मंगलवार, 17 नवंबर 2009

वो अंधेरी रात और भयानक सुनसान गलियाँ

आज  मौसम  बड़ा  ख़राब है, रात  से  ही  लगातार  बारिश  हो  रही  है. ठंड बढ़ गई और विद्युत् व्यवस्था भी चरमराई हुई है. दिन कम से कम बीस बार तो लाइट  बंद हो जाती है, आज सुबह से ही भांग की चर्चा चल गयी तो एक अनुभव आपके साथ बांटता हूँ.  

हम सब मित्र साल में एक बार भारत में कहीं भी कार्यक्रम बना कर घूमने जाते हैं सावन के महीने में तथा इस यात्रा का समापन वैद्यनाथ धाम में होता है. 

एक बार हम बनारस पहुंचे, यहाँ सावन के पहले सोमवार को बाबा को जल चढ़ा कर आगे की यात्रा करेंगे. हम सब डॉ. श्रीधर, उमाशंकर, सत्तू महाराज, निनी भैया, देवीशंकर, बब्लू, रवि, कमलेश इत्यादि 14 लोग थे. 

रात की आरती में हम बाबा के दर्शन करने पहुंचे. वहां पर आरती की, उसके बाद वहीं मदिर के अन्दर बैठ गए. सत्तू महाराज बोले मैं असली प्रसाद लेके आता हूँ. 

थोड़ी देर बाद एक भंग का गोला लेकर आ गये. पुजारी उनकी पहचान का था इसलिए थोडा बड़ा ही दे दिया था.सत्तू भैया ने सबको भंग प्रसाद बांटा, सबने ग्रहण किया, 

उसके बाद हम गंगा किनारे के एक होटल में खाना खाने लगे. जैसे ही मैंने दूसरी रोटी खानी चालू की ही थी कि मुझे लगा कि अब नशा होने लग गया है. भंग चढ़ने लगी थी. 

खाना खाने के बाद एक पान ठेले पर पान खाने के लिए रुके. तो डाक्टर ने पूछा"क्या महाराज पान लोगे" मैंने कहा जरुर लेंगे. अब डाक्टर और मेरे बीच बात होने लगी वो कहता कुछ था और मैं समझता कुछ था 

जवाब मुंह से कुछ निकलता था. देखता हूँ कि जितने लोग थे सब भंग के नशे में झम्म हो चुके थे. हम पुराने बनारस में घाट के पास कचौड़ी लाल धर्म शाला में रुके थे. उस धर्मशाला में जाने के लिए इतनी पतली गली है कि एक मोटर सायकिल भी नहीं जा सकती. 

हम पैदल-पैदल धर्मशाला चल पड़े, कमलेश बार-बार एक ही बात बोलता था, जब उसको कोई अंग्रेज दिखाता था तो "अंकल इस अंग्रेज से बात करो, उसका मीटर यहीं पर अटका हुआ था. मेरे बोलती बंद हो गई थी. 

किसी से कोई भी बात करने का मन नहीं करता था. अगर कोई बोलता था तो लगता था कि ये क्यों बात कर रहा है. ऐसे झुंझलाहट चढ़ी हुयी थी.रात क १२ बज रहे थे. पूरी गली सुनसान, ऐसा लगाता था जैसे कोई हारर फिल्म का सीन है. 

रात को मुझे ये गलियां बड़ी भयानक लग रही थी.हम धर्मशाला तक पहुंचे तो उसका दरवाजा बंद था. कोई खोलने को तैयार नहीं. 

हम लोगों ने बहुत आवाज दी, लेकिन मैनेजर शायद हम लोगों की परीक्षा ले रहा था. उमाशंकर थोडा कम बोलता था. लेकिन उसकी आवाज पूरी खुल गई थी, वही दादा भैया करके मैनेजर को जगाने में लगा हुआ था.

 लेकिन वो उठ ही नही रही रहा. इस तरह हम एक घंटा चिल्लाते रहे उसके बाद उसने दरवाजा खोला. सब उस पर बरस पड़े, तो वो बोला हमारी धर्मशाला का बंद होने का समय ११ बजे है. इसके बाद हम नहीं खोलते, 

मुझे लग रहा था कि जहाँ पर भी जगह मिले वहीं पर सो जाऊँ, सुबह हमें सारनाथ जाना था. हम अपने कमरे में जाकर लेटे, लेटते ही मेरा बिस्तर घुमने लग गया. आँख बंद करता था तो सर घूमता था. बोलती बंद हो गयी थी,

रवि बगल में सोकर मेरे से मजाक करता था कि मैं कुछ बोलूँगा, लेकिन बोलने को मुंह ही नहीं खुल रहा था. उस दिन मुझे "उन्माद" शब्द से सही परिचय हुआ, 

इस शब्द को हमने लिखा पढ़ा, लेकिन उन्माद क्या होता है, इससे साक्षात्कार पहली बार हुआ. मैं सोचता रहा कि ये भंग नहीं उतरेगी तो क्या होगा? 

पता नहीं कब कैसे कितने बजे नीद आई. सुबह हमारी ऑंखें खुली तो नौ बज रहे थे. सारनाथ जाने वाली गाड़ी छुट चुकी थी. हम सोते रह गये. अब सर का चक्कर उतार चूका था. 

हमने सोचा कि अब क्या करेंगे चलो एक बार बाबा विश्वनाथ के फिर दर्शन हो जाएँ. जब हम चार घंटे की लाइन में लग कर मंदिर में पहुंचे तो मैंने पुजारी से पूछा-

महाराज  यहाँ भंग में धतुरा भी मिलाते हो क्या? तो महाराज ने कहा -हाँ! बिना धतुरा के यहाँ तो भंग घोटी ही नहीं जाती. 

तब मेरी समझ में आया कि ये उन्माद भांग का नहीं धतूरे का था.उसके बाद से आज पहली बार मैंने इस खतरनाक चीज का नाम लिया है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. भैया हब जब उज्जैन मे पढते थे वहाँ देखते थे कि भांग का प्रचलन बहुत आम है .. यह किस्सा पढ़कर मज़ा आ गया । एक दो बार हमारे साथ भी ऐसा ही हुआ तब से कान पकड़ लिये ।

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  2. हा..हा.. भंग का नशा बड़ा अजीब होता है !! सचमुछ ऐसा ही लगता है की अब ये कभी नहीं उतरेगी और तालू में से हवा सी चलती हुई मश्तिश में पहुँचती है ! लगता है तालू में कोई नया दरवाजा खुला है! और ऐसा भी लगता है की शायद इनको मेरी बैटन से पता चल रहा है ! अक्सर भांग से रोना या हंसना आता है आपको क्या आया!!!

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