बुधवार, 4 नवंबर 2009

अघोरी तांत्रिक से ठगाकर गंवाए रुपए

हम "टोनही" चर्चा पर आगे चलते हैं.अभी हमारी चर्चा पहले कारण वहम और भय पर चल रही थी जिस पर पत्रिकियाए आई. और उनसे हमारा भी उत्साह बढा और यह चर्चा अब अपना मुकम्मल रूप लेती जा रही है.मैंने तो इसका प्रारंभ मात्र एक पोस्ट से ही किया था लेकिन पाठकों को जिज्ञासा और प्रतिक्रियाओं को देखते हुए इसके सभी पहलुओं पर विचार करना आवश्यक हो गया है. 

पी.सी.गोदियाल ने कहा… हा-हा-हा... दोनों रोचक किस्से ! सच में इस डर का कोई इलाज नहीं !!

संगीता पुरी ने कहा… हमारी मन:स्थिति हमारे शरीर के एक एक सेल को प्रभावित करती है .. आपका सारा काम मनोनुकूल होता रहे .. तो आपका स्‍वास्‍थ्‍य बिल्‍कुल सामान्‍य रहेगा .. जबकि आपके काम में अडचनें आनी शुरू हो जाएं .. तो आपका स्‍वास्‍थ्‍य बिगडने लगेगा .. भय या तनाव हमारे शरीर में किसी भी स्थिति को जन्‍म दे सकते हैं .. और अचानक शरीर में उत्‍पन्‍न परिस्थिति के लिए हम किसी भूत या आत्‍मा को जिम्‍मेदार समझ लेते हैं !!

Murari Pareek ने कहा… हा..हा..हा.. मरा सांप भी डस गया !!! और खुद ही भुत बन कर खुद को ही दारा लिया दरअसल ऐसे भुत ही होते है !!! ललितजी शानदार !!!

अब हम इसके दूसरे कारण की ओर चलते हैं जो पाठकों ने ही अपनी टिप्पणियों के माध्यम से प्रकट किया है. वह है तांत्रिको की रोजी रोटी। 

.तांत्रिक, बैगा, सयाना, शेवडा, इत्यादि नामो से जाने जाना वाला व्यक्ति आपको पुरे भारत में मिल जायेगा, इनका रोजगार भयदोहन ही है. अज्ञात के प्रति भय बनाये रखो और झाड़ फूंक के नाम पर अपनी दुकान चमकाए रखो. 

मैं एक सत्य घटना की ओर ले चलता हूँ. जो मेरे साथ घटी. आप आंकलन करना उस समय मेरी मानसिक स्थिति क्या रही होगी? बात उन दिनों की है. मैं जब कोलेज में अध्यनरत था. मेरी दोस्ती हमेशा अपने से १०-१५ वर्ष बड़े लोगो से ही रही है. एक मेरे मित्र फिजिक्स-केमेस्ट्री के लेक्चरार हैं. हम लोग रोज मिलते थे और हमारी बैठक में शतरंज खेलते थे, 

काम के दिनों में शाम को और छुट्टियों में दोपहर में भी बैठ जाते थे. मेरे पिताजी की मृत्यु हुए ४-५ महीने ही हुए थे. और हम हमेशा दिन रात अचानक घटी इस दुर्घटना के विषय में ही सोचा करते थे. पूरा परिवार सदमे में था. 

एक दिन दोपहर में मैं और गुरूजी दोनों बैठक में शतरंज में मशगुल थे, दोनों के मोहरों में घमासान युद्ध मचा हुआ था. 

अचानक आवाज आई- "अलख निरंजन" हमने सर उठा के देखा तो एक नंग -धड़ंग अघोरी था, उसकी वेश बड़ा डरावना था गले में खोपडी की हड्डी लटकी हुई थी. पूरे शरीर पर भस्म मली हुई थी. आँखें एकदम लाल जलती हुई. और एक कमंडल चिमटा उसके पास था. 

मैंने कहा "क्या सेवा है बाबाजी?' 

ऐसा सुनते ही वो मेरे उपर जोर से बरस पड़ा "तू क्या सेवा करेगा मेरी" 

मैं बोला "कुछ चाय पानी नाश्ता" 

वो बोला "जो मै खाता हूँ वो तू नहीं खिला सकता-मैं गू खाता हूँ, सडा हुआ मांस खाता हूँ. दारू पीता हूँ.खून पीता हूँ बोल' 

मैं चुप हो गया। एक बार तो डर लगा, फिर गुरूजी की तरफ देख कर आश्वस्त हुआ कि मैं अकेला नहीं हूँ, गुरूजी भी साथ में है। मैंने सुन रखा था अघोरी बड़े बदमाश होते हैं, इनके मुँह नही लगना चाहिए. फिर वो सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया और चाय पिलाने के लिए कहा. मैने चाय मंगवाई। 

उसने कहा कि मैं चाय पीने के बाद तुम्हारे से एक प्रश्न करूँगा उसका जवाब देना. मैंने कहा ठीक है।. 

चाय पीते ही वह बोला -'बोल क्या मांगता है?" 

मैं सोच में पड़ गया कि आज तक तो मुझे मांगने वाले ही मिले आज देने वाला आया है. मैं अभिभूत हो गया कि क्या मांगू. मेरा दिमाग इस पर तुरंत चलने लगा कई चित्र उभरने लगे, मेरे पास क्या नहीं है? जो इससे मांगू, जो नहीं है क्या यह दे सकता है? 

मैंने काफी सोच समझ के जवाब दिया - "जो आप दे सको" 

उसने कहा ' आ, ले." 

