर के सामने कुछ आदमी औरतें बीड़ी बनाते दिखाई देते हैं और हमारी गाड़ी यही रुक जाती है।
हल्बा टिकरापारा की दुपहरिया
सरपंच तिलक राम कुंजाम के आने के बाद चर्चा शुरु होती है। इस इस गाँव में लगभग 150 छानी (छतें) हैं, जिनमें बसने वाले सर्वाधिक गोंड़ जनजाति के लोग हैं, उसके बाद अधिक जनसंख्या कलार जाति के लोगों की है। धोबी, लोहार के साथ एक घर साहू जाति का भी है। गाँव में पेयजल का साधन नलकूप हैं और बाकी निस्तारी दो तालाबों से होती हैं।

गांव में दो-तीन मंदिर भी हैं, जिसमें शीतला माता, शिव जी के साथ हनुमान जी भी विराजित हैं। प्रायमरी तक का स्कूल शिक्षा के लिए है, इसके बाद पास के ही हल्बा कस्बे में शिक्षा हेतू जाना पड़ता है।

गैर अपासी गाँव होने के कारण सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है, इसलिए बरसात पर आधारित धान की खेती करनी पड़ती है, वर्षा पर ही यहाँ का जीवन आधारित है, अन्य कोई रोजगार के साधन यहां उपलब्ध नहीं है।
रानी डोंगरी
ग्राम पंचायत रानी डोंगरी नाम लोकदेवी देवी रानी माई के नाम से है, रानी माई आस पास के सात आठ गाँव की देवी हैं। जो टिकरापारा से लगभग 3 किमी की दूरी पर जंगल में डोंगरी की गुफ़ा में विराजती हैं,

ग्राम परम्परा के अनुसार वहाँ पूजा करने के लिए बैगा किरपा राम सोरी नियुक्त है। जब भी देवी की पूजा करनी होती है या उन्हें ग्राम में आमंत्रित करना होता है तो बैगा के माध्यम से ही इस कार्य को सम्पन्न किया जाता है।

मड़ई के दिन सारे गाँव वासी रानी माई होम धूप देकर गाँव आने का निमंत्रण देते हैं, तथा उसके आदेश के बाद मड़ई की डांग लेकर गाँव आया जाता है, देवी मड़ई के कार्य को सफ़ल बनाने के लिए गाँव में पधारती हैं, साथ ही अनुषांगी देवता भी ग्राम में पहुंचते हैं।
रानी माई के दरबार का रास्ता
सरपंच, बैगा एवं ग्राम के पूर्व निवासी चंदूलाल जैन के साथ देवी स्थान पहुंचते हैं, यहाँ विशाल चट्टानों की छोटी सी डोंगरी है। डोंगरी के सामने ही सामुदायिक भवन बना दिया गया है, जिससे इसकी सुंदरता को ग्रहण लग गया है।

देवी के स्थान तक पहुंचने के लिए पैड़ियों का निर्माण भी कर दिया गया है। नवरात्रि में यहाँ मेला लगता है और देवी का आशीर्वाद लेने के लिए वृहद संख्या में भक्त जन आते हैं तब यह वनांचल गुलजार हो जाता है माता के सेवा गीतों से।

पैड़ियां जहाँ जाकर समाप्त होती हैं वहीं लगभग 50 फ़ुट ऊंची एकाश्म चट्टान है और इस चट्टान पर एक बड़ी चट्टान छत की तरह प्राकृतिक रुप से रखी हुई है। यहाँ खुले में रानी माई का स्थान है, इनकी कोई प्रतिमा नहीं है, यहाँ सिर्फ़ आभासी रुप में विराजमान होकर बैगा के माध्यम से अपना पर्चा देती हैं। 
रानी माई के दरबार में बैगा किरपा राम सोरी
बैगा किरपाराम बताते हैं कि देवी भीतर गुफ़ा में विराजित हैं, एकाश्म चट्टान के ऊंचाई में फ़ट जाने के कारण गुफ़ा तक पहुंचने का स्थान बंद हो गया, इसके पीछे के तरफ़ से गुफ़ा में जाने का स्थान है, परन्तु वहाँ भी बड़ी चट्टानों के गिरने के कारण रास्ता बंद हो गया है, सिर्फ़ भालू ही इस गुफ़ा में शरण लेते हैं।

रानी माई के स्थान पर उनकी सेवा के लिए घोड़ा रखा गया है और पोला के दिन लोग यहाँ पर मिट्टी के बैल भी चढाने आते हैं।  रानी माई आस-पास के रानी डोंगरी, टिकरापारा, कुरुभाट, कोटेला, टोंकोपाट आदि सात गांव की आराध्या हैं। इन गांव के लोग किसी दैवीय समस्या के निवारण के लिए रानी माई के स्थान पर आते हैं।
रानी माई के दरबार में चंदूलाल जैन, उनके भानजे, उनके मित्र, सरपंच तिलकराम कुंजाम एवं श्रीकांत दामले
मान्यता है कि रानी माई का आगमन बस्तर से हुआ है, ये महानदी के साथ आई और इनके साथ बावन कोरी (52X20=1040) देवता भी आए। इन्होने ने इस डोंगरी को उपयुक्त जानकर अपना निवास बना लिया।

इसके बाद इनका सारा परिवार पति देशमात्र,बेटा कुंवर पाट एवं बहु बिजली कैना, जोगड़ा बाबा, गढ़ हिंगलाज देवी, राजाराव देव भी आ गए हैं। इस तरह रानी माई का पूरा कुनबा ही इस स्थान पर जुट गया। बावन कोरी में बाकी देवता महानदी के पास ही रह गए, उनकी पूजा उनके ठहरने के स्थान पर जाकर ही की जाती है।

यहां रानी माई के पति देशमात्र नहीं रहते, उन्हें अन्य स्थान पर रहना पड़ रहा है। बैगा बताते हैं कि इस स्थान पर एक बूढा सिंह भी रहता था जो देवी के स्थान के ईर्द गिर्द ही मंडराता रहता था। जब कोई पूजा करने आता था तब बह गुफ़ा में चला जाता था और पूजा करके लौटने पर फ़िर बाहर निकल आता था। लगभग बारह वर्षों से अब सिंह दिखाई नहीं देता। शायद गुफ़ा में बंद हो गया होगा।
रानी माई दरबार के पार्श्व की गुफ़ा से निकलते हुए लेखक
रानी माई ने अपने पति देशमात्र को इस स्थान से भगा दिया, जिसके कारण उसे यहाँ से लगभग 12 किमी की दूरी पर भिरावर के पहाड़ पर बसना पड़ा। इसके पीछे कहानी है कि रानी देवी भक्त वत्सल हैं और वे प्रतिदिन सुबह उठकर भक्तों की फ़रियाद सुनती हैं।

उनके पति देशमात्र ने खेत जोतने के लिए हल में भैंसा फ़ांद रखा था और खेत जोत रहे थे, उन्हें भूख लगने लगी, इधर रानी माई को भक्तों की फ़रियाद सुनते हुए विलंब हो गया और खाना पहुंचाने में देर हो गई। खाना न लाते देख देशमात्र नें भूख के कारण भैंसे का सींग तोड़ कर आग में भूंज लिया और उसे खाने लगे।

