शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

भाजी तेरे कितने रुप : छत्तीसगढ़


छत्तीसगढ के भोजन में "भाजी" (पत्ते की सब्जी) का स्थान महत्वपूर्ण है। जितने प्रकार की भाजी का प्रयोग भोजन में छत्तीसगढ़वासी करते है, संभवत: भारत के अन्य किसी प्रदेश में नहीं होता होगा। घर के पीछे छोटी सी बखरी "बाड़ी" में मौसम के अनुसार भाजियों का उत्पादन हो जाता है। जब कोई साग न हो तो बाड़ी का एक चक्कर लगाने के बाद भोजन के लिए साग उपलब्ध हो जाता है। जिसने भाजी का स्वाद ले लिया हो, वह जीवन भर नहीं भूल सकता। कभी-कभी सोचता हूँ कि छत्तीसगढ की भाजियों का दस्तावेजीकरण होना चाहिए क्योंकि वर्षा ॠतु में स्वत: उगने वाली बहुत सारी भाजियाँ अब लुप्त होते जा रही हैं, जिन्हें बचपन में देखा और खाया था, वो अब दिखाई नहीं देती।

अमारी भाजी का फूल 
छत्तीसगढ़ में बोहार भाजी (लसोड़े के वृक्ष के पत्ते) मुनगा भाजी (सहजन के पत्ते) आदि वृक्ष के पत्तों की भाजी, पोई भाजी, कुम्हड़ा भाजी, कांदा भाजी आदि बेल (नार,लता) के पत्तों की भाजी, लाल भाजी, चौलाई, पालक, भथुआ, चेच भाजी,सरसों, पटवा भाजी, चना भाजी, मेथी भाजी, तिवरा भाजी, जड़ी (खेड़ा - इसमें पौधे का सर्वांग भाजी में उपयोग किया जाता है) भाजी, अमारी भाजी, कुसुम भाजी, मुरई (मूली) भाजी, चरोटा भाजी, प्याज भाजी इत्यादि पौधों के पत्तों की भाजी तथा तिनपनिया, चुनचुनिया, करमत्ता इत्यादि भाजी जल में उत्पन्न होती हैं। यहां पर कुछ ही भाजियों के नाम दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त फ़ूलों से भी भाजी बनाई जाती है। ॠतु अनुसार भाजियों का सेवन किया जाता है, किसी-किसी भाजी को पकाने में मही (छाछ) या खट्टे की मुख्य भूमिका होती है। इसे दाल के साथ भी पकाया जाता है।
मूली भाजी 

मैदानी क्षेत्र के अलावा वन क्षेत्र की भाजियों के कई प्रकार पाए जाते हैं। गर्मी के दिनों में पत्तों को सुखाकर इनका प्रयोग बरसात के दिनों में भी किया जाता है।बस्तर से लेकर सरगुजा अंचल तक दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली भाजियों का दस्तावेजीकरण किया जाए तो इनकी संख्या हजार तक तो पहुंच सकती है। इनमें औषधीय तत्वों की प्रचुरता रहती है। इनका औषधिय महत्व भी बहुत अधिक है, ॠतुओं के अनुसार भाजियों का सेवन स्वास्थवर्धक होता है तथा मानव शरीर के स्वस्थ रहने योग्य आवश्यक, प्रोटीन, विटामिन, खनिज, लवण की पूर्ती इनके द्वारा सहज ही हो जाती है। इसके अतिरिक्त वृक्ष या पौधे से प्राप्त होने वाले फ़ल-फ़ूल-कंद से बनने वाले साग भी है।
केऊ  कन्द 
मूली का मौसम होने के कारण वर्तमान में घर-घर में मूली भाजी पकती है। गांव या मोहल्ले में किसी के घर मूली की भाजी पक रही होती है दूर से ही पता चल जाता है। गांव-गांव परिव्राजक की तरह घूम कर बुजूर्गों से भाजियों के विषय में चर्चा करते हुए, स्वाद लेकर, रेसिपी जमा करते हुए इनका दस्तावेजीकरण हो सकता है, जो बड़ा ही श्रम साध्य कार्य है। कोई शोधार्थी इस विषय पर शोध भी कर सकता है जिससे विलुप्त हो रही भाजियां भी सूचिबद्ध हो सकती हैं। भाजियों का राजा बोहार भाजी को माना जा सकता है। क्योंकि जब गर्मी के दिनों में इसका सीजन होता है तो यह सबसे मंहगी (डेढ़ सौ से लेकर दो सौ रुपए किलो तक बिकती है) बिकती है। छत्तीसगढ़ की भाजियों की कथा अनंत है, जिसने इनका स्वाद ले लिया वह जीवन भर नहीं भूल सकता। यही विशेषता है, छत्तीसगढ़ की भाजियों की। बचपन में कहते-सुनते थे, आलू, भांटा, मुरई, बिन पूंछी के चिरई…

