जब भी बस्तर जाना होता है तब बस्तरिया खाना, पेय पदार्थ का स्वाद लेने का मन हो ही जाता है, चाहे, लांदा हो, सल्फ़ी हो या छिंदरस। बस्तर की संस्कृति पहचान ही अलग है। गत बस्तर यात्रा के दौरान अंचल के विशेष पेय पदार्थ एवं भोजन विकल्प सल्फी का रस तथा चावल का लांदा का स्वाद लिया गया। सल्फी का वृक्ष बस्तर अंचल में ही पाया जाता है. चावल को खमीर उठा कर उसका लांदा नामक पेय पदार्थ बनाया जाता है. हाट बाजार में ग्रामीण इसे बेचने आते हैं।
भाई चंद्रा मंडावी लांदा बनाने की रेसीपी और तरीका बताते हुए कहते हैं, लांदा बनाने के लिये चावल को पीस कर उसके आटे को भाप में पकाया जाता है, इसे पकाने के लिए चूल्हे के ऊपर मिटटी की हांड़ी रखी जाती है जिस पर पानी भरा होता है और हांड़ी के ऊपर टुकना जिस पर चावल का आटा होता है। इसे अच्छी तरह भाप में पकाया जाता है, फिर उसे ठंडा किया जाता है।
इसके पश्चात एक अन्य हंडी में पानी आवश्यकता अनुसार लेकर उसमे पके आटे को डाल देते है, साथ ही हंडी में अंकुरित किये मक्का (जोंधरा) के दाने, जिसे अंकुरित करने के लिये ग्रामीण रेत का उपयोग करते है। भुट्टे के अंकुरण के पश्चात उसे भी धुप में सूखा कर उसका भी पावडर बनाया जाता है। लेकिन इसे जांता (ग्रामीण चक्की) में पिसा जाना उपयुक्त माना जाता है। फिर इसे भी कुछ मात्रा में चावल वाले हंडी में डाल दिया जाता है। जिसका उपयोग खमीर के तौर पर किया जाना बताते है और गर्मी के दिनों में 2-3 दिन, ठण्ड में थोडा ज्यादा समय के लिए रख देते है। तैयार लांदा को 1-2 दिन में उपयोग करना होता है अन्यथा इसमें खट्टापन बढ़ जाता है। बस्तर में दुःख, त्यौहार या कहीं मेहमानी करने जाने पर भी लोग इसे लेकर चलते है।
सल्फ़ी के विषय में बताते हुए चंद्रा मंडावी कहते हैं, वहीं सल्फी पेड़ का रस है, जो ताज़ा निकला मीठा होता है और दिन चड़ने के साथ इसमें भी कडवाहट आती जाती है। इसका उपयोग नशे के लिए तो किया जाता है पर सामाजिक क्रियाकलापों में इसकी भी भूमिका अहम् है।| इन दिनों सल्फी पेड़ की जड़ में एक बेक्टीरिया के संक्रमण के कारण सल्फी के पेड़ मर रहे है, जिस पर हमारे बस्तर के वैज्ञानिक शोध कर रहे है और जहाँ तक रोकथाम के उपाय भी खोज लिये गये है।
भाई चंद्रा मंडावी लांदा बनाने की रेसीपी और तरीका बताते हुए कहते हैं, लांदा बनाने के लिये चावल को पीस कर उसके आटे को भाप में पकाया जाता है, इसे पकाने के लिए चूल्हे के ऊपर मिटटी की हांड़ी रखी जाती है जिस पर पानी भरा होता है और हांड़ी के ऊपर टुकना जिस पर चावल का आटा होता है। इसे अच्छी तरह भाप में पकाया जाता है, फिर उसे ठंडा किया जाता है।
इसके पश्चात एक अन्य हंडी में पानी आवश्यकता अनुसार लेकर उसमे पके आटे को डाल देते है, साथ ही हंडी में अंकुरित किये मक्का (जोंधरा) के दाने, जिसे अंकुरित करने के लिये ग्रामीण रेत का उपयोग करते है। भुट्टे के अंकुरण के पश्चात उसे भी धुप में सूखा कर उसका भी पावडर बनाया जाता है। लेकिन इसे जांता (ग्रामीण चक्की) में पिसा जाना उपयुक्त माना जाता है। फिर इसे भी कुछ मात्रा में चावल वाले हंडी में डाल दिया जाता है। जिसका उपयोग खमीर के तौर पर किया जाना बताते है और गर्मी के दिनों में 2-3 दिन, ठण्ड में थोडा ज्यादा समय के लिए रख देते है। तैयार लांदा को 1-2 दिन में उपयोग करना होता है अन्यथा इसमें खट्टापन बढ़ जाता है। बस्तर में दुःख, त्यौहार या कहीं मेहमानी करने जाने पर भी लोग इसे लेकर चलते है।
सल्फ़ी के विषय में बताते हुए चंद्रा मंडावी कहते हैं, वहीं सल्फी पेड़ का रस है, जो ताज़ा निकला मीठा होता है और दिन चड़ने के साथ इसमें भी कडवाहट आती जाती है। इसका उपयोग नशे के लिए तो किया जाता है पर सामाजिक क्रियाकलापों में इसकी भी भूमिका अहम् है।| इन दिनों सल्फी पेड़ की जड़ में एक बेक्टीरिया के संक्रमण के कारण सल्फी के पेड़ मर रहे है, जिस पर हमारे बस्तर के वैज्ञानिक शोध कर रहे है और जहाँ तक रोकथाम के उपाय भी खोज लिये गये है।