गुरुवार, 10 जनवरी 2013

सिंघनगढ का हटवारा और किसबिन डेरा ………… ललित शर्मा

प्राम्भ से पढ़ें 
जंगली पगडंडी 
ज 20 नवम्बर 2012 है, बाबुलाल ध्रुव जी की प्रतीक्षा हो रही है। आदित्य सिंह जी को जरुरी काम आ गया। उन्हे अन्य स्थान पर जाना है। आज सिंघा धुरवा जाने के लिए बाबुलाल ध्रुव जी की ड्यूटी है। 10 बजे वे सिरपुर पहुंचते हैं। अब हम बोरिद गाँव के लिए चल पड़ते हैं। रास्ते में अमलोर से पाण्डे जी को साथ लेकर बोरिद पहुंचते हैं। बोरिद में सिंघा धुरवा तक ले जाने के लिए मार्ग दर्शक के रुप में प्रमोद की तलाश होती है। प्रमोद खलिहान में धान निकाल रहा है। उसने आने पर बताया कि अभी तक वह नहाया खाया नहीं है। हमें जल्दी थी, मेरे पास कुछ नाश्ता था। मैने कहा कि वहीं नाश्ता कर लेना, मेरे पास है। प्रमोद अपने दादा से सिंघा धुरवा जाने के लिए आज्ञा लेने चला जाता  है। मैं उसकी परछी में बैठकर प्रतीक्षा करता हूँ।

कुंए के पास बुधारू राम 
तभी एक व्यक्ति पहुंचता है, उससे चर्चा होती  है। उसने बताया कि वह जंगल का "फ़ैरवाचार" (फ़ायर वाचर) है। उसे जंगल के विषय में सभी तरह की जानकारी है। मेरे कहने पर वह साथ में जंगल में जाने के लिए तैयार हो जाता है। मैं प्रमोद को मना कर देता हूँ। अब हम 4 आदमी एक बार फ़िर जंगल में सिंघा धुरवा देखने के लिए चल पड़ते हैं। फ़ैरवाचार चुहरी ग्राम का बुधारुराम गड़रिया है। इसने बताया कि आप लोग कल भटक कर बहुत दूर चले गए थे। जिस देवी के स्थान का आप जिक्र कर रहे हैं वो वनदेवी चाँदा दाई है। आप लोग तो मोहदा बीट से होकर रवान बीट की तरफ़ चले गए थे। कल हमने जिस स्थान से नाला पार किया था। आज उससे पहले के रास्ते से हमने जंगल में प्रवेश किया। बस कल हमसे यही चूक हो गयी थी। जिसके कारण दिन भर जंगल में भटकते रहे। इस रास्ते से जाते तो सही स्थान पर पहुंच जाते।

कुंए में लगी इंटों का आकार 
सुकलई नाले को हमने 3 बार पार किया। उसके बाद बुधारु राम ने एक पहाड़ी के पास बाईक रुकवाई और बताया कि यहाँ पर एक प्राचीन कुंआ है। मैने पहाड़ी पर चढ कर देखा तो प्राचीन बड़ी ईंटों की चौकोर सी संरचना थी। जिसे वह कुंआ कह रहा था। मेरा अनुमान है कि वह तहखाना इत्यादि रहा होगा। जिसके उपर का निर्माण ध्वस्त हो चुका है। बरसात में जब इसमें पानी भर जाता है तो वनवासी इसे कुंआ के रुप में प्रयोग में लाते होगें। यहाँ मैने कुछ चित्र लिए और आगे बढ गए। 7 वीं बार नाला पार करने के पश्चात रास्ते में एक जगह ईंटों की बनी बड़ी सी संरचना है जो जमीन में दबी हुई है। यहाँ  कोई भवन रहा  होगा। यहीं पर हमने अपने बाईक खड़ी कर दी और वन में पैदल चल पड़े। क्योंकि आगे जाने के लिए बाईक का रास्ता  नहीं था।

