प्रेत साधना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
प्रेत साधना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 21 अप्रैल 2013

भानगढ़ की रत्नावती से एक मुलाकात

आरंभ से पढें
रात का भोजन करने के बाद मेल और फ़ेसबुक चेक किया और बिस्तर के हवाले हो गया। लम्बी यात्रा से थका हुआ होने के कारण पता नहीं कब नींद आ गई। विचित्र सी सुगंध से नींद खुली, आँखें खोल कर देखा तो कमरे में नीली रोशनी वाला बल्ब जल रहा था। कमरे की दीवारें नीली रोशनी से नहाई हुई थी। सुगंध मेरे समीप से ही आ रही थी, एक गहरी सांस लेकर मैने सुगंध को अपने फ़ेफ़ड़ों में भर लिया और आँखें बंद कर ली। सोचा कि घर के ईर्द गिर्द बहुत पेड़ पौधे हैं, हवा के किसी झोंके से चली आई होगी। कुछ देर बाद नथुनों में भरी सुगंध असहनीय होने लगी। मैने कंबल सिर पर ओढ कर नीचे दबा लिया। सभी तरफ़ से सुरक्षित हो गया। अब सुगंध नहीं आएगी सोच कर। धीरे धीरे फ़िर नींद के आगोश में जाने लगा लेकिन सुगंध का आना निरंतर जारी था।

कुछ देर बाद कानों में फ़ुसफ़ुसाहट की आवाज सुनाई देने लगी। मैने धीरे से एक तरफ़ का कंबल हटा कर देखा तो श्रीमती जी और बालक दोनो गहरी नींद में सोए हैं। मैने कंबल सरका लिया। सोने का यत्न करने लगा। फ़ुसफ़ुसाह फ़िर शुरु हो गई, आवाज अपष्ट थी, महिला कि है या पुरुष स्वर है, कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैने अब बाईं तरफ़ से कंबल सरका कर चेहरा उघाड़ा, सामने बड़ी खिड़की थी। खिड़की के पार बिजली की चमक दिखाई देने लगी, बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई देने लगी। अरे! ये कैसा  मौसम बनने लगा, बेमौसम बरसात होने लगी। रह रह कर बिजली की चमक खिड़की पर पड़ कर वातावरण को और भी रहस्यमय और संदिग्ध बना रही थी। 

नीले बल्ब की मद्धम रोशनी में बिजली की चमक और बादलों की गड़गड़ाहट कहर ढा रही थी। मैंने पुन: चेहरा ढक लिया, लेकिन फ़ुसफ़ुसाहट कम नहीं हुई। सोचने लगा कि ऐसा तो कभी हुआ नहीं, पहले तो खेतों के बीच सुनसान में खाट डाल कर अकेले सो जाया करता था। आज क्या हुआ? अब दिमाग सन्नाने लगा, मैने एक झटके से कंबल फ़ेंका और उठ कर बैठ गया। एक नजर सोए हुए बालक पर डाली और जैसे ही ड्रेसिंग टेबल की ओर मुंह धुमाया तो उसके सामने धवल वस्त्रों में स्टूल पर बैठी एक गौरवर्णा दिखाई दी। नीली रोशनी में वस्त्रों की सफ़ेदी कुछ अधिक ही चमक रही थी। उसकी पीठ मेरी ओर थी। चेहरा ड्रेसिंग टेबल के शीशे की ओर था। जीरो बल्ब के प्रकाश में स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। मैने आँखे फ़ाड़ कर गौर से उसकी तरफ़ देखा। कमरे के सारे दरवाजे और खिड़कियाँ बंद थे। 

