शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

संस्कृति एवं परिवार की धूरी चूल्हा

“चूल्हा जलना” मुहावरा मानव सभ्यता के साथ जुड़ा है। कहावत है “घर-घर में माटी का चूल्हा” सहस्त्राब्दियां बीत गयी, चूल्हे को जलते, अब चूल्हा नहीं रहा। उसके अवशेष ही बाकी हैं, इस मुहावरे को बदलने की जरुरत है।

ये वही चूल्हा है जिसने मानव के प्राण बचाए, संस्कृतियों एव सभ्यता को बचाया, चूल्हा जलाकर मानव सभ्य कहलाया।

उसने अग्नि को वश में किया। प्रतिकूल अग्नि विनाश करती थी उसे अनुकूल बनाकर उपयोगी बनाया। वर्तमान-भूत-भविष्य सभी में चूल्हे का स्थान माननीय है।

कैसी विडम्बना है अब चूल्हे को अपने अस्तित्व की रक्षा करने के लिए जद-ओ-जहद करनी पड़ रही है। क्या इस मिट्टी के चूल्हे को हम भूल सकते हैं?

रात को ही माँ चूल्हे को लीप-पोत कर सोती थी और भोर में ही चूल्हा जल जाता था। पानी गर्म करने से लेकर भोजन तैयार होने तक चूल्हा जलता ही रहता था।

गांव में किसी बदनसीब का ही घर होता था जिसके कवेलुओं या छप्पर से धूंवा नहीं निकलता था। लोग जान जाते थे किसके घर में आज चूल्हा नहीं जला है और कौन भूखा सोने की तैयारी में है। किसके बच्चे भूख से विलाप कर रहे होगें।

चूल्हा घर की सारी खबर गाँव तक पहुंचा देता था। कोई उस घर की मदद कर देता था तो उसका चूल्हा जल जाता था। मनुष्य से अधिक चूल्हे को भूख असहनीय हो जाती थी। वह अपने प्राण होम कर घर मालिक की जान बचाता था।

आज भी माँ सुबह उठती है और चूल्हा जला देती है। चूल्हे पर खाना तैयार भले ही न हो लेकिन गर्म पानी तो हो जाता है। चूल्हे की भूभल (गर्म राख) में सेके हुए बैंगन के भरते का आनंद और कहीं नहीं मिल सकता।

इसमें सेंके हुए आलू, शकरकंद, बिल्वफ़ल (बेल) के स्वाद के तो क्या कहने। अब तो गुजरे जमाने की याद हो गयी है। चूल्हे पर मिट्टी के तवे पर बनी हुई रोटियों की सोंधी खुश्बू रह-रह कर याद आती है।

गाँव में किसी के यहाँ उत्सव होता था तो घर के  चूल्हे को ही न्योता जाता था। जिसे चुलिया नेवता कहते थे।गुजरे जमाने की जैसी यादें मुझे आ रही हैं, शायद चूल्हा भी गुजरे जमाने को याद करके तड़फ़ता होगा। जब उसका जलवा कायम था।

चूल्हे का जलना उसके इंधन पर कायम है। गाँव में आज भी चूल्हा जलाने के लिए इंधन की व्यवस्था करनी पड़ती है।

चूल्हा इसलिए जलता था कि घर में बहुत सारे पेड़ हैं,  वातावरण साफ़ सुथरा होता था, हरियाली रहती थी  और सूखी हुई शाखाएं उसके इंधन के काम आ जाती थी, आज भी आती हैं।

जलावन की लकड़ियों के लिए रुपए खर्च नहीं करने पड़ते। पेड़ों की शाखाएं काटी भी न जाएं तो भी वह वर्ष भर के चूल्हा जलाने के लायक लकड़ियाँ उपलब्ध करा ही देती हैं।

चूल्हे का अस्तित्व बचा रहता है। सुबह-शाम उसकी लिपाई हो जाती है और साप्ताहिक मरम्मत भी। 

चूल्हे का निर्माण आसान काम नहीं है। कोयले की सिगड़ी के साथ चूल्हे का निर्माण कोई विशेषज्ञ महिला ही करती है। उसे सुंदर मांडने से सजाया भी जाता है।

घर में चूल्हे स्थान महत्वपूर्ण है और इससे महत्वपूर्ण है “पूरा घर एक ही चूल्हे पे भोजन करता है”। चूल्हे ने परिवार का विघटन नहीं होने दिया। नया चूल्हा रखना बहुत कठिन होता है परिवार को तोड़ कर।

