सोमवार, 28 जनवरी 2013

बौद्ध मठ एवं तिब्बती औषधालय Manpat


सुबह जल्दी हो गयी, सूर्योदय हो रहा था। सूर्योदय का यही नजारा देखने हम जल्दी उठे थे। ठंड ऐसी थी कि रुम से बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा था। पंकज पहले ही उठकर जोगिंग के लिए जा चुका था। मेरे बाईं तरफ़ सूर्योदय हो रहा था, पहाड़ियों के बीच से। आज धुंध भी अच्छी थी। सूर्योदय की लालिमा क्षीतिज पर बिखर कर अद्भुत दृश्य उत्पन्न कर रही थी। पंकज जोगिंग से लौट आया था और राहुत बिस्तर में ही था। चौकिदार से नहाने लिए गर्म पानी करने कहा। मैं आँवले की दातौन तोड़ी। सुबह दातौन करने में ही मजा है। दांत भी स्वस्थ रहते हैं और स्वास्थ्य भी उत्तम बना रहता है। एक घंटे में हम नहा धोकर तैयार हो गए। क्योंकि आज लौटने का दिन था।
सूर्योदय
इस जंगल में साही भी हैं। जिसके कांटे यत्र-तत्र बिखरे पड़े रहते हैं। साही का कांटा बहुत नुकीला और हड्डी के जैसा मजबूत होता है। चौकिदार कहीं से एक कांटा उठा लाया था। काले और भूरे रंग का कांटा खूबसुरत दिखाई देता है। साही अपने प्राणों की रक्षा इसी से ही करती है। ग्रामीण इससे टोटका भी करते हैं। कहते हैं कि साही के दो कांटे किसी के घर के दरवाजे की चौखट दोनो तरफ़ लगा दिए जाएं तो उसके घर में कलह प्रारंभ हो जाता है। जब तक कांटे वहाँ रहेगे तब तक कलह जारी रहेगा। खैर हमने तो कभी प्रयोग करके देखा नहीं और न ही प्रयोग करने का मन है। क्यों किसी बेचारे के घर में कलह कराया जाए। सोच रहा था कि यदि इसका उपयोग ब्लॉग पर होता तो किसी के ब्लॉग टेम्पलेट के दोनो तरफ़ खोंच देते और मौज लेते रहते। :)
मेहता पाईंट का रेस्ट हाउस
रेस्ट हाऊस से चलते-चलते लगभग 9 बज गए। यहाँ से हमें कैम्प नम्बर 1 के बौद्ध मठ एवं तिब्बति दवाखाना देखना था। मर्करी रिसोर्ट से आगे चलने पर कैम्प नम्बर एक आता है। सबसे पहले हमें तिब्बती औषधालय दिखाई दिय। एक व्यक्ति वहाँ झाड़ू लगा रहा था। डॉक्टर के विषय में पूछने पर वह किसी को बुलाने गया। एक तिब्बती बाहर निकल कर आया और बोला कि डॉक्टर साहब नहीं है वे धर्मशाला गए हैं। मैने थोड़ी देर अस्पताल का निरीक्षण किया। आम अस्पतालों जैसे ही यहाँ भी रजिस्ट्रेशन काऊंटर, ओपीडी, दवाई देने का स्थान एवं औषधालय बना रखा था। 
तिब्बती औषधालय
मेरी जिज्ञासा थी कि जिस तरह चीन में पशु पक्षियों के मांस, मज्जा, रक्त इत्यादि से दवाईयाँ तैयार की जाती है। उसी तरह की दवाईयाँ देखने मिलेगीं पर यहाँ तो शीशियों में बंद गोलियाँ ही दिखाई दी। सारी गोलियाँ एक जैसी थी और उनका रंग भी सभी शीशियों पर तिब्बती भाषा में पहचान लिखी थी। शायद वह व्यक्ति कम्पाऊंडर था। मेरे पूछने पर कहने लगा कि डॉक्टर साहब जिस दवाई का नाम बताते हैं वह मरीजों को निकाल कर दे देते हैं। मुझे नहीं पता कि कौन सी दवाई किस मर्ज में काम आती  है। डॉक्टर होते तो दो चार बीमारियों की तिब्बती चिकित्सा पर बात होती लेकिन निराशा ही हाथ लगी।
लामा
औषधालय थोड़ा आगे चलकर बांए हाथ पर केन्द्रीय विद्यालय है जहाँ पर 8 वीं तक तिब्बतियों के बच्चे पढते है। रास्ते में एक शिक्षिका बच्चों को स्कूल ले जाती हुई दिखाई दी। आगे बढने पर दांए हाथ की तरफ़ के रास्ते में थोड़ी दूर चलने पर बौद्ध मठ दिखाई देता है। हमने कार वहीं दरवाजे पर खड़ी  की और बौद्ध मठ में पहुंचे। बौद्ध मठों में चटख गहरे रंगों का प्रयोग किया जाता है। यहाँ पर भी चित्रकारी उन्ही रंगों  का प्रयोग किया गया है। मठ में प्रवेश करने पर युवा लामा से मुलाकात होती है। 50 बरस हो गए तिब्बतियों को भारत में लेकिन हिन्दी अभी तक नहीं सीख पाए हैं। बोलेगें तो वही हमेशा की तरह टूटी फ़ूटी। जिसे समझने के लिए दिमाग पर जोर डालना पड़ता है। दो स्थानों पर गुरु गद्दी जैसी बनाई गई है जिसके सामने चाँदी की थाली में एक घंटी रखी है उसमें चावल और रुपए चढाए गए हैं।