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

छत्तीसगढ़ का शाही साग : जिमीकंद

दीपावली का त्यौहार समीप आते ही छत्तीसगढ़ में लोग बाड़ी-बखरी की भूमि में दबे जिमीकंद की खुदाई शुरु कर देते हैं। किलो दो किलो जिमीकंद तो मिल ही जाता है। वैसे भी वनांचल होने के कारण छत्तीसगढ़ में बहुतायत में पाया जाता है। इसका प्रयोग भोजन में मुख्यत: सब्जी के रुप में तो किया ही जाता है इसके साथ गोवर्धन पूजा के दिन पशुओं को भी खिचड़ी में कोचई के साथ मिलाकर खिलाया जाता है। अन्य कई प्रदेशों में दीवाली के दिन इसकी सब्जी बनाने की परम्परा है, जिसके पीछे मान्यता है कि दीपावली के दिन जिमीकंद की सब्जी खाने से आदमी अगले जन्म में छछुंदर नहीं बनता। इसके औषधीय गुणों के कारण धार्मिक त्यौहार से जोड़ दिया गया है, जिससे व्यक्ति कम से कम वर्ष में एक दो बार इसका सेवन कर ले।


भारत के अन्य प्रदेशों में इसे सूरन, ओल, जिमीकंद इत्यादि नामों से जाना जाता है। गुजरात में तो मुझे सूरनवाला सरनेम भी देखने मिला। देशी जिमीकंद को खाने के बाद खुजली होने के कारण सब्जी बनाने के लिए लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। परन्तु अब हाईब्रीड जिमीकंद आ गए हैं जिनके खाने या काटने से खुजली नहीं होती। दीवाली के समय यह बाजार में बड़ी मात्रा में दिखाई देता है। यह खोदकर बाहर निकालने के बाद भी साल भर तक खराब नहीं होता। इसे एकमुश्त खरीद कर घर में रखा जा सकता है और बरसात में भूमि में गाड़ने के बाद दीवाली तक यह बड़ा हो जाता है।

आयुर्वेद में इसे स्वास्थ्यकारक बताया है, एक तरह से यह औषधि का ही काम करती है। कहा जाता है कि ठंड के दिनों में प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम इसका दो बार सेवन करना ही चाहिए, जिससे कफ़ जनित रोगों का शमन होता है और ठंड से होने वाली बीमारियों से बचा जा सकता है। यह कफ़ एवं सांस की समस्या में भी कारगर औषधि के रुप में कार्य करता है। इसमें फाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी 6, विटामिन बी1, फोलिक एसिड और नियासिन होता है। साथ ही मिनरल जैसे, पोटैशियम, आयरन, मैगनीशियम, कैल्‍शियम और फॉसफोरस पाया जाता है।

इसमें पाए जाने वाले विटामिन, खनिज आदि औषधि तत्वों के कारण ग्रामीण अंचल में प्रचलन है। इसकी सब्जी दही, टमाटर, ईमली आदि की खटाई के साथ बनाई जाती है, जो इसके खुजलीकारक तत्वों को खत्म कर देती है। विशेषकर दही के साथ बनाई गई सब्जी का आनंद ही कुछ और है। मुझे इसकी सब्जी बहुत ही पसंद है, वैसे भी इसकी सब्जी को शाहीसाग की पदवी मिली हुई है। इसकि सब्जी बनाने के लिए सुबह प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है, तब जाकर रात को सब्जी मिल पाती है। चलिए जिमीकंद की सब्जी बनाकर खाईए और स्वस्थ रहने का आनंद लीजिए…।

