शनिवार, 30 दिसंबर 2017

प्राचीन प्रतिमा शिल्प में स्वर्ग की अप्सरा अंजना : खजुराहो

तीखे तीखे नयन…। नायिका के नयनों की सुंदरता का वर्णन करते हुए कवियों ने खूब कागज काले किए एवं इन्हें विभिन्न उपमाओं से विभुषित किया। आँखे ही वह रास्ता है, जहाँ से कामदेव का प्रवेश हृदय में होता है और रोम रोम रोमांचित हो जाता है, लग जाती है लगन। कवि बिहारीे सुंदरियों के ऐसे त्रिगुण आकर्षक नयनों का वर्णन करते हुए कहते हैं…

अमिय हलाहल मद भरे, सेत स्याम रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत, जिहि चितबत एकबार।।

कवि ने आँखों के सफ़ेद भाग की तुलना अमृत से,काली पुतलियों की विष से एवं आंखों की हल्की लाली की मद से की है। कवि कहता है कि नायिका जिसकी ओर शांत भाव से ताकती है तो वह जी उठता है, जिस व्यक्ति की ओर घूर कर देखती है तो समझो उसका मरण ही है एवं जिसकी ओर अनुरागपूर्वक देखती है तो मानो वह प्रेम में मतवाला होकर झूमने लगता है। त्रिगुण वाले नयन आकर्षक माने गए हैं।  

प्राचीन मंदिरों के प्रतिमा शिल्प में स्वर्ग की एक अप्सरा अंजना को सम्मिलित किया जाता है। यह प्रतिमा बहुधा मंदिरों की भित्ती संरचना में जड़ी हुई दिखाई दे जाती है। त्रिभंगी मुद्रा में एक स्त्री करदर्पण में मुखड़ा देखते हुए अंजन शलाका से आँखों में काजल आंजती हुई दिखाई देती है। 

वैसे तो स्त्रियों के नेत्रों का वास्तविक शृंगार लज्जा को माना गया है, पर नयनों की सुंदरता बढाने के लिए आँखों में काजल आंजती हुई नायिका या अप्सरा को शिल्प में दिखाया जाना तत्कालीन काल में सौंदर्य के प्रति स्त्रियों के जागरुक होने का ही प्रमाण है। 

शिल्पकारों ने अंजन शलाका से आँखों में काजल आंजती हुईै नायिका को अपने शिल्प में विशेष स्थान दिया है । पद प्रतिष्ठा के अनुसार सोने, चांदी, अष्टधातु या हाथी दांत की अंजल शलाकाएँ होती थी। उत्खनन में हाथी दांत की अंजन शलाकाएँ प्राप्त होती हैं। 

नयनों को अलंकृत करने चलन प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक दिखाई देता है। आँखों में आंजने के लिए काजल बनाने विधि भी प्राचीन ग्रंथ बताते हैं, जिनमें काजल एक औषधि रुप में नयन दोष दूर करने के लिए प्रयुक्त होती है। 

वर्तमान में अंजन शलाकाओं एवं काजल का स्थान शीश पेंसिल ने ले लिया है परन्तु नयनों के सौंदर्य के प्रति आज भी स्त्रियाँ चैतन्य हैं एवं काजल से अलंकृत नयनों की एक नजर ही हृदय में पैठने के लिए काफ़ी है। उपरोक्त चित्र खजुराहो के मंदिरों से लिए गए हैं।

शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

खजुराहो के प्रतिमा शिल्प में शूल निवारण अंकन

खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर में शिल्पकार ने स्त्री के पैर के तलुए में गड़ी शूल देखते एवं उसे निकालते हुए चिकित्सक का प्रदर्शन किया है। यह इस मंदिर का महत्वपूर्ण शिल्प है। घर-बार दैनिक जीवन में कार्य करते हुए शूल गड़ना सहज बात है, परन्तुं वह शूल किसी कोमलांगी को गड़ जाए तो उसकी वेदना उतनी ही अधिक होती है, जितनी महत्वपूर्ण रुपसी है।  

पहले शिल्प में स्त्री पैर में गड़े हुए कांटे (शूल) का निरीक्षण कर रही है, शूल की पीड़ा उसके चेहरे से परिलक्षित हो रही है। शूल हृदय में गड़ा हो या पैर के तलुए में, चैन कहाँ लेने देता है, पीड़ा का निवारण कोई उपयुक्त पात्र ही कर सकता है। हृदय का शूल निकलना तो कठिन होता है, पर तलुए के शूल के लिए चिकित्सक आवश्यकता होती है।

अगले शिल्प में देवांगना चिकित्सक से शूल निवारण करवा रही है, इस शिल्प में उसका ध्यान शूल पर है और चेहरे से निराकरण का शांत भाव झलक रहा है। चिकित्सक भी आधुनिक ही है, वह औजार से कांटे को निकाल रहा है, इसके कंधे पर लटके बैग (चिकित्सक पेटी) से जाहिर होता है। वर्तमान में भी इस तरह के बैग का चलन बना हुआ है।

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

राजा जी नेशनल पार्क का वन मुर्गा

वन मुर्गा जंगल सफ़ारी के दौरान कई बार दिखाई देता है, परन्तु आहट सुनकर जल्दी ही झाड़ियों में गायब हो जाता है। राजा जी नेशनल पार्क चिल्ला रेंज में दिखाई दिया और इसने फ़ोटो लेने का भरपूर अवसर भी दिया। अपने रंगों के प्रभाव के कारण यह बहुत सुंदर दिखाई देता है। वन मुर्गी धूसर रंग की होती है, इसलिए अधिक प्रभावशाली दिखाई नहीं देती। 

विकिपीडिया कहता है कि यह पक्षी भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, चीन, म्यानमार, लाओस, कम्बोडिया, वियतनाम, थाइलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया, फ़िलीपीन्स तथा तिमोर का मूल आवासी है। यह समुद्र तल से लेकर 5000 फ़ीट (1524 मीटर) तक की ऊँचाई में पाया जाता है तथा शीतकाल में 3000 फ़ीट (914 मीटर) से ऊपर देखने को नहीं मिलता है। इसे बाँस के वन पसंद हैं लेकिन यह घने वनों और झाड़ के क्षेत्रों में भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

यह पक्षी वैसे तो खेतों से अनाज खाना पसन्द करता है लेकिन मौका मिलने पर कीट-पतंगे खाने से भी परहेज़ नहीं करता है। फ़सल कटने का मौसम न हो या यह जंगल में बहुत अन्दर हो तो इसके आहार में बीज, घास, नई कोपलें और कलियाँ भी शामिल होते हैं। प्रजनन काल जनवरी से जुलाई तक चल सकता है। अमूमन मुर्गी 4 से 6 अण्डे देती हैं लेकिन किसी-किसी घोंसले में 11 अण्डे भी पाये गये हैं। घोंसला सुविधा के अनुसार ज़मीन में बनाया जाता है।

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

बुंदेलखंड के दो प्राचीन नगर हैं, ओरछा एवं गढकुंढार

बुंदेलखंड के दो प्राचीन नगर हैं, ओरछा एवं गढकुंढार। गढ कुंढार तो नहीं देख सके पर गत वर्ष पहाड़ों से लौटते हुए ओरछा जाना हुआ और इस वर्ष भी पहाड़ों से लौटते हुए ओरछा पहुंच गए। वैसे तो ओरछा का इतिहास 8 वीं सदी से प्रारंभ होता है, परन्तु यहां रौनक बुंदेलाओं के कार्यकाल में आई एवं बुंदेलाओं ने भव्य निर्माण कार्य करवाए। 

निर्माण कार्यों में जहाँगीर महल, राज महल, राम राजा मंदिर, रायप्रवीण महल, लक्ष्मीनारायण मंदिर, फ़ुल बाग, पालकी महल, सावन भादो, चतुर्भुज मन्दिर प्रमुख हैं। इसके साथ ही राजाओं की भव्य छतरियाँ (मृतक स्मारक) आकर्षक हैं। बेतवा नदी के तट पर बनी यह छतरियाँ भव्य दिखाई देती हैं। कहा जा सकता है कि ओरछा नगर की पहचान हैं।

वर्तमान में ओरछा एक बड़ा पर्यटन केन्द्र बनता जा रहा है। यहाँ पांच सितार स्तर के कई होटल एवं रिसोर्ट बन चुके हैं। इससे साबित होता है कि पर्यटकों की आवा जाही अच्छी है। 

झांसी रेल्वे स्टेशन के समीप होने का लाभ भी इस स्थान को मिला। जिसके कारण झांसी पहुंचने वाले पर्यटक पहले ओरछा आते और फ़िर खजुराहो की ओर निकल जाते हैं, इस बीच झांसी छूट जाता है। मेरे साथ भी यही हुआ और झांसी छूट गया।

वर्तमान में ओरछा छोटा सा नगर है, जिसमें लोगों का पता मंदिर के आगे और पीछे लिखने से चिट्ठी पहुंच जाती है, बुंदेलाओं के समय में इसकी चमक चरम सीमा पर थी। बुंदेलाओं का राज1783 में खत्म होने के साथ ही ओरछा की कीर्ति एवं चमक घने जंगलों में खो गई। यह पुन: स्वतंत्रता संग्राम के समय सुर्खियों में आया जब स्वतंत्रता सेनानी चंद्रशेखर आजाद यहां के एक गांव में आकर छिपे थे। 

गत वर्ष ओरछा को मैने अपने कैमरे की आँख से देखा था। कुछ चित्र लिए थे, इस नगरी के श्वेत श्याम चित्र आपको पसंद आएंगे क्योंकि श्वेत श्याम चित्रों का अपना अलग ही आनंद है। इस यात्रा में मेरे सूत्रधार मुकेश पाण्डेय जी Chandan बने। उनके साथ ही ओरछा भ्रमण संभव हुआ। अगर आज कहा जाए तो वे ओरछा के पुरातत्व एवं इतिहास के अच्छे जानकार हैं। 

मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

खजुराहो के मंदिर अनुपम का शिल्प : सद्यस्नाता

सद्यस्नाता नाभिदर्शना का खजुराहो के मंदिर शिल्पकला में अनुपम प्रदर्शन हैं। वह एक दौर था जब प्रतिमा शिल्प में देह सौष्ठव, वस्त्रादि अलंकरण एवं लावण्यता का विशेष ध्यान रखा जाता था।  

मंदिर की भित्तियों पर दिनचर्या का विशेष तौर पर अंकन किया गया है। जिसमें स्नानोपरांत शृंगार से लेकर दिन ढलने पर आंगिक शिथिलतायुक्त अंगड़ाई तक को प्रदर्शित किया गया है। 

उपरोक्त प्रतिमा शिल्प का त्रिआयामी अंकन किया गया है। जिसमें प्रतिमा का सौंदर्य एवं विषय उभर कर सामने आया है। 

प्रथम चित्र में सद्यस्नाता स्त्री वेणी गुंथन के लिए केश राशि को निचोड़कर व्यवस्थित कर रही है और उससे झरती पानी की बूंदे शरीर पर दिख रही है। जिसे शिल्पकार ने कुशलता से प्रदर्शित किया है, साथ ही वस्त्रों पर की गई कारीगरी भी दिखाई दे रही है। 

दूसरा त्रिआयामी चित्र भी इसका पार्श्व पक्ष दिखा रहा है। जिसमें स्त्री वेणी गुंथन के लिए केश राशि को निचोड़ रही है एवं नीचे दिखाई दे रहे हंस की ग्रीवा भी त्रिआयामी दिखाई दे रही है। 

भित्तियों में स्थापित इन प्रतिमाओं की केश सज्जा भी उल्लेखनीय है। सभी प्रतिमाओं की केश सज्जा पृथक पृथक है। इससे ज्ञात होता है कि केश सज्जा का विशेष ध्यान रखा जाता था। एक शोध प्राचीन एवं वर्तमान केश सज्जा पर हो तो बहुत कुछ नया निकल कर सामने आएगा।

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

शौचालय के पहले जलस्रोतों के संरक्षण की आवश्यकता

वर्तमान में जल संकट का सामना ग्रामीण क्षेत्रों से लेकर शहरों तक मनुष्य को करना पड़ रहा है। नदियाँ सूख रही हैं, कूप एवं तालाब सूख जाते हैं, बांधों में जल का स्तर कम हो जाता है, घर घर में बोरवेल के कारण भूजल का स्तर भी रसातल तक पहुंच रहा है। जहाँ दस हाथ की खुदाई से जल निकल आता था वहाँ हजार फ़ुट में भी जल निकलने की संभावना नजर नहीं आती। 

इसके साथ ही हर वर्ष ग्रीष्म काल में जल संकट से वन्य प्राणियों के जान गंवाने के समाचार निरंतर आते रहते हैं, परन्तु लोग इस ओर ध्यान नहीं दे रहे। नलकूपों द्वारा जल का असीमित दोहन हो रहा है। दिनचर्या में सम्मिलित ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जो जल के बिना सम्पन्न हो सके। जहाँ भी जल संकट आता है वहां के लोग शासन प्रशासन को लानते भेजना प्रारंभ कर देते हैं परन्तु स्वयं की जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं।

पहाड़ों की ये स्थिति है कि वहाँ भी पेयजल नहीं है। मीलों दूर से जल की व्यवस्था करने पर मजबूर हैं। चीड़ ने पहाड़ों का सारा जल निचोड़ लिया है। लोग मैदानों की तरफ भागे आ रहे हैं, पर कब तक चलेगा यह सब। इसकी भी एक सीमा है। जल के संसाधन पहाड़ों पर भी बचाने होंगे।

आज से तीस बरस पहले मीठे पानी का एक कुंआ ही गाँव भर की प्यास बुझा देता था, निस्तारी के लिए तालाब का जल उपयोग में आता था। जब आज सब नल जल के भरोसे हो गए तो कुंए, बावड़ियों, तालाबों आदि की दुर्दशा देखी नहीं जाती। 

कभी पेयजल का स्रोत रहे इन साधनों में वर्तमान में लोग कूड़ा कचरा फ़ेंकते दिखाई देते हैं, जिससे प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं या बंद हो गए हैं। तालाबों की भूमि अतिक्रमण के कारण सिमटती जा रही है और आबादी बढती जा रही है। लोग शतुरमुर्ग की तरह भूमि में गर्दन गड़ाए सभ्यता को समूल नष्ट करने वाले तूफ़ान की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

जब भी किसी कुंए या प्राकृतिक जल स्रोत की दुर्दशा देखता हूँ तो आत्मा कलप जाती है और सोचता हूं कि मुर्ख मनुष्य अपनी ही जाति के समूल नाश का उद्यम कर रहा है। रजवाड़ों के काल में शासक, जमीदार एवं धनी मानी व्यक्ति कुंए, बावड़ियाँ, पुष्करी, तालाब आदि लोककल्याण के भाव से निर्मित करवाते थे तथा इस कल्याण का कार्य करने के लिए शास्त्र भी नेति-नेति कहकर उन्हें प्रोत्साहित करते थे। परन्तु वर्तमान में सब खत्म होते जा रहा है।

हम देख रहे हैं कि आज एक लीटर पानी की कीमत 20 रुपए हो गई है, जो लोग सहर्ष लेकर पीते हैं, घरों में आर ओ का जल आ रहा है। लोगों ने घरों में जल शुद्धि के आर ओ मशीने लगवा ली हैं। जबकि आर ओ में एक लीटर जल शोधन करने के लिए तीन लीटर जल व्यर्थ जाता है। इस वर्तमान को देखकर भविष्य की चिंता होती है कि आने वाला कल कितना भयानक हो सकता है।

पर्यावरण रक्षा के लिए असली नकली गुहारें होती दिखाई देती हैं। मानता हूँ कि पर्यावरण के साथ इको सिस्टम भी सुधारना आवश्यक है। परन्तु सबसे पहले गाँवों एवं शहरों के पुराने पेयजल के स्रोतों को भी बचाना आवशयक है। जो कुंए, तालाब बावड़ियाँ हैं, उनकी सफ़ाई करके उनका जल प्रयोग में लाना प्रारंभ करना चाहिए, जिससे वर्षाजल से धरती सींचित हो सके एवं भूजल का स्तर बढता रहे। 

स्थानीय शासन एवं सामाजिक संस्थाओं को सबसे पहले इस ओर ध्यान देना चाहिए। जो जल के प्राचीन स्रोत हैं, उनकी सफ़ाई करवा कर मरम्मत करवानी चाहिए जिससे उनका संरक्षण हो सके। अभी भी समय है, यह आवाज हर जगह उठनी चाहिए। जल है तो सब कुछ है, यह चराचर सृष्टि है, प्राण है, जीवन है, वन्य प्राणी हैं, इको सिस्टम है, वरना सब नष्ट हो जाएगा। 

बहुत देर हो जाएगी और आने वाली पीढी आपको कोसने एवं लानते भेजने के अलावा क्या कर सकती है। सरकार को भी चाहिए कि वह प्राचीन जल के स्रोतों को बचाने की कोई योजना बनाए जो कारगर हो एवं इसका लाभ जन जन को हो। शौचालय के पहले जल स्रोतों के संरक्षण की आवश्कता है।

रविवार, 24 दिसंबर 2017

मोबाइल का अविष्कार चौदहवीं शताब्दी में

छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिले के गंडई ग्राम में फणी नागवंशीकालीन 13 वीं शताब्दी का प्रस्तर निर्मित शिवालय है। इसकी बाह्य भित्तियों में प्रतिमा अलंकरण है। भित्तियों में विभिन्न पौराणिक प्रसंगों को लेकर बनाई गयी प्रतिमाएँ जड़ी हुई हैं।
मोबाईल पर बात करती स्त्री 
इन प्रतिमाओं में से एक प्रतिमा मेरा ध्यान विशेष रुपये से आकर्षित किया। इस प्रतिमा में एक स्त्री पलंग पर तकिए का सिरहाना लिए लेटी हुई है और उसके पैर भित्ति पर रखे हुए हैं तथा बाएँ हाथ को कान पर लगा रखा है।  

इस प्रतिमा को देखने से लगता है कि शिल्पकार कोई भविष्यवक्ता है जो आने वाली शताब्दी को अभिव्यक्त कर रहा है। 

हाँ जी, लगता है शिल्पकार ने इक्कीसवीं शताब्दी के मोबाइल युग शिल्प माध्यम से दिखाने प्रयास किया है। वर्तमान में यह दृश्य बहुधा दिखाई दे जाता है जब कोई स्त्री या पुरुष पलंग पर लेटकर चलभाष से कानाबाती करती दिखाई दे जाता है।

खैर तत्कालीन प्रसंग कुछ इससे पृथक या भिन्न रहा होगा। परन्तु वर्तमान में तो यह चलभाष की कानाबाती दिखाई देती है। सुदूर ग्रामांचल में होने के कारण यहां पर्यटक कम ही पहुँचते हैं। 

अगर खजुराहो जैसे मंदिरों में यह शिल्पांकन होता तो गाईड पर्यटकों को मोबाइल फोन की बातचीत बताकर रोमांचित अवश्य करते। 