इस पर ही चावल और रुपया चढाते हैं
पीछे वाली गद्दी के पास इस घंटी के अतिरिक्त एक पात्र भी रखा है। तभी एक तिब्बती आता है उसके हाथ में इम्पिरियल ब्लू का क्वाटर है। गद्दी को प्रणाम कर 10 रुपए का नोट चढाता है और शीशी खोल कर पात्र में मद्यपेय अर्पण कर देता है। इस प्रक्रिया को राहुल दृष्टि गड़ाए हुए देख रहा था कि ये कैसा मठ है जहाँ एक पात्र रखा है और उसमें दारु दारु डाली जा रही है। शाम तक तो लामा महाराज का फ़ुल इंतजाम हो जाता होगा टुन्न होने का। उससे रहा नहीं गया तो लामा से पूछ ही लिया। लामा ने बताया कि वह दारु नहीं चाय है। तिब्बती सुबह चाय लेकर आते हैं और इस पात्र में डाल देते हैं। सामने ही वज्र रखा था। ठीक वैसा ही वज्र जैसा सिरपुर में उत्खनन के दौरान प्राप्त हुआ है। इससे जाहिर होता है बौद्ध मठों में धातू का वज्र एवं घंटी रखने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है। 
वज्र एवं घंटी- ऐसा ही सिरपुर के उत्खनन में प्राप्त हुआ
मठ में बड़े आकार के तिब्बती लामाओं द्वारा पहने जाने वाले टोपे रखे हैं। राहुल एक टोपा पहन कर फ़ोटो खिंचाना चाहता था। परन्तु लामा ने मना कर दिया कि आप उसके पात्र नहीं है। इसे दीक्षित लामा ही पहन सकते हैं। मठ के प्रांगण में सौर उर्जा से भोजन इत्यादि पकाने का चलित सौर उर्जा यंत्र रखा हुआ है। इसे सूर्य की किरणो को परवर्तित करने के लिए चलित बनाया गया है। डिस्क जैसी छतरी उपर-नीचे और अगल-बगल घुमाई जा सकती है। इसके मध्य में एक बर्तन रखा हुआ है। जिसमें पकाने वाली सामग्री रखी जाती है। बौद्ध मठ से निकल कर हम बस स्टैंड पहुंचते है, यहाँ एक होटल में गर्मा गरम आलु गुंडे बन रहे थे। सुबह का नाश्ता हमने यहीं पर किया। आलु गुंडे के साथ टमाटर और हरी मिर्च की चटनी बहुत ही उम्दा थी। मजा आ गया नाश्ता करके। अब हम यहाँ से अम्बिकापुर की ओर चल पड़े। जहाँ अमित सिंह देव से मुलाकात होनी थी और आगे की यात्रा में चलना था। आगे पढ़ें 

8 टिप्‍पणियां:

  1. वाह ! शानदार यात्रा विवरण !
    ये तिब्बती डाक्टर बिना रोगी को पूछे नाड़ी देखकर खुद ही बताते है कि रोगी को क्या रोग है इनकी दवाएं भी बड़ी असर कारक होती है निजामुद्दीन में भी इनका एक अस्पताल है !

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  2. आपकी यात्राओं को पढ़ते चाय-नाश्‍ते का बढि़या इंतजाम मिल जाता है.

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  3. साही के काँटे बिना लगाये ही कलह प्रारम्भ हो जाता है..ब्लॉग में
    नाड़ी स्वास्थ्य को स्पष्ट बताती है...प्राच्य संस्कृतियाँ इसी पद्धति को अपनाती हैं..

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  4. Its such a very interesting and nice place. thank you for sharing
    http://www.naaptol.com/

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  5. बढ़िया मठ दर्शन ...
    शुभकामनायें !

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