घर में दूसरा चूल्हा रखने से पहले लाख बार सोचना पड़ता है क्योंकि उसके साथ बहुत कुछ बंट जाता है। विश्वास के साथ आत्मा, कुल देवता, पीतर और भगवान भी।

इसलिए बड़े बूढे कहते थे-अपना-अपना धंधा बांट लो लेकिन चूल्हे को एक रहने दो। संयुक्त परिवार में दो कमाने वालों के सहारे एक निखट्टू के परिवार का निर्वहन भी यही चूल्हा कर देता था।

जब भी चूल्हे की ओर देखता हूँ तो मन में एक कसक जन्म लेती है। टीस सी उठती है। कभी इसी चूल्हे पे परिवार के 40 लोग आश्रित थे। आए-गए अतिथियों का भरपूर मान मनुहार होता था।

गाँव में शहर में इज्जत और धाक कायम थी। क्योंकि सारा घर का सामान थोक में ही आता था। जब भी किसी दुकान पर चले जाते थे तो मोटा आसामी देखकर दुकानदार का चेहरा खिल उठता था।

शहरों में लोग लाखों करोड़ों रुपए कमाते हैं, उनके यहाँ चूल्हा नहीं जलता। गाँव में 100 रुपए रोज कमाने वाले के यहाँ भी चूल्हा जलता है। 

इसका मतलब यह नहीं है कि शहरों में खाना नहीं बनता। गैस या बिजली हीटर चलता है खाना बनाने के लिए। अब एक चूल्हे के 10 गैस सिलेंडर हो गए हैं।

कई चूल्हा प्रेमियों के ड्राईग रुम में चूल्हे का माडल शोभा दे रहा है। उन्हे लगता है कि चूल्हे के माडल से वे अपने गाँव की संस्कृति से जुड़े हैं।

अपनी धरती से जुड़े हैं। गैस ने माटी के चूल्हों को अपनों से दूर कर दिया। अब उसकी जड़ों मठा डाल रही है। चूल्हा बंटने के साथ लोगों के मन भी बंट गए। दूर की राम-राम भी खत्म हो गयी है।

चूल्हे ने जिस परिवार को बांध रखा था वह अब खंड-खंड हो गया। कोने में पड़ा हुआ चूल्हा अपनी बेबसी पर सिसक रहा है।

38 टिप्‍पणियां:

  1. चूल्‍हे पर एक और किश्‍त आपकी कलम से पढ़ना अच्‍छा लगेगा.
    संयुक्‍त और एकल परिवार के संदर्भ में कहा जाता है- ''जै दुल्‍हा, तै चुल्‍हा'. इसी तरह मत भिन्‍न्‍ता के लिए- बारा ...(जाति नाम), तेरा चुल्‍हा. और फिर अनुष्‍ठानपूर्वक चुल्‍हा फोड़ना और एकउलहा, दुकउलहा, तिकउलहा.

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  2. माटी के चूल्हे की सोंधी रोटियाँ गैस चूल्हों या हीटर के बस की बात नहीं. गाँव जाने पर आज भी चूल्हे की रोटियाँ बनवा कर खाता हूँ. लेकिन गौर से देखने पर लगता है कि गाँव आज हमारे जेहन में रचा बसा भोला भाला गाँव नहीं रह गया है. सारी चालाकियों सहित मल्टीनेशनल बाज़ार गावों तक पसर चुका है... भले ही आर्थिक आत्मनिर्भरता अभी शेष है

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  3. vaah bhaaijaan bchpn ki yaadon ko kya taazaa kya he aapne bhut khub mzaa aa gyaa . akhtar khan akela kota rajsthan

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  4. हमारा सामूहिक जीवन समाप्त हो रहा है। यह मौजूदा जमाने की उत्पादन व्यवस्था का परिणाम है। एक नए प्रकार के सामूहिक जीवन की आवश्यकता है जो हमारे दरवाजे पर खड़ा है।