मुझे अपने पास बुलाया. और हथेली आगे करने कहा, मैंने जैसे ही हथेली आगे की, उसने चिमटे को नीचे किया उसकी नोक से दूध जैसी कोई धार जो मेरी हथेली पे गिरी, उसने कहा पी जा और मैंने पी लिया

उसके बाद उसने बीडी का एक टुकडा मुह से तोडा' बोला इसका ताबीज बना ले और मंगलवार को पूजा करके पहन लेना, तेरे सभी कष्ट दूर हो जायेंगे. 

इसके बाद गुरूजी को बुलाया उसके बाल पकड़ कर खींचे और उससे भभूत निकली। उसने भभूत गिराते हुए कहा- तुने बहुत पाप किये हैं, ये देख तेरे पाप उतार रहा हूँ।  उसके बाद वैसे ही चिमटे से दूध निकालकर गुरूजी को भी दिया. 

वह बोला "एक चीज मैं मांगू वो दोगे?" तब तक हम उसके प्रभाव में आ चुके थे. 

मैंने कहा बोलो? उसने कहा तुम्हारे से मुझे "पॉँच किलो काली मिर्च" चाहिए. 

मैंने कहा ठीक है अभी ला देता हूँ और गुरूजी से लंगोटी के लिए एक छोटा सा काला कपडा माँगा. अब देखिये क्या हो रहा है? मैंने कभी किराने का सामान नही खरीदा था। मुझे किसी चीज का भाव पता नहीं था. मैंने अपने इनफिल्ड उठाई और काली मिर्च लेने चला गया, दादी ने मुझे १७०० रूपये दे रखे थे किसी काम के लिए. गुरूजी लंगोटी लेने चला गया. 

हम दोनों उसे बैठक में अकेला छोड़ कर दुकानों की तरफ उसका सामान लेने चले गए, 

मैं दुकान में पंहुचा और दुकानदार को बोला कि मुझे पॉँच किलो काली मिर्च दे जल्दी से। . 

तो वो बोला "क्या करोगे महाराज" 

मैंने उसे कुछ नहीं बताया. तो वो बोला पुरे गांव में ५ किलो काली मिर्च नही मिलेगी. मैंने कहा जितनी है उतनी ही दे-दे। इसके पास सवा किलो ही निकली. भाव पूछा तो १८० रूपये किलो. मेरी तो बत्ती हरी हो गयी कि 

"इतनी महँगी है काली मिर्च" मैंने कभी सामान ख़रीदा ही नहीं था, सब नौकर लाते थे, इसलिए मुझे किसी सामान का भाव पता नही था। सोचा कि ज्यादा से ज्यादा ४०-५० रूपये किलो होगी. फिर दूसरी दुकान में गया वहां २५० रूपये किलो, तीसरी दुकान में २२० रूपये किलो ऐसे करके मुझे कुल साढ़े तीन किलो काली मिर्च ही मिली. मैं लेकर वापस आया तो वह बाबा वहीँ बैठा था, 

गुरूजी लंगोटी का काला कपडा लाकर उसके पास बैठा था. मैंने उसको बताया कि इतनी काली मिर्च मिली है पूरी दुकानों में. 

उसने कहा कि बाकी का रूपये नगद दे-दे मैं कहीं से और खरीद लुंगा, 

मैंने उसे साढ़े तीन सौ रूपये और दिए. वो लेकर "अलख निरंजन" कहते हुए चल दिया. उसके जाने के बाद हमें होश आया कि हमने क्या किया है? आज तो दिन दहाड़े ही लुट गए. 

मैंने गुरूजी को कहा कि आप तो बड़े थे-और होशियार भी,.आपको ही संभालना था. 

गुरूजी बोले यार सोचने का मौका ही नहीं मिला, उधर मेरे पैसे चले गये थे, हम दिन दहाड़े लुट चुके थे. होशियार कहने वाले लोग मुर्ख बन चुके थे।  

ये घटना हम किसी को बता भी नहीं सकते थे, अगर बताते तो, जग हंसाई होती, लोग बेवकूफ अलग समझे, इ़धर दादी के डंडे की मार का डर अलग बना हुआ था।. 

3 टिप्‍पणियां:

  1. सही लिखा आपने लोग ऐसे ही फंसते है और जगहंसाई से बचने के लिए बात को छुपा जाते है और इन बाबाओं की दुकानदारी चलती रहती है | ऐसे बाबाओं को तो मेरे स्वर्गीय नाना जी सबक सिखाते थे वे ऐसे किसी भी गांव में घूमते हुए साधू को पकड़ लेते और कहते आ एक टांग पर खड़े होकर दोनों तपस्या करते है देखते है हम दोनों में से कौन साधू बना रहता और और कौन बाधू | ये सुनने के बाद कभी कोई साधू उनके पास रुकता ही नहीं था |

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  2. जादू के दो खेल सीखकर इतनी तेजी से ये बाबा लोगों को भयभीत करने वाली दो बातें बोलकर उनपर अपना जादू डाल देते हैं कि .. सचमुच आपको सोंचने का भी मौका नहीं मिलता .. और आप सभी लुट जाते हैं .. जो लुटता है वो बेवकूफ बनने के भय से इस बात की चर्चा भी नहीं करता .. इस कारण समाज में अन्‍य लोग भी लुटते चले जाते हैं .. टेलीवीजन, रेडियो या पत्र पत्रिकाएं भी कारगर तरीके से समाज के लुटेरे इन व्‍यक्तियों को सामने नहीं लाते .. बल्कि इन्‍हें और अच्‍छे ढंग से प्रस्‍तुत किया जाता है .. इसलिए समस्‍याएं सुलझने के बजाय उलझती जा रही है !!

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  3. आशा है इससे सीख लेकर आगे लोग लुटने से बचेंगे।
    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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