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

प्राचीन मंदिर की भित्ति में सांप एवं नेवले की लड़ाई का अंकन

सांप और नेवले की कहानी महाभारत से लेकर हितोपदेश तक उपलब्ध होती है। बचपन में सांप एवं नेवले की लड़ाई खूब देखी परन्तु वर्तमान में वन्य प्राणी कानून होने के बाद सांप एवं नेवले की लड़ाई दिखाने वाले दिखाई नहीं देते। 
नारायणपुर (कसडोल-छत्तीसगढ़) के मंदिर की भित्ति में सांप एवं नेवले की लड़ाई का खूबसूरत अंकन
नारायणपुर (कसडोल-छत्तीसगढ़) के मंदिर की भित्ति में सांप एवं नेवले की लड़ाई का खूबसूरत अंकन किया गया है। नेवला सांप का परम्परागत शत्रु है, कितना भी बड़ा एवं विषैला सर्प हो, अगर नेवला उसके पीछे पड़ गया तो प्राण लिए बिना छोड़ता नहीं है। 

विदेशी वैसे भी भारत को सांपों एवं साधुओं का देश कहते हैं। इनके द्वारा खींचे गए स्नेक चार्मर्स के चित्र बहुधा मिलते हैं। सांपों के प्रति आकर्षण एवं भय दोनो रहता है। विदेशी मंत्र मुग्ध होकर सांपों का खेल देखते हैं।
शिल्पकार ने अपनी छेनी से मंदिर की भित्ति में इसी रोमांच का अंकन किया है। 

संसार में दिखाई देने वाली छोटे छोटे को दृश्यों का शिल्पांकन कर शिल्पकार ने अपनी विवेकशीलता का परिचय दिया है। हितोपदेश में नेवले की कई कहानियाँ हैं, जिसमें एक कहानी नेवले के स्वामीभक्ति एवं परोपकार की भी है जो इस प्रकार है………

उज्जयिनी नगरी में माधव नामक ब्रा्ह्मण रहता था। उसकी ब्राह्मणी के एक बालक हुआ। वह उस बालक की रक्षा के लिये ब्राह्मण को बैठा कर नहाने के लिये गई। तब ब्राह्मण के लिए राजा का पावन श्राद्ध करने के लिए बुलावा आया। यह सुन कर ब्राह्मण ने जन्म के दरिद्री होने से सोचा कि "जो मैं शीघ्र न गया तो दूसरा कोई सुन कर श्राद्ध का आमंत्रण ग्रहण कर लेगा।

आदानस्त प्रदानस्त कर्तव्यस्य च कर्मणः।
क्षिप्रमक्रियमाणस्य कालः पिबति तद्रसम्।।
शीघ्र न किये गये लेन- देन और करने के काम का रस समय पी लेता है।

परंतु बालक का यहाँ रक्षक नहीं है, इसलिये क्या करुँ ? जो भी हो बहुत दिनों से पुत्र से भी अधिक पाले हुए इस नेवले को पुत्र की रक्षा के लिए रख कर जाता हूँ। ब्राह्मण वैसा करके चला गया। वह नेवला बालक के पास आते हुए काले साँप को देखकर, उसे मार कोप से टुकड़े- टुकड़े करके खा गया। वह नेवला ब्राह्मण को आता देख लहु से भरे हुए मुख और पैर किये शीघ्र पास आ कर उसके चरणों पर लोट गया।

फिर उस ब्राह्मण ने उसे वैसा देख कर सोचा कि इसने मेरे बालक को खा लिया है। ऐसा समझ कर नेवले को मार डाला। बाद में ब्राह्मण ने जब बालक के पास आ कर देखा तो बालक आनंद में है और सांप मरा हुआ पड़ा है तो उस उपकारी नेवले को देख कर मन में घबरा कर बड़ा दुखी हुआ।

कामः क्रोधस्तथा मोहो लोभो मानो मदस्तथा।
षड्वर्गमुत्सृजेदेनमर्जिंस्मस्त्यक्ते सुखी नृपः।।
काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार तथा मद इन छः बातों को छोड़ देना चाहिये, और इसके त्याग से ही राजा सुखी होता है।

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2017

खजुराहो की प्रतिमाओं में खुजली प्रदर्शन

खुजली एक ऐसी चीज है, जिसे ब्याधि माने या सुख, यह तय करना बहुत ही कठिन है। जितना सुख खुजाने में है उतना किसी बात में नहीं है। मीठा मीठा सुख, लगता है तो खुजाते रहो। खुजली शरीर के किसी भी अंग क्षेत्र में चल सकती है। जीभ से लेकर वर्ज्य प्रदेश तक। यह खुजली भी ऐसी चीज है कि कभी कभी ऐसे स्थान पर चलती है जहाँ तक आदमी की पहुंच नहीं होती। उसे आड़ा टेढ़ा होकर खुजाने के लिए कसरत करनी ही पड़ती है।

ऐसी ही कुछ पार्श्व प्रदेश में चलने वाली खुजली है। इस खुजली का सुंदर शिल्पांकन खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर की भित्ति के शिल्पांकन में किया है। जिसमें अप्सरा त्रिभंगी मुद्रा में तन्मयता से अपनी पीठ खुजाते हुए दिखाई दे रही है तथा खुजाते हुए खुजली वाले स्थान पर खरोंचे भी पड़ गई हैं। पीठ खुजाने के लिए उसे शरीर को किसी जिमनास्टिक खिलाड़ी की तरह मोड़ना पड़ रहा है। शिल्पकार का शिल्पांकन भी अद्भुत है, उसने शरीर के सभी अंगो का लोच दिखाने में एवं चेहरे पर खुजली का सुख दिखाने में अपनी सारी कला का रस निचोड़ दिया।

इससे ज्ञात होता है कि खुजली सिर्फ़ आम आदमी को ही होती है। खुजली राजा, महाराजा, उच्चाधिकारियोँ एवं अप्सराओं तक को होती है तथा खुजली का खुजाकर शमन करना प्राथमिक कार्य माना गया है। खुजाने का सुख भी रतिदान के सुख से कम नहीं है। जब तक खुजा न लें तब तक मन को शांति नहीं मिलती। सबसे अधिक कठिनाई तो तब होती है, जब भरी महफ़िल में वर्ज्य क्षेत्र में खुजली होती है। ऐसी स्थिति में खुजाना भले ही असभ्यता समझा जाता है, परन्तु खुजाना तो पड़ता ही है। 

खुजाल की ऐसी स्थिति में लज्जा एवं सभ्यता को त्याग पर रख कर खुजाना ही पड़ता है। बड़े-बड़े नेताओं द्वारा खुजली करते हुए चित्र यदा कदा मीडिया में आ जाते हैं। उपरोक्त शिल्प से हम यह मानकर चल सकते हैं कि खुजली वर्तमान की व्याधि/ व्यसन नहीं है। इस सुख के आकांक्षी प्राचीन काल में भी रहे हैं। इसलिए अगर खुजली हो तो इसे निर्बाध खुजाया जा सकता है। धन्य है वह शिल्पकार जिसने खुजली जैसे सुख का भी प्रवीणता एवं महीनता से अंकन किया है।

अब समस्या यह है कि खुजाल को व्याधि की श्रेणी में रखा जाए या आनंद की। अगर व्याधि की श्रेणी में रखते हैं तो खुजाने के आनंद का सुख जाते रहेगा। अगर आनंद की श्रेणी में रखते हैं तो खुजाते खुजाते एक दिन व्याधि बन जाएगा। 

स्थिति बड़ी विकट है, इसलिए जब तक आनंद आ रहा है तब तक खुजाते रहें, जिस दिन खुजाते-खुजाते लहूलुहान होने लगें उस दिन चिकित्सा लेना अनिवार्य है। पर खुजाने का आनंद लेना हर नागरिक का परम धर्म मानना चाहिए। 

गुरुवार, 21 दिसंबर 2017

प्राचीन शिल्प में वाद्ययंत्र एवं नृत्य : खजुराहो

बरसन लागे सावन, बूंदिया आवन लागे… गायन-वादन हमारी प्राचीन विद्या है। पता नहीं कितने हजारों वर्षों से बांसुरी की मधूर तान मनुष्य हृदय के तारों को तरंगित कर रही है। वैसे माना जाता है कि सभी वाद्य यंत्रों में बांसुरी एवं मृदंग का प्रयोग मानव ने पहले प्रारंभ किया। भारत से लेकर युरोप जर्मनी तक प्राचीन काल में बांसुरी की उपस्थिति मिलती है। लगभग 40,000 से 35,000 साल पहले की कई बांसुरियां जर्मनी के स्वाबियन अल्ब क्षेत्र में पाई गई, जो हड्डी की बनी हुई हैं।

