गुरुवार, 26 नवंबर 2009

हमारी जासूसी एजेंसियां और स्थानीय मुखबिर तंत्र क्यों फेल हो जाता है?

एक सप्ताह के अवकाश के बाद पुनः ब्लाग पर आज पहुंचा हूँ. आज  26 /11  है, भारत की अस्मिता पर हमले की साल गिरह. 

सभी निज-निज तरह से इस दिन को याद कर रहे हैं. कितनो के माथे से उसका सिंदूर उजड़ा था? कितनो के सर से माँ -बाप का साया उठ गया. 

आतंकी हमले को झेलने वाले लोग आज भी सिहर उठते हैं. एक धुकधुकी सी लग जाती है. सब कुछ असुरक्षित सा हो जाता है. 

बस एक ही चिंता सताती है कि किस जगह पर सर छुपाए, जहाँ जान बच जाये. मैं सोचता हूँ कि आतंक वादियों द्वारा इतने बड़े-बड़े हमले किये जाते हैं फुल प्रूफ प्लानिग के साथ जिसकी भनक तक हमारी एजेंसियों को नही लग पाती. 

बाद में जोर-शोर से लकीर पीटी जाती है. जिसने भी एक नेक शहरी होने का परिचय देकर गवाही दी उसकी शामत आ जाती है. 

उसका क़ानूनी प्रक्रियों के चलते जीना हराम हो जाता है. हमारी जासूसी एजेंसियां और स्थानीय मुखबिर तंत्र क्यों फेल हो जाता है? 

ये एक गंभीर चिंतनीय विषय है. हमारी पुलिस को उसके क्षेत्र में हो रही सभी गतिविधियों की जानकारी रहती है. फिर भी सूचना तंत्र ढह जाता है. 

आवश्यकता है इसे दुरुस्त करने की और सजग रहने की. जिससे भविष्य में आतंकवादी घटनाओं की रोक थाम हो सके. संगठित अपराध पर लगाम लग सके. 

आतंकवादी हमले में शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ. 

6 टिप्‍पणियां:

  1. इस तंत्र को मजबूत करने वाले हाथ ही इसे कमजोर करते हैं। यही तो विडम्बना है

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  2. ललित जी, गुप्तचर तंत्र यदि अपनी रिपोर्ट दे देता है तो उस पर कार्यवाही भी कहाँ होती है?

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  3. निश्चित ही कुछ ठोस कदम उठाने होंगे.

    शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि.

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  4. ललित जी, ख़ुफ़िया तंत्र की मजबूती के लिए समाजों में पैठ बनाने के साथ-साथ सूत्रों और उनके परिवार की हिफाजत और देखभाल करनी पड़ती है. देखने में तो यह मंहगा सौदा मालूम पड़ता है लेकिन इनके द्वारा दी गयी ख़बरों से जो जिंदगियां और जान-ओ-माल बिना ज्यादा खून-खराबे के बचाई जा सकती हैं उसका मुकाबला मंहगे से मंहगा और उच्च तकनीक वाला सुरक्षा तंत्र भी नहीं कर सकता. परन्तु दुःख की बात है कि हमारे यहाँ के अधिकारी सूत्रों को इस्तेमाल कर फेंक देने में विश्वाश रखते हैं साथ ही सुरक्षा तंत्र में ही कई ऐसे लोग हैं जो सूत्रों को दुश्मनों के आगे कर देते हैं. ऐसे में कौन अपनी और अपने परिवार की जिंदगी दाँव पर लगाना चाहेगा जब उसे मालूम होगा कि वह शर्तिया मौत के मुंह में जाने वाला है और बदले में न तो उसे पैसा हासिल होगा और न ही मान सम्मान, उसे नसीब होगी एक गुमनाम और दर्दनाक मौत और उसकी लाश को भी शायद अपने वतन की मिटटी नसीब न हो. बताईये ऐसा हश्र कौन चुनेगा?? फिर २६/११ जैसे हमले किस तरह रुक सकते हैं??

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  5. हम लोग प्रसिद्धी प्रेमी है ..हर योजना को लीक कर देते है सो आतंकवादी उसका लाभ उठाते है अभी नक्सली विरोधी अभियान मे भी यही होने वाला है । आज श्रद्धांजलि स्वरूप मेरी कविता भी देखे ब्लॉग शरद कोकास पर ।

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