रानी तभी खाना लेकर पहुंची तो उन्हें हड्डी जलने की बदबू आई, देखा कि उनका पति भैंसे का सींग तोड़ कर भूंज कर खा रहा है, उन्हें गुस्सा आ गया और उसे अपने स्थान पर कभी न आने चेतावनी दे दी। इससे देशमात्र भिरावर की पहाड़ी पर बस गए, उन्हें लगभग 12 गांव के लोग अपने अराध्य के रुप में मानते हैं।
रानी माई के दरबार का मनोरम दृश्य
उपरोक्त कथा से पता चलता है कि ग्रामीण भक्तों का रानी माई से मानवीय संबंध है, वे अपने सुख दुख ही हर बात उनसे करते हैं और रानी माई उनका निदान भी करती है।

पौराणिक देवताओं की तरह कोई बहुत बड़ा प्रभामंडल नहीं है, वे मानवीय गुणों से परिपूर्ण देवी हैं, उनका स्वभाव इससे ही पता चलता है कि पति द्वारा अनैतिक कार्य करने पर उसे भी उन्होने ने नहीं बख्शा तथा बेटे और बहू को अपने स्थान पर साथ ही रखा है। उनकी बहू बिजली कैना अर्थात बिजली की कन्या भी उनके साथ ही बेटी की तरह रहती है।

सजा का भागी सिर्फ़ उनका पति ही बनता है। देवी के इस मनोरम स्थल पर पहुंच कर मन प्रसन्न हो जाता है। बस बिना किसी योजना के यहां शासकीय निर्माण कार्य इस स्थान की सुंदरता में धब्बा लगा रहे हैं। इस स्थान को प्राकृतिक रुप में रखने की आवश्यकता है तभी इसकी सुंदरता कायम रह सकती है। सांझ ढ़ल रही थी और हम भी विहंगों के साथ अपने नीड़ की ओर लौट रहे थे।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

खारुन ट्रैकिंग का साथी: बन्नु सिंह उकै

खारुन ट्रेकिंग के दौरान अनुभव अविस्मर्णीय रहे। खैर स्वास्थगत कारणों से सफ़र अधूरा रहा। परन्तु हमसफ़र एक से एक लोग मिले। रात मंदिर में सुतके गुजरी थी। सुबह हमारा साथी बना अनजान घुमक्कड़ "बन्नु राम उकै"। बीबी-बच्चे, खेती-किसानी सब हैं, पर घुमक्कड़ परिव्राजक का जीवन व्यतीत कर रहा है। भोजन बनाने के लिए जर्मन के दो बर्तन, एक लाल रिफ़िल का पेन और फ़ुल स्केप पेपर के साथ थैली में तम्बाखू पुड़िया एवं चूना की डिब्बी के साथ एक चिलम उसकी कुल सम्पत्ति। जिसे पन्नी में हमेशा साथ रखता है। 
बन्नु सिंह उकै
सुबह चाय की दरकार थी तो बन्नु राम ने नदी के किनारे चूल्हा बना कर जला लिए एवं गुड़ की लाल चाय पिलाई। चाय पीकर तबियत तर हो गई। लगा कि "बिगबॉस" का "लक्जरी आयटम" मिल गया। मेरे संभलते तक बन्नु राम नदी में नहाकर "राहेर" (अरहर) दाल चढा चुका था। मेरे हाथ मुंह धोते एवं आंवला की "मुखारी" घिसते तक उसका भोजन तैयार हो रहा था। पहले उसने बालों में तेल लगाया और नदी जल में देख कर उन्हें संवारा। फ़िर लहसुन, टमाटर और मर्चा का तड़का लगा कर दाल फ़्राई की। जिस सलीके उसने भोजन तैयार किया उसे देख कर लगा कि खाने का शौकीन आदमी है। 
नदी के तीरे तीर
जंगल होने के कारण सुबह अच्छी ठंड थी। जेब से बाहर हाथ निकालते ही ठिठुरन महसूस होती थी। आज मुझे नदी के सहारे-सहारे, किनारे-किनारे के साथ चलना था। रास्ता पथरीला एवं ऊबड़-खाबड़ था। बन्नु राम भोजन करके तैयार हो गया और हम जंगल में प्रवेश कर गए। रास्ते में बन्नु राम एक कुशल वक्ता की तरह कथा कहता है, परन्तु कथा में उसके निर्मल हृदय से निर्मल वाणी बाहर आती है। जंगल से पांच किमी की दूरी पर आधुनिक संसाधनों से दुकाने अंटी पड़ी हैं, पर वह स्वयं में मगन है। जंगल से अधिक सम्पन्न और सौंदर्यपूर्ण उसे कोई दूसरा दिखाई नहीं देता। शायद इसे ही "द्वितीयोSस्ति" कहा गया है। 
कुकुर कोटना में अंगाकर रोटी और पाताल चटनी का भोजन
बन्नु सिंह कहता है - हजारों करोड़ों के घोटाले करने वालों को भी वहीं जाना है, जहाँ मुझे जाना है। दोनो के लिए जगह एक सी ही है, वहाँ किसी की सिफ़ारिश नहीं चलती और न ही पैरवी करने के लिए कोई वकील होता और न ही कोई रसूखदार जमानतदार। जानते हो! "मुझसे अधिक धनी कोई नहीं है, ये पत्थर देखो। एक-एक पत्थर कितना मंहगा है। ये पेड़ देखो, जिसे दीमक खा रही है, यह कितना मूल्यवान है। जंगल वाले ही सारा जंगल काट कर ले गए। अब तो जलाऊ के लायक भी लकड़ी नहीं दिखाई देती। फ़ालतू का काड़ी-कचरा उगा हुआ है। अगर इन पत्थरों को ही गाड़ी मोटर में भर के बाहर ले जाए तो लाखो-कड़ोरों रुपए के हैं। उधर देखो, पेड़ों पर चारों तरफ़ नोट ही नोट लटके हैं। एक-एक पत्ता सौ-सौ का नोट है। अब बताओं आप, मुझसे अमीर कौन है? ये सारा जंगल मेरा है और मैं इसका मालिक हूँ। मेरे ही धन को लोग चोरा कर ले जा रहे हैं।" 
साथीयों के साथ निरीक्षण
मैं बन्नु राम की बात सुनकर उससे सहमत होता हूँ तो वह मुझे मुक्त कंठ से एक रेलो गीत सुनाता है। जो जंगल में गूंजता है और मैं उसे रिकार्ड करता हूँ… "साय रेलो रे रेलो रे रेलो, नदी नादर निहिर निहिर ताघर ता, ओSS रोहुर झुहुर झुहुर बाजेर तिहिर तोर। गांवे रे गांवे रे घुमेर बाबू कहे नादर तोर। ओSS नादर लोहर लोहर लोघर तोर।" बन्नु राम के गीत मुझे जंगल के साथ जोड़ रहे थे। वनवासी के गीतों ने मेरे अंतरमन को वन के साथ एकाकार कर दिया था और कदम उबड़-खाबड़ पत्थरों पर पड़ते हुए सावधान थे। सफ़र चल रहा है बलखाती इठलाती कुंवारी नदी के साथ। जिसमें हम सफ़र बन्नु जैसा यायावर भी है। आज दिन भर टीवी पर नौंटकी देखकर बन्नु सिंह मुझे तुम्हारी याद आ रही है, मिलते हैं जल्द ही।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