मुरली वादन… लक्ष्मण मंदिर खजुराहो
भारत के मुरलीधर, वेणुगोपाल, कृष्ण जग प्रसिद्ध हैं, जिनकी बांसुरी की मधुर तान पर चराचर जगत मोहित है। गायन एवं वादन का संबंध देह एवं देही की तरह हैं, एक के बिना दूसरा अधूरा हो जाता है। सुर ताल का संगम मनुष्य को किसी और ही दुनिया में ले जाकर स्वर्गिक आनंद दिलाता है। देवताओं से लेकर आम नागरिक तक को संगीत ने प्रभावित किया। गायन-वादन के साथ नृत्य भी जुड़ा हुआ है। बिना वाद्य के नृत्य की ताल नहीं बैठती। यह प्राचीन काल से वर्तमान तक मनोरंजन का साधन बने हुए हैं। 
आलाप… लक्ष्मण मंदिर खजुराहो
उपरोक्त चित्र खजुराहो के मंदिरों से लिए गए हैं। खजुराहो के मंदिरों का मूर्ति शिल्प इतना जीवंत एवं विविध विषयक है कि लगता है गागर में सागर समा गया है। जितना ढूंढो, उससे अधिक पाओ जैसे हालत हैं। प्राचीन शिल्प में तत्कालीन वाद्य यंत्रों एवं नृत्य का ज्ञान होता है। शिल्पकारों ने नृत्य की भाव भंगिमा को अपने शिल्प में बखुबी उतारा है। 
नृत्य गणपति लक्ष्मण मंदिर खजुराहो
भारतीय संगीत की अपनी समृद्ध परम्परा है, जो गुरु से शिष्य को मिलती है। चित्र में दिखाई गई स्थानक प्रतिमा में देवांगना मुरली वादन कर रही है तथा एक अन्य स्त्री बैठे हुए, कान पर हाथ लगाकर आलाप ले रही है। आलाप एवं मुरली की तान का मधुर कर्णप्रिय संगम प्रात: कालीन राग भैरव वातावरण में रस घोल रहा है। सोचिए वह सुबह कैसी होगी, जब आपकी आँखें खुले और कानों में मधुर संगीत की स्वर लहरियाँ सुनाई दे। 
मृदंग वादन लक्ष्मण मंदिर खजुराहो
दूसरा प्रतिमा शिल्प इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, इसमें नृत्य गणपति दिखाई दे रहे हैं। नटराज शिव के अलावा गणपति ही ऐसे देव हैं जिनकी नृत्य करते हुए प्रतिमाएँ शिल्प में दिखाई देती हैं। मंगलमुर्ति गणेश की नृत्य प्रतिमा शुभ एवं मांगलिक मानी जाती है। जब हृदय प्रसन्न हो एवं आल्हाद के भाव उठ रहे हो तभी नृत्य के लिए पैर थिरकते हैं तथा प्रसन्न हृदय देवता से जो भी वरदान मांगा जाए वह मिलना निश्चित है। 
ड्रम वादन लक्ष्मण मंदिर खजुराहो
गणपति की प्रतिमा में बांए तरफ़ एक व्यक्ति नृत्य के साथ ताल मिलाने के लिए ड्रम बजाता दिखाई दे रहा है। जबकि ड्रम तो प्राश्चात्य वाद्य माना जाता है। इसका चलन भारत में लगभग अट्ठारवीं सदी में प्रारंभ हुआ, परन्तु यहाँ ड्रम का वादन हमें नवमीं शताब्दी में दिखाई दे रहा है। है न दिमाग पर जोर डालने की बात। गणपति के दूसरी तरफ़ एक वाद्यक मृदंग बजा रहा है। देखने से ऐसा लगता है कि गणपति भारतीय एवं पाश्चात्य वाद्य के फ़्यूजन पर नृत्य कर रहे हैं। कुल मिलाकर रस संगीत में ही है, बाकी जो है सो तो हैइए है

मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

स्थापत्य एवं शिल्प के विषयों में बदलाव

समय के साथ स्थापत्य एवं शिल्प के विषयों में बदलाव आता है, जिससे उसके कालखंड की जानकारी मिलती है। छठवीं शताब्दी से लेकर अद्यतन हम देखते हैं तो शनै शनै बदलाव दिखाई देता है। जो शिल्प के लावण्य, शरीर सौष्ठव, वस्त्राभूषण आदि में परिलक्षित होता है। इस बदलाव को देखने के लिए मीमांसक का नजरिया चाहिए। जहाँ बड़ा बदलाव हो वह हर किसी को दिखाई देता है और अपना ध्यान आकृष्ट करता है।  


प्राचीन भारतीय परम्परागत वाद्य यत्रों में मृदंग, ढोल, नगाड़े, मुहरी, सिंगी वीणा, वेणु आदि दिखाई देते हैं। जिनमें स्थान विशेष एवं वादक की पसंद के हिसाब से बदलाव होता है। यह बदलाव शिल्प में भी दिखाई देते हैं। जिस तरह खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर की भित्ति में स्थापित नृत्य गणपति के दांई तरफ़ ढोल एवं बांई तरफ़ ड्रम वादक दिखाई देता है। यहाँ ड्रम दिखाई देते ही हमें एकदम से बदलाव दिखाई देता है। क्योंकि ड्रम पश्चिम का वाद्य माना जाता है। परन्तु शिल्प से जाहिर होता है कि यहाँ ड्रम जैसा वादय पूर्व से ही उपस्थित था। 
लक्ष्मण मंदिर खजुराहो के नृत्य गणपति प्रतिमा में अंकित ड्रम वादक
कुछ ऐसा ही शिल्प में हमें बस्तर स्थित #दंतेश्वरी मंदिर में दिखाई देता है। गर्भगृह के दांई तरफ़ के प्रतिमा शिल्प में एक कुलीन स्त्री अपने कंधे पर पर्स लटकाए हुए है और उसके पीछे परिचारिका पंखा झल रही दिखाई देती है। यह शिल्प 14 वीं शताब्दी का माना जाता है। इस प्रतिमा में दिखाई गए पर्स (सौंदर्य पेटिका) का चलन वर्तमान में भी दिखाई देता है। आज भी हम बाजार में जाएंगे तो इस प्रकार की सौंदर्य पेटिका खरीद सकते हैं।
दंतेश्वरी मंदिर दंतेवाड़ा बस्तर का चौदहवीं सदी का प्रतिमा शिल्प
अब हम मुख्य विषय पर आते हैं, सुबह की पोस्ट में प्राण चड्डा जी ने जिज्ञासावश एक चित्र कमेंट बाक्स में पोस्ट किया। मुझे इस शिल्प चित्र को देखकर खुशी भी हुई। खुशी इसलिए हुई की छठवीं शताब्दी से लेकर वर्तमान में शिल्प में कितना बदलाव हुआ है, इस प्रतिमा शिल्प से पूर्णत: ज्ञात हो रहा है। यह प्रतिमा शिल्प सद्यनिर्मित अमरकंटक के जैन मंदिर का है। 
सद्यनिर्मित अमकंटक के जैन मंदिर का प्रतिमा शिल्प
इस प्रतिमा में स्त्री सम्पूर्ण भारतीय शृंगार से ओतप्रोत होकर वायलियन वादन कर रही है। जबकि वायलियन युरोप का प्रमुख वाद्य यंत्र है। कितनी सहजता से शिल्पकार ने अपने शिल्प में वायलियन जैसे वाद्य यंत्र को अंगीकार कर लिया। प्रतिमा के गले में दो लड़िया हार एवं कटिमेखला की चौड़ाई इस शिल्प में अधिक दिखाई दे रही है। यह आभुषणों में भी परिवर्तन है। यही समय के साथ बदलाव है। काल के अनुसार परिवर्तन अवश्यसंभावी है और सनातन चलता रहेगा। 

सोमवार, 18 दिसंबर 2017

स्वस्थ रहने के लिए ॠतु के अनुसार भोजन करें

धरती के किसी भी प्राणी को जीवन संचालन के लिए उर्जा की आवश्यकता होती है एवं प्राण संचालन की उर्जा भोजन से प्राप्त होती है। मनुष्य भी चौरासी लाख योनियों में एक विवेकशील प्राणी माना गया है, इसे भी उर्जा के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। अन्य सभी प्राणियों का तो भोजन निर्धारित है, उन्हें पता है कि क्या खाना है। परन्तु मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनी रुचि, स्वाद एवं उपलब्धता के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार का भोजन करता है।
हरियाणा का भोजन 
हमारे पूर्वजों ने हजारों वर्षों तक शोध करके मनुष्य के खाने लायक भोजन के मानक तैयार किए और उन्हें पथ्य एवं कुपथ्य का नाम दिया। यह बताया कि कौन सा भोजन मनुष्य के लिए लाभकारी है और कौन सा हानिकारक। परन्तु वर्तमान समय में मनुष्य उन मानकों के विपरीत भोजन कर रहा है जिससे उसके स्वास्थ्य को हानि ही हो रही है।

वर्तमान में हम देख रहे हैं कि सब्जी जैसी वस्तु की मंहगाई का सुर्खियों में बनी हुई हैं। इसका अर्थ है कि हमारे खान पान में बदलाव हो रहा है एवं बेरुत (गैर मौसमी) की सब्जियों का सेवन बढ गया है, जिसके कारण मंहगाई भी दिखाई दे रही है और स्वास्थ्य भी खराब हो रहा है, चिकित्सा का खर्च बढ रहा है। छोटे-छोटे बच्चों को उच्च रक्तचाप एवं कोलेस्ट्रोल बढने की शिकायतें दिखाई दे रही हैं। 

यह हमारे अनुचित एवं बिना ॠतु के खान पान का परिणाम है। शारीरिक व्याधियों में निरंतर वृद्धि हो रही है तथा मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप के रोगी बढ़ रहे हैं। आज स्थिति यह है कि भारत में शायद ही ऐसा घर हो जिसमें इन दोनो व्याधियों में किसी एक का मरीज न मिल जाए।

कभी टमाटर मंहगे हैं तो कभी निम्बू मंहगा है तो कभी दाल ने कमर तोड़ दी तो कभी प्याज के भाव ने जीना दूभर कर दिया। यह सब वर्तमान में ही क्यों सुनाई देता है? आज से तीस बरस पहले तो यह सब सुनाई नहीं देता था कि सब्जियों का मूल्य बढ गया है और न सत्ता पक्ष ध्यान देता था न विपक्ष, न अखबार वालों को इस तरफ़ देखना पड़ता था। और भी बहुत सारी जन समस्याएं थी जिस पर सरकार और प्रशासन ध्यान देता था।

अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो हमारे पूर्वज स्वस्थ रहा करते थे एवं प्रसन्नता से अपनी पूरी उम्र जी कर जाते थे। आज व्याधियों के कारण अकाल मृत्यू का प्रतिशत बढ गया है। हम तीस चालिस बरस पीछे का हमारा जीवन देखें तो हम हमेशा ॠतु में होने वाली उपज का ही सेवन करते थे। भारत में वर्षा, शीत एवं ग्रीष्म तीन प्रमुख ॠतुएं होती हैं। वर्षाकाल में हरी सब्जियों का सेवन नहीं किया जाता था। ग्रीष्म ॠतु में ही वर्षाकाल के भोजन की तैयारी कर ली जाती थी।

गेंहूँ, चावल, दाल, गुड़, नमक, घी आदि भोजन के मुख्य तत्व को जमा कर लिया जाता था। दाल की बड़ी, बिजौरी, पापड़, खट्टी मिर्च, टमाटर, आम का अमचूर इत्यादि तैयार सुखा कर लिए जाते तथा विभिन्न तरह के अचार बना लिए जाते थे। इसके साथ ही सब्जियों को सुखा लिया जाता था, जिसे विभिन्न अंचलों में सुखसी, सुखड़ी, सुखौंत, खोइला, खेलरा आदि नामों से जाना जाता है। 

मेथी, पालक, लाल भाजी, चुनचुनिया एवं अन्य तरह की भाजियों को सुखाकर डिब्बे में बंद कर दिया जाता था। जिसका उपयोग वर्षा काल में किया जाता था।मांसाहार करने वाले भी अपने लिए मांस सुखा लेते थे, यहाँ तक कि मछली भी सुखा ली जाती थी, जिसे सुखसी कहा जाता है। 

वर्षाकाल में दही और छाछ का प्रयोग भी नहीं किया जाता था। भैषजिक शास्त्रों में वर्षा को संक्रमण का काल एवं स्वास्थ्य के लिए सचेत रहने का काल बताया गया है। रोगकारक विषाणुओं की शत्रु सूर्य की किरणें है और वर्षाकाल में सूर्य प्रकाश न होने के कारण व्याधियों के विषाणु अधिक सक्रीय हो जाते हैं। इसलिए खान पान के प्रति विशेष सावधानी रखी जाती थी।

वर्षाकाल में बोई गई सब्जियों की आमद शीत काल में होती है, इसलिए दीवाली के समीप हरी सब्जियों की आमद होने कारण इनका सेवन प्रारंभ होता था। शीत ॠतु को सेहत के लिए सबसे अधिक उपयुक्त बताया गया है। इस ॠतु में खाया पिया अंग लगता है तथा डटकर भोजन एवं ब्यंजनों का सेवन करने की परम्परा रही है। चिकित्सा विज्ञान भी इसे हेल्दी सीजन कहता है। 

संक्रामक रोगों की कीटाणु धरती से गायब हो जाते हैं एवं अधिक शीत होने के कारण कफ़जनित रोग होते हैं। इस तरह हम भी सब्जियों का सेवन शीत ॠतु में ही अधिक करते थे। स्कूल जाते समय रोटी के साथ गुड़ या एक अचार की फ़ांक रखकर ले जाते और दोपहर का भोजन हो जाता था।
ग्रामीण बाजार 
इस तरह ग्रीष्म काल भी वर्षाकाल की तैयारियों में बीत जाता था। इस दौरान घी दूध, दही, मही का सेवन बढ जाता है और ऐसा भोजन किया जाता है जिसमें पानी की मात्रा अधिक हो। क्षेत्र के अनुसार लोक ने ग्रीष्मकालीन भोजन का अविष्कार कर लिया। भोजन में खटाई की मात्रा बढ जाती है। 

छत्तीसगढ़ अंचल में बासी का सेवन प्रारंभ हो जाता है। एक बटकी बासी, चटनी, अचार, प्याज या मही (छाछ) के साथ खाकर आदमी अपने काम पर चला जाता है। हरियाणा, राजस्थान में जौ के दाने (घाट) एवं बाजरे या गेहूँ के आटे की राबड़ी का सेवन सुखकारक हो जाता है। पंजाब में लस्सी का एवं गुजरात में छाछ का चलन बढ जाता है तो दक्षिण में इमली का सेवन अधिक हो जाता है।

कृषि की तकनीकि में नवोन्मेष होने के कारण बेरुत में भी सब्जियां दिखाई देने लगी। जिन्हें विभिन्न तरह की रोगरक्षक दवाईयों के छिड़काव से तैयार किया जाता है। अब हर मौसम में सभी तरह की सब्जियां मिलने लगी तो लोग पथ्य एवं कुपथ्य को भूल कर उसका सेवन करने लगे। अब यही आदत में सम्मिलित हो गई। बेरुत की किसी भी सब्जी का मूल्य बढ जाता है तो हो हल्ला प्रारंभ हो जाता है। 

सभी जानते हैं कि वर्षा के दौरान टमाटर का उत्पादन नहीं होता है, प्याज का उत्पादन नहीं होता है तो इसका सेवन कम किया जा सकता है या नहीं भी किया जा सकता। कोई आवश्यक नहीं है कि जिस वस्तु से स्वास्थ्य को हानि हो उसका सेवन जबरिया किया जाए।

दो-तीन दशक पूर्व हमने ही देखा है कि भोजन में तेल इत्यादि का प्रयोग नहीं होता था। घी का प्रयोग किया जाता था। बिना बघार के सब्जियाँ बनती थी, हमारे यहाँ तो पानी से बघार दे दिया जाता था और वह सब्जी भी अत्यंत स्वादिष्ट एवं लाभकारी होती थी। 

वर्तमान में तेलों का चलन बढ गया। अखाद्य तेलों को भी खाद्य का जामा पहनाकर बाजार में प्रस्तुत किया जा रहा है, जिसमें राईसब्रान, सोयाबीन, पॉम आईल, वनस्पति घी इत्यादि। ये सब तेल सेहत के अत्यंत हानिकारक है एवं शुगर एवं हृदयरोग आदि की व्याधियों के मुख्य कारक भी हैं। जहां तक हो सके इन तेलों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। भोजन में गाय, भैंस का घी एवं अधिक जरुरी हुआ तो सरसों तेल का उपयोग किया जा सकता है।

आयुर्वेद के प्रथम पृष्ठ पर ही सार तत्व लिख दिया गया है कि मानव शरीर में व्याधियों का कारण कफ़, पित्त एवं वात का असंतुलन है। इनका संतुलन बनाए रखने के लिए पथ्य का सेवन करना चाहिए। एक सूत्र दिया है ॠतभुक, हितभुक, मितभुक, ॠतु के अनुसार भोजन का सेवन करना चाह्रिए, जो आपके जीवन के लिए हितकारी उस भोजन का सेवन करना चाहिए, तथा स्वास्थ्य के लिए लाभकारी यही है कि भोजन मितव्ययिता के साथ किया जाए। 

पहले के लोग सूर्यास्त तक भोजन कर लेते थे। आज लोग रात बारह बजे के बाद भी प्रेतकाल में भोजन करते हैं। इससे चया-पचय को हानि होती एवं जठराग्नि के मंद होने से कफ़, पित्त, वात का संतुलन बिगड़ कर व्याधियों को जन्म देता है। 
छत्तीसगढ़ की प्रसिद्द अंगाकर  रोटी  
मेरा इतना ही कहना है कि ॠतु के अनुसार भोजन होना चाहिए। कहा गया है न - समय पाये तरुवर फ़ले, केतक सीचो नीर। परन्तु वर्तमान में यह उक्ति चरितार्थ होते दिखाई नहीं देती क्योंकि कृषि तकनीक ने ॠतु चक्र ही बदल दिया। परन्तु अभी भी समय है अगर स्वस्थ रहना है तो ॠतुओं के अनुसार भोज्य का सेवन करना चाहिए।