घास में दबे पसरा के चिन्ह 
पैदल चलने पर हमें कुछ वृक्ष कटे हुए दिखाई दिए। बुधारु राम ने बताया कि जंगल में लकड़ी के चोर अधिक हो गए हैं। रात को लकड़ी काट कर गिरा देते हैं और सुबह भैंसों से खींच कर ले जाते हैं। पहाड़ी  की तलहटी में घास के बीच बहुत सारे निर्माण दिखाई दिए। जैसे पहले कभी यह बाजार रहा हो। ग्रामीण इसे हटवारा कहते हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि यहाँ बाजार था और विक्रेताओं ने अपनी दुकान के सामान को सजाने के लिए पसरा बना रखा है। या फ़िर छोटे-छोटे कमरों की दुकाने रही होगी। यहीं पर एक स्थान को "किसबिन" डेरा कहते हैं। छत्तीसगढी भाषा में किसबिन का अर्थ नर्तनी, वेश्या या नगर वधु होता है। सिरपुर जब प्राचीन राजधानी एवं मुख्य व्यापार केंद्र था अवश्य  ही व्यापारियों के मनोरंजन के लिए किसबिन डेरा भी रहा होगा।

पहाड़ी की ओर पदयात्रा 
हम पहाड़ी  की खडी चढाई चढ रहे थे। थोड़ा उपर जाने पर एक झरना दिखाई दिया। इसका निर्मल जल पीने  के लिए उपयोग में आता है। पहाड़ी से गिरती निर्मल धार को एक ही स्थान पर गिराने के लिए बांस का पाईप बना कर लगाया था जिससे बोतल, पीपा, मटकी इत्यादि भरी जा सकती है। रास्ते में एक वृक्ष की छाल निकाली हुई पड़ी थी। बुधारु राम का कहना था कि इस छाल कर यदि किसी शराबी को घोल कर पिला दिया जाए तो उसका नशा पानी हो जाएगा। दुबारा कभी पीने की हिम्मत नहीं करेगा। अगर शराब की बोतल में डाल दिया जाए तो शराब का पानी हो जाता है। उसको पीने के बाद नशा नहीं  होता। वृक्ष की छाल को लौटते समय लेने का सोच कर मैं पहाड़ी पर चढते गया। अभी मुझे पहाड़ी पर बने पठार पहुंचने  की शीघ्रता थी। क्योंकि 2 बार यहां तक पहुचने  की कोशिशों के बाद भी नहीं पहुंच पाया था।

सिंघन गढ़ के किले का मुख्य द्वार 
पहाड़ी के उपर पहुंचने पर पत्थरों की बनी हुई दिवाल दिखाई देती है। थोड़ा आगे बढने पर सिंह द्वार भी दिखाई देने लगा। सिंह द्वार लगभग 8-9 फ़ुट की ऊंचाई का होगा। द्वार के सिरदल पर कमल चिन्ह का अंकन है। अन्य कोई शिल्पकारी इस द्वार पर दिखाई  नहीं देती। द्वार पर गजलक्ष्मी का अंकन होने की जानकारी मुझे मिली थी। बारीकी से निरीक्षण करने पर भी मुझे गजलक्ष्मी अंकन कहीं दिखाई नहीं दिया। द्वार के सामने दोनो तरफ़ भवनाशेष रखे हैं। द्वार से भीतर प्रवेश करने पर चौकीनुमा प्रस्तर भवनाशेष दिखाई दिया। साथियों ने इसे "पीढ़ा" बताया। उपर से सपाट होने एवं चारों कोनो में पाया होने के कारण इस वर्गाकार आकृति को ग्रामीण "पीढा" मानते हैं। इसका वजन लगभग 50 किलो होगा। लकड़ी के सहारे से शिलाखंड को उठाकर देखने पर नीचे कमलाकृति बनी हुई दिखाई थी। इससे प्रतीत हुआ  कि यह किसी भवन की छत का अवशेष या मंदिर का वितान है।