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  5. बहुत ही मर्म को छू देने वाली बाते लिख गये हैं आप ललित भैया इस एक चूल्हे के नाम पर.मैंने गये साल अपने स्कूल की बच्चियों को चूल्हा और चक्की(गट्टी) का थाला,मिटटी की कोठियां बनानी सिखाई और उसे लाल मिटटी से पोत कर खड़ी से मांडनो ,चिरमी और कांच के टुकड़ों से सजाना सिखाया.ये आज भी मेरी यादों में उसी तरह बसे हैं जैसे आपके दिल में. चूल्हे के खीरों(अंगारे) पर सिकी मक्की की पापड़ीयों का कोई तोड़ नही मिला आज तक सिवाय माइक्रोवेव अवन के.गर्म राख में दबा कर सेकी बाटीयाँ जैसे मम्मी की याद और दादी की यादों से जुड गई है. बहुत कुछ नही भूल पाई आज तक.
    क्या करूं?
    ऐसिच हूँ मैं भी

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  6. आपके इस पोस्ट ने बीते दिनों की बहुत सारी बातें याद दिला दीं। मिट्टी के चूल्हे पर माँ के द्वारा मिट्टी की हंडी में पकाई गई भात, मिट्टी के "कुरेड़िया" में पकाई गई सब्जी और "बटलोई" में पकाई गई दाल के स्वाद का मजा ही अनूठा था।

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  7. गाँव के अपने घर की और बचपन की याद आ गयी इसे पढ़ कर . मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण सुंदर आलेख के लिए बधाई और आभार.

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  8. बीते दिनों की याद दिला दी aapne... मिटटी के चूल्हे पर नानी के हाथ की पानी लगाईं रोटी आज भी याद हैं... बढ़िया लेख!

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  9. यादों के सागर में गोता लगवा दिया...सुन्दर आलेख.

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  10. चूल्हा अपने में एक संस्कृति है .....और आपकी कलम ने इसे निखार दिया ....शुक्रिया

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  11. हमने भी अपनी उम्र का एक अहम् हिस्सा चूल्हे के भूभल में फाईनल सिकी करारी रोटियों के सहारे पर ही गुजारा है । जब लकडियां आसानी से नहीं जलती थी तो फूंकनी से फूंक मार-मार कर जलाने की यादें जेहन में कायम हैं । बढिया प्रस्तुति...

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  12. बहुत साल हमने भी माटी का चुल्हा ही जलाया है। उस जैसा आराम और मौज गैस मे कहाँ। बीते दिनो की याद ताज़ा हो गयी। धन्यवाद।

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  13. चूल्हे की भूभल (गर्म राख) में सेके हुए बैंगन के भरते का आनंद और कहीं नहीं मिल सकता। इसमें सेंके हुए आलू, शकरकंद, बिल्वफ़ल (बेल) के स्वाद के तो क्या कहने।
    इस लेख को पढकर पुराने दिन याद आ गए !!

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  14. यहाँ मैनपुरी में अब भी लोगो के घर आपको चुल्हा मिल जाएगा ... हलाकि यह सच है कि उसका प्रयोग अब काफी सिमित ही रह गया है !

    बेहद उम्दा पोस्ट !

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  15. चूल्हे में बनी रोटी का मजा कुछ और ही है. स्वाद में किसी का त्याग भी जुड़ा होता था.

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  16. चूल्हे के खाने का स्वाद तो कभी नसीब नहीं हुआ ..परन्तु चूल्हा आकर्षित बहुत करता है. अब तो वाकई सजावट की ही वस्तु रह गई है.

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  17. बस चोखी ढाणी जयपुर में चूल्हे की रोटी का स्वाद लिया था आज भी जुबां पर है

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  18. आज भी गांव जाते है तो चुल्हे पर पके खाने को प्रथमिकता देते है।

    किन्तु आज इस सुविधाभोगी युग में चुल्हा फ़ूंकना सम्भव ही नहीं।

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  19. महाराज घरों में चूल्हे भट्टे के वगैर काम कहाँ चलता है ... ठण्ड के दिनों में पुराने चूल्हें भी खूब याद आते हैं ...

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  20. ओह प्भरा, वर्षों पुरानी यादें स्वादों के साथ ताजा करवा दीं। देखें अभनपुर कब भेजने की इच्छा रखता है ऊपर वाला, पर जब भी आना होगा उस पुराने स्वाद का पुनर्जन्म आपको करवाना ही पड़ेगा।

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  21. वाह ललित भाई, आनंद आ गया; चूल्हा [ गाँव ] याद आ गया; चूल्हा परिवार को , संस्कृति को जोड़ कर रखने वाला चूल्हा , वाह

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  22. आपका लेख पढ़कर लगा कि ये कविता पोस्‍ट कर दी जाए


    क्‍या जीवन था....