रविवार, 17 दिसंबर 2017

शैव एवं वैष्णव सम्प्रदाय के मिलन का प्रतीक : हरिहर

शैवों एवं वैष्णवों पंथों के आपसी वर्चस्व की लड़ाई ने हिन्दू धर्म की बहुत हानि हुई। आपसी संघर्ष में भारी रक्तपात एवं एक दूसरे के पूजा स्थलों का नुकसान पहुंचाना भी सम्मिलित था। यह अनेकेश्वर वाद की देन प्रतीत होता है। वैसे तो हमारा दर्शन कहता है कि ईश्वर एक है, परन्तु इन पंथों की आपसी की वर्चस्व की लड़ाई ने अनेक देवता उत्पन्न कर दिए। एकेश्वर से बहुदेववाद चल पड़ा। हजारों वर्षों तक चले झगड़े में शैव एवं वैष्णव नामक दो धाराओं में खूब रक्तपात हुआ तथा इसी के चलते शाक्त धर्म की उत्पत्ति हुई। जिसने दोनो सम्प्रदायों में समन्वय का काम किया। 
शैव एवं वैष्णव सम्प्रदाय के मिलन का प्रतीक संघाट नंदी एवं गज विट्ठल मंदिर हम्पी कर्णाटक
जब आपस में मिलन हुआ तो वर्तमान में स्थिति यह है कि शैव, शाक्त एवं वैष्णवों में पता नहीं चलता कि कौन किस सम्प्रदाय का अनुशरणकर्ता है। कहा जाता है कि इनके समन्वय में अत्रिपुत्र दत्तात्रेय का प्रमुख स्थान है। इसके पश्चात में इनमें समन्व्य का कार्य आदि शंकराचार्य के हाथों हुआ। जब बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के विस्तार के कारण हिन्दू धर्म का ह्रास हो रहा था। दीर्घावधि के प्रयास के पश्चात कालांतर में समन्यव ऐसा हुआ कि मंदिर निर्माण की पंचायतन शैली विकसित हुई। मूल देवता के मुख्य मन्दिर के साथ चारों कोनों में अन्य अनुषांगी देवों के मंदिर एक ही परिसर में बनने लगे। इसे पंचायतन शैली कहा गया। यह भी हम मान सकते हैं कि उत्तर एवं दक्षिण का मिलन हुआ।
हरिहर की संघाट प्रतिमा छत्तीसगढ़ पाली नवमी शताब्दी
आज हम देखते हैं कि शिवालयों में भित्तियों पर वैष्णव पंथ के देवताओं की उपस्थिति दिखाई देती है। शिवालयों में गर्भगृह के द्वारपट पर दशावतारों का अंकन प्रमुखता से दिखाई देता है, जिसमें विष्णु के अवतारों को स्थान दिया जाता है। वैष्णव मंदिरों में शिव परिवार के गणपति की उपस्थिति प्रमुखता से दिखाई देती है तथा कार्तिकेय एवं कीर्तिमुख भी हमें वैष्णव मंदिरों में दिखाई देते हैं। जो कालांतर में शिल्प परम्परा का आवश्यक अंग बन गए। दश दिक्पाल, सप्तमातृकाएँ महिषसुरमर्दनी की प्रतिमाएँ भी प्राचीन शिवालयों में प्रमुखता से दिखाई देती है। इसके पश्चात पुराणों और स्मृतियों के आधार पर जीवन-यापन करने वाले लोगों का संप्रदाय ‍बना जिसे स्मार्त संप्रदाय कहते हैं।
सपरिवार हरिहर मिलन राजा रवि वर्मा का चित्र
प्रतिमा शिल्प में भी संघाट प्रतिमाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ, जिसमें हरिहर, हरिहरार्क, त्रिदेव एवं हरिहरार्कब्रह्म की प्रतिमाएँ भी हमे मिलती हैं। छत्तीसगढ़ के मुंगेली जिले अंतर्गत मदकूद्वीप के उत्खनन में हम्रें स्मार्त लिंग प्राप्त होते हैं। पंकज दीक्षित जी Pankaj Dixit द्वारा लगाए गए चित्र ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया जिसमें गजारुढ़ विष्णु लक्ष्मी तथा नंदी सवार शिव पार्वती दिखाई दे रहे हैं। चित्रकार ने गज एवं नंदी को ऐसे चित्रित किया है कि दोनों के शीश आपस में मिले हुए हैं। ध्यान से देखने पर ही दोनो अलग दिखाई देते हैं। एक तरफ़ से गजमुख एवं दूसरी तरफ़ से नंदी मुख। यह दोनों सम्प्रदायों के मिलन के प्रतीक के रुप में देखा जा सकता है। 
हनुमान द्वारा शिवार्चन फ़णीकेश्वर महादेव फ़िंगेश्वर छत्तीसगढ़ परवर्ती काल
पंचायतन मंदिर शैली के अतिरिक्त में शिल्प में हरिहर की प्रतिमा हमें छतीसगढ़ के पाली स्थित शिवालय की भित्ति से प्राप्त होती है। राजिम फ़िंगेश्वर शिवालय फ़णीकेश्वर महादेव में भित्ति जड़ित एक प्रतिमा में हनुमान को शिवार्चना करते दिखाया गया है। मदकूद्वीप से हमें संघाट प्रतिमा के रुप में स्मार्त लिंग प्राप्त होता है। हम्पी के विट्ठल मंदिर एवं हजारा राम मंदिर में मुझे नंदी एवं गज की संघाट प्रतिमा मिलती है। यह सब शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों के सम्मिलन के प्रतीक चिन्ह हैं। जब दोनो सम्प्रदाय एकाकार हुए तब इस दर्शाने के लिए संघाट प्रतिमाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ। हो सके यह आपको अन्य मंदिरों में भी दिखाई दे, जरा ध्यान दीजिएगा।

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था वेंटीलेटर पर

शिक्षाकर्मियों की हड़ताल हुई और सारी शैक्षणिक व्यवस्था वेंटीलेटर पर चली गई। शिक्षा सत्र के मध्य में विद्यार्थियों की पढाई का नुकसान हुआ। सरकारी स्कूलों में पढाई के प्रति न सरकार गंभीर है, न शिक्षक।

शिक्षा सत्र आरंभ होने की सुगबुगाहट के साथ सरकार और मीडिया सभी एकाएक जाग उठते हैं, अखबार शिक्षा व्यवस्था की खामियाँ गिनाने लगते हैं तो सरकार गुणवत्ता सुधारने की कवायद का बखान करने लगती है।

आनन-फ़ानन में दो-चार आदेश जारी करने के बाद कर्तव्यों की इति श्री हो जाती है और व्यवस्था अपने उसी ढर्रे पर चलने लगती है। एक तरफ़ देखें तो सरकारी शैक्षणिक संस्थाओं में पढाई का स्तर नित्य ही गिरते जा रहा है, जिसके कारण निजी संस्थाएं चाँदी काट रही हैं।

कई संस्थाएं तो इतनी ऊंची पहुंच रखती हैं कि वे शासन के आदेशों की धज्जियां उड़ा कर अवमानना करते हुए मनमानी फ़ीस बढा कर अपनी मनमानी करते हैं। 

शिक्षा नित मंहगी होते जा रही है, अगर कहें तो आम आदमी के पहुंच के बाहर हो रही है। विद्यार्थी को नामी शिक्षण संस्था में प्रवेश दिलाने के लिए पालक का दम निकल जाता है। जिधर देखो उधर ही शिक्षा की दुकाने सजी हुई हैं।

सरकारी स्कूलों में कोई अपने बच्चे को पढाना नहीं चाहता। हर पालक चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढे। उच्च शिक्षा के लिए सरकारी महाविद्यालयों में उतना कोटा नहीं है जितने विद्यार्थी हैं। इसलिए इन्हें मजबूरन निजी शिक्षण संस्थाओं में मोटी फ़ीस देकर पढाई करनी पड़ती है। जिसका बोझ परिवार पर अतिरिक्त पड़ता है। 

जिसके पास काला-पीला धन या टेबल के नीचे की कमाई है, वह अपने बच्चे को निजी संस्थाओं में पढा लेता है, परन्तू उनका मरण हो जाता है जिनके पास बड़ी फ़ीस देने के लिए धन नहीं है। शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के नाम पर नित नए प्रयोग होते दिखाई देते हैं।

नई सरकारें सत्ता में आती हैं तो पाठ्यक्रम बदल दिया जाता है। वामपंथ, दक्षिणपंथ, उत्तरपंथ इत्यादि पथों का प्रभाव पाठ्यक्रम पर डालने का कार्य किया जाता है। जिसका असर विद्यार्थियों के मानस को दुषित करने के साथ ही शिक्षा की गुणवत्ता को हानि पहुंचाता है। 

निजी स्कूलों के पीछे दीवानगी आलम यह है कि नेता, अधिकारी, कर्मचारी एवं सरकारी स्कूलों के शिक्षक अपने बच्चे को निजी स्कूलों में पढाना चाहते हैं। सरकारी तंत्र की अंतिम इकाई चपरासी का बच्चा भी आपको निजी स्कूलों में पढाई करता मिल जाएगा।

जो संस्था उन्हें रोजी-रोटी, रोजगार दे रही है, उसकी गुणवत्ता एवं कार्यक्षमता पर ही संदेह है। यही कारण है कि आम आदमी भी अपने बच्चे को निजी शिक्षण संस्थाओं में पढाना चाहता है क्योंकि सरकारी संस्थाओं की शिक्षा में लोगों को विश्वास नहीं रह गया और जनता में यह अविश्वास स्वयं कर्ताधर्ताओं ने फ़ैलाया है। 

अब स्पष्ट दिखाई देता है कि समाज में दो वर्ग पैदा हो गए हैं, एक वह जिसे अंग्रेजी बोलकर शासन करना है तथा दूसरा वह जिसे हिन्दी बोलकर जी हजूरी करनी है। शासक एवं शासित का विभाजन स्पष्ट दिखाई देने लगा है। यह खाई दिनों दिन और भी गहरी होती जानी है। इसका समय रहते उपचार करना होगा।

सरकार ने गरीब बच्चों को अच्छे स्कूलों में पढाने की दिशा में आर टी आई एक्ट लागु किया है। जिसके तहत गरीब बच्चों को भी मंहगे निजी स्कूलों में पढाई करने का अवसर मिलेगा। प्रश्न यह उठता है कि कितने गरीब इस सुविधा का लाभ उठा सकते हैं। सभी को निजी स्कूल दाखिला देने से रहे। 

शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाने एवं धरातल पर अमीर गरीब की खाई मिटाने के लिए पहल करनी होगी। हमारे पास सरकारी स्कूलों के रुप में बहुत बड़ा अमला है, भवन हैं, अन्य सुविधाएँ भी दी जा रही है। परन्तू इनके प्रति लोगों का विश्वास खत्म हो रहा है। इस विश्वास को पुन: जगाना होगा।

यह प्रयोग केरल के एक कलेक्टर ने किया, उसने अपनी बेटी को सरकारी स्कूल में भर्ती कराया, जिससे सभी शिक्षक समय पर स्कूल आने लगे। नियत विषय को ईमानदारी से पढाने लगे। इससे उस स्कूल में शिक्षा का स्तर सुधरा। 

शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने के लिए सरकार को कड़ा कदम उठाकर एक आदेश अपने सभी मंत्रियों , विधायकों, अधिकारियों एवं कर्मचारियों को देना चाहिए कि वे अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में ही पढाएँ। इसका सकारात्मक प्रभाव शिक्षा व्यवस्था पर पड़ेगा और गुणवत्ता में भी सुधार आएगा। यह शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम होगा तथा इससे सामाजिक सद्भवाना का पाठ विद्यार्थी होश संभालते ही पढने लगेगा.