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

प्राचीन मंदिरों के वास्तु शिल्प में नागांकन

सर्प एवं मनुष्य का संबंध सृष्टि के प्रारंभ से ही रहा है। यह संबंध इतना प्रगाढ एवं प्राचीन है कि धरती को शेषनाग के फ़न पर टिका हुआ बताया गया है। इससे जाहिर होता है कि धरती पर मनुष्य से पहले नागों का उद्भव हुआ। वैसे भी नाग को काल का प्रतीक माना जाता है। जो शिव के गले में हमेशा विराजमान रहता है। कहा गया है - काल गहे कर केश। इसके पीछे मान्यता है कि काल धरती के जीवों का कभी पीछा नहीं छोड़ता और हमेशा उसके गले में बंधा रहता है। इस मृत्यू के प्रतीक को मनुष्य ने हमेशा अपने समक्ष ही रखा और मानव जीवन में भी महत्वपूर्ण स्थान दिया। 
राजा रानी मंदिर के द्वार पर स्थापित नागप्रहरी - भुवनेश्वर उड़ीसा
शासकों के कुल भी नागों से चले, नागवंशी, छिंदक नागवंशी, फ़णीनागवंशी इत्यादि राजकुलों की जानकारी हमें मिलती है। इसके साथ ही हमें मंदिरों के द्वार शाखा एवं भित्तियों पर अधिकतर नाग-नागिन का अंकन मिलता है। वासुकि नाग एवं पद्मा नागिन का पाताल लोक के राजा-रानी के रुप में वर्णन मिलता है। नागों को एक दूसरे से गुंथित या नाग-वल्लरी के रुप में दिखाया जाता जाता है भारतीय शिल्पकला में इन्हें देवों के रुप में प्रधानता से स्थान दिया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि मंदिर के प्रवेश के समय इनके दर्शन करना शुभ एवं सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
राजीवलोचन मंदिर राजिम छत्तीसगढ़ के मंडप स्तंभ पर अंकित नागपाश

प्रागैतिहासिक शैलचित्र कला में नाग का चित्रण, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा से प्राप्त मुद्राओं पर नागों का अंकन हुआ है, जो नागपूजा का प्राचीनतम प्रमाण माना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि मानव प्राचीन काल से नागपूजा कर रहा है। नाग का भारतीय धर्म एवं कला से घनिष्ठ संबंध रहा है। कहा जाए तो नागपूजा हड़प्पा काल से लेकर वर्तमान काल तक चली आ रही है। इसके पुरातात्विक एवं साहित्य प्रमाण प्रचुरता में मिलते हैं। मंदिरों की द्वार शाखाओं पर नागाकृतियों का उत्कीर्ण किया जाना, विष्णु की शैय्या के रुप में, शिव के गले में, बलराम एवं लक्ष्मण को शेषावतार के रुप में प्रदर्शित किया जाना। 

राजीवलोचन मंदिर राजिम छत्तीसगढ़ के मंडप के द्वार शीर्ष पर शेष शैया
वासुकिनाग का समुद्र मंथन के साथ उल्लेख, वराहावतार का प्रतिमा के साथ नाग का आबद्ध होना, भारतीय संस्कृति में नागपूजा एवं उसके महत्व को प्रदर्शित करता है। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ के साथ पांच फ़न एवं सप्तफ़न के नाग लांछन का प्रयोग किया जाता है, जो जैन संस्कृति में नाग के महत्व को उजागर करते हैं।
छत्तीसगढ़ के प्राचीन नगर सिरपुर से उत्खनन में प्राप्त जैन तीर्थांकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा

पूर्व मध्यकाल एवं उत्तरमध्यकाल से लेकर आज तक लगभग प्रत्येक ग्राम में नागदेवताओं की किसी न किसी रुप में पूजा की जाती है। इसकी प्रतिमाएं आज भी गांवों में मिलती है तथा नागपंचमी का त्यौहार तो वर्ष में एक बार मनाया ही जाता है। इस विषधर जीव की जितने मुंह उतनी कहानियां मिलती हैं। शायद मनुष्य ने भयभीत होकर इस काल के प्रतीक की पूजा प्रारंभ की होगी और कई परिवारों में इसे कुलदेवता के रुप में मान्यता मिली हुई है, मनुष्य आज तक इसके महत्व एवं उपस्थिति के साथ बल को नकार नहीं सका है।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