ये कौन है जो कमरे में घुस आई है? मैने गरदन घुमाकर श्रीमती की तरफ़ देखा, वह मजे से नींद भांज रही थी। जैसे ही मैने ड्रेसिंग टेबल की तरफ़ गरदन घुमाई, सहसा बिजली जोर से कड़की और कमरे में फ़्लेश लाईट सी रोशनी हुई, उसका चेहरा दिखा, बस देखता ही रह गया। रोंए-रोंए खड़े हो गए, कड़ाके की ठंड में पसीना निकलना शुरु हो गया। बाहर कुत्तों के रोने के स्वर सुनाई देने लगे। कुत्ते एक स्वर में लय बद्ध रुदन कर रहे थे। वह स्टूल पर मूर्तिमान बैठी थी, हिल-डुल भी नहीं रही थी। उसने सिर पर पीली ओढनी डाल रखी थी, स्वर्ण जड़ित कांचली के साथ गोटे दार घाघरा पहन रखा था। हाथों में कोहनियों तक चूड़ियाँ, माथे पर बोरला, कानों में बड़े-बड़े झुमके, नाक में नथ, गले में नौलखा और भुजाओं में बाजुबंद पहने सोने से लदी हुई राजस्थानी वेशभूषा में सौंदर्य के प्रतिमान गढ़ रही थी।

पुन: बिजली कड़की और उसका चेहरा दिखा, चौड़ा माथा, माथे पर झूलती लटें, सुंतवा नाक, भरे-भरे होंठ, बड़ी-बड़ी पैनी आँखें जैसे मुझसे कुछ कहना चाहती हों। मेरी हालत पतली हो रही थी। बिजली चमकने के बाद नीले बल्ब की रोशनी में चेहरा दिखाई नहीं देता था। अब बिजली रह रह कर चमकने लगी, उसने चेहरा मेरी तरफ़ नहीं फ़ेरा, शीशे की तरफ़ मुंह किए ही बैठी रही, वह मुझे शीशे में देख रही थी, मैं उसे। बिजली की चमक के साथ बादल फ़िर जोर से गड़गड़ाए। मैने सारे शरीर की ताकत समेट कर पूछा - तुम कौन हो, यहाँ कैसे और क्यों आई हो? उसके ओंठ हिले, और बोली - भूल गए मुझे। कुछ दिनों पहले तो मुझसे मिलने आए थे, वही हूँ मैं, जिसकी खोज में इतनी दूर से चले आए थे। कितनी प्रतीक्षा की तुम्हारी, मुझे मालूम था एक दिन तुम अवश्य आओगे। हिलते हुए होठों से सिर्फ़ बर्फ़ सा सर्द स्वर निकल रहा था। इधर मैं पसीने से तर-ब-तर हो चुका था।

मुझे याद नहीं आ रहा तुम कौन हो, मैं तुम्हे जानता ही नहीं तो तुमसे मिलने क्यों जाऊंगा? मैने उससे प्रश्न किया। बिजली फ़िर कड़की, अब बरसात शुरु हो चुकी थी, विंडो कूलर की छत पर टपकती हुई बूंदों से भी स्वर उत्पन्न होने लगा। बूंदों का आघात रह-रह कर स्वर परिवर्तित करने लगा। आज की रात कयामत की रात में बदलते जा रही थी। जीवन में जो कभी घटा नहीं उसे प्रत्यक्ष देख रहा था। उसने शीशे में ही देखते हुए कहा - "मैं रत्नावती हूँ।" चेहरे पर कोई भाव नहीं, कोई सौम्यता नहीं, कोई कोई कोमलता नहीं। ठोस सर्द चेहरा, हल्के से हिलते हुए ओंठों से वह बुदबुदाई और बिजली ऐसे जोर से कड़की कि लगा छत का कांक्रीट तोड़ कर ही भीतर आ जाएगी। लगता था कहीं आस पास ही गिरी है। बिजली के कड़कते ही बिजली भी चली गई। कमरे में घुप्प अंधेरा छा गया।

