बात 1956-57 की है, बस्तर नरेश प्रवीण चंद भंजदेव वर्तमान कांकेर जिले के हल्बा गाँव के टिकरापारा पहुंचे, उनके स्वागत में सारा गाँव इकट्ठा हुआ। गाँव की चौपाल में उनके लिए खाट बिछाकर ग्रामीणों ने स्वागत किया, वे आकर खाट पर विराज गए। राजा के आगमन पर गाँव के सभी नागरिक इकट्ठे हो गए। राजा उनसे समस्याओं पर चर्चा करने लगे। यह आजादी के बाद का दौर था, जिसमें देश का लोकतंत्र अपना स्वरुप ग्रहण कर रहा था और विकास के पायदान गढ़े जा रहे थे।
ग्राम के सरपंच तिलकराम कुंजाम उस दिन को याद करते हुए कहते हैं कि " हम लोग उस समय बच्चे थे, लेकिन समझने लायक हो गए थे, राजा सफ़ेद कुर्ता पैजामा पहना हुआ था और उनके लम्बे बाल कंधे पर झूल रहे थे। ग्रामीणो ने कहा कि गाँव में निस्तारी के लिए पानी समस्या है और कोई भी तालाब नहीं है, कुछ कुंओं एवं नाले के पानी पर ही आश्रित हैं। तब राजा ने ग्राम वासियों को 500/- रुपए दिए और तालाब बनाना शुरु करने को कहा। राजा के पैसों एवं ग्रामीणों के श्रमदान से तालाब का निर्माण शुरु हो गया।
तालाब के लिए स्थान का चयन करने के बाद सारा गाँव तालाब निर्माण में जुट गया, खंती लग गई। तालाब निर्माण का काम लगभग 3 बरस तक चला तब कहीं जाकर 3 एकड़ की भूमि में "राजा तालाब" का निर्माण हुआ। निर्माण कार्य के दौरान रुपयों की कमी पड़ने पर गांव के कुछ लोग जगदलपुर जाते और राजा से रुपए लेकर आते। इस तरह कुल बारह हजार रुपयों में तालाब का निर्माण कार्य पूर्ण हुआ। राजा तालाब की पार पर शिवालय का निर्माण भी ग्रामवासियों ने किया।
तालाब बनने के बाद समझ आया कि इसके लिए उपयुक्त स्थान का चयन नहीं किया गया। तालाब के चारों तरफ़ खेत थे, इसमें पानी आने का कोई साधन नहीं था, वर्षा जल पर ही इसका भराव संभव होता था। जैसे ही पूस माघ का समय आता है इस तालाब का पानी रिसकर खेतों में चला जाता है। तालाब की मिट्टी भी रेतीली है जिसके कारण पानी नहीं ठहरता॥ हमने जाकर देखा तो तालाब का पानी अंटकर मटमैला हो गया था तब भी लोग उसमें निस्तारी कर रहे थे।
चंदू लाल जैन कहते हैं कि इस तालाब के निर्मान के बाद ग्रामवासी एक मास्टर में खुद की भूमि में तालाब बनवाया, इसे "मास्टर तालाब" के नाम से जाना जाता है। मास्टर तालाब में पानी ठहरता है, निजी तालाब होने के बावजूद भी मास्टर जी ने कभी ग्राम वासियों को तालाब का पानी उपयोग करने के लिए मना नहीं किया। तालाब में पानी कम होने पर उसे नलकूप जल से उसे भर दिया जाता है, ग्राम में पानी के व्यवस्था के लिए कई बोरिंग भी हैं, जिससे निर्वहन हो जाता है।
आजादी के बाद भी बस्तर राजा द्वारा निजी धन से तालाब खुदवाने की जानकारी मुझे यहाँ प्राप्त हुई, बस्तर राजा प्रवीर चंद भंजदेव प्रजावत्सल थे, प्रजा के सुख दुख में सम्मिलित रहते और उसके दुखों एवं समस्याओं का निवारण करने का प्रयास स्वयं करते थे, इसलिए आज भी उन्हें बस्तर अंचल में भगवान की तरह पूजा जाता है। बस्तर के गाँव गाँव में उनकी स्मृतियाँ बगरी हुई हैं और 1966 के बस्तर महल कांड की यादें भी ग्रामीणों की स्मृति में अभी तक ताजा हैं।
बढि़या, रोचक लेख. प्रवीरचंद भंजदेव जी की मृत्यु, जैसा पढ़ने को मिलता है, 25 मार्च 1966 को हुई.
जवाब देंहटाएंRahul Singh जी - मेरे ध्यान में 1962 ही रह गया था। सुधार देता हूं।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी व रोचक जानकारी. पहले के ज़माने के राजा इस तरह के पुण्य कमाने वाले कार्य बड़ी गंभीरता से करवाते थे, पुराने तालाब, बावड़ियां आज भी इसका जीता-जागता प्रमाण हैं....
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