कोलकाता का लैंडमार्क : हावड़ा ब्रिज


रंगीन कैलेंडरों में हावड़ा ब्रिज (रविन्द्र सेतू) साठ सत्तर के दशक में खूब छाया रहता था और यह कैलेंडर गांव के हर घर में मिल जाते थे। भले ही तारीख देखने के काम न आते हों, पर नील गगन का पार्श्व लिए हावड़ा ब्रिज चमकता हुआ दिखाई देता था। यह कोलकाता का "लैंड मार्क" बना हुआ है, किसी के चित्र में हावड़ा ब्रिज दिख गया तो समझ लो वह कोलकाता पहुंच गया। इसे प्रसिद्ध बनाने में फ़िल्मवालों का योगदान भी कुछ कम नहीं है। खैर कुछ भी हो, यह अभियांत्रिकी अनुपम रचना है। यह पुल कोलकोता शहर और हावड़ा को जोड़ने का एक मात्र साधन था। अब तो विद्यासागर सेतू भी बन गया है। इससे पहले हुगली नदी पर तैरता हुआ पुल था, नदी में जल स्तर बढ़ने पर पुल पर ट्रैफ़िक जाम हो जाता था।
 
अंग्रेजो ने तैरते हुए पुल के स्थान पर स्थाई ब्रिज बनाने का निर्णय 1933 में लिया और निर्माण योजना पर कई वर्षों काम करने के बाद 1937 में निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ और इसे 1943 में आम जनता के लिए खोल दिया गया। 14 जून 1965 को इसका नाम हावड़ा ब्रिज से रविन्द्र सेतू कर दिया गया। अनुमानत: इस बड़े पुल के निर्माण की लागत 333 करोड़ रुपए थी। यह दुनिया के 6 ब्रैकट पुल में से एक है। यह इस्पात की 26,500 टन से बनाया गया है। अब यह एक लाख वाहनों और पैदल चलने वालों को रोज़ ढोता है।

कुछ दिनों पूर्व डायचे वेले की एक रिपोर्ट में बताया गया कि यह पुल इंसानी थूक के कारण खतरे में हैं। यह पुल चंद खंभों पर टिका है। इंजीनियरों का कहना है कि इन खंभों को अब जंग लगने लगा है और इस जंग की वजह है पान और गुटखा। इस पुल से रोजाना लाखों लोग पान चबाते हुए गुजरते हैं और थूकते हुए निकल जाते हैं। कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट के चीफ इंजीनियर के अनुसार जिन खंभों पर पुल टिका है उनमें से कुछ के आधार की मोटाई तो पिछले तीन साल में आधी रह गई है। यही हाल रहा तो मरम्मत के लिए पुल को बंद किया जा सकता है।

विशेषज्ञ मानते हैं कि पान, गुटखा में ऐसी चीजें होती हैं जो बेहद खतरनाक किस्म के यौगिक बना सकती हैं और स्टील को खत्म कर सकती हैं. कोलकाता की सेंट्रल फॉरेंसिक साइंस लैब के डाइरेक्टर चंद्रनाथ भट्टाचार्य बताते हैं कि थूक के साथ मिलकर पान में मौजूद चीजें स्टील पर एसिड सरीखा असर छोड़ती हैं। यह पुल 2,300 फुट लंबा है तथा गर्मी के दिनों में इसकी लंबाई 3 फुट तक बढ़ सकती है। वैसे यह पुल बेहद मजबूत है और बरसों से बंगाल की खाड़ी के तूफानों को सहन कर रहा है। 

बचपन में सुनते थे (देखा तो था नहीं) कि बड़े जहाज आने पर हावड़ा ब्रिज एक किनारे की तरफ़ इकट्ठा हो जाता है और जहाज निकलने पर पुन: पहले जैसा हो जाता है। अंग्रेज गए तो इसकी चाबी ले गए और पुल जाम हो गया। बचपन जाने के बाद इस पुल को देखने का अवसर कई बार मिला परन्तु यह कथा कोरी गप्प ही निकली। फ़िर भी अभियांत्रिकी यह अनुपम उदाहरण आज भी मजबूती के साथ खड़ा है, यही नहीं, 2005 में एक हजार टन वजनी कार्गो जहाज इससे टकरा गया था, तब भी पुल का कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन इंसान की एक छोटी सी लापरवाही को यह सहन नहीं कर पा रहा है, टैनिन के मिश्रण वाला थूक इसका दुश्मन बन गया है। देखिए हावड़ा ब्रिज के कुछ चित्र मेरे कैमरे की नजर से……

