रात तो गुजर गई, आँख खूली तब हिरण्यगर्भ के स्वर्णिम प्रकाश से शयनकक्ष परिपूरित था। घड़ी की ओर निगाहें फ़ेरी तो उसने 8 बजने के संकेत दिए। आज तो इन्तिहा हो गई, काफ़ी देर के बाद जागा। बिस्तर से उठने का मन नहीं, लग रहा था जैसे कंधों का भारी बोझ उठने नहीं दे रहा। कंधे ही क्यों रोम-रोम बोझिल था। बोझ ही नहीं, रग-रग दर्द से टूट रही थी। दर्द अहसास दिला रहा था कि अर्थी का बोझ उठाना देह के लिए बहुत पीड़ादेयक होता है। जब अर्थी अरमानों की हो तो पीड़ा का बोध नहीं हो पाता देह को। संज्ञाहीन देह को हिरण्यमय स्वर्णिम किरणों ने सींच कर पुष्ट किया, देह में रक्त संचार होने से बिस्तर छोड़ने का मन हुआ। बिछौना बनी देह जागृत हो गई।
अबीदा परवीन को सुनने का मन हुआ, जब वो "इक नुक्ते विच गल मुकदीए" … गहरे उतर कर गाती है तो लगता है कि सुर और साज एक हो गए। इश्क-ए-हकीकी सुनकर चेतना जागृत हो सातवें आसमान पे होती है और अवचेतन के पट भी खुल जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कभी कबीर, दादू, बुल्लेशाह के सहज ही खुल गए होगें। वरना सारी जिन्दगी साज ठोक-पीट कर सुर मिलाने में ही निकल जाती है। बार-बार गला खखारने के बाद भी सुर और साज कहाँ मिल पाते हैं मेरे से। कभी बहर छोटी पड़ जाती है तो कभी काफ़िया नहीं मिल पाता। कभी नुक्ते का झोल, क्या जिंदगी है। जब जिंदगी एक नुक्ते का ही खेल है तो इस काली बिंदी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है…… इक नुक्ते विच गल मुकदीए…… शायद तभी कहा गया है "इक नुक्ते से खुदा, ज़ुदा होता है। बड़ा झोल है जीवन में, मीत मिताई मिलाई का।
उम्दा कलाम के नशे की गिरफ़्त में सरकते हुए करंज के पेड़ की घनी छांव में कुर्सी पर पसर जाता हूँ, उत्तमार्ध चाय बनाकर ले आती है, मुझे जागे हुए देख कर। चाय का कप हाथ में लेते ही लगता है कि चारों धाम की परिक्रमा पूरी हो गई। प्रेम का रस चाय में मीठे का काम करता है, वरना मेरी चाय भी बेस्वाद हो गई। तुलसी की पवित्र पत्तियों से युक्त भाप सर्दी से बंद नथूने खोल देती है, गंगा-नर्मदा का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है, लगा अंतर से झरना फ़ूट पड़ा, जहाँ प्रेम का सोता फ़ूट पड़े समझो रब वहीं मिल गया। बुद्धत्व की प्राप्ति हो गई। करंज का वृक्ष मेरे लिए बोधिवृक्ष हो गया। सोधी खोकर बोधि को प्राप्त करना प्रचंड उपलब्धि हो सकती है, बस बात एक नुक्ते ही है।
नुक्ता ही जीवन में कसौटी पर कसा जाता है। नुक्ता ही क्यों जूते भी मुझे सहन शक्ति की कसौटी पर कस रहे हैं। पहाड़ियों की पथरीली चढ़ाई को ध्यान में रख कर मोटे तले के खरीद लिए थे। उन्होने 2-3 सफ़र में ही मुझे तले से लगा दिया। कल रात जब से उन्हे पैरों से जुदा किया तब से तलवे भड़ककर आग बबूले हो रहे हैं। अगर मोचड़ी होती या भंदई होती तो छाछ में डूबा कर तेल पिला देता है। कम से कम तलवों को ठंडक मिलती और जूतों की सद्गति हो जाती। मशीनी जूतों में ये संभव नहीं है। अगर पाँव सलामत रहे तो जूते जीवन पर्यंत साथ निभाते हैं। जब मानव संतान धरती पर लड़खड़ाते कदमों से चलने लगती है तो जूते ही उसके चरणों के रक्षक बन प्रथम सहचर होते हैं फ़िर ताउम्र सांस छूटते तक साथ निभाते हैं, बिना वादा किए ही। किए गए वादे थोड़ी सी धूप पड़ने पर कुम्हलाकर फ़ना हो जाते हैं।