जब मंत्री एवं आम आदमी तथा कलेक्टर और चपरासी के बच्चे एक ही स्थान पर बैठकर पढाई करेगें। शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए सरकारी स्कूलों को निजी स्कूलों से बड़ी लकीर खींचनी होगी अन्यथा शिक्षा के नाम पर ढोल पीटना बेमानी है। 

शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

सावधान: अब हाथियों ने राजधानी देख ली है।

हाथियों ने अब राजधानी का रास्ता देख लिया गजदल दो बार राजधानी रायपुर के समीप पहुंच चुका है, यह हाथियों एवं मानवों दोनों के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालिया तौर पर हाथियों को वन विभाग ने जंगल की ओर खदेड़ दिया, परन्तु जो रास्ता हाथियों ने देख लिया है, उस पर वे फ़िर लौटेंगे। अभी तक तो सरगुजा अंचल, जशपुर, कोरबा एवं सिरपुर क्षेत्र के ग्रामीण हाथियों के उत्पात से परेशान हैं तथा हाथी एवं मानव संघर्ष में एक दूसरे को जान गंवानी पड़ रही है। अब यही स्थिति राजधानी रायपुर में भी बनने के आसार दिख रहे हैं।
 फ़ोटो सांकेतिक है, यह मेरे द्वारा राजा जी पार्क हरिद्वार के चिल्ला रेंज में ली गई थी
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के पश्चात हाथियों की समस्या के निदान के लिए तत्कालीन अजीत जोगी सरकार ने असम से हाथी प्रशिक्षक पार्वती बरुआ को छत्तीसगढ बुलाया था, जिसके द्वारा हाथियों को साधकर हाथियों एवं मानव के बीच संघर्ष को कम किया जाता। परन्तु इस कार्य में एक हाथी मौत के कारण विधानसभा में प्रश्न उठने के बाद इस कार्य को बंद कर दिया गया। हाथियों के हमले से आम ग्रामीणों की जान लगातार जा रही तथा इस संघर्ष में कोई कमी नहीं आई है। फ़सलों का नुकसान को आम बात है, पर हाथियों के दल के सामने अचानक कोई मनुष्य पड़ जाता है तो उसे हाथी पटक कर मार डालते हैं।
ऐसा नहीं है कि हाथियों के दल कहीं दूसरे स्थान से अचानक छत्तीसगढ़ में प्रवेश कर गए और उत्पात मचा रहे हैं। यहाँ इनकी बसाहट प्राचीनकाल से ही रही है। सरगुजा अंचल के हाथियों को ऐरावत के सदृश उत्तम माना गया है। पहले के राजा महाराजा इन्हें प्रशिक्षित करके अपने काम में लेते थे तथा अन्य राजाओं को भी भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं। हाथियों एवं मानव के बीच संघर्ष तो तब भी आमना सामना होने पर रहा होगा, पर इस हद तक नहीं क्योंकि उनके पर्यावास क्षेत्र में मानव का कोई सीधा दखल नहीं था, वे स्वच्छंद विचरण करते थे। कालांतर में मानव द्वारा हाथियों के पर्यावास क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने के परिणाम को ही अब भुगतना पड़ रहा है।
अभी तक हाथी और मानव संघर्ष के कारण राजधानी से दूर सरगुजा, प्रतापपुर, सूरजपुर, जशपुर, कोरबा, बार नवापारा क्षेत्र से से ही धन-जन हानि के समाचार आते थे। तब राजधानी के लोगों को पता नहीं चलता था कि हाथियों की समस्या क्या है और हाथी प्रभावित अंचल के लोग किस तरह भय के वातावरण में अपनी राज गुजारते हैं, किस तरह उनकी फ़सल को हाथी नुकसान पहुंचाते हैं, किस तरह उनके घर फ़ोड़ कर बेघर कर डालते हैं। अब हाथियों ने राजधानी के समीप अपनी आमद दे दी तो उनके पहुंचने की धमक ही होश उड़ाने के लिए काफ़ी है।
हाथियों का शहरी क्षेत्र में पहुंचना अनायास नहीं है। इसके लिए मानव ही जिम्मेदार है। सरकारों की अदूरदर्शी नीतियों के कारण अंधाधुंध कटते जंगल एवं खनिज निकालने के लिए खदानें खुलने के कारण हाथियों के प्राकृतिक रहवास क्षेत्र के साथ छेड़छाड़ जिम्मेदार है। जंगल कटने एवं जल के प्राकृतिक स्रोत सूखने के कारण हाथियों के सामने भोजन पानी की समस्या खड़ी हो गई है तथा हाथियों के रहवास क्षेत्र में मानवीय दखल बढ़ने एवं उसके नष्ट होने के कारण अब हाथियों को भोजन-पानी के लिए शहरी क्षेत्र की ओर रुख करना पड़ रहा था। जिससे हाथी एवं मानव के बीच संघर्ष का खतरा बढ़ रहा है। 
राजधानी के आस पास हाथियों के पहुंचने की आशंका साल भर पहले से ही जताई जा रही थी। वन्य प्रेमी श्री प्राण चड्ढा ने गत वर्ष अपनी अप्रेल 2016 की ब्लॉग पोस्ट में संकेत दिया था कि "सरहदी इलाके से बढ़ते हुए एक हाथी रुद्री-[धमतरी] के इलाके की रेकी कर आया है।" इस एक वर्ष में ही हाथियों ने अपनी उपस्थिति राजधानी में दे दी। हाथियों के राजधानी में पहुंचने से सरकार की नींद खुलनी चाहिए, क्योंकि मामला अब सुदूर अंचल का नहीं रहा, जो राजधानी चैन की नींद ले सके। शीघ्र ही कोई योजना बनाकर हाथी संकट निदान करना आवश्यक है। खतरा अब सिर पर मंडरा रहा है, वो दिन दूर नहीं जब राजधानी के लोगों को अपनी जानमाल की सुरक्षा के लिए रतजगा करना पड़ेगा। इसलिए चैन से सोना है तो जाग जाइए वरना बहुत देर हो जाएगी।   

लोकपर्व गणगौर एवं निमाड़ का नृत्य

राजस्थान, मालवा, निमाड़, हरियाणा में होली के बाद मनाया जाने वाला प्रमुख लोकपर्व गणगौर है। जयपुर में मनाए जाने वाले गणगौर की झांकियाँ प्रसिद्ध है। यह चैत्र महीने की शुक्ल पक्ष की तीज को आता है | इस दिन कुवांरी लड़कियां एवं विवाहित महिलायें शिवजी (इसर जी) और पार्वती जी (गौरी) की पूजा करती हैं | पूजा करते हुए दूब से पानी के छांटे देते हुए गोर गोर गोमती गीत गाती हैं।
ईस्सर जी 
राजस्थानी में कहावत भी है तीज तींवारा बावड़ी ले डूबी गणगौर। अर्थ है की सावन की तीज से त्योहारों का आगमन शुरू हो जाता है और गणगौर के विसर्जन के साथ ही त्योहारों पर चार महीने का विराम आ जाता है। यह त्यौहारों का अंतिम सत्र होता है, इसके बाद सीधे सावन की तीज आती है और त्यौहारों का पुन; आरंभ होता है। 
गोरजा 
पौराणिक आख्यान के अनुसार पार्वती ने शंकर भगवान को पति ( वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें वर रूप में पाने की इच्छा जाहिर की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और उनसे शादी हो गयी। बस उसी दिन से कुंवारी लड़कियां मनवांछित वर पाने के लिए ईसर और गौरा की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पती की लम्बी आयु के लिए पूजा करती है। लड़कियाँ सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बाड़ी बगीचे में जाती है दूब व फूल लेकर आती है। दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदी सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है तथा चांदी के छल्ले से गणगौर को पानी पिलाया जाता है। 
निमाड़ का गणगौर नृत्य 
आठ वे दिन ईसर जी पत्नी (गणगौर ) के साथ अपनी ससुराल पधारते है। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती है और वहा से मिट्टी की झाँवली ( बरतन) और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है। उस मिट्टी से ईसर जी, गणगौर माता, मालन,आदि की छोटी छोटी मूर्तिया बनाती है। जहा पूजा की जाती उस स्थान को गणगौर का पीहर व जहाँ विसर्जित की जाती है वह स्थान ससुराल माना जाता है |
गणगौर नृत्य की लोक कलाकार 
गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है। चैत्र मास की तीज सुदी को गणगौर माता को चूरमे का भोग लगाया जाता है। दोपहर बाद गणगौर माता को ससुराल विदा किया जाता है। यानी की विसर्जित किया जाता है । विसर्जन का स्थान गाँव का कुआ ,जोहड़ तालाब होता है। कुछ स्त्रियाँ जो शादी शुदा होती है वो अगर इस व्रत की पालना करने से निवर्ती होना चाहती है वो इसका उजणा (उधापन) करती है जिसमें सोलह सुहागन स्त्री को समस्त सोलह श्रृंगार की वस्तुएं देकर भोजन करवाती है।  
लोक कलाकार महाजन निमाड़ 
गणगौर माता की पूरे राजस्थान में जगह जगह सवारी निकाली जाती है जिस मे ईशर दास जीव गणगौर माता की आदम कद मूर्तीया होती है। जयपुर, उदयपुर की धींगा गणगौर, बीकानेर की चांद मल डढ्डा की गणगौर, प्रसिद्ध है। गणगौर राजस्थान में आस्था प्रेम और पारिवारिक सौहार्द का सबसे बड़ा उत्सव है। गण (शिव) तथा गौर(पार्वती) के इस पर्व में कुँवारी लड़कियां मनपसंद वर पाने की कामना करती हैं। विवाहित महिलायें चैत्र शुक्ल तृतीया को गणगौर पूजन तथा व्रत कर अपने पति की दीर्घायु की कामना करती हैं।