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

बड़ा दिन 25 दिसम्बर



बड़ा_दिन - कल 24 दिसम्बर की रात साल की सबसे बड़ी रात मानी जाती है, आज 25 दिसम्बर से रातें छोटी और दिन बड़े होने प्रारंभ होते हैं। खगोलीय गणना के अनुसार सूर्य साल एक में बार उत्तरी गोलार्ध से दक्षिणी गोलार्ध और वापस उत्तरी गोलार्ध आता है। सूर्य जब दक्षिणी गोलार्ध से, उत्तरी गोलार्ध के लिये वापस चलता है तो उसे सूर्य का उत्तरायण होना कहा जाता है।सूर्य के उत्तरायण होते ही, उत्तरी गोलार्ध में दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं। हिन्दुओं में इस दिन का खास महत्व है। पितामह भीष्म ने मरने का वह दिन चुना जब सूर्य को उत्तरायण होना था। यह दिन भी बदल रहा है। पृथ्वी अपनी धुरी पर लगभग २५,७०० साल में चक्कर लगाती है। इस कारण विषुव भी खिसक रहा है। इसे विषुव अयन कहा जाता है। सूर्य के उत्तरायण का दिन भी खिसक रहा है। आजकल सूर्य के उत्तरायण २२ दिसंबर को होता है। सूर्य का उत्तरायण होना तीन दिन पहले, यानि कि २५ दिसंबर को, लगभग २१० साल पहले होता था।
भारत और इसके पड़ोसी देशों (अंग्रेज शासित) मे इसे बड़ा दिन यानि महत्वपूर्ण दिन कहा जाता है। किसी देश पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिये सबसे अच्छा तरीका है कि वहां की संस्कृति, सभ्यता, धर्म पर अपनी संस्कृति, सभ्यता और धर्म को कायम करो। 210 साल पहले, अंग्रेजों ने भारत में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी। अंग्रेजों ने बड़ा दिन मनाने की शुरुवात फ़ौज से की। सबसे पहले फ़ौज में इस दिन बड़ा दिन मनाया जाने लगा और बड़ा खाना का आयोजन किया जाने लगा और उसे उत्सव का रुप दिया गया। बड़ा खाना में सामान्य दिनों से हटकर कुछ अलग त्यौहारों के जैसा खाना और कैम्प फ़ायर उत्सव का प्रारंभ किया गया। यह वह समय था जब ईसाई धर्म फैलाने की जरूरत थी। अंग्रेज, यह करना भी चाहते थे। उस समय 25 दिसम्बर वह दिन था, जबसे दिन बड़े होने लगते थे। हिन्दुओं में इसके महत्व को भी नहीं नकारा जा सकता था। शायद इसी लिये इसे बड़ा दिन कहा जाने लगा ताकि हिन्दू इसे आसानी से स्वीकार कर लें।
भारत में क्रिसमस को बड़ा दिन कहने के पीछे कई अलग अलग मान्‍यताएं प्रचलित है। कहा जाता है पहले इसे रोमन उत्‍सव के रूप में मनाया जाता था इस दिन लोग एक दूसरे को ढेर सारे उपहार देते थे। जब धीरे-धीरे ईसाई सभ्‍यता पनपने लगी तब भारत में यह दिन मकर संक्रान्ति के रूप में मनाया जाने लगा। इसके अलावा बड़े दिन के पीछे ईसा के जन्म से जुड़ी कई कथाएं भी प्रचलित हैं। 25 दिसंबर यीशु मसीह के जन्म की कोई ज्ञात वास्तविक जन्म तिथि नहीं है। एन्नो डोमिनी काल प्रणाली के आधार पर यीशु का जन्म, 7 से 2 ई.पू. के बीच हुआ था भारत में इस तिथि को एक रोमन पर्व खासकर संक्रांति से संबंध स्थापित करने के आधार पर चुना गया है जिसकी वजह से इसे बड़े दिन के नाम से मनाया जाने लगा। 
क्रिसमस के दिन संता क्‍लॉज का भी अपना अलग महत्‍व है, कहते हैं इस दिन सांता क्‍लॉज बच्‍चों के लिए ढेर सारे खिलौने और चॉकलेट लाते है। सांता क्‍लॉज को क्रिसमस का पिता भी कहा जाता है जो केवल क्रिसमस वाले दिन ही आते हैं। क्रिसमस का एक और दिलचस्प पहलू यह है कि ईसा मसीह के जन्म की कहानी का संता क्लॉज की कहानी के साथ कोई संबंध नहीं है, कहते हैं तुर्किस्तान के मीरा नामक शहर के बिशप संत निकोलस के नाम पर सांता क्‍लॉज का चलन करीब चौथी सदी में शुरू हुआ वे गरीब और बेसहारा बच्‍चों को तोहफे दिया करते थे।
वर्तमान में इसका नया रुप उभर कर सामने आ रहा है, बाजारवाद ने इस त्यौहार को मनवाने के लिए नए नए हथकंडे अपनाने शुरु कर दिए। बाजार में सांताक्लाज, केक और उससे संबंधित सामानों के ढेर लगे हैं। लोगों ने इसे भी एक त्यौहार के रुप में स्वीकार कर लिया और नए साल के इंतजार में बीते साल की पार्टियाँ खाने एवं दारु के साथ नाच गाना भी प्रारंभ हो गया। बड़े होटल नये साल के पर्व के आयोजनकर्ता बनकर नई मानसिकता के युवाओं का मनोरंजन कर खूब नोट बटोर रहे हैं। दिनों दिन यह चलन बढ़ता जा रहा है। कोई आश्चर्य नहीं होगा जब भारत में भी घर घर में आकाशदीप के क्रिस्मस ट्री दिखाई देने लगेगें। 

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

तुरतुरिया: वाल्मीकि आश्रम एवं लवकुश की जन्मभूमि


सुबह का मौसम खुशखवार और गमख्वार था, सोचा कि एक बार फ़िर तुरतुरिया चला जाए। मोहदा रिसोर्ट से तुरतुरिया की दूरी 22 किमी और रायपुर से पटेवा-रवान-रायतुम होते हुए लगभग 118 किमी है। रायतुम के बाद यहाँ तक कच्ची सड़क है। शायद अभयारण्य में पक्की सड़क बनाने की अनुमति नहीं है। बाईक से सपाटे से चलते हुए ठंडी हवाओं के झोंकों के बीचे वन के प्राकृतिक वातावरण का आनंद लेते हुए तुरतुरिया पहुंच गया। सड़क के दांई तरफ़ वाल्मीकि आश्रम बना हुआ और दांई तरफ़ नाले के किनारे मैदान में कुछ दुकाने सजी हुई थी। पता चला कि पुन्नी मेला का कार्यक्रम चल रहा है। आश्रम में कुछ भवन बने हुए हैं, समीप ही निर्मित कुंड में कुछ लोग स्नान कर रहे थे। 
वाल्मीकि आश्रम तुरतुरिया
पहाड़ी की तलहटी में यह मनोरम स्थान है, जनश्रुति है कि त्रेतायुग में वाल्मीकि यहां पर वैदेही सीता को लेकर आए थे और यहीं पर लवकुश का जन्म हुआ था। पहाड़ी से एक तुर्रा निकलता है जिसमें पुष्कल जल का प्रवाह बारहो महीने रहता है। तुर्रे से प्रवाहित होता जल "तुर-तुर" की ध्वनि के साथ भूमि पर गिरता है इसलिए इस स्थान का नाम तुरतुरिया रुढ़ हो गया। तुर्रे के मुंह पर अब गोमुख बना दिया गया है तथा इसके दोनो तरफ़ प्रस्तर प्रतिमाएं रखी हुई हैं। 
तुरतुर की ध्वनि करती जलधारा
विष्णु की एक स्थानक प्रतिमा है तथा दूसरी प्रतिमा भी पद्मासन में बैठे कीरिटधारी विष्णु की योगमुद्रा में है। इसे देख कर लोगों को बुद्ध का भान होता है। सन 1914 में तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर एच.एम्.लारी ने इस स्थल का महत्त्व समझने पर यहाँ खुदाई करवाई थी, जिसमे अनेक मंदिर और प्राचीन प्रतिमाएं प्राप्त हुयी थी। एच एम लारी के नाम का शिलालेख गोमुख के ऊपर लगा हुआ है। मेला लगा होने के कारण जलस्रोत में स्नान करने वालों का तांता लगा हुआ था। महिलाओं एवं पुरुषों के लिए पृथक-पृथक स्नान कुंड की व्यवस्था बनाई हुई है।
जल कुंड
प्राचीन मंदिर के भग्नावशेष यहां पर चारों तरफ़ बिखरे पड़े हैं। जिन्हें इस आश्रम में एक तरफ़ समेट दिया गया है और नवनिर्मित मंदिरों में स्थापित कर दिया गया है। द्वार पाल, दंडधर, गणेश, शिवलिंग, नंदी, केशीवध इत्यादि की प्रतिमाएं यहाँ रखी हुई हैं। योनीपीठ में स्थापित शिवलिंग किसी मंदिर के प्रस्तर कलश सा दिखाई देता है। जिसके शीर्ष पर नारियल एवं नीचे पद्म बना हुआ है। जब कहीं पर कोई पुरातन प्रतिमा प्राप्त होती है तो लोग स्वयं ही उसकी पहचान के विषय में अनुमान लगा लेते हैं, जैसे अंधो का हाथी। सब स्वविवेक से नामकरण कर लेते हैं। 
तुरतुरिया
लव कुश की जन्मभूमि मानने का कारण यहाँ प्राप्त हुई दो प्रतिमाएं है, इन प्रतिमाओं में एक खड्गधारी की कोहनी को अश्व ने अपने मुंह में दबा रखा है और वह अश्व के साथ युद्धरत है, दूसरी प्रतिमा एक व्यक्ति वृषभ के साथ युद्धरत है। इन्ही प्रतिमाओं से अनुमान लगाया गया कि लवकुश ने अश्वमेघ के घोड़े को रोक रखा है और यह स्थान लवकुश की जन्मभूमि कहलाने लगा। इन दोनो प्रतिमाओं में पहली प्रतिमा कृष्ण द्वारा केशीवध की है तथा दूसरी प्रतिमा वत्सासुर वध की है। यह दोनो प्रतिमाएं कृष्ण लीला से संबंध रखती है। अब इन दोनों प्रतिमाओं के कारण इस स्थान की मान्यता लवकुश की जन्मभूमि की पहचान के रुप में स्थापित हो गई। पर आंचलिक लोगों की जो श्रद्धा इस आस्था पर बनी हुई है, वह आगे सदियों तक चलने वाली है।
केशी वध एवं वत्सासुर वध की इन प्रतिमाओं को लवकुश माना जाता है।
इस स्थान पर प्राप्त भग्नावशेषों से मेरे अनुमान के अनुसार यहां आस पास सातवीं आठवी शताब्दी में निर्मित कोई भव्य मंदिर रहा होगा। जिसके भग्नावशेषों को इस स्थान पर एकत्रित कर दिया गया है। मंदिर के प्रस्तर स्तंभों का अलंकरण देख कर लगता है कि इसे उड़ीसा के शिल्पकारों ने निर्मित किया होगा। क्योंकि स्तंभों का अलंकरण उसी शैली में दिखाई देता है। आश्रम के आस-पास बहुत सारी खंडित प्रतिमाएं पड़ी हैं, जिन्हें सहेज कर रखने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर यह स्थान रमणीय है, जहाँ जल की व्यवस्था हो ऐसे वनक्षेत्र में कई दिनों तक ठहरा जा सकता है। आश्रम के ऊपर स्थित पहाड़ी पर भालुओं एवं चीतलों का उन्मुक्त विचरण प्राकृतिक वातावरण को भव्यता प्रदान करता है