क्या सोच रहे हो? कुछ नहीं। चाय ठंडी हो रही है? हाँ! हो तो गई है। सोच रहा हूँ कुछ दिन आराम करुं गालिब की तरह…… रहिए अब ऐसी जगह, चलकर जहाँ कोई न हो। हम सुखन कोई न हो और जुंबा कोई न हो। दिमाग भी खाली हो और मन भी स्थिर, चित्त विश्राम में। नींद ऐसी आ जाए कि सुबह होने पर तरोताजा हो जाऊं, हिरणों के छौने की तरह कुलाचें मारता फ़िरूँ। 10 मील बिना रुके लगातार दौड़ता जाऊं। किसी को यह बताने की जरुरत न पड़े कि फ़लां फ़लाँ तेल की चम्पी से एकदम तरोतजा हो सकते हैं। जैसमीन की खुश्बू वातावरण में फ़ैल रही है। सारे वजूद पर छाते जा रही है। लम्बी सांस लेकर उसे फ़ेफ़ड़ों में भर लेना चाहता हूँ जिससे वो मेरी रगों में दौड़ने लगे ताजगी बन कर।
कहाँ आराम है जिन्दगी में? बस चलते ही जाना और चलते ही जाना। पता नहीं कितने जन्मों तक निरंतर-अनवरत। गौरेया की चहचहाट के बीच करंज के पेड़ पर बैठे कौंवे भी सुर मिलाने के पुरजोर प्रयास में लगे हैं। सुर मिल जाए तो सद्गति हो जाए। कौंवे आदत से, प्रवृत्ति से मजबूर हैं। सोधी खोए हुए बोधि प्राप्ताकांक्षी पर भिष्ठा और बींठ डाल कर भाग जाते हैं। यही परीक्षा की घड़ी होती है यायावर के लिए। वह कौवों की कारस्तानी को ध्यान दिए बगैर सोधी से बोधि की ओर चलता रहे। जिस दिन बोधि की उपसम्पदा मिल गई, उस दिन के बाद आराम करने की जरुरत ही नहीं होगी। काफ़िया मिल जाएगा, बहर सूत में होगी। नुक्ता सही जगह लगेगा। जिन्दगी गजल हो जाएगी। इक नुक्ते से गल मुक जाएगी……… देह तरोताजा हो जाएगी, आगे के सफ़र के लिए………।
अच्छा है आराम नहीं है खाली दिमागस शैतान का घर बनाने से क्या फायदा चले चलिये !
जवाब देंहटाएंAdbhut bhav aur sundar shabdon ka anutha sangam... Aabhar
जवाब देंहटाएंबोधि से सोधि की ओर आप का बढ़ना मुझे अच्छा लगा । बोध को बोधि और सुधि को सोधि करना एक शाब्दिक खिलवाड़ के साथ मुक्त चिन्तन में सहायक भी हुआ है । तिल को ताड़ और
जवाब देंहटाएंराई को पर्वत बनाने की कला आप के पास है । मैं यह काम कविता में करता हूँ , आप गद्य में ।
बहुत ही शानदार
जवाब देंहटाएंएकदम कलाम की माफ़िक थिरकती लेखनी, पढ़कर आनंदित भये।
जवाब देंहटाएंइसे पोस्ट नहीं कहते हैं ललित बाबू!! ऐसा लगता है कि समाधि के आलम में कोई बुद्ध सुविचार का उच्चार कर रहा है!!
जवाब देंहटाएंprem ke ras se sani lekhani ka kamal waah ji waah kya kahane
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा लेखन...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
बीहड़ में ऐसी सरपट चाल.
जवाब देंहटाएंख़ास बात नहीं है , बुखार में आदमी अकबका ही जाता है.
जवाब देंहटाएंमगर अकबकाहट में लिखा शानदार है। सचेत होकर ध्यानावस्था में जा भी नहीं सकते
वाह, बस ऐसे ही कटती रहे दिनचर्या, न एक इंच इधर, न एक इंच उधर।
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