कमरे में सिर्फ़ हम दो ही थे, एक जीता जागता मनुष्य और दूसरी आभासी दुनिया से आई हुई प्रेतात्मा। सुगंध को पहचान लिया मैने। केवड़े की सुगंध थी। भानगढ़ में आज भी केवड़े की झाड़ियाँ हैं और रानी रत्नावती को केवड़े का ईत्र और सुगंधित तेल बहुत ही पसंद था। सुगंध से प्रमाणित हो गया यह रत्नावती की ही आत्मा है, जो भानगढ़ से मेरे पीछे पीछे चली आई है। बिजली रोशनी हुई और रत्नावती ने कहना शुरु किया - तुम्हारे दिमाग जो चल रहा है मैं सब जानती हूँ। अभिशप्त नगर की महारानी हूँ मैं। नगर के साथ मैं भी अभिशप्त हो गई। तुम्हें सदियों से जानती हूँ। तुम भानगढ़ के राजकवि थे, दरबार में तुम्हारे कवित्त झरोखे की ओट में बैठकर मैने सैकड़ों बार सुने। फ़िर न जाने कहाँ खो गए तुम। बहुत ढूंढा तुम्हें, सदियाँ बीत जाने पर अब मिले हो। तभी तुमसे मिलने चली आई।

मैं और राजकवि! नहीं नहीं, मैं तो एक ब्लॉगर हूँ जो लेखक होने का भ्रम पाल बैठा है। लोग दो-चार टिप्पणियाँ दे जाते हैं और जिन अखबारों को मुफ़्त में अपने पन्ने भरने होते हैं, वे मेरी ब्लॉग की पोस्ट से अपना अखबार भर लेते हैं। इससे लोगों को भी भ्रम हो गया है कि मैं लेखक हूँ - मैने हकलाते हुए कहा। रत्नावती कहने लगी - मैं तुम्हारे से मिलने खास प्रयोजन से आई हूँ, लेखक से अधिक खतरनाक ब्लॉगर होता है। वह बिना तथ्यों की छानबीन किए कुछ भी अनाप-शनाप लिख देता है अपने ब्लॉग़ पर। तुमने देखा होगा कि कई लोगों ने भानगढ़ के नाम से अफ़वाहे उड़ा रखी हैं। एक ने तो यहां तक लिख दिया कि भानगढ़ से जिंदा लौटकर आना ही मुश्किल है और जो लौटकर आया वह पागल हो जाता है।

मैं इसलिए आई हूँ कि तुम भानगढ़ की एवं मेरी कहानी को जाँच परख कर लिखोगे। जिससे लोगों के दिमाग में छाई हुई भ्रांतियाँ समाप्त हो जाएं। सारे भूत प्राण हरण नहीं करते और वो भी भानगढ़ में, कदापि नहीं। आज भी भानगढ़ के भूतों से लेकर जिंदों की भी इतनी हिम्मत नहीं कि वे मेरी हुक्म उदूली कर दें। डरो नहीं, मैं सिर्फ़ तुमसे मिलने आई थी क्योंकि तुम ही भानगढ़ के साथ न्याय कर सकते हो। अन्यथा तो अफ़वाहें इतनी अधिक उड़ा रखी है कि सत्य और असत्य का ही पता नहीं चलता।

तुम्हारे ब्लॉग पर निरंतर मेरी नजर है। वाणी गीत ने कहा था न "आप जैसे यायावार सारे रोमांच की ऐसी तैसी कर देते हैं :)" उन्हे मेरा निमंत्रण देना और कहना कि अपने साथ सारा गढ़ घुमाऊंगी, मान-मनुहार भी करुंगी और रोमांच खत्म नहीं होने दूंगी, ये मेरा पक्का वादा रहा है। अब मैं चलती हूँ, उसके इतना कहते ही फ़िर एक बार जोर से बिजली कड़की और उसके प्रकाश में मैने देखा कि स्टूल खाली था। केवड़े की सुंगध कमरे में बाकी थी। मैं बिस्तर पर बैठे हुए सुबह होने की प्रतीक्षा करता रहा । इस घटना को मैने किसी को भी नहीं सुनाया ……… आज ब्लॉग पर लिख रहा हूँ।  … इति भानगढ़ पुराण………:)