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

छत्तीसगढ़: मातागढ़ तुरतुरिया


सूर्यरथ आकाशचारी था और हम वनभ्रमण कर रहे थे, वन में चारों ओर प्रकृति प्रदत्त सुगंध फ़ैली हुई है, यहाँ सुंगध फ़ैलाने के लिए किसी "फ़ॉग" की जरुरत नहीं है। यह अभयारण्य है, जहाँ पशु पक्षियों को शासकीय अभय प्राप्त है। कोई कहीं भी विचरण कर सकता है। परन्तु अभयारण्य में चलभाष तरंगों को उन्मुक्त विचरण की छूट नहीं है। तरंगें नहीं होने के कारण बार-नवापारा, तुरतुरिया, मोहदा रिसोर्ट कहीं पर भी चलभाष कार्य नहीं करता। आश्रम के ऊपर पहाड़ी पर वनविभाग में एक अठपहला भवन बना रखा है, जो वर्तमान में जानवरों का डेरा है। आश्रम के सामने से वहां जाने के लिए पैड़िया बनाई हुई हैं और इस पर "वैदेही विहार" का शिलापट लगाया हुआ है। ऊपर चढ़ने का मतलब है फ़ालतु में टांगे तुड़वाना। हाँ! अगर किसी को चलभाष पर बात करनी हो तो इस स्थान पर तरंगे मिल जाती हैं और बात हो जाती है। इसके लिए वैदेही विहार तक चढ़ना सार्थक है। यहीं से हमने भी घर पर बात करके सूचनाओं का आदान-प्रदान किया। 

तुरतुरिया में पूष माह की पूर्णिमा को तीन दिवसीय मड़ई (मेला) का आयोजन होता है। साथ ही रविवार होने के कारण सुबह से ही ग्रामीण स्नान-पूजन करने पहुंचे हुए थे। यहाँ स्थानीय ग्रामीणों ने मेला समिति भी बना रखी है, उसी के माध्यम से मेला का संचालन होता है। दुकानदारों के ठीए सुबह से ही जम गए हैं। ग्रामीण अंचल का मेला मड़ई आपसी भेंट मुलाकात का भी केन्द्र होता है। हमारे यहाँ देवऊठनी के बाद से मेलों की शुरुआत हो जाती है। स्थान का महत्व बढ़ने के साथ नाले को "सुरसरी गंगा" नाम दे दिया गया है। इसे पार करने के बाद सामने की पहाड़ी पर माता का मंदिर है और इस स्थान को मातागढ़ कहते हैं, देवी स्थान तक पहुंचने के लिए पैड़ियों का निर्माण कर दिया गया है।

बलौदाबाजार वाले पत्रकार साथी राजेश मिश्रा जी के साथ हम इस स्थान पर पहुंचे। नाले से थोड़ी दूर पर एक झोपड़ी में यज्ञ कुंड बनाया हुआ है और किनारे पर धम्म प्रवर्तन मुद्रा में मुख विहीन बुद्ध विराजमान हैं और कुछ अन्य प्रतिमाएं भी रखी हुई हैं। बुद्ध प्रतिमा के मुख को किसी ने भग्न कर दिया है। इस घर की दीवार पर दो स्थानक प्रतिमाएं भी रखी हुई हैं। अलंकरण की दृष्टि से शिल्प उत्तम है। परिधानों का भी महीनता से अंकन किया गया है। यहाँ से आगे बढ़ने पर पहाड़ी चढने के बाद मैदान है, जहाँ दाहिने तरफ़ भग्न भवन के स्तंभ दिखाई देते हैं तथा इस स्थान पर बड़ी ईंटे भी पड़ी हुई हैं। प्रस्तर स्तंभों के समक्ष किसी ने काली की पतिमा स्थापित कर दी है। पुराविद अरुणकुमार शर्मा के अनुसार यह भग्नावशेष बुद्ध विहार के हैं, परन्तु मुझे किसी शिवालय के भग्न अवशेष लगते हैं।