निमाड़ अंचल में गणगौर नृत्य की परम्परा भी है। गणगौर पूजन में कन्यायें और महिलायें अपने लिए अखंड सौभाग्य, अपने पीहर और ससुराल की समृद्धि तथा गणगौर से हर वर्ष फिर से आने का आग्रह करती हैं।

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

कहानी तीन दोस्तों की : एफ़. एम. 36 FM 36 Raipur

कहानी तीन दोस्तों की है, जिसमें दो #BE और एक #MBA। इन्होंने लीक से हटकर नौकरी करने की परम्पराओं के तोड़ते हुए व्यवसाय प्रारंभ किया। अधिक दिन तो नहीं हुए हैं पर इन दो महीनों में अपने हुनर से कुछ करने की चाह लिए लगन से आगे बढ़ रहे हैं और उम्मीद ही नहीं आशा भी है कि आगे चलकर कामयाब भी होगें।

हाँ जी! मैं रितेश पटेल, श्रीकांत नायक एवं ट्विंकल नामक नौजवानों की बात कर रहा हूँ। तीनो दोस्तों ने पढाई करने के बाद नौकरी तलाशने की बजाए रेस्टोरेंट/ होटल व्यवसाय में कदम रखा है। इन्होंने रायपुर के विवेकानंद आश्रम के सामने जी ई रोड़ पर दुकान किराए से ली और उसमें बढिया थीम बेस्ड इंटीरियर करवा कर #एफ़_एम_36 #FM_36 रेस्टोरेंट प्रांरभ किया। दुकान में जगह न होने के कारण इन्होंने इसका किचन वैन में सामने ही रखा है। 

एक शाम उदय भैया के आग्रह पर यहाँ तक जाना हुआ और हमने इनके रेस्टोरेंट में इंडियन, कान्टिनेंटल एवं चायनीज फ़ूड का आनंद लिया। आप यहाँ गिटार बजा कर अपना शौक पूरा कर सकते हैं, साथ ही इनके सेल्फ़ में कुछ पुस्तकें भी दिखाई दी। अपना भोजन आते तक आप पुस्तकों का भी आनंद ले सकते हैं। 

रेस्टोरेंट की खास बात है कि इन्होंने वेटर नहीं रखे तथा ग्राहक से ऑडर लेकर खुद ही टेबल तक पहुंचाते हैं और उनसे आत्मीय वार्तालाप कर फ़ीड बैक भी लेते हैं। जिससे ग्राहक के अनुकूल सेवाएँ देकर उसमें सुधार कर सकें और ग्राहक से सम्पर्क भी स्थापित हो।

इन तीनों द्वारा किया गया यह कार्य उन लोगों के लिए एक मार्ग दर्शन है जो पढ लिख कर रोजगार कार्यालय में नाम लिखाकर इंटरव्यू की प्रतीक्षा करते हुए सरकार को कोसते रहते हैं। इन्होंने जो कदम उठाया है यह अन्य शिक्षित लोगों के लिए प्रेरणा बनेगा। 

मैने इन्हें अपने होटल में एक घुमक्कड़ी की दीवार बनाने की सलाह दी, आशा है कि जब मैं जाऊंगा तो वह तैयार मिलेगी। अगर कभी आप रायपुर आएं तो इन तीनों से अवश्य मिलिए, आपको यहाँ का भोजन, स्नैक्स पसंद आएगा और इनसे मिलकर भी अच्छा लगेगा और इनका उत्साहवर्धन भी होगा। इनकी वेबसाईट http://foodmaster.in/ है।

बुधवार, 13 दिसंबर 2017

गणपति का समर्पित पूजारी : सिरती लिंगी अरुणाचल

डिब्रुगढ़ असम से तिनसुकिया होकर रोइंग अरुणाचल का सफ़र लगभग पांच घंटे का है। ब्रह्मपुत्र पर दस किमी लम्बा पुल बन जाने के कारण यह दूरी जल्दी तय होने लगी वरना यहाँ पहुंचने के लिए दिन भर लग जाता था। रोइंग लोवर दिबांग वैली का जिला मुख्यालय भी है। 
इन्जानो लोवर दिबांग वैली अरुणाचल का गणपति मंदिर एवं टिकेश्वर कौशिक 
यहाँ के विवेकानंद केन्द्र विद्यालय में रात रुकने के बाद हम सुबह मोटरसायकिल से सुनपुरा (लोहित) जिले की ओर चल दिए। रास्ते में रोईंग से लगभग 15 किमी की दूरी पर नदी पार करने पर अनोबोली इंजनों नामक गांव आता है। इस गांव के निवासी श्री सिरती लिंगी जी ने अपने फ़ार्म हाऊस में गणेश जी का मंदिर बना रखा है। 

इनकी चर्चा करना इसलिए आवश्यक है कि अरुणाचल में जिस तरह क्रिस्तानी विस्तार हो रहा है और गांव के गांव क्रिस्तानी हो गए उसके बीच सनातन धर्मी का मिलना नखलिस्तान में पानी की एक बूंद मिलने जैसा है। हम इनके संतरे फ़ार्म हाऊस में पहुंचे तब सिरती लिंगी जी पूजा पाठ में लगे थे। 
सिरती लिंगी गणपति भक्त 
अरुणाचल में सूर्योदय जल्दी हो जाता है तथा सूर्यास्त भी शाम चार बजे के लगभग। इसलिए यहां यात्रा जल्दी ही प्रारंभ करनी होती है। सिरती लिंगी जी के मंदिर में पहुंच कर गणपति भगवान के दर्शन किए और उन्होंने केले का प्रसाद दिया, तिलक किया और रक्षा सूत्र भी बांधा। 

चर्चा होने पर उन्होंने बताया कि इस फ़ार्म हाऊस को उन्होंने बेच दिया था। खरीदने वाले ने जब यहाँ खुदाई प्रारंभ की तो लगभग चार फ़ुट की गणेश प्रतिमा जमीन से बाहर निकली। जब इन्हें पता चला तो जिसे जमीन बेची थी उसे लौटाने की प्रार्थना की और दुगनी कीमत में जमीन वापस खरीदी। इसके पश्चात यहाँ मंदिर बनवाया।
उत्खनन में प्राप्त गणपति 
मंदिर बनाने के पश्चात लगभग पचीस वर्ष पूर्व सिरती लिंगी जी गणपति का पूजा विधान सीखने मुंबई गए। उन्हें पता चला था कि महाराष्ट्र में गणपति पूजा अधिक की जाती है। मुंबई जाकर वहाँ के पुजारियों से तीन महीने गणपति पूजा विधान सीखा और अध्यात्म की दीक्षा ली। इसके पश्चात यहाँ लौटकर विधि विधान से नित्य गणपति पूजा करते हैं।

सुबह चार बजे अपनी कार से फ़ार्म हाऊस पहुंचते हैं, मंदिर की धुलाई पोंछाई खुद ही करते हैं। इसके पश्चात मंत्रोच्चारण के साथ पूजा करते हैं तथा दिन भर मौन रहकर ध्यान साधना करते हैं। शाम की आरती एवं भोग लगाने के बाद चार बजे मंदिर बंद कर घर चले जाते हैं। पच्चीस वर्षों से यही इनकी नित्य की दिनचर्या है।
रक्षा सूत्र बांधते हुए सिरती लिंगी 
प्रतिमा शिल्प से उत्खनन में प्राप्त गणेश जी पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी की प्रतीत होती है। इन्होंने बताया कि जब उन्होंने मंदिर बनवाकर पूजा प्रारंभ की तो उनके रिश्तेदारों ने बहुत परेशान किया कि तुम हिन्दू हो गए हो, यह ठीक नहीं है। विभिन्न तरीकों से दबाव बनाने का प्रयास किया पर वे विचलित नहीं हुए और अपनी पूजा निरंतर जारी रखी। 

इनके मंदिर में स्थानीय लोग नहीं आते, बाहर से आने वाले लोग ढूंढ कर इस स्थान में पहुंचते हैं। सिरती लिंगी जी के परिवार ने मांस मंछली, प्याज लहसून आदि तामसिक पदार्थों का सेवन छोड़ दिया और कहते हैं कि इसका सेवन करने वालों से वे बात भी नहीं करते और दूर से ही नमस्ते कर लेते हैं। शाकाहार के विषय में कहते हैं कि शेर मांस खाता है तो उसकी उम्र 30 बरस होती है और हाथी शाकाहार करता है तो उसकी उम्र 100 बरस से अधिक होती है इसलिए शाकाहार में अधिक शक्ति है।
सिरती  लिंगी एवं लेखक 
सावन के महीने में माह भर ये मौन व्रत के साथ उपवास रखते हैं एवं शाम को सिर्फ़ फ़लादि का सेवन करते हैं। इनकी उम्र 70 वर्ष है और इनके दो बेटे इंजीनियर है, जो बाहर रहते हैं। गणपति भगवान ने इन्हें बहुत कुछ दिया, वरना ये बहुत गरीब थे। आज इनके पुत्रों का पचीस तीस लाख का पैकेज है और गणपति आराधना करते हुए समय व्यतीत हो रहा है। 

लौटते हुए जब हम इनसे पुन: मिलने आए तो संझा आरती पूजा की तैयारी कर रहे थे। मंदिर में ही इन्होंने स्वच्छ जल का कुंड बना रखा है। जिसमें गंगाजल डाला हुआ एवं उसी जल का प्रयोग पीने एवं भोजन बनाने में किया जाता है। हमें भी उसी कुंड का जल पिलाया और फ़िर पूजा की तैयारी करने लग गए। हमें भी अंधकार में एक उजाले की किरण दिखाई दी और प्रणाम कर आगे बढ़ गए।