पुरातत्व शास्त्र की वर्णमाला :मृदा भाण्ड

भ्यता के विकास के साथ मानव चरणबद्ध रुप से दैनिक कार्य में उपयोग में आनी वाली वस्तुओं का निर्माण करता रहा है। इनमें भाण्ड प्रमुख स्थान रखते हैं। जिन्हें वर्तमान में बरतन कहा जाने लगा है। प्राचीन काल में मानव मिट्टी के बरतनों का उपयोग करता था। किसी भी प्राचीन स्थल से उत्खनन के दौरान लगभग सभी चरणों से मिट्टी के बर्तन प्राप्त होते हैं तथा उत्खनन स्थल पर एक बहुत बड़ा यार्ड इनसे बन जाता है। इस यार्ड में इन्हें वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए क्रमानुसार रखा जाता है। छत्तीसगढ़ के डमरु में उत्खनन में अन्य पॉटरी के साथ कृष्ण लोहित मृदा भांड भी प्राप्त हुए। इन्हें देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि एक ही बरतन एक तरफ़ काला और एक तरफ़ लाल दिखाई दे रहा है। वैसे तो इन बरतन को रंग कर यह रुप दिया जा सकता था, परन्तु इन बरतनों को लाल और काला रंग पकाने के दौरान ही दिया गया था। 
मृदाभाण्ड बनाने की तकनीक का निरीक्षण करते हुए लेखक
कुम्हारों के द्वारा वर्तमान में किस तरह के बरतन बनाए एवं पकाए जा रहे हैं यह देखने के लिए हम समीप के गाँव में कुम्हार के भट्टे पर निरीक्षण करने के लिए गए। वहाँ कुम्हार से चर्चा की और उसके भाण्डों को भी देखा। इन भाण्डों में उत्खनन में प्राप्त भाण्डों जैसी स्निग्धता, चमक एवं मजबूती नहीं थी इससे साबित हुआ कि प्राचीन काल में भाण्ड निर्माण की प्रक्रिया वर्तमान से उन्नत थी और निर्माता भी समाज में उच्च स्थान रखता था। तभी तो सिरपुर स्थित तीवरदेव विहार के मुख्यद्वार की शाखा में शिल्पकार ने चाक सहित कुम्हार को स्थान दिया है। यह उनके सामाजिक मह्त्व को बताता है। 
मृदा भाण्ड पकाने की वर्तमान तकनीकि
पिछली शताब्दी में प्राचीन स्थलों का अन्वेषण एवं उत्खनन का लक्ष्य मात्र मुल्यवान एवं कलात्मक सामग्री की खोज करना था। मृदा भांडों एवं उनके टुकड़ों की गणना व्यर्थ समझी जाती थी। प्राय: उत्खननकर्ता इन्हें फ़ेंक देते थे अथवा इतना अनुमान लगाते थे कि उस समय की सभ्यता में लोग किन-किन बर्तनों का उपयोग करते थे, इनसे उस युग का आर्थिक जीवन जोड़ते थे, परन्तु उत्खनन की दृष्टि से इनका कोई महत्व नहीं माना जाता था। 
उत्खनन में पाप्त मृदाभाण्ड के टुकड़े - डमरु जिला बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
सर्वप्रथम फ़्लिंडर्स पेट्री ने मिश्र में उत्खनन कार्य करते हुए अनुभव किया कि प्रत्येक काल में विभिन्न प्रकार के कौशल से निर्मित मृदाभांडों का प्रचलन रहता है और परम्परानुराग के कारण शीघ्र ही आमूल परिवर्तन नहीं होता। चर्म एवं काष्ठ की सामग्रियाँ जहां मिट्टी में दबे होने के कारण नष्ट हो जाती हैं, वहीं भांड हजारों वर्षों तक मिट्टी में दबे होने के बाद भी नष्ट नहीं होते। अत: पुरातत्व के अध्ययन में इनका महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। पेट्री की इस दृष्टि ने पुरातन सभ्यताओं के अध्ययन में क्रांति ला दी। तब से मृदा पात्रों एवं भाण्डों का अध्ययन पुरातत्व शास्त्र का एक आवश्यक अंग माना जाने लगा।
कुम्हार के आवे पर- डॉ शिवाकांत बाजपेयी, डॉ जितेन्द्र साहू एवं करुणा शंकर शुक्ला
आज मृदाभाण्डों को पुरातत्व शास्त्र की वर्णमाला कहा जाता है। जिस प्रकार किसी वर्णमाला के आधार पर ही उसका साहित्य पढा जाता है, उसी प्रकार मृदा भाण्ड अपने काल की सभ्यता सामने लाते हैं। इनके निर्माण की एक विशिष्ट शैली का प्रचलन एक काल का द्योतक होता है। उनको एक विशिष्ट शैली में निर्मित एवं रंगों में वेष्टित करते हैं। जैसे कभी अंगुठे के प्रयोग से बर्तन बने तो कभी मिट्टी की बत्तियों से बनाए गए तो कभी चाक से बनाए गए। यह विकास अलग-अलग काल को दर्शाता है तथा बरतनों के आवश्यकतानुसार नवीन प्रकार भी दिखाई देते हैं।
पॉटरी यार्ड - तरीघाट उत्खनन जिला दुर्ग छत्तीसगढ़
रंगों के संबंध में हम देखते हैं कि भारत में कभी कृष्ण लोहित मृदा भांड बने तो कभी चित्रित धूसर बने, तो कभी कृष्णमार्जित एवं कृष्णरंजित लोहित मृदाभांड बने। ये सारे न तो एक समय में बने है और न एक ही लोगों द्वारा बनाए गए हैं। अलग-अलग कालों में, भिन्न-भिन्न लोगों द्वारा पृथक रंगों के मृदा भाण्डों का विकास हुआ। इससे स्तरीकरण एवं इन मृदा भाण्डों के साथ प्राप्त सामग्रियों से कालनिर्धारण में सहायता मिलती है। अन्य सामग्रियों एवं अभिलेखों की अनुपलब्धता में उत्खननकर्ता मृदाभाण्डों का अध्ययन कर काल का निर्धारण कर सकता है। इसलिए मृदाभाण्ड काल निर्धारण के लिए मह्त्वपूर्ण रुप से सहायक होते हैं। मृदा भाण्डों का महत्व मानव सभ्यता के साथ सतत बना हुआ है और बना भी रहेगा। 