मातागढ़ मंदिर के समीप पहले बलि दी जाती थी, परन्तु यह बलि प्रक्रिया अब मंदिर के समीप पूर्ण नहीं की जाती। बकरे को मंदिर तक चावल चबवाने के लिए ले जाया जाता है (मान्यता है कि देवी में चढ़ाए हुए चावलों को अगर बकरा चाब या खा लेता है तो देवी बलि स्वीकार कर लेती है) चावल चबवाने के बाद नाले के आस पास ही काटा जाता है। राजेश मिश्रा बताते हैं कि समिति प्रति बकरा 50 रुपए के हिसाब से कर लेती है। उसके बाद ही यहाँ बकरा काटने दिया जाता है। नाले के समीप सैकड़ों वाहन खड़े थे, जिसमें लोग खाना पकाने की सामग्री लेकर आए थे और वहीं चूल्हा बनाकर कुछ लोग भोजन पकाने में लगे हुए थे। सांझ तक मेला भरपूर होने की संभावना थी।

यहाँ से लौटने के बाद हम पुन: आश्रम स्थल पर आ गए, थोड़ी देर विश्राम और चर्चा होते रही। यहां वैष्णव पंथ के महंत रामकिशोर दास निवास करते हैं। महंत जी भोजन के लिए बार बार आग्रह करते रहे, परन्तु हमारा भोजन तो रिसोर्ट में होना तय था। इसलिए विनम्रता से उनके आग्रह को टालते हुए वापस अपने डेरे की ओर चल पड़ा। इस समय 23 किमी का सफ़र सपाटे के साथ निपट गया, वरना आते हुए मार्ग कुछ लम्बा लगा और समय भी अधिक। नए रास्ते पर संभल कर चलना होता है और जब रास्ता देख समझ लिया जाता है सफ़र जल्दी कट जाता है। फ़ूलचुहकी चिड़ियों ने पुन: आने का निमंत्रण दिया, मै भी उन्हें आश्वासन देकर लौट आया। 

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

छत्तीसगढ़: सबरी का सबरीनारायण

जिसका मन सुंदर हो, उसे सारी दुनिया सुंदर नजर आती है। मन से सभी तरह के भेद मिट जाते है। ईश्वर की बनाई सारी रचना खूबसूरत जान पड़ती है। ऐसे ही भगवान राम हैं, उनके दर्शनों के लिए व्याकुलता से प्रतीक्षा करती सबरी से राम जी की भेंट का वर्णन करते हुए बाबा तुलसीदास कहते हैं - "कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।" 

राम जी सबरी को "भामिनि" कह संबोधित करते हैं। भामिनि का अर्थ यहां पर "सुंदरी" होता है। राम की बात सुनकर सबरी गदगद हो जाती है और "प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।। सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।" 

राम जी के वचन सुनकर सबरी के मुंह से बोल नहीं फ़ूटते, वह मगन हो जाती है। यहीं सबरी से भगवान राम उसके चखे बेर खाते हैं। जहाँ यह मिलन होता है, यह स्थान छत्तीसगढ़ में शिवरीनारायण कहलाता है।

सुबह नीलकमल वैष्णव जी के निवास पर नाश्ता किए, सूर्यनारायण आसमान में प्रभा बिखेर रहे थे और हम कोसीर से भटगांव होते हुए शिवरीनारायण पहुंच गए। 

महानदी के तट पर स्थित प्राचीन शिवरीनारायण नगर जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत जांजगीर से 60 कि. मी., बिलासपुर से 64 कि. मी., कोरबा से 110 कि. मी., रायगढ़ से व्हाया सारंगढ़ 110 कि. मी. और राजधानी रायपुर से व्हाया बलौदाबाजार 120 कि. मी. की दूरी पर स्थित है। 

यहां महानदी, शिवनाथ और जोंक नदी का त्रिधारा संगम प्राकृतिक सौंदर्य का अनुपम उदाहरण है। इसे ''प्रयाग'' जैसी मान्यता है। मैकल पर्वत श्रृंखला की तलहटी में अपने अप्रतिम सौंदर्य के कारण और चतुर्भुजी विष्णु मूर्तियों की अधिकता के कारण स्कंद पुराण में इसे ''श्री नारायण क्षेत्र'' और ''श्री पुरूषोत्तम क्षेत्र'' कहा गया है। 

प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा से यहां एक बृहद मेला का आयोजन होता है, जो महाशिवरात्रि तक लगता है। 

मान्यता है कि इस दिन भगवान जगन्नाथ यहां विराजते हैं और पुरी के भगवान जगन्नाथ के मंदिर का पट बंद रहता है। इस दिन उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। 

तत्कालीन साहित्य में जिस नीलमाधव को पुरी ले जाकर भगवान जगन्नाथ के रूप में स्थापित किया गया है, उसे इसी शबरीनारायण-सिंदूरगिरि क्षेत्र से पुरी ले जाने का उल्लेख 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने किया है। इसी कारण शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ का जगन्नाथ पुरी कहा जाता है. 

शिवरीनारायण दर्शन के बाद राजिम का दर्शन करना आवश्यक माना गया है क्योंकि राजिम में ''साक्षी गोपाल'' विराजमान हैं। इसी कारण यहां के मेले को ''छत्तीसगढ़ का कुंभ'' कहा जाता है जो प्रतिवर्ष लगता है।

शबरी का असली नाम श्रमणा था, वह भील सामुदाय के शबर जाति से सम्बन्ध रखती थीं। उनके पिता भीलों के राजा थे। बताया जाता है कि उनका विवाह एक भील कुमार से तय हुआ था, विवाह से पहले सैकड़ों बकरे-भैंसे बलि के लिए लाये गए जिन्हें देख शबरी को बहुत बुरा लगा कि यह कैसा विवाह जिसके लिए इतने पशुओं की हत्या की जाएगी। 

शबरी विवाह के एक दिन पहले घर से भाग गई। घर से भाग वे दंडकारण्य पहुंच गई। दंडकारण्य में ऋषि तपस्या किया करते थे, शबरी उनकी सेवा तो करना चाहती थी पर वह हीन जाति की थी और उनको पता था कि उनकी सेवा कोई भी ऋषि स्वीकार नहीं करेंगे। 

इसके लिए उन्होंने एक रास्ता निकाला, वे सुबह-सुबह ऋषियों के उठने से पहले उनके आश्रम से नदी तक का रास्ता साफ़ कर देती थीं, कांटे बीन कर रास्ते में रेत बिछा देती थी। यह सब वे ऐसे करती थीं कि किसी को इसका पता नहीं चलता था।

एक दिन ऋषि मतंग की नजऱ शबरी पर पड़ी, उनके सेवाभाव से प्रसन्न होकर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में शरण दे दी, इस पर ऋषि का सामाजिक विरोध भी हुआ पर उन्होंने शबरी को अपने आश्रम में ही रखा। 

जब मतंग ऋषि की मृत्यु का समय आया तो उन्होंने शबरी से कहा कि वे अपने आश्रम में ही भगवान राम की प्रतीक्षा करें, वे उनसे मिलने जरूर आएंगे। मतंग ऋषि की मौत के बात शबरी का समय भगवान राम की प्रतीक्षा में बीतने लगा, वह अपना आश्रम एकदम साफ़ रखती थीं। 