सोने के लिए मचान 
आगे बढने पर हम पठार पर पहुंच जाते हैं। दूर से ही झोपड़ियाँ नजर आने लगती है। पठार के किनारे पर अनगढ पत्थरों की दीवाल बनी हुई है। बाबुलाल ध्रुव जी ने बताया कि यहाँ आदिवासी समाज के लोग दो तीन वर्षों से नवरात्रि में देवी स्थापना कर जोत जलाने लगे हैं। आगे बढने पर हमे प्राचीन आटा पीसने की चक्कियाँ एवं स्तम्भों के आधार मिले।  पठार को पत्थरों की दीवार बना कर दो खंडो में विभाजित किया गया है। पठार पर जंगल से लकड़ियां चोरी करके ज्योति कक्ष के रुप में बड़ी संरचना का निर्माण किया गया है। जिसमें हजारों ज्योति कलश रखे हुए हैं। प्रतीत होता है कि नवरात्रि में यहाँ पर बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते होगें। नवरात्रि के अवसर पर यहाँ रात रुकने के लिए लोगो ने सोने के मचान बना रखे हैं तथा पूजा सामग्री एवं खाद्य सामग्री की दुकाने भी लगती हैं।

ज्योति कक्ष
ज्योति कक्ष में गोंडवाना राज्य का चिन्ह ग्रेनाईट पर बना हुआ रखा गया है। जिससे जाहिर होता है कि इस पुरातात्विक महत्व के स्थान पर बलात कब्जे की तैयारियाँ हो रही  हैं। जितनी अधिक मात्रा में यहाँ चोरी की लकड़ी का इस्तेमाल किया गया है, इससे प्रतीत होता है कि इस कृत्य से वन विभाग का अमला भी अनजान नहीं है। ज्योति कक्ष के द्वार पर कुछ भग्न प्रस्तर एवं मृदा मूर्तियाँ रखी हुई हैं। प्रतिमा विज्ञानी  ही इनका काल निर्धारण कर सकते हैं।  हमने पूरे पठार का निरीक्षण किया। पठार के पश्चिम में सीधी  रेखा में कुछ पत्थर गड़े हुए मिले। शायद यह किसी ने झोंपड़ी इत्यादि की दीवार के सहारे के लिए या टेंट की दीवार के सहारे के लिए गाड़े होगें। मैगालिथिक काल के सर्कल जैसा यहाँ कोई चिन्ह दिखाई नहीं देता।

उत्तरी द्वार पर हम लोग 
पठार की उत्तर दिशा में एक छोटा द्वार है जो खाई में उतरता है। इसके स्तम्भ वर्तमान में भी खड़े हुए हैं। सिरदल का पता नहीं चला। हमने छोटे द्वार से पहाड़ी की तरफ़ उतर कर निरीक्षण किया। भूख भी लग चुकी थी। हमने यहीं पर एक बड़ी सपाट चट्टान पर बैठकर साथ लाए हुए नाश्ते का उपयोग किया। पानी की बोतल भी हमारे साथ थी इसलिए पानी की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। नाश्ता करते वक्त पाण्डे जी मुझे पीछे देखने ओर कहा। मैने पीछे मुड़ कर देखा और मेरी एक अंगुली में खुजली शुरु हो चुकी थी। मेरे पीछे केंवाच की पकी हुई फ़लियाँ पड़ी थी तथा जिस वृक्ष की छांव में हम बैठे थे उस पर केंवाच की बेल लटक रही थी। यह समय केंवाच की फ़लियों  के पकने का होता है। मुझे एक झटके में ही उठकर अंगुली को तुरंत ही धोना पड़ा। अन्यथा खुजाते-खुजाते सवासत्यानाश हो जाना था।