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

इतिहास की खोई हुई कुंजी है शंख लिपि

विचारों को व्यक्त करने का माध्यम वाणी है, यह वाणी विभिन्न भाषाओं के माध्यम से संसार में प्रकट होती है। इन भाषाओं को दीर्घावधि तक स्थाई रुप से सुरक्षित रखने एवं एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का कार्य लिपि करती है।  कहा जाए तो भाषा को जीवंत रखने के लिए हम जिन प्रतीक चिन्हों का प्रयोग करते हैं, उन्हे लिपि कहते हैं। हम गुहा चित्रों, भग्नावशेषों, समाधियो, मंदिरो, मृदाभांडों, मुद्राओं के साथ शिलालेखो, चट्टान लेखों, ताम्रलेखों, भित्ति चित्रों, ताड़पत्रों, भोजपत्रों, कागजो एवं कपड़ों पर अंकित मनुष्य की सतत भाषाई एवं लिपिय  प्रगति देख सकते हैं।  इन सबको तत्कालीन मानव जीवन का साक्षात इतिहास कहा जा सकता है। 
उदयगिरि मध्यप्रदेश 

सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ साथ भाषा एवं लेखनकला का विकास भी होता रहा। प्रारंभ में लिखने के साधन गुफाओं की दीवारें, र्इंट, पत्थर, मृद्पात्र एवं शिलापट्ट आदि थे। देश, काल एवं परिस्थिति अनुसार ये साधन बदलते गये और लिपि एवं भाषा परिस्कृत होती गई।विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा एवं लिपि प्रथम साधन है। लिपि के अभाव में अनेक भाषाएँ उत्पन्न होकर नष्ट हो गई । आज उनका नामो निशान तक नहीं रहा। लिपियाँ भी समाप्त हो गई, वे भी इससे अछूती नहीं रही। ललितविस्तर आदि प्राचीन ग्रंथों में तत्कालीन प्रचलित लगभग चौंसठ लिपियों का नामोल्लेख मिलता है, लेकिन आज उसमें में अधिकांश लिपियाँ अथवा उनमें लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है।
शंख लिपि उदयगिरि 

कुछ प्राचीन लिपियाँ आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं। उनमें लिखित अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। आज हम देखते हैं कि भारत में बहुधा प्राचीन स्थालों, पर्वतों एवं गुफाओं में टंकित ‘शंख लिपि’ के सुन्दर अभिलेख प्राप्त होते हैं इनको भी आज तक नहीं पढ़ा जा सका है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। इसलिए इसे शंखलिपि कहा जाने लगा।
शंखलिपि सरगुजा सीता लेखनी पहाड़ 

जब भी मैं प्राचीन स्थलों पर शंख लिपि को देखता हूं तो मन जिज्ञासा से भर उठता है, कि प्राचीन काल का मनुष्य इस लेख के माध्यम से आने वाले पीढी को क्या सूचना एवं संदेश देना चाहता था। परन्तु लिपि की जानकारी की अभाव में यह रहस्य स्थाई हो गया है। विद्वान गवेषक इन लेखों को पढने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी तक योग्य सफलता नहीं मिल सकी है। आज भी विविध सिक्कों, मृद्पात्रों एवं मुहरों पर लिखित ऐसी कई लिपियाँ और भाषाएँ हमारे संग्रहालयों में विद्यमान हैं जो एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। समय को प्रतीक्षा है इन पहेलियों के सुलझने की। जब इनमें कैद इतिहास बाहर निकल कर सामने आएगा और नई जानकारियाँ मिलेगी।