रोज राम के लिए मीठे बेर तोड़कर लाती थी। बेर में कीड़े न हों और वह खट्टा न हो इसके लिए वह एक-एक बेर चखकर तोड़ती थी। ऐसा करते-करते कई साल बीत गए।

एक दिन शबरी को पता चला कि दो सुकुमार युवक उन्हें ढूंढ रहे हैं। वे समझ गईं कि उनके प्रभु राम आ गए हैं, तब तक वे बूढ़ी हो चुकी थीं, लाठी टेक के चलती थीं। लेकिन राम के आने की खबर सुनते ही उन्हें अपनी कोई सुध नहीं रही, वे भागती हुई उनके पास पहुंची और उन्हें घर लेकर आई और उनके पाँव धोकर बैठाया। 

अपने तोड़े हुए मीठे बेर राम को दिए राम ने बड़े प्रेम से वे बेर खाए और लक्ष्मण को भी खाने को कहा। लक्ष्मण को जूठे बेर खाने में संकोच हो रहा था, राम का मन रखने के लिए उन्होंने बेर उठा तो लिए लेकिन खाए नहीं। कहते हैं कि इसके परिणाम स्वरुप राम-रावण युद्ध में जब शक्ति बाण का प्रयोग किया गया तो वे मूर्छित हो गए थे।

यह नगर सतयुग में बैकुंठपुर, त्रेतायुग में रामपुर, द्वापरयुग में विष्णुपुरी और नारायणपुर के नाम से विख्यात था जो आज शिवरीनारायण के नाम से चित्रोत्पला-गंगा (महानदी) के तट पर कलिंग भूमि के निकट दैदीप्यमान है। 

यहां सकल मनोरथ पूरा करने वाली मां अन्नपूर्णा, मोक्षदायी भगवान नारायण, लक्ष्मीनारायण, चंद्रचूड़ और महेश्वर महादेव, केशवनारायण, श्रीराम लक्ष्मण जानकी, जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा से युक्त श्री जगदीश मंदिर, राधाकृष्ण, काली और मां गायत्री का भव्य और आकर्षक मंदिर है। 

कुल मिलाकर त्रिवेणी संगम पर स्थित यह नगर मंदिरों का नगर है। इसके साथ ही कुछ दूर पर स्थित खरौद में भी प्राचीन मंदिर हैं।

हम यहाँ मंदिरों के दर्शन करते हुए, महंत जी के मठ में पहुंचे। यह एक अति प्राचीन वैष्णव मठ है जिसका निर्माण स्वामी दयारामदास ने नाथ सम्प्रदाय के तांत्रिकों से इस नगर को मुक्त कराने के बाद किया था। 

रामानंदी वैष्णव सम्प्रदाय के इस मठ के वे प्रथम महंत थे। तब से आज तक 14 महंत हो चुके हैं, वर्तमान में इस मठ के श्री रामसुन्दरदास जी महंत हैं। नगर के नामकरण के विषय में मान्यता है कि शबरों को वरदान मिला कि उसके नाम के साथ भगवान नारायण का नाम भी जुड़ जायेगा.. 

पहले ''शबर-नारायण'' फिर शबरी नारायण और आज शिवरीनारायण यह नगर कहलाने लगा। मठ में स्थित मंदिरों की फ़ोटो लेते हुए हम खरदूषण की नगरी खरौद ओर चल पड़े………। ( इस यात्रा में कोसीर निवासी मित्र नीलकमल वैष्णव एवं पत्रकार साहित्कार लेखक लक्ष्मीनारायण लहरे जी संगवारी बने )

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

करिया धुरवा

छत्तीसगढ़ अंचल में किसान धान की फ़सल कटाई, मिंजाई और कोठी में धरने के बाद एक सत्र की किसानी करके फ़ुरसत पा जाता है और दीवाली मनाकर देवउठनी एकादशी से अंचल में मड़ई मेलों का दौर शुरु हो जाता है। ये मड़ई मेले आस्था का प्रतीक हैं और सामाजिक संस्था को सुदृढ़ करने के साथ जनचेतना जागृति करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। लगभग सभी छोटे बड़े गाँवों में इनका आयोजन होता है और यह उत्सव शिवरात्रि तक निर्बाध चलते रहता है। जनपदों में आज इस गांव में और कल उस गाँव में, मतलब पृथक पृथक दिन मड़ई का आयोजन होता है, जिसमें ग्राम देवताओं की पूजा पाठ के साथ मनोरंजन के नाच गाने का भी प्रबंध होता है। यह पर्व ग्राम समिति के माध्यम से संचालित होते हैं।

वर्तमान में अंचल में मड़ई मेलों का दौर चल रहा है। बड़े मेले तो विशेष पर्व या माह की पूर्णिमा तिथि को नदी तट पर आयोजित होते हैं, पर मड़ई का आयोजन लगभग प्रत्येक ग्राम में हो जाता है। वर्तमान में मुझे महासमुंद जिले पिथौरा तहसील के करिया धुरवा में मड़ई उत्सव देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। इस स्थान पर कौड़िया राजा करिया धुरवा एंव धुरवीन का स्थान है और पूष माह की पूर्णिमा को यहां प्रतिवर्ष मड़ई का आयोजन होता है। यहाँ करिया धुरवा एवं धुरवीन का कांक्रीट का मंदिर बने हुए हैं और दोनो पृथक स्थानों पर विराजमान हैं।

करिया धुरवा के मंदिर प्रस्तर निर्मित बहुत सारी खंडित प्रतिमाएं सहेज कर रखी हुई हैं तथा इनमें घुड़सवार करिया धुरवा की प्रतिमा स्थापित है। वहीं सड़क के दूसरी तरफ़ धुरवीन भी घोड़े पर सवार होकर मंदिर में विराजमान है और यहां भी अनेक प्रस्तर निर्मित खंडित प्रतिमाएं रखी हुई हैं। ग्रामीण पुरुष एवं महिलाएं इन स्थानों पर नारियल पुष्प अर्पित कर धूप दीप प्रज्जवलित कर सकाम पूजा पाठ करते हैं तथा मनोकामना पूर्ण होने के लिए देवों से प्रार्थना करते हैं। इस दिन यहाँ भक्तों की काफ़ी संख्या देखी जा सकती है।

करिया धुरवा के विषय में जितने मुंह उतनी कहानियां एवं किंवदन्तियाँ सुनने मिलती हैं। मड़ई भ्रमण करते हुए हमारी भेंट मंदिर समिति के सचिव जी से होती है। उनका कहना है कि करिया धुरवा कौड़िया राजा थे, उनका विवाह सिंगा धुरवा की राजकुमारी से होना तय हुआ। विवाह से पूर्व उभय पक्षों में तय होता है कि विवाह के पश्चात दिन में विदाई हो जानी चाहिए और वर पक्ष दुल्हन लेकर सूर्यास्त के पूर्व अपने ग्राम पहुंच जाए।