अवैध निर्माण 
पठार के बीच में नींव खोदी गयी है। पता चला कि यहाँ पर मंदिर बनाने की योजना चल रही है। प्राचीन धरोहरों का बेखटके निर्भय होकर नुकसान किया जा रहा है। जिस पर पुरातत्व विभाग कोई संज्ञान नहीं ले रहा। जब संज्ञान लेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। सारे पुरातात्विक साक्ष्य खुर्द-बुर्द किए जा चुके होगें। वैसे भी अभी पुरातात्विक साक्ष्यों के बचने की कोई संभावना  नजर नहीं आती। क्योंकि इस पहाड़ी के पठार के पर कोई भी निर्माण सामग्री दिखाई नहीं देती। दो-चार भग्न मूर्तियाँ ही पड़ी हैं। नही कोई भवनाशेष दिखाई देता। हो सकता  है यहाँ अवैध गतिविधियाँ बरसों पूर्व से जारी  हों। जिसके कारण पुरा सम्पत्ति के चोर पुरासम्पदा पहले ही उठा ले गए हों। फ़िर भी अभी समय है यदि इन्हे सहेज लिया जाए तथा अवैध रुप से किए जा रहे निर्माण को बंद करवाना चाहिए। जिससे छत्तीसगढ की इस प्राचीन धरोहर को बचाया जा सके। पुरातात्विक दृष्टि से यह स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है।

आटा पीसने की चक्की 
यहाँ से वापस चलकर हम मुख्य द्वार की अपेक्षा पहाड़ी के उस तरफ़ से नीचे उतरे जहां पर हमारी मोटर सायकिलें खड़ी थी। यहाँ से हम पुन: बोरिद गांव पहुंचे और फ़ायर वाचर को वहीं छोड़ा। आज हम सिंघाधुरवा ( सिंगन गढ, हटवारा, किसबिन डेरा) घूम आए थे। वापसी के वक्त लगा कि आना सार्थक हो गया। दो दिन भटकने के बाद हमें इस स्थान के दर्शन हुए। यह जंगल घना है। पतझड़ के वक्त पुन: यहाँ आने का विचार है, जिससे छेरीगोधनी का निरीक्षण करने प्रबल आकांक्षा पूरी होगी। अमलोर पहुंचने पर देखा कि आदित्य सिंह जी अमलोर पहुंच चुके हैं। हम वापस सिरपुर आए, शाम होने को थी। शाम 5 बजे यहाँ से एक बस महासमुंद के लिए जाती है, जिसे लोग मेडम बस कहते हैं। क्योंकि आस पास के स्कूलों में  महासमुंद से आने वाले शिक्षक शिक्षिकाओं को यही बस वापस लेकर जाती है। इस बस में सवार होकार मैं तुमगांव पहुचा और वहाँ से रायपुर जाने वाली बस पर सवार होकर घर पहुंचा। इस तरह सिरपुर का तीन दिवसीय दौरा सम्पन्न हुआ।
भग्न मंदिर का वितान (इसे ग्राम वासी पीढ़ा कहते है)
जारी  है …… आगे पढें

9 टिप्‍पणियां:

  1. रोचक यात्रा का रोचक विवरण। गनीमत केंवाच से बच गये भैया!

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  2. ऐसे ही नयी नयी जानकारी से आवगत करवाते रहें ...

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  3. बहुत खूब भाई साहब मानना पड़ेगा आपकी यायावरी

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  4. हमारे यहाँ इतिहास के इतने चिन्ह पड़े हैं कि कोई सम्हालने वाला नहीं है।

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  5. एक बार इंडिया टूडे में सिरपुर पर एक रिपोर्ट पढ़ी थी, उसमें किसबिन बेड़ा का जिक्र आया था, रिपोर्ट में लिखा गया था कि जब बौद्ध धर्म विकृत हुआ और वज्रयान का दर्शन उभरा तब बौद्ध भिक्षुणियों के मान-सम्मान में गिरावट आई। बौद्ध धर्म के पतन के बाद इनके पास व्यवसाय के लिए कोई जरिया नहीं रह गया और बुद्ध का पताका फहराने वाली भिक्षुणियों को वेश्यावृत्ति का सहारा लेना पड़ा। आपकी पोस्ट बहुत अच्छी है सिंघनगढ़ के किले तक आप जैसा ही कोई जिज्ञासु पहुँच सकता है। आभार

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