    जब चलती चक्की घोर घोर, सब बोले हो गयी भोर भोर
    फिर चून पीस कर चार किलो, गिड़गम पर रखा दूध बिलो
    नेती से जब जब रई चली फिर छाछ बटी यूं गली गली
    यूं बांट बांट कर स्वाद लिया, बचपन को हमने खूब जिया
    क्या जीवन था वो ता...ता...धिन
    मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन


    जीवन जीने के झगड़े में नंगे पांवों दगड़े में
    चलते चलते रेतों में पहुंच गये हम खेतों में
    फिर एक भरोटा चारा ले ज्वार बाजरा सारा ले
    सूखा सूखा छांट दिया लिया गंडासा काट दिया
    गाय भैंस की सानी में यूं बीत गया फिर सारा दिन
    मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन


    सांझ घिरी जब धुएं से, फिर आयी पड़ोसन कुएं से
    लीप पोत कर चूल्हे को ज्यों सजा रहे हों दूल्हे को
    फिर झींना उसमें लगवाया, फोड़ अंगारी सुलगाया
    जब लगी फूंकनी आग जली, यूं चूल्हे चूल्हे आग चली
    कितने चूल्हे जले गांव में दर्द भरा है ये मत गिन
    मैं ढूंढ़ रहा हूं वो पल छिन

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  23. श्री पवन चन्दनजी,
    आपकी इस कविता में आनन्द आ गया ।

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  24. @पवन *चंदन*

    पंडित जी,
    आपकी कविता ने तो पोस्ट में 14 चाँद लगा दिए।

    आभार

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  25. पहले घर में चूल्हे में बनता था, उस सोंधी रोटी की याद अब भी आती है।

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  26. वाह ललित जी चुल्हा देख कर तो बचपन याद आ गया, हमारे घरो मे भी पहले चुल्हा ही होता था, ओर आप को हेरानगी होगी कि गर्मियो मे हम यहां जब कुछ गिरिल करते हे तो उस दिन उस लकडी के कोयले पर ही रात का खाना यानि सब्जी या दाल भी बना लेते हे, ओर साथ मे बेंगन भी भुन लेते हे, ओर इन का स्वाद बहुत ही अलग सा होता हे, चुल्हे को देखे भी अब जमाना हो गया, धन्यवाद

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  27. देखिए ललित जी ने सिर्फ़ चूल्हा चढाया था सब उसमें क्या क्या पकाते खाते चले गए और जाने कितनी ही यादें भी स्वाद पर चढ गईं ..यही है ब्लॉगिंग का आनंद और उद्देश्य भी ..सर आप की पोस्ट से टिप्पणियां ले गए हैं टिप्प्णी चर्चा के लिए

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  28. चूल्हा बंटने के साथ लोगों के मन भी बंट गए। दूर की राम-राम भी खत्म हो गयी है। चूल्हे ने जिस परिवार को बांध रखा था वह अब खंड-खंड हो गया।

    चूल्हे के माध्यम से मन की टीस उजागर कर दी ...बिल्कुल सही कहा है अब मन भी बाँट गए हैं ...

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  29. प्रणाम,
    बचपन में कभी कभी दादी के हाथ से चूल्हे में बना खाना खाने का अवसर मिल जाया करता था, अब तो चूल्हा कम ही देखने मिलता है वाकई वो दिन इस बेहतरीन पोस्ट को पढ़कर याद आ गए ..

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  30. आज भी गांव जाते है तो चुल्हे पर पके खाने को प्रथमिकता देते है।

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  31. बचपन में बहुत से निबंध पढ़े और लिखे भी..

    "मिटटी के चूल्हे की आत्म-कथा "

    शायद ही इस से सुन्दर कोई आत्मकथा हो सकती हो ?

    शायद चूल्हा बोल सकता हो कुछ इसी तरह अपनी तकलीफ बयां करता..

    बहुत कुछ याद दिलाती है आपकी रचना !!

    कितनी भी तारीफ करें कम होगी..............

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  32. बहुत सारी पुरानी गाँव की यादें ताजा हो गयी।बहुत खुब.....मजा आ गया...धन्यवाद।

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  33. ठौके लिखे हवस भैया....
    पीतल के बटलोई म डबक डबक के चूरे अरहर के दार अउ अंगरा म सेंकाए रोटी के मज़ा हर चुल्हा संग नंदा गे हे...
    फेर तोर पोस्ट ल पढ़के सब्बो आंखी म झूल गे...

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