करिया धुरवा बारात लेकर सिंगा धुरवा जाते हैं, परन्तु विवादि विदाई प्रक्रिया में विलंब हो जाता है। गाँव पहुंचने के पूर्व ही सूर्यास्त हो जाता है। बारातियों एवं दुल्हन के साथ गांव के बाहर ही रात बिताने के लिए डेरा डाल देते हैं। वर पक्ष एवं वधु पक्ष दोनों का डेरा अलग-अलग लगता है, परन्तु दैवीय आपदा के कारण दोनों पक्ष रात को पत्थर में बदल जाते हैं। यही पत्थर में बदले हुए धुरवा और धुरविन कालांतर में लोक देवता के रुप में पुजित होने लगे और लोक मान्य हो गए।
छत्तीसगढ़ अंचल में मैने कचना धुरवा (गरियाबंद मार्ग पर) , सिंगा धुरवा (सिरपुर के 15 किमी दूरी पर पहाड़ी पर स्थित) और करिया धुरवा (अर्जुनी पिथौरा के समीप) तीनों को देखा है। किवदन्ति में तो इन्हें भाई बताया जाता है। परन्तु और भी कोई लोकगाथा प्रचलन में हो सकती है। करिया धुरवा में रखी हुई प्रस्तर प्रतिमाएं किसी मंदिर के भग्नावशेष भी हो सकते हैं, जो खेतों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे और बाद में किसी ने एकत्रित कर दिए होगें। कुल मिलाकर बात यह है कि ये प्रस्तर प्रतिमाएं हमें इतिहास से जोड़ती हैं और गौरव प्रदान करती है।

मड़ई मेलों में ग्रामीण उपयोग की वस्तुओं की दुकाने सजती हैं। सभी दुकानदार मड़ई के हाकां के अनुसार एक गांव से दूसरे गांव में भ्रमण करते रहते हैं। मिठाई की दुकाने, फ़ोटो स्टूडियों, टिकली फ़ुंदरी वाले, गोलगप्पे चाट वाले, गिलट के जेवर की दुकानें, गोदना वाले और भी तरह-तरह की सामग्रियों के विक्रेता अपनी दुकान सजाए रहते हैं। इसके साथ गांव के दुकानदार भी कुछ कमाई करने की दृष्टि से अपनी दुकाने लगाते हैं। सब्जियों इत्यादि की दुकाने भी सजती हैं। गोदना गोदवाने का प्रचलन आज भी आदिवासी समाज में बहुलता से दिखाई देता है। हम भी मड़ई भ्रमण कर ग्रामीण परिवेश का आनंद लेने के बाद लौट आए।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

राजा तालाब : हल्बा टिकरापारा जिला कांकेर

बात 1956-57 की है, बस्तर नरेश प्रवीण चंद भंजदेव वर्तमान कांकेर जिले के हल्बा गाँव के टिकरापारा पहुंचे, उनके स्वागत में सारा गाँव इकट्ठा हुआ। गाँव की चौपाल में उनके लिए खाट बिछाकर ग्रामीणों ने स्वागत किया, वे आकर खाट पर विराज गए। राजा के आगमन पर गाँव के सभी नागरिक इकट्ठे हो गए। राजा उनसे समस्याओं पर चर्चा करने लगे। यह आजादी के बाद का दौर था, जिसमें देश का लोकतंत्र अपना स्वरुप ग्रहण कर रहा था और विकास के पायदान गढ़े जा रहे थे। 

ग्राम के सरपंच तिलकराम कुंजाम उस दिन को याद करते हुए कहते हैं कि " हम लोग उस समय बच्चे थे, लेकिन समझने लायक हो गए थे, राजा  सफ़ेद कुर्ता पैजामा पहना हुआ था और उनके लम्बे बाल कंधे पर झूल रहे थे। ग्रामीणो ने कहा कि गाँव में निस्तारी के लिए पानी समस्या है और कोई भी तालाब नहीं है, कुछ कुंओं एवं नाले के पानी पर ही आश्रित हैं। तब राजा ने ग्राम वासियों को 500/- रुपए दिए और तालाब बनाना शुरु करने को कहा। राजा के पैसों एवं ग्रामीणों के श्रमदान से तालाब का निर्माण शुरु हो गया। 
तालाब के लिए स्थान का चयन करने के बाद सारा गाँव तालाब निर्माण में जुट गया, खंती लग गई। तालाब निर्माण का काम लगभग 3 बरस तक चला तब कहीं जाकर 3 एकड़ की भूमि में "राजा तालाब" का निर्माण हुआ। निर्माण कार्य के दौरान रुपयों की कमी पड़ने पर गांव के कुछ लोग जगदलपुर जाते और राजा से रुपए लेकर आते। इस तरह कुल बारह हजार रुपयों में तालाब का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। राजा तालाब की पार पर शिवालय का निर्माण भी ग्रामवासियों ने किया।

तालाब बनने के बाद समझ आया कि इसके लिए उपयुक्त स्थान का चयन नहीं किया गया। तालाब के चारों तरफ़ खेत थे, इसमें पानी आने का कोई साधन नहीं था, वर्षा जल पर ही इसका भराव संभव होता था। जैसे ही पूस माघ का समय आता है इस तालाब का पानी रिसकर खेतों में चला जाता है। तालाब की मिट्टी भी रेतीली है जिसके कारण पानी नहीं ठहरता॥ हमने जाकर देखा तो तालाब का पानी अंटकर मटमैला हो गया था तब भी लोग उसमें निस्तारी कर रहे थे। 
चंदू लाल जैन कहते हैं कि इस तालाब के निर्मान के बाद ग्रामवासी एक मास्टर में खुद की भूमि में तालाब बनवाया, इसे "मास्टर तालाब" के नाम से जाना जाता है। मास्टर तालाब में पानी ठहरता है, निजी तालाब होने के बावजूद भी मास्टर जी ने कभी ग्राम वासियों को तालाब का पानी उपयोग करने के लिए मना नहीं किया। तालाब में पानी कम होने पर उसे नलकूप जल से उसे भर दिया जाता है, ग्राम में पानी के व्यवस्था के लिए कई बोरिंग भी हैं, जिससे निर्वहन हो जाता है। 

आजादी के बाद भी बस्तर राजा द्वारा निजी धन से तालाब खुदवाने की जानकारी मुझे यहाँ प्राप्त हुई, बस्तर राजा प्रवीर चंद भंजदेव प्रजावत्सल थे, प्रजा के सुख दुख में सम्मिलित रहते और उसके दुखों एवं समस्याओं का निवारण करने का प्रयास स्वयं करते थे, इसलिए आज भी उन्हें बस्तर अंचल में भगवान की तरह पूजा जाता है। बस्तर के गाँव गाँव में उनकी स्मृतियाँ बगरी हुई हैं और 1966 के बस्तर महल कांड की यादें भी ग्रामीणों की स्मृति में अभी तक ताजा हैं।